पाठ के साथ
प्रश्न 1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना
है?
उत्तर
: अवधूत ऐसा संन्यासी या तन्त्र-साधक होता है, जो सांसारिक विषय-वासनाओं से ऊपर उठा
हुआ, सुख-दुःख से मुक्त एवं कामनाओं से रहित होता है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी
समान रहकर फक्कड़ और मस्त बना रहता है। उसी प्रकार शिरीष वृक्ष भी तपन, लू, शीत आदि
सब सहन करता है और वसन्तागम पर फूलों से लद जाता है। जब गर्मी एवं लू से सारा संसार
सन्तप्त रहता है, तब भी शिरीष लहलहाता रहता है। अतः उसे कालजयी अवधूत के समान बताया
गया है।
प्रश्न 2. 'हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी
जरूरी हो जाती है' प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर
: हृदय की कोमलता को बचाने के लिए कभी-कभी व्यवहार की कठोरता जरूरी हो जाती है। शिरीष
के फूल अतीव कोमल होते हैं, परन्तु वे अपने वृन्त से इतने मजबूत जुड़े रहते हैं कि
नये फूलों के आ जाने पर भी अपना स्थान नहीं छोड़ते हैं। वे अपने अन्दर की कोमलता को
बचाने के लिए ऐसे कठोर बन जाते हैं।
प्रश्न 3. द्विवेदीजी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी
जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।
उत्तर
: हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शिरीष के माध्यम से यह शिक्षा दी है कि जीवन में जितना
भी संघर्ष और कोलाहल हो, जितनी भी विषम और कठिन परिस्थितियाँ हों, मनुष्य को विचलित
न होकर अपने अस्तित्व की रक्षा करनी चाहिए, जीने की शक्ति बनाये रखनी चाहिए। शिरीष
भीषण गर्मी, लू, आँधी आदि विषम परिस्थितियों में भी सरस बना रहता है, खिला रहता है।
अतः हमें भी संघर्ष के साथ जिजीविषा रखकर अजेय बने रहना चाहिए।
प्रश्न 4. "हाय वह अवधूत आज कहाँ है!" ऐसा कह कर लेखक ने
आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?
उत्तर
: अवधूत शरीर-सुख के लालच को त्यागकर आत्मबल से अपनी साधना में निरत रहते हैं। इसलिए
वे शारीरिक बल की अपेक्षा आत्मबल को महत्त्व देते हैं और जीवन के सारे संकटों का सामना
कर लेते हैं। परन्तु आज सभी लोग धन बल और माया बल जुटाने में लगे हुए हैं। इसी कारण
आज मानव सभ्यता पर संकट आ रहा है। भौतिक सुख भोग के साधन उत्तरोत्तर बढ़ रहे हैं और
मानव-मूल्यों का ह्रास हो रहा है।
प्रश्न 5. कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिरप्रज्ञता और
विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म
के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाएँ।
उत्तर
: लेखक का कथन सत्य है। वस्तुतः कवि एवं साहित्यकार से हम बहुत ऊँचे आदर्शों एवं जीवन-मूल्यों
की अपेक्षा करते हैं। जब वह अनासक्त योगी रहेगा, तभी वह यथार्थ का चित्रण कर सकेगा,
निष्पक्षता से अपने मनोभाव व्यक्त कर सकेगा तथा नीति-सम्मत बातें कह सकेगा। कवि का
हृदय कोमल भावनाओं से भरा होना भी जरूरी है। वह विदग्धता से मण्डित होकर स्वानुभूतियों
की सरस अभिव्यक्ति करता है। इसीलिए लेखक ने कवियों को वज्र से भी कठोर और कुसुम से
भी कोमल हृदय वाला बताया है। महाकवि कालिदास, सूर, तुलसी आदि में यही विशेषता थी। इसी
कारण वे उच्च-उदात्त मानवीय आदर्शों की प्रतिष्ठा कर सके और कालजयी काव्य-रचना करने
में सफल रहे।
प्रश्न 6. "सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो
सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी
गतिशीलता बनाए रखी है।" पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर
: धूप, वर्षा, आँधी, लू आदि के रूप में काल बाह्य-परिवर्तन लाता है। इससे कमजोर फूल-पत्ते
सूखकर झड़ जाते हैं। लेकिन जो काल की मार से बचने का साहस दिखाता है, विपरीत परिस्थितियों
में भी अडिग रहता है अथवा अपने व्यवहार में समयानुकूल परिवर्तन लाता है, वह दीर्घजीवी
बन जाता है। परन्तु यदि कोई अपने व्यवहार में परिवर्तन एवं गतिशीलता नहीं लाता है,
बदलती हुई स्थितियों के अनुरूप स्वयं को नहीं ढाल पाता है, वह परिस्थितियों से घिर
कर नष्ट हो जाता है। शिरीष का फूल काल का सामना कर वायुमण्डल से जीवन-रस ग्रहण कर दीर्घजीवी
बना रहता है। उसी प्रकार गाँधीजी ने भी अपने परिवेश से रस ग्रहण किया, तो वे विपरीत
स्थितियों में भी विजयी रहे।
प्रश्न 7. आशय स्पष्ट कीजिए -
(क) दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा
है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा
पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो
कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।
उत्तर
: मनुष्य या इस समस्त जगत् में प्रखर जीवनी शक्ति और सर्वव्यापक काल रूपी अग्नि में
निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। कुछ लोग स्वयं मृत्यु से बचना चाहते हुए भी कुछ नहीं
करते हैं और सोचते हैं कि वे काल की नजर से बच जायेंगे। परन्तु ऐसे लोग मूर्ख हैं।
इसलिए यदि यमराज या काल की मार से बचना है तो हिलते-डुलते रहो, स्वयं को बदलते रहो,
पीछे हटने की बजाय आगे लक्ष्य की ओर बढ़ो, अर्थात् संघर्षशील बनो और जीवनी शक्ति को
उचित गति प्रदान करो। एक ही स्थान पर जमना या गतिशील न होना तो मौत को निमन्त्रण देना
है।
(ख) जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए
का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?...... मैं कहता हूँ कि कवि बनना
है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
उत्तर
: लेखक बताता है कि कवि-कर्म कोई सहज-साधारण कर्म नहीं है। इसमें कवि को हानि-लाभ,
राग-द्वेष, यश-अपयश आदि की चिन्ता न करके अनासक्त रहना पड़ता है। जो कवि अनासक्त नहीं
रह पाता है, उन्मुक्त स्वभाव का अवधूत जैसा नहीं बन सकता है और कवि-कर्म के प्रभाव,
हानि-लाभ, अर्थ-प्राप्ति आदि के चक्कर में पड़ा रहता है, वह कवि-कर्म का सही निर्वाह
नहीं कर पाता है और श्रेष्ठ कवि नहीं बन सकता है। इसलिए श्रेष्ठ कवि बनने के लिए अनासक्त
और फक्कड़ बनना जरूरी है, मस्त स्वभाव का होना आवश्यक है।
(ग) फल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु
को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
उत्तर
: कोई फल या पेड़ अपने आप में सम्पूर्ण नहीं होता है, वह तो अन्य
की ओर संकेत करने वाला होता है। अर्थात् वृक्ष या फल बताता है कि उसको उगाने वाला,
बनाने वाला कोई और है, उसे जानो। वह अन्य ही इस सृष्टि का निर्माता एवं नियन्ता है,
उसे जानने-पाने का प्रयास करो, वही चरम सत्य है।
पाठ के आसपास
प्रश्न 1. शिरीष के पुष्प को शीतपुष्य भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह
की प्रचंड गर्मी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी?
उत्तर
: शिरीष का पुष्प ज्येष्ठ मास में भयंकर धूप, गर्मी और लू आदि की स्थिति होने पर भी
फूलता रहता है। वह अत्यन्त कोमल, मुलायम होता है। भयंकर गर्मी में अन्य पुष्प-पत्र
सूख जाते हैं, परन्तु शिरीष पुष्प लहलहाता रहता है तथा तपन में भी ठण्डा रहता है। इसी
से इसे शीतपुष्प नाम दिया गया है।
प्रश्न 2. कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गाँधीजी के व्यक्तित्व
की विशेषता बन गये?
उत्तर
: गाँधीजी हृदय से बड़े कोमल, करुणाशील और सहृदय थे। वे सामान्यजनों एवं पीड़ितों के
प्रति दयालु बने रहते थे। लेकिन नियमों के पालन करने में, अनुशासन एवं अहिंसा आदि के
सम्बन्ध में कठोर बने रहते थे। शक्तिशाली एवं अन्यायी ब्रिटिश शासन का विरोध करने में
वे कठोर थे। इस प्रकार वे शिरीष पुष्प के समान कोमल और वज्र के . समान कठोर थे। ये
दोनों भाव उनके व्यक्तित्व के परिचायक थे।
प्रश्न 3. आजकल अन्तरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय फूलों की बहुत माँग
है। बहुत से किसान साग-सब्जी व अन्न उत्पादन छोड़ फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे
हैं। इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
उत्तर
: इस विषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए पक्ष एवं विपक्ष में ये विचार-बिन्दु या
तर्क दिये जा सकते हैं पक्ष-फूलों के व्यापार से आर्थिक लाभ, समय एवं परिश्रम की बचत,
किसानों का जीवन खुशहाल और मनोरम पर्यावरण में वृद्धि। विपक्ष-फूलों की अधिक खेती से
सब्जी व अन्न उत्पादन पर बुरा प्रभाव, अन्न की कमी का संकट, फूलों के निर्यात की कठिनाई,
खेतिहर श्रमिकों की हानि।
प्रश्न 4. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पाठ की तरह ही वनस्पतियों के
संदर्भ में कई व्यक्तित्व व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे हैं-कुटज, आम फिर बौरा गए,
अशोक के फूल, देवदारु आदि। शिक्षक की सहायता से इन्हें ढूंढ़िए और पढ़िए।
उत्तर
: अशोक के फूल – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
अशोक
के फिर फूल आ गए हैं। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन
भाव है! बहुत सोच-समझकर कंदर्प देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिर्फ़ पाँच
को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है।
लेकिन
पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुंदर वस्तुओं को हतभाग्य
समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते
हैं। जो भी सामने पड़ गया उसके जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं।
मेरी दृष्टि इतनी दूर तक नहीं जाती। फिर भी मेरा मन इस फूल को देखकर उदास हो जाता है।
असली कारण तो मेरे अंतर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा-सा मैं भी अनुमान कर सका हूँ।
बताता हूँ।
अशोक
को जो सम्मान कालिदास से मिला वह अपूर्व था। सुंदरियों के आसिंजनकारी नूपुरवाले चरणों
के मृदु आघात से वह फूलता था, कोमल कपोलों पर कर्णावतंस के रूप में झूलता था और चंचल
नील अलकों की अचंचल शोभा को सौ गुना बढ़ा देता था। वह महादेव के मन में क्षोभ पैदा
करता था, मर्यादा पुरुषोत्तम के चित्त में सीता का भ्रम पैदा करता था और मनोजन्मा देवता
के एक इशारे पर कंधे पर से ही फूट उठता था। अशोक किसी कुशल अभिनेता के समान झम से रंगमंच
पर आता है और दर्शकों को अभिभूत करके खप से निकल जाता है। क्यों ऐसा हुआ? कंदर्प देवता
के अन्य बाणों की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्यों-की-त्यों हैं। अरविंद को
किसने भुलाया, आम कहाँ छोड़ा गया और नीलोत्पल की माया को कौन काट सका?
