12th आरोह 18. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर (श्रम विभाजन और जाति

12th आरोह 18. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर (श्रम विभाजन और जाति
12th आरोह 18. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर (श्रम विभाजन और जाति

 पाठ के साथ

प्रश्न 1. जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आम्बेडकर का क्या तर्क है?

उत्तर : आम्बेडकर का तर्क है कि जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का एक रूप मानना अनुचित है। क्योंकि ऐसा विभाजन अस्वाभाविक और मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। इसमें व्यक्ति की क्षमता का विचार किये बिना उसे वंशगत पेशे से बाँध दिया जाता है, वह उसके लिए अनुपयुक्त एवं अपर्याप्त भी हो सकता है। फलस्वरूप गरीबी एवं बेरोजगारी की समस्या आ जाती है।

प्रश्न 2. जाति-प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?

उत्तर : भारतीय समाज में जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका जातिगत पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। यदि वह पेशा उसके लिए अनुपयुक्त हो अथवा अपर्याप्त हो तो उसके सामने भुखमरी की स्थिति खड़ी हो जाती है। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का भी एक प्रमुख कारण बनती रही है।

प्रश्न 3. लेखक के मत से 'दासता' की व्यापक परिभाषा क्या है?

उत्तर : लेखक के अनुसार दासता केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। दासता में कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। इसमें कुछ लोगों को अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशा अपनाना पड़ता है तथा व्यवसाय-चयन की स्वतन्त्रता नहीं रहती है।

प्रश्न 4. शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आम्बेडकर 'समता' को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?

उत्तर : अम्बेडकर का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता के विकास का पूरा अधिकार है। हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासम्भवं समान व्यवहार करना चाहिए। समाज के सभी सदस्यों को आरम्भ से ही समान अवसर तथा समान व्यवहार उपलब्ध कराये जाने चाहिए। समता यद्यपि काल्पनिक वस्तु है, फिर भी संभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए यही मार्ग उचित है और व्यावहारिक भी है।

प्रश्न 5. सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?

उत्तर : डॉ. आम्बेडकर भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि से जातिवाद का उन्मूलन चाहते थे। क्योंकि कुछ लोग किसी उच्च वंश या जाति में पैदा होने से ही उत्तम व्यवहार के हकदार बन जाते हैं। परन्तु थोड़ा विचार करके देखा जावे, तो इसमें उनका अपना योगदान क्या है? अतः मनुष्य की महानता उसके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप तय होनी चाहिए। वैसे भी जातिवाद की भावना समता में बाधा उत्पन्न करती है।

प्रश्न 6. आदर्श समाज के तीन तत्त्वों में से एक भ्रातृता' को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस 'भ्रातृता' शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे/समझेंगी?

उत्तर : लेखक ने आदर्श समाज के तीन तत्त्व माने हैं समता, स्वतन्त्रता और भ्रातृता। समाज के इस तीसरे तत्त्व 'भ्रातृता' पर विचार करते समय लेखक ने स्त्रियों का अलग से उल्लेख नहीं किया है। इसमें 'भ्रातृता' शब्द का आशय सामाजिक जीवन में गतिशीलता, अबाध सम्पर्क तथा बहुविध हितों में सबका सहभाग होना है। इस तरह भ्रातृता का अर्थ 'भाईचारा लिया जाना उचित है, इसे 'बन्धुता' भी कह सकते हैं। 'भ्रातृता' शब्द संस्कृतनिष्ठ है, जबकि 'भाईचारा' शब्द सरल एवं सद्भावजनक व्यवहार का सूचक है।

पाठ के आसपास

प्रश्न 1. आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है-उस संदर्भ में शेखर जोशी की कहानी 'गलता लोहा' पर पुनर्विचार कीजिए।

उत्तर : 'गलता लोहा' कहानी बहुत से मुद्दों पर प्रकाश डालती है। इसमें दो बालक हैं। एक का नाम धनराम है, जो लुहार का बेटा है। दूसरा लड़का मोहन है, जो ब्राह्मण का बेटा है। यहाँ मास्टर धनराम को शिक्षा ग्रहण करने के लायक नहीं मानता है। वह यह मान लेता है कि लुहार का बेटा होने के कारण शिक्षा इसके लिए नहीं बनी है और वह धनराम के मन में भी यह बात बिठा देते हैं। उसे अपनी लुहार जाति होने के कारण शिक्षा के स्थान पर लुहार के कार्य को ही अपनाना पड़ता है। यही सख्त व्यवहार धनराम को शिक्षित नहीं बनने देता है। आंबेडकर जी ने यही बात कही है। यदि धनराम पर ध्यान दिया जाता, तो वह अपने पैतृक व्यवसाय से बाहर आ सकता था। इस तरह वह दूसरा व्यवसाय कर सकता था। मोहन परिस्थिति वश लुहार का कार्य करने के लिए विवश होता है।

प्रश्न 2. कार्यकुशलता पर जाति-प्रथा का प्रभाव विषय पर समूह में चर्चा कीजिए। चर्चा के दौरान उभरने वाले बिंदुओं को लिपिबद्ध कीजिए।

उत्तर : कार्य कुशलता पर जाति प्रथा का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि एक चित्रकार का बेटा अच्छा चित्रकार हो या एक व्यापारी का बेटा अच्छा व्यापारी हो। हर व्यक्ति की अपनी जन्मजात योग्यता तथा क्षमता होती हैं। एक चित्रकार का बेटा अच्छा व्यापारी बन सकता है और एक व्यवसायी का बेटा अच्छा चित्रकार। अतः हमें यह अधिकार होना चाहिए कि व्यक्ति को उसकी कार्य कुशलता के आधार पर पेशे चुनने का अधिकार हो। न कि जाति प्रथा के आधार पर किसी मनुष्य का पेशा निर्धारित किया जाए। जाति प्रथा ने लंबे समय तक लोगों का शोषण ही नहीं किया है बल्कि उनकी योग्यताओं तथा क्षमताओं का भी गला घोंटा है। यह उचित नहीं है।

इन्हें भी जाने

आंबेडकर की पुस्तक जातिभेद का उच्छेद और इस विषय में गांधीजी के साथ उनके संवाद की जानकारी प्राप्त कीजिए।

