नव-माल्थसवाद,
माल्थस के अनुयायियों द्वारा चलाया गया वह आन्दोलन है जो परिवार नियोजन तथा
सन्तति-निग्रह के कृत्रिम उपाय अपनाकर जनसंख्या को सीमित रखने पर जोर देता है।
नव-माल्थसवादी सहवास के आनन्द को नष्ट किए बिना गर्भ-निरोध के कृत्रिम उपायों
(पिल्स, कण्डोम आदि का प्रयोग) तथा गर्भपात एवं ऑपरेशन आदि के भी समर्थक हैं। उनके
अनुसार किसी भी शारीरिक, रासायनिक, यात्रिक तथा शल्य चिकित्सात्मक ढंग से किसी
स्वस्थ्य स्त्री-पुरूष के समागम पर भी गर्भ रहने में बाधा पहुँचाना ही सन्तति
निग्रह है। इस तरह, माल्थस के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहे जाने वाले ये विचारक
माल्थस द्वारा बतायी गयी जन्म-वृद्धि संबंधी सम्भावनाओं में तो विश्वास करते थे,
परन्तु वे माल्थस के विपरीत गर्भ निरोध के कृत्रिम साधनों के समर्थक हैं। इस तरह
के स्वावलम्बियों की धारणा थी कि कामेच्छा पर किसी प्रकार का अन्यथा प्रभाव पड़े
बिना यदि सत्नानोत्पादन कम हो सके तो सन्तति-निग्रह की कृत्रिम विधियों का खुलकर
प्रयोग किया जाना चाहिए। वस्तुतः इस युग का प्रारम्भ डॉ० ड्रिसडेल द्वारा रचित
पुस्तक 'सामाजिक विज्ञान के तत्व' के प्रकाशन के पश्चात् में हुआ तथा 1871 में
माल्थसवादी सभा की स्थापना के साथ ही नव माल्थसवाद में गति आई। नव माल्थ्सवादियों
के आन्दोलन ने इंग्लैण्ड की श्रीमती मेरी स्टोप्स तथा अमेरिका की श्रीमति मार्गरेट
सेंगर के नेतृत्व में जोर पकड़ा। इन लोगों ने स्त्री-पुरूष के सहवास के आनन्द को
कम किए बिना ही रासायनिक, यांत्रिक एवं शल्य क्रिया द्वारा सन्तति-निग्रह के
उपायों को अपनाने की सिफारिश की। इस तरह, संतोनोत्पादक काम-वासना की पूर्ति का
स्वाभाविक प्रतिफल है। कामेच्छा को दबाने से अनेक बुराइयाँ छिपे तौर पर उत्पन्न
होने लगती हैं। अतः यह उचित होगा कि युवावस्था प्राप्ति पर विवाह कर यथासंभव संयम
से दाम्पत्य जीवन का निर्वाह किया जाए और सन्तान की इच्छा न होने पर कामेच्छा की
पूर्ति का आनन्द गर्भ निरोध के कृत्रिम साधनों को प्रयोग कर उठाया जाए।
यदि माल्थस जीवित होते तो क्या वे
नव-माल्थसवादी होते?
माल्थस
व नव-माल्थसवादी दोनों ही ने जनसंख्या वृद्धि को देश के लिए हानिकारक बताया है।
परन्तु जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के साधनों में मतभेद है। कुछ
नव-माल्थसवादी विद्वानों का कहना है यदि माल्थस जीवित होते तो वे नव-माल्थसवाद के
अगुआ होते। किन्तु प्रो० जीड व रिस्ट नवमाल्थसवादियों के इस विचार से सहमत नहीं
है। उनका कथन है कि माल्थस की पुस्तक 'Essay on Population के प्रथम संस्करण में
उन्होंने निरोधक प्रतिबन्ध को नैसर्गिक प्रतिबन्ध से घटिया माना है। परन्तु
नव-माल्थसवादियों का कहना है कि उन्होंने अपनी पुस्तक के द्वितीय संस्करण में
आत्मसंयम के स्थान पर विवेकपूर्ण निरोध शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने कहा है
कि, "यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि असामयिक मृत्यु की अपेक्षा विवाह
पर विवेकपूर्ण नियंत्रण अच्छा है।"
माल्थसवाद तथा नवमाल्थसवाद में
भिन्नता
नव-माल्थसवादियों
तथा माल्थस के विचारों में भिन्नताएँ पाई जाती हैं। माल्थस सम्भोग की इच्छा तथा
