भारत की जनसंख्या का वितरण एवं घनत्व (DISTRIBUTION & DENSITY OF INDIAN POPULATION)

भारत की जनसंख्या का वितरण एवं घनत्व (DISTRIBUTION & DENSITY OF INDIAN POPULATION)

भारत का क्षेत्रफल विश्व के कुल क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत है जिसमें विश्व की 17.31 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में चीन के बाद भारत का द्वितीय स्थान है। 1991 में देश की जनसंख्या 84.63 करोड़, 2001 में 102.87 थी जो कि 2011 में बढ़कर 121 करोड़ (1,21,01,93,422) हो गयी है।

भारत की जनसंख्या का वितरण (Distribution of Indian Population)

जनसंख्या के वितरण मानचित्र को देखने से एक बात स्पष्ट होती है कि यहां एक ओर राजस्थान को शुष्क पेटी असम की पहाड़ियाँ और दक्षिणी पठार के अधिकांश भाग में जनसंख्या का समूहीकरण कम हुआ है। वहीं दूसरी ओर नदियों की घाटियों, उत्तर भारत के समतल मैदानी प्रदेश, समुद्रतटीय मैदानों अथवा खनिज प्राप्ति क्षेत्रों और औद्योगिक केन्द्रों में जनसंख्या का आवश्यकता से अधिक जमाव पाया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में औसत घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 750 व्यक्ति या उससे ऊपर है। तटीय प्रदेशों में छोटे उपजाऊ कछारी मैदानों में घनत्व अधिक पाया जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत उत्तम खेतिहर भूमि और घनी जनसंख्या में घनिष्ठ सम्बंध पाया जाता है। भारत की 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है इसीलिए कृषि प्रधान क्षेत्र औसत से बहुत अधिक घने बसे पाये जाते हैं। यही कारण है। गंगा-यमुना दौआब में यह घनत्व अधिक पाया जाता है। स्पष्ट है कि धनी जनसंख्या भारत के उन्हीं भागों में पायी जाती है जहाँ उपजाऊ कछारी मैदान है, जहां सिंचाई की सुविधा है अथवा अच्छी वर्षा होती है। इसके विपरीत, शुष्क अथवा पहाड़ी भागों में न्यूनतम जनसंख्या पायी जाती है, जैसे जैसलमेर में 15 और अरुणाचल प्रदेश में 17 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर में रहते हैं जबकि महानगरों वाले सभी जिले सघन आबादी वाले हैं। खाबर की उपजाऊ भूमि में चावल पैदा होता है, सिंचाई द्वारा रबी की फसल गेहूं और जौ भी अच्छी होती है। अतः पूर्वी मैदान भी घने आबादी वाले हैं।

दक्षिण में केरल बहुत ही घना बसा राज्य है इसके राज्य में जनसंख्या का औसत घनत्व 859 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर पाया जाता है किन्तु कई भागों में औसत 1500 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तक पाया जाता है। वहां जनसंख्या की सघनता का मुख्य कारण ऊंचे तापमान, अच्छी वर्षा एवं उपजाऊ तटीय मैदान का होना है। यहां चावल की तीन फसले पैदा की जाती है। यहां बड़, गरम मसाले, कहवा तथा नारियल के कुंज पाये जाते है। तापमान और वर्षा की ऐसी दशाएँ ऊंचे घनत्व के लिए आदर्श हैं। पश्चिम बंगाल के तटीय भागों में भी ऐसी दशाएँ मिलती है।

कई भागों में खनिज और उद्योगों के निरंतर विकास के कारण जनसंख्या का जमाव हुआ है, जैसे दामोदर घाटी, पूर्वी मध्य प्रदेश और छोटा नागपुर का पठारी क्षेत्र आदि। देश में जनसंख्या का सबसे अधिक सघन जमाव कोलकाता में हुगली के किनारे, वृहत्तर मुम्बई व महानगर दिल्ली में पाया जाता है।

जनसंख्या के वितरण से सम्बन्धित विशेषताएँ (Features Related to Population Distribution)

(1) उत्तरी मैदान में घनत्व अधिक होना- इसके निम्न कारण है- (i) यह मैदान सतलज, गंगा. और अन्य नदिया द्वारा लायी गयी उपजाऊ मिट्टी का बना है। (ii) यहाँ की औसत वर्षा पर्याप्त नहीं है, वर्षा के अभाव में सिंचाई को नहरों द्वारा पूरा किया जाता है। (iii) जलवायु कृषि एवं मानव की आर्थिक क्रियाओं के लिए उपयुक्त है। (iv) समतल धरातल होने के कारण यातायात के मार्गों की अधिकता पायी जाती है। (v) इस क्षेत्र में अनेक प्रकार के उद्योगों का विकास हुआ है- सूती, ऊनी वस्त्र, जूट, कागज, इन्जीनियरी, पेट्रो-रसायन, विद्युत आदि उद्योग (vi) व्यापार के लिए पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध है।

(2) जनसंख्या का घनत्व वर्षा की मात्रा के साथ घटता-बढ़ता है- भारत में जनसंख्या का घनत्व वर्षा के वितरण के साथ घटता-बढ़ता है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में यह घनत्व अधिक होता है। पूरसे पश्चिम की ओर बढ़ने पर वर्षों की कमी के साथ-साथ घनत्व भी कम होता जाता है किन्तु इसके कुछ अपवाद भी है। यद्यपि पश्चिमी उत्तरप्रदेश तथा पंजाब के भागों में वर्षा को मात्रा बहुत कम है किन्तु सिंचाई के कारण घनत्व घटने की अपेक्षा बढ़ गया है। इसी प्रकार छोटा नागपुर के पठारी भाग में भी खनिज पदार्थों की उपलब्धता के कारण घनत्व में साधारणतः वृद्धि पायी जाती है किन्तु इसके विपरीत सुदूर-पूर्वी भारत एवं हिमालय की तलहटी में अधिक वर्षा होते हुए भी ममत्व अपेक्षाकृत कम है। क्योंकि यहाँ बनों की अधिकता हैकृषि योग्य भूमि का अभाव है, केवल नदी घाटियों में ही कृषि की जाती है, एवं सुदूर-पूर्वी भारत में निरन्तर संघर्ष की स्थिति बनी रही है।

(3) उत्तरी मैदान की अपेक्षा दक्षिण के पठार पर जनसंख्या का घनत्व कम होना- दक्षिण के पठार पर जनसंख्या का घनत्व कम है क्योंकि (i) इसका धरातल अधिक ऊँचा-नीया है जिसके कारण कृषि करना असुविधाजनक होता है। (ii) यातायात के मार्गों का अभाव पाया जाता है। (ii) वर्षा अधिकांश भागों में औसत से भी कम होती है। (iv) डेल्टा प्रदेशों को छोड़कर सिंचाई की सुविधाओं का अभाव है।

(4) भारत के पूर्वी और पश्चिमी तट घने बसे होना- तटीय भाग पठारों से निकलने वाली नदियों द्वारा लायी गयी बारीक काँप की मिट्टी से बना है। समुद्र के निकट होने के कारण जलवायु सम रहती है। उपजाऊ भूमि और जल की प्राप्ति के अनुसार चावल का उत्पादन सबसे अधिक किया जाता है। इसके अतिरिक्त, यातायात के लिए नहरों को एक दूसरे से जोड़कर नावें चलायी जाती हैं। इन्हीं सब कारणों से तटीय भागों में चावल और नारियल के कुंजों के बीच अधिक जनसंख्या निवास करती है। कोंकण व मालाबार का तट इसके विशिष्ट उदाहरण है।

(5) भारत के कम घनत्व वाले प्रदेशों के अन्तर्गत पहाड़ी क्षेत्र, कम वर्षा वाले अथवा पठारी क्षेत्र सम्मिलित होना- हिमाचल प्रदेश, आसाम, जम्मू-कश्मीर, नागालैण्ड आदि के पर्वतीय क्षेत्रों में समतल और उपजाऊ भूमि का अभाव पाया जाता है। अधिकांश भाग वनों से ढँके रहते हैं। पहाड़ी भागों में परिवहन के मार्गों का बनाना भी कठिन होता है तथा कृषि भूमि के अभाव में लोग बिखरे हुए रहते हैं। जीविकोपार्जन के साधनों के अभाव में भेड़-बकरियाँ पालकर, लकड़ियाँ काटकर या शिकार करके ये अपना जीवन निर्वाह करते हैं। ये व्यवसाय अधिक जनसंख्या को आकर्षित नहीं करते हैं।

राजस्थान के पश्चिमी भाग में थार का मरुस्थल है जहाँ गंगा व भाखड़ा एवं इन्दिरा गाँधी नहरों के निकटवर्ती भागों को छोड़कर जनसंख्या का घनत्व बहुत कम पाया जाता है। अधिकांश भागों में रेतीले टीले और कंटीली झाड़ियाँ मिलती है। वर्षा का सर्वथा अभाव रहता है अतएव कृषि उत्पादन कठिनता से किया जाता है। रेतीले टीलो के कारण आवागमन के मार्गों का अभाव पाया जाता है, अस्तु, जहाँ-कहीं जल मिल जाता है, वहीं छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ बनाकर लोग रहने लगते है। ऊँट, भेड़ और पशुपालन में लगे रहने के कारण इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना पड़ता है, फलतः जनसंख्या का जमाव नहीं हो पाता है।

(6) भारत के अत्यधिक घनत्व वाले भागों के अन्तर्गत प्रमुख राज्य एवं केन्द्र-शासित प्रदेश- ये राज्य हैं- दिल्ली, पुडुचेरी, लक्षद्वीप, बिहार एवं केरल।