नवमल्लिका
की अवश्य ही अब विशेष पूछ नहीं है; किंतु उसकी इससे अधिक कदर कभी थी भी नहीं। भुलाया
गया है अशोक। मेरा मन उमड़-घुमड़कर भारतीय रस-साधना के पिछले हज़ारों वर्षों पर बरस
जाना चाहता है। क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज़ थी? सहृदयता क्या लुप्त हो गई थी?
कविता क्या सो गई थी? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह
है कि एक तरंगायित पत्रवाले निफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में ‘अशोक’ कहा जाने लगा।
याद भी किया तो अपमान करके।
लेकिन
मेरे मानने-न-मानने से होता क्या है? ईस्वी सन् के आरंभ के आस-पास अशोक का शानदार पुष्प
भारतीय धर्म, साहित्य और शिल्प में अद्भुत महिमा के साथ आया था। उसी समय शताब्दियों
के परिचित यक्षों और गंधर्वों ने भारतीय धर्म-साधना को एकदम नवीन रूप में बदल दिया
था। पंडितों ने शायद ठीक ही सुझाया है कि ‘गंधर्व’ और ‘कंदर्प’ वस्तुत: एक ही शब्द
के भिन्न-भिन्न उच्चारण हैं। कंदर्प देवता ने यदि अशोक को चुना है तो यह निश्चित रूप
से एक आर्येतर सभ्यता की देन है। इन आर्येतर जातियों के उपास्य वरुण थे, कुबेर थे,
वज्रपाणि यक्षपति थे। कंदर्प यद्यपि कामदेवता का नाम हो गया है, तथापि है वह गंधर्व
का ही पर्याय। शिव से भिड़ने जाकर एक बार यह पिट चुके थे, विष्णु से डरते थे और बुद्धदेव
से भी टक्कर लेकर लौट आए थे। लेकिन कंदर्प देवता हार माननेवाले जीव न थे। बार-बार हारने
पर भी वह झुके नहीं। नए-नए अस्त्रों का प्रयोग करते रहे। अशोक शायद अंतिम अस्त्र था।
बौद्ध धर्म को इस नए अस्त्र से उन्होंने घायल कर दिया, शैव मार्ग को अभिभूत कर दिया
और शाक्त-साधना को झुका दिया। वज्रयान इसका सबूत है, कौल-साधना इसका प्रमाण है और कापालिक
मत इसका गवाह है।
रवींद्रनाथ
ने इस भारतवर्ष को ‘महामानव समुद्र’ कहा है। विचित्र देश है यह! असुर आए, आर्य आए,
शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए – न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और
आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गईं। जिसे हमें हिंदू रीति-नीति कहते हैं,
वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है। एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने
कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है। अशोक की भी अपनी स्मृति परंपरा
है। आम की भी है, बकुल की है, चंपे की भी है। सब क्या हमें मालूम है? जितना मालूम है,
उसी का अर्थ क्या स्पष्ट हो सका है? न जाने किस बुरे मुहूर्त में मनोजन्मा देवता ने
शिव पर बाण फेंका था? शरीर जलकर राख हो गया और ‘वामन-पुराण’ (षष्ठ अध्याय) की गवाही
पर हमें मालूम है कि उनका रत्नमय धनुष टूटकर खंड-खंड हो धरती पर गिर गया। जहाँ मूठ
थी, वह स्थान रुक्म-मणि से बना था, वह टूटकर धरती पर गिरा और चंपे का फूल बन गया! हीरे
का बना हुआ जो नाह-स्थान था, वह टूटकर गिरा और मौलसिरी के मनोहर पुष्पों में बदल गया!
अच्छा ही हुआ। इंद्रनील मणियों का बना हुआ कोटि देश भी टूट गया और सुंदर पाटल पुष्पों
में परिवर्तित हो गया। यह भी बुरा नहीं हुआ। लेकिन सबसे सुंदर बात यह हुई कि चंद्रकांत-मणियों
का बना हुआ मध्य देश टूटकर चमेली बन गया और विद्रुम की बनी निम्नतर कोटि बेला बन गई,
स्वर्ग को जीतनेवाला कठोर धनुष, जो धरती पर गिरा तो कोमल फूलों में बदल गया! स्वर्गीय
वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होतीं!
परंतु
मैं दूसरी बात सोच रहा हूँ। इस कथा का रहस्य क्या है? यह क्या पुराणकार की सुकुमार
कल्पना है या सचमुच ये फूल भारतीय संसार में गंधर्वों की देन हैं? एक निश्चित काल के
पूर्व इन फूलों की चर्चा हमारे साहित्य में मिलती भी नहीं! सोम तो निश्चित रूप से गंधर्वों
से खरीदा जाता था। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की विधि में यह विधान सुरक्षित रह गया
है। ये फूल भी क्या उन्हीं से मिले?
कुछ
बातें तो मेरी मस्तिष्क में बिना सोचे ही उपस्थित हो रही हैं। यक्षों और गंधर्वों के
देवता -कुबेर, सोम, अप्सराएँ – यद्यपि बाद के ब्राह्मण ग्रंथों में भी स्वीकृत है,
तथापि पुराने साहित्य में आप देवता के रूप में ही मिलते हैं। बौद्ध साहित्य में तो
बुद्धदेव को ये कई बार बाधा देते हुए बताए गए हैं। महाभारत में ऐसी अनेक कथाएँ आती
हैं जिनमें संतानार्थिनी स्त्रियाँ वृक्षों के अपदेवता यक्षों के पास संतान-कामिनी
होकर जाया करती थीं! यक्ष और यक्षिणी साधारणत: विलासी और उर्वरता-जनक देवता समझ जाते
थे। कुबेर तो अक्षय निधि के अधीश्वर भी हैं। ‘यक्ष्मा’ नामक रोग के साथ भी इन लोगों
का संबंध जोड़ा जाता है। भरहुत, बोधगया, सांची आदि में उत्कीर्ण मूर्तियों में संतानार्थिनी
स्त्रियों का यक्षों के सान्निध्य के लिए वृक्षों के पास जाना अंकित है। इन वृक्षों
के पास अंकित मूर्तियों की स्त्रियाँ प्राय: नग्न हैं, केवल कटिदेश में एक चौड़ी मेखला
पहने हैं। अशोक इन वृक्षों में सर्वाधिक रहस्यमय है। सुंदरियों के चरण-ताड़न से उसमें
दोहद का संचार होता है और परवर्ती धर्मग्रंथों से यह भी पता चलता है कि चैत्र शुक्ल
अष्टमी को व्रत करने और अशोक की आठ पत्तियों के भक्षण से स्त्री की संतान-कामना फलवती
है। अशोक कल्प में बताया गया है कि अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं – सफेद और लाल।
सफेद तो तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धिप्रद समझकर व्यवहृत होता है और लाल स्मरवर्धक
होता है। इन सारी बातों का रहस्य क्या है? मेरा मन प्राचीन काल के कुंझटिकाच्छन्न आकाश
में दूर तक उड़ना चाहता है। हाय, पंख कहाँ हैं?
