कविता के साथ
प्रश्न 1. कविता एक ओर जग-जीवन का भार लिए घूमने की बात करती है और
दूसरी ओर 'मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हैं'-विपरीत से लगते इन कथनों का क्या
आशय है?
उत्तर
: प्रस्तुत कविता में कवि स्वयं को जग से जोड़ने और उससे अलग रहने की बात भी करता
है। वह संसार की चिन्ताओं एवं व्यथाओं के प्रति सजग है। इस तरह वह संसार की
निन्दा-प्रशंसा की चिन्ता न करके उससे प्रेम कर उसका हित साधना चाहता है।
प्रश्न 2. 'जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं
नादान भी होते हैं'-कवि ने ऐसा क्यों कहा होगा?
उत्तर
: इसमें 'दाना' स्वार्थपरता, लोभ-लालच, सांसारिकता एवं चेतना का प्रतीक है। संसार
में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही तरह के लोग सत्य को खोज रहे हैं, परन्तु स्वार्थ
की चिन्ता करने वाले लोग अज्ञानी हैं। जो दाने के लोभ में फँस , जाते हैं वे
स्वाभाविक रूप से नादान व सांसारिक षड्यंत्र के प्रति भोले होते हैं।
प्रश्न 3. 'मैं और, और जग और, कहाँ का नाता'-पंक्ति
में 'और' शब्द की विशेषता बताइये।
उत्तर
: यहाँ'और' शब्द का प्रयोग तीन बार तीन अर्थों में हुआ है। इसमें 'मैं और' का आशय
है कि मैं अन्य लोगों से हटकर हूँ। 'जग और' का तात्पर्य है कि यह संसार भिन्न
प्रकार का है। इन दोनों वाक्यों के मध्य में आया 'और' योजक अव्यय रूप में प्रयुक्त
हुआ है। इससे यमक अलंकार का चमत्कारी प्रयोग हुआ है।
प्रश्न 4. 'शीतल वाणी में आग के होने का
क्या अभिप्राय है?
उत्तर
: 'शीतल
वाणी में आग होने' का आशय यह है कि कवि का स्वभाव और स्वर भले ही कोमल हैं, परन्तु
उसके हृदय तथा विचारों में विद्रोह एवं जोश की कमी नहीं है। वह हृदयगत जोश से प्रेम-रहित
संसार को अपनी शीतल वाणी में दुत्कारता है, फिर भी अपना होश नहीं खोता है। इस तरह कवि
अपने शीतल उद्गारों के पीछे हृदय के जोश, बल, शक्ति की बात कहते हैं।
प्रश्न 5. बच्चे किस बात की आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे?
उत्तर
: बच्चे इस बात की आशा में नीड़ों से झांक रहे होंगे कि उनके माता-पिता उनके लिए
दाना-चुग्गा (भोजन), लेकर आ रहे होंगे। बच्चों को खाने की प्रतीक्षा होगी, साथ ही
उनसे ढेर सारा प्यार भी मिलने के लिए वे उत्सुक होंगे।
प्रश्न 6. 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है'-की
आवृत्ति से कविता की किस विशेषता का पता चलता है?
उत्तर
: 'दिन
जल्दी-जल्दी ढलता है' पंक्ति की आवृत्ति गीत की 'टेक' है, इससे कविता की गेयता तथा
श्रुति-मधुरता की विशेषता व्यक्त हुई है। कविता में इस आवृत्ति से यह व्यंजित हुआ है
कि जीवन का समय कम है और काम बहुत है। मनुष्य को लक्ष्य प्राप्त करने में जल्दी करनी
चाहिए।
कविता के आस-पास
प्रश्न 1. संसार में कष्टों को सहते हुए भी खुशी और मस्ती का माहौल
कैसे पैदा किया जा सकता है?
उत्तर
: संसार में सुख और दुःख दोनों मिलते हैं, परन्तु इसमें दुःख एवं कष्ट अधिक सहने
पड़ते हैं। फिर भी व्यक्ति को चाहिए कि वह अनेक कष्टों को सहते हुए उनके ही बीच से
खुशी और मस्ती का वातावरण तैयार करे, कुछ करने की चाह रखे और सबसे प्रेम-व्यवहार
बढ़ाये, ऐसा प्रयास करने पर जीवन में खुशी और मस्ती का माहौल बनाया जा सकता है।
आपसदारी
प्रश्न : जयशंकर प्रसाद की 'आत्मकथ्य' कविता की कुछ पंक्तियाँ दी
जा रही हैं। क्या पाठ में दी गई 'आत्मपरिचय' कविता से इस कविता का आपको कोई
सम्बन्ध दिखाई देता है? चर्चा करें।
आत्मकथ्य
मधुप
गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
× × ×× × × × × × ×
उसकी
स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
सीवन
को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?
छोटे
से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या
यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर
क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा?
अभी
समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
जयशंकर
प्रसाद
उत्तर
: दोनों ही कविताएँ व्यक्तिवादी अर्थात् व्यक्तिगत प्रेम-भाव पर आधारित हैं।
जयशंकर प्रसाद 'आत्मकथ्य' कविता में निराशा के कारण अपने प्रेम को मौन-व्यथा से
दबाए रखना चाहते हैं, जबकि 'आत्मपरिचय' कविता में बच्चन अपने प्रेम को खुलकर प्रकट
करते हैं। दोनों के प्रेम-कथन और अभिव्यक्ति में अन्तर है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'मैं निज उर के उद्गार लिये फिरता
हूँ' पंक्ति से बच्चनजी का क्या आशय है?
उत्तर
: इसमें कवि का आशय है कि वह स्वयं के हृदय के उद्गार अर्थात् भावनाएँ, जो
दुःख-सुख, निराशा, संवेदना, वेदना, निस्सारता, संसार की नश्वरता आदि से जुड़ी हैं
उन्हें अपने हृदय तक ही सीमित रखते हैं। उन्हें साथ लिये वे अपना जीवन यापन करते
हैं।
प्रश्न 2. "है यह अपूर्ण संसार न मुझको
भाता" कवि को यह संसार अपूर्ण क्यों लगता है?
