7.PGT प्रकट अधिमान वक्र (Revealed Preference Theory)

प्रकट अधिमान वक्र (Revealed Preference Theory)

➡️ प्रकट अधिमान सिद्धान्त के वास्तविक प्रतिपादक प्रो० सैम्यूलसन है, इन्होंने इस सिद्धान्त की रचना 1938 में की।

➡️ प्रो० सैम्यूलसन अपने इस सिद्धानत को माँग के तार्किक सिद्धान्त का तीसरा मूल (Thir root of logical Theory of Demand) मानते हैं।

➡️ प्रो० सैम्यूलसन ने उपभोक्ता व्यवहार की दो मान्यताओं के आधार पर माँग के नियम के मूलभूत परिणाम निकालने का प्रयास किया है।

➡️ अनेक उपलब्ध विकल्पों में से उपभोक्ता एक निश्चित चुनाव करता है। "वह अपने निश्चित अधिमान को प्रकट करता है"

➡️ यह मान्यता इस सिद्धान्त को सबल क्रम श्रेणी में रख देती है।

➡️ सैम्यूलसन का प्रकट अधिमान सिद्धान्त बाजार की विभिन्न आय स्थितियों में उपभोक्ता के वास्तविक व्यवहार के आधार पर उपभोक्ता के माँग वक्र की व्याख्या करता है।

➡️ प्रो० सैम्यूलनसन ने इस सिद्धान्त को उपभोग सिद्धान्त का आधार भूत नियम कहा है।

➡️ प्रकट अधिमान सिद्धान्त में उपभोक्ता के व्यवहारा में संक्रमता बनी रहती है। संक्रमता की मान्यता सामंजस्यता का ही विस्तृत रूप है।

➡️ प्रकट अधिमान सिद्धानत माँग प्रमेय स्पष्ट करता है जिसके अनुसार "कोई वस्तु जिसकी केवल र्माद्रिक आय के बढ़ने पर बढ़ती है निश्चित रूप से माँग में घटेगी यदि केवल उसकी कीमत में वृद्धि होती है।

➡️ माँग प्रमेय, धनात्मक आय लोच एवं ऋणात्मक कीमत लोच को सूचित करती है।

➡️ धनात्मक आय लोच का अभिप्राय है ऋणात्मक कीमत लोच, सैम्यूलसन ने इसी माँग प्रमेय को 'उपभोग सिद्धान्त का आधारभूत नियम' (Fundamental Theorem of Consumption Theory) कहा है।

➡️ 1944 में प्रो० जान वरन न्यूमैन तथा आस्कर मार्जेन्सटर्न ने उपयोगिता विश्लेषण के नये सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है जिसे उपभोक्ता के व्यवहार का आधुनिक उपयोगिता सिद्धान्त अथवा N-M सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।

उपभोक्ता की बचत (Consumer's Surplus )

➡️ उपभोक्ता की बचत की अवधारणा को सर्वप्रथम आर० के० ड्यूपिट (R.K. Dupit) ने सन् 1844 में प्रस्तुत किया था।

➡️ उपभोक्ता के बचत सिद्धान्त की विस्तृत व्याख्या प्रो० मार्शल ने सन् 1890 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "Principle of Economics" में किया।

➡️ प्रो० मार्शल के अनुसार किसी वस्तु के प्रयोग से वंचित रहने की अपेक्षा एक उपभोक्ता जो कीमत देने को तत्पर रहता है तथा वास्तव में जो कीमत देता है, उसका अतिरेक ही सन्तुष्टि का आर्थिक माप है, इसे उपभोक्ता की बचत कहते हैं।

➡️ उपभोक्ता की बचत = उपभोक्ता का भुगतान देने की तत्पर्यता - वास्तव में किया गया भुगतान

➡️ वस्तु की कीमत कम होने पर उपभोक्ता की बचत में वृद्धि होती है तथा इसके विपरीत कीमत की वृद्धि उपभोक्ता की बचत को कम करती है।

➡️ प्रो० मार्शल के अनुसर उपभोक्ता की बचत विलासिता की वस्तुओं पर क्रियाशील नहीं होती किन्तु प्रो० टाजिग ने बताया कि उपभोक्ता की बचत विलासितापूर्ण वस्तुओं पर भी प्रभावी होती है।

➡️ प्रो० मार्शल गिफिन वस्तुओं के सन्दर्भ में उपभोक्ता की बचत स्पष्ट करने में असफल रहे।