यह
मुझे प्राचीन युग की बात मालूम होती है। आर्यों का लिखा हुआ साहित्य ही हमारे पास बचा
है। उसमें सबकुछ आर्य दृष्टिकोण से ही देखा गया है। आर्यों से अनेक जातियों का संघर्ष
हुआ। कुछ ने उनकी अधीनता नहीं मानी, वे कुछ ज़्यादा गर्वीली थीं। संघर्ष खूब हुआ। पुराणों
में इसके प्रमाण हैं। यह इतनी पुरानी बात है कि सभी संघर्षकारी शक्तियाँ बाद में देवयोनी-जात
मान ली गईं। पहला संघर्ष शायद असुरों से हुआ। यह बड़ी गर्वीली जाति थी। आर्यों का प्रभुत्व
इसने कभी नहीं माना। फिर दानवों, दैत्यों और राक्षसों से संघर्ष हुआ। गंधर्वों और यक्षों
से कोई संघर्ष नहीं हुआ। वे शायद शांतिप्रिय जातियाँ थीं। भरहुत, सांची, मथुरा आदि
में प्राप्त यक्षिणी मूर्तियों की गठन और बनावट देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये
जातियां पहाड़ी थीं। हिमालय का देश ही गंधर्व, यक्ष और अप्सराओं की निवास-भूमि हैं।
इनका समाज संभवत: उस स्तर पर था, जिसे आजकल के पंडित ‘पुनालुअन सोसाइटी’ कहते हैं।
शायद इससे भी अधिक आदिम! परंतु वे नाच-गान में कुशल थे। यक्ष तो धनी भी थे। वे लोग
वानरों और भालुओं की भांति कृषिपूर्व स्थिति में भी नहीं थे और राक्षसों और असुरों
की भांति व्यापार-वाणिज्यवाली स्थिति में भी नहीं।वे मणियों और रत्नों का संधान जानते
थे, पृथ्वी के नीचे गड़ी हुई निधियों की जानकारी रखते थे और अनायास धनी हो जाते थे।
संभवत: इसी कारण उनमें विलासता की मात्रा अधिक थी। परवर्तीकाल में यह बहुत सुखी जाति
मानी जाती थी। यक्ष और गंधर्व एक ही श्रेणी के थे, परंतु आर्थिक स्थिति दोनों की थोड़ी
भिन्न थी। किस प्रकार कंदर्प देवता को अपनी गंधर्व सेना के साथ इंद्र का मुसाहिब बनना
पड़ा, वह मनोरंजक कथा है। पर यहाँ वे सब पुरानी बातें क्यों रटी जाँय? प्रकृत यह है
कि बहुत पुराने जमाने में आर्य लोगों को अनेक जातियों से निपटना पड़ा था। जो गर्वीली
थीं, हार मानने को प्रस्तुत नहीं थीं, परवर्ती साहित्य में उनका स्मरण घृणा के साथ
किया गया और जो सहज ही मित्र बन गईं, उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा।
असुर, राक्षस, दानव और दैत्य पहली श्रेणी में तथा यक्ष, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर,
वानर, भालू आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं। परवर्ती हिंदू समाज इन सबको बड़ी अद्भुत
शक्तियों का आश्रय मानता है, सब में देवता-बुद्धि का पोषण करता है।
अशोक
वृक्ष की पूजा इन्हीं गंधर्वों और यक्षों की देन है। प्राचीन साहित्य में इस वृक्ष
की पूजा के उत्सवों का बड़ा सरस वर्णन मिलता है। असल पूजा अशोक की नहीं, बल्कि उसके
अधिष्ठाता कंदर्प देवता की होती थी। इसे ‘मदनोत्सव’ कहते थे। महाराज भोज के ‘सरस्वती-कंठाभरण’
से जान पड़ता है कि यह उत्सव त्रयोदशी के दिन होता था। ‘मालविकाग्निमित्र’ और ‘रत्नावली’
में इस उत्सव का बड़ा सरस, मनोहर वर्णन मिलता है। मैं जब अशोक के लाल स्तबकों को देखता
हूँ तो मुझे वह पुराना वातावरण प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है। राजघरानों में साधारणत:
रानी ही अपने सनूपुर चरणों के आघात से इस रहस्यमय वृक्ष को पुष्पित किया करती थीं।
कभी-कभी रानी अपने स्थान पर किसी अन्य सुंदरी को नियुक्त कर दिया करती थीं। कोमल हाथों
में अशोक-पल्लवों का कोमलतर गुच्छ आया, अलक्तक से रंजित नूपुरमय चरणों के मृदु आघात
से अशोक का पाद्र-देश आहत हुआ – नीचे हलकी रूनझुन और ऊपर लाल फूलों का उल्लास! किसलयों
और कुसुम-स्तबकों की मनोहर छाया के नीचे स्फटिक के आसन पर अपने प्रिय को बैठाकर सुंदरियाँ
अबीर, कुंकुम, चंदन और पुष्प-संभार से पहले कंदर्प देवता की पूजा करती थीं और बाद में
सुकुमार भंगिमा से पति के चरणों पर वसंत पुष्पों की अंजलि बिखेर देती थीं। मैं सचमुच
इस उत्सव को मादक मानता हूँ। अशोक के स्तबकों में वह मादकता आज भी है, पर पूछता कौन
है। इन फूलों के साथ क्या मामूली स्मृति जुड़ी हुई है! भारतवर्ष का सुवर्ण युग इस पुष्प
के प्रत्येक दल में लहरा रहा है।
कहते
हैं, दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता
है। बाकी को फेंककर आगे बढ़ जाती है। शायद अशोक से उसका स्वार्थ नहीं सधा। क्यों उसे
वह याद रखती? सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।
अशोक
का वृक्ष जितना भी मनोहर हो, जितना भी रहस्यमय हो, जितना भी अलंकारमय हो, परंतु हैं
वह उस विशाल सामंत-सभ्यता की परिष्कृत रुचि का ही प्रतीक, जो साधारण प्रजा के परिश्रमों
पर पली थीं, उसके रक्त के ससार कणों को खाकर बड़ी हुई थी और लाखों-करोड़ों की उपेक्षा
से जो समृद्ध हुई थी, वे सामंत उखड़ गए, समाज ढह गए, और मदनोत्सव की धूमधाम भी मिट
गई। संतान-कामिनियों को गंधर्वों से अधिक शक्तिशाली देवताओं का वरदान मिलने लगा – पीरों
ने, भूत-भैरवों ने, काली-दुर्गा ने यक्षों की इज़्ज़त घटा दी। दुनिया अपने रास्ते चली
गई, अशोक पीछे छूट गया।
मुझे
मानव जाति की दुर्दम-निर्मम धारा के हज़ारों वर्षों का रूप साफ दिखाई दे रहा है। मनुष्य
की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली
आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह
जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का
आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति
केवल बाद की बात है। सबकुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य
की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्छा)। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सबकुछ को
हजम करने के बाद भी पवित्र है। सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण भर बाधा उपस्थित करता
है, धर्माचार का संस्कार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा
में सबकुछ बह जाते हैं। जितना कुछ इस जीवन-शक्ति को समर्थ बनाता है उतना उसका अंग बन
जाता है, बाकी फेंक दिया जाता है। धन्य हो महाकाल, तुमने कितनी बार मदनदेवता का गर्व-खंडन
किया है, धर्मराज के कारागर में क्रांति मचाई है, यमराज के निर्दय तारल्य को पी लिया
है, विधाता के सर्वकर्तृत्व के अभिमान को चूर्ण किया है! आज हमारे भीतर जो मोह है,
संस्कृति और कला के नाम पर जो आसक्ति है, धर्माचार और सत्यनिष्ठा के नाम पर जो जड़िमा
है, उसमें का कितना भाग तुम्हारे कुंठनृत्य से ध्वस्त हो जाएगा, कौन जानता है!
मनुष्य
की जीवन-धारा फिर भी अपनी मस्तानी चाल से चलती जाएगी। आज अशोक के पुष्प-स्तबकों को
देखकर मेरा मन उदास हो गया है, कल न जाने किस वस्तु को देखकर किस सहृदय के हृदय में
उदासी की रेखा खेल उठेगी! जिन बातों को मैं अत्यंत मूल्यवान समझ रहा हूँ और जिनके प्रचार
के लिए चिल्ला-चिल्लाकर गला सुखा रहा हूँ, उनमें कितनी जिएँगी और कितनी बह जाएँगी,
कौन जानता है! मैं क्या शोक से उदास हुआ हूँ। माया काटे कटती नहीं। उस युग के साहित्य
और शिल्प मन को मसले दे रहे हैं। अशोक के फूल हो नहीं, किसलय भी हृदय को कुरेद रहे
हैं। कालिदास जैसे कल्पकवि ने अशोक के पुष्प को ही नहीं, किसलयों को भी मदमत्त करनेवाला
बताया था – अवश्य ही शर्त यह थी कि वह दयिता (प्रिया) के कानों में झूम रहा हो – ‘किसलय
प्रसवोपि विलासिनां मदयिता दयिता श्रवणार्पित:।’ परंतु शाखाओं में लंबित, वायु-ललित
किसलयों में भी मादकता है। मेरी नस-नस से आज करुण उल्लास की झंझा उत्थित हो रही है।
मैं सचमुच उदास हूँ।
भगवान
बुद्ध ने मार-विजय के बाद वैरागियों की पलटन खड़ी की थी। असल में ‘मार’ मदन का ही नामांतर
है। कैसा मधुर और मोहक साहित्य उन्होंने दिया। पर न जाने कब यक्षों के वज्रपाणि नामक
देवता इस वैराग्यप्रवण धर्म में घुसे और बोधिसत्वों के शिरोमणि बन गए। फिर वज्रयान
का अपूर्व धर्म मार्ग प्रचलित हुआ। त्रिरत्नों में मदन देवता ने आसन पाया। वह एक अजीब
आंधी थी। इसमें बौद्ध बह गए, शैव बह गए, शाक्त बह गए। उन दिनों ‘श्री सुंदरीसाधनतत्पराणां
योगश्च भोगश्च करस्थ एव’ की महिमा प्रतिष्ठित हुई। काव्य और शिल्प के मोहक अशोक ने
अभिचार में सहायता दी। मैं अचरज से इस योग और भोग की मिलन-लीला को देख रहा हूँ। ग्रह
भी क्या जीवनी-शक्ति का दुर्दम अभियान था! कौन बताएगा कि कितने विध्वंस के बाद इस अपूर्व
धर्म-मत की सृष्टि हुई थी? अशोक-स्तबक का हर फूल और हर दल इस विचित्र परिणति की परंपरा
ढोए आ रहा है। कैसा झबरा-सा गुल्म है!