दिल्ली में सबसे अधिक घनत्व के कारण निम्नलिखित हैं- (i) इस राज्य का अधिकांश भाग शहरी जनसंख्या का है जो अनेक नागरिक एवं सामाजिक सुविधाओं के कारण घना बसा है। (ii) दिल्ली नगर भारत की राजधानी है जहाँ अनेक मन्त्रालयों एवं विदेशी दूतावासों, व्यवसायों और उद्योगपतियों के कार्यालय  केन्द्रित है। अतः जनसंख्या का केन्द्रित होना स्वाभाविक ही है। परिवहन और व्यापार की पूर्ण सुविधाएँ उपलब्ध है। (ii) भारत के प्रत्येक भाग से यह रेलमार्गों, सड़कों अथवा वायुमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। (iv) देश विभाजन के फलस्वरूप लाखों शरणार्थी अन्यत्र न जाकर यहीं बस गये हैं।

केरल राज्य में भी घनत्व अधिक पाया जाता है। इसके निम्नांकित कारण हैं- (i) यहाँ चावल का उत्पादन बहुत अधिक होता है। (ii) तटीय भागों में मिट्टी अधिक उपजाऊ है तथा वर्षा भी पर्याप्त होती अतः चावल, स्वड़, कहवा, नारियल, गर्म मसाले, सुपारी आदि का व्यावसायिक उत्पादन किया जाता है। (iii) शिक्षा का प्रचार अधिक है तथा रहन-सहन का मापदण्ड भी उच्चस्तरीय है। (iv) स्वच्छता अधिक होने से रोग कम होते हैं, अतः मृत्यु दर भी कम है। मोनोजाइट, थोरियम और मूल्यवान खनिज पदार्थों के मिलने के कारण अनेक प्रकार के उद्योग स्थापित हो गये हैं। है।

पश्चिम बंगाल का उत्तर- पूर्वी भाग तराई युक्त एवं दक्षिणी बंगाल अधिक घनत्व के क्षेत्र है क्योंकि (i) इस भाग में कोलकाता और इसके समीपवर्ती औद्योगिक क्षेत्र अधिक घने बसे हैं। हुगली नदी के किनारे-किनारे अनेक प्रकार के उद्योगों का स्थानीयकरण हुआ है। (ii) नदियों एवं नहरों तथा रेलमार्गों की अधिकता के कारण आवागमन की उत्तम सुविधा पायी जाती है। (iii) इन भागों की मिट्टी अधिक उपजाऊ है जिसमें चावल, गन्ना, जूट आदि पैदा किये जाते हैं। (iv) इस क्षेत्र में व्यापार भी अधिक बढ़ा है क्योंकि उद्योगों की अधिकता पायी जाती है।

इसी प्रकार चण्डीगढ़ में जनसंख्या घनत्व भी बहुत अधिक है इसके निम्नलिखित कारण है-

(i) इसकी स्थिति हरियाणा व पंजाब राज्यों के मध्य है। अतः दोनों राज्यों के लोग यहाँ बसे है। (ii) रहन-सहन उच्चस्तरीय है तथा स्वच्छता अधिक होने से लोग बीमार कम होते हैं जिससे मृत्यु दर कम है।  (iii) व्यापारिक सुविधाएँ अधिक है।

राज्यानुसार जनसंख्या वितरण से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश सभी राज्यों में शीर्ष पर है जहाँ की जनसंख्या 1661.9 लाख है। इसके बाद क्रमशः महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा आन्ध्र प्रदेश का स्थान आता है जहाँ जनसंख्या क्रमशः 968.7 लाख, 8299 लाख, 801.7 लाख तथा 762.1 लाख है। यदि भारत की जनसंख्या में इनका प्रतिशत देखा जाय तो यह क्रमशः 16.17, 9.42, 8.07, 7.81 तथा 7.37 है। यदि क्षेत्रफल और जनसंख्या का अनुपात देखा जाय तो यह विषमता वाला है क्योंकि राजस्थान सबसे बड़ा राज्य है जहाँ जनसंख्या 565 लाख है जो देश की जनसंख्या का 5.5 प्रतिशत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से मध्यप्रदेश का द्वितीय स्थान आता है किन्तु यहाँ जनसंख्या 603.4 लाख है जो देश की जनसंख्या का 5.88 प्रतिशत है। उत्तरप्रदेश का क्षेत्रफल देश के क्षेत्रफल का मात्र 7.26 प्रतिशत है किन्तु यहाँ देश की जनसंख्या का 16.17 प्रतिशत भाग निवास करता है। इन राज्यों में जनसंख्या का दबाव राष्ट्रीय औसत से कम है। जम्मूकश्मीर का क्षेत्रफल देश के कुल क्षेत्रफल का 6.76 प्रतिशत है किन्तु यहाँ देश की जनसंख्या का केवल 0.98 प्रतिशत भाग निवास करता है। अरुणाचल प्रदेश का क्षेत्रफल देश के क्षेत्रफल का 2.55 प्रतिशत है जबकि यहाँ जनसंख्या देश की जनसंख्या का मात्र 0.11 प्रतिशत है।

जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक

(Factors Affecting Distribution of Population)

जनसंख्या का वितरण अनेक तथ्यों द्वारा निर्धारित/प्रभावित होता है जिनमें मुख्य निम्नलिखित है

(A) भौगोलिक कारक- इनमें जलवायु, जल की पूर्ति और प्राप्ति, मिट्टी की उर्वरा शक्ति, समुद्र से किसी प्रदेश की ऊँचाई, स्थिति एवं प्राकृतिक संसाधन आदि सम्मिलित किये जाते हैं।

(B) सांस्कृतिक तथा अभौगोलिक कारक- इनके अन्तर्गत मानव की आर्थिक क्रियाएँ, उसकी नाज व्यवस्था, सरकार की आवास-प्रवास नीति, जनसंख्या सम्बन्धी नीति, सुरक्षा व्यवस्था, सामाजिक मान्यताएँ एवं प्रथाएँ आदि सम्मिलित हैं।

इन दोनों ही कारकों के मध्य सम्मिलित रूप से जटिल प्रतिक्रियाएँ होती हैं जो जनसंख्या के वितरण रूप पर निरन्तर प्रभाव डालती हैं।

1. स्वास्थ्यकर जलवायु:

जनसंख्या के वितरण पर जलवायु का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। मनुष्य उन्हीं भागों में रहना पसन्द जाता है जहाँ की जलवायु उसके स्वास्थ्य तथा उद्योग के लिए अनुकूल होती है। यही कारण है कि सबसे डले मानव का विकास कर्क रेखा और 40° उत्तरी अक्षांशों के बीच के भागों में हुआ जो न तो अधिक गर्म है और न अधिक ठण्डे, जहाँ न अधिक वर्षा होती है और न सूखा पड़ता है तथा कार्य करने के लिए तापमान देव ही उपयुक्त रहता है। प्रो. हंटिंगटन का कथन है कि वर्तमान समय में जिन भागों में अत्यधिक ऊँची सभ्यता और आर्थिक उन्नति पायी जाती है। इसका एकमात्र कारण वहाँ पायी जाने वाली जलवायु ही है स्योंकि कछ भागों में अस्वास्थ्यकर जलवायु ही मानव को आलसी, निर्बल और अकुशल बना देती है किन्तु टसरे भागों के निवासी उत्तम जलवायु के कारण बड़े ही फुर्तीले, उत्साही तथा कार्य करने में अधिक दक्ष होते हैं। जलवायु के कारण ही शीतोष्ण तथा ध्रुव प्रदेशों के दक्षिणवर्ती भागों में गर्मी का मौसम पैदावार और व्यापार के लिए अत्यन्त सुविधाजनक होता है किन्तु कठोर ठण्ड का समय सुस्ती और व्यापार की मन्दी का समय होता है।

2. भौतिक स्वरूप:

भूमि की प्रकृति का भी जनसंख्या के वितरण पर अधिक प्रभाव पड़ता है। यह बात इसी से सिद्ध हो जाती है कि सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या का 1/10 भाग ही उच्च पर्वतीय व पठारी भागों में निवास करता है। मैदानों में जीवन-निर्वाह की सुविधाएँ सबसे अधिक पायी जाती हैं। विस्तृत भू-तल सपाट होने के कारण आवागमन के मार्गों की सुगमता और कृषि, पशुपालन तथा औद्योगिक सुविधाओं के कारण मैदानों में जनसंख्या का जमाव घना होता है। यही कारण है कि प्राचीन काल से नदियों के मैदानों में जनसंख्या अधिक पायी जाती रही है। विश्व की 90 प्रतिशत जनसंख्या एवं प्रायः सभी बड़े-बड़े नगर, औद्योगिक और व्यापारिक केन्द्र, जो वास्तव में घनी जनसंख्या के जमाव हैं, मैदान में स्थित हैं। विश्व के बहुत ही थोड़े नगर पहाड़ी भागों में बसे हैं। पहाड़ी प्रदेशों में मात्र भरण-पोषण की अर्थव्यवस्था वाले प्राथमिक उद्योग ही विकसित हो सकते हैं। अतः ऐसे व्यवसायों पर अधिक जनसंख्या निर्भर नहीं कर सकती, जबकि मैदानों में यदि भूमि उपजाऊ हो तो जनसंख्या घनी होती है क्योंकि वहाँ कृषि व्यवसाय तथा उनसे सम्बन्धित उद्योग विकसित हो सकते हैं और यातायात की सुविधा होने से व्यापार की उन्नति भी शीघ्रता से होती है।

3. भूमि की उर्वराशक्ति और जीवन-निर्वाह के साधनों की सुविधा

(i) कृषि (Agriculture)- भूमि की उर्वरा शक्ति भी किसी स्थान विशेष पर जनसंख्या को आकर्षित करता है। जिन भागों में भूमि उपजाऊ होती है, वहाँ मनुष्य सघन कृषि एवं विकसित पशुपालन करके अपना जावन-निर्वाह करते हैं। कृषि के द्वारा थोड़े ही परिश्रम से सफलतापूर्वक जीवन-निर्वाह हो सकता है। जितनी माम एक गाँव के निर्माण के लिए आवश्यक है उतनी भूमि पर अन्न उत्पन्न करने से आठ व्यक्तियों का पालन हो सकता है एवं एक या दो पश पाले जा सकते हैं। किसान का अपनी भूमि से इतना निकट का सम्बन्ध होता है कि वह अपनी भूमि को छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकता। खेती के लिए उपजाऊ भूमि, समुचित जल और गर्मी की आवश्यकता होती है। परन्तु, जिन प्रदेशों में ये तीनों ही बातें पायी जाती हैं, पहा कृषि कार्य अधिक हो सकता है। परिणामतः वहाँ जनसंख्या का जमाव भी अधिक होता है।

