झारखण्ड
शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद राँची (झारखण्ड)
द्वितीय सावधिक परीक्षा (2021-2022)
प्रतिदर्श प्रश्न पत्र सेट- 05
कक्षा-12 |
विषय- हिंदी (कोर) |
समय- 1 घंटा 30 मिनट |
पूर्णांक- 40 |
सामान्य
निर्देश:
»
परीक्षार्थी यथासंभव अपनी ही भाषा-शैली में उत्तर दें।
»
इस प्रश्न-पत्र के खंड हैं। सभी खंड के प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है।
»
सभी प्रश्न के लिए निर्धारित अंक उसके सामने उपांत में अंकित है।
»
प्रश्नों के उत्तर उसके साथ दिए निर्देशों के आलोक में ही लिखें ।
खंड
- 'क' (अपठित बोध)
01. निम्नलिखित पद्यांश को पढ़ कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए-
02+02+02= 06
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुंदरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे।
तिमिराचंल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर है दोनों उसके अधर,
किंतु जरा गंभीर, नहीं है उनमें हास-विलास
(क) आसमान से किसके उतरने की बात कही गई है?
उत्तर:
यहाँ आसमान से संध्या सुन्दरी उतरने की बात कही गई है।
(ख) कवि ने संध्या की तुलना किससे की है?
उत्तर:
कवि ने संध्या की तुलना परी अर्थात् स्वर्ग कन्या से की है।
(ग) 'तिमिराचंल में चंचलता का कहीं नहीं आभास का आशय स्पष्ट करें?
उत्तर:
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास का आशय यह है कि रात्रिकला में जीव-जन्तु के
सब क्रियाकलाप बंद होने से शांति छा जाती
अथवा
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़ कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए.
स्वास्थ्य सभी जीवधारियों के आनंदमय जीवन की कुंजी है, क्योंकि स्वास्थ्य
के बिना जीवधारियों की समस्त क्रिया-प्रतिक्रियाएं रुक जाती है, शिथिल हो जाती है।
जीवन को जल भी इसलिए कहा जाता है, जिस प्रकार रुका हुआ जल सड़ जाता है, दुर्गंधयुक्त
हो जाता है, ठीक इसी प्रकार शिथिल और कर्महीन जीवन से स्वास्थ्य खो जाता है। स्वास्थ्य
और खेलकूद का परस्पर गहरा संबंध है। पशु-पक्षी हो या मनुष्य, जो खेलता-कूदता नहीं,
वह उत्फुल्ल और प्रसन्न रह ही नहीं सकता। जब हम खेलते हैं तो हममें नया प्राणावेग,
नई स्फूर्ति और नई चेतना आ जाती है।
(क) जीवन की कुंजी क्या है?
उत्तर:
जीवन की कुंजी स्वास्थ्य है।
(ख) स्वास्थ्य सभी जीवधारियों के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
क्योंकि स्वास्थ्य के बिना जीवधारियों की समस्त क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ रुक जाती हैं,
शिथिल हो जाती हैं। जीवन को जल इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि जीवधारियों की समस्त क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ
इससे संचालित होती हैं। जिस प्रकार रुका हुआ जल सड़कर दुर्गंधयुक्त हो जाता है, ठीक
उसी प्रकार शिथिल और कर्महीन जीवन से स्वास्थ्य खो जाता है।
(ग) कर्म का स्वास्थ्य से क्या संबंध है?
उत्तर:
कर्म की निरंतरता से जीवन का स्वास्थ्य बना रहता है और इसके विपरीत कर्महीन जीवन से
स्वास्थ्य खो जाता है।
खंड
- 'ख' (अभिव्यक्ति और माध्यम)
02. निम्नलिखित में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए - 05+05=10
(क) 'मेरे प्रिय साहित्यकार' अथवा 'विज्ञान: वरदान के रूप में' विषय
पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर: "मेरे प्रिय साहित्यकार"
हमारे
कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिन्दी के उन अग्रपंक्तेय साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने
कहानी और उपन्यास के शैशव काल में ही उसमें एक अप्रतिम
गाम्भीर्य,
जन-चेतना और समाज-चेतना भर दी थी, कि आज भी वह उससे आगे बहुत कम बढ़ सका है । कल्पनाओं
