12th आरोह 9. फिराक गोरखपुरी (रुबाइयाँ, गजल)

12th आरोह 9. फिराक गोरखपुरी (रुबाइयाँ, गजल)

12th आरोह 9. फिराक गोरखपुरी (रुबाइयाँ, गजल)

पाठ के साथ

प्रश्न 1. शायर राखी के लच्छे को बिजली की चमक की तरह कहकर क्या भाव व्यंजित करना चाहता है?

उत्तर : शायर कहता है कि राखी भाई-बहिन के पवित्र रिश्ते की प्रतीक है। बहिनें चमकदार मुलायम रेशों वाली राखियाँ खरीदती हैं, ताकि उनकी चमक एवं प्रेम-सौहार्द्र के समान भाई-बहिन के अटूट सम्बन्ध की चमक एवं प्रेम सौहार्द अर्थात् उन्हें निभाने का उत्साह-उल्लास सदा बना रहे।

प्रश्न 2. खुद का परदा खोलने से क्या आशय है?

उत्तर : खुद का परदा खोलने का आशय है - अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट करना, अपनी कमजोरियों एवं खूबियों को व्यक्त करना। प्रायः लोग दूसरों के दोषों की निन्दा करते हैं, ऐसा करके वे अपने चुगलखोर एवं निन्दक चरित्र को उजागर कर देते हैं।

प्रश्न 3. किस्मत हमको रो लेवे है हम किस्मत को रो ले हैं-इस पंक्ति में शायर की किस्मत के साथ तनातनी का रिश्ता अभिव्यक्त हुआ है। चर्चा कीजिए।

उत्तर : कवि या शायर व्यक्तिगत जीवन में अभावों के कारण ऐसा मानता है कि किस्मत उसका साथ नहीं दे रही . है। प्रायः शायर अतीव भावुक स्वभाव के तथा प्रेमी हृदय होते हैं। वे अपनी बुरी स्थिति के लिए भाग्य को दोष देते हैं। इस तरह की भावना होने से शायर और किस्मत में तना-तनी का सम्बन्ध बना रहता है।

टिप्पणी करें

(क) गोदी के चाँद और गगन के चाँद का रिश्ता।

उत्तर : गोदी का चाँद नन्हा प्यारा शिशु होता है। माँ अपने प्यारे शिशु को चाँद से भी अधिक प्यारा मानती है। आकाश का चाँद बच्चों को प्यारा लगता है और वे उसे खिलौना मानकर पाने के लिए मचलने लगते हैं। इन दोनों की स्थितियों में यही अन्तर है।

(ख) सावन की घटाएँ व रक्षाबंधन का पर्व।

उत्तर : रक्षाबन्धन का त्योहार श्रावण की पूर्णिमा पर पड़ता है। इस समय आकाश में बादल छाये रहते हैं, बिजली चमकती रहती है। आकाश में बादलों की उमड़-घुमड़ के साथ भाई-बहिन के हृदय में पवित्र प्रेम-प्यार का उल्लास बना रहता है।

कविता के आसपास

प्रश्न 1. इन रुबाइयों से हिंदी, उर्दू और लोकभाषा के मिले-जुले प्रयोगों को छाँटिए।

उत्तर : हिन्दी के प्रयोग

आँगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी

हाथों पे झुलाती है उसे गोद-भरी.

×           ×              ×

रक्षा-बन्धन की सुबह रस की पुतली

छायी है घटा गगन की हलकी-हलकी इत्यादि

उर्दू के प्रयोग -

उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके

×           ×               ×

देख आईने में चाँद उतर आया है।

लोकभाषा के प्रयोग -

रह-रह के हवा में जो लोका देती है।

प्रश्न 2. फिराक ने सुनो हो, रक्खो हो आदि शब्द मीर की शायरी के तर्ज पर इस्तेमाल किए हैं। ऐसी ही मीर की कुछ गजलें ढूँढ़ कर लिखिए।

उत्तर :

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है

जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश के बाले तक

उस को फ़लक चश्म-ए-मै-ओ-ख़ोर की तितली का तारा जाने है

आगे उस मुतक़ब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं

कब मौजूद् ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा जाने है

आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में

जी के ज़िआँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है

चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं

वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है

 

क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्यद बच्चा

त'एर उड़ते हवा में सारे अपनी उसारा जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं

और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है

क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना

जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है

आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे

यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है

रख़नों से दीवार-ए-चमन के मूँह को ले है छिपा यअनि

उन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है

तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश

दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है

मीरे के कुछ शेर

1. दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके

पछताओगे सुनो हो , ये बस्ती उजाड़कर

2. मैं रोऊँ तुम हँसो हो, क्या जानो 'मीर' साहब

दिल आपका किसू से शायद लगा नहीं है

प्रश्न-कविता में एक भाव, एक विचार होते हुए भी उसका अंदाजे बयाँ या भाषा के साथ उसका बर्ताव अलग-अलग रूप में अभिव्यक्ति पाता है। इस बात को ध्यान रखते हुए नीचे दी गई कविताओं को पढ़िए और दी गई फ़िराक की गजल/रुबाई में से समानार्थी पंक्तियाँ ढूँढ़िए

