माल्थस के पूर्व जनसंख्या के सिद्धांत (PRE-MALTHUSIAN POPULATION THEORIES)

माल्थस के पूर्व जनसंख्या के सिद्धांत (PRE-MALTHUSIAN POPULATION THEORIES)



माल्थस के पूर्व जनसंख्या के सिद्धांत

(PRE-MALTHUSIAN POPULATION THEORIES)

सामान्यतः जनांकिकीय सिद्धान्तों में जनसंख्या को प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्वों तथा जनसंख्या के विकास में सहसम्बन्ध का अध्ययन करते हैं। जनसंख्या-विकास की गति पर किसी विशिष्ट परिवेश में मृत्यु-दर,जन्म-दर, अप्रवासी, आवास आदि का क्या प्रभाव है, आदि सम्बन्ध का अध्ययन करते हैं। तथा ये तत्व आर्थिक विकास को किस प्रकार प्रभावित करते हैं तथा आर्थिक विकास से किस प्रकार प्रभावित होते हैं, आदि का अध्ययन करते हैं। जनांकिकी व जनसंख्या से सम्बन्धित माल्थस का सिद्धान्त महत्वपूर्ण माना जाता है।

माल्थस से पूर्व-विचारकों के मत:- यद्यपि प्राचीन तथा मध्ययुगीन भारत के आर्थिक एवं जनसंख्या मानन्धी विचार न तो संगठित व क्रमबद्ध रूप में प्राप्त हैं तथा न ही वर्तमान आर्थिक दशाओं में उनका कोई विशेष महत्व है। किन्तु अर्थशास्त्र के विद्यार्थी के लिए उनका अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होना लाभदायक सिद्ध हो सकता है। प्राचीन भारत के आर्थिक विचारों के अध्ययन के लिये हमें प्राचीन दार्शनिकों तथा विद्वानों के ग्रन्थों में उन स्थलों को खोजना पड़ेगा जहाँ पर उनका वर्णन है। अध्ययन की प्रविधि के लिए हम माल्थस के पूर्व विचारकों को प्राचीन व मध्ययुगीन विचारकों में विभाजित करते हैं।

प्राचीन विचारकः- प्राचीन एवं मध्ययुगीन विचारकों के द्वारा लिखे गये मूल ग्रन्थों में चार वेद (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद) तथा उस पर आधारित उपनिषद्, पुराण, रामायण व महाभारत। मनु याजनोवालिक्या, गौतम, नारद, विदुर, हरित द्वारा स्मृतियाँ भी मूल ग्रन्थों में आती. है। उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ प्राचीन पुस्तकों में भी आर्थिक विचार व्यक्त किये गये हैं। इन पुस्तकों में सवार्धिक महत्वपूर्ण कृति विष्णुगुप्त, जो कौटिल्य के नाम से विख्यात् है, द्वारा लिखित 'अर्थशास्त्र' है।