से भरे ऐय्यारी और जासूसी-तिलस्मी उपन्यासों की प्रधानता के बीच पहली बार प्रेमचन्द
जी ने ही समाज में व्याप्त असहनीय कुंठा, नैराश्य एवं समग्रतः उस जन-हाहाकार को कथात्मक
अभिव्यक्ति दी और एक-युग को युग की सारी प्रवृत्तियाँ और तमाम मनोवृत्तियों, मान्यताओं
के साथ परिवर्तित कर डाला। उन्होंने कथा को नया नामकरण, नया संस्कार और नया धरातल ही
नहीं दिया, अपितु उसे एक नयी चिन्तनधारा, एक नयी चेतना-भूमि और नयी सामाजिकता भी दी।
प्रेमचन्द
जी ने कथा, उपन्यास, नाटक, समीक्षा, निबंध आदि सब लिखे, लेकिन कविता की ओर वे कभी उन्मुख
नहीं हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि कविता के ऊपर उनका भरोसा नहीं रहा । कारण कि वे जो
कहना चाहते थे। वह कविता में कह नहीं पाते थे। इस तरह की विवशता हो सकती है, इसलिए
अपनी मानसिकता को जोड़ नहीं पाते थे। जैसा कि उन्होंने स्वीकार किया है- "हमारे
लिए कविता दृढ़ हो जाए, जिससे संसार में नैराश्य छा जाए। वे प्रेम-कहानी जो हमारे मासिक
पत्रों के पृष्ठ में भरी रहती हैं, हमारे लिए अर्थहीन हैं, अगर वे हममें हरकत और गर्मी
पैदा नहीं करती। अगर हमने दो नवयुवकों की प्रेम कहानी कह डाली, पर उससे हमारे सौंदर्य-प्रेम
पर कोई असर नहीं पड़ा और पड़ा भी तो केवल इतना ही कि हम उनकी विरह-व्यथा पर न रोये,
तो इससे हममें कौन-सी मानसिकता व रुचि संबंधी गति पैदा हुई । इन बातों से किसी जमाने
में हमें भावावेश हो जाता रहा हो, पर आज के लिए वे बेकार है। इस भावोत्तेजक कला का
अब जमाना नहीं रहा। अब तो उस कला की आवश्यकता है जिसमें कर्म का संदेश हो।"
प्रेमचन्द
का ऐसा विश्वास था कि साहित्यकार को एक मानदण्ड के अन्तर्गत अपने दायित्व को पूरा करना
चाहिए, जिससे सामाजिक सच को आयाम मिले। इसलिए वे कहते है कि-"साहित्य का शराब-
कबाब और राग-रंग का मुखापेक्षी बना रहना उसे पसन्द नहीं। वह उसे उद्योग और कर्म का
सदेश वाहक बनाने का दावेदार है। उसे भाषा से बहस नहीं है।"
आदर्श
व्यापक होने से भाषा अपने आप सरल हो जाती है। भाव-सौदर्य, बनावट, श्रृंगार से बेपरवाही
दिखा सकता है। "जो साहित्यकार अमीरों का मुँह जोहने वाला है, वह रईसी रचना-शैली
स्वीकार करता है, जो जनसाधारण का है, वह जनसाधारण की भाषा में लिखता है। हमारा उद्देश्य
देश में ऐसा वायुमंडल पैदा कर देना है जिसमें अभीष्ट प्रकार का साहित्य उत्पन्न हो
सके और पनप सके। हम चाहते हैं कि साहित्य केन्द्रों में हमारी परिषदें स्थापित हों
और वहाँ साहित्य की रचनात्मक प्रवृत्तियों पर नियमपूर्वक चर्चा हो, नियम पढ़ें जाएँ,
बहस हो, आलोचना-प्रत्यालोचना हो, तभी वह वायुमंडल तैयार होगा।"
वास्तव
में, प्रेमचन्द जी ने अपने इन आदर्शों का अपनी रचनाओं में भरपूर निर्वाह किया है। लकीर
का फकीर बनकर नहीं, बल्कि सच्चाई के साथ । उनके उपन्यासों, कहानियों, नाटकों आदि में
जो समाज की पीड़ा है-वह यथार्थ के धरातल पर टिकी हुई है। इस कारण सामाजिक संदर्भो के
चित्रण में वे सफल रहे । प्रेमचंद ने कथा-निर्माण की प्रक्रिया में अपने-आपको आहुत
कर दिया । उनको विशेषकर कहानियों में वह आत्मा छिपी हुई है जो समग्र भारतीय का प्रतिनिधित्व
करती है। भारतीय समाज ग्रामीण और नगर के वर्गों को आधार बनाकर उन्होंने उसकी विविध
क्षेत्रीय समस्याओं का समाधान अपनी कृतियों में किया है। जिन आदर्शों को उन्होंने स्वीकृति
दी है, उन्हें व्यवहृत
करने
में भी वे सक्षम थे। लिहाजा इस कारण हिन्दी कथा-साहित्य के प्रथम समस्यामूलक कथाकार
थे।
मुंशी
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 ई० में काशी के निकटवर्ती लमही ग्राम में हुआ था।
उनका बचपन का नाम धनपत राय था। उर्दू में नवाबराय के नाम से वे लिखते थे। उनके पिता
का नाम अजायब राय था और पत्नी का नाम शिवरानी देवी। इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर हुई।
