
झारखण्ड
के लोकगीत, लोकनृत्य एवं लोकनाट्य
प्रमुख
इतिहासकार डॉ. कौशाम्बी के अनुसार, झारखण्ड एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ एक ओर आदिम तो
दूसरी ओर अत्याधुनिक सभ्यता के दर्शन होते हैं।
राज्य
की लोकगीत व लोकनृत्य कला अत्यन्त समृद्ध है, जिसमें जनजातीय लोकगीतों व
लोकनृत्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
राज्य के प्रमुख लोकगीत
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आदिवासियों ने अपनी भाषा के साथ-साथ अपने परम्परागत लोकगीतों को प्रचलन में बनाए रखा
है।
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इन गीतों का सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक अवसर से सम्बन्धित है। इन्होंने मौसम, समय, महीना,
संस्कार और कृषि आदि का निर्धारण कर लोकगीतों की रचना की गई है ।
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झारखण्ड के लोकगीत को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है
1.
जनजातीय लोकगीत
2.
क्षेत्रीय लोकगीत
जनजातीय
लोकगीत
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जनजाति लोकगीतों में सन्थाली, मुण्डारी, हो, खड़िया और उराँव इत्यादि जनजातियों के
लोकगीत शामिल हैं।
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दोड़, लागेड़े, सोहराय, मिनसार, बाहा, दसाय, डाटा, पतवार, रिजा आदि प्रमुख सन्थाली
जनजाति के लोकगीत हैं। डब्ल्यू. जी. आर्चर ने होड़ सेरेन गीत संग्रह में सन्थाली लोकगीत
संगृहीत किए हैं।
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जदुर, गेना, करमा, जरगाजापी आदि प्रमुख मुण्डारी जनजाति के लोकगीत हैं।
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इनमें जदुर और गेना बसन्त गीत हैं। जरगाजापी फाल्गुन में गाया जाने वाला शिकार गीत
है ।
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वर्ष 1861 में लोकगीतों को मुण्डा मुण्डा दुरंग में डब्ल्यू. जी. आर्चर द्वारा संगृहीत
किया गया था।
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हैरो और नोमनामा हो जनजाति के लोकगीत हैं। हेरो लोकगीत धान की बुआई के समय तथा नोमनामा
लोकगीत घर में नया अन्न रखते समय गाया जाता है।
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सरहुल, जतरा, धरिया, असाढ़ी, करमा, मठा, जदुरा एवं उराँव जनजाति के प्रमुख लोकगीत हैं
। लीलखोट से खेल नामक पुस्तक में उराँव जनजाति के 26,000 गीत संगृहीत हैं।
कुरमाली
लोकगीत
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कुरमाली लोकगीत में ‘टुसू’ गीत आते हैं, जिसका गायन स्त्री-पुरुष पौष माह के पहले
दिन
से मकर संक्रांति तक करते हैं। यह एक जनजातीय लोकगीत है। इसके अन्य गीत उधवा,
अढ़ाइयाँ, सरहुल, पाता आदि हैं। इसमें स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर नृत्य-गान भी करते
हैं ।
क्षेत्रीय
लोकगीत
राज्य
के प्रमुख क्षेत्रीय लोकगीतों का विवरण इस प्रकार है
नागपुरी
लोकगीत
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नागपुरी लोकगीत अन्य गीतों से अधिक समृद्ध है, इस पर सभी लोकगीतों का प्रभाव पड़ा है
। नागपुरी लोकगीत को समय के आधार पर चार भागों में बाँटा जा सकता है
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मौसमी लोकगीत इसमें मौसम पर आधारित गीत गाए जाते हैं; जैसे-‘फगुआ’ होली के अवसर पर,
‘पावस’ तथा ‘भदवाही’ वर्षा के अवसर पर तथा ऋतु ‘उदासी’ ग्रीष्म ऋतु के अवसर पर गाए