मगर
उदास होना भी बेकार है। अशोक आज भी उसी मौज में हैं, जिसमें आज से दो हज़ार वर्ष पहले
था। कहीं भी तो कुछ नहीं बिगड़ा है, कुछ भी तो नहीं बदला है। बदली है मनुष्य की मनोवृत्ति।
यदि बदले बिना वह आगे बढ़ सकती तो शायद वह भी नहीं बदलती। और यदि वह न बदलती और व्यावसायिक
संघर्ष आरंभ हो जाता – मशीन का रथ घर्घर चल पड़ता – विज्ञान का सावेग धावन चल निकलता,
तो बड़ा बुरा होता। हम पिस जाते। अच्छा ही हुआ जो वह बदल गई। पूरी कहां बदली है? पर
बदल तो रही है। अशोक का फूल तो उसी मस्ती में हँस रहा है। पुराने चित्त से इसको देखनेवाला
उदास होता है। वह अपने को पंडित समझता है। पंडिताई भी एक बोझ है – जितनी ही भारी होती
है उतनी ही तेज़ी से डुबाती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है। तब
वह बोझ नहीं रहती। वह उस अवस्था में उदास भी नहीं करती। कहाँ! अशोक का कुछ भी तो नहीं
बिगड़ा है। कितनी मस्ती में झूम रहा है! कालिदास इसका रस ले चुके थे – अपने ढंग से।
मैं भी ले सकता हूँ – अपने ढंग से। उदास होना बेकार है।
प्रश्न
5. द्विवेदीजी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता है? आज साहित्यिक रचना
फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून होती जा रही है। तब ऐसी रचनाओं का महत्त्व
बढ़ गया है। प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण रुचिपूर्ण है या उपेक्षामय? इसका मूल्यांकन
करें।
उत्तर
: हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म ग्रामीण क्षेत्र में हुआ था। इस कारण बचपन में उन्हें
विविध वनस्पतियों को देखने का अवसर मिला। फिर वे शान्तिनिकेतन में घने कुंजों के मध्य
काफी समय तक रहे। वहाँ पर उन्होंने पलाश, अमलतास, कनेर, मौलसिरी आदि वनस्पतियों के
पत्तों-पुष्पों को विकसित होते या झड़ते हुए देखा। इन्हीं कारणों से तथा सहृदय साहित्यकार
होने से प्रकृति के विविध उपादानों और वनस्पतियों के प्रति उनकी विशेष रुचि रही। आज
के साहित्यकारों को न तो ऐसा परिवेश देखने को मिलता है और न उसकी ऐसी रुचि रहती है।
इस कारण आज के साहित्यकार प्रकृति-पर्यवेक्षण में कमजोर हैं। परन्तु प्रकृति के प्रति
मेरा दृष्टिकोण रुचिपूर्ण है और मैं प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर आनन्दमग्न होता हूँ।
भाषा की बात
प्रश्न 1. 'दस दिन फूले और फिर खंखड़ के खंखड़'। इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते
कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँट कर लिखें।
उत्तर
:
ऐसे
दुमदारों से तो लैंडूरे भले।
जो
फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना।
न
ऊधो का लेना, न माधो का देना।
जमे
कि मरे।
किये-कराये
का लेखा-जोखा मिलाना।
खून-खच्चर
का बवण्डर बहना।
इन्हें भी जानें ...
अशोक
वृक्ष-भारतीय साहित्य में बहुचर्चित एक सदाबहार वृक्ष। इसके पत्ते आम के पत्तों के
समान होते हैं। वसन्त-ऋतु में इसके फूल लाल-लाल गुच्छों के रूप में आते हैं। इसे कामदेव
के पाँच पुष्पबाणों में से एक माना गया है। इसके फल सेम की तरह होते हैं। इसके सांस्कृतिक
महत्त्व का अच्छा चित्रण हजारी प्रसाद द्विवेदी ने निबंध अशोक के फूल में किया है।
अरिष्ठ
वृक्ष-रीठा नामक वृक्ष। इसके पत्ते चमकीले हरे होते हैं। रीठा पेड़ की डालियों व तने
पर जगह-जगह काँटे उभरे होते हैं। इसके फल को सुखाकर उसके छिलके का चूर्ण बनाया जाता
है, जो बाल और कपड़े धोने के काम भी आता है।
आरग्वध
वृक्ष-लोक में इसे अमलतास कहा जाता है। भीषण गर्मी की दशा में जब इसका पेड़ पत्रहीन
ढूंठ-सा हो जाता है, पर इस पर पीले-पीले पुष्प गुच्छे लटके हुए मनोहर दृश्य उपस्थित
करते हैं। इसके फल लगभग एक-डेढ़ फुट के बेलनाकार
होते हैं जिसमें कठोर बीज होते हैं।
शिरीष
वृक्ष-लोक में सिरिस नाम से मशहूर पर एक मैदानी इलाके का वृक्ष है। आकार में विशाल
होता है पर पत्ते बहुत छोटे-छोटे होते हैं। इसके फूलों में पंखुड़ियों की जगह रेशे-रेशे
होते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. "हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!''शिरीष के फूल' निबन्ध के
आधार पर बताइए कि उपर्युक्त वाक्य किसके लिए और क्यों कहा गया है?
उत्तर
: द्विवेदीजी ने यह वाक्य महात्मा गाँधी के लिए कहा है। जिस प्रकार शिरीष के फूल भयंकर
लू और गर्मी में भी खिलते रहते हैं, आत्मबल से वे विपरीत स्थितियों का सामना करते हैं,
इसी प्रकार गाँधीजी अनासक्त रखकर, सुख दुःख आदि से निश्चिन्त रहकर आत्मबल से सदैव संघर्ष
करते रहे और अपने लक्ष्य में सफल रहे।
प्रश्न 2. शिरीष के वृक्ष, कबीर और कालिदास में हजारीप्रसादजी ने क्या
समानताएँ देखीं और क्यों?
उत्तर
: हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शिरीष के वृक्ष, कबीर और कालिदास में मस्तमौला तथा फक्कड़
स्वभाव की विशेषताएँ देखीं। जीवन में संकटग्रस्त रहते हुए भी कबीर अपने सिद्धान्तों
से विचलित नहीं हुए, कालिदास भी योगियों की भाँति मोह . मुक्त रहे और शिरीष का वृक्ष
भी विपरीत मौसम, लू-गर्मी में भी मस्त होकर खिला रहता है।
प्रश्न 3. शिरीष को एक अदभुत अवधुत क्यों कहा है? पाठ 'शिरीष के फूल'
के आधार पर समझाइए।
उत्तर
: अवधूत सर्दी, गर्मी, सुख, दु:ख आदि सभी स्थितियों में निश्चिन्त रहता है। वह फक्कड़
और मस्त बना रहता है तथा उस पर विपरीत परिस्थितियों का प्रभाव नहीं पड़ता है। उसी प्रकार
जब गर्मी तथा लू से सारा संसार सन्तप्त रहता है, तब भी शिरीष लहलहाता रहता है। इसी
कारण उसे अद्भुत अवधूत कहा है।
प्रश्न 4. 'शिरीष के फूल' के माध्यम से लेखक ने संघर्षशीलता एवं जिजीविषा
की जो व्यंजना की है, उसे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: भयंकर गर्मी, लू एवं तपन से जब सारे पेड़-पौधे झुलसने लगते हैं, सभी पेड़ पुष्परहित
हो जाते हैं, तब भी शिरीष का वृक्ष हरा-भरा और पुष्पों से लदा रहता है। यह वायुमण्डल
से रस ग्रहण करता है। इस तरह यह विपरीत दशा में भी संघर्षशीलता एवं जिजीविषा रखता है।
प्रश्न 5. शिरीष के फूलों को देखकर लेखक को किनकी और क्यों याद आती
है? समझाइए।
उत्तर
: शिरीष के फूलों को देखकर लेखक को उन नेताओं की याद आती है, पुरानी पीढ़ी के उन लोगों
की याद आती है, जो पद-लिप्सा और अधिकार-लिप्सा रखते हैं, जो जमाने का रुख नहीं पहचानते
हैं और नयी पीढ़ी के लोग जब तक उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते
हैं।
प्रश्न 6. शिरीष के फूल से हमें क्या शिक्षा मिलती है? 'शिरीष के फूल'
नामक अध्याय के आधार पर समझाइए।
उत्तर
: शिरीष के फूल के माध्यम से हमें संघर्ष एवं कोलाहल से परिपूर्ण विपरीत स्थितियों
में भी अविचल रहकर जिजीविषा रखने की शिक्षा मिलती है। इससे हमें धैर्य रखकर, लोकहित
का चिन्तन कर कर्त्तव्यशील बने रहने की शिक्षा भी मिलती है।
प्रश्न 7. 'शिरीष के फूल' निबन्ध में लेखक ने साहित्यकारों का क्या
दायित्व बताया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: यही कि साहित्यकार अनासक्त रहें। केवल लाभ-हानि का लेखा-जोखा मिलाने में ही नहीं
उलझें। साहित्यकारों का दायित्व केवल बाह्य-सौन्दर्य का चित्रण करना नहीं है, अपितु
उन्हें सौन्दर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके भीतर के सौन्दर्य-तत्त्व को उद्घाटित
करना है।
प्रश्न 8. "पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान
हो जाती?" इस कथन से क्या भाव व्यक्त हुआ है?
उत्तर
: यह भाव व्यक्त हुआ है कि जब तक नया पुष्पांकुर नहीं आ जाता, तब तक शिरीष का पुष्प
अपने वृन्त पर डटा रहता है। उसे नये फल-पत्तों के द्वारा धकियाकर हटाया जाता है। इसी
प्रकार पुरानी पीढ़ी के लोग अधिकार-लिप्सा से ग्रस्त रहते हैं और समय रहते नयी पीढ़ी
के लिए स्थान नहीं छोड़ते हैं। फलस्वरूप नयी पीढ़ी द्वारा उन्हें बलात् हटाया जाता
है।
प्रश्न 9. "दुरन्त प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष
निरन्तर चल रहा है।" इससे लेखक ने क्या सन्देश दिया है?
उत्तर
: लेखक ने यह सन्देश दिया है कि संसार में प्राणियों की मृत्यु शाश्वत सत्य है, इसलिए
हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। जिस प्राणी में थोड़ी भी ऊर्ध्वमुखी प्राणधारा होती
है, जीवनी-शक्ति होती है, वह महाकाल के कोड़ों की मार से कुछ समय तक बचे रहता है। अतः
जीवन में आगे बढ़ते रहो, संघर्ष करते रहो।
प्रश्न 10. "अवधूतों के मुंह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली
हैं।" इस प्रसंग में लेखक ने किन्हें अवधूत बताया है और क्यों?
उत्तर
: इस प्रसंग में लेखक ने महाकवि कालिदास और कबीरदास को अवधूत बताया है। क्योंकि कालिदास
ने अनासक्त भाव एवं उन्मुक्त हृदय से 'मेघदूत' जैसे काव्य की रचना की, तो कबीरदास ने
भी बेपरवाह और उन्मुक्त रहकर अपनी साखियों में जो कुछ कहा, वह सरस, मादक एवं यथार्थ
के साथ लोकोपकारी रहा।
प्रश्न 11. शिरीष वृक्ष को लक्ष्य कर लेखक ने किस सांस्कृतिक गरिमा
की ओर संकेत किया है?