बाद में क्वींस कॉलेज से इन्होंने मैट्रिक पास किया। बचपन में ही माँ और पिता के साये
से वंचित हो गये। इस कारण रोजी-रोटी की चिंता ने उन्हें विवश कर दिया । तदुपरांत ये
मास्टर की नौकरी में चले गये । उर्दू पढ़ने-लिखने के कारण उर्दू-साहित्य में उनकी काफी
दिलचस्पी थी। इसी क्रम में मौलाना शर, पं० रतननाथ सदर, मिर्जा रुसवा एवं मौलवी मुहम्मद
अली आदि का उनपर अत्यधिक प्रभाव पड़ा।
प्रेमचंद
ने हिन्दी कथा-साहित्य को तिलस्मी और ऐय्यासी के घेरे से बाहर निकालकर स्वच्छ सामाजिक
परिवेश में पहुंचा दिया। प्रेमचन्द के कारण ही जो पात्र उपेक्षित, दीन-हीन, दलित-पीड़ित
थे, पहली बार हिन्दी कथा साहित्य में उपस्थित हुए। उनकी कहानियों में पहली बार गाँव
और किसान अपनी सच्ची तस्वीर के साथ उपस्थित हुआ। उन्होंने सामाजिक विवशताओं की ओर ध्यान
दिया तो सामाजिक कुरीतियों पर भी चोट की। उन्होंने अपने साहित्य में शोषण और गरीबों
का भीषण और नान रूप रखा । शोषण का विरोध करना और सामाजिक सुधार उनके साहित्य का एकमात्र
उद्देश्य था । यही कारण है कि महाजनी सभ्यता पर, सूद-व्यापार पर उन्होंने कड़ा प्रहार
किया है। किसी ने उनसे पूछा था कि आपके साहित्य का उद्देश्य क्या है? तो उन्होंने उत्तर
दिया- 'गरीबी की दुश्मनी' ।
प्रेमचन्द
यथार्थ चित्रण मात्र को पर्याप्त नहीं मानते थे। वह समाज को हीन दशा से निकालकर समृद्ध
दिशा की ओर उन्मुख करना चाहते थे । वस्तुतः वह मानवता को सर्वोपरि स्थान देते थे। वह
ध्वंस के नहीं, निर्माण के साहित्यकार थे। सम्भवतः इसी कारण वह आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
के संस्थापक थे। वह साहित्य को मात्र जीवन का मनोरंजन नहीं अपितु आलोचना भी मानते थे।
इसी कारण वह 'कला, कला के लिए' सिद्धांत के विरोधी थे। और यथार्थवाद के साथ-साथ आदर्शवादी
भी थे। उनकी रचनाओं में यथार्थवाद और आदर्शवाद का समन्वय साफ दिखायी पड़ता है।
प्रेमचन्द
ने अपने कथा-साहित्य में जीवन के विभिन्न दृश्यों का चित्रण किया है, साथ ही समाधान
भी दूंदा है । दहेज प्रथा स्त्रियों में आभूषण प्रेप, विधवा-विवाह, वेश्यावृत्ति, साम्प्रदायिकता,
शोषण, जमींदारों और किसानों का संघर्ष, मालिक-मजदूर संघर्ष, वर्ग-संघर्ष, दीनता-भुखमरी,
विवशता, पारिवारिक कलह आदि सामाजिक कुप्रवृत्तियों के चित्रण के साथ प्रेमचन्द ने राष्ट्रीय
स्वतंत्रता आंदोलन का भी चित्रण किया है तथा समस्याओं के प्रति समाधान ढूँढ़ने में
भी अग्रसर हुए हैं।
प्रारंभ
में प्रेमचन्द गाँधीवादी थे किन्तु बाद में मार्क्सवादी हो गये । शोषण के खिलाफ वर्ग-संघर्ष
का स्थान अपने साहित्य में प्रमुखता के साथ किया । 'ईदगाह' जैसी कहानी में जहाँ गरीबों
की मार्मिकता है, वहाँ कफन में नग्न यथार्थ का 'आक्रोश वर्ग-संघर्ष को आमंत्रित करता
हुआ' प्रतीत होता है। उनके अन्तिम उपन्यास 'गोदान' में वर्ग-संघर्ष पूर्णरूप से उभरकर
आया है।
प्रेमचन्द
की भाषा और शैली की विशेषता है कि उनकी कहानियों को पढ़ते समय ऐसा अनुभव होता है कि
यह घटना देखी हुई है। उनकी भाषा भाव को वहन करने में पूर्णतः समर्थ है। सरल सहज भाषा
में उन्होंने यथार्थ को उद्घाटित कर दिया है। यह उनकी समर्थ एवं सक्षम भाषा का परिचायक
है। उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं के कारण इनकी भाषा में लालित्य आ गया है। इसी पर इनकी
निजता की छाप है । मुहावरेदार भाषा लिखने में प्रेमचन्द माहिर थे। इसलिए वे अपनी शैली
के निर्माता स्वयं हैं । भाव और भाषा के इसी यथार्थमय समन्वय के कारण प्रेमचन्द का
साहित्य जीवंत है। आज भी प्रेमचन्द जबकि हिन्दी कथा-साहित्य की यात्रा बड़ी लम्बी हो
गयी है, दूर से उच्च शिखर पर विराजमान दिखाई पड़ते हैं। 'पूस की रात', 'कफन', 'ईदगाह',
'बड़े घर की बेटी', 'पंच परमेश्वर', 'काकी' आदि इनकी कहानियाँ तथा रंगभूमि', 'कर्मभूमि',