(iI) आखेट तथा लकड़ी काटना- खेती के अतिरिक्त मनुष्य अपने भरण-पोषण के लिा उद्योग-धन्धों में भी लगे हैं। लकड़ी चीरने, पशु चराने अथवा शिकार करने में जो लोग लगे रहते जनसंख्या का घनत्व बहुत कम होता है। वनों में प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या बहुत कम होती है वहाँ शिकार के साधन सीमित होते जाते हैं। फिर एक स्थान के कन्दमूल फल समाप्त हो जाने पर इधर-उधर घूमाना पड़ता है। अतः उनके जीवन-निर्वाह के लिए लम्बे-चौड़े प्रदेशों की आवश्यकता पर इन भागों में इनका मुख्य उद्यम पशु-पक्षियों का शिकार करना, मछलियाँ पकड़ना तथा जंगली फल कन्द-मूल इकट्ठा करना ही है।

(iii) पशुपालन-शिकारियों की भाँति घुमन्तू पशुपालकों को भी अपने पशुओं के लिए अधिकार चौड़े प्रदेशों की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि यदि चरागाह अच्छे होते हैं तो यहाँ पशु चराने वाली जाति स्थायी रूप से रहती हैं अन्यथा चारे की खोज में इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकना पड़ता परन्तु, चरवाहे बहुत समय तक एक ही स्थान पर टिककर नहीं रह सकते। पहाड़ी ढालों अथवा धाम मैदानों में यही स्थिति होती है। आधुनिक युग की घुमन्तू पशुपालन क्रिया पूर्णतः अनार्थिक बनती जा रही है एवं इसका क्षेत्र भी तेजी से सिकुड़ता जा रहा है।

(iv) खाने खोदना एवं उद्योग- किसी स्थान पर पाये जाने वाले खनिज पदार्थों अथवा शक्ति के साधनों के कारण भी वहाँ जनसंख्या का शीघ्र जमाव हो सकता है। जिन भागों में खनिज पदार्थ विशेषकर कोयला, खनिज तेल, ताँबा, सीसा, जस्ता और लोहा मिलता है, वहाँ क्रमशः जनसंख्या का जमाव होता है क्योंकि खानों में काम करने के लिए निकटवर्ती भागों से लोम आकर निवास करने लगते हैं। इन महत्वपर्ण खनिजों की प्राप्ति के फलस्वरूप किसी स्थान पर कला-कौशल की भी उनति हो जाती है तथा सम्बन्धित उद्योग-धन्धों का भी तेजी से विकास होने लगता है। एक कारखाने में जितने मूल्य का माल तैयार होता है, उतने मूल्य की पैदावार हजारों एकड़ जमीन पर भी कृषि अथवा अन्य प्राथमिक व्यवसाय से उत्पन्न नहीं की जा सकती।

4. आवागमन एवं संचार के साधनों की सुविधा:

जीवन-निर्वाह के साधनों की उपलब्धता और जलवायु के उपरान्त जनसंख्या के वितरण पर परिवहन की सुविधाओं का भी प्रभाव पड़ता है। मानव प्रगतिशील होने से एक स्थान पर बँधकर नहीं रह सकता। उसे प्रसार और समागम के लिए अच्छे मार्गों की आवश्यकता होती है।

5. सामाजिक कारक:

जनसंख्या के घनत्व पर अनेक अभौगोलिक कारकों का भी प्रभाव पड़ता है। मानव के आर्थिक विकास के लिये जातीय गुण, धार्मिक विचारधाराएँ, सामाजिक परम्पराएँ तथा शासन प्रणालियाँ भी प्रभाव डालती हैं। जहाँ जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा हो, शक्तिशाली और न्यायपूर्ण शासन-व्यवस्था हो, वहाँ जनसंख्या का जमाव अधिक होता है। मंगोलिया और मंचूरिया तथा भारत के पश्चिमी और पूर्वी सीमा के क्षेत्र जनसंख्या की दृष्टि से कम घने बसे हैं।

मानव का सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण भी किसी स्थान पर जनसंख्या को केन्द्रित करने अथवा बिखरे रहने में अधिक प्रभावी होता है।

भारत में जनसंख्या का घनत्व (Density of Population in India)

जनसंख्या के वितरण को उसके घनत्व द्वारा अधिक सुचारु रूप से प्रस्तुत किया जाता है। यही आधार मानकर भारत की जनसंख्या के वितरण को समझाया गया है। जनसंख्या का घनत्व एक ऐसा मापक है जिसके द्वारा मानव एवं भूमि के निरन्तर परिवर्तनशील सम्बन्धों का ज्ञान प्राप्त होता है। सामान्यतः इस पति इकाई क्षेत्रफल पर व्यक्तियों की संख्या द्वारा व्यक्त किया जाता है।

किसी क्षेत्र में अर्थात प्रतिवर्ग किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की संख्या को जनसंख्या का घनत्व कहते हैं। भारत में 2001 में जनसंख्या का घनत्व 325 था। 2011 में यह घनत्व 382 हो गया है। जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार देश में सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व दिल्ली में है, जहां 11297 लोग प्रति वर्ग किमी

में रहते है, जनसंख्या घनत्व के मामले में दूसरा स्थान चण्डीगढ़ (9252) का है, सबसे कम जनसंख्या व अरुणाचल प्रदेश में (17) व उसके बाद अण्डमान निकोबार द्वीप में (46) दर्ज किया गया है।

जनसंख्या का घनत्व भूमि पर जनसंख्या के दबाव का सही परिचायक नहीं है क्योंकि कर भूमि ही मानव का भरण-पोषण करती है। यदि कृषि भूमि पर विचार किया जाए तो एक नया तथा आता है। विरल जनसंख्या वाला राज्य मध्यप्रदेश सघन जनसंख्या वाला राज्य बन जाता है कोर राज्य का अधिकतर भाग पहाड़ी, ऊबड़-खाबड़ और वनों से ढका है। घनत्व ज्ञात करने से केवल दशा का पता चलता है। इससे न केवल कृषीय भूमि का ज्ञान होता है, अपितु घनत्व में प्रादेशिक के लिए उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक और जनांकिकी कारकों के प्रभाव का भी परिचय मिलता है।

जनसंख्या का घनत्व के संबंध में निम्नांकित तथ्य उल्लेखनीय हैं –

(1) विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारत में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक नहीं है। भारत के विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों के घनत्व में अत्याधिक अन्तर पाया जाता है। 2011 के जनसंख्या का घनत्व के आधार पर भारत को चार भागों में बांटा जा सकता है।

(a) निम्न घनत्व वाले क्षेत्रों के अंतर्गत सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम एवं अण्डमान  निकोबार द्वीप समूह आते हैं। यहां प्रति वर्ग किलोमीटर 100 से कम व्यक्ति पाये जाते हैं।

(b) मध्यम घनत्व वाले क्षेत्रों के अंतर्गत असम, कश्मीर, उत्तराखण्ड, नागालैण्ड, छत्तीसगढ़, असम, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, राजस्थान, गोआ, मेघालय, गुजरात, महाराष्ट्र कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश आते हैं। इनमें जनसंख्या का घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 101 से 400 व्यक्तियों तक पाया जाता है।

(c) अधिक घनत्व वाले क्षेत्र पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडू, झारखंड, दादरा एवं नगर हवेली सम्मिलित है। इसमें जनसंख्या का घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 401 से 700 व्यक्ति तक पाया जाता है।

(d) सघन आबादी वाले क्षेत्रों में बिहार, पश्चिम बंगाल, चण्डीगढ़, उत्तरप्रदेश, लक्षद्वीप, दमन दीव आते हैं। यहां का घनत्व 700 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से अधिक है।

(2) जनसंख्या की दृष्टि से भारत विश्व का दूसरा बड़ा देश है किन्तु भारत की दो तिहाई जनसंख्या उसके 40 प्रतिशत भाग (मुख्यतः उत्तरी मैदान और तटीय मैदानों) में केन्द्रित है। उत्तरी मैदान का क्षेत्रफल संपूर्ण भारत का 18 प्रतिशत है। परन्तु वहां देश की 38 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। दक्षिण के पठारी भाग का घनत्व तटीय व मैदानी भागों की तुलना में बहुत कम है। पश्चिमी राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, कच्छ का क्षेत्र, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश एवं नागालैण्ड सबसे विरल बसाव के प्रदेश हैं।

भारत में उच्च घनत्व वाले क्षेत्र

भारत में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में विशेष तौर पर बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में जनसंख्या का घनत्व अधिक पाया जाता है। यहां जनसंख्या का अनुमानित घनत्व 350 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। यह संपूर्ण क्षेत्र कृषि पर आधारित तथा ग्रामीण ही है। इस खण्ड में जनसंख्या का सामान्य घनत्व 350 से 750 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर पाया जाता है। कृषिजन्य अर्थव्यवस्था के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त तत्व यहा का समतल मैदानी भाग, कॉप मिट्टी का जमाव तथा सिंचाई साधनों की उपलब्धता है। पुनः जलापूर्ति सकट, सम्भवतः कृषि के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण भी है। छोटी जोतों एवं पिछड़ेपन के कारण यहा से बड़ी संख्या में भूमिहीन कृषि मजदूर का उन्नत क्षेत्रों की ओर स्थानांतरण हुआ है। विगत वर्षों में हुआ औद्योगिकरण के विकास के कारण जनसंख्या के घनत्व में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। तमिलनाडु एवं मालाबार तट के ऊंचे भागो में भी उच्च घनत्व पाया जाता है। मालाबार तट पर करीब-करीब 100 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर घनत्व के लिए वहाँ की चावल-प्रधान गहरी कृषि अधिक उत्तरदायी है जबकि आन्तरिक क्षेत्र के जनपदों में बागानी कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था का ज्यादा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इन क्षेत्रों में चाय, रबर एवं कॉफी का उत्पादन अधिक होता है। कावेरी डेल्टा तथा तमिलनाडु के उत्तरी-पश्चिमी भाग में कृषि के विकास के साथ ही छोटे-छोटे शहरों में गृह उद्योगों का वितरण उच्च जनसंख्या घनत्व का मुख्य तत्व है।