उत्तर
: लेखक ने शिरीष वृक्ष को भारतीय संस्कृति का प्रतीक बताया है। प्राचीन काल में वैभव-सम्पन्न
लोगों की वाटिका में शिरीष वृक्ष अवश्य रोपा जाता था। वृहत्संहिता में मांगलिक वृक्षों
में शिरीष का भी अन्य छायादार वृक्षों के साथ उल्लेख हुआ है। साहित्य में इसकी सांस्कृतिक
गरिमा का काफी उल्लेख हुआ है।
प्रश्न 12. 'शिरीष के फूल' निबन्ध में साहित्यकारों को जो सन्देश दिया
गया है, उसे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: 'शिरीष के फूल' निबन्ध में द्विवेदीजी ने साहित्यकारों एवं रचनाधर्मियों को सन्देश
दिया है कि वे लाभ हानि का लेखा-जोखा न रखकर सामाजिक जीवन को उपयोगी साहित्य प्रदान
करें। प्रशंसा-प्राप्ति के मोह में कठोर न बनकर जीवन-सत्य एवं काव्यानुभूति में समन्वय
रखें।
प्रश्न 13. "शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था।"
इस कथन से शिरीष से किसकी समानता बतायी गई है और क्यों?
उत्तर
: उक्त कथन से शिरीष से गाँधीजी की समानता बतायी गई है। स्वतंत्रता संग्राम के समय
गाँधीजी अविचल रहकर शान्ति स्थापित करने और अहिंसा का पक्ष लेने में लगे रहे। वे शिरीष
के फूल के समान वायुमण्डल से रस लेकर इतने कठोर और कोमल बन सके थे, अनासक्त और स्थिर
रह सके थे।
प्रश्न 14. संसार में अति प्रामाणिक सत्य क्या है? उस सत्य की उपेक्षा
कौन और क्यों करते हैं?
उत्तर
: द्विवेदीजी बताते हैं कि संसार में जरा और मृत्यु दो अति प्रामाणिक सत्य हैं। जो
जन्म लेता है, वह वृद्ध होने के बाद मृत्यु को प्राप्त होता है। परन्तु उक्त सत्य की
उपेक्षा नेता लोग करते हैं तथा वृद्धजन भी करते हैं। वे अशक्त और वृद्ध होने पर भी
अधिकार-लिप्सा से ग्रस्त रहते हैं और नयी पीढ़ी द्वारा धक्का मारने से ही हटते हैं।
प्रश्न 15. काल के कोड़ों की मार से कौन बच सकता है? 'शिरीष के फूल'
पाठ के आधार पर बताइये।
उत्तर
: काल निरन्तर कोड़े बरसाता रहता है, परन्तु जो लोग अपनी जगह पर जमे रहते हैं, वे काल
की मार से नहीं बच पाते हैं। परन्तु जो सदैव गतिशील रहते हैं, स्थान बदलते रहते हैं
और अपना मुँह आगे की ओर करके बढ़ते रहते हैं, वे कर्मशील एवं गतिशील व्यक्ति काल की
मार से बच सकते हैं।
प्रश्न 16."जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ, तब-तब हूक उठती है।"
लेखक को हूक क्यों उठती है? बताइये।
उत्तर
:आज भारत में स्वार्थपरता और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। गरीब जनता अत्याचार और शोषण
से कराह रही है। गाँधीजी की तरह कर्मयोगी की आज सर्वाधिक जरूरत है, जो शोषित-पीड़ित
जनता का मार्गदर्शन कर सके, परन्तु लेखक को ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई दे रहा है। इसी
से उसका हृदय कराह रहा है।
प्रश्न 17. 'शिरीष निर्घात फलता रहता है'। लेखक ने ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर
: शिरीष जेठ महीने की गर्मी में, जो कि प्रचण्ड गर्मी का महीना होता है। उसमें फलता-फूलता
है। बसन्त के आगमन के साथ ही खिल उठता है और आषाढ़ के महीने तक खिला रहता है। इससे
भी ज्यादा इसका मन रम जाता है तो बिना बाधा भादों में भी फला-फूला रहता है। इसलिए लेखक
ने शिरीष को निर्घात फूलता है, कहा है।
प्रश्न 18. शिरीष किन विपरीत परिस्थितियों में जीता है?
उत्तर
: जेठ की चिलचिलाती धूप हो या पृथ्वी निर्धूम अग्निकुण्ड बनी हुई हो, शिरीष ऊपर से
नीचे तक फूलों से लदा रहता है। बहुत कम पुष्प ही इस तपती धूप में जीवित रह पाते हैं
लेकिन वायुमण्डल से रस खींचने वाला शिरीष विषम परिस्थितियों में भी जीवन जीता है।
प्रश्न 19. शिरीष के फूलों के सम्बन्ध में तुलसीदासजी का क्या कहना
है?
उत्तर
: तुलसीदासजी ने शिरीष के फूलों के विषय में कहा है कि इस धरती पर अभी तक यही प्रमाणित
हुआ है कि जो खिलता है वह अवश्य कुम्हलाकर झड़ जाता है और जो झड़ता है वह पुनः विकसित
होकर खिलता है, निर्माण ध्वंस का क्रम शाश्वत चलता रहता है।
प्रश्न 20. लेखक ने शिरीष के फूलों की तुलना किससे और क्यों की है?
उत्तर
: लेखक ने शिरीष के फूलों की तुलना कालजयी अवधूत से की है क्योंकि शिरीष अवधूत की भाँति
ही हर परिस्थिति में मस्त-मौला रहकर जीवन को खुशी से जीने का सन्देश देता है। शिरीष
का फूल सुख-दुःख में समान रूप से स्थिर रहकर अजेय योद्धा की भाँति कभी पराजय स्वीकार
नहीं करता है
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. 'जरा और मृत्यु दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक
सत्य हैं' विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर
: जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु दोनों ही संसार के लिए प्रामाणिक और कटुसत्य हैं। भागवत
गीता में भी कहा गया है कि जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु निश्चित है। मृत्यु के पश्चात्
आत्मा काया को त्यागकर पुनः नवीन वस्त्र (काया) धारण करती है। यह क्रम निरन्तर बिना
रुके चलता ही रहता है। तुलसीदास ने कहा भी है जो फरा सो झरा, जो बुरा सो बुताना' अर्थात्
जो खिला वह अवश्य कुम्हलायेगा या झर जायेगा, जो झर गया वह फिर खिलेगा। जीवन में निर्माण
के साथ ही उसका ध्वंस तय है। यह सृष्टि का नियम है। यह अलग बात है कि सबका समय अवश्य
अलग अलग हो सकता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जरा और मृत्यु दोनों ही तथ्य सत्य
हैं। इसमें थोड़ा-सा भी सन्देह नहीं है।
प्रश्न 2. लेखक ने कबीर को शिरीष के समान अवधूत क्यों बताया है?
उत्तर
: कबीर मस्तमौला व फक्कड़ स्वभाव के थे। जीवन की हर सम-विषम परिस्थिति को वे बड़े ही
सहज भाव . से ग्रहण करते थे। निन्दा, अपमान, प्रशंसा का उन पर कभी कोई प्रभाव नहीं
पड़ता था। उनके हृदय में जो भाता वे वही कहते थे। बिना किसी लाग-लपेट एवं स्वार्थ के
उनका सादा जीवन एक अवधूत की भाँति कर्मयोग से पूर्ण था।
उसी
प्रकार शिरीष का फूल भी चाहे गर्मी हो या बरसात, वसन्त हो या ग्रीष्म, लू की भयंकर
आग हो या कंपकंपाती ठंडी हवाएँ, वह हर दशा, स्थिति में मस्त होकर फलता-फूलता था। मौसम
की कैसी भी परिस्थिति हो उस पर असर नहीं होता था। शिरीष कबीर की भाँति ही अनासक्त-अनाविल
प्रवृत्ति का था।
प्रश्न 3. लेखक ने कालिदास को अनासक्त योगी क्यों कहा है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: कालिदासजी को निन्दा, मान-अपमान, प्रशंसा से कोई लेना-देना नहीं था। यश-लिप्सा से
वे कोसों दूर थे। किसी भी प्रकार की लालसा व कामना उनके हृदय में नहीं थी। वे सस्ता
एवं अधिकार लिप्सा के घोर विरोधी थे। ऐसे व्यक्ति आने वाली पीढ़ी की उपेक्षा को भी
सहन कर लेते थे। कालिदास ने अपने शृंगारिक वर्णन में अनासक्त भाव का भली-प्रकार विवेचन
किया है। 'मेघदूत' काव्य उनके अनासक्त एवं अनाविल हृदय से निकली प्रशंसनीय कृति है।
जिसमें
भाव-प्रवणता उच्च कोटि की वर्णित हई है। जो किसी अनासक्त योगी के हृदय में पायी जा
सकती है। वे स्थितप्रज्ञ एवं अनासक्त योगी बनकर कवि सम्राट के आसन पर प्रतिष्ठित हुए।
अन्त में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार शिरीष का फूल हर विषम परिस्थिति में फलता-फूलता
एवं मुस्कराता रहता है उसी प्रकार कालिदास भी सच्चे अनासक्त की भाँति - अविचल खड़े
रहते थे।
प्रश्न 4. शिरीष से हमें किन गुणों की प्रेरणा मिलती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: शिरीष जीवन में अनेक गुणों की शिक्षा देता है। जीवन में दुःख के आने पर मनुष्य दुःखी,
चिंतित एवं निराश हो जाता है वैसे ही सुख आने पर गर्व से झूमने लगता है, खुशियाँ मनाता
है। सुख और दुःख के क्रम चक्र की भाँति परिवर्तित होते रहते हैं। आज दुःख का रुदन है
तो कल खुशी की किलकारी, इन्हीं सब बातों को स्वयं पर चरितार्थ करता शिरीष हमें हर परिस्थिति
में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। सत्ता एवं मोह के प्रति अधिकार भावना.से लिप्त न
रहें।
जो
व्यक्ति निरन्तर भौतिकता के प्रति लोलुप भावना संचित रखता है उसकी पराजय निश्चित है।
धैर्य, साहस एवं तटस्थता जीवन के अपेक्षित गुण हैं, इन्हें अपने जीवन में सदैव धारण
रखने चाहिए। आगे की तरफ मुँह करके निरन्तर कर्म करते रहें, स्थान परिवर्तन सृष्टि का
नियम है, उससे मुँह ने मोड़ें, जड़ता को छोड़ गतिशील बनें, यही शिरीष द्वारा हमें शिक्षा
और प्रेरणा मिलती है।
प्रश्न 5. ललित निबन्ध के आधार पर 'शिरीष के फूल' निबन्ध की विशेषताओं
पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
: साहित्य, संस्कृति एवं दर्शन के परिप्रेक्ष्य में ललित निबंधों की रचना हुई। 'शिरीष
के फूल' निबन्ध में मानवतावादी दृष्टिकोण तथा कवि हृदय की छाप है। इससे उनके पांडित्य,
बहुज्ञता तथा विविध विषयों से सम्बन्धित ज्ञान का पता चलता है। द्विवेदीजी ने शिरीष
को माध्यम बनाकर मानवीय आदर्शों को व्यंजित किया है। निबन्धकार ने भीषण गर्मी और लू
में भी हरे-हरे और फूलों से लदे रहने वाले शिरीष की तुलना अवधूत से की है।
इसके
माध्यम से जीवन के संघर्षों में अविचलित रहकर लोकहित में लगे रहने तथा कर्त्तव्यशील
बने रहने के श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों पर जोर दिया। शिरीष के अपने स्थान पर जमे रहने
वाले कठोर फलों द्वारा भारत के सत्ता लोलुप नेताओं पर व्यंग्य किया गया है। अनासक्ति
और फक्कड़ाना मस्ती को जीवन के लिए आवश्यक माना है। शिरीष के फूल में बुद्धि की अपेक्षा
मन को प्रभावित किया गया है। यही ललित निबन्ध की विशेषता है। भाषा सरल और सरस है। शैली
कवित्वपूर्ण एवं लालित्ययुक्त है।
प्रश्न 6. कालिदास ने शिरीष की कोमलता और द्विवेदीजी ने शिरीष की कठोरता
के विषय में क्या कहा है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: कालिदास और संस्कृत साहित्य में शिरीष के फूलों को अत्यन्त कोमल माना गया है। कालिदास
कहते हैं कि शिरीष का पुष्प केवल भंवरों के पैरों का भार ही सहन कर सकता है, पक्षियों
का नहीं। द्विवेदीजी उनके इस मत से बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि शिरीष
के फूलों को कोमल मानना बड़ी भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल
आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते हैं।
जब
तक नए फल, पत्ते, पुराने फलों को धकिया कर बाहर नहीं कर देते, तब तक वे डटे रहते हैं।
वसन्त के आने पर जब सारी प्रकृति पुष्पों के पत्रों पर मधुर गुंजार करती रहती है तब
भी शिरीष के पुराने फल बुरी तरह लड़खड़ाते रहते हैं। और इन्हीं मजबूत पुराने फलों को
लेखक ने नेताओं के संदर्भ में प्रयोग किया है कि जब तक युवा पीढ़ी धकिया कर इन्हें
सत्ता से बाहर नहीं करती ये स्वयं नहीं जाते हैं।
प्रश्न 7. शिरीष के फूलों की तीन प्रमुख विशेषताएँ बताइये जो सिद्ध
करें कि यह एक कालजयी अवधूत है।
उत्तर
: द्विवेदीजी ने शिरीष को कालजयी अवधत कहा है। इसकी निम्न विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1.