"प्रेमाश्रय', 'सेवासदन', 'गोदान' आदि उनके उपन्यास हिन्दी कथा-साहित्य की अमर
निधि हैं और प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य के अमर कथाकार हैं।
"विज्ञान : वरदान के रूप में"
आज
विज्ञान के महत्त्व को, उसकी उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है। चाहे वह घर का रसोईघर
हो या अन्य स्थान, विज्ञान के चमत्कार तथा प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं।
प्रकृति पर विज्ञान की विजय-यह एक किंवदंती नहीं, एक प्रत्यक्ष सत्य है। चन्द्रमा पर
मनुष्य का अभियान, ट्यूब बेबी, रॉकेट, अणुबम आदि विज्ञान की उत्कृष्ट देन हैं। सैकड़ों-
हजारों मील लम्बी दूरियाँ भी मनुष्य पैदल ही तय करता था। आज वायुयान के सहारे हम कुछ
ही घंटों में भारत से लंदन पहुंच जाते हैं। कभी चन्द्रमा यात्रा की बात कोरी, कल्पना
समझी जाती थी. परन्तु जब कुछ मानव चन्द्रमा की सतह पर पहली बार उतरे तो सम्पूर्ण विश्व
दांतों तले ऊँगलियाँ दबाकर रह गया । आज जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है जहाँ विज्ञान
की किरणें नहीं पहुँची हों।
विज्ञान
हमारे लिए वरदान सिद्ध हुआ है। इसकी उपयोगिता जीवन के हर क्षेत्र में सिद्ध है। क्षण-क्षण,
पल-पल हम विज्ञान के चमत्कारों का नजारा देखते हैं, संबंधित कहानियाँ सुनते हैं। कुछ
महत्वपूर्ण उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त करके हम उसके महत्त्व की उपादेयता का सहज अनुभव
कर सकते हैं। विज्ञान के अद्भुत चमत्कारों ने एक नयी क्रांति पैदा कर दी है, एक नया
अध्याय जोड़ दिया है।
आवागमन
के क्षेत्र में विज्ञान की उपलब्धियाँ विशिष्ट एवं विलक्षण हैं आज से सैकड़ों वर्ष
पूर्व एक जगह से दूसरी जगह जाना गहन समस्या थी।
आज
विज्ञान के कारण इस क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। रेलगाड़ियाँ, मोटरकार,
बसें, वायुयान आदि इतनी तेज सवारियाँ निकल आयो हैं कि बातों ही बातों में हम लम्बी
दूरियाँ तय कर लेते हैं। तार, टेलीफोन, वायरलेस, सांस्कृतिक विविधता, पहनावा एवं रहन-सहन
आदि की विविधता आदि सुविधाओं से संबद्ध यंत्रों के आविष्कार के कारण हम घर बैठे मुम्बई,
कोलकाता, लंदन में रहनेवाले लोगों से बातें कर लेते हैं। नदी, समुद्र, पहाड़ आज हमारे
आवागमन के मार्ग में किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकते।
चिकित्सा
के क्षेत्र में विज्ञान की उपलब्धियों ने संजीवनी बूटी का काम किया है। पुराने जमाने
में छोटी-छोटी बीमारी के कारण लोगों की मृत्यु हो जाती थी।
आज
शायद ही ऐसा कोई रोग है, जिसकी दवा सुलभ नहीं, जिसका निदान संभव नहीं है। क्या यह विलक्षण
चमत्कार नहीं है कि विश्व से चेचक, प्लेग, मलेरिया आदि रोगों का उन्मूलन हो गया। आज
बड़े-बड़े असाध्य रोगों की भी अच्छी एवं प्रभावकारी औषधियाँ निकल रही है। दिन-प्रतिदिन
नये-नये प्रयोग हो रहे हैं, नये-नये उपकरण एवं नयी-नयी जीवनरक्षक औषधियाँ निकल रही
है। मनुष्य का हृदय विकृत या क्षतिग्रस्त हो जाने पर उसे बदल दिया जा सकता है और मनुष्य
को नयी जिंदगी दी जा सकती है ? अंधे को आँखों की रोशनी, विकलांगों के विकृत अंगों में
सुधार, दिल और दिमाग में परिवर्तन वैज्ञानिक चमत्कारों की ही देन हैं।
आवागमन
या चिकित्सा ही नहीं, प्रायः सभी क्षेत्रों में विज्ञान की बड़ी-बड़ी उपलब्धियों सामने
आयी हैं। चन्द्रमा पर मानव की विजय से लेकर पाकशालाओं एवं शयनकक्षों में आराम एवं सुख-सुविधाओं
की सारी चीजों की व्यवस्था विज्ञान के ही चमत्कार हैं । रेडियो, सिनेमा, टेलिविजन,
वीडियो आदि सारी-की-सारी चीजें विज्ञान की ही देन हैं। कम्प्यूटर ने एक नये युग की
शुरूआत की है।
विज्ञान
एक वरदान भी है और एक अभिशाप भी। विज्ञान अपने-आप में न तो अभिशाप है और न वरदान ।
विज्ञान का वरदान होना या अभिशाप होना वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों पर निर्भर करता