जाते हैं।
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त्योहारी लोकगीत इसमें त्योहारों पर आधारित गीत गाए जाते हैं; जैसे- ‘करमा’ करमा पूजा
के अवसर पर, ‘सोहराई’ सोहराई (कार्तिक माह) के अवसर पर तथा ‘तीज’ सामूहिक गीत तीज त्योहार
के अवसर पर महिलाओं द्वारा गाए जाते हैं ।
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संस्कार लोकगीत इसमें जन्म से लेकर विवाह तक लोकगीत गाए जाते हैं । जैसे-‘बिहा गीत’
विवाह के अवसर पर गाए जाते हैं। प्रमुख बिहा गीत सोहर, खेलोनो, सुमंगली, कोहवर आदि
हैं।
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नृत्य लोकगीत इसमें स्त्री-पुरुष द्वारा सामूहिक नृत्य गायन प्रस्तुत किया जाता है।
यह विभिन्न पर्व-त्योहार पर गाए जाते हैं। राज्य का प्रमुख नृत्य लोकगीत ‘झूमर’ है,
जिसमें स्त्री-पुरुष सामूहिक नृत्य-गायन करते हैं।
राज्य
के अन्य प्रमुख लोकगीत
लोकगीत |
विशेषता |
झूमर
गीत |
यह
झूमर राग में विशेष अवसरों, जैसे- तीज, सोहराय, करमा आदि में गाया जाता है। |
कजली
गीत |
यह
विरह गीत है, जो स्त्रियों द्वारा सावन के महीने में गया जाता है। |
डोमकच
गीत |
यह
विवाह के अवसर पर महिलाओं द्वारा गया जाता है। |
झंझाइन
गीत |
यह
जन्मोत्सव पर महिलाओं द्वारा गाया जाता है। |
डइडधरा
गीत |
यह
वर्षा ऋतु में देव स्थलों में गाया जाता है। |
राज्य
के राज्य के प्रमुख लोकगायक
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प्रमुख लोकगायकों का वर्णन निम्न है
मजीद
शोला
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मजीद शोला का जन्म झारखण्ड राज्य के जमशेदपुर में हुआ था। वह विश्व प्रसिद्ध कव्वाल
थे। इनकी प्रसिद्ध एलबम ‘नबी के वास्ते’ है । इनकी मृत्यु 28 जनवरी, 2018 को 85 वर्ष
की आयु में हुई।
चेतन
जोशी
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चेतन जोशी हिन्दुस्तान शास्त्रीय संगीत परम्परा के एक प्रसिद्ध मुरलीवादक हैं। इनका
जन्म झारिया में हुआ था। इन्हें सुरमणि, बिस्मिल्लाह खाँ सम्मान, राजकीय सांस्कृतिक
सम्मान आदि से सम्मानित किया गया है।
राज्य के प्रमुख लोकनृत्य
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राज्य में मुख्य रूप से लोकनृत्यों को सदानी लोकनृत्य एवं जनजाति लोकनृत्यों में विभाजित
किया जा सकता है। इनका विवरण इस प्रकार है
सदानी
(गैर-जनजाति) लोकनृत्य
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सदान झारखण्ड की मूल गैर-जनजाति के लोग हैं। परन्तु इनकी प्रकृति और संस्कृति जनजातीय
लोगों से काफी मिलती-जुलती है।
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सदानी लोक नृत्य में स्त्री पुरुष तथा मोहर का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। प्रमुख
सदानी लोकनृत्य इस प्रकार हैं
फगुआ
लोकनृत्य
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यह नृत्य ‘होली’ के अवसर पर किया जाता है, जो फाल्गुन और चैत्र माह में होता है।
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इस नृत्य में पुरुष मुख्य रूप से भाग लेते हैं परन्तु कुछ क्षेत्रों में स्त्रियाँ
भी सम्मिलित होती हैं।
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इसमें गाने-बजाने के साथ ही स्त्री-पुरुष गीतों के राग पर भी नृत्य करते हैं। इसका
महत्त्वपूर्ण नृत्य ‘पंचरंगी फगुआ’ है, जिसकी हर कड़ी पर राग बदल जाते हैं ।
पइका
नृत्य