विष्णुगुप्त या कौटिल्य (321-296 B.C.) चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र' में आवास-प्रवास, जनसंख्या के गुणात्मक एवं संख्यात्मक, सार्वजनिक स्वास्थ्य, प्रशासन आदि सम्बन्धी विचार व्यक्त किये हैं। प्राचीन भारत के आर्थिक विचारों को स्पष्ट करने वाले दूसरी श्रेणी में वे ग्रन्थ सम्मिलित हैं जो आधुनिक विद्वानों द्वारा भारत के प्राचीन आर्थिक विचारों अथवा विद्वानों पर आलोचनात्मक तथा समीक्षात्मक दृष्टिकोण से लिखे गये हैं। इस श्रेणी के प्रमुख लेखकों तथा उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं - डी० आर० शामाशास्त्री द्वारा लिखित कौटिल्य का अर्थशास्त्र के० टी० शाह द्वारा लिखित ऐन्सियेन्ट फाउन्डेशन ऑफ इण्डियन एकोनोमिक थाट, प्रो० एस० के० दास की एकोनामिक हिस्ट्री आफ ऐन्सियेन्ट इण्डिया तथ प्रो० रंगा स्वामी अय्यानगर द्वारा लिखित एस्पेक्ट ऑफ ऐन्सियेन्ट एकोनामिक थॉट इत्यादि हैं। इन पुस्तकों में यद्यपि जिन मतों को राज्य, स्वास्थ्य, वित्त आदि के लिये व्यक्त किया गया है, उनका नाम प्रायः स्पष्ट नहीं है किन्तु चित्रण आधुनिकयुगीन विचारों से मिलते हैं। सन्दर्भ कोई भी, चाहे धार्मिक प्रवचन या नैतिक सूक्तियाँ हों, सबमें समाज-कल्याण, जनहिताय, अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों का वर्णन अवश्य ही मिलता है। रामायण, महाभारत, गीता, चरकवैद्यक आदी में ब्रह्मचर्य सन्तति निरोध, आत्मसंयम आदि को धर्म एवं नीति के उपदेश के रूप में प्रस्तुत किया गया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तो सम्पूर्ण राज्य-व्यवस्था. क्षेत्रीय वितरण, जनसंख्या एवं उर्वरा शक्ति का आधार; समाजकल्याण, प्रजा का आवास-प्रवास आदि का तो बड़ा ही सुन्दर उल्लेख है।

मध्य युग (10वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक) के विचारकों में साधुकवि कबीरदास, तुलसीदास, मीराबाई, नानक, सूरदास तथा अब्बुल फजल आते हैं जिनकी रचनाओं में तो राज्य के प्रति प्रजा तथा प्रजा के प्रति राज्य के कर्तव्यों का उल्लेख मिलता है। अब्बल फजल ने 'आइन-ए-अकबरी' में मालगुजारी, तकावी, कृषकों के बीच बीच का वितरण तथा अन्य समस्याओं पर विचार प्रकट किये हैं। इसी प्रकार यदि विश्व के अनेक साहित्यों का अध्ययन किया जाए तो अवश्य ही जनसंख्या के विषय में आधुनिक युग से अलग ही जानकारी प्राप्त होगी।

प्राचीन विचारक कन्फ्यूशस का साहित्य इस बात का साक्षी है कि लोगों का ज्ञान - जनसंख्या तथा उत्पादन और जीवन-स्तर के सम्बन्ध में - बड़ा ही आगे था। लोग इस बात से पूर्णरूपेण अनभिज्ञ थे कि जनसंख्या की अधिक वृद्धि प्रति व्यक्ति उत्पादन को गिरा सकती है, जनता का जीवन-स्तर गिर सकता है। इसी प्रकार के विचार चीनी विचारकों के साहित्य में भी देखने को मिलते हैं। इन लोगों के मतानुसार उस समय भी लोग कृषि एवं जनसंख्या के आदर्श अनुपात के पक्षपाती थे। कृषि में संलग्न जनसंख्या में परिवर्तन, जो कि सम्पूर्ण जनसंख्या में परिवर्तन के कारण होता है, सम्पूर्ण कृषि-व्यवस्था में असन्तुलन ला देता है, जिससे आर्थिक व्यवस्था में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार की गड़बड़ी को रोकने के लिए सरकार को अनैच्छिक या बलात् प्रवास की व्यवस्था करनी पड़ती थी। इसके अलावा चीनी साहित्य में जनसंख्या वृद्धि पर रोक के भी प्रसंग मिलते हैं।

यूनानी विचारकों का मत (Thoughts of Greek Thinkers):- प्राचीन यूनानी सभ्यता तथा एशिया की सभ्यता कुछ बातों में समान है। यूनानी विचारकों के आर्थिक एवं जनांकिकीय विचारों का उल्लेख हीरोडोट्स थियुसिडीड्स, हिपोकेट्स, एपीक्यूरस, प्रोटगोरस, प्लेटो, अरस्तु तथा जीनोफन आदि कृतियों में देखने को मिलता है।