है। सबसे मूल बात यह है कि हम इसका प्रयोग किस प्रकार तथा किसलिए करते हैं।
यदि
हम विज्ञान का प्रयोग मानव-कल्याण के लिए करते हैं तो यह हमारे लिए सबसे बड़ा वरदान
है और यदि हम इसका प्रयोग नर-संहार के लिए करते हैं तो यह मानव-जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप
है।
(ख) अपने गाँव में कोरोना जाँच कैंप लगवाने हेतु संबंधित अधिकारी को
एक पत्र लिखिए।
उत्तर:
सेवा में,
स्वास्थ्य पदाधिकारी, बोकारो
विषय
: कोरोना जाँच कैंप हेतू।
महोदय,
सविनय निवेदन यह है कि मेरा गाँव बोकारो
जिले के अति सुदूर क्षेत्र में अवस्थित है। यहाँ हर घर में कोरोना के लक्षण वाले मरीज
मिल रहे हैं किन्तु जाँच के अभाव में साबित नहीं होता है कि वह मरीज कोरोना संक्रमित
है या नहीं। वे लोग गाँव में घूमते हुए नजर आते हैं इससे आशंका बनी रहती है कि पूरा
गाँव कहीं कोरोना संक्रमित नहीं हो जाए।
अत:
आपसे अनुरोध है कि यथाशीघ्र इस गाँव में कोरोना जाँच की शिविर लगाया जाए ताकि अधिक-से-अधिक
लोगों की जाँच हो सके और कोरोना संक्रमण के दर को रोका जा सके।
सधन्यवाद। भवदीय
दिनांक:
21 फरवरी, 2022 रमेश
(ग) समाचार-लेखन के लिए आवश्यक तत्वों का वर्णन करें।
उत्तर:
समाचार के प्रमुख तत्त्वों में नवीनता, निकटता, प्रभाव, जनरूचि, टकराव, महत्त्वपूर्ण
लोग, उपयोगी जानकारियाँ, विलक्षणता, पाठकवर्ग और नीतिगत ढाँचा शामिल हैं। किसी घटना,
विचार और समस्या के समाचार बनने की संभावना तब और बढ़ जाती है जब उपर्युक्त तत्त्वों
में से कुछ या सभी तत्त्व शामिल हों।
(i)
नवीनता : किसी घटना, विचार और समस्या का समाचार बनने के लिए यह आवश्यक
है कि वह नया और ताजा हो। समाचार के संदर्भ में नवीनता का अभिप्राय उसका सम-सामयिक
अथवा समयानुकूल होना जरूरी
(ii)
निकटता : यह सामान्य सी बात है कि सबसे निकट के लोग, वस्तु या घटना
से ही, मनुष्य का विशेष लगाव होता है, अथवा उसमें उसकी रूचि होती है। निकटता के संदर्भ
में यह भी उल्लेखनीय है कि समाचार के लिए केवल भौगोलिक निकटता ही महत्त्व की नहीं है
बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक निकटता का संबंध भी महत्त्वपूर्ण होता है।
(iii)
प्रभाव : किसी धाटना से जितने ही अधिक लोग प्रभावित होंगे, उससे उसके
समाचार बनने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
(iv)
जनरूचि : कोई घटना तभी समाचार बनता है जब पाठकों/दर्शका या श्रोताओं
का एक बहुत बड़ा समूह उसके बारे में जानने में रूचि रखता है। यह जनरूचि समाचार का एक
ऐसा तत्त्व है जिसको लक्ष्य में रखकर ही का समाचारपत्र किसी घटना-विशेष को समाचार बनाकर
अपने समाचार पत्र छापते हैं।
(v)
पाठक वर्ग: साधारणतया प्रत्येक समाचार संगठन, दूरदर्शन चैनल या रेडियो
आदि के एक खास वर्ग के पाठक/दर्शक और श्रोता होते हैं। समाचार माध्यम समाचारों का चयन
करते समय अपने पाठकों/दर्शकों और श्रोताओं का रूचियों का खास ख्याल रखते हैं।
(घ) समाचार पत्र के कार्य को कितने और कौन-कौन से भागों में बाँटा जा
सकता है?
उत्तर:
अच्छे समाचार पत्र के गुण-एक अच्छे समाचार में निम्नलिखित गुण होने चाहिए-
सत्यता
: 'समाचार' के छपने से. पूर्व और पश्चात् में बहुत बड़ा अंतर होता है। छपने से पहले
समाचार एक अफवाह होता है, जिसमें विश्वसनीयता नहीं होती, न ही उसके लिए कोई व्यक्ति
जिम्मेदार होता है। समाचार-पत्र में छपते ही समाचार विश्वसनीय हो जाता है। लोग मुद्रित
शब्दों पर पूरा विश्वास करते हैं। उसका जगह-जगह हवाला देते हैं। उससमाचार के लिए समाचार-पत्र
के स्वामी या संपादक जिम्मेदार भी होते हैं। अत: समाचार में सच्चाई को होना बहुत जरूरी
है।
सच्चाई
का अर्थ है-किसी घटना को ज्यों का त्यों लिखना। उसमें कोई हेर-फेर या काट-छाँट न करना।
न किसी तथ्य को छिपाना और न ही अपनी
ओर
