पाठ के साथ
प्रश्न 1. कुश्ती के समय ढोल की आवाज और लुट्टन के दाँव-पेंच में क्या
तालमेल था? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा
करते हैं? उन्हें शब्द दीजिए।
उत्तर
: लुट्टन पहलवान ढोल की आवाज के प्रति अत्यधिक संवेदनशील था। उसे ढोल की आवाज मानो
कुश्ती के दाँव-पेंच सिखाती थी। ढोल के ध्वन्यात्मक शब्द उसे इस तरह आदेशात्मक लगते
थे -
चट्
धा, गिड़-धा - आजा, भिड़ जा।
चटाक्-चट्-धा
- उठाकर पटक दे।
चट्-गिड़-धा
- मत डरना।
ढाक्-ढिना;
ढाक्-धिना - वाह पटे, वाह पढ़े।
धाक
धिना, तिरकट तिना - दाँव काटो, बाहर हो जा।
धिना-धिना,
धिक् धिना - चित करो, चित करो।
धा-गिड़-गिड़
- वाह बहादुर !
वस्तुतः
ये ध्वन्यात्मक शब्द हमारे मन में उत्तेजना पैदा करते हैं तथा संघर्ष करने की चेतना
बढ़ाते हैं।
प्रश्न 2. कहानी के किस-किस मोड़ पर लुट्टन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन
आये?
उत्तर
: कहानी में लुट्टन के जीवन में निम्नलिखित परिवर्तन आये -
बचपन
में माता-पिता की मृत्यु हो गई, तब उसका पालन-पोषण विधवा सास ने किया। शादी बचपन में
हो गई थी।
श्यामनगर
के दंगल में पंजाब के नामी पहलवान चाँदसिंह को पछाड़कर राज-दरबार क्ला आश्रय पाया।
लुट्टन
के दोनों बेटे भी पहलवानी के क्षेत्र में उतरे।
राजा
की मृत्यु के बाद राजकुमार ने लुट्टन को राज-दरबार से हटा दिया। तब वह अपने गाँव लौट
आया।
गाँव
में महामारी फैलने पर दोनों पुत्रों की मृत्यु हो गई।
कुछ
दिनों पश्चात् लुट्टन की भी मृत्यु हो गई।
प्रश्न 3. लुट्टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान
नहीं, यही ढोल है?
उत्तर
: लुट्टन ने किसी उस्ताद या गुरु से कुश्ती के दाँव-पेंच नहीं सीखे थे। उसे कुश्ती
करते समय ढोल की ध्वनि से उत्तेजना और संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती थी। चाँदसिंह पहलवान
के साथ कुश्ती लड़ते समय वह ढोल की ध्वनि से दाँव-पेंच का अर्थ लेता रहा और उसी के
अनुसार कुश्ती लड़कर विजयी हुआ। अत: वह ढोल को ही अपना गुरु मानने लगा।
प्रश्न 4. गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के देहान्त के बावजूद
लुट्टन पहलवान ढोल क्यों बजाता रहा?
उत्तर
: लुट्टन पहलवान ढोल को अपना गुरु और संघर्ष करने की शक्ति देने वाला मानता था। ढोल
की ध्वनि से उसमें साहस और उत्तेजना का संचार होता था। सन्नाटे में ढोल जीवन्तता का
संचार करता है। इसी कारण गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के देहान्त के बावजूद
भी वह जीवन में हिम्मत बनाये रखने के लिए ढोल बजाता रहा।
प्रश्न 5. ढोलक की आवाज का पूरे गाँव पर क्या असर होता था?
उत्तर
: महामारी फैलने तथा कई लोगों की मौत होने से गाँव का वातावरण निराशा-वेदना से भरा
था। रात के समय गाँव में सन्नाटा और भय बना रहता था। ढोलक की आवाज रात में उस सन्नाटे
और भय को कम करती थी। महामारी से पीड़ित लोगों को ढोलक की ध्वनि से संघर्ष करने की
शक्ति एवं उत्तेजना मिलती थी। इस प्रकार ढोलक की आवाज का पूरे गाँव पर अतीव प्रेरणादायी
असर होता था।
प्रश्न 6. महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त के
दृश्य में क्या अन्तर होता था?
उत्तर
: सूर्योदय होने पर लोगों के चेहरों पर हाहाकार तथा हृदय-विदारक क्रन्दन के बावजूद
कुछ चमक रहती थी। दिन में लोग काँखते-कूखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलते और
अपने पड़ोसियों एवं आत्मीयजनों के पास जाकर उन्हें ढाढ़स देते थे। सूर्यास्त होने पर
लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते तो यूँ भी नहीं करते थे। मानो उनकी बोलने की
शक्ति भी जाती रहती थी। माताएँ पास में दम तोड़ते हुए पुत्र को अन्तिम बार 'बेटा' भी
नहीं कह पाती थीं। रात्रि में पूरे गाँव में सन्नाटा एवं भय का वातावरण रहता था।
प्रश्न 7. कुश्ती या दंगल पहले लोगों और राजाओं का प्रिय शौक हुआ करता
था। पहलवानों को राजा एवं लोगों के द्वारा विशेष सम्मान दिया जाता था
(क) ऐसी स्थिति अब क्यों नहीं है?
उत्तर
: अब पहले की तरह न कोई राजा रहे, न रियासतें रहीं। अब मनोरंजन के अनेक साधन हो गये
हैं, नये-नये खेल होने लगे हैं। दंगलों के प्रति लोगों की रुचि कम रह गई है। इन्हीं
कारणों से अब पहले वाली स्थिति नहीं रह गई है।
(ख) इसकी जगह अब किन खेलों ने ले ली है?
उत्तर
: दंगलों की जगह अब वेटलिफ्टिंग, चक्का थ्रो, बैडमिंटन, हॉकी, फुटबाल आदि खेल आ गए
हैं।
(ग) कुश्ती को फिर से प्रिय खेल बनाने के लिए क्या-क्या कार्य किए जा
सकते हैं?