(क) मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों।

- सूरदास

उत्तर : आँगन में ठुनक रहा है जिदयाया है

बालक तो हई चाँद पै ललचाया है।

(ख) वियोगी होगा पहला कवि

आह से उपजा होगा गान

उमड़ कर आँखों से चुपचाप

बही होगी कविता अनजान।

- सुमित्रानंदन पंत

उत्तर :  आबो-ताब अश्आर न पूछो तुम भी आँखें रखो हो

ये जगमग बैतों की दमक है या हम मोती रो ले हैं।

(ग) सीस उतारे भुईं धरे तब मिलिहैं करतार।

-कबीर

उत्तर :  ये कीमत भी अदा करे हैं हम बदुरुस्ती-ए-होशो-हवास

तेरा सौदा करने वाले दीवाना भी हो ले हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. फ़ितरत का कायम है तवाजुन आलमे-हुस्नो-इश्क में भी

उसको उतना ही पाते हैं खुद को जितना खो लेते हैं

(अ) प्रस्तुत पंक्तियों में कवि द्वारा वर्णित भावों को समझाइए।

उत्तर :  प्रेम और सौन्दर्य के संसार में भी यह आदत कायम (स्थापित) है कि जो प्रेम में स्वयं को जितना अधिक खो लेता है, वह उतना ही अधिक प्रेम प्राप्त करता है। यह सन्तुलन का भाव प्रेम के क्षेत्र में भी होता है।

(ब) प्रस्तुत काव्यांश की शिल्पगत विशेषताएँ बताइए।

उत्तर :  वर्गों की आवृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार है, सहेतुकथन होने से काव्यलिंग अलंकार है। उर्दू शब्दों का प्रयोग एवं गजल की गति उचित है।

प्रश्न 2. "हम हों या किस्मत हो हमारी दोनों को इक ही काम मिला किस्मत हमको रो लेवे है, हम किस्मत को रो ले हैं।" फ़िराक गोरखपुरी की इन पंक्तियों के भाव को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : कवि स्वयं को और अपनी किस्मत को निराशावादी शब्दों में कहता है कि हमारी परिस्थितियाँ सदैव एकसमान रही हैं। मैं और मेरी किस्मत सदा ही वेदना-निराशा से प्रताड़ित रही है। इसलिए हम हमेशा एक-दूसरे को रो लेते हैं अर्थात् एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं।

प्रश्न 3. 'उसको उतना ही पाते हैं खुद को जितना खो ले हैं फिराक गोरखपुरी की इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : प्रेम के क्षेत्र में मनुष्य जितना स्वयं को खोता है वह उतना ही प्रेम प्राप्त करता है। प्रेम में 'मैं' का भाव तिरोहित होने के पश्चात् ही 'हम' की प्राप्ति होती है

प्रश्न 4. "बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे"-फिराक गोरखपुरी ने रक्षा-बन्धन के लच्छों अर्थात् धागों को बिजली की तरह चमकीला क्यों बताया है?

उत्तर : रक्षा-बन्धन अर्थात् राखी के लच्छों में रंग-बिरंगी सुन्दरता और चमक का सहज आकर्षण रहता है। बादलों के साथ बिजली की चमक के समान राखी के धागों में भाई-बहिन का अटूट स्नेह-सम्बन्ध बना रहता है। इसीलिए कवि ने उन्हें चमकीला बताया है।

प्रश्न 5. बच्चे की चाँद को लेने की जिद को माता किस प्रकार अपनी ममताभरी समझ से पूर्ण करती है? फिराक गोरखपुरी की रुबाइयों के आधार पर समझाइए।

उत्तर : माता बच्चे की जिद को पूरी करने के लिए उसके हाथ में दर्पण देती है और उसका प्रतिबिम्ब दिखाकर कहती है कि देख, चाँद तुम्हारे पास आ गया है। इस तरह वह ममताभरी समझ से बच्चे को मना लेती है।

प्रश्न 6. रक्षा-बन्धन को लक्ष्य कर कवि फिराक ने क्या भाव व्यक्त किये?