उपरोक्त क्षेत्रों के अलावा ओडीशा का महानदी डेल्टा, आन्ध्र प्रदेश का गोदावरी डेल्टा तथा पंजाब नारी बिस्ट दोआब विशिष्ट कृषि विकास की वजह, वृहत मंबई, हैदराबाद, अहमदाबाद, इन्दौर तथा दिल्ली उच्च नगरीकृत जनपद होने के कारण उच्च जनसंख्या घनत्व को धारण करते हैं।

जनसंख्या का घनत्व

भारत में सामान्य घनत्व वाले क्षेत्र

सामान्य जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र में जसंख्या 150 से 300 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर पाई जाता है। हमारे देश के लगभग 130 जनपदों में ऐसा जनसंख्या घनत्व पाया जाता है। ये उच्च तथा निम्न घनत्व के संक्रमण क्षेत्र हैं। उत्तर भारत के उच्च घनत्व के समीपवर्ती भागों में एवं महाराष्ट्र गुजरात का बड़ा भाग तैलंगाना, आंध्र तटीय क्षेत्र, मध्यम घनत्व का सबसे बड़ा प्रदेश है। दक्षिण में तमिलनाडु एवं कर्नाटक के एक भाग, तथा रायलसीमा का कुछ अंश ऐसे घनत्व का द्वितीय क्षेत्र है। गत कुछ दशकों में खनिज उत्पादन एवं उद्योगों के विकास के फलस्वरूप, झारखण्ड राज्य क्षेत्र तथा पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के कृषि विकास वाले क्षेत्र में भी सामान्य घनत्व पाया जाता है।

भारत में अल्प घनत्व के क्षेत्र

अल्प घनत्व के क्षेत्र में जनसंख्या 150 प्रति वर्ग किमी से कम पाया जाता है। भारत के मही जनपदों मे अल्प जनसंख्या घनत्व पाया जाता है। पूर्वोत्तर तथा पश्चिमी सीमांत क्षेत्र में सबसे बो प्रदर्शित होता है। पश्चिमी भाग में ही जहां एक और जलाभाव एवं मरुस्थली क्षेत्र की वजह से अल्प घनत्व है वही पूर्वोत्तर हिमालय से सटे भाग के पर्वतीय होने के कारण जनसंख्या का घनत्व का है। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश के दक्षिणी पूर्वी के पठारी भाग में जनजातियों वाला बस्तर में अल्पात का एकाकी क्षेत्र है। राजस्थान, तथा ओडीसा में फैला देश का काफी बड़ा आन्तरिक भाग 50 से बीच जनसंख्या घनत्व को धारण करता है। इसी श्रेणी में कर्नाटक के पूर्वी तथा आंध्र प्रदेश के भाग भी आते हैं। इस प्रकार, भारत में उच्च जनसंख्या घनत्व के दो मुख्य केन्द्र हैं -प्रथम उत्तरी का वृहत मैदान तथा दक्षिणी में मालाबार तट एवं तमिलनाडु उच्च प्रदेश। उत्तर की सीमांत क्षेत्र जित सीमाएँ पाकिस्तान, चीन एवं म्यांमार में संलग्न है, और मध्य भारत की जनजाति क्षेत्र में अल्पतम पर युक्त हैं, जबकि मध्यम घनत्व के क्षेत्र इन दोनों के मध्य बिखरे हुए हैं। देश के 6 प्राकृतिक प्रदेशों में घनत्व का अंतर का अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि पूर्वी प्रदेशों में सबसे अधिक एवं पूर्वी क्षेत्र न्यूनतम घनत्व धारण करते हैं।

जनसंख्या का संकेन्द्रण :

जनसंख्या के संकेन्द्रण का विस्तृत अध्ययन करने से पता चलता है कि जनसंख्या वितरण में क्षेत्रीय विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है। पश्चिमी बंगाल का चौबीस परगना 6.33 सूचकांक युक्त देश का सबसे अधिक संकेन्द्रण वाला जनपद है जबकि पाण्डिचेरी के यमन मात्र 0.006 सूचकांक लेकर सबसे अधिक बसाव वाला जनपद है। उत्तरी भार तक के निम्न एवं मध्यवर्ती गंगा के मैदानी भाग के लगभग 75 जनपदों में उच्च संकेन्द्रण देखा जाता है। इसके अलावा कुछ-यत्र-तत्र बिखरे उच्च औद्योगीकृत नगरीकृत जनपदों में भी उच्च संकेन्द्रण पाया जाता है। इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर में नगरीय एवं औद्योगिक विकास पाया जाता है। यह क्षेत्र गहरी कॉप मिटटी पर आधारित कृषि विकास के कारण प्राचीनकाल से ही सघन बसाव का क्षेत्र रहा है, लेकिन खेतों के आकार के क्रमशः छोटे होने तथा रूढ़िवादी कृषि तकनीक के अपनाए जाने के कारण जनदबाव की चिंतीय अवस्था उत्पन्न होने से, यहाँ के लोगों का बड़ी संख्या में पंजाब, हरियाणा तथा आस-पास के विकसित भागों में स्थानांतरण तो हो गया है परन्तु जनसंकेन्द्रण में थोड़ी कमी आई है। सिंचाई सुविधाओं को सम्पन्न तथा कृषि योग्य क्षेत्र में भी जनसंख्या संकेन्द्रण अधिक पाया जाता हैं मालाबार तट, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश दक्षिण भारत का सघन बसाव वाला भाग, उच्चसंकेन्द्रण क्षेत्र में तमिलनाडु के अधिकतर जनपदों में छोटे-छोटे नगरों का जाल सा बिछा है जो लघु औद्योगिक केन्द्रों के रूप में विकसित हुए हैं। इससे संकेन्द्रण में अपने आप वृद्धि हो जाती है। पश्चिमी महाराष्ट्र तथा निकटवर्ती कर्नाटक क्षेत्रा में कपास तथा गन्ना का ज्यादा उत्पादन होता है और ये तीव्र औद्योगिक विकास के क्षेत्र में भी है, इसीलिए यहाँ भी जनसंकेन्द्रण उच्च है।

इन वृहद क्षेत्रों के देश के पृथक-पृथक भागों में कई उच्च नगरीकृत एवं औद्योगिक जनपद बिखर हुए हैं जहाँ उच्च जनसंकेन्द्रण पाया जाता है। इन जनपदों में आधुनिक प्रशासनिक, परिवहन, सामान्य सवा एवं वाणिज्य क्रियाकलापों में वृद्धि का अपना पृथक प्रभाव उच्च संकेन्द्रण के लिए उत्तरदायी माना जाता है। निम्न संकेन्द्रण सूचकांक लगभग 106 जनपदों में पाया जाता है। यह सभी जनपद हिमालय के उत्तर पश्चिमी तथा उत्तरी पूर्वी भाग एवं मध्यप्रदेश के मध्यवर्ती उच्च पठारी भाग तक ही सीमित है। ऐस कुछ जनपदों का विस्तार थार मरुस्थल प्रायद्वीपीय वृष्टिछाया प्रदेश और महासागरों के मध्य स्थित समूह भी है । पर्वतीय क्षेत्र में कृषि भूमि की कमी, विषम, उच्चावचन, एकाकीपन तथा सीमित संसाधन, अल्प जनसंकेन्द्रण के लिए उत्तरदायी कारण हैं।

भारत में जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति (Trend of Population growth in India)

जनसंख्या वृद्धि से तात्पर्य किसी निश्चित अवधि में निश्चित क्षेत्र के निवासियों की संख्या में परिवर्तन से है। यह परिवर्तन दो रूपों में समझा जाता है। (1) धनात्मक एवं (2) ऋणात्मका यदि किसी क्षेत्र में जनसंख्या में निश्चित अवधि में वृद्धि होती है तो वह धनात्मक (Positive) वृद्धि कहलाती है किन्तु जब इसकी संख्या में कमी आती है तो वह ऋणात्मक (Negative) कहलाती है।

जनसंख्या आकार की दृष्टि से भारत का चीन के बाद विश्व को द्वितीय वृहतम राष्ट्र है। जनगणना 2011 के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 121.01 करोड़ है जो विश्व की कुल जनसंख्या 6,98,02,34,078 (2011) का 17.31 प्रतिशत है। जबकि विश्व के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.4 प्रतिशत ही भारत के अंतर्गत है। इस प्रकार भारत की भूमि पर जनसंख्या का दबाव इन अधिक जनसंख्या वाले बड़े देशों की तुलना में अधिक है।

जनसंख्या वृद्धि के विभिन्न काल

भारत प्राचीन काल में ही जनसंख्या समूहन का प्रधान क्षेत्र रहा है। प्राकृतिक आपदाओं, महामारियों, संक्रामक बीमारियों के प्रकोप तथा युद्धों के कारण प्राचीन और मध्यकाल में जनसंख्या की वृद्धि बहुत कम हो पाती थी और कभी कभी तो यह पहले से भी कम हो जाती है। जनसंख्या की उल्लेखनीय वृद्धि 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक से आरंभ हुई और इसकी गति स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अधिक तीव्र हो गयी। जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति में भिन्नता को ध्यान में रखते हुए भारत में जनसंख्या वृद्धि के विश्लेषण के निम्नलिखित चार कारण है जो कालों के अनुसार किया जा सकता है-

(a) अतिमंद एवं निश्चित वृद्धि काल (1891 से पूर्व),

(b) स्थायी जनसंख्या काल (1891-1921),

(c) मंद वृद्धि काल (1921-1951), और

(d) तीव्र वृद्धि काल (1951 से)।

(1) 1891 से पूर्व भारत में जनसंख्या वृद्धि- प्राचीन भारत की जनसंख्या के आकार का सही अनुमान नहीं हैं। इस सम्बन्ध में जो भी अनुमान हैं वे अप्रत्यक्ष स्रोतों पर आधारित हैं। ऋग्वेद के अनुसार, उत्तरी भारत की जनसंख्या 1000 ई.पू. में उसके साम्राज्य की तुलना में नगण्य थी।