उत्तर
: ग्रामीण क्षेत्रों में कुश्ती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। पंचायतों को इस कार्य के
लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध करानी चाहिए। कुश्ती के लिए नये साधन-सुविधाओं का विकास होना
चाहिए तथा पहलवानों को सम्मान पुरस्कार, नौकरी आदि देनी चाहिए।
प्रश्न 8. आशय स्पष्ट करें -
आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी
ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता
पर खिलखिलाकर हँसं पड़ते थे।
उत्तर
: लेखक अमावस्या की अंधेरी रात में चमकते और टूटते तारों का चित्रण कर कहता है कि गाँव
में महामारी से पीड़ित लोगों की दुर्दशा को देखकर मानो संवेदना और दया से भरकर एक तारा
सान्त्वना देने के लिए पृथ्वी की ओर चल पड़ता, परन्तु इतनी दूर आते-आते उसकी चमक और
शक्ति रास्ते में ही खत्म हो जाती थी, तब उसकी भावुकता और असफलता को लक्ष्य कर आकाश
के अन्य तारे उसका उपहास करने लगते। आशय यह है कि रात में आकाश में तारे चमक रहे थे,
परन्तु कोई तारा टूटकर नीचे भी गिर जाता था।
प्रश्न 9. पाठ में अनेक स्थलों पर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है।
पाठ में से ऐसे अंश चुनिए और उनका आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: प्रकृति के मानवीकरण के कुछ उदाहरण -
1.
अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी।
अर्थात्
रात में ओस कण गिर रहे थे, वे ऐसे लगते थे कि कोई शोकग्रस्त नारी आँसू बहा रही थी।
इसमें 'अँधेरी रात' का शोकग्रस्त नारी रूप में मानवीकरण हुआ है।
2.
निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर
रही थी। इसमें निस्तब्धता को शोकग्रस्त नारी के समान आचरण करने वाली बताकर उसका मानवीकरण
किया गया है।
3.
तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़े।
तारों
का मानवीकरण किया गया है। टकर गिरने से बझते हए तारे पर भावक तथा शक्तिहीन व्यक्ति
का आरोप तथा अन्य चमकते हुए तारों पर उसका उपहास करने वाले लोगों का व्यापार आरोपित
है।
पाठ के आसपास
प्रश्न 1. पाठ में मलेरिया और हैजे से पीड़ित गाँव की दयनीय स्थिति
को चित्रित किया गया है। आप ऐसी किसी अन्य आपदा स्थिति की कल्पना करें और लिखें कि
आप ऐसी स्थिति का सामना कैसे करेंगे/करेंगी?
उत्तर
: मलेरिया और हैजा के समान ही वर्तमान में डेंगू का प्रकोप भयानक फैला हुआ है। इससे
गाँवों के अधिकांश लोग पीड़ित हो रहे हैं। कुछ बच्चे तो असमय ही मृत्यु को प्राप्त
हो चुके हैं। लोग साधारण बुखार को भी डेंगू मानकर भयभीत रहने लगे हैं। यदि मैं बचाव
दल का सदस्य होता तो ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए निम्न कार्य करता -
घर-बाहर,
पास-पड़ोस की सफाई पर ध्यान देता।
गाँव
में स्वच्छता अभियान चलाता।
लोगों
को डेंगू से बचने की जानकारी देता।
गाँव
में निःशुल्क इलाज की व्यवस्था करता।
सभी
लोगों की यथासम्भव सहायता करता।
प्रश्न 2. 'ढोलक की थाप मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।'-कला
से जीवन के सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए चर्चा कीजिए।
उत्तर
: ढोलक संगीत कला का एक विशिष्ट वाद्य-यन्त्र है। इसकी थाप हमारे मन में उत्साह का
संचार करती है। कला का जीवन से गहरा सम्बन्ध है। कला के विभिन्न रूप हैं। चित्रकला
एवं वास्तुकला जहाँ देखने वालों को आनन्दित करती हैं, वहीं काव्य-कला, पढ़ने-सुनने
वालों में आनन्द एवं भावुकता का संचार करती है। कवियों की ओजस्वी एवं देशभक्तिपूर्ण
वाणी का प्रभाव स्वतन्त्रता आन्दोलन पर इसी कारण विशेष रहा। वीरगाथा काल में चारण कवियों
की ओजस्वी कविताओं और नगाड़े-ढोल आदि वाद्यों से वीरता का संचार होता था. यह इतिहास-प्रसिद्ध
है।
प्रश्न 3. चर्चा करें-कलाओं का अस्तित्व व्यवस्था का मोहताज नहीं है।
उत्तर
: कलाओं का अस्तित्व सरकारी सहायता पर ही निर्भर नहीं रहता है। राजा-महाराजाओं के शासन
में कलाओं को राजकीय प्रोत्साहन मिलता था, कलाकारों को राज्याश्रय दिया जाता था। परन्तु
वर्तमान में सामान्य लोग भी कलाओं के विकास में रुचि रखते हैं तथा कलाकारों की यथाशक्ति
सहायता भी करते हैं। अनेक कलाओं का विकास जनता के प्रयासों से ही हुआ है। वस्तुतः जनता
के हृदय में बसने वाली कला ही जीवित रहती है।
भाषा की बात
प्रश्न 1. हर विषय, क्षेत्र, परिवेश आदि के कुछ विशिष्ट शब्द होते हैं।
पाठ में कुश्ती से जुड़ी शब्दावली का बहुतायत प्रयोग हुआ है। उन शब्दों की सूची बनाइए।
साथ ही नीचे दिए गए क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाले कोई पाँच पाँच शब्द बताइए
• चिकित्सा
• क्रिकेट
• न्यायालय
• या अपनी पसंद का कोई क्षेत्र।
उत्तर
: कुश्ती की शब्दावली-ताल ठोकना, दंगल, दाँव-पेंच, दुलकी, पैंतरा, पकड़, चित, दाँव
काटना, मिट्टी मलना, उठा पटक देना इत्यादि।
चिकित्सा-पथ्य,
जाँच, डॉक्टर, वैद्य, मलेरिया, उपचार। क्रिकेट-विकेट, बॉल, बल्लेबाजी, स्टम्प, पैड,
बोल्ड।
न्यायालय-जज,
एडवोकेट, पेशी, सम्मन, पेशकार, मोहरिर। शिक्षा-प्रधानाचार्य, शिक्षक, श्यामपट्ट, पुस्तकालय,
छात्र।
प्रश्न 2. पाठ में अनेक अंश ऐसे हैं जो भाषा के विशिष्ट प्रयोगों की
बानगी प्रस्तुत करते हैं। भाषा का विशिष्ट प्रयोग न केवल भाषाई सर्जनात्मकता को बढ़ावा
देता है बल्कि कथ्य को भी प्रभावी बनाता है। यदि उन शब्दों, वाक्यांशों के स्थान पर
किन्हीं अन्य का प्रयोग किया जाए तो संभवतः वह अर्थगत चमत्कार और भाषिक सौंदर्य उद्घाटित
न हो सके। कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं
• फिर बाज की तरह उस पर टूट पड़ा।
• राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए।
• पहलवान की स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी।
इन विशिष्ट भाषा-प्रयोगों का प्रयोग करते हुए एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर
: जब लुट्टन अखाड़े में उतरा, तो चाँदसिंह ने अपना दाँव लगाया और फिर वह बाज की तरह
लुट्टन पर टूट पड़ा। लुट्टन की जीत होने पर राजा साहब की स्नेह-दृष्टि उस पर पड़ी और
उन्होंने उसे आश्रय प्रदान किया। राज-दरबार के आश्रय से पहलवान की प्रसिद्धि में चार
चाँद लग गये। लुट्टन पहलवान की स्त्री भी दो पहलवान पुत्रों को पैदा करके स्वर्ग सिधार
गई थी।
प्रश्न 3. जैसे क्रिकेट की कमेंट्री की जाती है वैसे ही इसमें कुश्ती
की कमेंट्री की गई है? आपको दोनों में क्या समानता और अंतर दिखाई पड़ता है?