उत्तर : कवि ने भाव व्यक्त किया है यह प्रेम-व्यवहार का मीठा त्योहार है। इस दिन बहिन अपने स्नेहिल बंधन को मजबूत करने के लिए अपने भाई के हाथ में बिजली की तरह चमचमाती राखी बाँधती है। सावन का यह त्योहार भाई-बहिन को अपार खुशियाँ प्रदान करने वाला है।

प्रश्न 7. रुबाइयों के आधार पर घर-आँगन में दीपावली के दृश्य-बिम्ब को अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : फिराक गोरखपुरी ने दीपावली का दृश्य-बिम्ब इस प्रकार चित्रित किया है—शाम का समय, लिपा-पुता एवं स्वच्छ घर-आँगन, माँ अपने बच्चों के लिए जगमगाते चीनी के खिलौने सजाती और प्रसन्नता से दीपक जलाती है तथा बच्चों की खिलखिलाहट से पूरा घर-आँगन जगमगा जाता है।

प्रश्न 8. रुबाई के आधार पर रक्षाबन्धन का वर्णन कीजिए।

उत्तर : रक्षाबन्धन का चित्रण करते हुए फिराक कहते हैं कि सावन में आकाश में घटाएँ छायी रहती हैं, बिजली चमकती हैं। बहिन सज-धज कर और प्रसन्नता से भरकर भाई की कलाई में चमकते रेशों.वाली राखी बांधती है।

प्रश्न 9. "मेरा परदा खोले हैं या अपना परदा खोले हैं"-इसका आशय बताइये।

उत्तर : इसका आशय यह है कि जो लोग दूसरों की निन्दा करते हैं, बुराई करते हैं, वे लोग वस्तुतः अपनी ही निन्दा एवं बुराई करते हैं, क्योंकि ऐसे लोग स्वयं ही ईर्ष्या और द्वेष से ग्रस्त रहते हैं। इस कारण वे अपनी कमजोरी व्यक्त करते हैं।

प्रश्न 10. फिराक गोरखपुरी की रुबाई के आधार पर दीपावली की सजावट और माँ के वात्सल्य का चित्रण कीजिए।

उत्तर : दीपावली पर माँ सारे घर को स्वच्छ करके उसे सजाती है और दीपक जलाती है। उस समय उसके चेहरे पर अपने बच्चे के लिए ममता एवं वात्सल्य की भावमयी चमक-दमक रहती है। वह दृश्य अतीव मनोरम और दर्शनीय होता है।

प्रश्न 11. फिराक की गजलों में प्रकृति को किस रूप में चित्रित किया गया है?

उत्तर : फिराक की गजलों में प्रकृति का चित्रण मानवीकरण शैली में हुआ है। प्रातःकाल कलियाँ अपनी गाँठें धीरे-धीरे खोलती हैं तथा रंग व सुगंध के सहारे उड़ने को आतुर हैं। तारे आँखें झपकाते-से प्रतीत होते हैं। रात का सन्नाटा प्रकृति के रहस्य को मौन स्वर में बोलता हुआ किसी की याद दिलाता सा प्रतीत होता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 'देख आईने में चाँद उतर आया है' पंक्ति के माध्यम से कवि क्या बता रहे हैं?

उत्तर : कवि गोरखपुरी की रुबाइयाँ उनकी रचना 'गुले नग्मा' से ली गई हैं। ये रुबाई उर्दू और फारसी का एक छंद है या लेखन शैली है। इस पंक्ति में कवि ने माँ और शिशु के मध्य के वात्सल्य रस को स्पष्ट किया है। शिशु चन्द्र खिलौना लेने के लिए मचल रहा है। माँ अनेक प्रयत्नों से उसे बहलाने की कोशिश कर रही है।

किन्तु बच्चा तो बच्चा - ही है उसे उस समय जो चाहिए, जब तक उसे मिल न जाये वह स्वयं को और माँ को परेशान ही रखता है। तभी माँ उसकी जिद पूरी करने हेतु आईना (दर्पण) लाकर शिशु को उसमें चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाती है और कहती है कि देख इसमें तेरा चाँद खिलौना, अब यह तेरा हुआ। बच्चा उस खिलौने को पाकर अति प्रसन्न है तथा उसकी खिलखिलाहट से पूरा वातावरण गुंजायमान है।

प्रश्न 2. 'तेरी कीमत भी अदा करे हैं हम बदरुस्ती ए-होशो-हवास' गजल की पंक्ति में कवि, शायर क्या भाव प्रकट कर रहे हैं?

उत्तर : फिराक गोरखपुरी हिन्दी-उर्दू-फारसी भाषा के विद्वान तथा बहुत बड़े शायर थे। उन्होंने अपनी रुबाइयों व गजलों द्वारा प्रेम के कई पक्षों का स्वरूप प्रस्तुत किया है। इन पंक्तियों में शायर अपनी प्रियतमा को कह रहे हैं कि तुमसे प्रेम करने की जो कीमत है वह हम पूरे होशोहवास में रखकर भी चुका रहे हैं। कहने का आशय है कि जो व्यक्ति प्रेम में रोता है उसे लोग पागल-दीवाना कहते हैं और पागलपन में वह दीवाना अपने प्रेम के किस्से और प्रियतमा का नाम सबको बताता रहता है।