यह अवधूत की तरह हर तरह की विषम परिस्थिति में रहता है।
2.
यह भीषण गर्मी में भी सरस फूलों से लदा रहता है तथा अपनी कोमलता व सहजता बनाए रखता
है।
3.
यह प्रकृति से कोमल एवं बाह्य स्वभाव से कोमल होता है। हर परिस्थिति को अपनी कठोरता
से सरल बनाता है।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1. लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर
प्रकाश डालिए।
उत्तर
: हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के एक गाँव छपरा में
1907 में हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त कर
शान्ति निकेतन में हिन्दी भवन के निदेशक रहे। अनेक स्थानों पर हिन्दी अध्यापन का कार्य
किया। ये कई भाषाओं के ज्ञाता थे।
इनकी
प्रमुख रचनाएँ अशोक के फूल, कुटज, विचार प्रवाह, आलोकपर्व (निबंध-संग्रह); बाणभट्ट
की आत्मकथा, अनामदास का पोथा, पुनर्नवा (उपन्यास); हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हिन्दी
साहित्य की भूमिका (आलोचना-ग्रंथ) इत्यादि हैं। इनकी सांस्कृतिक दृष्टि प्रभावशाली
एवं मूल चेतना विराट मानवतावाद है। इन्हें भारत सरकार द्वारा 'पद्म भूषण' प्राप्त हुआ।
साहित्य रचना करते हुए इनका निधन 1979 दिल्ली में हुआ।
शिरीष के फूल (सारांश)
लेखक-परिचय
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले (उत्तरप्रदेश) में सन् 1907 ई.
में हुआ। आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की तथा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ
ठाकुर के निमन्त्रण पर शान्ति-निकेतन में हिन्दी भवन के निदेशक रूप में रहे। वहाँ का
शान्त और साहित्यिक वातावरण उनकी साहित्य-साधना के लिए वरदान सिद्ध हुआ। सन् 1950 ई.
में द्विवेदीजी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर बनकर आये।
भारत
सरकार में भी उन्होंने सेवाएँ दीं। द्विवेदीजी उत्तरप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के
अध्यक्ष तथा पंजाब विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। इनका अध्ययन क्षेत्र अत्यन्त व्यापक
था। ये संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं तथा इतिहास, संस्कृति, दर्शन, ज्योतिष
और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान आदि में विशेष दक्षता रखते थे। निबन्ध एवं आलोचना के क्षेत्र
में इनका विशेष महत्त्व था। इनका निधन सन् 1979 ई. में हुआ।
द्विवेदीजी
की प्रमुख रचनाएँ हैं - 'अशोक के फूल', 'कल्पलता', 'विचार और वितर्क', 'कुटज', 'विचार
प्रवाह', 'आलोक पर्व', 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद' (निबन्ध-संग्रह); 'चारुचन्द्र
लेख', 'बाणभट्ट की आत्मकथा', 'पुनर्नवा', 'अनामदास का पोथा' (उपन्यास); सूर-साहित्य',
'कबीर', 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल', 'नाथ सम्प्रदाय', 'हिन्दी साहित्य की भूमिका',
'कालिदास की लालित्य योजना' इत्यादि (आलोचनात्मक कृतियाँ) तथा कुछ सम्पादित ग्रन्थ।
इन्हें साहित्य अकादमी ने विशिष्ट पुरस्कार से और भारत सरकार ने 'पद्मभूषण' उपाधि से
सम्मानित किया।
पाठ-सार
- 'शिरीष के फूल' द्विवेदीजी का एक ललित निबन्ध है। इसमें शिरीष के सौन्दर्य के माध्यम
से विविध विषयों पर रोचक विचार व्यक्त किये गये हैं। इसका सार इस प्रकार है -
1.
शिरीष वृक्ष का फूलना-लेखक बताता है कि फूल तो बहुत-से वृक्षों पर
आते हैं, परन्तु शिरीष का फूलना उनमें अलग ही विशेषता रखता है। जेठ की तपती दुपहरी
में जबकि धरती अग्निकुण्ड जैसी गर्म रहती है, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लदा रहता
है। इस प्रकार की गर्मी-लू से बहुत-से पेड़ झुलस जाते हैं, उनका फूलना तो दूर की बात
है। कनेर और अमलतास गर्मी में फूल धारण तो करते हैं किन्तु शिरीष की तरह नहीं।
अमलतास
पन्द्रह-बीस दिन फूलता है, जैसे कि वसन्त ऋतु में पलाश थोड़े दिन ही फूलता है। इतने
कम समय तक फूलने का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। कबीर को पलाश का पन्द्रह दिन के लिए
फूलना पसन्द नहीं था। पन्द्रह दिन फूले और फिर सूखे से दिखाई पड़े, इसमें क्या विशेषता
है।
2.
शिरीष का अधिक समय तक फूलना-शिरीष वसन्त के आगमन के साथ फूलों से लद
जाता है और जेठ से आषाढ़ तक फूलों से लदा रहता है। कभी यह भादों के महीने में भी फूलों
से युक्त रहता है। यह मानो दूसरों को भी अजेय रहने का मन्त्र सिखाने का प्रयास करता
हुआ-सा प्रतीत होता है।
3.
मंगलजनक शिरीष-शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने
भारत के रईस जिन मंगलजनक वृक्षों को अपनी वाटिका में लगाते थे, उनमें एक शिरीष वृक्ष
भी है। राजा लोग अशोक, रीठा, पुन्नाग आदि वृक्षों की तरह शिरीष के वृक्ष को काफी महत्त्व
देते थे। इसे वृहत्संहिता में मंगल-जनक एवं हरीतिमा से युक्त बताया गया है। वाटिका
के सामने झूला डालने के लिए जिन वृक्षों के नाम वात्स्यायन ने कामसूत्र में गिनाये
हैं, उनमें मौलसिरी आदि वृक्ष तो हैं, शिरीष नहीं। लेखक मानता है कि झूला झूलने के
लिए शिरीष का वृक्ष भी बुरा नहीं है। रही कमजोर होने की बात, तो शिरीष झूला झूलने वाली
कृशांगी महिलाओं का वजन तो सहन कर ही सकता है।
4.
कालिदास द्वारा शिरीष का उल्लेख-महाकवि कालिदास को शिरीष का
पुष्प अच्छा लगता था। उन्होंने है कि यह पुष्प इतना कोमल होता है कि वह केवल भौंरों
के पैरों का ही बोझ सह सकता है। किन्तु शिरीष का फूल मजबूत भी होता है। जब तक नये पुष्प
नहीं निकल आते, तब तक पहले वाला शिरीष पुष्प डाल से अलग नहीं होता है। यह नये फूलों
द्वारा धक्का दिये जाने पर ही अलग होता है और सूखने के बाद भी झड़ता नहीं है।
5.
शिरीष एक अवधूत-लेखक ने शिरीष की तुलना एक विलक्षण अवधूत से
की है। जैसे अवधूत (साधु) गर्मी, सर्दी, दुःख, सुख सब सहता हुआ निश्चिन्त रहता है,
उसी प्रकार शिरीष का वृक्ष भी भयंकर गर्मी के समय भी न जाने कहाँ से जीवन का रस ग्रहण
करता है। यह वृक्ष वायुमण्डल से रस ग्रहण करके जीवित रह सकता है। तभी तो गर्मी में
भी कोमल पुष्प धारण कर लेता है। .
6.