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यह नृत्य पुरुष प्रधान है, जिसमें पुरुषों की भाव-भंगिमा से वीरता तथा साहस का प्रदर्शन
किया जाता है।
>
इसका आयोजन विशेष अवसर; जैसे-उत्सव, समारोह, बारातियों के आगमन पर होता है, लेकिन यह
मूलतः युद्ध नृत्य है। इसके प्रमुख नर्तक राम दयाल मुण्डा, अशोक कच्छप इत्यादि हैं।
डोमकच
नृत्य
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यह मूलतः स्त्री प्रधान नृत्य है, परन्तु इसमें पुरुष भी सम्मिलित हो जाते हैं। इसमें
महिलाएँ दो दलों में बँटी होती हैं तथा एक कतार में हाथ -से-हाथ जोड़कर कदमों से चलकर
नृत्य करती हैं।
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इस नृत्य में भाग लेने वाली महिलाएँ अपने बालों (जूड़े) को डमरू के आकार में बाँधती
हैं, जिसके कारण इसका नाम डोमचक नृत्य पड़ा। इस नृत्य के तीन रूप एकहरिया, दोहरी तथा
झुमटा डमकच हैं।
झूमर
नृत्य
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यह नृत्य मुख्यतः तीन भागों में मर्दानी झूमर, बंगला झूमर तथा जनानी झूमर में विभाजित
हैं। मर्दानी झूमर तथा बंगला झूमर पुरुष प्रधान हैं तथा जनानी झूमर में महिलाएँ शामिल
होती हैं।
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जनानी झूमर में आगे की महिला करताल लिए नृत्य का नेतृत्व करती हैं। इस नृत्य के वादक
पुरुष होते हैं।
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मर्दानी झूमर का आयोजन इन्द मेला, मेला तथा सांस्कृतिक अवसरों पर किया जाता है। इसका
आयोजन खुले मैदानों में रात्रि में होता है। यह नृत्य गुमला सिमडेगा, खूँटी, रांची
आदि स्थानों पर लगने वाले मेलों में किया जाता है। इसके प्रसिद्ध नर्तक मुकन्द नायक
हैं।
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बंगला झूमर नागपुरी एवं पंचपरगना क्षेत्र में प्रचलित हैं।
जनजातीय
लोकनृत्य
जनजाति
लोक नृत्य के अन्तर्गत मुण्डारी, सन्थाली, खड़िया, हो, उराँव जनजातियों के
लोक-नृत्य आदि आते हैं।
मुण्डारी
लोकनृत्य
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प्रमुख मुण्डारी लोकनृत्य इस प्रकार हैं
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खड़िया नृत्य इसे बरया खेलना या राचा नृत्य भी कहते हैं । यह झारखण्ड में मुख्यतः खूँटी
जिले के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में प्रचलित है। इसका आयोजन मण्डा पर्व पर जागरण के
समय होता है। इसमें माँदर तथा घण्टी का विशेष महत्त्व होता है ।
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जदुर नृत्य इस नृत्य का आयोजन सरहुल के अवसर पर किया जाता है । यह महिला प्रधान नृत्य
है, जिसमें नर्तक-नर्तकी लाल रंग के कपड़े पहनते हैं। लाल रंग इस नृत्य की प्रधानता
का प्रतीक है। यह बहुत ही तीव्र गति का नृत्य है।
सन्थाली
लोकनृत्य
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प्रमुख सन्थाली लोकनृत्य इस प्रकार हैं
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शिकारी नृत्य यह नृत्य पुरुष प्रधान है, जो भाद्रपद (मई-जून) महीने के अन्त में किसी
वृक्ष के नीचे निश्चित तिथि को किया जाता है। इसमें जानताड़ा पर्व के अवसर पर तीव्र
परम्परागत वाद्य यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है।
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आषाढ़िया नृत्य यह नृत्य आषाढ़ के महीने में जाहेर या सरना स्थल पर किया जाता है ।
इसमें लाँगड़े संगीत के साथ तीव्र वाद्य-यन्त्रों का प्रयोग होता है।