उत्तर : गांधीजी और अम्बेडकर में यह समता थी कि दोनों ही दलितोत्थान के प्रबल पक्षधर और जाति प्रथा के कट्टर विरोधी थे, पर जहाँ अम्बेडकर दलितों के उत्थान हेतु अलग दलित राष्ट्र के समर्थक थे, वहीं महात्माजी इसके प्रबल विरोधी थे। तभी तो महात्माजी ने यह योजना बनायी कि दलितों के उत्थान के लिए हर सम्भव प्रयास किया जायेगा फिर चाहे वह प्रचारात्मक हो, व्यावहारिक हो या आरक्षण के माध्यम से हो।

'हिंद स्वराज' नामक पुस्तक में गांधीजी ने कैसे आदर्श समाज की कल्पना की है, उसे भी पढ़ें।

उत्तर : छात्रों को यह पुस्तक, पुस्तकालय से प्राप्त करके अवश्य पढ़नी चाहिये। यह तो मात्र उनके विचारों के दो-एक बिन्दु ही प्रस्तुत हैं।

गांधीजी पर रस्किन और टालस्टाय की छाया थी। अतः वे श्रम पर बल देते थे। उसी आधार पर समाज का ढाँचा खड़ा करना चाहते थे। चरखा उनका इसी प्रकार का प्रयोग था । प्रत्येक हाथ को काम। साथ ही उनकी मान्यता थी समाज की आदर्श स्थिति के तीन आधार हैं-समता, स्वतन्त्रता और आर्थिक सबलता (रोजगार)।

वे यह भी मानते हैं 'स्वराज' मात्र राजनैतिक नहीं सामाजिक स्वराज अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वयं का राजा है अपना समाज, अपना कारोबार, अपनी व्यवस्था, फिर शोषण की समस्या कहाँ रहेगी? जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ हैं- रोटी, कपड़ा और मकान। जब इन पर समाज का अधिकार होगा, सबका होगा, समान होगा, समता बढ़ेगी, विद्वेष शोषण मिटेगा - समाज का आदर्श रूप खड़ा हो जायेगा, यही था उनका आर्थिक एवं सामाजिक स्वराज्य ।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. 'असमान प्रयत्न के कारण असमान व्यवहार' से आप क्या समझते हैं? क्या आप इस दृष्टिकोण से सहमत हैं? मौलिक उत्तर दीजिए।

उत्तर : श्रम करने की शक्ति या शरीर-रचना के अनुसार व्यक्ति काम करता है, इस कारण उसका प्रयत्न असमान रहता है और उसी अनपात से उसे लाभ मिलता है। डॉ. अम्बेडकर का यह कथन आंशिक कुल, श्रेष्ठ शिक्षा, पैतृक सम्पदा और व्यावसायिक प्रतिष्ठा के कारण असमानता का व्यवहार उचित ही माना जाता है।

प्रश्न 2. मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर करती है? बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर के 'मेरी कल्पना का आदर्श समाज' पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : बाबा साहेब आम्बेडकर ने बताया कि मनुष्य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर करती है -

1. शारीरिक वंश-परम्परा

2. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परम्परा के रूप में माता-पिता की कल्याण-कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन. आदि सभी उपलब्धियाँ तथा

3. मनुष्य के अपने प्रयत्न।

प्रश्न 3. लेखक ने किन कारणों से जाति-प्रथा को अस्वीकार्य माना है?

अथवा

किन दोषों के कारण जाति-प्रथा स्वीकार्य नहीं है?

उत्तर : लेखक ने जाति-प्रथा के अनेक कारणों जैसे - अस्वाभाविक श्रम-विभाजन, श्रमिक-वर्ग में भेदभाव, ऊँच नीच की भावना, वंशानुगत कार्य होने से रुचि और क्षमता का ध्यान न रखना, अपर्याप्त व्यवसाय से बेरोजगार रहना, स्वतन्त्रता-समता एवं बन्धुता की भावना में कमी आना। जिनके परिणामस्वरूप आदर्श समाज का निर्माण रुक जाता है।

प्रश्न 4. डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी के क्या कारण बताए हैं? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : आम्बेडकर ने प्रमुख कारण जाति-प्रथा, जाति पर आधारित श्रम का दोषपूर्ण विभाजन, श्रमिकों की क्षमता का आकलन किये बिना उनका अस्वाभाविक विभाजन और वंशानुगत रोजगार से बँध जाना बताये हैं। इन कारणों से उनकी स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि और आत्मशक्ति दब जाती है। इससे उनका विकास रुक जाता है।

प्रश्न 5. जाति-प्रथा से समाज को क्या आर्थिक हानि होती है?

उत्तर : जाति-प्रथा के अनुसार अपना पेशा निश्चित करने में उसकी रुचि, क्षमता और प्रशिक्षण आदि का कोई योगदान नहीं रहता है। मजबूरी में अपनाने से वह जीवन-भर के लिए उससे बँध जाता है। जिससे उसकी कार्य-कुशलता कमजोर पड़ जाती है और आर्थिक लाभ भी नहीं मिलता है। अतः जाति-प्रथा से समाज एवं व्यक्ति को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।

प्रश्न 6. डॉ. आम्बेडकर ने आदर्श समाज के सम्बन्ध में क्या मान्यता व्यक्त की है?

उत्तर : डॉ. आम्बेडकर की मान्यता है कि आदर्श समाज स्वतन्त्रता, समता और भ्रातृता पर आधारित हो। इसके लिए आदर्श समाज में गतिशीलता तथा बहुविध हितों का सहभाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सहभागी होना चाहिए। जिससे कर्तव्यों और इच्छाओं में सुन्दर समन्वय स्थापित हो जायेगा। इसी का दूसरा नाम लोकतन्त्र है।

प्रश्न 7.'समता' पर विचार करते हुए डॉ. आम्बेडकर ने क्या तर्क दिये? बताइये।

उत्तर : डॉ. आम्बेडकर ने तर्क दिया कि -

1. शारीरिक वंश परम्परा

2. उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परम्परा से प्राप्त उपलब्धियाँ तथा.

3. मनुष्य के अपने प्रयत्न-इन तीनों दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते हैं, फिर भी कुछ विशेषताओं के कारण उनमें असमान व्यवहार नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 8."समता यद्यपि काल्पनिक जगत् की वस्तु है।" लेखक ने किस आशय से ऐसा कहा है?

उत्तर :प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक क्षमता, वंश-परम्परा या जन्म से, सामाजिक उत्तराधिकार की परम्परा से तथा अपने प्रयत्नों के कारण दूसरों से भिन्न और असमान होता है। इस तरह समता पहले से ही स्वयं नहीं आती है। समता को आदर्श समाज के निर्माण हेतु अपनायी जाती है। अतः समाज-निर्माण में समता की सत्ता काल्पनिक है।

प्रश्न 9. सामाजिक समानता के समर्थक होते हुए भी डॉ. आम्बेडकर किन स्थितियों में असमान व्यवहार को उचित मानते हैं?