यहाँ शायर पूरी तरह से अपने होश में है लेकिन लोग उन्हें प्रेमी दीवाना कहकर बुलाते हैं, उसके बाद भी शायर किसी को भी अपने प्यार के किस्से नहीं सुनाता और न ही प्रियतमा का नाम बताकर उसे बदनाम कर रहा है। इसलिए शायर कह रहे हैं कि तेरे प्यार की कीमत हम पूरे होशोहवास में अदा कर रहे हैं।

रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न

प्रश्न 1. कवि, शायर फिराक गोरखपुरी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : फिराक गोरखपुरी उर्दू-फारसी के जाने-माने शायर हैं। इनका जन्म 28 अगस्त, सन् 1896 को गोरखपुर में हुआ। इनका मूल नाम रघुपतिसहाय 'फिराक' था। इन्होंने अरबी, फारसी व अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण की। 1917 में डिप्टी कलक्टर बने परन्तु स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण 1918 में इन्होंने पद त्याग दिया। ये इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक भी रहे।

इनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ - 'गुले नग्मा', 'बज्मे जिंदगी', 'रंगे शायरी', 'उर्दू गजलगोई आदि। इनकी शायरियों में सामाजिक दुःख-दर्द, व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। इंसान के हाथों इंसान पर जो गुजरती है, उसकी तल्ख सच्चाई भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर उन्होंने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया।

रुबाइयाँ, गज़ल (सारांश)

फिराक गोरखपरी

लेखक परिचय - फिराक गोरखपुरी का मूल नाम रघुपति सहाय फिराक है। इनका जन्म सन् 1896 ई. में गोरखपुर में हुआ। इनकी शिक्षा रामकृष्ण की कहानियों से प्रारम्भ हुई। बाद में अरबी-फारसी और अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त की। सन् 1917 में डिप्टी कलेक्टर के पद पर चयनित हुए, परन्तु एक वर्ष बाद स्वराज्य आन्दोलन के लिए वह नौकरी त्याग दी। स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने से डेढ़ वर्ष जेल में रहे।

फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक रहे। इनका निधन सन् 1983 ई. में हुआ। साहित्य-रचना की दृष्टि से ये शायरी, गजल एवं रुबाइयों की ओर आकृष्ट रहे। वस्तुतः उर्दू शायरी का सम्बन्ध रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बँधा रहा है, जिस में लोक जीवन एवं प्रकृति का चित्रण नाममात्र का मिलता है। फिराक गोरखपुरी ने सामाजिक दुःख-दर्द को व्यक्तिगत अनुभूतियों के रूप में शायरी में ढाला है। इन्होंने भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों को अपनाकर इंसान की .. विवशताओं एवं भविष्य की आशंकाओं को सच्चाई के साथ अभिव्यक्ति दी है। मुहावरेदार भाषा तथा लाक्षणिक प्रयोग करते हुए इन्होंने मीर और गालिब की तरह अपने भाव व्यक्त किये हैं।

फिराक गोरखपुरी की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं - 'गुले नग्मा', 'बज्मे जिन्दगी', 'रंगे शायरी', 'उर्दू गजलगोई। 'गुले नग्मा' पर इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड प्राप्त हुआ। इनकी रुबाइयों का हिन्दी साहित्य में विशेष महत्त्व है।

कविता-परिचय - पाठ्य-पुस्तक में फिराक गोरखपुरी की रुबाइयाँ एवं गजल संकलित हैं। इनकी रुबाइयाँ वात्सल्य रस से सम्पृक्त हैं तथा इनमें नन्हे बालक की अठखेलियों, माँ-बेटे की मनमोहक चेष्टाओं तथा रक्षाबन्धन का एक दृश्य अंकित है। माँ अपने शिशु से भरपूर प्यार करती है तथा उसे लाड़-दुलार देती है। इससे शिशु अतीव आनन्दित रहता है। दीपावली पर घरों की सजावट होती है, तो माँ शिशु को शीशे में चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाती है। रक्षाबन्धन पर नन्ही बालिका अपने भाई की कलाई पर चमकती हुई राखी बाँधती है। फिराक गोरखपुरी की संकलित गजलों में व्यक्तिगत प्रेम का चित्रण हुआ है। इसमें फूल, रात्रि, एकान्त प्रकृति आदि के सहारे प्रेमी व्यक्ति की दीवानगी एवं वियोग-व्यथा का सुन्दर चित्रण किया गया है। इन गजलों में प्रेम-वेदना का मार्मिक स्वर व्यक्त हुआ है।

सप्रसंग व्याख्याएँ

रुबाइयाँ

आँगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी

हाथों पे झुलाती है उसे गोद-भरी

रह-रह के हवा में जो लोका देती है

गूंज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हँसी

कठिन-शब्दार्थ :