उत्तर
: क्रिकेट की कमेन्ट्री एक नियुक्त व्यक्ति के द्वारा की जाती है, जिसका श्रव्य-साधनों
से प्रसारण किया जाता है। कुश्ती में यह व्यवस्था नहीं होती है। क्रिकेट और कुश्ती
में समानता यह है कि दर्शक सफलता पाने वाले खिलाड़ी की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों
में अन्तर यह है कि क्रिकेट में बॉल-बल्ले पर पूरा ध्यान रहता है, जबकि कुश्ती में
दाँव पेंचों के बारे में बताया जाता है। दोनों में मैदान और अखाड़े के दृश्य का प्रसारण
भी समान नहीं होता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'पहलवान की ढोलक' कहानी के प्रारम्भ में प्राकृतिक वातावरण
का चित्रण किस प्रकार किया गया है?
उत्तर
: प्रस्तुत कहानी के प्रारम्भ में गाँव में फैले मलेरिया और हैजा की भयानकता व्यंजित
करने के लिए प्राकृतिक वातावरण का चित्रण किया गया है। घनी अँधेरी रात ओस कणों के रूप
में आँसू बहाती है। सियारों का क्रन्दन और उल्लुओं की डरावनी आवाजें, कुत्तों का रोना-भौंकना
तथा मौत के कारण करुण स्वर का उभरना इत्यादि से रात और भी भयानक लगती है।
प्रश्न 2. प्रस्तुत कहानी के आधार पर गाँव में व्याप्त महामारी की भयानक
दशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर
: गाँव में फैली मलेरिया और हैजा महामारी से रोज दो-तीन लाशें उठने लगी थीं। गाँव सूना
लगता था। दिन में करुण रुदन और हाहाकार का स्वर सुनाई देता था, परन्तु रात में सन्नाटा
रहता था। लोग रात में अपनी झोंपड़ियों में डरे सहमे पड़े रहते थे। माताओं में दम तोड़ते
हुए पुत्र को अन्तिम बार 'बेटा' कहकर पुकारने की भी हिम्मत नहीं होती थी।
प्रश्न 3. लुट्टन के बचपन और किशोरावस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर
: लट्टन जब नौ वर्ष का था तभी उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। विधवा सास ने उसे
पाल-पोस कर बड़ा किया। बचपन में वह गायें चराता, दूध पीता और कसरत किया करता था। नियमित
कसरत से किशोरावस्था में ही उसका सीना तथा बाँहें सुडौल और मांसल बन गई थीं। तब वह
पहलवानों की भाँति चलने और कुश्ती भी लड़ने लगा था।
प्रश्न 4. "गुरुजी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊँ, तो मुझे चिता
पर चित नहीं, पेट के बल सुलाना" ये शब्द लुट्टन पहलवान के जीवन के कौन-से पक्ष
को उद्घाटित करते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: अपने शिष्यों से लुट्टन पहलवान ने ये शब्द इसलिए कहे थे कि वह जिन्दगी में किसी से
नहीं हारा, अ जीवन में सदैव संघर्ष करता रहा और बड़े-बड़े पहलवानों से भी चित नहीं
हुआ था। अतः उसके ये शब्द अपने गौरवयुक्त 'जीवन के उज्ज्वल पक्ष को ही उद्घाटित करने
वाले थे, जो कि एक शिष्य द्वारा उसकी मृत्यु हो जाने पर कहे गये थे।
प्रश्न 5. "उसने क्षत्रिय का काम किया है।"-राजा साहब ने
ये शब्द किसके लिए और क्यों कहे हैं? यहाँ 'क्षत्रिय के काम' का तात्पर्य भी बताइए।
उत्तर
: राजा साहब ने ये शब्द लट्रन पहलवान के लिए कहे। कश्ती में प्रसिद्ध पहलवान चाँदसिंह
को हराने पर राजा साहब प्रसन्न होकर उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। उसकी जीत पर
राजा साहब ने कहा कि "उसने क्षत्रिय का काम किया है।" अर्थात् लुट्टन ने
क्षत्रियों के समान पौरुष का प्रदर्शन किया है, इसलिए उसे लुट्टनसिंह कहना ठीक है।
प्रश्न 6. लुट्टन ने शेर के बच्चे चाँदसिंह को जब चुनौती दी, तो उसका
क्या प्रभाव रहा?
उत्तर
: जब लुट्टन ने शेर के बच्चे चाँदसिंह को चुनौती दी और वह अखाड़े में पहुँचा, तो सब
दर्शकों में खलबली मंच गई। चाँदसिंह उस पर बाज की तरह टूट पड़ा। लुट्टन बड़ी सफाई से
आक्रमण को संभाल कर निकल कर उठ खड़ा हुआ और पैंतरा दिखाने लगा। उस समय लोगों को लगा
कि यह चाँदसिंह के सामने नहीं टिक सकेगा और वे उसकी हँसी उड़ाने लगे।
प्रश्न 7. "राजा साहब ने कुश्ती बन्द करवाकर लुट्टन को अपने पास
बुलवाया और समझाया।" राजा साहब ने लुट्टन को क्या समझाया और क्यों?