उत्तर : डॉ. आम्बेडकर कुछ दशाओं में व्यक्ति-विशेष के दृष्टिकोण से, असमान प्रयत्न के कारण अथवा मनुष्यों के प्रयत्नों में भिन्नता के कारण असमान व्यवहार को उचित मानते हैं। उत्तम कुल, श्रेष्ठ शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक सम्पदा तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठा के कारण भी असमानता का व्यवहार उचित ही माना जाता है।

प्रश्न 10. डॉ. आम्बेडकर ने 'दासता' किसे बताया है? समझाइए।

उत्तर : डॉ. आम्बेडकर के अनुसार जब अपना व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता न हो, तो उसका अर्थ 'दासता' मानना चाहिए। क्योंकि दासता का आशय केवल कानूनी पराधीनता के अन्तर्गत ही नहीं माना जाता, अपितु जिसमें कुछ व्यक्तियों को अपनी क्षमता एवं रुचि के विरुद्ध पेशा अपनाने को विवश होना पड़ता है। ऐसी विवशता को भी दासता कहा गया है।

प्रश्न 11. "समाज के आर्थिक विकास में जाति-प्रथा हानिकारक है।" इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।

अथवा

"आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है।" क्या आप इस दृष्टिकोण से सहमत हैं? अपने विचार लिखिए।

उत्तर : समाज के आर्थिक विकास के लिए मानव-श्रम का उचित नियोजन परमावश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम सभी मनुष्यों को उनकी रुचि, क्षमता और उपयोगिता के अनुसार पेशा अपनाने की छूट मिलनी चाहिए। साथ ही रोजगार के समान अवसर मिलने चाहिए, क्योंकि जाति-प्रथा में वंशानुगत पेशा अपनाने की विवशता से व्यक्ति की क्षमता का उपयोग नहीं होता है।

प्रश्न 12. डॉ. भीमराव आम्बेडकर जातिप्रथा के अन्तर्गत किस विडम्बना की बात करते हैं?

उत्तर : डॉ. आम्बेडकर विडम्बना की बात कहते हुए बताते हैं कि आधुनिक युग में भी जातिवाद पोषकों की कमी नहीं है। जिसका स्वरूप जातिप्रथा, श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप है जो श्रम विभाजन के साथ स्वतः ही स्वाभाविक रूप से हो जाता है और यही विडम्बना है।

प्रश्न 13. श्रम विभाजन के पोषक श्रमिक विभाजन के पक्ष में क्या तर्क देते हैं?

उत्तर : जातिवाद के पोषकों का मानना है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए श्रम विभाजन आवश्यक मानता है और जातिप्रथा, श्रम विभाजन का ही रूप है इसलिए श्रमिक विभाजन का स्वतः ही तय हो जाने में कोई बुराई नहीं है।

प्रश्न 14. जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर डॉ. आम्बेडकर साहब की प्रमुख आपत्तियाँ क्या हैं?

उत्तर : जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्क पर डॉ. आम्बेडकर की प्रमुख आपत्तियाँ ये हैं कि जातिप्रथा ने श्रम विभाजन का रूप ले लिया है और किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन व्यवस्था श्रमिकों के विभिन्न पहलुओं में अस्वाभाविक रूप से विभाजन नहीं करती है।

प्रश्न 15. जातिप्रथा, भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कही जा सकती है?

उत्तर : भारतीय समाज में जातिप्रथा के आधार पर श्रम विभाजन और श्रमिक विभाजन अस्वाभाविक है। क्योंकि जातिगत श्रम विभाजन श्रमिकों की रुचि अथवा कार्यकुशलता के आधार पर नहीं होता, बल्कि माता के गर्भ में ही श्रम विभाजन कर दिया जाता है। जो विवशता एवं अरुचिपूर्ण होने के कारण गरीबी और बेरोजगारी को बढ़ाता है।

प्रश्न 16. डॉ. आम्बेडकर ने किन पक्षों में जातिप्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में माना है?

उत्तर : डॉ. आम्बेडकर ने अस्वाभाविक श्रम विभाजन, बढ़ती बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी, अरुचि और विवशता, श्रम का चुनाव, गतिशील और आदर्श समाज तथा वास्तविक लोकतंत्र के स्वरूप में प्रभावित करने वाली जातिप्रथा को हानिकारक प्रथा के रूप में माना है।

प्रश्न 17. जातिप्रथा का दूषित सिद्धान्त क्या है?

उत्तर : यही कि यह मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किये बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही त गर्भधारण के समय से है कर देती है।

प्रश्न 18. कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?

उत्तर : सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमताओं को विकसित करें, जिससे कि वे अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सकें। उनके साथ असमान व्यवहार न करें तथा समान अवसर उपलब्ध करवाएँ।

प्रश्न 19. जातिप्रथा को किस प्रकार की स्वतंत्रता पर आपत्ति नहीं है?

उत्तर : गमनागमन की स्वतंत्रता अर्थात् आने-जाने की स्वतत्रता, शारीरिक सुरक्षा की स्वतंत्रता, सम्पत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता, जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक औजार एवं सामग्री रखने के अधिकार की स्वतंत्रता पर जातिप्रथा को कोई आपत्ति नहीं है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए किन विशेषताओं का होना आवश्यक है? पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए समाज में बहुविध प्रकार के हित एवं कल्याणकारी कार्यों में सबका भाग होना चाहिए तथा सभी को मिलजुलकर उन हितों की रक्षा के प्रति सजग और सतर्क होना चाहिए। सामाजिक जीवन में निर्बाध रूप से मेलजोल बनाये रखने के सम्पर्क साधनों व अवसरों की उपलब्धता बनी रहनी चाहिए। मेल-जोल या भाई-चारा इस प्रकार होना चाहिए जैसे दूध और पानी का मिश्रण, जो आपस में मिलते ही समरूप हो जाता है।

सभी के मध्य श्रद्धा व सम्मान का भाव होना चाहिए। विश्वास और आस्था की अखंड निधि होनी चाहिए। ऊँच-नीच व असमता का भाव दूर-दूर तक किसी की सोच में भी नहीं होना चाहिए। समता, भातृता एवं स्वतंत्रता तीनी तत्त्वों का अद्भुत समन्वय लोकतंत्र की नींव होनी चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन या पद्धति नहीं है वरन् लोकतंत्र सामूहिक दिनचर्या की एक रीति और समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।