चाँद का टुकड़ा = बहुत प्यारा बेटा।

लोका देना = उछाल-उछाल कर प्यार करना।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि शायर 'फिराक गोरखपुरी' की रचना 'गुले-नग्मा' से उद्धृत 'रुबाइयाँ' से लिया गया है। 'रुबाई' उर्दू और फारसी का एक छंद या लेखन शैली है। इसमें शायर ने वात्सल्य रस का चित्रण किया है, जिसमें माँ अपने नन्हे शिशु को प्यार से अपनी बाँहों में सुला रही है।

व्याख्या - फिराक गोरखपुरी कहते हैं कि एक माँ अपने प्यारे शिशु को गोद में लिए आँगन में खड़ी है। कभी वह उसे हाथों से झुलाने लगती है और कभी उसे हवा में उछाल-उछालकर गोद में भर लेती है। प्यार करने की इस क्रिया से बच्चा खुश होकर खिलखिलाकर हँस उठता है और आँगन में उसकी हँसी की किलकारी गूंज उठती है तथा माँ-बेटा' दोनों ही अतिप्रसन्न होते हैं।

विशेष :

1. कवि ने वात्सल्य प्रेम के द्वारा माँ-बेटे की प्रसन्नता का वर्णन किया है।

2. वात्सल्य रस है, दृश्य बिम्ब है, रुबाई छंद है।

3. उर्दू-हिन्दी मिश्रित शब्दावली तथा 'लोका देना' देशज भाषा का प्रयोग है।

नहला के छलके-छलके निर्मल जल से

उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके

किस प्यार से देखता है बच्चा मुँह को

जब घुटनियों में ले के है पिन्हाती कपड़े

कठिन-शब्दार्थ :

गेसुओं = बालों।

निर्मल जल = न ज्यादा ठण्डा न गरम जल।

पिन्हाती = पहनाती।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि (शायर) 'फिराक गोरखपुरी' की रचना 'गुले-नग्मा' से उद्धृत 'रुबाइयाँ' से लिया गया है। 'रुबाई' उर्दू और फारसी का एक छंद या लेखन शैली है। इसमें कवि (शायर) ने माँ का पुत्र के प्रति प्रेम प्रदर्शित किया है।

व्याख्या - माँ अपने शिशु को निर्मल-पवित्र जल से नहलाती है। वह अपने हाथों से शिशु पर जल छलका छलका कर नहलाती है। फिर उसके उलझे हुए बालों पर कंघी करती है। जब वह शिशु को अपने दोनों घुटनों के बीच में रखकर अथवा थामकर उसे कपड़े पहनाती है, तो शिशु बड़े प्यार से माँ के मुख की ओर देखता है। उस समय कितना ममत्व छलक पड़ता है। उस समय शिशु का सरल मुख व माँ का निश्छल प्रेम साफ नजर आता है।

विशेष :

1. कवि ने माँ के ममत्व का सुन्दर रूप चित्रित किया है।

2. वात्सलय रस की सहज अभिव्यक्ति है।

3. उर्दू-हिन्दी मिश्रित भाषा का प्रयोग तथा 'पिन्हाती कपड़े में लोकभाषा का प्रयोग है।

दीवाली की शाम घर पुते और सजे

चीनी के खिलौने जगमगाते लावे

वो रूपवती मुखड़े पै इक नर्म दमक

बच्चे के घरौंदे में जलाती है दिए

कठिन-शब्दार्थ :

दमक = चमक, प्रसन्नता।

पुते = साफ-सुथरे।

लावे = दीपक।

घरौंदे = बच्चों द्वारा मिट्टी-रेत का बनाया घर।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि (शायर) 'फिराक गोरखपुरी' की रचना 'गुले-नग्मा' से उद्धृत 'रुबाइयाँ' से लिया गया है। 'रुबाई' उर्दू और फारसी का एक छंद या लेखन शैली है। कवि ने इसमें दीपावली की शाम का वर्णन किया है।

व्याख्या - कवि (शायर) कहता है कि दीपावली की शाम है। घरों की पुताई या रंग-रोगन करने से वे एकदम साफ-सुथरे और सजे-धजे हैं, अर्थात् उन्हें खूब सजाया गया है। माता-पिता अपने बच्चों को प्रसन्न करने के लिए चीनी के बने खिलौने लाते हैं। चमकते हुए दीए अपनी रोशनी बिखेरते हैं। उस समय माँ के आनन्दित सुन्दर मुख पर सौन्दर्य की एक मधुर-कोमल चमक या प्रसन्नता झलकती रहती है। वह बच्चे के खेलने के लिए बने हुए घर में दीपक जलाती है, जिससे बच्चा प्रसन्न हो जाता है और अपनी खिलखिलाती हँसी से पूरा वातावरण गुंजायमान कर देता है।

विशेष -

1. कवि ने दीवाली की शाम को माँ-बेटे की अप्रतिम खुशी का वर्णन किया है।

2. हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा है, रुबाई छंद है। 'रूपवती मुखड़ा' व 'नर्मदमक' अदभुत प्रयोग है।