(1) प्लेटो तथा अरस्तु:- प्लेटो (Plato, 428-348 B.C.) तथा अरस्तु (Aristotle,384-322 B.C.) ने जनसंख्या के आदर्श आकार पर अपने विचार मानवीय साधनों के अधिकाधिक विकास के सन्दर्भ में स्पष्ट किए हैं। उनके अनुसार अच्छा जीवन' तभी जिया जा सकता है जबकि जनसंख्या केवल इतनी ही हो कि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके और स्वयं की आत्म-रक्षा कर सके, परन्तु जनसंख्या के आकार और प्रति व्यक्ति उत्पादन में क्या सम्बन्ध होना चाहिये, इस विषय में कुछ भी नहीं कहा गया। प्लेटो ने अपनी पुस्तक दी रिपब्लिक तथा दी लाज में इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया है। उनका मानना है कि यदि जनसंख्या उचित नहीं है तो निर्धनता बढ़ेगी। उत्तराधिकार तथा जनसंख्या के सन्दर्भ में प्लेटो का मत है कि उत्तराधिकारी के नियम ऐसे हों जिनमें परिवार तथा उनकी सम्पत्ति का बदलाव न हो। उनके मत में अपनी भूमि के लिये प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक उत्तराधिकारी चुनना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति सन्तानविहीन है, तो वह किसी लड़के को गोद ले सकता है। यदि उसके केवल लड़कियाँ हैं तो वह किसी एक लड़की के पति को चुन सकता है। भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति को वह शेष बच्चों में विभाजित कर सकता है। प्लेटों के अनुसार देश में सामाजिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए जनसंख्या नियमन आवश्यक है। अरस्तु ने तो गर्भपात एवं शिशु त्याग को भी जनसंख्या वृद्धि रोकने का कारण बताया है।

(2) जीनोफन:- जीनोफन (Xenophon, 440-355 B. C.) जो कि सुकरात के शिष्य थे, ने भी कृषि, संयुक्त पूँजी प्रबन्ध, जनसंख्या आदि आर्थिक विषयों पर विचार व्यक्त किये हैं। उनका आय तथा जनसंख्या के सम्बन्ध में विचार था कि मनुष्यों की दरिद्रता को दूर करने के लिए राज्य को अपनी आय बढाने के लिये कुछ इस प्रकार के उपाय करने चाहिये। उनका एक सुझाव यह था कि विदेशियों पर लगे समस्त प्रतिबन्ध हटा दिये जायें और उनके बसने के लिये हर प्रकार की सुविधायें प्रदान की जायें। प्लेटो के विपरीत, जीनोफन सीमित जनसंख्या के समर्थक नहीं थे। नगर की सम्पन्नता तथा श्रम-विभाजन के लिये उन्होंने अधिक जनसंख्या का पक्ष लिया।

रोमन विचारकों का मत (Thoughts of Roman Thinkers):- रोमन विचारकों एवं दार्शनिकों में सिसरी, सेनेका, मारकन ओरलियस, कैटो, वारी तथा कोलूमला का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन रोमन विचारकों ने भी चीनी विचारकों की भाँति नगर की जनसंख्या की सीमा निर्धारित नहीं की। ये लोग एक नगर की अपेक्षा एक विशाल साम्राज्य की कल्पना करते थे। ये लोग सैन्य आदि दृष्टिकोण से जनसंख्या को देखते थे। इनके लिए जनसंख्या के सिद्धान्त का कोई विशेष महत्व नहीं था और न ही वे इसके प्रति आज की भाँति सचेत ही थे। यही कारण है कि इन रोमन विचारकों का ध्यान जनसंख्या के सिद्धान्त की अपेक्षा जनसंख्या - वृद्धि की ओर अधिक था। रोमनों के जनसंख्या वृद्धि की तरफ अत्यधिक ध्यान केन्द्रित करने का संकेत उनके अविवाहित जीवन का अनुमोदन न करने, विवाह और प्रजनन का प्रतिपादन और वैवाहिक व जन्म-दर की वृद्धि सम्बन्धी कानूनों से मिलता है। फलतः रोमन विचारक सिसरों ने यूनानी विचारक प्लेटो के व्यापक पारिवारिक साम्यवाद, जिसमें पत्नी एवं बच्चों को सामूहिक रूप में देने के परिणामस्वरूप आपसी द्वेष की समाप्ति हो जाती है तथा जनसंख्या को पूर्ण रूप से नियन्त्रित किया जा सकेगा आदि समस्त बातों का खण्डन किया। सिसरो ने एक विवाह का समर्थन किया और इसी के माध्यम से राज्य की जनसंख्या को बनाये रखने का समर्थन किया।