➡️ प्रो० हिक्स, सैम्यूसन, कैनन तथा टाजिग ने मार्शल के उपभोक्ता की बचत सिद्धान्त की तीव्र आलोचना की है।

➡️ प्रो० हिक्स के अनुसार उपभोक्ता की बचत उदासीनता वक्र द्वारा प्रदर्शित की जा सकती है।

➡️ उपभोक्ता की बचत MA' MA = AA' इस प्रकार AA' × OQ = AA' BE उपभोक्ता की बचत होगी।

➡️ उपभोक्ता की बचत का महत्व-

a. दो स्थानों अथवा समयों की आर्थिक स्थिति की तुलना करने के लिए यह धारणा बहुत उपयोगी है।

b. एकाधिकारी के लिए

c. राजस्व के क्षेत्र में

d. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभ में महत्व

e. कल्याणकारी अर्थशास्त्र के क्षेत्र में।

➡️ उपभोक्ता बचत की मान्यतायें

A. मुद्रा की सीमान्त उपयोगिता स्थिर रहती है।

B. उपयोगिता मापनीय है, जिसे मुद्रा रूपी पैमाने से मापा जा सकता है।

C. उपभोग की जा रही वस्तु की स्थानापन्न वस्तु का अभाव होता है।

D. घटती हुई सीमान्त उपयोगिता नियम लागू होता है।

E. एक वस्तु की पूर्ति एवं उपयोगिता दूसरी वस्तु की पूर्ति एवं उपयोगिता को प्रभावित नहीं करती।

F. अर्थव्यवस्था में पूर्ण प्रतियोगिता है।

➡️ उपभोक्ता की बचत = कुल उपयोगिता - कुल कीमत

➡️ क्षेत्रफल NMOQP - क्षेत्रफल MOQP = क्षेत्रफल NMP

➡️ "उपभोक्ता की बचत मुद्रा की वह मात्रा है जो कि उपभोक्ता को आर्थिक स्थिति में परिवर्तन के बाद उपभोक्ता को दी जाती है अथवा वापस ली जाती है कि उपभोक्ता पहले की तुलना में न तो अच्छी स्थिति में रहता है न तो खराब स्थिति में अर्थात् उपभोक्ता अपनी आर्थिक स्थिति में परिवर्तन के बाद भी प्रारम्भिक उदासीनता वक्र पर ही रहती है। - हिक्स के अनुसार

➡️ प्रो० जे० आर० हिक्स ने अपने लेख "The four Consumars Sur plus" में उपभोक्ता बचत विचारधारा का पुनः निर्माण किया।

मांग का नियम

➡️ मांग का सम्बन्ध प्रभावपूर्ण इच्छा से होता है जिसमें तीन बातों का शामिल होना आवश्यक होता है।

1. उसे वस्तु की इच्छा या आवश्यकता हो ।

2. उसके पास भुगतान करने की योग्यता हो ।

3. उसके पास भुगतान करने की तत्परता हो।

➡️ मांग प्रति समय इकाई (प्रतिदिन, प्रतिमाह, प्रति सप्ताह आदि) के प्रसंग में व्यक्त की जाती है।

➡️ वस्तु की प्रति समय इकाई मांग किसी कीमत पर व्यक्त की जाती है।

➡️ अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि "किसी वस्तु की मांग इस वस्तु की वह मात्रा है जिसे प्रति समय इकाई खरीदने के लिए उपभोक्ता एक दी हुई कीमत पर उसके लिए भुगतान करने को तैयार रहता है।

➡️ एक उपभोक्ता की मांग कई कारकों से प्रभावित होती है। जैसे वस्तु की कीमत, उपभोक्ता की आय उपभोक्ता की रुचि सम्बन्धित वस्तुओं की कीमतें, फैशन आदि। इसके अतिरिक्त जनसंख्या में परिवर्तन, व्यापार दिशा में परिवर्तन, जलवायु, मौसम, बुद्ध की संभावना, सरकारी नियन्त्रण आदि का भी वस्तु की मांग पर प्रभाव पड़ता है।

➡️ प्रो० पेन्सन के शब्दों में- 'मांग एक प्रभावी इच्छा है।

➡️ मांग फलन- किसी वस्तु की मांग अनेक तत्वों पर निर्भर करती है। उन विभिन्न तत्वों को जो वस्तु की मांग निर्धारित करते हैं, स्वतन्त्र चर कहते हैं। वस्तु की मांग जो अनेक स्वतन्त्र चरों पर निर्भर करती है, परन्त्र चर या आश्रित चर कहलाती है। अतः मांग फलन को अग्रलिखित रूप में परिभाषित किया जा सकता है

D = f (Px, Py, I.T.C.)