प्रश्न 2. समता से तात्पर्य एवं इसके तत्त्वों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : फ्रांसिसी क्रांति के नारे में 'समता' शब्द विवाद का विषय रहा है। कहा जाता है कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते हैं। लेकिन यह एक तथ्य होते हुए भी विशेष महत्त्व नहीं रखता है, क्योंकि शाब्दिक अर्थ में 'समता' असंभव होते हुए भी एक नियामक सिद्धान्त है।

इसके तीन तत्त्व प्रमुख हैं -

1. शारीरिक वंश परम्परा

2. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परम्परा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि।

3. मनुष्य के अपने प्रयत्न।

इन तीनों दृष्टियों का विवेचन करें तो अवश्य ही सभी मनुष्य समान नहीं होते हैं लेकिन सामूहिक रूप से इनका वर्गीकरण या श्रेणीकरण संभव नहीं होता है तो सामूहिक हित की दृष्टि से व्यवहार्य सिद्धान्त का प्रयोग करते हुए इसे . मानना सबके लिए मानवीय एवं उचित है।

प्रश्न 3. श्रम विभाजन और श्रमिक विभाजन में अंतर स्पष्ट कीजिए। ...

उत्तर : श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है। जातिप्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाये तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है। श्रम विभाजन में क्षमता और कार्यकुशलता के आधार पर काम का बँटवारा होता है जबकि श्रमिक विभाजन में लोगों को जन्म के आधार पर बाँटकर पैतृक पेशे को अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है।

श्रम-विभाजन में व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार व्यवसाय का चयन करता है। श्रमिक-विभाजन में व्यवसाय का चयन तो दूर की बात है, व्यवसाय परिवर्तन की भी अनुमति नहीं होती है। जिससे समाज में ऊँच-नीच, भेदभाव, असमानता का भाव पैदा होता है। यह अस्वाभाविक विभाजन है। इससे गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

प्रश्न 4. जातिप्रथा किस प्रकार मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर निष्क्रिय बना देती है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : जातिप्रथा के अंतर्गत व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का कोई स्थान या महत्त्व नहीं रहता है। बहुत-से लोग 'निर्धारित कार्य को 'अरुचि' के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति में हीनभावना से ग्रस्त होकर टाल काम करने तथा कम काम करने की प्रवत्ति बनी रहती है। क्योंकि इस स्थिति में काम करने वालों का न तो दिल लगता है और न ही दिमाग तथा कुशलता प्राप्त करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। आज के उद्योग-धंधों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी जातिप्रथा द्वारा जबरन थोपे गए कार्यों को करने की विवशता है। अतः यह बात सिद्ध हो जाती है कि जातिप्रथा मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि एवं आत्म-शक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।

प्रश्न 5. आधुनिक युग में किस प्रकार जातिप्रथा व्यक्ति के क्रमिक विकास को अवरुद्ध करती है? विस्तार से स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : जातिप्रथा मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण भूखों मरने की स्थिति बन जाए। आधुनिक युग में इस प्रकार की स्थिति प्रायः आती ही रहती है। उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अचानक परिवर्तन की स्थिति आने पर मनुष्य को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ जाती है। किन्तु हिन्दू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को पेशा चुनने की स्वतंत्रता नहीं देती है। इस प्रकार प्रतिकूल परिस्थितियों में मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं हो तो उसका विकास रुक जाता है। इस प्रकार परिस्थितियों एवं विकास को दरकिनार करके जातिप्रथा समाज के विकास में अवरोध उत्पन्न करती है।

प्रश्न 6. डॉ. भीमराव आम्बेडकर का 'समता का औचित्य' या व्यवहार्य सिद्धान्त' से क्या अभिप्राय है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : 'समता का औचित्य' और 'व्यवहार्य सिद्धान्त' दोनों एक ही बात रखते हैं कि सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाये। समानता का उचित व्यवहार को ही 'व्यवहार्य सिद्धान्त' के नाम से जाना जाता है। इसका उदाहरण जैसे एक राजनीतिज्ञ का सामना बहुत बड़ी जनसंख्या से होता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय राजनीतिज्ञ के पास न तो समय होता है, न ही प्रत्येक विषय में जानकारी होती है।

जिससे कि वह अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर जरूरी व्यवहार अलग-अलग रूप से कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर व्यवहार कितना भी आवश्यक क्यों न हो, मानवता के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में बाँटा नहीं जा सकता है। ऐसी स्थिति में राजनीतिज्ञ 'व्यवहार्य सिद्धान्त' का व्यवहार प्रयोग में लेते हैं। यह व्यवहार इसलिए काम में लिया जाता है कि सभी लोग समान हैं और इनका कोई वर्गीकरण या श्रेणीकरण संभव नहीं है।

रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न

प्रश्न 1. डॉ. भीमराव आम्बेडकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : मानव मुक्ति के पुरोधा बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रेल, सन् 1891 को मध्यप्रदेश में हुआ। प्राथमिक शिक्षा के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर, उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने हेतु विदेश गए। 'द कास्ट्स इन इंडिया', 'देयर मैकेनिज्म'.'बद्धा एंड हिज धम्मा', 'द राइज एंड फॉल'.'द हिन्द वीमैन' एनीहिलेशन ऑफ कम्यूनिकेशन' आदि प्रमुख. रचनाएँ हैं।

मूक नायक, बहिष्कृत भारत, जनता (पत्रिका सम्पादन)। भारतीय संविधान के निर्माताओं में से एक आम्बेडकर आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अधिकारी हैं। जातिवादी उत्पीड़न के कारण हिन्दू समाज से मोहभंग होने के बाद बुद्ध के समतावादी दर्शन से प्रभावित होकर वे बौद्ध मतानुयायी बन गए।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा (सारांश)

लेखक-परिचय - मानव-मुक्ति के प्रखर चिन्तक डॉ. भीमराव आम्बेडकर का जन्म सन् 1891 ई. में महू (मध्यप्रदेश) में हुआ। प्राथमिक शिक्षा-प्राप्ति के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन से उच्चतर शिक्षा के लिए न्यूयार्क और फिर लन्दन गये। उन्होंने अनुवाद के जरिये पूरा वैदिक वाङ्मय पढ़ा और ऐतिहासिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक मौलिक स्थापनाएँ प्रस्तुत की। सब मिलाकर वे इतिहास मीमांसक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् तथा धर्म-दर्शन के व्याख्याता बनकर उभरे। स्वदेश में कुछ समय तक वकालत की।