मध्ययुगीन विचारकों के विचार (Thoughts of Medieval Thinkers):- इतिहासकारों तथा विद्वानों में मध्यकाल की अवधि के निर्धारण में मतभेद है। रोमन साम्राज्य के पतन (476 ई०) से प्रारम्भ हुआ और उस समय सभी इतिहासकारों व विद्वानों में एकता थी। किन्तु इस युग के अन्त के विषय में मतैक्य नहीं है। फिर भी कुछ विद्वान् इसका पतन 1300 ई० या 1453 ई० या 1382 ई० में मानते हैं। इनके अनुसार - "मध्य युग रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात् से लगभग एक वर्ष तक अस्तित्व में रहा।" मध्य युग के प्रारम्भिक वर्षों को अन्धकार युग कहा जाता है क्योंकि इन वर्षों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई बल्कि अधिकतर आर्थिक क्रियाएँ यथावत् रहीं। मध्ययुगीन समस्त विचारधाराओं को दो वर्गों- (1) लगभग 400 से 1200 ई० तक की अवधि तथा (2) 1200 से 1500 तक की अवधि - में विभाजित किया जा सकता है। इन दोनों युगों में रोमन विचारों का खण्डन तथा जर्मन विचारों एवं ईसाई धर्म तथा चर्च का. प्रभाव जनजीवन पर बहुत देखा गया है।

इन ईसाई लेखकों ने जनसंख्या के प्रश्न को पूर्ण रूप से नैतिक व नीति-विषयक माना है और भौतिकता को विशेष महत्व नहीं दिया हैं। उन्होंने जहाँ गर्भपात, शिशु हत्या, तलाक और बहु-विवाह का खण्डन किया है वहीं कौमार्य, इन्द्रिय-दमन, अविवाहित जीवन आदि की प्रशंसा भी की है। वैसे तो इनका मत यूनानियों तथा रोमनों की भाँति जनसंख्या को राज्य की शक्ति का साधन न मानने से था, फिर भी इनका तात्पर्य अस्तित्व को बनाये रखने के लिये ऊँची जन्म-दर में अवश्य था। ये भी प्राकृतिक निरोधों - बाढ़, सूखा, अकालों, महामारियों - को जनसंख्या विनाश का कारण मानते हैं। अतः इसके अनुसार जनसंख्या को पूर्ण रूप से रोका नहीं जा सकता क्योंकि ऊँची जन्म दर ही जनसंख्या का अस्तित्व बनाए रखती है। चौदहवीं शताब्दी में मुसलमान लेखक इब्न खाल्दून के साहित्य में जनसंख्या के चक्रवत परिवर्तन सिद्धान्त तथा उसकी आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक मनोदशाओं के सम्बन्ध का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार की विचारधारा 18वीं शताब्दी तक प्रचलित रही। यद्यपि इस प्रकार का ज्ञान लोगों को था, फिर भी पूर्वी देशों में इसका कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता है और पश्चिमी देशों में अज्ञानता के कारण कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसी प्रकार का विचार इटली के विद्वान बोवेरो के साहित्य में मिलता है जिसके अनुसार मानव की प्रजनन शक्ति जनसंख्या के आकार को बिना विचार किये बहुत तीव्रता से क्रियाशील रहती है जबकि जीवित रहने के साधन सीमित रहते हैं और यह सीमा जनसंख्या को युद्धों, झगड़ों,आदि विभिन्न साधनों से सीमित रखती है।