संतानोत्पादन की इच्छा में कोई भेद नहीं मानते थे, जबकि नव-माल्थसवादी इसके भेद को
स्वीकार करते थे। नव-माल्थसवादियां की धारणा है कि सम्भोग की इच्छा एक प्राकृतिक
इच्छा है जबकि सन्तानोत्पत्ति की इच्छा धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परम्पराओं पर
आधारित कोमल भावना है। उपर्युक्त दृष्टिकोण के समर्थन में अनेक दृष्टांत प्रस्तुत
किए जा सकते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार पितृ ऋण से मुक्ति के लिए पुत्र का
उत्पन्न होना आवश्यक समझा जाता है। यदि ऐसा नहीं होगा तो पिण्डदान के अभाव में
पिता की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी और वह स्वर्ग-सुख से वंचित रहेगा। इसी तरह
पुत्री के जन्म के बिना माँ की कोख पवित्र नहीं होती। पुत्री के कन्यादान के बिना
पुरूष नर्क का भागी होता है। सामाजिक दृष्टि से सन्तानविहिन दम्पत्ति को अभागा
समझा जाता है। राजनीतिक दृष्टि से अपने देश तथा जाति की रक्षा के लिए सन्तान होना
आवश्यक समझा जाता है। माल्थस निर्धन व्यक्ति के लिए सन्तान का होना अथवा अधिक होना
अभिशाप मानते हैं।
नव-माल्थसवादियों
की धारणा है कि समय में बदलाव के साथ-साथ सन्तान को बढ़ाने की सामाजिक एवं धार्मिक
मान्यताएँ बदल रही हैं। आज कामेच्छा में तो कमी नहीं, परन्तु सन्तानोत्पादन की
इच्छा में कमी स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। लोग सम्भोग तो चाहते हैं, परन्तु प्रजनन
नहीं चाहते। इसके पीछे कई बातें हो सकती है, यथा, बच्चों के उत्तरदायित्व से बचना,
प्रसव पीड़ा से छुटकारा प्राप्त करना, अपने स्वास्थ्य एवं शारीरिक सौष्ठव को बनाए
रखना, दाम्पत्य स्वतंत्रता में बाधा न आने देना, आदि अनेकों कारण हैं जिसके कारण
व्यक्ति अपनी सन्तानोत्पादन की इच्छा को तो रोकना चाहता है, परन्तु सम्भोग की इच्छा
को नहीं।
नव-माल्थसवादियों के सिद्धान्त की
आलोचना
(Criticism of neo-Malthesian's
Thoughts)
निम्नलिखित
प्रकार से नव-माल्थसवादियों के सिद्धान्त की आलोचना की गई है।
(1)
नव-माल्थ्सवादियों की पहली आलोचना लोगों ने यह करके की कि कृत्रिम गर्भ निरोधक
उपायों के प्रयोग से जनसंख्या को रोकना अस्वाभाविक एवं प्रकृति के विरूद्ध है।
इसके प्रत्युत्तर में नव-माल्थसवादियों का मानना है कि हम प्रतिदिन के जीवन में
अपनी उन्नति तथा सुख के लिए ऐसे बहुत से कार्य करते हैं जो अस्वाभाविक तथा प्रकृति
के विरूद्ध होते हैं। जैसे बाल का कटवाना, नाखून का कटवाना, रात्रि-रात्रि भर
जागना आदि।
(2)
कुछ लोग तो जाति-नाश के डर से भी इसको अपनाना अहितकारी मानते हैं।
(3)
कुछ आलोचक इसे स्त्रियों के स्वास्थ्य- मानसिक एवं शारीरिक दोनों दृष्टिकोणों से
उचित नहीं मानते हैं।
(4)
लार्ड बर्टेन्ड रसेल (Bertrend Russel) के अनुसार- "इस समय दुःख इस बात का
नहीं है कि जन्म-दर घटी है, परन्तु वास्तव में यह घटना सबसे अधिक जनसंख्या के
सर्वोत्तम वर्गो में हुई है।"
वास्तव
में प्रायः देखा जाता है कि जनसंख्या के निरोध के प्रसाधनों का प्रयोग शिक्षित,
धनी तथा बाहरी लोगों ने अधिक किया है जिससे इनकी सन्तानों में कमी आई है अर्थात