उत्तर
: मानव-जीवन में प्रेम का सर्वोपरि महत्त्व है तथा जीवन की सरलता, सरसता सब प्रेम
पर ही टिकी होती है। कवि को ऐसा कोई प्रेमी हृदय नहीं मिला जिससे वह अपनी भावनाएं
व्यक्त कर सके, इसलिए उन्हें यह संसार अपूर्ण लगता है।
प्रश्न 3. "मैं सपनों का संसार लिये
फिरता हूँ।" से कवि का क्या आशय है?
उत्तर
: कवि-मन संवेदनशील होता है इसलिए वह अधिकतर सुन्दर कल्पनाओं में विचरण करता है।
उसकी मधुर कल्पनाएँ प्रेम पूरित होती हैं, इसलिए कवि ने कहा कि मैं सपनों की
अर्थात् कल्पनाओं की दुनिया में विचरण करता हूँ।
प्रश्न 4.'आत्मपरिचय' कविता का प्रतिपाद्य
बताइये।
उत्तर
: 'आत्मपरिचय'
कविता का प्रतिपाद्य अपने को जानने से है, जो कि दुनिया को जानने से कहीं अधिक कठिन
है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा-मीठा होता है। जीवन से पूरी तरह अलग रहना संभव नहीं
होता है। फिर भी कवि की दुनिया उसी अपनी अस्मिता, अपनी पहचान और अपना परिवेश ही होता
है। फिर भी दुनिया या संसार से सामंजस्य रखते हुए कवि जीवन में मस्ती, आनंद अपनाने
का संदेश देता है।
प्रश्न 5. 'आत्मपरिचय' कविता में कवि ने
जग-जीवन के विषय में क्या कहा है?
उत्तर
: कवि ने जग-जीवन के विषय में कहा है कि इससे पूरी तरह कट कर या अलग रह कर जीवन
जीना संभव नहीं है। दुनिया अपने व्यंग्य-बाण तथा शासन-प्रशासन से चाहे कितना भी
कष्ट दे, उनके साथ चलकर ही इस जीवन का भार हमें हल्का करना है।
प्रश्न 6. "मैं, हाय, किसी की याद लिए
फिरता हूँ।" इस कथन से कवि ने क्या व्यंजना की है?
उत्तर
: 'आत्मपरिचय'
कविता में कवि ने प्रेम की मस्ती के साथ अवसाद भी व्यक्त किया है, क्योंकि कवि को यौवन-काल
में ही अपनी प्रियतमा का वियोग प्राप्त हुआ। कविता में 'हाय' शब्द से वियोग-व्यथा की
व्यंजना की गई है।
प्रश्न 7. 'नादान वही है, हाय'-कवि ने किसे
नादान कहा है? और क्यों कहा है?
उत्तर
: कवि ने 'आत्मपरिचय' कविता की इस पंक्ति में सांसारिकता के दाने चुगने में उलझे
हुए व्यक्ति को नादान कहा है। क्योंकि जो व्यक्ति निरा भोगी और पेट की खातिर
स्वार्थी होता है, वह नादान होता है तथा उसे सत्य का ज्ञान नहीं होता है।
प्रश्न 8. "मैं और, और जग और, कहाँ
का नाता" इस कथन से.कवि का क्या आशय है?
उत्तर
: कवि का आशय है कि संसार के लोग स्वार्थी हैं, वे धन-वैभव के लिए लालायित रहते
हैं। इसलिए कवि कहते हैं कि कहाँ मैं, जो निरपेक्ष स्वार्थ-रहित जीवन जीता हूँ और
कहाँ ये संसार, जहाँ कदम-कदम पर स्वार्थी लोग हैं। उनसे मेरा रिश्ता भला कैसे हो
सकता है।
प्रश्न 9. कवि किस प्रकार के जग बना-बनाकर रोज मिटाता है?
उत्तर
: कवि अपनी कल्पना के अनुसार रोज नये-नये संसार की रचना करता है। उस रचना में उसे
जब कोई दोष या कमी नजर आती है, भावनाओं की कमी रहती है, प्रेम की कमी रहती है तो
वह उसे अस्वीकार कर मिटा देता है।
प्रश्न 10. "मैं वह खण्डहर का भाग
लिये फिरता हूँ"-'आत्मपरिचय' कविता की इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: इसका आशय यह है कि यौवन में प्रिया के बिछुड़ जाने से कवि का हृदय उसकी मधुर
यादों का खण्डहर जैसा बन गया है। वह अपने खण्डित हृदय में कोमल भावनाओं और मस्ती
को लिये फिरता है। अर्थात् अपनी प्रियतमा के यादों के खण्डहर को लिये घूमते हैं।
प्रश्न 11. "मैं भव-मौजों पर मस्त
बहा करता हूँ"-'आत्मपरिचय' कविता की इस पंक्ति का क्या आशय है?
उत्तर
: इस पंक्ति का आशय है कि संसार में तटस्थ मन:स्थिति में रहकर ही आनन्द प्राप्त
होता है। संसार-सागर की लहरों के विरुद्ध संघर्ष करने की बजाय उनके साथ बहना तैरने
में सहायक होता है। इसलिए कवि संसार रूपी सागर की मस्त लहरों में अपनी हृदयानुभूति
के साथ मस्त होकर बहते हैं।
प्रश्न 12. 'आत्मपरिचय' कविता से हमें
क्या प्रेरणा मिलती है?
उत्तर
: 'आत्मपरिचय'
कविता हमें हमारी अस्मिता, हमारी पहचान तथा हमारे परिवेश से अवगत कराती है। और यही
प्रेरणा देती है कि हमें जीवन की समस्याओं से जूझते हुए भी जीवन में स्नेह-प्रेम की
धारा अनवरत रूप से बहानी चाहिए तथा सुख-दु:ख को समान भाव से ग्रहण करते हुए मस्त रहना
चाहिए।
प्रश्न 13. कवि बच्चन रचित 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' गीत का
प्रतिपाद्य बताइये।
उत्तर
: इस गीत का प्रतिपाद्य यह है कि समय निश्चित गति से चलता है। पथिक को भी अपनी
मंजिल तक पहुँचने के लिए गतिशील रहना चाहिए। जीवन में कुछ कर गुजरने का उत्साह,
साहस एवं लगन रखनी चाहिए।
प्रश्न 14. दिन का थका पंथी क्या सोचकर जल्दी-जल्दी चलता है?