जहाँ

Px = वस्तु की कीमत

Py = सम्बन्धित वस्तुओं की कीमत

I = आय स्तर

T = रुचि, फैशन आदि

➡️ मांग का नियम वस्तु की कीमत तथा उस दी हुई कीमत पर मांगी जानें वाली मात्रा के बीच गुणात्मक सम्बन्ध को बताता है।

➡️ मांग का नियम यह बताता है कि यदि 'अन्य बातें समान रहें' तो वस्तु की कीमत तथा वस्तु की मात्रा में विपरीत सम्बन्ध पाया जाता है। अथवा अन्य बातों के समान रहने पर किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि होने से उसकी मांग में कमी हो जाती है तथा इसके विपरीत कीमत में कमी होने पर वस्तु की मांग में वृद्धि हो जाती है।

अर्थात् P x 1.Q ; जहां p = वस्तु की कीमत  q= वस्तु की मांग

➡️ मांग का नियम एक गुणात्मक कथन है, मात्रात्मक कथन नहीं।

➡️ यह नियम केवल कीमत तथा मांग के परिवर्तन की दिशा बताता है, परिवर्तन की मात्रा को नहीं बताता।

➡️ यदि वस्तु की कीमत ऊँची है तो उस वस्तु की मांग कम होगी तथा इसके विपरीत वस्तु की कीमत कम होने पर उस वस्तु की मांग अधिक होगी।

मांग के नियम की मान्यतायें

1. उपभोक्ता की आय में कोई परिवर्तन न हो।

2. उपभोक्ता की रुचि, स्वभाव, पसन्द आदि में कोई परिवर्तन न हो। सम्बन्धित वस्तुओं की कीमतों में कोई परिवर्तन न हो।

3. भविष्य में वस्तु की कीमत में परिवर्तन की सम्भावना न हो।

4. किसी नवीन स्थानापन्न वस्तु का उपभोक्ता को ज्ञान न हो।

➡️ मांग वक्र का आकार ऊपर से नीचे होता है क्यों? अथवा मांग वक्र के ऋणात्मक ढाल होने के कारण -

1. सीमान्त उपयोगिता ह्मस नियम अथवा घटती सीमान्त उपयोगिता नियम के कारण।

2. कीमत परितर्वन के कारण उत्पन्न हुआ प्रति स्थापन प्रमाण के कारण।

3. कीमत परिवर्तन के कारण वास्तविक आय में हुआ परिवर्तन अर्थात क्रय शक्ति में वृद्धि के कारण।

➡️ मांग के प्रकार - मांग के मुख्यतः तीन रूप होते हैं।

1. कीमत मांग (Price Demand)

2. आय मांग (Income Demand)

3. आड़ी अथवा तिरछी मांग (Cross Demand)

1. कीमत मांग (Price Demand)

एक निश्चित समयावधि में निश्चित कीमतों पर उपभोक्ता द्वारा मांगी गयी वस्तु की मात्रा कीमत मांग कहलाती है। कीमत तथा मांग में विपरीत सम्बन्ध होने के कारण कीमत मांग वक्र ऋणात्मक ढाल का होता है अर्थात् बायें से दाये नीचे की ओर गिरता हुआ होता है।

2. आय मांग (Income Demand)

➡️ वस्तुओं, सेवाओं की वह मात्रा जो अन्य बातों के समान रहने की दशा में उपभोक्ता दी गयी समयावधि में अपनी आय के भिन्न-भिन्न स्तरों पर खरीदने को तत्पर रहता है आय मांग कहलाती है।

➡️ आय मांग वक्र का प्रतिपादन जर्मन अर्थशास्त्री एजिल्स ने किया था इसलिए इसे एजिल वक्र भी कहा जाता है।

➡️ आय मांग वस्तु की प्रकृति पर निर्भर होती है। जैसे (A) श्रेष्ठ वस्तुएँ तथा (B) घटिया वस्तुएँ

(A) श्रेष्ठ वस्तुओं के सन्दर्भ में आय मांग वक्र धनात्मक ढाल वाला होता है अर्थात बांये से दांये ऊपर की ओर चढ़ता हुआ होता है।

(B) घटिया वस्तुओं के सन्दर्भ में आय मांग वक्र ऋणात्मक ढाल का अर्थात् बाये से दाये नीचे की ओर गिरता हुआ होता है।