उत्तर
: राजा साहब ने लुट्टन को समझाया कि तुम हिम्मत रखने वाले युवा हो, परन्तु शेर के बच्चे
से लड़ना तुम्हारे बस की बात नहीं है। तुम इसे चुनौती देकर पागल मत बनो। दस रुपये का
नोट लेकर मेला देखो और घर चले जाओ। इसी में तुम्हारी भलाई है।
प्रश्न 8. कुश्ती में विजयी होने पर लुट्टन ने क्या किया?
उत्तर
: कुश्ती में चाँदसिंह को चारों खाने चित करके विजयी होने पर लुट्टन कूदता-फाँदता,
ताल-ठोकता सर्वप्रथम बाजे वालों के पास गया और उसने ढोलों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम
किया। फिर वह दौड़कर राजा साहब के पास गया और उन्हें गोद में उठाकर अपनी प्रसन्नता
व्यक्त करने लगा।
प्रश्न 9. लुट्टन अपने पुत्रों को कैसी शिक्षा देता था?
उत्तर
: लुट्टन अपने दोनों पुत्रों को कसरत करने की शिक्षा देता था। वह प्रतिदिन प्रात:काल
स्वयं ढोल बजा बजाकर पुत्रों को उसकी आवाज पर पूरा ध्यान देने के लिए कहता था कि
"मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है। ढोल की आवाज के प्रताप से ही मैं पहलवान
हुआ। दंगल में उतर कर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना।" आदि शिक्षा देता था।
प्रश्न 10. पहलवान लुट्टनसिंह को राज-दरबार क्यों छोड़ना पड़ा? बताइए।
उत्तर
: बूढ़े राजा साहब की मृत्यु के बाद राजकुमार ने विलायत से आकर राज्य-शासन अपने हाथ
में लिया। और बहुत-से परिवर्तन किए, दंगल का स्थान घोड़ों की रेस ने ले लिया। राजकुमार
ने जब पहलवान और उसके पुत्रों का दैनिक भोजन-व्यय सुना, तो उसे अनावश्यक बताया। इस
तरह लुट्टन पहलवान को राज-दरबार छोड़ना पड़ा।
प्रश्न 11. पहलवान लुट्टन को 'राज-दरबार का दर्शनीय जीव' क्यों कहा
जाता था? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: राजा साहब के पास एक बाघ था। उसके दहाड़ने पर लोग कहते...-राजा का बाघ बोल रहा है।
ठाकुर बाड़े के सामने पहलवान के गजरने पर लोग समझ लेते कि राजदरबार का पहलवान दहाड़
रहा है। लुट्टन से बराबरी करने वाला कोई पहलवान नहीं रह गया था। इसी कारण उसे 'राज-दरबार
का दर्शनीय जीव' कहा जाता था।
प्रश्न 12. लुट्टन पहलवान के साहस की परीक्षा कब हुई?
उत्तर
: लुट्टन पहलवान अत्यन्त साहसी एवं शक्तिशाली था। जब उसने 'शेर के बच्चे' उपाधि पहलवान
को कश्ती लडने की चनौती दी, तब उसके साहस की परीक्षा हई। इसी प्रकार दोनों पत्रों की
एक साथ मत्य होने पर उनके शवों को अपने कन्धों पर उठाकर नदी में प्रवाहित करने वाले
सारी रात एकाकीपन को भुलाकर ढोलक बजाने पर भी उसके साहस की परीक्षा हुई।
प्रश्न 13. दरबार से जवाब मिलने के बाद लुट्टन पहलवान ने क्या किया?
उत्तर
: दरबार से जवाब मिलने पर वह तो उसी दिन ढोलक कन्धे से लटकाकर अपने दोनों पुत्रों के
साथ गाँव आ गया। वहीं पर रहकर वह गाँव के नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा।
खाने-पीने का खर्च गाँव वालों की ओर से बँधा था। सुबह-शाम वह ढोलक बजा कर अपने शिष्यों
और पुत्रों को दाँव-पेंच वगैरह सिखाने लगा था।
प्रश्न 14. "पहलवान की ढोलक' नामक कहानी में 'लुट्टनसिंह' एक ऐसा
पात्र है, जो प्रारम्भ से लेकर मृत्यु-पर्यन्त जिजीविषा का अद्भुत दस्तावेज है।"
कैसे? समझाइए।
उत्तर
: नौ वर्ष की अवस्था में माता-पिता की मृत्यु, तब विधवा सास द्वारा पालन-पोषण करने
से लुट्टनसिंह का प्रारम्भिक जीवन संघर्षपूर्ण रहा। गाँव में महामारी फैलने पर, दंगल
में पहलवानों का मुकाबला करने में, बाद में सास व पत्नी की मृत्यु होने और दो पुत्रों
के शवों को स्वयं दफनाने में तथा जीवनान्त तक ढोलक बजाते रहने से लुट्टनसिंह ने जिजीविषा
का परिचय दिया।
प्रश्न 15. 'पहलवान की ढोलक' कहानी में निहित सन्देश एवं उद्देश्य को
स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: इस कहानी में यह सन्देश निहित है कि कलाकार कभी पराश्रित नहीं हो सकता। सभी को कलाओं
को .. संरक्षण देना चाहिए। जिजीविषा एवं जीवट वाले व्यक्ति समाज को आपदाओं से मुकाबला
करने में सक्षम बनाते हैं। कला का सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से विशेष महत्त्व
रहता है। कला एवं कलाकार को सदैव सम्मान मिलता रहे।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. 'पहलवान की ढोलक' कहानी में व्यक्त सामाजिक विसंगतियों को
स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: 'पहलवान की ढोलक' फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित एक प्रमुख कहानी है। इस कहानी में
सामाजिक व्यवस्था बदलने के साथ लोककला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी
है। पहलवान से जुड़ी पहलवानी का खेल पहले मनोरंजन का माध्यम हुआ करती थी। राज-व्यवस्था
में खेल एवं पहलवानों को पूरा सम्मान मिलता था।
जिससे
कलाकार का जीवन-यापन होता था। लेकिन बदलती व्यवस्था के कारण लोक कलाएँ लुप्त होती जा
रही हैं। लोक कलाएँ हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। इसका संरक्षण व लोक कलाकारों
के भरण-पोषण की नैतिक जिम्मेदारी सभी की है। खासकर सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं
का समुचित लाभ इनको मिलना चाहिए लेकिन इन्हें नहीं मिल पाता है और न ही सामाजिक स्तर
पर इन्हें प्रोत्साहन मिलता है।
प्रश्न 2. 'पहलवान की ढोलक' कहानी के प्रमुख पात्र पहलवान के चरित्र
पर प्रकाश डालिए।
अथवा
पहलवान की चारित्रिक विशेषताएँ बताइये।
उत्तर
: पहलवान लुट्टन सिंह ने ढोलक की आवाज से प्रेरित होकर चाँद सिंह नामक पहलवान को हरा