आँगन में ठुनक रहा है जिदयाया है

बालक तो हई चाँद पै ललचाया है

दर्पण उसे दे के कह रही है माँ

देख आईने में चाँद उतर आया है।

कठिन-शब्दार्थ :

ठुनक रहा = नकली रोना, मचलना।

जिदयाया = जिद पर आया हुआ।

हई = है ही।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि (शायर) 'फिराक गोरखपुरी' की रचना 'गुले-नग्मा' से उद्धृत 'रुबाइयाँ' से लिया गया है। 'रुबाई' उर्दू और फारसी का एक छंद या लेखन शैली है। इसमें शायर ने बच्चे की जिद तथा माँ द्वारा उसकी इच्छा को पूर्ण करते बताया गया है।

भावार्थ - कवि कहता है कि बालक अपने आँगन में झूठ-मूठ रो रहा है, मचल रहा है। वह जिद किये हुए है। वह बालक ही तो है, उसका मन चाँद लेने पर आ गया है और वह माँ से चाँद ला देने की जिद कर रहा है। माँ उसके हाथ में दर्पण देकर बहलाती है और कहती है कि देख, चाँद इस दर्पण में आ गया है। अर्थात् चाँद का सुन्दर प्रतिबिम्ब दर्पण में उतर आया है। अब यह चाँद तेरा हो गया है। अर्थात् मैंने तेरी चाँद पाने की इच्छा पूरी कर दी।

विशेष -

1. कवि ने परम्परागत बच्चे की जिद तथा माँ द्वारा समाधान का स्वाभाविक वर्णन किया है।

2. हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग, चित्रात्मक शैली, वात्सल्य रस का प्रयोग किया है।

रक्षाबंधन की सुबह रस की पुतली

छायी है घटा गगन की हलकी-हलकी

बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे

भाई के है बाँधती चमकती राखी

कठिन-शब्दार्थ :

रस = आनन्द।

पुतली = गुड़िया, नन्ही बालिका।

घटा = बादलों का समूह।

लच्छे = तारों से बनी राखी।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि, शायर 'फिराक गोरखपुरी' की रचना 'गुले-नग्मा' से उद्धृत 'रुबाइयाँ' से लिया गया है। इसमें कवि ने भाई-बहन के प्रेम को प्रदर्शित करता मीठा बंधन यानि रक्षाबंधन का वर्णन किया है।

भावार्थ - फिराक गोरखपुरी कहते हैं कि आज रक्षा-बन्धन का पवित्र दिन है। जिसकी सुबह आनन्द और मिठास से भरी होती है। क्योंकि यह दिन भाई-बहनों के मीठे बन्धन का दिन होता है। आकाश में काले-काले बादलों की घटा छायी हुई है। इन बादलों में बिजली रह-रह कर चमक रही है। इसी बिजली की तरह राखी के रेशमी धागे भी चमक रहे हैं। बहन प्रसन्नता एवं उमंग से अपने भाई की कलाई में उस चमकती राखी को बाँधती है।

विशेष :

1. कवि ने रक्षाबंधन का स्वाभाविक चित्रण किया है।

2. उर्दू-हिन्दी मिश्रित भाषा का प्रयोग है। रुबाई छंद का प्रयोग है तथा पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार की प्रस्तुति है।

गजल

नौरस गुंचे पंखड़ियों की नाजुक गिरहें खोले हैं

या उड़ जाने को रंगो-बू गुलशन में पर तोले हैं।

तारे आँखें झपकावें हैं ज़र्रा-ज़र्रा सोये हैं

तुम भी सुनो हो यारो! शब में सन्नाटे कुछ बोले हैं।

कठिन-शब्दार्थ :

नौरस = नया रस।

गुंचे = कली।

गिरहें = गाँठे।

गुलशन = बगीचा।

ज़र्रा-ज़र्रा = कण-कण।

शब = रात।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि, शायर 'फिराक गोरखपुरी' द्वारा रचित 'गजल' से लिया गया है। इसमें कवि ने प्रकृति के मनोरम रूप का चित्रण किया है। फूल और रात्रि के बहाने प्रकृति की छटा अतीव सुन्दर व्यक्त की गई है।

व्याख्या - कवि फिराक गोरखपुरी प्रकृति का मनोहारी चित्रण करते हुए कहते हैं कि नये रस या पराग से भरी हुई कलियाँ अपनी कोमल पंखुड़ियों की गाँठों को खोल रही हैं, अर्थात् धीरे-धीरे खिल रही हैं अर्थात् वे फूल बनने की ओर अग्रसर हैं। उनसे जो सुगन्ध फैल रही है, वह ऐसी लगती है कि मानो रंग और सुगन्ध आकाश में उड़ जाने के लिए पंख “फड़फड़ा रहे हैं। आशय यह है कि सारे परिवेश में कलियों एवं फूलों की सुषमा एवं सुगन्ध फैल रही है।