गणात्मक ह्रास आया है, जबकि इसका प्रयोग चरित्रहीन, दुर्बल, रोगी एवं गरीबों ने
किया ही नहीं है जिससे कि मुखों, चरित्रहीनों आदि की संख्या में निरंतर वृद्धि हो
रही है जो कि जनसंख्या के गुणात्मक स्तर को गिरा रहे हैं।
माल्थस के बाद के जनसंख्या सिद्धान्त
18
वीं शताब्दी में यूरोप में हो रही औद्योगिक क्रांति के समय माल्थस का सिद्धान्त
प्रतिपादित हुआ। स समय विचारकों ने उसके सिद्धान्त का परीक्षण प्रारंभ किया।
औद्योगिक क्रांति के समय जनसंख्या वृद्धि के कारण लोगों का जीवनस्तर गिरना चाहिये
तथा जनसंख्या वृद्धि की दर बढ़नी चाहिए। परन्तु स्थिति इसके विपरीत पाई गई। अतएव
माल्थस की आलोचनायें। प्रारम्भ हुई। फलस्वरूप जनसंख्या के वैज्ञानिक एवं सामाजिक
सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने लगा। इस सिद्धान्तों को 4 वर्गों में वर्गीकृत किया
जा सकता है। इन वर्गों में प्रतिपादित होने वाले सिद्धान्तों की रूपरेखा
निम्नांकित चार्ट से स्पष्ट हो जाती है।
प्रमुख सिद्धान्त
(1) घनत्व एवं प्रजननता का सिद्धान्त (Theory of Density and
Fertility):- माइकल
थामस सैडलर (1780 - 1885) एक ब्रिटिश समाज-सुधारक तथा अर्थशास्त्र का विद्वान था।
वह माल्थस का समकालीन था, जिसने 'द लॉ ऑफ पापुलेशन' नामक पुस्तक द्वारा माल्थस की
घोर आलोचना का था। उसने अपनी लगभग 1300 पृष्ठों वाली पुस्तक के 2/3 भाग में केवल
माल्थस की ही आलोचना की थी। सैडलर का मत था कि, "मानव की प्रजननता उसके घनत्व
का प्रतिलोमानुपाती होती है।'' अर्थात जैसे-जैसे जनसंख्या का घनत्व बढ़ता जायेगा
वैसे ही जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति कम होती जायेगी और उस बिन्दु पर जनसंख्या
वृद्धि नगण्य हो जायेगी, जहाँ पर लोग सर्वोत्कृष्ट सुख का भोग करने लगेंगे। सैडलर
के सिद्धान्त की प्रमुख विशेषतायें निम्नांकित है:
(a)
सैडलर एक आदर्शवादी विचारक था जबकि माल्थस निराशावादी थे। सैडलर का विचार था
जनसंख्या ज्यामितीय दर से नहीं बढ़ती। जनसंख्या का घनत्व बढ़ने पर लोगों का
जीवनस्तर गिरता है। फलस्वरूप लोगों में प्रजनन शक्ति का ह्रास होने लगता है।
(b)
सैडलर के घनत्व सिद्धान्त का समर्थन इस उदाहरण से हो जाता है कि जनसंख्या कृषि
प्रधान देशों की अपेक्षा विकसित औद्योगिक देशों में अपेक्षाकृत कम गति से बढ़ती
है।
(c)
सैडलर का विचार था कि जनसंख्या घनत्व के बढ़ने से कृषि व औद्योगिक तकनीकों में
विकास के कारण उत्पादन में वृद्धि होगी।
(d)
सैडलर के अनुसार यदि मृत्यु-दर की प्रवृत्ति बढ़ेगी तो उसकी क्षतिपूर्ति हेतु
जन्म-दर की भी प्रवृत्ति बढ़ेगी और यदि, मृत्यु-दर में ह्रास होगा तो जन्म दर में
कमी आ जायेगी।
सैडलर
के सिद्धान्त की प्रमुख समीक्षात्मक विशेषतायें निम्नलिखित हैं:
(a)
सैडलर माल्थस की अपेक्षा अधिक आशावादी था।
(b)
सैडलर के सिद्धान्त में विरोधाभास मिलता है। उनके अनुसार घनत्व बढ़ने से जन्म-दर
कम तथा मृत्यु-दर बढ़ जातीहै। परन्तु वह यह भी कहता है कि मृत्यु दर के अधिक होने
से जन्म दर में वृद्धि की प्रवृत्ति पाई जायेगी।
(2) आहार सिद्धान्त (Food Theory):- थामस डबलेड ने आहार सिद्धान्त को प्रस्तुत किया था।
उसने सैडलर से लगभग 20 वर्षों बाद जनसंख्या विषय पर कुछ लिखना प्रारम्भ किया था।