दिया था। राजा ने उसकी वीरता से प्रभावित होकर अपने दरबार में रख लिया। पहलवान के दो
पुत्र थे, उन्हें उसने दंगल-संस्कृति का पूरा ज्ञान दिया। राजा की मृत्यु के पश्चात्
पहलवान को अपने गाँव लौटना पड़ा जहाँ वह नौजवानों व चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा।
पहलवान बड़ा ही साहसी, हिम्मतवाला व धैर्यवान था।
गाँव
में फैली बीमारी में भी वह ढोलक की तान से जीवन्तता भर देता था। उसकी ढोलक की तान ही
सारी विपत्तियों को मानो चुनौती देती थी तथा भीषण समय में गाँव वालों में संयम व धैर्य
प्रदान करती थी। पहलवान ढोलक को ही अपना गुरु मानते थे। जीवन के अन्तिम समय तक वह ढोलक
बजाता रहा। पहलवान ने मरने से पहले अपने शिष्यों से कहा था कि वे उसे चिता घर पेट के
बल लेटाएँ, क्योंकि वह कभी दंगल में पीठ के बल चित नहीं हुआ था और अग्नि देते समय तक
ढोलक बजाते रहें। स्पष्ट होता है कि पहलवान निर्भीक, धैर्यवान, साहसी, हिम्मती तथा
कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति था।
प्रश्न 3. पहलवान की ढोलक' में लेखक ने आँचलिक भाषा को महत्त्व दिया
है। पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: लेखक ने लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा के आधार पर इस कहानी की रचना की
है। किसी भी प्रदेश या अंचल में प्रचलित संस्कृति, भाषा, वेशभूषा से सम्बन्धित रचना
आंचलिक कहलाती है। इनकी भाषा अंचल-विशेष से प्रभावित है। इन्होंने आम-बोलचाल की भाषा
को अपनाया है।
गाँव
वालों की आपसी बातचीत में मिश्रित शब्दावली का प्रयोग है। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली जैसे-वज्रपात,
अनावृष्टि, प्रभा, दृष्टिगोचर आदि, अंग्रेजी टैरिबुल, हौरिबुला, देशजतनी-मनि काहे,
ले आव डेढ सेर। दुलाहिन, लंगोट आदि। लेखक ने भाषा में चित्रात्मकता का प्रयोग अधिक
किया है। भाषा-प्रवाह के अनुसार वाक्य छोटे हो जाते हैं। विशेषणों का भी सुन्दर प्रयोग
किया है। भाषा की सार्थकता को बोली के साहचर्य से पुष्ट किया है।
प्रश्न 4. 'पहलवान की ढोलक' कहानी का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: प्रस्तुत कहानी में व्यवस्थाओं के परिवर्तन के पश्चात् की समस्याओं को स्पष्ट किया
गया है। बदलते समय में लोक-कला और कलाकार अप्रासंगिक हो जाते हैं। उनका घटता महत्त्व
सांस्कृतिक दृष्टि से चिंताजनक है। प्रस्तुत कहानी में राजा साहब की जगह नए राजकुमार
का आकर जम जाना सिर्फ व्यक्तिगत सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि जमीनी पुरानी व्यवस्था
के पूरी तरह उलट जाने और उस पर सभ्यता के नाम पर एकदम नयी व्यवस्था के आरोपित हो जाने
का प्रतीक है।
यह
'भारत' पर 'इंडिया' के छा जाने की समस्या है जो लुट्टन पहलवान को लोक कलाकार के आसन
से उठाकर पेट भरने के लिए हाय-तौबा करने वाली कठोर भूमि पर पटक देती है। मनुष्यता की
साधना और जीवन-सौन्दर्य के लिए लोक कलाओं को प्रासंगिक बनाये रखने हेतु सबकी क्या भूमिका
है ऐसे कई प्रश्नों को व्यक्त करना इस कहानी का उद्देश्य है।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1. फणीश्वरनाथ रेणु के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
: हिन्दी साहित्य में रेणु आंचलिक उपन्यासकार, कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
इनका जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना में हुआ था। इनका
जीवन उतार-चढ़ावों एवं संघर्षों से भरा हुआ था। इनकी प्रमुख रचनाएँ 'मैला आँचल', 'परती-परिकथा',
'दीर्घतपा', 'जुलूस', 'कितने चौराहे' (उपन्यास); 'ठुमरी', 'अग्निखोर', 'रात्रि की.
महक' (कहानी संग्रह); 'ऋण जल-धन जल', 'वनतुलसी की गंध' (संस्मरण); नेपाली क्रांतिकथा
(रिपोर्ताज) आदि हैं। साहित्य के अलावा विभिन्न राजनैतिक एवं सामाजिक आन्दोलनों में
भी उन्होंने सक्रिय भागीदारी की। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका निधन हुआ था।
पहलवान की ढोलक (सारांश)
लेखक-परिचय
- हिन्दी साहित्य में प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यासकार एवं कथाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' का
जन्म औराही हिंगना (जिला पूर्णिया, अब अररिया) बिहार में सन् 1921 में हुआ। इनकी प्रारम्भिक
शिक्षा गाँव में ही हुई।
'भारत
छोड़ो आन्दोलन' में सक्रिय भाग लेने से पढ़ाई बीच में ही छोड़कर राजनीति में रुचि लेने
लगे। इनका जीवन संघर्षमय रहा। ये प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक तथा सामाजिक आन्दोलनों
में सक्रिय रहे। साथ ही रचनात्मक साहित्य की ओर उन्मुख होकर नये तेवर देने में अग्रणी
बने। इनका निधन सन् 1977 ई. में पटना में हुआ।
रेणुजी
की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-'मैला आंचल', 'परती परिकथा', 'दीर्घतपा', 'जुलूस',
'कितने चौराहे' (उपन्यास); 'ठुमरी', 'अग्निखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी
दोपहरी की धूप' (कहानी-संग्रह); 'ऋणजल धनजल', 'वन तुलसी की गन्ध', 'श्रुत-अश्रुत पूर्व'
(संस्मरण); 'नेपाली क्रान्ति कथा' (रिपोर्ताज)। उनकी रचनाओं में 'मैला आंचल' का आंचलिकता
की दृष्टि से अन्यतम महत्त्व है।
पाठ-सार
- 'पहलवान की ढोलक' फणीश्वरनाथ 'रेणु' की प्रतिनिधि कहानियों में से एक है। इसमें कथानायक
लुट्टन सिंह पहलवान की जिजीविषा एवं हिम्मत का चित्रण किया गया है। इसका सार इस प्रकार
है
1.