कवि कहता है कि ढलती हुई रात में तारे मानो आँखें झपका-झपका कर सोना चाहते हैं या जरा-जरा से सोये हुए प्रतीत होते हैं। उस समय धरती-आकाश का कण-कण सोया हुआ है। हे मित्रो ! तुम भी सुनो, रात में पसरा हुआ सन्नाटा कुछ बोलता प्रतीत हो रहा है। आशय यह है कि रात का सन्नाटा प्रिय की याद दिलाने का प्रयास कर रहा है, अर्थात् रात्रि की निःशब्दता किसी की याद दिला रही हो।

विशेष-

1. कवि ने प्रकति के सौन्दर्य का सन्दर वर्णन किया है।

2. उर्दू-फारसी-हिन्दी का मिश्रित प्रयोग है। प्रसाद गुण, बिम्ब योजना व संदेह तथा उत्प्रेरक्षा अलंकार हैं।

हम हों या किस्मत हो हमारी दोनों को इक ही काम मिला

किस्मत हमको रो लेवे है हम किस्मत को रो ले हैं।

जो मुझको बदनाम करे हैं काश वे इतना सोच सकें

मेरा परदा खोले हैं या अपना परदा खोले हैं।

कठिन-शब्दार्थ :

काश = सम्भव हो।

परदा = रहस्य, छिपी हुई भावनाएँ।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि, शायर 'फिराक गोरखपुरी' द्वारा रचित 'गजल' से लिया गया है। इसमें कवि अपनी किस्मत का रोना व असफलता के बारे में बता रहे हैं। दूसरी तरफ उन लोगों पर व्यंग्य कर रहे हैं जो दूसरों की बुराई कर स्वयं का चरित्र प्रस्तुत करते हैं।

व्याख्या - कवि कहता है कि मैं और मेरी किस्मत दोनों एक समान हैं. दोनों निराशा और असफलता के कारण रोते रहते हैं। दोनों को एक ही काम मिला है। मेरी किस्मत मेरी हालत देखकर रोती है, तो मैं अपनी बुरी किस्मत को देखकर रोता हूँ। आशय यह है कि हम दोनों अपनी बुरी हालत और परिस्थितियों का दोष एक-दूसरे पर डाल कर कोसते रहते हैं।

कवि कहता है कि जो लोग मुझे बदनाम करते हैं या मेरी निन्दा करते हैं, काश वे समझ पाते कि वे मेरी नहीं, अपनी कमियों के पर्दे खोल रहे हैं, अपनी ही निन्दा कर रहे हैं। अर्थात् दूसरों की बुराई करना स्वयं के चरित्र को प्रस्तुत करना है।

विशेष :

1. कवि ने किस्मत और हालात का वर्णन किया है, साथ ही उन लोगों की पहचान बताई है जो बुराई करके अपना ही चरित्र प्रस्तुत करते हैं।

2. हिन्दी-उर्दू-फारसी मिश्रित भाषा है। 'गजल' छंद है। 'हम' कहना उर्दू की पहचान है।

ये कीमत भी अदा करे हैं हम बदुरुस्ती-ए-होशो-हवास

हवास तेरा सौदा करने वाले दीवाना भी हो ले हैं

तेरे गम का पासे-अदब है कुछ दुनिया का खयाल भी है

सबसे छिपा के दर्द के मारे चुपके-चुपके रो ले हैं

कठिन-शब्दार्थ :

अदा = चुकाना।

बदुरुस्ती-ए-होशो-हवास = विवेक के साथ।

पासे-अदब = लिहाज, आदर का भाव।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि, शायर 'फिराक गोरखपुरी' द्वारा रचित 'गजल' से लिया गया है। इसमें कवि ने प्रेम के स्वरूप पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या - कवि कहता है कि हे प्रिय ! मैं पूरे होशो-हवास एवं विवेक के साथ तुम्हारे प्रेम-व्यवहार का पूरा मूल्य चुका रहा हूँ। जो भी प्रेम का सौदा करता है, वह दीवाना हो ही जाता है। आशय यह है कि जो प्रेम में रोता है समाज उसे पागल ही समझता है और कवि प्रेम में स्वयं को पागल प्रस्तुत करने को तैयार है।

कवि कहता है कि मेरे मन में तुम्हारे दुःख-दर्द के प्रति सम्मान है। मुझे तुम्हारा लिहाज है, तुम्हारे आदर की चिन्ता साथ ही दुनियादारी की भी चिन्ता है। यदि मैं हर जगह अपने प्यार की बातें करूँगा तो दुनिया हमारे प्रेम का मजाक बनाएँगी इसलिए मैं अपने दुःख-दर्द को सबसे छिपाकर चुपचाप अकेले में रो लेता हूँ। आशय यह है कि सच्चे प्रेमी अपना प्रेम व दुःख किसी के सामने प्रकट नहीं करते हैं।