डबलेड का विचार था कि जितनी ही अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में खाद्य पदार्थ उपलब्ध
होंगे उतनी ही जनसंख्या वृद्धि की दर धीमी होगी। उनके अनुसार विश्व के लगभग
प्रत्येक ऐसे क्षेत्र में जहाँ पर्याप्त मात्रा में खाद्य पदार्थ प्राप्त नहीं
हैं, गरीबों की संख्या सतत् बढ़ रही है। दूसरी ओर, जो आर्थिक दृष्टि से सशक्त है
तथा पौष्टिक आहार ग्रहण कर रहे हैं, उनकी संख्या में वृद्धि धीमी गति से हो रही
है। मध्यम आय वर्गीय लोगों में कोई महत्वपूर्ण वृद्धि नहीं दिखाई देती। डबलेड के
इस सिद्धान्त को 20वीं शताब्दी के मध्य में उस समय अधिक समर्थन मिलना प्रारम्भ हुआ
जब डिकास्ट्रो ने अपनी पुस्तक में यह कहा कि "अधिक प्रोटीन युक्त आहार मनुष्य
की दैहिक क्षमता को कम करते हैं तथा कम प्रोटीन युक्त आहार बढ़ाते हैं।"
सिद्धान्त
की आलोचना:
(1)
प्रोटीन युक्त भोजन करने से मोटापा बढ़ता है, जिससे प्रजनन दर कम हो जाती है।
(2)
डबलेड का यह कथन असत्य प्रतीत होता है, कि रिक्तता की अवस्था में जनसंख्या खाने
बगैर समाप्त हो जायेगी तथा पर्याप्तता की अवस्था में प्रजनन शक्ति के अभाव में
समाप्त हो जायेगी। ऐसा होना संभव नहीं है।
विद्वानों
ने डबलेड के इस विचार का जोरदार ढंग से खण्डन किया है कि धनी, प्रजनन-दर कम होने
के कारण, अपनी सम्पत्ति को अपने बच्चों तक नहीं पहुंचा पायेंगे। बाद में आगे चलकर
गरीबों के बच्चे उस सम्पत्ति के मालिक बनेंगे। इस प्रकार सम्पत्ति का वितरण समान
रूप से हो जायेगा।
(3) प्राणिशास्त्रीय सिद्धान्त (Biological Theories):- प्राणिशास्त्रीय जनसंख्या सिद्धान्त
का प्रतिपादन हर्बट स्पेन्सर ने किया। इनका सिद्धान्त सैडलर व डबलेड से
मिलता-जुलता है। इनका मुख्य ध्येय प्राकृतिक नियमों द्वारा जीव-वैज्ञानिक एवं
सामाजिक विकास का अध्ययन करना था। स्पेन्सर भी अन्य विद्वानों की भाँति जनसंख्या
वृद्धि दर को प्रकृति का कार्य मानते थे उसके अनुसार स्त्रियाँ जितना अधिक
व्यक्तिगत विकास में लगी रहेंगी, उन्हें उतनी ही अधिक शक्ति व समय की आवश्यकता
होगी। फलस्वरूप उनकी सन्तानोत्पादन की क्षमता उतनी ही कम होगी। मानव जीवन की बढ़ती
हुई जटिलताओं के कारण उसकी सीमित क्षमता का उपयोग उसके वैयक्तिकरण में संतानोत्पत्ति
की अपेक्षा होने लगता है। फलतः निर्धन व्यक्तियों में उत्पत्ति की अपेक्षा
वैयक्तीकरण कम होता है। उसकी प्रजनन क्षमता बच्चों को पैदा करने की सीमा से परे
है। स्पेन्सर ने प्रजनन-दर की प्रवृत्ति के विश्लेषण के लिये विकासवादी सिद्धान्त
का सहारा लिया है। उसके अनुसार जीव के आकार के अनुसार प्रजनन-दर निश्चित होती है।
छोटे-छोटे जीवों का प्रजनन-दर अत्यधिक होता है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति नर व मादा
के संभोग से नहीं वरन् उनके शरीर के कोशिका-विभाजन के कारण होती है। इसके ठीक
विपरीत बड़े जीवों की उत्पत्ति प्रक्रिया जटिल होती है, जिससे संख्या सीमित होती
है। इस प्रकार स्पेन्सर ने अपने जनसंख्या सिद्धान्त में प्रजनन क्षमता के बारे में
महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है परन्तु उनके द्वारा बताए गए नियम के माध्यम से जनसंख्या