उत्तर
: दिन का थका पंथी यह सोचता है कि उसके प्रियजन उसकी प्रतीक्षा में होंगे, वे उससे
मिलने के लिए उत्सुक होंगे। मंजिल तक पहुंचने में कहीं रात न हो जावे, ऐसा विचार
करके वह जल्दी-जल्दी चलता है।
प्रश्न 15. पक्षियों के परों में चंचलता आने का कारण क्या बताया
गया है?
उत्तर
: पक्षियों में भी ममता होती है। वे अपने घोंसलों की ओर लौटते समय सोचते हैं कि
उनके बच्चे उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, दाने-चुग्गे की लालसा कर रहे होंगे। इसी
से पक्षियों के परों में चंचलता आने का कारण बताया गया है।
प्रश्न 16. 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है'
गीत में प्रेमाभिव्यक्ति किस तरह हुई है?
उत्तर
: उक्त गीत में पथिक द्वारा अपने प्रियजनों के पास जल्दी पहुँचने की चिन्ता करने
से तथा पक्षियों के द्वारा अपने बच्चे के पास दाना-चुग्गा लेकर जल्दी जाने के
विचार से कवि ने मधुर प्रेमाभिव्यक्ति की है। जो प्रिय मिलन की याद से पैरों में
चंचल गति भर देता है।
प्रश्न 17."यह अपूर्ण संसार न मझको
भाता"-कवि को यह संसार अधूरा क्यों लगता है?
उत्तर
: यह संसार अभाव, राग-द्वेष और स्वार्थपरता से व्याप्त होने से पूर्ण नहीं है। कवि
संवेदनशील एवं मानवीय भावनाओं के संसार में रहता है। अत: उसकी कल्पनाओं के समक्ष
यह संसार उसे अपूर्ण और अधूरा लगता है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. 'आत्मपरिचय' कविता में कवि ने
अपने व्यक्तित्व की कौन-कौनसी विशेषताओं से अवगत कराया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: कवि हरिवंश राय बच्चन ने 'आत्मपरिचय' कविता में जग की सारी समस्याओं का
उत्तरदायित्व अपने पर लिये तथा साथ ही सबके लिए जीवन में प्यार साथ लिये रहना
बताया है। कवि कहते हैं कि जग उनको पूछता है जो उनकी सुनते हैं लेकिन मैं अपने
सिर्फ अपने मन की सुनता हूँ। कवि को प्रेमहीन अपूर्ण संसार अच्छा नहीं लगता है
इसलिए वे अपने स्वप्नों के, अपनी कल्पनाओं के संसार में ही विचरण करते हैं।
कवि
सुख-दुःख दोनों में ही मगन रहते हैं इसलिए भवसागर की समस्याओं पर ध्यान न देकर वे
संसार रूपी सागर की समस्याओं रूपी लहरों पर मस्त रहते हैं। कवि अपनी शीतल वाणी में
जोश की आग लेकर घूमते हैं। इस तरह कवि अपने जीवन में मिली आशा-निराशा सभी से
संतुष्ट रहकर अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं। संसार को मिथ्या जानकर हानि-लाभ,
मान-अपमान, सुख-दु:ख सभी अवस्थाओं को समान मानते हैं। विपरीत परिस्थितियाँ उनके
जीवन में उत्साह और उमंग भर देती हैं।
प्रश्न 2. 'आत्मपरिचय' कविता के उद्देश्य
या प्रतिपाद्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
: कवि हरिवंश राय बच्चन ने 'आत्मपरिचय' कविता के माध्यम से यही समझाया है कि स्वयं
को जानना, दुनिया को जानने से कठिन है। समाज से बड़ा खट्टा-मीठा रिश्ता होता है
व्यक्ति का, फिर भी सांसारिक क्रियाकलापों से कट कर कोई नहीं रह सकता है। उसे समाज
के भीतर रह कर ही, अपनी पहचान बनानी पड़ती है।
विरोधी
परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। मनुष्य को द्वन्द्वात्मक अवस्था में स्वयं
से और संसार से वैचारिकता के स्तर पर नित लड़ना पड़ता है। इसलिए कवि कहते हैं कि
ऐसी अवस्थाएँ सबके जीवन में होती हैं, जरूरत है इन अवस्थाओं को हँस कर, खुशी-खुशी
पार करें। अपने जीवन को तथा दूसरों के जीवन को भी नि:स्वार्थ स्नेह से संचित करें।
प्रश्न 3. 'आत्मपरिचय' कविता को ध्यान में
रखते हुए कविता के सार को कवि के शब्दों में प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
: 'आत्मपरिचय'
कविता में कवि अपने जीवन परिचय एवं संसार की स्वार्थहीनता को व्यक्त करते हैं। यद्यपि
कवि सांसारिक कठिनाइयों से जूझ रहे हैं, फिर भी वह अपने इस जीवन से स्नेह करते हैं।
वे अपनी आशाओं और निराशाओं दोनों से संतुष्ट हैं। वे संसार से मिले प्रेम और उपेक्षा
दोनों की ही परवाह नहीं करते हैं।
क्योंकि
वे जानते हैं कि संसार उन्हीं की जय-जयकार करता है जो उसकी इच्छानुसार जीते हैं।
यहाँ कवि मस्तमौजी है। अपनी भावनाओं के अनुरूप जीवन जीते हैं। वे अपनी शीतल वाणी
द्वारा अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं। उनकी व्यथा शब्दों के माध्यम से व्यक्त होती
है। कवि सभी परिस्थितियों में मनुष्य को सामंजस्य बनाये रखने का संदेश देते हैं।
वे अपनी रचनाओं के माध्यम से संसार को सभी कठिनाइयों में झूमने व खुशियाँ मनाने की
सलाह देते हैं।
प्रश्न 4. 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' कविता
में व्यक्त उद्देश्य पर विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