विशेष :

1. कवि ने प्रेम का भावनात्मक रूप प्रकट किया है। साथ ही प्रेम में विरह-दशा को भी प्रस्तुत किया है।

2. उर्दू-हिन्दी भाषा का प्रभावी प्रयोग है। गजल छंद है 'कीमत अदा करना' मुहावरा भी प्रस्तुत हुआ है।

फ़ितरत का कायम है तवाजुन आलमे-हुस्नो-इश्क में भी

उसको उतना ही पाते हैं खुद को जितना खो ले हैं

आबो-ताब अश्आर न पूछो तुम भी आँखें रक्खो हो

ये जगमग बैतों की दमक है या हम मोती रोले हैं

कठिन-शब्दार्थ :

फितरत = आदत।

कायम = स्थापित।

तवाजुन = सन्तुलन।

आलमे-हुस्न-इश्क = प्रेम और सौन्दर्य का संसार।

आबो-ताब अश्आर = चमक-दमक के साथ।

आँखें रक्खो = देखने में समर्थ।

बैत = शेर।

मोती रोले = आँसू बहा लें।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि, शायर 'फिराक गोरखपुरी' द्वारा रचित 'गजल' से लिया गया है। इसमें कवि ने विरही मन की दशा एवं प्रेम के स्वरूप पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या - कवि कहता है कि प्रेम और सौन्दर्य के संसार में भी मनुष्य की आदत-स्वभाव का विशेष महत्त्व है। प्रेम-व्यवहार में भी लेन-देन का सन्तुलन बराबर बना रहता है। जो मनुष्य प्रेम में स्वयं को जितना अधिक खोता है अर्थात् समर्पित कर देता है, वह उतना ही अधिक प्रेम प्राप्त करता है। आशय यह है कि प्रेम पाने के लिए स्वयं को खोना भी पड़ता है।    

कवि कहता है कि तुम्हें मेरी शायरी की चमक-दमक पर जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हें अपनी आँखें खोलनी चाहिए अर्थात् ध्यान से मेरी शायरी को देखो, इनकी चमक में मेरे आँसुओं की छाया है अर्थात मेरे दुःख-दर्द व पीड़ा आँसुओं के रूप में इन शायरी में अपनी चमक-सौन्दर्य बिखेर रहे हैं।

विशेष :

1. कवि ने प्रेम के स्वभाव एवं विरह की दशा का वर्णन किया है।

2. उर्दू की कठिन शब्दावली का प्रयोग, 'आँखें रखना' मुहावरे का प्रयोग तथा वियोग शृंगार रस है।

ऐसे में तू याद आए है अंजुमने-मय में रिंदों को

रात गये गर्दू पै फ़रिश्ते बाबे-गुनाह जग खोले हैं।

सदके फिराक एजाजे-सुखन के कैसे उड़ा ली ये आवाज

इन गजलों के परदों में तो 'मीर' की गज़लें बोले हैं।

कठिन-शब्दार्थ :

अंजुमने-मय = शराब की महफिल।

रिंद = शराबी।

गर्दू = आकाश।

फरिश्ते = देवदूत।

बाबे-गुनाह = पाप का

अध्याय। सदके = कुर्बान, फिदा।

एजाजे-सुखन = बेहतरीन शायरी, उत्कृष्ट काव्य-सौन्दर्य।

परदों = चरणों, पदों।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि, शायर 'फिराक गोरखपुरी' की रचना 'गजल' से लिया गया है। इसमें शायर ने अपनी प्रियतमा को याद तथा अपनी शायरी की प्रशंसा व्यक्त की है।

व्याख्या - कवि कहता है कि हे प्रिय ! प्रेम की वियोग स्थिति में तुम हमें इस तरह याद आते हो जैसे शराबखाने की महफिल में शराबियों को शराब की याद आती है या फिर वैसे जब आधी रात को देवदूत (फरिश्ता) आकाश में संसार के पापों का हिसाब-किताब कर रहा हो। प्रेम की स्थिति में प्रियतमा नशीली वस्तु के समान या फिर पवित्र फरिश्ते के समान प्रतीत होती है। कवि फिराक कहते हैं कि लोग मुझसे आकर कहते हैं - फिराक! हम तुम्हारी बेहतरीन शायरी पर कुर्बान (न्यौछावर) होते हैं, तुमने ऐसी उत्कृष्ट शायरी कहाँ से सीख ली ? तुम्हारी गजलों में तो मीर की गजलों के शब्द सुनाई पड़ते हैं। अर्थात् तुम्हारी शायरी मीर की शायरी के समान बेहतरीन है।

विशेष :

1. कवि ने विरहावस्था का तथा दसरे शेर में स्वयं की प्रशंसा करते हैं।'

2. उर्दू शब्दावली की बहुलता है, 'उड़ा लेना' मुहावरे का प्रयोग है। वियोग शृंगार व गजल छंद है।

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