गाँव की भयानक स्थिति-जाड़े के दिन थे। गाँव में हैजा और मलेरिया
का प्रकोप था। अमावस्या की रात की निस्तब्धता में सियारों एवं उल्लुओं की आवाज डरावनी
लग रही थी। मलेरिया और हैजा की महामारी से ग्रस्त गाँव की झोंपड़ियों से रोगियों की
कराहने की आवाजें और बच्चों की 'माँ माँ' की करुण पुकार भी कभी-कभी सुनाई दे रही थीं।
2.
लुट्टन पहलवान की ढोलक-रात्रि के ऐसे भयावह वातावरण में लट्टन पहलवान
की ढोलक बजती रहती थी। सन्ध्याकाल से लेकर प्रात:काल तक एक ही गति से ढोलक बजती रहती-'चट्
धा, गिड़-धा...चट् धा गिड़-धा', अर्थात् 'आ जा भिड़, आ जा भिड़।' बीच-बीच में उसकी
ताल बदलती रहती थी। लुट्टन पहलवान के कारण उस गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
3.
लुट्टन का बचपन-लुट्टन की शादी बचपन में हो गई थी। उसके माता-पिता
उसे नौ वर्ष में ही अनाथ छोड़कर चल बसे थे। तब उसकी विधवा सास ने उसे पाल-पोस कर बड़ा
किया। वह बचपन में गायें चराता, ताजा दूध पीता और कसरत करता था। नियमित कसरत से वह
जवानी में कदम रखते ही अच्छा पहलवान बन गया। तब वह कुश्ती भी लड़ता था।
4.
श्यामनगर का दंगल-लुट्टन एक बार दंगल देखने श्यामनगर मेले में
गया। वहाँ पर पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया और उसने बिना
सोचे-समझे 'शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। पंजाब का पहलवान चाँदसिंह अपने गुरु बादलसिंह
के साथ मेले में आया था। चाँदसिंह को ही 'शेर का बच्चा' टायटिल प्राप्त था। दर्शकों
ने लुट्टन की चुनौती सुनकर उसका उपहास किया। पंजाबी पहलवानों का दल उसे गालियाँ देने
लगा। राजा साहब ने भी विवश होकर उसे कुश्ती लड़ने की आज्ञा दे दी।
5.
कुश्ती में विजयी-ढोल बजने लगा। कुश्ती प्रारम्भ हुई। उस समय
ढोल की ताल सुनकर लुट्टन जोश में आ गया। ढोल से 'चट-गिड धा, ढाक दिना, तिरकट तिना,
धाक तिना' इत्यादि तालें निकल रही थीं, जिसका लट्टन ने यह आशय लिया कि 'मत डरना, वाह
पढे, दाँव काटो, उठा पटक दो, चित्त करो, वाह बहादुर' इत्यादि। इस प्रकार ढोल की ताल
के अनुसार दाँव मारने से लुट्टन ने चाँदसिंह पहलवान को चारों खाने चित कर दिया। तब
दर्शकों ने महावीरजी की, माँ दुर्गा की जयकार लगायी। तब राजा साहब ने लुट्टन के नाम
के साथ 'सिंह' जोड़कर उसे शाबाशी देते हुए सदा के लिए राज-दरबार में रख लिया।
6.
पन्द्रह वर्ष का इतिहास-राज-दरबार का आश्रय पाकर लुट्टन सिंह ने
काला खाँ आदि पहलवानों को पराजित कर अपनी कीर्ति फैलायी। उसने अपने दोनों पुत्रों को
भी पहलवान बना दिया। दंगल में दोनों पुत्रों को देखकर लोग कहते - 'वाह ! बाप से भी
बढ़कर निकलेंगे ये दोनों बेटे!' पन्द्रह वर्ष का समय बीत गया। तब वृद्ध राजा स्वर्ग
सिधार गये। नये राजकुमार ने विलायत से आते ही शासन हाथ में लिया। उन्होंने अनेक परिवर्तन
किये तथा पहलवानों की छुट्टी कर दी। अतः अपने पुत्रों के साथ लुट्टन पहलवान गाँव लौट
आया।
7.
अन्तिम जीवन काल-लुट्टन की सास और पत्नी का निधन हो गया था।
गाँव में आकर लुट्टन अपने पुत्रों को दाँव-पेंच सिखाता। वह स्वयं ढोलक बजाता था। अकस्मात्
गाँव में महामारी फैली, जिससे रोज दो-तीन लोग मरने लगे। एक दिन पहलवान के दोनों पुत्र
भी चल बसे। लुट्टन ने उस दिन राजा साहब द्वारा दी गई रेशमी जांघिया पहनी, फिर दोनों
पुत्रों के शव उठाकर नदी में बहा आया। चार-पांच दिन बाद जब एक रात में ढोलक नहीं बजी,
तो प्रात:काल जाकर शिष्यों ने देखा कि पहलवान की लाश चित पड़ी थी। तब उन्होंने अपने
गुरु की इच्छा के अनुसार लाश को पेट के बल चिता पर लिटाया और उसे आग देते समय वे ढोल
बजाते रहे।
सप्रसंग महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ
1.
अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक
अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर
कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता
तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा
असफलता पर खिलाकर हँस पड़ते थे।
कठिन-शब्दार्थ
:
निस्तब्धता
= बिना किसी आवाज के वातावरण।
प्रसंग
- प्रस्तत अवतरण लेखक फणीश्वर नाथ रेण द्वारा लिखित कहानी 'पहलवान की ढोलक' से लिया
गया है। इसमें मलेरिया और हेजे की चपेट में आए गाँव के भयानक वातावरण का वर्णन किया
गया है।
व्याख्या
- लेखक बताते हैं कि पूरे गाँव में हैजा और मलेरिया फैला हुआ था। गाँव के गाँव खाली
होने लगे थे। प्रतिदिन दो-तीन लाशें प्रत्येक घरों से निकलती थीं। ऐसे में अँधेरी रात
में अन्य जीवित परिवारजन आँसू बहाते रहते थे। चारों तरफ खामोशी फैली हुई थी। प्रत्येक
घर से निकलने वाला रुदन और आहे उस खामोशी में ही दबी जा रही थीं। आकाश में चारों तरफ
तारे चमक रहे थे।
पृथ्वी
पर कहीं कोई प्रकाश नजर नहीं आता था। सभी दुःखी और गमगीन हालत में चुपचाप अँधेरे में
ही बैठे रहते थे। ऐसी स्थिति को देखकर आकाश का कोई तारा टूटकर अपनी संवेदना व्यक्त
करने पृथ्वी पर जाना भी चाहता था तो दूरी के कारण उसकी स्वयं की चमक और शक्ति सब रास्ते
में ही खत्म हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता को, उसकी संवेदनशीलता को देखकर तथा
पृथ्वी तक न पहुँच पाने की असफलता को देखकर मजाक बनाते थे तथा उसका उपहास उड़ाते थे।
विशेष
:
1.