वृद्धि की प्रकृति की स्पष्ट व्याख्या नहीं हो पाती है।
(4) जनसंख्या का विकासवादी सिद्धान्त (Development Theoryof
Population):- इस
सिद्धान्त का प्रतिपादन इटली के कोरोडो गिनी ने किया। उन्होंने समाज व देश की
प्रगति पर जनसंख्या-परिवर्तन के प्रभाव को अध्ययन का केन्द्र बिन्दु माना है। उनका
मत था, कि समाज के विभित्र वर्गों पर जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव भिन्न-भिन्न होता
है। इनके सिद्धान्त को स्वाभाविक नियम के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है, क्योंकि
उनका कहना था, कि जनसंख्या वृद्धि-दर सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों से नहीं वरन्
जीव-वैज्ञानिक परिवर्तनों से प्रभावित होता है। मानव-जीवनक्रम की भाँति जनसंख्या
की वृद्धि एवं ह्रास एक चक्र की भाँति है, जिसके प्रथम चरण में वृद्धि में
तीव्रता, दूसरे चरण में वृद्धि गति की न्यूनता एवं जनसंख्या में परिपक्वता मिलती
है। तीसरे चरण में जनसंख्या कम होने लगती है।
गिनी
का मत था कि प्रजननता में ह्रास होने के कारण मनुष्य की क्षमता में भी कम होने
लगती है तथा यह सभी परिवर्तन वंशानुक्रम के अनुसार होने वाले जीव - वैज्ञानिक
परिवर्तनों के परिणामस्वरूप होते हैं। थाम्पसन व लेविक के अनुसार “गिनी ने मनुष्य
के संख्यात्मक एवं गुणात्मक विकास के लिये कुछ आधारभूत जैविक परिवर्तनों के महत्व
को स्वीकार किया है। इसे उन्होंने मनुष्य के नियंत्रण से परे माना है। थाम्पसन व
लेविस ने गिनी की आलोचना करते हुए कहा है कि उसने मनुष्य का जन्म, मरण व जीवन के
गुणात्मक विकास को अप्रामाणिक जैविक तथ्यों पर आधारित किया है।'' यह कथन अभी तक प्रमाणित
नहीं हो सका है कि प्रकृति जीवन निर्वाह के साधनों तक जनसंख्या में संतुलन बनाये
रखने के लिये मनुष्य की पुनरूत्थान शक्ति को घटा देती है, दूसरी ओर स्वयं मनुष्य
ने ही जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिये कृत्रिम साधनों की खोज करके प्रजनन-दर
को कम कर दिया है।
(5) सामाजिक केशाकर्षण शक्ति का सिद्धान्त:- फ्रांस की जनता को आधार मानकर 19वीं
शताब्दी के अंतिम दशक में ड्यूमण्ट ने सामाजिक केशाकर्षण शक्ति का सिद्धान्त
प्रस्तुत किया। उनका यह सिद्धान्त व्यक्ति विशेष के समाज में प्रतिष्ठा पाने से
संबंधित है। उन्होंने अपने सिद्धान्त को भौतिक कोशिकत्व की भाँति सामाजिक कोशिकत्व
की संज्ञा देते हुए उसे सामाजिक आकर्षण से सम्बन्ध किया है। उन्होंने कहा है कि
जिस प्रकार किसी तरल पदार्थ को ऊपर चढ़ने के लिये कोशिका का पतला होना आवश्यक है।
उसी प्रकार समाज में किसी व्यक्ति या परिवार का प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए
उसका आकार छोटा होना चाहिए। उनके अनुसार पारिवारिक विकास या उत्थान के लिए सामाजिक
कोशिकत्व का होना उसी प्रकार आवश्यक है, जैसे जगत के विकास के लिये गुरुत्वाकर्षण
महत्व रखता है। किसी भी क्षेत्र या देश में जनसंख्या वृद्धि 'मनुष्य के विकास' का
प्रतिलोमानुपाती होता है। इस प्रकार के कोशिकत्व का सिद्धान्त विकसित राष्ट्रों
एवं नगरों में चरितार्थ होता देखा गया है इन भागों में जन्म-दर कम होने के