बणिकवादी तथा कैमरावादी विचारकों का मत (Thoughts of Mercantilists and Kaneralists:- बणिकवाद में उन विचारकों का समावेश है जो 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के अन्तिम भाग तक यूरोप के विभिन्न राजनीतिज्ञों में प्रचलित थे। यह वाद इस समयान्तराल में इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, ऑस्ट्रिया आदि यूरोपीय राष्ट्रों में प्रचलित था। वणिकवाद को विभिन्न देशों और विभिन्न समयों पर विभिन्न नामों, जैसे कालबर्टवाद, वाणिज्यनीति, प्रतिबन्धक व्यवस्था. धातुवाद. कैमरलिज्म और बणिकवाद से भी पुकारा जाता है। बणिकवादी विद्वानों में फ्रांसीसी विद्वान एनटायन डी मान्ट्रेशियन अंग्रेजी विद्वान सर थामस मन विलियम पेट्टी, चार्ल्स डेवान्त, सर डूडले नॉर्थ, सर जोशिया चाइल्ड, सर जेम्स स्टआर्ट, जीन बैपटिस्ट कोलबर्ट, रिचर्ड कैन्टिलन (1734), एनटॉनियो सेरा तथा जॉन लॉक का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

इन तमाम बणिकवादी विचारकों का मत था कि संसार का समस्त सुख सोना, चाँदी, हीरा आदि कमाने में है, जिसके लिए व्यापार ही एक वास्तविक स्त्रोत है, इसीलिये ये विचारक जनसंख्या में वृद्धि को राजनीतिक, आर्थिक एवं सैन्य अन्य कई दृष्टिकोणों से लाभकारी मानते थे। इनका मत था कि बढ़ती हुई जनसंख्या व्यापार एवं उद्योग के विकास में दो प्रकार से सहायक सिद्ध होती है - प्रथम, श्रमिकों की पूर्ति अधिक होने से उत्पादकों को श्रम सस्ता प्राप्त होता है, जिससे वस्तुओं की उत्पादन लागत घट जाती है, और काम में वृद्धि होती है। माँग अधिक होने पर अधिक मूल्य पर विक्रय सम्भव हो सकता है। इन विद्वानों का उस समय मुख्य उद्देश्य किसी भी प्रकार से सोने-चाँदी आदि धातुओं तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना था। उनका इस बात से कोई सम्बन्ध न था कि इन सबसे प्रति व्यक्ति आय तथा समाज की सामान्य आर्थिक दशा पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उन्हीं के मत में - यदि देश की अधिकांश जनसंख्या को जीवन-निर्वाह मजदूरी पर भी कार्य मिल जाये तो राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी तथा उत्पादन के बढ़ने से सोने-चाँदी आदि का अधिक से अधिक आयात सम्भव हो सकेगा। इन विद्वानों ने जनसंख्या और विदेशी व्यापार में भी सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया है।

इसी सन्दर्भ में जेम्स स्टुआर्ट ने अपनी पुस्तक - एन इन्क्वारी इनटू दी पोलिटीकल इकोनोमी में लिखा है कि कार्यों का समन्वय किया जाना चाहिए अन्यथा जनसंख्या को देश में उपलब्ध जन-निर्वाह के साधनों तक सीमित करना पड़ेगा। बणिकवादी विचारकों में कुछ ही लोग ऐसे थे जिन्होंने जनसंख्या में होने वाले परिवर्तनों की व्यवस्थति व्याख्या की है और जनसंख्या वृद्धि को रोक सकने वाले सम्भावित साधनों, जैसे - प्लेग, युद्ध, दुर्घटनाओं, असमान जलवायु व शहरीकरण, बांझपन, पाप, गर्भपात, देर से विवाह, अविवाहितता, स्वदेश त्याग का वर्णन किया है क्योंकि कुछ विद्वानों ने जनसंख्या के बढ़ने को गलत नहीं मानकर उसे आवश्यक भी माना है।