से बढ़ाना। समाचारों में कल्पना या भावना का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
सत्यता
और कठोरता में चोली-दामन का संबंध होता है। परनतु समाचार में यह ध्यान रखा जाना चाहिए
कि वह अप्रिय न हो। बिना सत्य के छिपाए उसकी कटुता को यथा संभव कम करना समाचार-संपादक
का कर्तव्य है।
स्पष्टता
: समाचार स्पष्ट होना चाहिए। उसकी भाषा एकदम साफ होनी चाहिए। वाक्य भी छोटे-छोटे तथा
प्रभावी होने चाहिए। स्पष्टता का एक आयाम यह भी है कि पूरे समाचार में एक संगति होनी
चाहिए। सभी तथ्य परस्पर पूरक होने चाहिए। कोई घटना कब हुई, कहाँ हुई, कैसे हुई, क्यों
हुई, उसमें कौन-कौन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्मिलित हुए-ये सभी तथ्य होने चाहिए।
तब पाठक को समाचार पढ़कर संतुष्टि मिलती है।
सुरुचि-समाचार
सुरुचिपूर्ण होना चाहिए। सुरुचि के दो आयाम हैं-
(i)
पाठकों के लिए उपयोगी होना।
(ii)
प्रस्तुतीकरण की मनोहरता ।
जो
समाचार अधिकांश लोगों के लिए उपयोगी होते हैं, वे अधिक आकर्षक और सुरुचिपूर्ण होते
हैं। उनका विषय ही पाठकों को आकर्षित करता है। सामान्यतः स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा,
फिल्म, नेता-अभिनेता आदि से संबंधित समाचार सबके लिए आकर्षक होते हैं।
समाचार
प्रस्तु करने की शैली एक रोचक कथा जैसी होनी चाहिए। समाचार का संयोजन इस प्रकार होना
चाहिए कि उसका पहा अनुच्छेद चुंबक की भाँति पाठक को अपनी ओर खींच लें तथा आगे का विवरण
पढ़ने के लिए बाध्य कर दे। यदि किसी समाचार में कोई घटना हुई तो वह गड्डमगड्ड नहीं
होनी चाहिए। उसमें सुव्यवस्था होनी चाहिए।
संक्षिप्तता
: समाचार यथासौीव संक्षिप्त होना चाहिए। संक्षिपता की विरोधी बातें निम्नलिखित हैं-
किसी
बात को बार-बार दोहराना।
अनावश्यक
घटनाएँ या टिप्पणियाँ देना।
भाषा
में मुहावरों, प्रतीकों या अलंकरण का प्रयोग करना। समाचार की भाषा लक्ष्यबद्ध. सधी
हुई, सटीक तथा तथ्यात्मक होनी चाहिए। उनमें एक अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग होना चाहिए।
शीर्षक:
समाचार के शीर्षक में निम्नलिखित बातें होनी चाहिए-
(i)
शीर्षक संक्षिप्त होना चाहिए। एक आदर्श शीर्षक में तीन से पाँच शब् होने चाहिए। जैसे-
भारत
जीता
भारत
ने वेस्टइंडीज को रौंदा
पटरी
से उतरी रेल
जामा
मस्जिद में विस्फोट
(i)
शीर्षक देखते ही अपनी ओर खींचने वाला होना चाहिए।
(ii)
शीर्षक सारगर्मित होना चाहिए अर्थात् पूरे समाचार का सारांश उसमें केन्द्रित होना चाहिए।
खंड
- 'ग' (पाठ्यपुस्तक)
03. निम्नलिखित में से किसी एक का काव्य-सौंदर्य लिखिए- 05
(क) जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार
हाड़-मात्र ही है आधार
ऐ जीवन के पारावार!
उत्तर:
कविता के इस अंश में कवि ने कृषकों की दयनीय स्थिति एवं पीड़ा का चित्रण करते हुए बादल
रूपी क्रांतिवीर का आह्वान किया है। चूंकि किसानों का जीवन बादल पर निर्भर होता है,
इसलिए अपनी कमजोर बाँहों तथा दुर्बल शरीर से ये अधीर किसान बादल को आमंत्रित करते हैं
। पूँजीपतियों के शोषण से वे हड्डियों का ढाँचा मात्र रहे गये हैं, उनके शोषण ने किसानों
के जीवन का सारा रस चूस लिया है, उन्हें प्राणहीन बना दिया है। ऐसे में उनके जीवन में
खुशियों का सागर बादल ही ला सकता है। इसीलिए कवि बादल के रूप में क्रांति की कामना
करता हैं ताकि किसानों जैसे आम आदमियों के जीवन से शोषण-चक्र समाप्त हो और उन्हें नया
जीवन मिले।
(ख) जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।
उत्तर:
इन पंक्तियों में राम के विलाप का मानवोचित वर्णन बहुत स्वाभाविक है। भाषा अच्छी है।
छंद-चौपाई है। रस करुण है। अनुप्रास अलंकार है।
04. निम्नलिखित में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए - 03+03= 06
(क) 'अस्थिर सुख पर दुख की छाया पंक्ति में 'दुख की छाया किसे कहा गया
है और क्यों?