प्राणनाथ, मोरलैण्ड, किंग्स्ले डेविस तथा चन्द्रशेखर आदि का मत है कि प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत में जनसंख्या के आकार में तुलनात्मक दृष्टि से नाममात्र के ही परिवर्तन हुए हैं। मोरलैण्ड के अनुसार, अनुमानतः 1500 से ई. पू. से सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ तक भारत की जनसंख्या लगभग 10 करोड़ थी जो 1700 में 13 करोड़ हो गयी थी। इस मत की पुष्टि जे.एम. दत्ता की गणनाओं से भी होती है। फिण्डले शिराज ने तत्कालीन भारत की जनसंख्या 93 करोड़ अनुमानित की।

किंग्सले डेविस का मत है कि भारत की जनसंख्या 1600 से 1750 के मध्य लगभग स्थिर रही किन्तु भारत के उपनिवेश बन जाने के बाद यहाँ की जनसंख्या में क्रमिक वृद्धि हुई। 1872 ई. तक भारत का जनसंख्या लगभग 225 मिलियन हो गयी थी। जे.एम. दत्ता का मत है कि 1600 से 1750 तक भारत का जनसंख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई किन्तु अठारहवीं शताब्दी के मध्य ये बंगाल के 1770-1771 के दर्भिक्ष के कारण लगभग 10 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई तथा पंजाब के राजनैतिक व सैनिक दंगों के कारण भी अनेक लोगों की मृत्यु हुई।।

भारत में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपनी गतिविधियों का विस्तार किया जिसके लिए उसे जनसंख्या के आकार का अनुमान लगाना आवश्यक हो गया किन्तु ये अनुमान बहुत ठीक नहीं थे। भारत में  जनगणना के लिए बहुत प्रयास किए गए किन्तु सम्पूर्ण देश की जनगणना एक साथ सम्भव न हो सकी। ब्रिटेन ने एक प्रस्ताव रखा कि सम्पूर्ण भारत की जनगणना 1861 में की जाय किन्त 1857-1859 में सैनिक विद्रोह के कारण जनगणना नहीं की जा सकी फिर भी जनसंख्या के दिन प्रतिदिन बढ़ने के कारण प्रारंभिक प्रयास के रूप में 1860 में अनेक क्षेत्रिय जनगणनाएँ हुई इसके बाद 1872 में भारत में सर्वप्रथम  जनगणना के प्रयास किए गए किन्तु सफलता नहीं मिली। यहाँ प्रथम जनगणना 1881 में हुई जिसके अनुसार जनसंख्या 25 करोड़ थी।

(2) 1891 से 1921 तक भारत में जनसंख्या वृद्धि-1891 से 1921 तक के तीस वर्षों में केवल 1.20 करोड़ की वृद्धि हुई, अर्थात् प्रति वर्ष लगभग 4 लाख की दर से वृद्धि हुई है। इस समयावधि में देश में महामारी तथा अकाल पड़े। अतः जनसंख्या की वृद्धि दर निम्न रही। 1891 से 1902 के मध्य मद्रास प्रेसीडेन्सी, मुम्बई प्रेसीडेन्सी तथा बिहार को भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार 1896 में यूनाइटेड प्रॉविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध, बंगाल, राजस्थान, सेन्ट्रल प्रॉविन्स एण्ड बरार आदि राज्यों में भी अकाल पड़ा एवं 1911 से 1921 के दशक में अनेक महामारियों का प्रकोप रहा।

भारत में जनसंख्या वृद्धि (1891-2001)

(3) 1921 से 1951 तक भारत में जनसंख्या वृद्धि- 1921 के बाद भारत की जनसंख्या वृद्धि में एक नवीन परिवर्तन दिखाई देता है अर्थात् जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होना प्रारम्भ हुआ, इसलिए 1921 को महान विभाजन वर्ष (Great Dividing Year) की संज्ञा दी गयी। 1921 में देश की जनसखी 25.13 करोड़ थी, जो 1931 में 27.89 करोड़, 1941 में 31.86 करोड़ एवं 1951 में 36.10 करोड़ हो गयी 1921-1931 की अवधि में जनसंख्या में 11.00 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि 1931-1941 में 14.22 प्रतिशत तथा 1941-1951 में 13.31 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी। 1921 से 1951 के मध्य जनसंख्या में वृद्धि 11 करोड़ की हुई। यह वृद्धि दर 43.7 प्रतिशत हुई। 1921 से 1951 की अवधि में सन् 1943 के बंगाल भीषण अकाल को छोड़कर अन्य कोई देशव्यापी महामारी नहीं फैली। 1921 के बाद मृत्यु-दर में गिराव आई। स्पष्ट है कि इस अवधि में जनसंख्या वृद्धि का प्रमुख कारण मृत्यु-दर में कमी होना रहा है।

(4) 1951 से 1981 तक भारत में जनसंख्या वृद्धि - स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वर्ष 1951 में होने वाली जनसंख्या वृद्धि ने पूर्व सभी अनुमानों को छोड़ दिया। वर्ष 1951-1961 के मध्य 7.8 करोड़ वृद्धि हुई। यह वृद्धि 21.5 प्रतिशत की रही। 1961 से 1971 के बीच जनसंख्या वृद्धि की मात्रा 10.8 करोड़ एवं1971-1981 के मध्य 13.7 करोड़ की हुई, जहां 1961-1971 में जनसंख्या वृद्धि से 24.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी। 1971-1981 के मध्य 24.66 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी।

(5) 1981-2011 तक भारत में जनसंख्या वृद्धि - 1981 में भारत की जनसंख्या 68.33 करोड़ थी जो बढ़कर 1991 में 84.63 करोड़ हो गयी। इस प्रकार इस दशक में 23.85 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस दशक में वार्षिक वृद्धि की दर 2.14 प्रतिशत थी जो पिछले दशक की तुलना में 0.08 प्रतिशत की कम हो गयी।  1981-1991 के मध्य जनसंख्या वृद्धि 16.66 करोड़ हुई जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। 2001 में यहां की जनसंख्या 102.87 हो गयी। इस प्रकार 1991-2001 में जनसंख्या की दशकीय वृद्धि 21.34 प्रकाशित हुई। 2011 में भारत की जनसंख्या 121.01 करोड़ हो गयी इस प्रकार 2001 से 2011 तक जनसंख्या की दशकीय वृद्धि 21.95 प्रतिशत हो गयी है।

जनसंख्या वृद्धि की अवस्थाएँ- भारत में जनसंख्या वृद्धि की निम्नांकित अवस्थाएँ हैं

(1) धीमी वद्धि की अवधि (1901-1921)- 1921 से पूर्व जनसंख्या की वृद्धि धीमी रही क्योंकि इस अवधि में जन्म एवं मृत्यु-दर दोनों उच्च थीं। मृत्यु-दर उच्च होने का प्रमुख कारण चिकित्सा सविधाओं का अभाव, महामारी एवं विश्व युद्ध था।

(2) निरन्तर वृद्धि की अवधि (1921-1951)- इस अवधि में लगातार वृद्धि हुई किन्तु मन्द गति स चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता, कृषि और औद्योगिक विकास तथा परिवहन सुविधाओं के कारण मृत्यु-दर में कमी आयी।

(3) तीव्र वृद्धि की अवधि (1951-1981)- इस अवधि में जनसंख्या लगभग दो गुनी हो गयी। पचवर्षीय योजनाओं तथा चिकित्सा सुविधाओं में सुधार के कारण मृत्यु-दर में गिरावट आई। अतः जनसंख्या में वृद्धि हुई।

(4) घटती वृद्धि अवधि- 1981 के बाद भारत में जनसंख्या में वृद्धि तो हई किन्त क्रमिक ह्मस हुआ।

वृद्धि दर में स्थानिक अन्तर- 1991-2001 की अवधि में देश की जनसंख्या की औसत वृद्धि 21.34 प्रतिशत थी। इस वृद्धि में राज्य स्तर पर पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। इसी प्रकार 2001 से 2011 तक की वृद्धि दर 21.34 प्रतिशत ही रही है।

भारत में तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण

(Reasons For Rapid Population Growth in India)

(1) सन 1921 के पश्चात् मृत्यु-दर में तेजी से गिरावट आती रही, जबकि जन्म-दर में 1961 के पश्चात् ही स्पष्टतः कमी हुई। वर्ष 1981-91 की अवधि में प्रगति 1,000 व्यक्तियों के पीछे जन्म-दर 49.2 तथा मृत्यु-दर 41.2 थी। मलेरिया (जिसके कारण पहले प्रति वर्ष लगभग 20 लाख व्यक्ति काल कवलित हो जाते थे), हैजा, इन्फ्लूएन्जा आदि महामारियों पर पूर्ण नियन्त्रण, पीने योग्य जल की किस्म में सुधार, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, नयी औषधियों का विकास तथा एण्टीबायोटिक दवाइयों का बढ़ता हआ उपयोग स्वच्छता में वृद्धि, खाद्यान्नों के वितरण में सुधार तथा अकालों पर रोकथाम के कारण मृत्यु-दर में तेजी से गिरावट आना तथा जन्म-दर में कोई विशेष परिवर्तन न होना जनसंख्या की वृद्धि के मुख्य कारण रहे हैं। इसी बीच सम्पूर्ण देश में आन्तरिक कलह एवं रजवाड़ों के मध्य होने वाले युद्ध की स्थिति समाप्त होने व तनावमुक्त रहने से भी प्रजनन की दर ऊँची बनी रही है। सन् 1981 में जन्म-दर 33.8 तथा मृत्यु -दर 12.5 प्रति हजार थी। सन् 1991 में जन्म-दर व मृत्यु-दर अधिक तेजी से घटकर क्रमशः 30.2 एवं 9.2 ही रह गयी क्योंकि पहली बार वृद्धि-दर में वास्तविक कमी (1.5 प्रतिशत प्रति) अंकित की गयी।