(3) आड़ी अथवा तिरछी मांग (Cross Demand)

➡️ आड़ी मांग में एक वस्तु की कीमत का उसके सापेक्ष सम्बन्धित दूसरी वस्तु की मांग पर प्रभाव देखा जाता है। अथवा हम कह सकते हैं कि यदि अन्य बातें समान रहें तो वस्तु X की कीमत में परिवर्तन के कारण उसके सापेक्ष सम्बन्धित वस्तु Y की मांग में जो परिवर्तन होता है उसे आड़ी अथवा तिरछी मांग कहते हैं। ये वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं।

(A) स्थानापन्न वस्तुएं ऐसी वस्तुएं जिनका उपयोग एक दूसरे के स्थान पर किया जा सकता है। ऐसी वस्तुओं की स्थिति में, एक वस्तु की कीमत में परिवर्तन दूसरी वस्तु की मांग को भी प्रभावित करती है। जैसे चाय एवं काफी प्रतिस्थापन वस्तु के उदाहरण हैं। इसके लिए मांग वक्र धनात्मक ढाल का होता है।

(B) पूरक वस्तुएँ - ऐसी वस्तुएं जिनका उपयोग एक साथ किया जाता है। जैसे कार तथा पेट्रोल, फिल्म एवं कैमरा आदि। इसके लिए मांग वक्र ऋणात्मक ढाल का होता है।

मांग के अन्य प्रकार

(1) व्युत्पन्न मांग (Derived Demand) जब एक वस्तु की मांग बढ़ने पर दूसरे वस्तु की मांग स्वतः उत्पन्न हो जाती है, तो इस प्रकार के उत्पन्न मांग को व्युत्पन्न मांग कहा जाता है। जैसे जूते की मांग बढ़ने पर इसमें लगे साधनों की मांग में वृद्धि। किसी भी उत्पत्ति के साधनों की मांग व्युत्पन्न मांग होती है।

(2) संयुक्त मांग (Joint Demand) जब एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक ही समय पर एक से अधिक वस्तुओं की मांग एक साथ की जाती है, तब ऐसी मांग को संयुक्त मांग कहा जाता है। जैसे, पेन-स्याही, पेट्रोल कार आदि। यह मांग पूरक मांग का ही एक रूप होता है। इसमें एक वस्तु का प्रयोग दूसरे के अभाव में नहीं लिया जा सकता है।

(3) सामुहिक मांग (Composite Demand) जब एक वस्तु को एक से अधिक उपयोगों में लगाया जाता है तब सामुहिक मांग उत्पन्न होती है। जैसे- कोयला, दूध आदि।

➡️ मांग में विस्तार तथा संकुचन (Extention and contraction in Demand) - कीमत में परिवर्तन के कारण जब मांग में परिवर्तन एक ही मांग वक्र पर घटित हो तो इस प्रकार के परितर्वन मांग का विस्तार एवं मांग का संकुचन उत्पन्न करते हैं। अथवा 'यदि अन्य बातें समान रहें तो' किसी वस्तु को कीमत में कमी के कारण उत्पन्न मांग में वृद्धि को 'मांग का विस्तार' कहते हैं तथा वस्तु की कीमत में वृद्धि के कारण मांग में हुई कमी को 'मांग का संकुचन' कहते हैं।

➡️ मांग का विस्तार एवं सकुचन सदैव एक ही मांग वक्र पर घटित होता है।

➡️ मांग में वृद्धि एवं कमी - यदि वस्तु की कीमत में कोई परिवर्तन न हो अर्थात् कीमत स्थिर रहने पर अन्य तत्वों के प्रभाव के कारण मांग में परिवर्तन हो जाता है तब मांग में वृद्धि या मांग में कमी की दशा उत्पन्न  होगी।

➡️ मांग में वृद्धि अथवा कमी होने के कारण

1. उपभोक्ता की आय में परिवर्तन

2. वस्तु की उपयोगिता में परिवर्तन

3. कार्य फैशन आदि में परिवर्तन

4. भविष्य में कीमत परिवर्तन की सम्भावना आदि।

➡️ मांग में वृद्धि अथवा कमी एक ही मांग वक्र पर न होकर बल्कि मांग में वृद्धि की दशा में मांग वक्र दायें अर्थात् ऊपर की ओर स्थानान्तरित हो जाता है जबकि 'मांग की कमी' की दशा में मांग वक्र बांयी ओर अर्थात् नीचे की ओर स्थानान्तरित हो जाता है।

मांग की लोच (Elasticity of Demand)