उत्तर:
'अस्थिर सुख पर दुःख की छाया' पंक्ति में दुःख की छाया क्रांति का आशंका को कहा गया
है। जिनके पास सुख के साधन होते हैं, वे क्रांति से सदैव डरते रहत हैं। क्रांति उनका
ही तो कुछ छीनेगी जिन पर कुछ है। अत: सुविधा संपन्न लोगों का सुख अस्थिर होता है और
क्रांति की संभावना उनको सदैव भयभीतर करती रहती है। इसी प्रकार इसे दुःख की छाया कहा
है।
(ख) पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है- तुलसी
का यह काव्य- सत्य क्या इस समय का भी युग-सत्य है? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
उत्तर:
तुलसी कहते हैं कि पेट की आग वाड़वाग्नि से भी बड़ी है। इसी आग को शांत करने के लिए
श्रमजीवी परिश्रम करता है, किसान खेती करता है, वणिक व्यापार करता है, भिखारी भीख माँगता
है, चरण आश्रयदाता के गुणों का वर्णन करता है, नौकर स्वामी की सेवा करता है, नट बड़ी
तेजी से कला दिखाता है। विद्यार्थी पेट के लिए विद्या पढ़ते हैं, तरह-तरह के उपाय रचते
हैं। पेट के खारित ही लोग पर्वत पर चढ़ते हैं, शिकार की खोज में दुर्गम वनों में विचरते
हैं। पेट के लिए अच्छे-बुरे कार्य करते हैं। धर्म-अधर्म भी इसी के लिए करते हैं। पेट
के लिए ही मरते रहते हैं, यहाँ तक कि अपने बेटा-बेटी को बेच देते हैं, किन्तु यह पेट
की आग तब भी शांत नहीं होती। इस आग को केवल एक भगवान राम रूप श्याममेघ के द्वारा ही
बुझाया जा सकता है।
सौन्दर्य
बोध : पेट के लिए किए जाने वाले सद्-असद् कार्यों का विस्तृत वर्णन है। भाषा ब्रज है।
छंद कविता है। अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग है। वास्तव में, यह सत्य है किसंसार
के मनुष्य पेट की आग बुझाने में लगे हैं। किन्तु ये शांत नही हो पाती।
(ग) शायर राखी के लच्छे को बिजली की चमक की तरह कहकर क्या भाव व्यंजित
करना चाहता है?
उत्तर:
कवि ने राखी के लच्छों को बिजली की चमक के समान बताया है जिसके माध्यम से वह यह कहना
चाहता है कि बहनें अपनी भाइयों की कलाई सजाने के लिए रंग-बिरंगी राखी खरीदती हैं। इन
राखियों को चुनते समय उनकी चमक का विशेष ध्यान रखती है।
05. निम्नलिखित में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए - 03+03= 06
(क) जीजी ने इंदर सेना पर पानी फेंके जाने को किस तरह सही ठहराया?
उत्तर:
लड्डू-मठरी के लालच के बावजूद जब लेखक पानी फेंकने के लिए तैयार नहीं हुआ तो जीजी ने
समझाया कि यह पानी फेंकना अर्घ्य देना है, दान देना है, त्याग है और बुवाई जैसा है।
हम अभाव की स्थिीत में जितना त्याग करते है, चौगुना-अठगुना हमें वापस मिलता है।
5-6 सेर गेहूँ बोकर हम 30-40 मन गेहूं पाते हैं। इसलिए यह पानी फेंकना धर्म,कर्तव्य
और उचित है।
(ख) कहानी के किस-किस मोड़ पर लुट्टन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन
आए?
उत्तर:
लट्टन नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ हो गया और उसका पालन-पोषण उसकी विधवा सास ने किया।
जीवन के इसी मोड़ पर लट्टन और धारोष्ण दूध पीते हए कसरत किया और सुडौल बलशाली शरीर
पाया। श्यामनगर के दंगल में उसने चाँद सिंह को पछाड़ा और राज-पहलवान बना। पन्द्रह वर्ष
बाद जब राजा साहब की जगह राजकुमार ने व्यवस्था सँभाली तो उसे दरबार से छुट्टी मिल गयी।
वह गाँव लौट आया था। गाँव वालों ने उसके तथा दोनों पुत्रों के भरण पोषण का दायित्व
लिया। वह ग्रामीण युवकों को पहलवानी सिखाने लगा। बाद में अखाड़ा बंद हो गया और उसके
दोनों पुत्र मजदूरी करने लगे। गाँव में फैली मलेरिया और हैजे ने पहले दोनों पुत्रों
तथा चार-पाँच दिन बाद लट्टन पहलनवान का भी अंत कर दिया।
(ग) जाति-प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे
बनती रही है? क्या वह स्थिति आज भी है?
उत्तर:
जाति-प्रथा मनुष्य के पेशे का जन्म से पूर्व ही निर्धारण कर देती है। प्रतिकूल परिस्थितियों
में भी उसे पेशा परिवर्तन की आजादी नहीं मिलती। इससे बेरोजगारी उत्पन्न होती और भुखमरी
की स्थिति आती है।
आज
जाति-प्रथा के बंधन बहुत ही ढीले होते जा रहे हैं। लोग पैतृक पेशा को छोड़ अपनी रुचि,
क्षमता एवं प्रशिक्षण के आधार पर अन्य पेशा अपना रहे हैं। अत: जाति-प्रथा की पुरानी
स्थिति आज नहीं है।
06. 'आनंद यादव' अथवा 'फिराक गोरखपुरी' की किन्हीं दो रचनाओं का नाम