समाज और राजनीति में अत्यधिक सक्रिय भूमिका निभाते हुए उन्होंने अछूतों, स्त्रियों और मजदूरों को मानवीय अधिकार एवं सम्मान दिलाने के लिए अत्यधिक संघर्ष किया। ये भारतीय संविधान के निर्माताओं में से एक थे। डॉ. आम्बेडकर जातिवादी उत्पीड़न के कारण हिन्दू समाज से लगाव त्यागकर बुद्ध के समतावादी दर्शन की ओर उन्मुख हुए तथा बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये। एकान्त-साधना, मानव-मुक्ति की कामना, जन कल्याण की भावना और बहुमुखी विद्वत्ता से ये समतावादी समाज के मार्गदर्शक बने। सन् 1956 में इनका निधन हुआ।

डॉ. भीमराव आम्बेडकर की प्रमुख रचनाएँ हैं - 'दें कास्ट्स इन इण्डिया', 'देयर मेकेनिज्म', 'जेनेसिस एण्ड डेवलपमेंट', 'हू आर द शूद्राज', 'बुद्धा एण्ड हिज धम्मा', 'थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स', 'द राइज एण्ड फॉल आफ द हिन्दू वीमैन', 'लेबर एण्ड पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी', 'बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म' आदि पुस्तकें व भाषण; 'मूक नायक', 'बहिष्कृत भारत', 'जनता' पत्रिकाओं का सम्पादन। हिन्दी में इनका सम्पूर्ण साहित्य भारत सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया है।

पाठ-सार - प्रस्तुत पाठ डॉ. भीमराव आम्बेडकर के एक भाषण का अनुवाद है। इसमें जातिवाद का विरोध किया गया है। इसका सार इस प्रकार है - 

1. जाति-प्रथा श्रम-विभाजन का रूप-इस युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है और इसमें कोई बुराई नहीं मानता है। परन्तु तर्क आपत्ति योग्य है। क्योंकि जातिवाद श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन भी करता है। इससे विभिन्न वर्गों में एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच का व्यवहार भी बढ़ता है। भारत में जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन करती है तथा इससे रुचि के अनुसार पेशा नहीं मिलता है। अतएव वंशागत एवं वर्णानुसार पेशा निर्धारित करना दोषपूर्ण है।

2. गरीबी एवं बेरोजगारी का कारण-भारत में जाति-प्रथा श्रम-विभाजन की दृष्टि से नितान्त दोषपूर्ण है। जाति-प्रथा के कारण व्यक्ति अनुपयुक्त पेशे से और अपर्याप्त जीविका से बँध जाता है। इस कारण वह गरीबी का शिकार होता है। जाति-प्रथा का श्रम-विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर न होने से विवशता बन जाता है। इससे उचित | रोजगार नहीं मिलता है। समाज में व्याप्त बेरोजगारी का यह प्रमुख कारण है।

3. लेखक की कल्पना का आदर्श समाज - जाति-प्रथा के दोषों को देखकर लेखक इस समस्या के रचनात्मक पहलू पर ध्यान दिलाता है। लेखक की कल्पना के अनुसार आदर्श समाज स्वतन्त्रता, समता और भ्रातृप्ता पर आधारित रहे। उसमें गतिशीलता होनी चाहिए, पेशा या व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता और सब कार्यों में समभाग होना चाहिए। सबको सामाजिक सम्पर्क के साधन और अवसर उपलब्ध होने चाहिए। इसमें भाईचारा और सामूहिकता होनी चाहिए। प्राप्त अनुभवों के परस्पर आदान-प्रदान में परस्पर श्रद्धा एवं सम्मान का भाव रहना चाहिए।

4. वतन्त्रता का अविरोध - आवागमन, जीवन एवं शारीरिक सरक्षा. सम्पत्ति का अधिकार. जीविकोपार्जन हेतु आवश्यक साधन-सामग्री रखने आदि की स्वतन्त्रता को लेकर किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। यदि व्यक्ति को व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता नहीं है, तो वह 'दासता' है। यह दासता केवल कानूनी पराधीनता ही नहीं होती है अपितु परस्पर व्यवहार एवं कर्त्तव्य-पालन में भी बाधक होती है। इससे व्यक्ति को इच्छा के विरुद्ध पेशा अपनाना पड़ता है।

5. समता का प्रसार - लेखक बताता है कि फ्रांसीसी क्रान्ति के नारे में समता शब्द विवादास्पद रहा है। समता के आलोचक कहते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते। मनुष्य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर है - 1. शारीरिक वंश परम्परा, 2. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परम्परा के रूप में माता-पिता की कल्याण-कामना और 3. मनुष्य के अपने प्रयत्न। इन तीनों दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते, तो क्या इनके कारण समाज को भी उनके साथ अपमान का व्यवहार करना चाहिए? इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी समता का विकास करने का पूरा अधिकार है।

6. उत्तराधिकार का भेद अनुचित-लेखक मानता है कि वंश-परम्परा तथा सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर असमान व्यवहार अनुचित है। इससे केवल सुविधासम्पन्न लोगों को ही लाभ मिलता रहेगा। न्याय का यह तकाजा है कि सभी के साथ समानता का व्यवहार किया जावे। समाज यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करना चाहता है, तो उन्हें आरम्भ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराये जावें।

7. राजनीतिज्ञों का समता-व्यवहार-एक राजनीतिज्ञ का बहुत बड़ी जनसंख्या से सामना होता है। उसके पास प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग जानने का, उसकी क्षमताओं एवं आवश्यकताओं को समझने का अवसर नहीं रहता है। मानवता के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्थिति में राजनीतिज्ञ सभी के साथ समानता का व्यवहार करता है और यही व्यवहार्य सिद्धान्त भी है। यद्यपि समता एक काल्पनिक जगत् की वस्तु है, परन्तु राजनीतिज्ञों के लिए सभी परिस्थितियों में यही एकमात्र मार्ग और उसके व्यवहार की कसौटी है।

सप्रसंग महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ

1. यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग में भी 'जातिवाद' के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता' के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है।

कठिन-शब्दार्थ :

विडम्बना = अजीब, हास्यास्पद।

पोषक = पालने वाले या मानने वाले।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित 'श्रम विभाजन और जातिप्रथा' लेख से लिया गया है। इसमें लेखक ने जातिप्रथा और श्रम विभाजन को एक ही मानते हुए विचार व्यक्त किये हैं।