➡️ जब किसी वस्तु की कीमत घटती है तो इसकी मांग-मात्रा बढ़ती है। और जब उसकी कीमत बढ़ती है तो उसकी मांग-मात्रा घटती है। इसे ही मांग का नियम कहा जाता है। मांग का नियम कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप मांग-मात्रा में परिवर्तन की केवल दिशा को ही बताता है। जबकि यह नहीं बताता कि कीमत में परिवर्तन होने के कारण वस्तु की मांग-मात्रा में कितनी वृद्धि अथवा कमी होती है।"

➡️ यह बात हमें मांग की मूल्य लोच से पता चलता है कि वस्तु के मूल्य में परिवर्तन के फलस्वरूप उसकी मांग मात्रा कितनी बदलती है अर्थात् मांग की लोच का अभिप्राय वस्तु के कीमत और मात्रा में घटने या बढ़ने की प्रवृत्ति से है।

➡️ मांग की लोच एक प्रकार का विशिष्ट सम्बन्ध है जो वस्तु की मांग तथा वस्तु के मूल्य के बीच परिवर्तन का अनुपात या दर प्रदर्शित करता है।

➡️ मार्शल के अनुसार, "मांग की लोच का बाजार में कम या अधिक होना इस बात पर निर्भर करता है कि वस्तु की कीमत में एक निश्चित मात्रा में परिवर्तन होने पर उसकी मांग में सापेक्ष रूप से अधिक या कम अनुपात में परिवर्तन होता है। "

➡️ सैम्युल्सन के अनुसार, "कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप मांग मात्रा में परिवर्तन के अंश अर्थात् मांग के प्रति क्रियात्मक के अंश को बताता है। "

➡️ मांग की लोच ऋणात्मक होती है क्योंकि वस्तु की मांग और उसकी कीमत में विलोम सम्बन्ध होता है।

➡️ मार्शल ने आर्थिक सिद्धान्त में लोच की धारणा को आरम्भ किया था।

Kinds of Elasticity of Demand मांग की कीमत लोच (Price elasticity of demand) 

मांग की लोच (Elasticity of Demand)

➡️ मांग की कीमत लोंच

➡️ मांग की आय लोंच

➡️ मांग की तिरछी या आड़ी लोंच

➡️ प्रतिस्थापन लोच

➡️ प्रो. बोर्डिंग के अनुसार," किसी वस्तु के मूल्य में प्रतिशत परिवर्तन के फलस्वरूप उसकी मांग मात्रा में जो प्रतिशत परिवर्तन होता है उसे मांग की लोंच कहते हैं।"

➡️ मांग की मूल्य सापेक्षता के निर्धारक तत्व

(A) वस्तुगत तत्व :-

👉 वस्तु की प्रकृति

(i) यदि आवश्यक वस्तुएँ हैं तो मांग की लोच बेलोचदार होगी।

(ii) आरामदायक वस्तुएँ होने पर मांग की लोच साधारण लोचदार होगी।

(iii) विलासिता की वस्तुएँ होने पर मांग की लोच अत्यधिक लोचदार होगी।

👉 स्थानापन्न वस्तुएँ - अधिक स्थानापन्न उपलब्ध होने पर मांग की लोच अत्यधिक लोचदार हो जाती है।

👉 वस्तुओं के विभिन्न प्रयोग - वस्तुओं के विभिन्न प्रयोग होने पर मांग की लोच अत्यधिक लोचदार हो जाती है।

👉 वस्तुओं का उपभोग स्थगित होना - यदि किसी वस्तु का उपभोग स्थगित किया जा सकता है तो मांग की लोच अधिक लोचदार होगी। 

👉 पूरक वस्तुएँ - पूरक वस्तुओं की मांग बेलोचदार होती है।

(B) व्यक्तिगत तत्व

👉 उपभोक्ता की आदत

👉 उपभोक्ता की आय

👉 लोगों का जीवन

👉 व्यय की राशि

👉 वस्तुओं के खरीदने का दर्जा

(C) सामाजिक तत्व

👉 राष्ट्रीय आय का वितरण

👉 राशनिंग

(D) कीमत सम्बन्धी तत्व

👉 सामान्य मूल्य स्तर

➡️ मांग की लोंच की माप

1. कुल व्यय प्रणाली :- इस विधि का प्रयोग मार्शल ने किया था इस विधि द्वारा यह पता लगाया जाता है की मांग की लोच इकाई से ज्यादा ,इकाई के बराबर है अथवा इकाई से कम है।