लिखिए। 02
उत्तर:
आनंद यादव-झोंबी, नागरणी।
फिराक
गोरखपुरी-झुले नगमा, रंग-ए-शायरी ।
07. 'जूझ कहानी के आधार पर शिक्षक सौंदलगेकर के अध्यापन की उन विशेषताओं
को रेखांकित कीजिए जिसने कविता के प्रति लेखक के मन में रुचि जगायी।
उत्तर:
मराठी भाषा के अध्यापक श्री सौंदलगेकर का कविता पढ़ाने का ढंग लेखक को प्रभावित करता
है । कविता पढ़ाते समय वे स्वयं रम जाते थे। वे अपने सुरीले गले से छंद की बढ़िया चाल
के साथ पहले गायन करते थे। फिर अभिनय के साथ कविता का भाव ग्रहण कराते थे। पुरानी नयी
मराठी कविताओं तथा अंगरेजी कविताओं को सुनाकर वे कविता के छंद, लय, ताल गति का बोध
कराते थे। वे कवि यशवंत, बा. भ. बोरकर, भा. रा. ताँबे, गिरीश, केशवकुमार आदि कवियों
के साथ अपनी मुलाकात का संस्मरण भी सुनाते थे।
श्री
सौंदलगेकर स्वयं भी अपनी रचना कक्षा में सुनाते थे। उनकी एक कविता जो उनके दरवाजे पर
छायी मालती की बेल पर थी, उसे सुनकर लेखक को लगा कि कवि भी हाड़-मांस का मनुष्य होता
है, अलौकिक नहीं। उसे लगने लगा कि वह भी अपने परिवेश को कविता के माध्यम से चित्रित
कर सकता है।
कक्षा
के बाहर अपने घर पर भी रात के समय भी जब लेखक अपनी रचना लेकर उनके पास पहुँचता तो वे
उसे शाबाशी देते, कविता-शास्त्र, अलंकार, शुद्ध भाषा प्रयोग, संस्कृत शब्दों के प्रयोग
आदि संबंध में लेखक का निर्देशन करते । इस तरह लेखक को कवि बनाने में श्री सौंदलगेकर
का विशेष योगदान है।
अथवा,
ऐन
फ्रैंक के परिवार के डर के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ऐन ने अपने अज्ञातवास के दिनों के डर, ऊब तथा एकरसता का उल्लेख किया है। अज्ञातवास
में फ्रेंक तथा वान परिवार को लगातार एक इमारत के अँधेरे बंद कमरे में रहना पड़ा। बाहर
की दुनिया में झाँकना भी उनके लिए खतरनाक था क्योंकि इससे उनके जर्मन सैनिकों द्वारा
पकड़ लिये जाने का खतरा था। उन्हें हर समय गिरफ्तारी का भय सताता रहता था। यह जीवन
बेहद उबाऊ था। दोनों परिवार इस उबाऊपन को दूर करने का भरसक प्रयत्न करते । वे पहेलियाँ
बुझाते थे, अँधेरे में व्यायाम करते, अँगरेजी और फ्रेंच बोलने की कोशिश करते और किताबों
की समीक्षा करते।
बिजली
के चले जाने पर अँधेरे में ऐन दूरबीन से रौशनी वाले घरों के कमरे में दूरबीन से ताक-झाँक
करती। मि. डसेल लम्बे-चौड़े उबाऊ भाषण करते तो ऐन की मम्मी या मिसेज वान दान अपने बचपन
की उन कहानियों को लेकर बैठ जाती जो सभी कई बार सुन चुके होते हैं। वे एक दूसरे को
लतीफे सुनाते जो पहले से सुने हुए होते थे।
08. 'जूझ कहानी में आपको किस पात्र ने सबसे अधिक प्रभावित किया और क्यों
? 02
उत्तर:
कथानायक लेखक आनन्दा का चरित्र उपन्यास 'जूझ' के इस अंश में सर्वाधिक प्रभावित करता
है। शिक्षा के प्रति जो ललक इस पात्र में है और जैसा संघर्ष इस पात्र ने किया है, वह
प्रभावित करता है। 'पाठशाला जाने के लिए मन तड़पता था-कहानी का यह प्रथम वाक्य ही लेखक
की ललक को व्यजित करता है।
दूरदर्शिता
उसकी दूसरी प्रमुख विशेषता है। पढ़ने से नौकरी मिलेगी या दत्ता राव ही पिताजी को समझा
सकते हैं जैसी सोच उसकी दूरदर्शिता को सिद्ध करती है।
लेखक
परिश्रमी और लगनशील है। सुबह उठते ही खेतों में पानी देने से लेकर ढोर चराने और माँ
की सहायता करने के सारे काम वह करता है। शिक्षा के प्रति उसकी लगन का ही परिणाम है
कि वह मानीटर के समान होशियार छात्र के रूप में पहचाना जाता है।
कवि-व्यक्तित्व
का लेखक सभी का चहेता बन जाता है। दत्ता राव से लेकर गणित मास्टर और मराठी मास्टर सभी
उसे पसंद करते हैं, प्रोत्साहित करते हैं।
अथवा
ऐन ने अपनी डायरी एक निर्जीव गुड़िया ' किट्टी' को संबोधित करते क्यों
लिखी?
उत्तर:
ऐन ने अपनी डायरी दो वर्षों के गुप्तवास के दौरान लिखी थी। इस दौर में उसका संपर्क
केवल वान-दान दंपत्ति, पीटर, मि. डसेल और अपने माता-पिता एवं बहन से था। इन सातों में
ऐसा कोई नहीं था जिसके सामने वह अपनी भावनाओं-उद्धारों को मुक्त होकर बतला सके । अभाव
को उसकी निर्जीव गुड़िया-किट्टी ने पूरी की। वास्तव में उसने किट्टी के बहाने स्वयं
से बातें करती हुई यह डायरी लिखी है। अपनी कमजोरियाँ और खामियाँ अन्य की अपेक्षा वह
खुद बेहतर जानती है, इसीलिए डायरी लेखन की यह शैली उसने अपनायी है।