राजनेताओं की पद-लिप्सा-लेखक ने निबन्ध में शिरीष के पुष्प के
माध्यम से बहुत कुछ कहा है। उन्होंने शिरीष वृक्ष-पुष्पों के माध्यम से सुझाव देते
हुए राजनेताओं पर कटाक्ष किया है। जिस प्रकार शिरीष के पुराने सूखे फूल नये फूलों के
द्वारा धकियाये जाने पर अपने वृन्त से अलग होते हैं, उसी प्रकार अधिकार की लिप्सा रखने
वाले नेता लोग तभी पद छोड़ते हैं, जब नयी पीढ़ी के लोग उन्हें धक्का देकर नहीं हटा
देते। पद और अधिकार के प्रति इतनी लिप्सा ठीक नहीं है। व्यक्ति को समय का रुख देखकर
व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा उसे अपमानित होना पड़ता है। पद प्राप्त कर लेने से ही व्यक्ति
का नाम अमर नहीं हो जाता है।
7.
कवियों के लिए अनासक्ति का महत्त्व-शिरीष वृक्ष अद्भुत अवधूत
तथा अनासक्त है, वह मस्त एवं फक्कड़ जैसा है। इसी तरह कालिदास आदि महाकवि भी अनासक्त,
मस्त और फक्कड़ाना प्रवृत्ति के होते हैं। कबीर और पन्त में अनासक्ति थी, रवीन्द्रनाथ
में भी अनासक्ति थी। महान् व्यक्ति सिंहद्वार की तरह अपना लक्ष्य समझता है। सब कुछ
अवधूत की तरह सहन करने तथा अनासक्त रहकर आगे बढ़ने से ही महान् लक्ष्य मिलता है। शिरीष
भी अवधूत है, तभी तो वह गर्मी, वर्षा, लू, शीत आदि सहता है, भयंकर गर्मी में फूल पाता
है। वह वायुमण्डल से रस लेता है। गाँधीजी भी वायुमण्डल से रस खींचकर इतना कोमल और कठोर
हो सके थे। लेखक सोचता है कि आज ऐसे अवधूत कहाँ हैं !
सप्रसंग महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ
1.
शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पन्द्रह-बीस दिन के लिए फूलता है,
वसन्त ऋतु के पलाश की भाँति।
कबीरदास
को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और
फिर खंखड़-के-खंखड़-'दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास!' ऐसे दुमदारों से तो लंडूरे
भले।
कठिन-शब्दार्थ
:
आरग्वध
= अमलतास फूल।
लहक
= खिलना।
खंखड़
= दूंठ, शुष्क।
लंडूरा
= पूँछविहीन।
प्रसंग
-
प्रस्तुत अवतरण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'शिरीष का फूल' निबन्ध से
लिया गया है। इसमें लेखक ने शिरीष के फूलों की विशेषता बताई हैं।
व्याख्या
- द्विवेदीजी बताते हैं कि शिरीष के साथ अमलतास के फलों की तलना नहीं की ज अमलतास का
पौधा फूलों सहित केवल दस-पन्द्रह दिनों के लिए ही फूलता है। जिस तरह पलाश का फूल सिर्फ
वसन्त ऋतु में फलता-फूलता है। संत कबीरदास को इस तरह पन्द्रह दिनों के लिए खिलना-महकना
पसंद नहीं था। उनका मानना था कि दस दिन खिलने के बाद फिर से ढूँठ हो जाना अच्छी बात
नहीं है। वे अपनी भाषा में कहते भी हैं कि दस दिनों तक फूल कर, खिल कर पलाश फिर से
खंखड़ अर्थात् शुष्क हो जाता है।
ऐसे
पलाश की शोभा का क्या वर्णन करना जो जीवन्त-शक्ति से भरपूर नहीं है। ऐसे में द्विवेदीजी
कहते हैं यह उसी प्रकार है जैसे पूँछवाले जानवरों से तो अच्छा लंडूरा अर्थात् पूँछविहीन
ही रहना अच्छा है। जिनकी कभी पूँछ रहती है और कभी खत्म हो जाती है। यहाँ लेखक का भाव
उन बड़े-बड़े दिखावटी, भ्रष्ट नेताओं की तरफ भी है जो कभी-कभी समयानुसार जिनका महत्त्व
कम समय के लिए होता है।
विशेष
:
1.
लेखक ने पलाश और अमलतास के कम समय खिलने की तुलना मौकापरस्त नेताओं से की है।
2.
खड़ी बोली हिन्दी के साथ संस्कृत शब्दों का मेल प्रस्तुत है। दुमदार, लंडूरे, खंखड़
आदि देशज शब्दों की भी भरमार है।
2.
फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना
रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस सें प्राण उबलता
रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की
अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है।
कठिन-शब्दार्थ
:
रम
= लगना।
निर्घात
= बिना किसी बाधा के।
कालजयी
= समय को, मृत्यु को जीतने वाला।
अवधूत
= साधु, संन्यासी।
अजेय
= जिसे कोई जीत न सके।
प्रसंग
-
प्रस्तुत अवतरण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'शिरीष का फूल' निबन्ध से
लिया गया है। इसमें लेखक ने शिरीष के फूलों की जीने की कला बताई है।
व्याख्या
- द्विवेदीजी बताते हैं कि फूल तो एक ही है और वह है शिरीष, वसन्त ऋतु के आने के साथ
ही खिला है और आषाढ़ यानि कि लगातार चार महिनों तक निश्चित रूप से अपनी मस्ती बिखेरता
रहता है। अगर शिरीष का मन लग गया तो भादों तक भी अर्थात् आगे आने वाले दो महिने तक
और बिना किसी बाधा के फूलता-खिलता रहता है। गर्मी से बेहाल उमस के कारण सभी प्राणियों
के प्राण उबलते रहते हैं. गर्मी से घबराते हैं. ल से।
से
हृदय सूखता रहता है तब एकमात्र काल अर्थात् मृत्यु पर विजयी शिरीष उन साधु-संन्यासियों
की भाँति प्रकृति पर अपनी प्राणशक्ति द्वारा अजेय होने का मंत्र का प्रचार हवा के साथ
झूम-झूम कर कर रहा है। यहाँ लेखक का आशय है कि जो विपरीत परिस्थितियों में भी जीवनी
शक्ति को प्रज्ज्वलित रखते हैं उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। कर्मों के द्वारा
हम हर परिस्थिति में टिके रहने का हुनर शिरीष के फूलों से सीख सकते हैं।
विशेष
:
1.
लेखक ने बताया है कि शिरीष का फूल गर्मी, लू आदि सहन करता हुआ लम्बे समय तक लहक है।
उससे मनुष्य को सीख लेनी चाहिए।
2.
भाषा का परिनिष्ठित रूप है, खड़ी बोली हिन्दी के साथ संस्कृत शब्दों का मेल है।
3.
शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह
भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते।
जब तक नए फल-पत्ते 'मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं।
वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के
पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती
है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का
मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
कठिन-शब्दार्थ
:
परवर्ती
= बाद के।
धकियाकर
= धकेल कर, धक्का मारकर।
मर्मरित
= पत्तों की आवाज।
प्रसंग
-
प्रस्तुत अवतरण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'शिरीष का फूल' निबन्ध से
लिया गया है। इसमें लेखक ने शिरीष के फूलों के माध्यम से उन नेताओं पर व्यंग्य किया
है जो समयानुसार जगह नहीं छोड़ते हैं।
व्याख्या
-
लेखक बताते हैं कि शिरीष के फूलों की सुन्दरता और कोमलता को देखकर बाद में आने वाले
कवियों ने सोचा-समझा होगा कि शिरीष का तो सब कुछ कोमल हैं, पेड़, फूल, पत्ते इत्यादि।
पर यह उनकी बड़ी भूल है। क्योंकि शिरीष के फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल
आने के बाद भी अपनी जगह नहीं छोड़ते। जब तक शिरीष नए पत्ते, फल सब मिलकर धकेल कर उन्हें
बाहर नहीं कर देते हैं तब तक वे डटे रहते हैं।
आशय
है कि स्वयं अपनी जगह खाली नहीं करते। वसंत के आगमन के समय पूरे वन में सूखे फूल और
पत्तों के स्वर गूंजते रहते हैं उस समय तक शिरीष के पुराने फल बुरी तरह लड़खड़ाते रहते
हैं लेकिन गिरने का नाम नहीं लेते हैं। लेखक कहते हैं कि इन शिरीष के पुराने फलों को
देखकर देश के उन नेताओं की याद आती है जो अपनी मौकापरस्ती और स्वार्थलोलुपता में जमाने
की हवा नहीं पहचानते हैं। जब तक नए युवा नेता आकर, धक्का मारकर उन्हें नहीं हटाते हैं
तब तक वे वहीं जमे रहते है।
विशेष
:
1.
लेखक ने शिरीष के पुराने फलों के माध्यम से पुराने नेताओं के मिजाज पर व्यंग्य किया
है।
2.
भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं सारगर्भित है।
4.
पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये
दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफ़सोस के साथ इनकी
सच्चाई पर मुहर लगाई थी-'धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!'
मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना
निश्चित है! सुनता कौन है?
कठिन-शब्दार्थ
:
लिप्सा
= इच्छा, कामना।
जरा
= वृद्धावस्था, बुढ़ापा।
फरा
= खिलना।
झरा
= मुरझाना, गिरना।
प्रसंग
-
प्रस्तुत अवतरण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'शिरीष का फूल' निबन्ध से
लिया गया है। इसमें जीवन के शाश्वत सत्य के बारे में चर्चा की गई है।
व्याख्या
-
लेखक ने शिरीष के फूलों के माध्यम से बताया है कि इसके पुराने फूल नए फल आने तक स्वयं
नहीं झरते हैं। अपने रहने के अधिकार को छोड़ना नहीं चाहते और इसी तरह का व्यवहार नेताओं
का होता है। वे भी अपने अधिकार की इच्छा को समय रहते ही खत्म नहीं करते हैं। मनुष्य
यह भ न जाता है कि वृद्धावस्था और मृत्यु, ये दोनों ही बातें या अवस्था समय इस संसार
के अत्यधिक परिचित और अत्यधिक प्रामाणिक सत्य हैं।
इनसे
सभी परिचित हैं और इस सत्य को जानते हैं। महाकवि तुलसीदास ने भी बड़े दुःख के साथ इ.।
सत्य को प्रमाणित किया था कि इस धरती का साक्ष्य यही है कि जिसने जन्म लिया अर्थात्
खिला उसकी मृत्यु अर्थात् मुरझाना निश्चित है। निर्माण के साथ ही उसका ध्वंस निश्चित
है। लेखक कहते हैं कि मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि तुम क्यों नहीं इस बात
को समझते कि खिलने के बाद झड़ना निश्चित ही है। पर सुनता कोई नहीं है। यहाँ लेखक शाश्वत
सत्य की व्यंजना करते हुए दुःख प्रकट कर रहे हैं।
विशेष
:
1.