बीमारी की भयावहता का करुण चित्र प्रकट हुआ है।
2.
सीधी-सरल भाषा का प्रयोग है।
2.
'शेर के बच्चे का असल नाम था चाँद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब
से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान; अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती
थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी
पट्टों को पछाड़कर उसने 'शेर के बच्चे' की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल
के मैदान में लँगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था।
कठिन-शब्दार्थ
:
अंग-प्रत्यंग
= शारीरिक अवयव।
टायटिल
= उपाधि।
किलकारी
= मुँह से निकलने वाली खुशी भरी आवाज।
दुलकी
= उछलना।
प्रसंग
- प्रस्तुत अवतरण लेखक फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित कहानी 'पहलवान की ढोलक' से लिया
गया है। इसमें पहलवान चाँद सिंह के बारे में बताया गया है।
व्याख्या
- लेखक ने बताया कि अपने गरु पहलवान बादल सिंह के साथ पंजाब से पहली बार चाँदसिंह श्यामनगर
के मेले में आया था। चाँदसिंह शारीरिक रूप से सुंदर, जवान था। उसकी खूबसूरती आकर्षक
थी। तीन दिनों में ही उसने गाँव के मेले में होने वाली कुश्ती में भाग लेकर पंजाबी
और पठान पहलवानों के खेमे में शामिल अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पहलवानों को हरा कर
'शेर के बच्चे' की उपाधि प्राप्त की थी।
इसलिए
अब सभी उसे चाँदसिंह की बजाय शेर का बच्चा' कहकर पुकारते थे। जब वह कुश्ती के लिए मैदान
में उतरता था तो एक अजीब-सी खुशी में भरी आवाज मुँह से निकालता था। अजीब तरह से उछल-उछल
कर अन्य पहलवानों को कुश्ती करने हेतु चुनौती देता था। इस तरह का व्यवहार वह अपनी उपाधि
की सत्यता को प्रमाणित करने हेतु करता था।
विशेष
:
1.
लेखक ने चाँदसिंह के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है।
2.
भाषा सरल-सहज, खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है तथा 'टायटिल' जैसे शब्द अंग्रेजी भाषा
के हैं।
3.
विजयी लुट्टन कूदता-फाँदता, ताल ठोकता सबसे पहले बाजे वालों की ओर दौड़ा और ढोलों को
श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब
के कीमती कपड़े मिट्टी में सन गए। मैनेजर साहब ने आपत्ति की-"हें-हें, अरे-रे!
किन्तु राजा साहब ने स्वयं उसे छाती से लगाकर गद्गद होकर कहा-जीते रहो, बहादुर! तुमने
मिट्टी की लाज रख ली।"
कठिन-शब्दार्थ
:
ताल
ठोकना = बहादुरी प्रदर्शित करना।
प्रसंग
-
प्रस्तुत अवतरण लेखक फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित कहानी 'पहलवान की ढोलक' से लिया
गया है। इसमें लुट्टन पहलवान की जीत की खुशी का वर्णन किया गया है।
व्याख्या
- लेखक बताता है कि गाँव के मेले में कुश्ती की प्रतियोगिता चल रही थी, जिसमें लुट्टन
पहलवान विजयी घोषित हुआ। जीत की खुशी में लुट्टन कूदता-फाँदता, जोर-जोर से आवाजें निकालता
हुआ पहले उन बाजों वालों के पास दौड़ा जो कुश्ती के समय जोर-जोर से ढोल बजा रहे थे।
उसने उन ढोलों को प्रणाम किया क्योंकि लुट्टन ने माना कि इन ढोल की तेज आवाजों ने ही
उसे उत्साहित व उत्तेजित करके जीत दिलवाई थी।
इसके
पश्चात् उसने खुशी से भरकर राजा साहब को अपनी गोद में उठा लिया। राजा साहब के कीमती
कपड़े पहलवान के शरीर में लगी मिट्टी से गन्दे हो गए। राजा साहब के मैनेजर ने पहलवान
को ऐसा करने से रोकना चाहा, लेकिन राजा साहब ने स्वयं प्रसन्न होकर पहलवान को गले लगा
लिया और उसे शाबासी देते हुए कहा कि सच में तुम बहादुर हो, तुमने गाँव की मिट्टी की
मर्यादा रख ली।
विशेष
:
1.
कुश्ती में जीत से पहलवान और राजा साहब की खुशी का वर्णन है।
2.
भाषा सरल-सहज एवं बोधगम्य है। 'ताल ठोकना' और 'मिट्टी की लाज रखना' जैसी कहावतों का
प्रयोग हुआ है।
4.
पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। लुट्टन को राजा साहब ने
पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान
हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राज-पंडितों ने मुँह बिचकाया-"हुजूर!
जाति का.....सिंह...!" मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। क्लीन-शेव्ड' चेहरे को संकुचित
करते हुए, अपनी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते
हुए बोले-"हाँ सरकार, यह अन्याय है!"