चित्र से,  कुल व्यय = मूल्य × मात्रा  

वस्तु पर किया गया कुल व्यय = OP × OQ = OQRP

नई कीमत पर कुल व्यय = OP× OQ= OQ1R1P1

कीमत बदलने पर कुल व्यय बढ़ेगा या घटेगायह मांग की मूल्य लोच पर निर्भर करता है।

मूल्य लोच

कीमत घटने पर

कीमत बढ़ने पर

e>1

कुल व्यय बढ़ता है

कुल व्यय घटता है

e< 1

कुल व्यय घटता है

कुल व्यय बढ़ता है

ep  =1

कुल व्यय स्थिर रहता है

कुल व्यय स्थिर रहता है

2. प्रतिशत प्रणाली :- प्रोफ्लक्स ने इस प्रणाली का सर्वप्रथम प्रयोग किया

     मांग की लोंच = (-) मांग में प्रतिशत परिवर्तन / मूल्य में प्रतिशत परिवर्तन 

`=(-)\frac{\Delta Q}{\Delta P}\times\frac PQ`

यदि भागफल आता है तो मांग की लोंच इकाई के बराबर होता है। यदि भागफल से अधिक आता है तो मांग की लोंच इकाई से अधिक होती है और यदि भागफल 1 से कम आता है तो मांग की लोंच इकाई से कम होती है।

3. बिन्दु प्रणाली या ज्यामितिक विधि :-

1. मांग की इकाई लोच :- यदि P बिन्दु रेखा के मध्य में स्थित है तो PN = PM इसलिए P बिन्दु पर मांग की लोच = `\frac{PN}{PM}`होगी।

2. इकाई से अधिक या लोचदार मांग :- यदि A बिन्दु मध्य बिन्दु P से ऊपर है तो निचला हिस्सा AN ऊपर के हिस्से AM से अधिक होगा। इसलिए A बिन्दु पर मांग की लोंच =`\frac{AN}{AM}`> 1 होगी।

3. इकाई से कम या बेलोचदार मांग :- यदि B बिन्दु P से नीचे है तो निचला हिस्सा BN ऊपर के हिस्से BM से कम होगा। इसलिए B बिन्दु पर मांग की लोंच =`\frac{BN}{BM}`< 1 होगी।

4. ep= 0 :- N बिन्दु पर मांग की लोंच `\frac0{NM}` = 0

5. ep= `\infty`  :- M बिन्दु पर मांग की लोंच = `\frac{NM}0=\infty`

4. चाप प्रणाली :- प्रोस्टिगलर ने अपनी पुस्तक ' The Theory of Price' में बिन्दु प्रणाली को गणितीय फलनो तक सीमित ज्ञान कर मांग की लोंच की माप के लिए चाप प्रणाली का प्रयोग किया । इसमें नए एवं पुराने मूल्यों के औसत के आधार पर मांग की मूल्य लोंच की माप की जाती है।

`E_p=(-)\frac{\Delta Q}{\frac{Q_1+Q_2}2}\div\frac{\Delta P}{\frac{P_1+P_2}2}`

`=(-)\frac{\Delta Q}{\Delta P}\div\frac{P_1+P_2}{\Q_1+Q_2}`

➡️ मांग की लोच के प्रकार

1. पूर्णतया लोचदार मांग या अनन्त लोंच :- जब ूल्य में कमी होने पर मांग में अनन्त वृद्धि हो जाए तथा मूल्य में अल्प ृद्धि होने पर मांग घट कर शून्य हो जाए तो मांग पूर्णतया लोचदार होती है

2. सम लोचदार मांग या इकाई लोचदार मांग :- जिस अनुपात में मूल्य में परिवर्तन हो उसी अनुपात में मांग में परिवर्तन हो तो इसे समलोचदार मांग कते हैं

3. इकाई से अधिक लोचदार मांग :- जिस अनुपात में मूल्य में परिवर्तन हो रहा हो उससे अधिक अनुपात में मांग में परिवर्तन हो तो इसे इकाई से अधिक लोचदार मांग कते हैं

4. इकाई से कम लोचदार मांग :- जिस अनुपात में मूल्य में परिवर्तन हो रहा है उससे कम अनुपात में मांग में परिवर्तन हो तो इसे इकाई से कम लोचदार मांग कते हैं

5. पूर्णतया बेलोचदार मांग :- जब मूल्य में कमी अथवा वृद्धि का मांग पर कुछ भी प्रभाव न पड़े तो इसे पूर्णतया बेलोचदार मांग कते हैं

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