संक्षेप में, बणिकवादी दो कारणों से जनसंख्या में वृद्धि के पक्ष में थे - प्रथम, युद्ध के लिए सेवा का सरलता से विस्तार किया जा सकेगा तथा दूसरे उत्पादन में वृद्धि होगी। अति जनसंख्या की अवस्था में मजदूरी कम होगी जिसके फलस्वरूप उत्पादन लागत तथा वस्तु का मूल्य घटेगा। मूल्य कम होने से वस्तुओं का निर्यात आसानी से बढ़ेगा जिससे देश में सोने-चाँदी का आयात अधिक होगा। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर विवाह तथा पैतृकता को प्रोत्साहित करने के लिए नियम तथा कानून बनाये गये। देवनान्त के शब्दों में, "किसी देश की वास्तविक शक्ति उसकी जनता है।''। सैम्युअल फौरटे के शब्दों में, "यदि ठीक प्रकार से नियन्त्रित किया जाये तो जनता तथा बहुलता दोनों सामान्यतः एक-दूसरे के पिता है।"

बणिकवादियों ने बेरोजगारी - समाधान के प्रयत्नों पर विशेष बल दिया तथा कहा कि श्रमिकों की कुशलता में वृद्धि के लिए उनकी शिक्षा का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए।

प्रकृतिवादी विचारकों का मत (Thoughts of Physioerates):-18 वीं शताब्दी के मध्य में फ्रांस में प्रचलित आर्थिक विचारों को 'प्रकृतिवादी' के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ प्रकृति का शासन' होता है। कुछ विचारक 'प्रकृतिवाद' को 'निर्वाध-वाद' या 'कृषिक पद्धति' भी कहकर पुकारते हैं। इन विचारकों में - फ्राँसिस क्वेने, एने राबर्ट जैक्स तरगो, पेरी सैम्युअल उपोन्ट डी नेमोर, माकि्र्वस डी मिराब्यू और बांदयू का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

इन अर्थशास्त्रियों ने बणिकवादियों के विपरीत अपने विचारों में 'प्रकृति' को प्रधानता दी। इन विचारकों का दृढ़ विश्वास था कि प्रकृति के द्वारा मानवहित के लिए बनाई गई नैसर्गिक व्यवस्था ही पूर्व है। "प्रकृतिवादी व्यवस्था का सार उनके प्राकृतिक विचार में निहित है।"

मनुष्य समाज में संयुक्त रूप से रहते हुए शीघ्रता से बढ़ते है। यदि वे अपनी बढ़ती हुई संस्था के साथ कृषि के साधनों में वृद्धि नहीं करते तभी उन्हें जीवन निर्वाह के साधनों की कमी का सामना करना पड़ता है। इनके विचार थे कि बढ़ती हुई जनसंख्या में विघ्न डालना प्रकृति का सीधा विरोध करना है। यह बढ़ती हुई जनसंख्या समाज के लिए लाभकारी होती है। ये लोग प्राकृतिक व्यवस्था को समाज-कल्याण व्यवस्था मानते थे।

निर्वाधवादी अर्थशास्त्रियों में कुछ इस प्रकार के विचार भी थे जो सर्वथा जनसंख्या वृद्धि को हितकारी ही नहीं मानते थे। इनका मत था कि किसी देश की जनसंख्या जहाँ देश को शक्तिशाली बनाती है वहीं अनेक प्रकार के कष्ट एवं दुःख भी लाती है। प्रसिद्ध प्रकृतिवादी अर्थशास्त्री क्वेसने के अनुसार "जनसंख्या को बढ़ाने की अपेक्षा राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने की ओर अधिक ध्यान देना चाहिये क्योंकि वह स्थिति जिसमें कि आय से अधिक सुख मिलते हैं - उस स्थिति से जिसमें जनसंख्या अधिक आय से बढ़ जाती है और सदा जीविका चलाने के साधनों की विशेष खोज करती रहती है, कहीं श्रेष्ठ है। इस प्रकार हम देखते है कि इस समय देश को शक्तिशाली बनाने की इच्छा प्रबल थी। लोग न ही इसका दमन चाहते थे और न ही इसे मानव सुख अधीन मानने को तैयार थे। इस प्रकार माल्थस के पूर्व अनेक विद्वानों ने अपने अपने विचार प्रस्तुत किए।"

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