: यह गीत कवि हरिवंश राय बच्चन के काव्य-संग्रह 'निशा-निमंत्रण' से प्रस्तुत है।
इस गीत में कवि ने प्रकृति की दैनिक परिवर्तनशीलता के संदर्भ में प्राणी-वर्ग के
धड़कते हृदय को सुनने की काव्यात्मक कोशिश को व्यक्त किया है। प्रिय से मिलन या
अपनों के मध्य रहने का सुकून पगों की गति में चंचलता यानि तेजी भर देता है। इस
अनुभूति के सहारे हम शिथिलता या जड़ता को प्राप्त होने की स्थिति से बच जाते हैं।
यह
गीत गुजरते समय की तीव्रता का अहसास एवं लक्ष्य को प्राप्त करने का जोश लिये हुए
है। समय के जल्दी-जल्दी बीतने की प्रक्रिया हमें सांसारिक क्षणभंगुरता से परिचित
करवाती है कि समय जल्दी खत्म हो रहा है, हमें जल्दी से अपने लक्ष्य को प्राप्त
करना होगा। इसी संदेश पर ध्यान केन्द्रित करती यह कविता अपने कथ्य और उद्देश्य को
भली-भाँति प्रकट करती है।
प्रश्न 5. कौनसा विचार दिन ढलने के बाद लौट रहे पंथी के कदमों को
तेज और धीमा कर देता है? बच्चन के गीत के आधार पर व्यक्त कीजिए।
उत्तर
: 'दिन
जल्दी-जल्दी ढलता है' कविता में बच्चनजी ने दोनों ही प्रकार की स्थितियों को व्यक्त
किया है। एक तरफ प्रिय आलम्बन तथा अपनों के मध्य रहने का सुकून, शिथिल कदमों को और
तेज कर देता है। वह ढलते दिन को देखकर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता है कि उसकी मंजिल दूर
नहीं है।
वहीं
दूसरी स्थिति एकाकी जीवन व्यतीत करने वालों के साथ की है। शाम के समय उनके मन में
विचार उठता है कि उनके इंतजार में व्याकुल होने वाला कोई नहीं है अतः वह किसके लिए
तेजी से घर जाने की कोशिश करे। यह विचार लौटते कदमों को और शिथिल बना देता है तथा
उनके हृदय को और भी व्यथित व पीड़ा से भर देता है।
प्रश्न 6. 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' कविता
में व्यक्त गूढ़ अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: 'दिन
जल्दी-जल्दी ढलता है' कविता में कवि ने सत्य के साथ समय के गुजरते जाने के एहसास में।
- लक्ष्य प्राप्ति के लिए कुछ करने का जज्बा लिए अर्थ को कविता में व्यक्त किया है।
मंजिल दूर होने की स्थिति में। लोगों में उदासीनता का भाव आ जाता है। कभी-कभी उनके
मन में निराशा का भी भाव आ जाता है। मंजिल की दूरी से घबराकर कुछ लोग प्रयास करना छोड़
देते हैं। कुछ व्यर्थ के तर्क-वितर्क में उलझ जाते हैं। मनुष्य आशा-निराशा के बीच झूलने
लगता है।
यह
बीच की स्थिति को व्यक्त करता है। दूसरी स्थिति में बच्चे आशा लगाए बैठे होंगे कि
कब उनके अपने शाम होते ही घर आयेंगे और उन्हें स्नेह-दुलार से, भोजन से तृप्त
करेंगे। यह आशा मनुष्य (प्राणीजगत) के जीवन में नव-संचार के भाव भरती है कि हमारे
जीवन का एक ध्येय है कि हमारे अपने हमसे स्नेह-प्रेम की आस टिकाये बैठे हैं।
तीसरी
स्थिति, कवि स्वयं की या एकाकी जीवन व्यतीत करने वालों की स्थिति के बारे में कहते
हैं कि जो अकेले हैं, निराशा हैं व्याकुल हैं उन्हें यह ढलता दिन और भी अकेला,
व्यथित व व्याकुल बना देता है। संसार की निस्सारता व क्षणभंगुरता उन्हें स्पष्ट
दिखाई देने लगती है। अनेकानेक अर्थों को संजोये यह गीत मन:स्थितिनुसार अर्थ व्यक्त
करता है।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1. कवि हरिवंश राय बच्चन के साहित्यिक कृतित्व एवं
व्यक्तित्व पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर
: कवि का जन्म सन् 1907 में इलाहाबाद में हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त कर ये
प्राध्यापक एवं शिक्षा मंत्रालय में हिन्दी-विशेषज्ञ रहे। ये हालावाद के प्रवर्तक
कवि रहे हैं। इन्होंने छायावाद की लाक्षणिक वक्रता के बजाय सीधी-सादी - जीवंत भाषा
में तथा संवेदना से युक्त गेय शैली में अपनी बात कही।
व्यक्तिगत
जीवन में घटी घटनाओं की सहज अनुभूति की ईमानदार अभिव्यक्ति बच्चनजी की कविताओं में
प्रकट हुई। 'मधुशाला', 'मधुबाला', 'मधुकलश', 'निशा-निमंत्रण', 'एकांत संगीत',
'आकुल-अंतर', 'मिलन-यामिनी' (काव्य संग्रह); क्या भूलूँ क्या याद करूँ', 'नीड़ का
निर्माण फिरफिर', 'बसेरे से दूर', 'दशद्वार से सोपान' (आत्मकथा); प्रवासी की डायरी
(डायरी) इत्यादि का रचित संसार है। इनका निधन सन् 2003 में मुम्बई में हुआ।
आत्म-परिचय, एक गीत
हरिवंश राय बच्चन
कवि
परिचय - आधुनिक हिन्दी साहित्य में हालावाद के
प्रवर्तक डॉ. हरिवंश राय बच्चन' का जन्म सन् 1907 ई. को इलाहाबाद में हुआ। इनके
पिता का नाम प्रतापनारायण और माता का नाम सरस्वती देवी था।
इन्होंने
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक एवं स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की तथा