व्याख्या - डॉ. आम्बेडकर कहते हैं कि हमारे देश में यह अत्यन्त ही अजीब व खेदपूर्ण बात है कि आधुनिक युग में भी जातिवाद को बढ़ावा देने वालों की कोई कमी नहीं है। आधुनिक युग में जहाँ व्यक्ति शिक्षित है, तर्कपूर्ण ज्ञान है, वहाँ जाति को लेकर आज भी व्यक्ति अज्ञानी की तरह व्यवहार रखता है। जातिप्रथा को बढ़ावा देने वाले पोषक अपनी इस बात का कोई आधारों या तों पर इसका समर्थन करते हैं।

इसका एक महत्त्वपूर्ण आधार यह है कि आज का आधुनिक समाज कार्यकुशलता के आधार पर श्रम विभाजन अर्थात् कार्यों का बँटवारा करता है और इसे समाज के लिए आवश्यक मानता है। लेखक कहते हैं कि चूँकि जाति-प्रथा का मूल आधार भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इस बात में कोई असंगत बात नजर नहीं आती या गलत नहीं है।

लेकिन दूसरी तरह से विचार करें तो इस तर्क की यही बात ही जातियों के लिए खेदपूर्ण विरोध प्रस्तुत करती है क्योंकि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिये हुए है। आशय यह है कि वंशानुगत आधार पर ही श्रम-विभाजन है और उसी आधार पर श्रमिक विभाजन स्वतः हो जाता है।

विशेष :

1. लेखक ने जातिप्रथा का दूसरा रूप श्रमविभाजन तथा श्रमिक विभाजन बताया है। क्योंकि जातिगत आधार पर ही श्रम और श्रमिक बंधे हुए हैं।

2. भाषा का रूप सीधा-सहज व व्याख्यात्मक शैली है।

2. श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करा देती है।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'श्रम विभाजन और जातिप्रथा' लेख से लिया गया है। इसमें लेखक श्रम विभाजन और श्रमिक विभाजन के मध्य अन्तर को प्रस्तुत करते हैं।

व्याख्या - डॉ. आम्बेडकर बताते हैं कि निश्चय ही किसी भी सभ्य समाज की महत्त्वपूर्ण प्रणाली श्रम-विभाजन है। कार्यों का विभाजन ही समाज की धुरी है और समाज की सही गति श्रम-विभाजन पर ही निर्भर करती है। किन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसी भी सभ्य समाज में श्रम-विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक रूप से विभाजन या बँटवारा नहीं करती। कहने का आशय है कि श्रम का विभाजन जातिगत आधार पर श्रमिकों पर नहीं थोपा जाना चाहिए।

उत्तम कार्य, उत्तम श्रमिक के आधार पर श्रम विभाजन ही सभ्य समाज को गति प्रदान कर सकता है। लेखक बताते हैं कि भारत की जाति-प्रथा की एक विशेषता या यूँ कहे कि विडम्बना है कि वह श्रमिकों का अस्वाभाविक रूप से विभाजन ही नहीं करती है वरन् श्रम के आधार पर विभाजित वर्गों के मध्य एक-दूसरे के प्रति ऊँच-नीच का भाव भी उत्पन्न कर देती है। कार्य के आधार पर छोटे-बड़े की ओछी मानसिकता को जन्म देती है तथा आपसी वैमनस्य को बढ़ावा देती है।

 विशेष :

1. जातिप्रथा के दोषों पर विचार किया गया है।

2. भाषा की सहजता अर्थ को ग्रहणीय स्वरूप प्रदान करती है।

3. जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात् परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'श्रम विभाजन और जातिप्रथा' लेख से लिया गया है। इसमें डॉ. आम्बेडकर साहब ने भारतीय जातिप्रथा के दोषों का विवेचन किया है।

व्याख्या - आम्बेडकर साहब कहते हैं कि भारतीय जातिप्रथा, रोजगार या पेशे या धंधे को पूर्व निर्धारित ही नहीं करती है वरन् मनुष्य को जीवन भर के लिए उस धंधे से बाँध देती है। यह जातिप्रथा का दोष ही है कि जिस जाति में जन्मे वही कार्य उन्हें जीवनपर्यन्त करना होगा। इस जाति प्रथा की कठोरता इतनी मजबूत है कि भले ही वह पेशा/धंधा व्यक्ति के लिए सही नहीं हो या जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं पड़ता हो तथा इन किन्हीं भी कारणों से व्यक्ति भूखे मर जाये किन्तु जाति प्रथा पेशा बदलने की छूट नहीं देती है।

लेखक बताते हैं कि जबकि आधुनिक युग की स्थिति निरंतर विकास की प्रक्रिया के कारण तकनीकों में बदलाव के कारण या उद्योग-धंधों की प्रक्रिया में बदलाव के कारण बदल रही है। कभी-कभी ऐसी स्थिति बन आती है कि व्यक्ति को मजबूरन पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ती ही है। कहने का . आशय है जातिप्रथा की जटिल प्रक्रिया के तहत व्यक्ति का आधारभूत जीवन और भी जटिल हो जाता है।

विशेष :

1. लेखक ने भारतीय जातिप्रथा से प्रभावित पक्षों पर प्रकाश डाला है।

2. भाषा सरल, सहज व भावप्रेषणीय है।

4. यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति न . देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

कठिन-शब्दार्थ :

प्रतिकूल = विपरीत।

चारा = उपाय।

पैतृक = पूर्वजों द्वारा दिया हुआ।

पारंगत = कुशल।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'श्रम विभाजन और जातिप्रथा' लेख से लिया गया है। जातिप्रथा की जटिलताओं का प्रभाव मनुष्य जीवन पर किस प्रकार पड़ता है, का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - डॉ. अम्बेडकर साहब बताते हैं कि जातिप्रथा के अन्तर्गत व्यक्त को श्रम-विभाजन की प्रक्रिया के तहत पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं है। किन्तु विपरीत परिस्थितियों में यदि पेशा नहीं बदल पाये तो फिर उसके पास भूखों मरने के ई उपाय नहीं रह जाता है। हिन्दू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा कोई दूसरा धंधा चुनने की आजादी नहीं देती है जो कि उसे उसके पूर्वजों द्वारा दिये गए पेशे से अलग हो।

भले ही व्यक्ति पैतृक धंधे के अलावा किसी अन्य पेशे में प्रवीण हो, कुशल हो, लेकिन उसे पेशा बदलने की अनुमति नहीं है। लेखक राय रखते हैं कि इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जातिप्रथा भारत में बेरोजगारी का प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण है। व्यक्ति पैतृक कार्य कर नहीं सकता या करना नहीं चाहता, दूसरा कार्य जातिप्रथा नहीं करने देती, परिणाम बेरोजगारी और भुखमरी तथा गरीबी में बढ़ोतरी।