(2) भारत में जन्म-दर अधिक है। सन् 1971 में यह 41.4 प्रति 1,000 और सन् 1981 में 33.8 रही, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, जापान, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया में यह दर 13 से 16 प्रति 1,000 है। भारत में जन्म-दर ऊँची होने का मुख्य कारण जलवायु का गर्म होना है। यहाँ लड़के और लड़कियाँ शीघ्र वयस्क हो जाते हैं। अतः छोटी अवस्था में ही सन्तानोत्पत्ति होने लगती है।

भारतीय स्त्री अपने प्रजनन काल (15 से 45 वर्ष की आयु तक) में 6-7 बच्चों की माँ बनती है, जबकि जापानी स्त्री 4-5, अमेरिकी 2 बच्चों की माँ बनती है। दूसरे शब्दों में, भारतीय स्त्रियों की प्रजनन क्षमता अधिक है। अतः परिवार वृद्धि तीव्र गति से होती है। हिन्दू स्त्रियों की अपेक्षा मुस्लिम स्त्रियों के बच्चे अधिक होते हैं; ये क्रमशः 7 और 8 (कानपुर में), 4-5 और 4-6 (मध्यप्रदेश) में हैं।

(3) भारत में विवाह सार्वभौमिक है अर्थात् सभी व्यक्ति चाहे वे अपाहिज, रोगी अथवा दरिद्र हों तो भी विवाह करते हैं। इसके साथ ही सन्तान उत्पन्न करना एक धार्मिक कार्य माना जाता है। निःसन्तान व्यक्तियों को प्रायः अनादर की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी धारणा है कि निःसन्तान व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त नहीं होता है। इसके अतिरिक्त, भारत में बाल विवाह भी एक सामान्य बात है।

सामान्यतः जनगणना आयुक्त द्वारा एवं अन्य स्वतन्त्र अध्ययन से पता चलता है कि यदि लड़किया का विवाह 18 से 21 वर्ष के मध्य किया जाये तो उसके 4 से भी कम बच्चे सम्भावित रह जाते हैं। अतः सरकार ने वर्ष 1976 में 'शारदा एक्ट' में संशोधन कर विवाह की उम्र में वृद्धि कर दी है और अब यह लड़कियों के लिए 18 वर्ष एवं लड़कों के लिए 21 वर्ष है।

(4) ऊपर स्पष्ट किया गया है कि भारत में जन्म-दर में उस अनुपात में कमी नहीं की जा सका है जिस अनुपात में मृत्यु-दर में कमी करने में सफलता मिली है। सन् 1911 में जन्म-दर 49.2 प्रति 1,000 थी जो सन् 1971 में घटकर 41.1 प्रति 1,000, 1981 में 33.8 प्रति 1,000 तथा 1991 में 30.2 प्रति 1,000 रह गयी। वर्ष 2001 में जन्म दर 21.0 प्रति हजार रही, जबकि मृत्यु-दर में इसकी तुलना में अधिक कमी हुई। मृत्यु-दर सन् 1911 में 47.2 प्रति 1000 थी जो 1971 में 18.9, 1981 में 12.5 व 1991 में 9.2 प्रति ही रह गयी। 1999 में मृत्यु-दर 8.7 प्रति हजार रही। 2005 में दर 23.8 प्रति हजार एवं मृत्यु-दर 7.6 प्रति हजार रही। इस प्रकार जन्म-दर एवं मृत्यु-दर का अन्तर बढ़ जाने से जनसंख्या में वृद्धि तेजी से हुई है। अतः अब प्रमुख समस्या जन्म-दर को घटाने की है। इस बारे में अब अधिकांश जनसंख्या विद्वान निरन्तर प्रयासों के अच्छे परिणाम के प्रति आशा रखे हए हैं।

भारत में जन्म एवं मृत्यु-दर

(प्रति 1000 व्यक्तियों के पीछे)

(5) देश की आर्थिक अवनत दशा तथा दरिद्रता ने भी जनसंख्या की वृद्धि को अब तक प्रोत्साहन दिया है। एडम स्मिथ के अनसार. "दीनता और निर्धनता सन्तानोत्पत्ति के लिए सबसे अनकल दशा होती है।" यह कथन भारत के लिए अब तक पूर्ण रूप से लागू रहा है। अब शनैः-शनैः स्थिति में बदलाव आने लगा है।

सामान्यतः जनसंख्या में वृद्धि की दर से अधिक ऊँची दर से यदि अर्थव्यवस्था में उन्नति नहीं होती है तो देश आर्थिक दृष्टि से बहत कमजोर हो जाता है और अर्थव्यवस्था को सशक्त करने के सभी प्रयास, योजनाएँ एवं विनियोग अर्थहीन हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में जनसंख्या के गुणात्मक पहलू का भी अधःपतन हो जाता है। उच्च जन्म-दर के साथ-साथ जब स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं के विकास से मृत्यु-दर कम हो एवं औसत आयु में वृद्धि हो तो स्थिति क्रमशः जनसंख्या विस्फोट की ओर अग्रसर होती है। भारत सभी विकासशील देशों में जनांकिकी संक्रमण के प्रतिरूप पर चल रहा है जो उच्च जन्मदर एवं उच्च मृत्यु-दर के आरम्भिक स्तर से निकलकर उच्च जन्म-दर एवं निम्न मृत्यु-दर के मध्यवर्ती परिवर्तन चरण पर है तथा यह निम्न जन्म-दर निम्न मृत्यु-दर के चरण पर जाने से पूर्व जनसंख्या वद्धि का उच्च दरों में प्रतिबिम्बित होती है। अतः नारी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देना अनिवार्य है।

(6) देश में अभी तक सस्ते और स्वास्थ्यवर्द्धक मनोरंजन के साधनों का अभाव पाया जाता रहा है। अतः इससे भी सन्तानोत्पत्ति की भावना को ही अधिक बल मिलता है।

(7) 1901-91 की अवधि में स्त्री और पुरुष दोनों की ही जीवन अवधि में वृद्धि हुई है। 1891-1901 - एक स्त्री और पुरुष की औसत आयु केवल 23 और 23.60 वर्ष की थी। 1921-30 में यह आयु क्रमशः 26.59 वर्ष और 26.91 वर्ष थी। 1961 में यह क्रमशः 45.60 और 47.10 वर्ष हो गयी। इससे सन्तानोपत्ति काल में कुछ वृद्धि हुई। अतः जनसंख्या की वृद्धि में तीव्र गति होना स्वाभाविक है। पिछले तीन दशकों में इनमें और बढ़ोत्तरी हुई है। 1981 एवं 1991 में औसत आयु पुरुषों की क्रमशः 54.1 व 55.9 वर्ष एवं महिलाओं में क्रमशः 54.7 व 55.9 वर्ष रही। इस प्रकार इसमें गुणात्मक सुधार होता रहा है। 2001-2006 में जन्म के समय प्रत्याशित आयु 62.7 वर्ष है। इसमें पुरुषों की 63.87 वर्ष तथा स्त्रियों की 66.91 वर्ष है।

जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ

जनसंख्या वृद्धि एक विश्वव्यापी समस्या है। भारत की जनसंख्या वृद्धि आर्थिक प्रगति में बाधक सिद्ध हो रही है क्योंकि इसके द्वारा बहुत-सी समस्याएँ पैदा कर दी गयी हैं जो कि निम्नलिखित हैं -

(1) खाद्यान्न पूर्ति की समस्या- खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने के बावजूद भी खाद्यानों में कमी दिखायी देती है जिसकी पूर्ति करने के लिए अरबों रुपयों का खाद्यान्न आयात करना पड़ता है और इस प्रकार वह विदेशी मुद्रा जो पूँजीगत माल क्रय करने के काम में आनी चाहिए थी जिससे हजारों व्यक्तियों को रोजगार मिल सकता था वह खाद्यान्न पूर्ति करने में लगानी पड़ती है।

(2) आय, बचत व विनियोग की दरों में कमी- एक देश की जनसंख्या वृद्धि उस देश की आय, बचत व विनियोग पर प्रभाव डालती है। आर्थिक विकास के फलस्वरूप जिस आय का सृजन होता है उसकी बढ़ी हुई जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए व्यय कर देना पड़ता है।

(3) जनोपयोगी सेवाओं के भार में वृद्धि- जब जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है तो उसका दबाव जनोपयोगी संस्थाओं जैसे-अस्पताल, परिवहन साधन; विद्युत, जल, मकान, आदि पर पड़ता है तथा सरकार को कानून व व्यवस्था तथा सुरक्षा पर अधिक व्यय करना पड़ता है। इस प्रकार सरकारी आय का बहुत बड़ा अंश इन्हीं कार्यों में लग जाता है जिससे विकास कार्यों के लिए धन नहीं बचता है।

(4) श्रम-शक्ति में वृद्धि- जनसंख्या वृद्धि कार्यशील जनसंख्या में वृद्धि करती है, लेकिन रोजगार साधन उस गति से नहीं बढ़ पाते हैं और इस प्रकार देश में रोजगार की समस्या जो कि पहले से ही होती है, और जटिल हो जाती है।

(5) आश्रितता के भार में वृद्धि- तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या देश के आश्रितता के भार में वृद्धि करती है। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 57.3 प्रतिशत जनसंख्या आश्रित जनसंख्या थी। इसमें भी वृद्धि हो गयी और यह बढ़कर 66.2 प्रतिशत हो गयी है।

(6) भूमि पर अधिक दबाव

(7) उपभोग व्यय में वृद्धि

(8) बेरोजगारी में वृद्धि।

जनसंख्या विस्फोट (Population Explosion)

जनसंख्या में होने वाली तीव्र वृद्धि जिसके कारण खाद्य पदार्थों तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तुआ एवं साधनों की कमी हो जाती है और जीवन स्तर नीचे गिरने लगता है इसी को जनसंख्या विस्फोट की संज्ञा दी जाती है। विगत 50 वर्षों में विश्व के अनेक विकासशील देशों में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है।