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की। ये इलाहाबाद विश्वविद्यालय
में प्राध्यापक रहे, फिर आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से सम्बद्ध तथा विदेश
मन्त्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। सन् 1966 में राज्यसभा के लिए राष्ट्रपति
द्वारा नामित हुए।
इसी
वर्ष इन्हें 'सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार' मिला। सन् 1969 में 'दो चट्टानें' पर
साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। सन् 1976 में इन्हें 'पद्मभूषण' तथा सन् 1992 में
'सरस्वती पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। जनवरी सन् 2003 में मुम्बई में इनका
निधन हुआ।
कवि
हरिवंश राय बच्चन का कृतित्व अतीव महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इनकी प्रमुख रचनाओं
के नाम हैं| मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा-निमन्त्रण, आकुल-अन्तर, एकान्त संगीत,
मिलनयामिनी, सतरंगिणी, आरती और अंगारे, नये-पुराने झरोखे, टी-फूटी कड़ियाँ
(काव्य-संग्रह); क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर,
दशद्वार से सोपान तक (आत्मकथा चार खण्ड) तथा प्रवास की डायरी आदि। बच्चनजी के
समस्त वाङ्मय को 'बच्चन ग्रन्थावली' नाम से दस खण्डों में प्रकाशित किया गया है।
कविता
परिचय - प्रस्तुत पाठ में हरिवंश राय बच्चन द्वारा
रचित 'आत्म-परिचय' कविता :निशा-निमन्त्रण' काव्य-संग्रह का एक गीत संकलित है। इस
गीत में यह प्रतिपादित किया गया है कि अपने को जानना दुनिया को जानने से भी अधिक
कठिन है। समाज से व्यक्ति का सम्बन्ध खट्टा-मीठा तो होता ही है, जग-जीवन से पूरी
तरह निरपेक्ष रहना सम्भव नहीं है।
व्यक्ति
को चाहे दूसरों के आक्षेप कष्टकारी लगें, परन्तु अपनी अस्मिता, अपनी पहचान का उत्स,
उसका परिवेश ही उसकी दुनिया है। सांसारिक द्विधात्मक सम्बन्धों के रहते हुए भी
व्यक्ति जीवन में सामंजस्य स्थापित कर सकता है। पाठ में संकलित 'दिन जल्दी-जल्दी
ढलता है' गीत में कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपने जीवन के अकेलेपन की कुण्ठा
अभिव्यक्त की है।
यात्रा-पथ
पर चलता हुआ पथिक 'अब मंजिल पास ही है' ऐसा सोचकर अधिक तेजी से चलने लगता है। वह
सोचता है कि घर पर लोग उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, इससे उसके कदमों की गति बढ़
जाती है। लेकिन जब कवि का जीवन एकाकी हो, तो वह किसके लिए ऐसी उत्कण्ठा रखेगा? कवि
ने इसमें अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद के कुण्ठामय जीवन का चित्रण करते हुए यह
सन्देश दिया है कि जीवन में लक्ष्य-प्राप्ति हेतु संघर्ष करने से उत्साह बढ़ता है,
परन्तु प्रेम के अभाव में निराशा और दुर्बलता आती है।
सप्रसंग व्याख्याएँ -
आत्म-परिचय :
मैं
जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर
भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ
कर
दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर,
मैं
साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं
स्नेह-सुरा का पान किया करता हैं,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं
अपने मन का गान किया करता हूँ!
कठिन-शब्दार्थ
:
झंकृत
= झनझनाकर बजना।
तार
= तारों का बाजा वीणा आदि।
स्नेह-सुरा
= प्रेम रूपी शराब।
प्रसंग
- प्रस्तुत काव्यांश कवि हरिवंशराय बच्चन द्वारा लिखित काव्य-संग्रह
'निशा-निमंत्रण' की कविता 'आत्मपरिचय' से लिया गया है। इसमें कवि ने अपनी
जीवन-शैली का परिचय दिया है कि वह किस प्रकार विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन में
स्नेह-भार लिये घूमते हैं।
व्याख्या
- कवि कहता है कि मैं इस सांसारिक जीवन का भार अपने ऊपर लिये हुए फिरता रहता हूँ।
किसी प्रिय ने मेरे हृदय की कोमल भावनाओं का स्पर्श करके (हृदय रूपी वीणा के तारों
से) इसे झंकृत कर दिया है। इस तरह मैं अपनी साँसों के दो तार लिये हुए जग-जीवन में
फिरता रहता हूँ।
कवि
बच्चन कहते हैं कि मैं प्रेमरूपी शराब को पीकर मस्त रहता हूँ। इसी मस्ती में इस
बात का विचार कभी नहीं करता हूँ कि लोग मेरे सम्बन्ध में क्या कहते हैं। मैं इस
बात की चिन्ता नहीं करता हूँ। यह संसार तो उन्हें पूछता है, अर्थात् प्रशंसा करता
है जो उनके कहने पर चलते हैं, उनके अनुसार गाते हैं। किन्तु मैं अपने मन की
भावनाओं के अनुसार गाता हूँ तथा कविता में अपने ही मनोभावों को अभिव्यक्ति देता
है।
विशेष
:
1.
कवि ने इसमें अपने जीवन के सुख-दुःख व प्रेम के दायित्व का भार स्वयं उठाये चलने को
कहते हैं। साथ ही स्वयं के मनानुसार चलने की बात कहते हैं।
2.
खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है। रूपक व अनुप्रास अलंकारों की सहज अभिव्यक्ति हुई है।
प्रसाद गुण का प्रयोग है। कोमलकान्त शब्दावली का प्रयोग है।
मैं
निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं
निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ।
है
यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता,
मैं
स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं
जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता है।
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं
भव-मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
कठिन-शब्दार्थ
:
निज
= अपना।
उर
= हृदय।
उद्गार
= हृदय के भाव।
भव-मौजों
= संसार की लहरों, तटों।
प्रसंग
- प्रस्तुत काव्यांश कवि हरिवंशराय बच्चन द्वारा लिखित काव्य-संग्रह
'निशा-निमंत्रण' की कविता 'आत्मपरिचय' से लिया गया है। जिसमें कवि ने स्वयं के
जीवन-शैली तथा संसार के व्यवहार का परिचय दिया है।
व्याख्या
- कवि कहता है कि मैं अपने हृदय में नये-नये भाव रखता हूँ। मैं अपने ही हृदय
द्वारा दिये गए उपहारों (सुख-दुःख) को लिये घूमता रहता हूँ। मैं उन्हीं मनोभावों
को लेकर उड़ता-घुमड़ता रहता हूँ। मैं किसी अन्य के इशारे पर नहीं चलता, मैं अपने
हृदय की भावना को ही श्रेष्ठ भेंट मानकर अपनाता रहता हूँ। मुझे यह सारा संसार
अधूरा लगता है, इसमें प्रेम का अभाव-सा है। यह इसी कारण मुझे अच्छा नहीं लगता है।
मेरे मन में प्रेममय सुन्दर सपनों का संसार है और उसी को लेकर मैं आगे बढ़ता रहता
हूँ, अर्थात् मैं अपनी भावनाओं के अनुसार प्रेममय संसार की रचना करता रहता हूँ।
कवि
कहता है कि मेरे हृदय में प्रेम की अग्नि जलती रहती है और मैं उसी की आँच से स्वयं
तपा करता हूँ। कवि कहता है कि मैं प्रेम-दीवानगी में मस्त होकर जीवन में सुख-दुःख
दोनों दशाओं में मग्न रहता हूँ। यह संसार विपदाओं का सागर है, मैं इसे प्रेमरूपी
नाव से पार करना चाहता हूँ। इसलिए मैं भव-सागर की लहरों पर प्रेम की उमंग और मस्ती
के साथ बहता रहता हूँ। इस तरह मैं प्रसन्नतापूर्वक जीवन-नाव से संसार-सागर के
किनारे लग जाता हूँ। सभी परिस्थितियों में मैं मस्त रहता हूँ।
विशेष
:
1.
कवि संसार की रीतियों से अलग स्वयं के सुख-दु:ख एवं का प्रेम में मग्न रहने का भाव
प्रकट करते हैं। उनका कवित्व संसार ही उनका जीवन है।
2.
हिन्दी खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है। भव-सागर में रूपक अलंकार का प्रयोग है। कोमलकान्त
शब्दावली एवं प्रसाद गुण का प्रयोग हुआ है। तुकान्त व गेयता प्रमुख गुण है।
मैं
यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों
में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो
मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं,
हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर
यल मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं
सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!
कठिन-शब्दार्थ
:
उन्माद
= पागलपन, प्रेम की अत्यधिक सनक।
अवसाद
= दु:ख से उत्पन्न उदासी, विषाद।
मूढ़
= मूर्ख।
प्रसंग-प्रस्तुत
काव्यांश कवि हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित काव्य-संग्रह निशा-निमंत्रण की कविता
'आत्मपरिचय' से लिया गया है। जिसमें कवि अपने हृदय की अवस्थाएँ एवं संसार के
व्यवहार पर अपनी भावनाएँ प्रकट कर रहे हैं कि कवि के हृदय के सत्य को किसी ने भी
जानने की कोशिश नहीं की।
व्याख्या
- कवि हरिवंश राय बच्चन' अपने सम्बन्ध में कहते हैं कि मैं युवावस्था के नशे में
रहता हूँ, मेरे ऊपर प्रेम का पागलपन सवार रहता है। इस दीवानगी में मुझे कदम-कदम पर
निराशा भी मिलती रहती है, अर्थात् दुःख-विषाद की भावना भी इसमें विद्यमान रहती है।
इससे मेरी मन:स्थिति बाहर से तो हंसते हुए अर्थात् प्रसन्नचित्त रहती है, परन्तु
अन्दर-ही-अन्दर रुलाती रहती है। इस स्थिति का मूल कारण यह है कि मैं अपने हृदय में
किसी प्रिय की मधुर स्मृति बसाए हुए हूँ और हर समय उसकी याद करता रहता हूँ और उसके
न मिलने से दु:खी हो जाता हूँ।
कवि
कहता है कि मैंने सारे उपाय, सारे प्रयत्न करके देख लिये लेकिन किसी ने भी मेरे
हृदय के सत्य को जानने की कोशिश नहीं की। कोई भी मेरे इस जीवन-सत्य को कोई नहीं
जान पाया। इस तरह जिसे भी देखो वही नादानी कर रहा है। इस संसार में जिसे जहाँ पर
भी धन, वैभव और भोग-सामग्री मिल जाती है, वह वहीं पर दाना चुगने लगता है, अर्थात्
स्वार्थ पूरा करने लगता है।
परन्तु
कवि की दृष्टि में ऐसे लोग मूर्ख होते हैं, क्योंकि वे जान-बूझकर सांसारिक लाभ मोह
के चक्कर में उलझे रहते हैं। मैं संसार की इस नासमझी को समझ गया हूँ। इसीलिए मैं
सांसारिकता का पाठ सीख रहा हूँ और सीखे हुए ज्ञान को अर्थात् पुरानी बातों को
भूलकर अपने मन के अनुसार चलना सीख रहा हूँ।
विशेष
:
1.
कवि ने अपने हृदय के दुःखों को तथा संसार के मूढ़ व्यक्तियों की विचित्र दशा को बताया
है।
2.
कोमलकान्त शब्दावली, तत्सम भाषा का प्रयोग तथा अनुप्रास अलंकार की प्रस्तुति द्रष्टव्य
है।
3.
तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
मैं
और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं
बना-बना कितने जग रोज मिटाता;
जग
जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं
प्रति.पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं
निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं
वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।
कठिन-शब्दार्थ
:
वैभव
= धन-दौलत।
पग
= कदम।
रुदन
= रोना।
राग
= प्रेम।
भूपों
= राजाओं।
प्रासाद
= महल।
प्रसंग
- प्रस्तुत काव्यांश कवि हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित काव्य संग्रह
'निशा-निमंत्रण' की कविता 'आत्मपरिचय' से लिया गया है। इसमें कवि ने संसार एवं
अपने हृदय के सम्बन्ध तथा संसार की निष्ठुरता को व्यक्त किया है।
व्याख्या
- कवि अपने और संसार की क्रियाओं के विषय में कहते हैं कि मैं एक कवि जो कि स्वभाव
से ही संवेदनशील होता है और कहाँ ये संसार? हम दोनों के मध्य किस प्रकार का
रिश्ता? संसार अपनी निष्ठुरता के लिए जाना जाता है और मैं अपने प्रेममय हृदय के
लिए। इसलिए न जाने मैं अपनी कल्पनाओं में अपनी भावनाओं के अनुरूप, कितने ही संसार
रोज बनाता-मिटाता हूँ। मेरा संसार से कोई नाता या सम्बन्ध नहीं है।
मेरा
तो इस संसार के साथ टकरावअलगाव चलता रहता है। मैं रोज एक नये संसार की अर्थात् नये
आदर्श की रचना करता हूँ और उससे पूरी तरह सन्तुष्ट न होने पर उसे मिटाने का प्रयास
करता हूँ। यह संसार जिस धन-समृद्धि को एकत्र करने में लगा रहता है, मैं उसे पूरी
तरह ठुकरा देता हूँ। इस तरह मैं संसार को ठुकराकर सत्य और प्रेम के पथ पर बढ़ता
रहता हूँ।
कवि
कहता है कि मेरे रोदन में भी मेरा प्रेम-भाव छलकता है। मैं अपने गीतों में प्रेम
के आँसू बहाता हूँ। मेरी वाणी यद्यपि कोमल और शीतल है, फिर भी उसमें प्रेम की
तीव्र ऊष्मा एवं वेदना का ताप है। जिस प्रेम पर राजाओं के विशाल महल न्यौछावर होते
हैं, उन पर मैं अपने प्रेम के खण्डहर न्यौछावर कर सकता हूँ। प्रेम की निराशा के
कारण मेरा जीवन एक खण्डहर जैसा है, फिर भी मैं उस खण्डहर रूपी प्रेम को अपने जीवन
का अहम भाग मान साथ लिये फिरता हूँ। कवि इसमें अपने प्रेम की पीड़ा को स्वयं साथ
रखने की बात कह रहे हैं।
विशेष
:
1.
कवि अपनी संवेदनशील भावनाओं को व्यक्त कर रहे हैं। सांसारिक लेन-देन से उनकी हृदय की
पीड़ा को कोई मतलब नहीं है। वे अपने दुःख में भी प्रसन्न हैं।
2.
कोमलकान्त शब्दावली, विरोधाभासी उपमान तथा अलंकारों का प्रयोग निहित है।
मैं
रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं
फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों
कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं
दुनिया का हूँ, एक नया दीवाना!
मैं
दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ।
जिसको सुनकर जग झूम झुके, लहराए,
मैं
मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
कठिन-शब्दार्थ
:
मादकता
= मस्ती, नशे की स्थिति।
निःशेष
= सम्पूर्ण, जिसमें कुछ न बचे।
प्रसंग
- प्रस्तुत काव्यांश कवि हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित काव्य संग्रह
'निशा-निमंत्रण' की कविता 'आत्मपरिचय' से लिया गया है। इसमें कवि ने अपने
दुःख-पीड़ा व अपने मस्त-मौला व्यवहार का चित्रण किया है।
व्याख्या-कवि
कहता है कि जब मैं रोया और मेरे हृदय का दुःख करुण शब्दों में व्यक्त हुआ, तो इसे
लोग गाना (गीत) कहने लगते हैं। जब मैं प्रेम के आवेग से भरकर पूरे उन्माद से अपने
भावों को व्यक्त करता हूँ तब संसार के लोग उसे छन्द कहने लगते हैं। वास्तव में तो
मैं कवि नहीं हूँ, अपितु प्रेम-दीवाना हूँ।
कवि
कहता है कि मैं संसार में प्रेम-दीवानों की तरह विचरण करता हूँ। मैं जहाँ भी जाता
हूँ अपनी दीवानगी से सारे वातावरण को मस्ती से भर देता हूँ। मेरी हार्दिक भावना
प्रेम की सम्पूर्ण मस्ती से छायी हुई है। मैं प्रेम और यौवन के गीत गाता हूँ। मैं
सभी को इसी प्रेम की मस्ती में झूमने का सन्देश देता रहता हूँ। लोग मेरे इसी
सन्देश को गीत समझ लेते हैं। जबकि मैं सबको अपने व्यवहार द्वारा सभी दु:खों से दूर
रहने का संदेश देना चाहता हूँ।
विशेष
:
1.
कवि ने बताया है कि उसके हृदय के उद्गारों को संसार गीत समझते हैं लेकिन वे उद्गार
संदेशस्वरूप होते हैं कि लोग अपने जीवन को उत्सव की तरह जीयें।
2.
कोमलकांत शब्दावली, तत्सम प्रधान भाषा, प्रसाद गुण एवं अनुप्रास अलंकार अनुप्रास पद्य
की विशेषता बताती है।
3.
फूट पड़ना, छन्द बनाना आदि मुहावरे भाषा में गाम्भीर्य पैदा करते हैं।
गीत
दिन
जल्दी-जल्दी ढलता है!
हो
जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल
भी तो है दूर नहीं
यह
सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन
जल्दी-जल्दी ढलता है!