विशेष :

1. लेखक ने कई उदाहरणों द्वारा जातिप्रथा के दोषों व परिणामों से अवगत कराया है।

2. भाषा सरल-सहज व भावप्रेषणीय है। व्याख्यात्मक शैली का वर्णन है।

5. आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग 'निर्धारित' कार्य को 'अरुचि' के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है।

कठिन-शब्दार्थ :

उत्पीड़न = सताना, दबाना।

अरुचि = बिना रुचि या पसंद के।

टालू = टालने के लिए।

निर्विवाद = बिना किसी विवाद या तर्क के।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'श्रम विभाजन और जातिप्रथा' लेख से लिया गया है। लेखक ने इसमें जातिप्रथा के कारण पेशे पर पड़ते दुष्प्रभाव को इंगित किया है।

व्याख्या - डॉ. साहब कहते हैं कि पैतृक पेशे से सम्बंधित उद्योगों में गरीबी या सताया या दबाये जाने वाली समस्या इतनी बड़ी नहीं है जितनी कि बहुत से लोगों द्वारा पहले से तय किये गए कार्य को अरुचिपूर्ण ढंग से या बिना मन के रहकर विवशतापूर्ण करना। ऐसी स्थिति में मनुष्य स्वाभाविक रूप से बुरी भावना से या हीन भावना से ग्रस्त होकर काम को टालने के भाव से करता है। इस तरह की भावना से ग्रस्त हुआ कार्य या तो कम हो पाता है या फिर उसकी गुणवत्ता में निःसन्देह त्रुटि मिलती है।

क्योंकि जबरदस्ती द्वारा थोपे गए कार्य को करने में न तो दिल लगता है और न ही दिमाग, इस तरह के कार्य में कुशलता या गुणवत्ता किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है? लेखक कहते हैं कि अंततः बिना किसी तर्क या विरोध के बाद यह सिद्ध हो जाता है कि किसी भी कार्य के आर्थिक पहलू पर जाति-प्रथा पूर्णतः हानिकारक प्रभाव डालती है। जातिप्रथा आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों को खंडित कर देती है।

विशेष :

1. लेखक ने जातिप्रथा से उत्पन्न हानिकारक प्रभावों का वर्णन किया है।

2. भाषा की प्रवाहशीलता, सहजता, सरल है।

6. मेरा आदर्श-समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात् भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श-समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविध हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए।

कठिन-शब्दार्थ :

समता = समानता।

भ्रातृता = भाईचारा।

वांछित = जरूरी या आवश्यक।

संचारण = प्रसार।

सजग = तैयार, चौकस।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'मेरी कल्पना का आदर्श समाज' लेख से लिया गया है। इसमें लेखक ने आदर्श समाज की परिकल्पना प्रस्तुत की है।

व्याख्या - डॉ. आम्बेडकर साहब कहते हैं कि मेरा आदर्श समाज सभी की स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारे पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है? भ्रातृता अर्थात् भाई-चारे से आपसी मेल-मिलाप, एक-दूसरे की समझ से किसी को क्या परेशानी हो सकती है? लेखक कहते हैं कि किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी जरूरी परिवर्तन समाज के एक किनारे से लेकर दूसरे किनारे तक तीव्र गति से प्रसारित हो सके।

कहने का आशय है कि भाई-चारे की गतिशीलता से, आपसी प्रेम व सौहार्द की गरिमा से सभी एक-दूसरे से जुड़े रहें। इस तरह की सहभागिता से समाज के बहुत प्रकार के हितकारी और कल्याणकारी कार्य सम्पन्न होंगे तथा सबको समाज के इन कल्याणकारी हितों के प्रति सजगता या जागरूकता रखनी चाहिए। तभी आदर्श समाज की परिकल्पना साकार हो सकती है।

विशेष :

1. लेखक ने समता, भ्रातृता के आधार पर समाज की आदर्श कल्पना का सार समझाया है।

2. भाषा प्रवाह गतिशील, सरल व सहज है।

7. सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह है कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है, और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।

कठिन-शब्दार्थ :

अबाध = बाधारहित।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'मेरी कल्पना का आदर्श समाज' लेख से लिया गया है। इसमें लेखक ने लोकतंत्र के विषय में बताया है।

व्याख्या - डॉ. आम्बेडकर बताते हैं कि सामाजिक जीवन में बिना किसी बाधा के आपसी मेलजोल या सम्पर्क हेतु अनेक साधन और अवसर रहने चाहिए। आशय है कि सामाजिक तौर पर जब अवसर उपलब्ध होंगे तो आपसी मेलजोल विकसित होगा। जिस प्रकार दूध और पानी को आपस में मिलाकर वापस अलग-अलग नहीं किया जा सकता उसी प्रकार भाईचारे का स्वरूप भी इसी प्रकार का होना चाहिए और इसी का नाम लोकतंत्र कहलाता है।

चूंकि लोकतंत्र यानि लोगों की शक्ति को प्रदर्शित करने वाला तंत्र माना जाता है इसलिए लोकतंत्र केवल शासन या सत्ता चलाने वाली पद्धति या कार्यप्रणाली नहीं है। मूलतः लोकतंत्र सामूहिक रूप से लोगों की दिनचर्या का एक प्रकार तथा समाज द्वारा आपस में मिलजुलकर सम्मिलित रूप से अपने कार्य-अनुभवों के आपसी आदान-प्रदान का नाम लोकतंत्र है। जिसमें लोग आपसी प्रेम और सौहार्द द्वारा एक-दूसरे के लिए कल्याणकारी सोच व कार्य दोनों रखते हैं। .