कठिन-शब्दार्थ
:
जमायत
= जाति, समह।
प्रसंग
- प्रस्तुत अवतरण लेखक फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित कहानी 'पहलवान की ढोलक' से लिया
गया है। इसमें चाँद सिंह की हार एवं लुट्टन सिंह की जीत का वर्णन किया गया है।
व्याख्या
-
लेखक बता रहे हैं कि चाँद सिंह जिसे 'शेर का बच्चा' उपाधि प्राप्त थी, जिसने सभी पहलवानों
को दंगल में हरा दिया था लेकिन गाँव का लुट्टन सिंह राजा साहब के आदेश से चाँद सिंह
को चारों खाने चित्त कर आया था। ऐसे समय में पंजाबी पहलवानों का समूह चाँद सिंह के
आँसू पोंछ उसे सांत्वना दे रहा था। राजा साहब ने खुश होकर लुट्टन पहलवान को न केवल
पुरस्कार बल्कि सदैव के लिए अपने दरबार में रख लिया।
और
तभी से लुट्टन राज पहलवान घोषित हो गया। वहाँ उसे सारी सुख-सुविधाएँ प्राप्त होने लगीं।
राजा साहब लुट्टन पहलवान को अब लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे थे। राज-दरबार में बैठे
पंडितों ने बुरा मानते हुए कहा कि हुजूर जाति का पहलवान कुछ और है उसे 'सिंह' नहीं
कहना चाहिए। क्योंकि उस समय सिंह सिर्फ क्षत्रिय ही लगाते थे। मैनेजर साहब जाति से
क्षत्रिय थे, वे खड़े-खड़े अपनी नाक का बाल उखाड़ते हुए बोले कि हाँ सरकार यह अन्याय
है। अर्थात् इसे हमारी जाति का घोषित नहीं किया जाना चाहिए।
विशेष
:
1.
लुट्टन की जीत तथा जाति का प्रभाव वर्णित है।
2.
भाषा सरल-सहज व बोधगम्य है।
5.
रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान
संध्या. से सुबह तक, चाहे जिस खयाल से ढोलक बजाता हो, किंतु गाँव के अर्द्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन
प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों
के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़
जाती थी।
कठिन-शब्दार्थ
:
विभीषिका
= डर या भय।
अर्द्ध
= आधे।
पथ्य
= रोगी का भोजन।
स्पंदन
= चेतना।
स्नायु
= नस।
प्रसंग
-
प्रस्तुत अवतरण लेखक फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित कहानी 'पहलवान की ढोलक' से लिया
गया है। बीमारी का भय और ढोलक की आवाज का कम्पन इसमें व्यक्त किया गया है।
व्याख्या
- लेखक बताते हैं कि हैजे और मलेरिया बीमारियों ने गाँव के चारों तरफ मृत्यु का भय
या आतंक फैला रखा था। रात्रि होते ही सब डर कर अपने घरों में छिप जाते थे कि सुबह तक
मृत्यु न जाने किस-किस के घर आ जाये। रात के इस भय को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही अपनी
तेज आवाज में चुनौती देती रहती थी।
पहलवान
सुबह से शाम तक जिस भी विचार से ढोलक बजाता हो, लेकिन उस ढोलक की उत्तेजना भरी आवाज
आधे मरे हुए रोगी या मरणासन्न की स्थिति में पहुँचे हुए रोगियों में दवा, उपचार व भोजन
की चेतना समान संजीवनी शक्ति ही उनमें भरती थी। ढोलक की थाप से सभी बूढ़े-बच्चे-जवानों
की आँखों में दंगल या अखाड़े का उत्साह भरा माहौल दिखाई देने लगता। चेतना शून्य शरीर
की नसों में बिजली की-सी तेजी दौड़ने लगती थी। कहने का आशय है कि पहलवान की ढोलक उस
मृतविहीन गाँव के लोगों में साहस, उत्साह व चेतना का संचार करती थी।
विशेष
:
1.
पहलवान अपना उत्साह, चेतना व साहस वृत्ति का प्रसार ढोलक की तेज थाप के माध्यम से करता
था।
2.
भाषा सरल-सहज व बोधगम्य है। संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है।
6.
किंतु, रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज, प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की
हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। संतप्त पिता-माताओं ने कहा-"दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर
पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!" चार-पाँच दिनों के बाद। एक
रात को ढोलक की आवाज नहीं सनाई पडी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ दिलेर, किंतु रुग्ण
शिष्यों ने प्रातःकाल जाकर देखा-पहलवान की लाश 'चित' पड़ी है। आँसू पोंछते हुए एक ने
कहा "गुरुजी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊँ तो चिता पर मुझे चित नहीं, पेट के
बल सुलाना। मैं जिन्दगी में कभी 'चित नहीं हुआ और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना।"
कठिन-शब्दार्थ
:
संतप्त
= दुःखी, निराश।
दिलेर
= हिम्मती।
प्रसंग
- प्रस्तुत अवतरण लेखक फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित कहानी 'पहलवान की ढोलक' से लिया
गया है। इस प्रसंग में पहलवान के दोनों पुत्रों व पहलवान की मृत्यु का चित्रण किया
गया है।
व्याख्या
- लेखक ने बताया कि गाँव में बीमारी से दु:खी व्यक्तियों के मध्य पहलवान अपनी ढोलक
बजा कर उत्साह का संचार करता था। एक रात पहलवान के दोनों पुत्रों की भी मृत्यु हो गई।
लोगों ने सोचा अब उन्हें ढोलक की आवाज सुनाई नहीं देगी। लेकिन रात होते-होते उन्हें
फिर जोर-जोर से ढोलक बजने की आवाज सुनाई देने लगी। लोगों में जोश व साहस दो गुना बढ़ गया। दुःखी व निराश
हो चुके माता-पिताओं ने कहा कि पहलवान के दोनों बेटे मृत्यु को प्राप्त हो चुके फिर
भी पहलवान मजबूत दिल और हिम्मत वाला है।
कुछ
दिनों बाद ढोलक की आवाज सुनाई नहीं दी। इसलिए कुछ बहादुर व रोगी शिष्य पहलवान को देखने
गए। वहाँ जाकर देखा तो पहलवान चित्त यानी सीधा लेटा हुआ मृत्यु को प्राप्त हो चुका
था। उसके शिष्यों ने आँसू पोंछते हुए कहा कि गुरुजी कहते थे कि जब मैं मर जाऊँ तो चिता
पर यानि लकड़ियों पर मुझे उल्टा, पेट के बल लेटाना। क्योंकि मैं कभी जीवन में दंगल
के समय चित नहीं हुआ अर्थात् मेरी कभी पराजय नहीं हुई और चिता जलाने के समय ढोलक बजा
देना। क्योंकि वही उनका आखिरी प्रणाम होगा।
विशेष
:
1.
पहलवान की मृत्यु का दृश्य एवं आखिरी इच्छा का भावपूर्ण वर्णन हुआ है।
2.
भाषा सरल-सहज व प्रवाहमय है। 'डेढ़ हाथ का कलेजा' लोकोक्ति का प्रयोग है।