प्रसंग
- प्रस्तुत काव्यांश कवि हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित काव्य संग्रह
'निशा-निमंत्रण' की कविता (गीत) 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' से लिया गया है। इसमें
कवि ने दिन के ढलने व पथिक के घर लौटने का वर्णन किया है। दिन ढलने की गति के साथ
पथिक के हृदय की व्याकुलता को भी व्यक्त किया गया है।
व्याख्या
- कवि कहता है कि दिन-भर चलकर अपनी मंजिल के समीप पहुँचने वाला पथिक सोचता है कि
अब अपनी मंजिल पास ही है, परन्तु उस मंजिल तक पहुंचने से पहले ही कहीं रात नहीं हो
जावे और वह वहाँ तक नहीं पहुँच पावे। यह सोचकर दिन का थका हुआ वह पथिक जल्दी-जल्दी
कदम बढ़ाता है। प्रिय-मिलन की आतुरता में उस पथिक को ऐसा प्रतीत होता है कि दिन
जल्दी-जल्दी ढल रहा है। आशय यह है कि पथिक के मन में मंजिल तक पहुँचने तथा वहाँ पर
प्रिय-मिलन की आशा बढ़ रही है, शरीर - थका हुआ होने पर भी उसके मन में उमंग,
उल्लास और आशा का संचार हो रहा है।
विशेष
:
1.
कवि ने बताया है कि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शीघ्रता होनी चाहिए तथा उत्साह एवं
लगन में कोई कमी नहीं आनी चाहिए।
2.
शब्द-योजना सरल, प्रवाहमय एवं भावपूर्ण है। पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास अलंकार हैं।
3.
तत्सम-प्रधान, खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
बच्चे
प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों
से झाँक रहे होंगे -
यह
ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन
जल्दी-जल्दी ढलता है!
कठिन-शब्दार्थ
:
प्रत्याशा
= आशा।
नीड़ों
= घोंसलों।
परों
= पंखों।
प्रसंग
- प्रस्तुत काव्यांश कवि हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित काव्य संग्रह
'निशा-निमंत्रण' की कविता (गीत) 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' से लिया गया है। इसमें
कवि ने प्रकृति एवं पक्षी के माध्यम से मनुष्य को संदेश दिया है कि अपना कार्य
शीघ्र करके लक्ष्य को प्राप्त करे क्योंकि दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
व्याख्या
- कवि कहता है कि एक चिड़िया जब आकाश में उड़ती हुई अपने घोंसलों की ओर लौट रही
होती है, तो वह सोचती है कि मेरे बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे। वे घोंसले में
बैठे हुए मेरे लौट आने की आशा में बाहर की ओर झाँक रहे होंगे। यह सोचकर वह अपने
पंखों को अधिक गति देने लगती है। उस समय उसके पंखों में कितनी चंचलता रहती है?
वस्तुतः जब दिन जल्दी-जल्दी ढलने लगता है, तो प्रत्येक पथिक में अपनी मंजिल तक
पहुँचने की तीव्रता दिखाई देती है।
पक्षी
के माध्यम से कवि ने प्रत्येक व्यक्ति को अपना कार्य अपना लक्ष्य प्राप्त करने तथा
शीघ्रता करने को कहा है। क्योंकि दिन जल्दी-जल्दी ढलता है अर्थात् हमारा समय तेजी
से व्यतीत हो रहा है। यहाँ कवि का दर्शन-भाव व्यक्त हो रहा है। संसार की
क्षण-भंगुरता एवं नश्वरता की ओर भी कवि का संकेत है।
विशेष
:
1.
कवि ने पक्षी के माध्यम से संसार की मोह-माया एवं घर जल्दी लौटने का प्रतीकात्मक अर्थ
व्यक्त किया है। संसार की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला है।
2.
भाषा सरल, सुकोमल एवं भावानुकूल है। तत्सम शब्दावली के साथ खड़ी बोली का प्रयोग है।
गेयता एवं माधुर्यता का समावेश है।
मुझसे
मिलने को कौन विकल?
मैं
होऊँ किसके हित चंचल?
यह
प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन
जल्दी-जल्दी ढलता है!
कठिन-शब्दार्थ
:
विकल
- व्याकुल।
हित
= के वास्ते, भलाई।
पद
= पैर, कदम।
उर
= हृदय।
विह्वलता
= आतुरता, व्याकुलता।
प्रसंग
- प्रस्तुत काव्यांश कवि हरिवंश राय बच्चन
द्वारा लिखित काव्य संग्रह 'निशा-निमंत्रण' की कविता (गीत) 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता
है' से लिया गया है। इसमें कवि ने सांसारिक भाव भरते हुए स्वयं को संसार में अकेला
बताते हुए कहा है कि वह किसके लिए हृदय में व्याकुलता भर कर अपने लक्ष्य को
प्राप्त करे?
व्याख्या
- कवि कहता है कि इस दुनिया में मेरा कोई अपना नहीं है जो मुझसे मिलने के लिए
व्याकुल हो, फिर मेरा हृदय किसके लिए चंचल हो? यह प्रश्न मेरे बढ़ते हुए कदमों को
शिथिल कर देता है और मेरे हृदय में निराशा तथा उदासी की भावना भरने लगती है।
यह
प्रेम ही है, जिसकी व्याकुलता से दिन जल्दी-जल्दी ढल जाता है, अर्थात् प्रिया के
विरह-वियोग से हृदय निरन्तर व्यथित रहता है, जिससे दिन जल्दी ढल जाता प्रतीत होता
है और रात फिर विरहवेदना को बढ़ाती रहती है। सांसारिक भावों की ओर कवि का इशारा
है। वह कहते हैं कि सबका कोई न कोई होता है जिसके लिए व्यक्ति अपने लक्ष्य को
प्राप्त करने के लिए तत्पर होता है। किन्तु यहाँ मेरा कोई नहीं है जिसके हितार्थ
मैं कोई कार्य करूँ।
विशेष
:
1.
कवि ने अपनी एकल व्यथित भावना को व्यक्त किया है। कार्य की पूर्णता लक्ष्य पर निर्भर
होती है जिसके लिए सभी अपना कार्य शीघ्र करने की कोशिश करते हैं।
2.
भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण, तत्सम एवं भावानुकूल है। गीत शैली में तुकान्त गेयता एवं लय
शैली है। अनुप्रास अलंकार एवं विरह-व्यथा का वर्णन हुआ है।