विशेष :

1. लेखक ने बहुत ही सुन्दर तरीके से लोकतंत्र की व्याख्या की है।

2. भाषा सारगर्भित एवं व्याख्यात्मक है। सरल-सुन्दर सहज शब्दों का प्रयोग है।

8. जाति-प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के लक्षण एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे 'दासता' में जकड़कर रखना होगा।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित 'मेरी कल्पना का आदर्श समाज' लेख से लिया गया है। इसमें लेखक ने जाति प्रथा और व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के मध्य अन्तर स्पष्ट किया है।

व्याख्या - डॉ. आम्बेडकर कहते हैं कि जाति-प्रथा को पालने वाले, उसको बढ़ावा देने वाले जीवन, शारीरिक सुरक्षा तथा सम्पत्ति के अधिकार को तो स्वीकार कर लेंगे। लेकिन मनुष्य के लक्षण अर्थात् जातिगत कार्य करने की इच्छा एवं प्रभावशाली प्रयोग करने की अनुमति जाति से बाहर की स्वतंत्रता को स्वीकार करने के लिए जल्दी से तैयार नहीं होंगे।

क्योंकि जातिप्रभुत्व सम्पन्न लोग इस बात को भली-भाँति जानते हैं कि इस प्रकार की स्वतंत्रता देने का अर्थ होगा व्यवसाय या पेशा चुनने की स्वतंत्रता और जहाँ यह स्वतंत्रता दे दी गई वहीं 'दासता' का अस्तित्व में खतरे में होगा। इसलिए दासता को पकड़कर रखने के लिए प्रभुत्व सम्पन्न या उच्च जाति के लोग या जाति-प्रथा निर्णायकगण ऐसी प्रयोगशीलता कभी नहीं करना चाहेंगे।

विशेष :

1. लेखक ने अपने सटीक तर्कों द्वारा तथाकथित जाति-प्रथा पोषकों पर व्यंग्य किया है।

2. व्यंग्य शैली, व्यंजना से पूर्ण भाषा, प्रवाहमयी एवं व्याख्यात्मक है।

9. 'दासता' केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। 'दासता' में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पायी जा सकती है। उदाहरणार्थ, जाति-प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना सम्भव है, जहाँ कुछ लोगों को अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।

कठिन-शब्दार्थ :

दासता = गुलामी प्रथा।

पराधीन = दूसरे के अधीन।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित 'मेरी कल्पना का आदर्श समाज' लेख से लिया गया है। इसमें लेखक ने जातिप्रथा द्वारा पैदा की गई दासता को व्यंजित किया है।

व्याख्या - लेखक कहते हैं कि दासता से अभिप्राय केवल कानूनी रूप से परतंत्र होना नहीं है। 'दासता' के अन्तर्गत वह स्थिति भी आती है जिसमें कुछ व्यक्तियों के द्वारा निर्धारित या तय किये गए व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन कुछ लोगों को या कुछ जाति विशेष को करना पड़ता है। या यह भी कह सकते हैं कि तथाकथित जातिगत प्रभुत्व के कारण निम्न लोगों को उनके द्वारा ओढ़ाए गए कार्यों को करने के लिए विवश होना पड़ता है।

यह विवशता ही 'दासता' को परिभाषित करती है तथा इस दासता की स्थिति कानूनी रूप से पराधीन न होने पर भी पायी जा सकती है। उदाहरण के लिए जाति-प्रथा के कारण कुछ ऐसे वर्ग बन जाते हैं जिन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे या धंधे अपनाने पड़ते हैं और वह पेशा या धंधा ही आजीवन उन्हें दासता की स्थिति में बाँधे रखता है। .

विशेष :

1. लेखक ने कानून से परे दासता की स्थिति को वर्णित किया है।

2. भाषाशैली प्रवाहमयी एवं व्याख्यात्मक है।

10. 'समता' का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके।

कठिन-शब्दार्थ :

समता = समानता का भाव।

औचित्य = उचित अवस्था का भाव।

वांछित = इच्छित या आवश्यक।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'मेरी कल्पना का आदर्श समाज' लेख से लिया गया है। इसमें लेखक ने एक राजनेता की दृष्टि से 'समता' के प्रति दृष्टिकोण होना चाहिए, बताया है।

व्याख्या - लेखक कहते हैं कि जातिप्रथा या आदर्श समाज दोनों का ही आधार 'समता' पर टिका है। लेकिन समता का उचित भाव या अवस्था सिर्फ यहीं आकर खत्म नहीं होती है। इसका एक और बड़ा आधार है और वह है एक राजनेता का जनता के प्रति संतुलित दृष्टिकोण। एक राजनीतिज्ञ का सामना जनता की बहुत बड़ी संख्या से होता है।

राजनेता के लिए बहुत बड़ी जनसंख्या सिर्फ जनता का पर्याय है उसके पास अपनी जनता से व्यवहार करते समय, उनसे जानकारी लेते समय, उनकी आवश्यकताओं को समझने के लिए न तो पर्याप्त समय होता है और न ही तथ्यपूर्ण जानकारी। राजनीतिज्ञ के लिए यह समय बहुत मुश्किल होता है कि वह अपनी जनता की जरूरतों एवं क्षमताओं के आधार पर जरूरी व आवश्यक व्यवहार अलग-अलग तरह से कर सके। आशय यही है कि 'समता' ही वह तथ्य है जिसे अपनाकर बडी मात्रा में सबके साथ समान व्यवहार संभव भी है और अपेक्षित भी है।

विशेष :

1. लेखक ने समता द्वारा समाज की आदर्श कल्पना की रूपरेखा प्रस्तुत की है।

2. भाषा सरल-सहज व प्रवाहमयी है।

11. आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, 'मानवता' के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्थिति में राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है, कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'मेरी कल्पना का आदर्श समाज' लेख से लिया गया है। इसमें लेखक ने व्यवहार्य-सिद्धान्त की व्याख्या की है।

व्याख्या - लेखक बताते हैं कि जब जनसंख्या का एक बड़ा भाग जनता के रूप में सामने आता है तब उसकी। आवश्यकताओं, जरूरतों, अपेक्षाओं एवं क्षमताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न व्यवहार कितना भी जरूरी एवं उचित क्यों न हो, मानवता के दृष्टिकोण से समाज को जनता को दो वंगों में या श्रेणियों में विभक्त किया जाना सही नहीं है।

मानव की आवश्यकतानुसार अलग-अलग श्रेणी बनाना गलत है। और इसके लिए ऐसी स्थिति में राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में व्यवहार्य सिद्धान्त की आवश्यकता पड़ती है। अर्थात् राजनीतिज्ञ को व्यावहारिक रूप से समता का सिद्धान्त सभी पर समान रूप से लागू करके ही रखना होगा। व्यवहार्य सिद्धान्त यही कहता है कि सभी मनुष्य समान हैं और उनके साथ सभी स्थितियों में समान व्यवहार किया जाये तथा समान माना जाये।

विशेष :

1. लेखक ने समता का उदाहरण बहुत ही सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया है। एक आँख से सभी को समान रूप से देखने की आवश्यकता है।

2. भाषा ओजमयी, प्रवाहपूर्ण, सारगर्भित एवं प्रभावशाली हैं।


Post a Comment

Hello Friends Please Post Kesi Lagi Jarur Bataye or Share Jurur Kare