साथ-ही-साथ धन की अधिकता होने के कारण ऊँचे उठकर विकास करने की चाह भी पाई जाती
है। ग्रामीण क्षेत्र में नगरों से भिन्न स्थिति पाई जाती है। यहाँ जन्म-दर में
अधिकता होने के कारण उत्साह की कमी, अज्ञानता, निरक्षरता, गरीबी व पुराने रूढ़
विचार पाये जाते हैं।
ड्युमण्ट
व जोसेफ गैरिनर ने माल्थस के सिद्धान्त को प्रामक बताते हुए कहा है कि उनका
ज्यामितीय अनुपात गलत है। इन लोगों ने माल्थस के सिद्धान्त को उन देशों के लिये
उपयुक्त बताया है, जहाँ के लोगों का जीवनस्तर अति निम्न हो तथा वहाँ के लोगों को
सभ्यता का ज्ञान न हो। ड्युमण्ट का यह कथन है कि समाज में ऊपर उठना केवल बच्चों की
संख्या के कम होने पर ही निर्भर करता है, सत्य नहीं है। इसके लिये सामाजिक-आर्थिक
व राजनीतिक कारक भी उत्तरदायी होते हैं।
(6) जनसंख्या का 'आर्थिक विकास' सिद्धान्त (Economic Development
Theory of Population):- इस
सिद्धान्त का प्रतिपादन जीबिन्सटीन ने किया। इनके कथनानुसार, "किसी भी देश को
अपने निम्नस्तर से ऊपर उठने के लिये जनसंख्या के अनुसार प्रयास करना पड़ता है। यदि
जनसंख्या अधिक है तो उसे अपने स्तरोन्नयन के लिये अपेक्षाकृत अधिक प्रयत्न करना
पड़ेगा।' उनके कहने का शत-प्रतिशत तात्पर्य यह नहीं है कि जनसंख्या का अधिक घनत्व
आर्थिक विकास में बाधक तथा कम घनत्व आर्थिक विकास के लिये वरदान है। उन्होंने
स्पष्ट किया है कि किसी क्षेत्र अथवा देश का आर्थिक विकास वहाँ प्राप्त संसाधनों
की मात्रा व प्रकार, पूँजी पर्याप्तता व तकनीकी स्तर की प्राप्ति पर निर्भर करता
है। आर्थिक विकास के कार्यक्रम प्रारम्भ किये बिना जनसंख्या भी विकासस्तर ऊपर नहीं
उठ सकती।
लीबिन्सटीन
ने ब्लैक, थाम्पसन आदि विद्वानों द्वारा बताई गई अवस्थाओं का अध्ययन करके विकासशील
देशों की जनसंख्या सम्बन्धी तथ्यों का विश्लेषण किया है। लीबिन्सटीन ने इन देशों में
बच्चों के पैदा होने की संख्या व उनके पालन-पोषण को क्रमशः माँग व पूर्ति के आधार
पर विश्लेषित करने का प्रयास किया है, जैसा कि चित्र से स्पष्ट है।
चित्र
से लीबिन्सटीन ने स्पष्ट किया है कि कम विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय बढ़ने
पर ही जन्म-दर में कमी आयेगी। उनकी मान्यता है कि जन्म-दर कम करके विकास सम्भव
नहीं है। वरन् पहले विकास करना आवश्यक है, जिसके फलस्वरूप जन्म-दर में कमी स्वतः
आयेगी। इस प्रयास को उन्होंने 'न्यूनतम प्रयास' की संज्ञा दी है। उनका मत है कि
जितनी शीघ्रता से जन्म-दर में कमी आयेगी उतनी ही 'न्यूनतम प्रयास' की कम आवश्यकता
पड़ेगी।
जन्संख्या
वृद्धि व आय जन्म व मृत्यु के मध्य एक अन्तर्सम्बन्ध पाया जाता है। इस
अन्तर्सम्बन्ध को निम्नांकित चार्ट से समझा जा सकता है।
प्रथम अवस्था |
अल्प आय |
उच्च जन्म-दर उच्च मृत्यु-दर |
स्थिर जनसंख्या |
निम्न जीवन-स्तर |
द्वितीय अवस्था |
मध्यम आय |
उच्च जन्म-दर मृत्यु-दर में ह्रास |
जनसंख्या में वृद्धि |
निम्न जीवन-स्तर |
तृतीय अवस्था |
अधिक आय परन्तु जन्म-दर |
जन्म-दर में ह्रास कम वृद्धि मृत्यु-दर से अधिक |
जनसंख्या में |
विकास की ओर अग्रसर |
चतुर्थ अवस्था |
अधिकतम आय |
जन्म-दर कम मृत्यु-दर कम |
जनसंख्या वृद्धि बहुत कम |
उच्च विकास स्तर |