द्विवेदीजी ने सार्वकालिक सत्य की व्याख्या तुलसीदास के कथनों द्वारा प्रमाणित की है।
2.
भाषा खड़ी बोली हिन्दी सहित संस्कृतनिष्ठ है। विचारों का गाम्भीर्य रूप प्रकट है।
5.
महाकाल देवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण
थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि
का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें
तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो. आगे
की ओर मैंह किये रहो तो कोडे की मार से बच भी सकते हो। जमे किमरे!
कठिन-शब्दार्थ
:
महाकाल
= मृत्यु के देवता शिव।
जीर्ण
= कमजोर, सूखे हुए।
दुरंत
प्राणधारा = जीने की इच्छा।
सर्वव्यापक
= चारों तरफ व्याप्त।
कालाग्नि
= मृत्यु रूपी अग्नि।
प्रसंग
- प्रस्तुत अवतरण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'शिरीष का फूल' निबन्ध से
लिया गया है। लेखक इसमें जीवन के सत्य का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या
-
लेखक बता रहे हैं कि मृत्यु के देवता लगातार धूप, लू, शीत, बारिश जैसे विघ्नों से अपने
कोड़े चला रहे हैं। जो भी कमजोर व दुर्बल होते हैं, साहस और हिम्मत की कमी होती है
वे झर जाते हैं, या मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। जिनमें साहस और हिम्मत है, जिजीविषा
या जीने की इच्छा से पूरित हैं, समय की चाल को समझते हैं वे टिक जाते हैं। जीवन-इच्छा
और मत्य-अग्नि का निरन्तर यद्ध चलता रहता है।
मुर्ख
समझते हैं कि जहाँ हैं वहीं टिके रहेंगे तो कालदेवता की आँखों से छिप जाएँगे। लेकिन
ऐसे लोग बुद्धिहीन हैं। जीवन जीने की कला हिलने-डुलने, स्थान बदलने में है। कोड़े की
मार छिपने में अर्थात् पीठ पर पड़ती है लेकिन अगर आगे की तरफ मुँह करके बढ़ते रहते
रहें, कर्म करते रहें तो कोड़े की मार से बचने की संभावना बनी रहती है। जहाँ एक ही
जगह जम गये कि मृत्यु ने पकड़ लिया। चलना, गतिशील रहना, परिवर्तन स्वीकारना, संसार
का, जीवन का सत्य है, इससे मुँह छिपाना मृत्यु समान है। .
विशेष
:
1.
लेखक ने परिवर्तन के शाश्वत नियम की सुन्दर व्याख्या की है।
2.
भाषा सहज प्रवाहमय एवं हिन्दी-संस्कृत युक्त है।
6.
यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न
माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हजरत न जाने कहाँ से अपना
रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया
है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। जरूर खींचता होगा।
नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतु जाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता
था?
कठिन-शब्दार्थ
:
याम
= समय, प्रहर।
प्रसंग
-
प्रस्तुत अवतरण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'शिरीष का फूल' निबन्ध से
लिया गया है। इसमें लेखक ने शिरीष के विषय में बताया है।
व्याख्या
- लेखक ने बताया है कि शिरीष एक अद्भुत साधु-संन्यासी की तरह है। दुःख हो या सुख, न
किसी से कुछ लेना और न किसी को कछ देना, जैसा व्यवहार रखता है। इसी भाँति अवधतों का
व्यवहार होता में जीवन जीते हैं। सभी इच्छाओं-आशाओं से परे, हर दुःख से सुख से अलग
निर्लिप्त जीवन जीते हैं। वैसे ही शिरीष भी चाहे धरती-आसमान भयंकर गर्मी में जल रहे
हों ये महाशय न जाने कहाँ से अपना प्राणतत्त्व रस खींचते रहते हैं।
अपने
ही आनन्द में आठों प्रहर मग्न रहते हैं। लेखक ने बताया कि एक वनस्पतिशास्त्री ने बताया
कि शिरीष उस श्रेणी का पेड़ है जो जीने के लिए वायुमंडल से अपना रस खींचता है। अन्य
पौधे जमीन से खींचते हैं वह सूखी तो स्वयं भी सूख जाते हैं। लेकिन वायुमंडल की नमी
को खींचने वाला शिरीष तभी तो भयंकर लू के थपेड़ों में भी कोमल पंखुड़ियों वाले फूल
और उसमें स्थित सुकुमार पराग (केसर) को जिन्दा रख पाता है। यही विशेषता उसके भयंकर
परिस्थितियों में जीने का आधार-तत्त्व है।
विशेष
:
1.
लेखक ने शिरीष के जीने की कला के विषय में विस्तार से बताया है।
2.
भाषा सरल-सहज व प्रवाहमयी है। मुहावरे का प्रयोग हुआ है।
7.
अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष
के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक। कालिदास भी जरूर अनासक्त योगी रहे
होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और 'मेघदूत' का काव्य उसी
प्रकार के अनासक्त-अनाविल उन्मुक्त ददय में उमड़ सकता है।
कठिन-शब्दार्थ
:
अवधूत
= साधु-संन्यासी।
सरस
= रस सहित।
बेपरवा
= बिना किसी परवाह के।
अनासक्त
= निर्लिप्त, बिना किसी इच्छा के।
अनाविल
= निर्मल, स्वच्छ।
उन्मुक्त
= खुला हुआ, बंधनरहित।
प्रसंग
- प्रस्तुत अवतरण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'शिरीष का फूल' निबन्ध से
लिया गया है। ताया है कि जो कर्मयोगी, निर्मल हृदय वाले हैं उन्होंने ही सरस रचनाओं
का सृजन किया है।
व्याख्या
-
द्विवेदीजी बताते हैं कि साधु-संन्यासी ही वे कर्मयोगी हैं जो संसार की सभी इच्छाओं
से युक्त हैं। उन्होंने ही इस संसार को सबसे अच्छी रचनाएँ दी हैं। उनकी रचनाओं में
जीवन का सार-तत्त्व है, शिक्षा है, संदेश है। संत कबीरदास बहुत कुछ इस शिरीष वृक्ष
के समान थे। मस्त और बिना किसी चिन्ता-फिक्र के, पर जीवन रस से पूर्ण एवं मस्त-मौला
थे।
शिरीष
की भाँति ही हर कठिन परिस्थिति में जीने की कला से पूर्ण उत्साही थे। लेखक बताते हैं
कि कालिदास भी इसी तरह कबीरदास और शिरीष की भाँति अनासक्त रहे होंगे, जिन्हें सांसारिक
इच्छाओं से कोई लगाव नहीं था। जिस तरह शिरीष के फूल धूप, धूल, गर्मी, लू, तपन, सर्दी,
ओले, बारिश में हर तरह के मौसम के थपेड़ों से गुजरकर सुन्दर फूलों के साथ जीता है उसी
तरह मेघदूत काव्य भी अनासक्त और निर्मल हृदय वाले कालिदास के हृदय से ही रचित हो सकता
है। कहने का आशय है कि बाह्य जीवन की कठोरता हृदय को उतना ही सरल व कोमल बना देती है।
विशेष
:
1.
लेखक ने शिरीष के फूलों की कोमलता का साम्य अवधूत कवियों से किया है।
2.
भाषा सरल-प्रवाहमयी एवं भावप्रेषणीय है।
8.
हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया
है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा
रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत
है। शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से
रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हैं तब-तब
हक उठती है-हाय, वह अवधत आज कहाँ है!
कठिन-शब्दार्थ
:
स्थिर
= शान्त।
हूक
= पीड़ा, कसक, शूल।
प्रसंग
- प्रस्तुत अवतरण लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'शिरीष का फूल' निबन्ध से
लिया गया है। इसमें लेखक ने वर्तमान परिस्थितियों एवं गाँधीजी के विषय में विचार प्रस्तुत
किये हैं।
व्याख्या
-
लेखक बताते हैं कि हमारे देश में स्वार्थ, चोरी, भ्रष्टाचार के कारण जो मारना-काटना,
अग्नि लगाना, लूट पाट तथा खून-खराबे का माहौल बना हुआ है उसके भीतर अर्थात् उस देश
में क्या कोई शान्ति से रह सकता है? लेकिन शिरीष रह सका है और शिरीष की भाँति ही अपने
देश का एक बूढ़ा रह सका था। कहने का आशय है कि ऐसी परिस्थितियों में जब देश में स्वतंत्रता
और विभाजन को लेकर अस्थिरता फैली हुई थी तब गाँधीजी ही ऐसे कर्मयोगी थे जिन्होंने अहिंसा
एवं शांति से मार्ग निकाला था।
लेखक
कहते हैं कि जिस प्रकार स्वयं के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए शिरीष वायुमंडल रस
या नमी खींच कर कोमल और कठोर दोनों वृत्तियों को धारण किये रहता है उसी प्रकार गाँधीजी
भी हृदय से सभी के लिए कोमल एवं नियमों को निभाने में कठोरता का प्रयोग करते हैं। यह
प्राण शक्ति उन्हें भी शिरीष की भाँति विपरीत परिस्थितियों में ही मिलती है। लेखक कहते
हैं कि वे जब-जब शिरीष की तरफ देखते हैं उनके हृदय में पीड़ा उठती है कि वह अवधूत अर्थात्
गाँधीजी कहाँ हैं या उनके जैसा संयमी, कठोर, कोमल हृदय वाले महापुरुष अब कहाँ हैं।
विशेष
:
1.
लेखक ने गाँधीजी के विषय में उनकी कोमलता और कठोरता को लेकर विचार व्यक्त किये हैं।
2.
भाषा सरल-प्रवाहमयी एवं भावप्रेषणीय है।
3.
गाँधीजी को भी अवधूत समान बताया गया है।