किसी देश या प्रदेश की जनसंख्या जब उसके पोषणीय क्षमता से अधिक हो जाती है और सामान्य जीवन स्तर में गिरावट आरंभ हो जाती है, तब अति जनसंख्या की समस्या उत्पन्न होती है। इस स्थिति में तीव्र  जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप जनसंख्या का घनत्व भी तीव्रता से बढ़ता जाता है जिससे उपलब्ध भूमि और संसाधनों पर जनसंख्या का भार भी बढ़ता है और प्रति व्यक्ति खाद्यान्न तथा जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति कम हो जाती हैं। जनसंख्या विस्फोट के दो मूल कारण होते हैं - (1) तीव्र जनसंख्या और (2) आवश्यक संसाधनों में मन्द गति से वृद्धि । इसकी विवेचना माल्थस ने भी अपने सिद्धांत में की। उसके अनुसार  जनसंख्या वृद्धि ज्यामितीय दर अर्थात 1:2:4:8:16 आदि अनुपात में होती है किन्तु खाद्य आपूर्ति में वृद्धि अंकगणितीय दर अर्थात 1:2:3:4:5 आदि अनुपात में होती है। इसएि सामान्य स्थिति में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति पैदा होना सहज है।

जनांकिकीय संक्रमण की प्रथम अवस्था में जन्म दर और मृत्यु दर दोनों उच्च होते हैं जिसके कारण जनसंख्या लगभग स्थायी होती है अथवा काफी धीमी गति से बढ़ती है। इस अवस्था में जनसंख्या थोड़ी होती है और अर्थव्यवस्था अत्यंत पिछड़ी हुई होती है। जनांकिकीय संक्रमण की द्वितीय अवस्था में जन्मदर लगभग स्थिर होती है लेकिन मृत्यु दर में कमी होती है जिसके कारण जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगती है। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के अनुपात में खाद्य सामग्री तथा जरूरी वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि न होने पर अति जनसंख्या की समस्या पैदा हो जाती है, इसलिए अब भी जनसंख्या वृद्धि तीव्र बनी रहती है। इस तरह जनांकिकीय संक्रमण की द्वितीय यथा तृतीय अवस्थाओं में जनसंख्या विस्फोट की बहुत अधिक सम्भावना पायी जाती है। जनसंख्या विस्फोट की समस्या मूल रूप से विकासशील देशों में पायी जाती है औद्योगिक विकसित देशों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होने पर भी यहाँ विस्फोट की स्थिति नहीं है। क्योंकि वहाँ जीवनयापन के लिए उपयोगी वस्तुओं तथा संसाधनों की कमी नहीं है और मृत्यु दर की भांति जन्म दर भी निम्नतम स्तर तक पहुँच गयी है जिसकी वजह से जनसंख्या लगभग स्थायी हो गयी या अत्यंत मंदगति से बढ़ रही है और जनसंख्या की वृद्धि दर वहाँ के विकास दर से अधिक नहीं है।

जनसंख्या विस्फोट से पैदा होने वाली प्रमुख समस्याएँ

किसी देश में उपलब्ध प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों की तुलना में जब तीव्र वृद्धि के कारण जनसंख्या अधिक हो जाती है, जब वहाँ कई तरह की सामाजिक, आर्थिक एवं जनांकिकीय समस्याएँ पैदा होती है। जिनमें से कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्न प्रकार हैं

(1) आवास की समस्या - तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए अतिरिक्त गृहों की जरूरत होती हैं ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यधिक निर्धनता के कारण असंख्य निर्धन परिवार रहने के लिए गृह अथवा आश्रय नहीं बना पाते हैं और टूटी-फूटी झोपड़ियों में किसी प्रकार आश्रय लेते हैं। नगरों में गृहों की कमी, उच्च किराया आदि कारणों से बहुत से अल्पाय वाले तथा निर्धन एवं बेरोजगार लोग सार्वजनिक भूमियों पर अवैध रूप स कब्जा करके झुग्गी-झोपड़ियाँ बनाकर रहने लगते हैं जिससे मलिन बस्तियों का विकास होता है। प्रदूषणयुक्त इन गन्दी बस्तियों में कोलकाता. कानपर, मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली आदि बड़े-बड़े नगरों की 30 से 50 प्रतिशत तक जनसंख्या रहती है।

(2) आर्थिक विकास में बाधा - तीव्र जनसंख्या वृद्धि वाले विकासशील देशों की अपनी राष्ट्रीय जाय का ज्यादा से ज्यादा भाग जनसंख्या की प्राथमिक आवश्यकताओं जैसे भोजन, आवास आदि की भात म खर्च करना पड़ता है जिसके कारण विकास कार्यों के लिए बहुत कम बच पाता है। विकास संबंधी जो थोड़े कार्य हो पाते हैं वे भी तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण कुछ ही वर्षों में अपर्याप्त अथवा निरर्थक हो जाते हैं। इन देशों में पूँजी और उन्नत प्रौद्योगिकी तथा कुशल श्रमिकों के अभाव के कारण औधोगीकरण की गति भी शिथिल पायी जाती है। इसी तरह प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में भी गिरावट आती है जिससे जीवन स्तर में भी ह्मस होता है।

(3) तीव्र जनसंख्या वृद्धि - इस अवस्था में जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 2 प्रतिशत से ऊपर रहती है। कुछ देशों में यह 4 प्रतिशत से भी ऊपर हो सकती है। मिस्र, इण्डोनेशिया, भारत, बंग्लादेश, पाकिस्तान, टकी, मैक्सिको आदि विशाल जनसंख्या वाले विकासशील देशों में 2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से ही प्रतिवर्ष 50 लाख से अधिक जनसंख्या बढ़ जाती है। तीव्रगति से बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए आवास, भोजन, वस्त्र आदि की समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं।

(4) खाद्य समस्या - ज्यादातर विकासशील देशों में तेजी से बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में खाद्य पदार्थों और पोषक आहार में वृद्धि न हो पाने के कारण कुपोषण तथा अल्पहार की समस्याएँ विद्यमान है। कुपोषण से शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर अधिक ऊँची रहती है। जनसंख्या के एक बड़े भाग को भरपेट भोजन तथा संतुलित एवं पोषक आहार प्राप्त न हो पाने के कारण सामान्य जनस्वास्थ्य में गिरावट आती है। जिससे कार्यक्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। सामान्य रूप से खाद्य पदार्थों के उत्पादन मे वृद्धि जनसंख्या की तुलना में कम हो पाती है जिसके फलस्वरूप खाद्य समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है। इस तरह जनसंख्या विस्फोट की अवस्था से गुजर रहे देशों को जनता की भूख मिटाने के लिए प्रति वर्ष बडी मात्रा में खाद्यान्नों और खाद्य पदार्थों को आयात करना पड़ता है।

(5) बेरोजगारी तथा निर्धनता - यह दशा विकासशील देशों में अधिक विद्यमान है जहां अधिकांश जनसंख्या कृषि प्राथमिक कार्यों में संलग्न होती है तथा उद्योग, व्यापार, सेवाओं आदि सभी द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों का विकास अधूरा है। कृषि भूमि सीमित होने तथा यंत्रीकरण आदि कारणों से कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर सीमित होते हैं। जनसंख्या वृद्धि से प्रति व्यक्ति उपलब्ध कृषि भूमि की मात्रा निरंतर घटती जा रही है। इस तरह विकासशील देशो में बेरोजगारी में वृद्धि से ग्रामीण निर्धनता में वृद्धि होती है। रोजगार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या के पलायन से नगरों में भी जरूरत से अधिक जनसंख्या का संकेन्द्रण होने लगता है जिससे वहाँ भी बेरोजगारी की समस्या गम्भीर हो जाती है।

 जनसंख्या विस्फोट रोकने के उपाय

जनसंख्या विस्फोट से बचाव अथवा मुक्ति पाने के लिए उन कारकों पर नियंत्रण लगाना जरूरी होता है जिसकी वजह से जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होती है।

(1) उत्पादन दर में वृद्धि - नवीन उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग करके संचित संसाधनों का अपेक्षित विकास किया जा सकता है। संसाधनों के विकास और उनके गहन उपयोग में पर्याप्त वृद्धि की जा सकती है। विकासशील देशों में बेकार पड़ी हुई कृषि योग्य भूमि के कृषि के तहत लाकर उस पर उन्नत कृषि यंत्रों, उन्नत बीजों, उर्वरकों, सिंचाई, आदि का प्रयोग करते हुए वर्तमान कृषि उत्पादन को कई गुना अधिक किया जा सकता है। इसी तरह कई प्राकृतिक संसाधनों- जलाशयों, वन, खनिज आदि के सदुपयोग द्वारा उत्पादन में वृद्धि की प्रबल सम्भावनाएँ मौजूद हैं। बढ़ती जनसंख्या के लिए मौजूद वस्तुओं के उत्पादन में जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक वृद्धि करके जनसंख्या विस्फोट की स्थिति को पीछे करना अथवा कुछ समय के लिए उससे छुटकारा पाना सम्भव है।

(2) जन्म दर पर नियंत्रण - उच्च जन्म दर के कारण जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न होती है। अगर मृत्यु दर भी जन्म दर की भांति उच्च रहती है तब, जनसंख्या वृद्धि तीव्र नहीं होने पाती है। यह स्थिति तब पैदा होती है जब आर्थिक विकास के साथ-साथ चिकित्सा सुविधाओं में वृद्धि होने से मृत्यु दर में तीव्र गति से पतन होता है लेकिन जन्म दर उच्च बनी रहती है अथवा मंद गति से घटती है। स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि करके तथा कुपोषण अथवा अल्प पोषण आदि को दूर करके मृत्यु दर को कम करना हर समाज एवं राष्ट्र के लिए उपयोगी है। इसलिए मृत्यु दर का घटना सबके लिए कल्याणकारी है। अतएव जनसंख्या पर नियंत्रण पाने के लिए जन्मदर में कमी लाना ही सबसे अच्छा उपाय है। विभिन्न कृत्रिम साधनों के प्रयोग से जन्म दर को घटाया जा सकता है।

बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या का समाधान

बढती हुई जनसंख्या को रोकना आज की पहली एवं सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है, अन्यथा जनसंख्या समस्या के सभी प्रयास बेकार व बेमाने हो जायेंगे। जनसंख्या समाधान के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाये गये है।

(1) सीमित परिवार (Limited Family) - प्रत्येक देश की आर्थिक क्षमता के अनुसार ही वहाँ की जनसंख्या होनी चाहिए। अतः परिवारों में सन्तान की संख्या प्रति परिवार एक या अधिक से अधिक दो सन्तान तक ही अनिवार्यतः सीमित की जानी चाहिए। इसके लिये गर्भ निरोधक गोलियाँ, अन्य विधियां एवं बन्ध्याकरण ऑपरेशन (पुरुष व महिलाओं का) निश्चित समय पर निरंतर अपनाया जाना अनिवार्य है। ऐसी व्यवस्था का विरोध करने वालों का सामाजिक बहिष्कार एवं सरकारी सुविधा से वंचित किया जाना ही एकमात्र उपाय है।

(2) विवाह आयु में वृद्धि (Increase in the Age of Marriaage) - विवाह की आयु लड़कियों के लिए 20 वर्ष एवं लड़कों के लिए 23 से 25 वर्ष की जानी चाहिए।

(3) सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में विस्तार - (Extension of Public Health Services) - सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति प्रत्येक नागरिक को जागरूक बनाने के लिए प्राथमिक कक्षाओं से ही इसकी अनिवार्य शिक्षा दी जाय क्योंकि अधिकांश बीमारियाँ व कई घातक बीमारियों जल व वायु के प्रदूषण (Pollution) से बढ़ती है। कई बीमारियाँ, जैसे पेचिश, हैजा, खसरा, चेचक, मलेरिया, फ्लू, विषाणु बुखार व्यक्ति को अपंग व अपाहिज बना सकते है। हमारी आदतों में एक खान-पान में भी परिवर्तन आना चाहिए। इसके लिए किया गया सरकारी खर्च एक प्रकार से विकास के आधार पर खर्च है। इसमें लाभ ही लाभ है।

(4) सन्तति या जच्चा-बच्चा सुधार - भारत में अधिकांश महिलाओं की मृत्यु सन्तान पैदा करते समय होती हैं। अतः देश को मजबूत आधार देने एवं उत्तम सन्तान व निरोग जनसंख्या बनाये रखने के लिये गर्भवती महिला एवं जच्चा-बच्चा दोंनो की स्थिति में सुधार अनिवार्य है। इसके लिए सभी प्रकार के रक्षक टीके होने वाली माँ एवं बच्चा दोनों को यथासंभव लगना अनिवार्य किया जाना चाहिए।

(5) सामान्य शिक्षा एवं महिला शिक्षा का प्रसार (Expansion of General Education and Female Education) - देश में प्रतिवर्ष शिक्षित से अशिक्षितों की संख्या अधिक बढ़ती जा रही है। भारत में सभी प्रयासों के बावजूद प्रत्येक अगली जनगणना में पिछली जनगणना से भी आयु वर्ग में अधिक संख्या अशिक्षित पाये जाते है। प्राथमिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा एवं महिला सभी को मुफ्त दी जानी चाहिए। इसके लिए सुविधा दी जानी चाहिए। यदि एक लड़की व एक महिला शिक्षित होगी तो निश्चित रूप से वह दस को शिक्षित करेगी, सारे परिवार व समाज की व्यवस्था सुधारने में सहायक होगी। उसे व परिवार को अच्छे-बुरे का ज्ञान शोध हो जायेगा। इस परिवार कल्याण कार्यक्रम निचले एवं ग्रामीण स्तर तक लागू किया जा सकता है।

(6) भूमि का उपयोग (Use of Land) - भूमि का उचित उपयोग इसी में है कि उसे प्राकृतिक रूप से पोषक रखकर, कम से कम रासायानिक उर्वरक देकर उसकी उत्पादकता को जैव विधि तंत्र (बायोटेक्नोलॉजी) से बढ़ाया जाये। भूमि के प्रत्येक छोटे-छोटे हिस्सों का भी उपयोग किया जाय इसके लिए वैज्ञानिक एवं विकसित विधियाँ काम में ली जाएँ।

इस प्रकार भूमि के उत्तम उपयोग में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए:

(i) खाद्यान्न एवं उद्योगो के लिए कच्चा माल उत्पन्न करने के लिए ही उपजाऊ भूमि का उपयोग किया जाए।

(ii) अनुपजाऊ भूमि को वर्तमान अथवा नई बनावटों के लिए सीमित किया जाय। घर, कारखाने कस्बे और नगर, नागरिक संस्थाएँ (अस्पताल, स्कूल, कार्यालय तथा आमोद-प्रमोद के स्थान) ऐसी ही भूमि पर स्थापित किये जायें।

(iii) अनुपजाऊ भूमि पर ही आवागमन के मार्ग-रेलें, सड़के, हवाई अड्डे, सिंचाई की नहरें और पार्क (बगीचा) आदि बनाए जायें।

(iv) जलवायु तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भूमि के निश्चित क्षेत्रफल पर चारागाह अभ्यारण, घास के क्षेत्र तथा परती भूमि के भाग सुरक्षित रखे जायें।

(v) कृषि के अंतर्गत उपयोग में लाये जाने वाली भूमि की गहरी जुताई करना और उसमें इसके साथ साथ उन्नत जैविक खाद,बीज तथा कृषि के आधुनिक साधनों द्वारा उत्पादन बढ़ाना।

(vi) खेती में यंत्रीकरण एवं सीमित रासायनीकरण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना। इसके अंतर्गत उत्तम प्रकार की फसलें बोना, उत्तम नस्ल के पशुओं का विकास करना, जैव तकनीक व जैविक खादों का प्रयोग करना, कीटाणुनाशक औषधियों का सीमित उपयोग करना एवं पशुओं को रोगों और कीड़ों से बचाना आदि कार्य किये जायें।

(vii) कृषि क्षेत्र का विस्तार करने के लिए शुष्क भूमि में फब्बारा सिंचाई के साधनों की वृद्धि करना। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल प्रवाह की सुविधाएँ देकर मिट्टी के कटाव को रोकना एवं जलवायु संबंधी प्रतिकूलताओं को विज्ञान के सहारे नियंत्रित करना।

(vi) कृषि ऋण, बाजार की कठिनाइयों तथा निरक्षरता के कारण उत्पन्न होने वाली आपत्तियों को उचित उपाय द्वारा दूर करना।

(ix) ऐसे उपयोगों से ग्रामीणों एवं कृषक पशु-पालकों की दशा में तेजी से सुधार करना होगा। कृषि एव

पशु फार्मिग नई तकनीक के द्वारा देश के पर्यावरण में सुधार ला सकेगा।

(7) औद्योगीकरण (Industrialization) - अधिकतर छोटे और घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन देना चाहिए क्योंकि छोटे उद्योग जब व्यवस्थित किये जाते हैं तो कृषि और बड़े पैमाने के उद्योग धन्धों के बीच एक आवश्यक संबंध स्थापित कर लेते हैं। इसके साथ वे ग्रामीण और नगरीय आय के बीच की खाई को कम करके जीवनयापन की अवस्था मे भी अन्य साधनों के कारण विकास करते हैं। इनको वातावरण का मित्र भी कहा जाता है क्योंकि इनसे प्रदूषण नहीं फैलता है।

औद्योगिक विकास देश में जनसंख्या की वृद्धि को रोकता है, क्योंकि औद्योगिक क्षेत्रों में कई विषम पस्थितियों के पैदा हो जाने से मानव की प्रजनन क्षमता घटने लगती है। भोजन प्राप्ति के लिए दिन भर व्यस्त रहने अथवा अन्य सामाजिक कार्यों में लिप्त रहने से सन्तानोपत्ती कम होने लगती है। व्यक्ति को अनेक प्रकार की मानसिक और शारीरिक चिन्ताएँ घेरे रहती है तथा यौन संबंध के अंतिरिक्त भी मानसिक सन्तष्टि के कई अन्य मनोरंजन के साधन मिल जाते हैं अतः यौन मिलन की अवधि कम होती जाती है। स्त्रियों को भी अधिक स्वतंत्रता होनी चाहिए। विश्व के प्रमुख औद्योगिक देशों का अनुभव यह बताता है कि आर्थिक नियोजन की सफलता तथा उसके फलस्वरूप धन की वृद्धि में तुरन्त ही जनसंख्या बढ़ने की संभावना रहती है किन्तु बाद में आर्थिक उन्नति के साथ-साथ यह वृद्धि कम होती जाती है। आर्थिक, उन्नति और शिक्षा के एक सीमा तक पहुंचने पर शहरी औद्योगिक सभ्यता के प्रसार के साथ-साथ सह सम्बंध में प्रारंभ में मृत्यु दर में तीव्र कमी होती है और उसके बाद जन्म दर तेजी से घट जाती है। इसके साथ ही सभी प्रकार के परिवार कल्याण कार्यक्रम, भूमि सुधार कार्यक्रम एवं औद्योगीकरण कार्यक्रम चलते रहना चाहिए। प्रत्येक गाँव अपने अधिकांश संसाधन प्रकृति मित्रता रखकर वन व वन्य प्राणियों का संतुलन बनाये रखकर प्रकृति से क्रिया करके प्राप्त करें। लकड़ी, वनों से कच्चा माल सभी एक चक्रीय आधार पर प्राप्त किये जायें। भूमि का उपजाऊपन तथा जैव विकास से बढ़ाया जाय। इससे गांवों में रोजगार बढ़ेगा, प्रदूषण घटेगा, अनेक प्रकार के उद्योग-धन्धे खुलेंगे। आम आदमी व्यस्त रहेगा और सन्तानें सीमित, स्वस्थ, शिक्षित, सुखी रहेंगी।

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