खड़िया
लोकनृत्य
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प्रमुख खड़िया लोकनृत्य इस प्रकार हैं
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जतरा नृत्य इस नृत्य में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे का हाथ पकड़ तथा कतारबद्ध होकर नृत्य
करते हैं, जो वृत्ताकार या अर्द्ध वृत्ताकार भी होता है। इसे कुअढींग नृत्य भी कहते
हैं ।
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किनभर नृत्य यह नृत्य घर के आँगन में गीत गाकर किया जाता है। जिसमें वृत्ताकर होकर
झूमते हुए नृत्य किया जाता है। यह नृत्य फाल्गुन (मार्च-अप्रैल) से वैशाख तक चलता रहता
है।
हो
लोकनृत्य
>
प्रमुख हो लोकनृत्य इस प्रकार हैं
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हेरो नृत्य यह नृत्य स्त्री-पुरुष सम्मिलित रूप से करते हैं। धान की रोपाई की समाप्ति
के अवसर पर यह नृत्य किया जाता है ।
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बा नृत्य यह नृत्य सरहुल पर्व के अवसर पर स्त्री- -पुरुष सम्मिलित रूप से करते हैं।
इसमें दो दल होते हैं, जिसमें एक स्त्री का तथा दूसरा पुरुष का होता है ।
>
मागे नृत्य यह नृत्य माघ (फरवरी-मार्च ) महीने की पूर्णिमा को होता है, जिसमें स्त्री-पुरुष
सामूहिक रूप से शामिल होकर नृत्य करते हैं। इसमें पहले नृत्य होता है फिर रुककर गीत
गाया जाता है।
उराँव
लोकनृत्य
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प्रमुख उराँव लोकनृत्य इस प्रकार हैं
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फग्गु खद्दी नृत्य यह नृत्य सरहुल पर्व की प्रतीक्षा में फाल्गुन माह में किया जाता
है । इस नृत्य की समाप्ति पर हुर्रे की ध्वनि निकालते हैं। इस नृत्य में कई गीत गाए
जाते हैं जैसे- फग्गु, खत्री, फगिनाही, डोल, टुण्टा आदि ।
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करमा नृत्य यह नृत्य तीन महीने भाद्रपद, आश्विन तथा कार्तिक में होता है। यह नृत्य
करम पूजा के अवसर पर किया जाता है । इसमें युवक-युवतियों का समूह नृत्य करता है। करम
वृक्ष की तीन शाखाओं को आँगन में गाड़कर रातभर इसके चारों ओर नाच-गान किया जाता है।
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धुड़िया नृत्य इस नृत्य की पहचान धूल उड़ाने के रूप में होती है, क्योंकि सरहुल के
उपरान्त खेत जुत जाने के बाद बीज बो दिए जाते हैं। गर्म मौसम की वजह से जुते खेतों
से धूल उड़ती है। इस नृत्य में मांदर की विशेष भूमिका होती है।
छऊ
नृत्य
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यह झारखण्ड का सबसे लोकप्रिय लोकनृत्य है, जिसे राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर
भी ख्याति प्राप्त है। यह नृत्य पुरुष प्रधान है। इसमें पुरुष अपनी आन्तरिक भावनाओं
एवं विषय-वस्तु को शरीर के हावभाव एवं गत्यात्मक संकेतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया
जाता है। इसमें मुखौटे का प्रयोग होता है।
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यह नृत्य वीर रस का नृत्य है, जिसमें पौरुष की श्रेष्ठ पराकाष्ठा को प्रदर्शित किया
जाता है ।
>
इस नृत्य की जन्मभूमि झारखण्ड में सरायकेला-खरसावाँ को माना जाता है। यह नृत्य झारखण्ड
के अलावा पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा में भी किया जाता है ।
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छऊ नृत्य को झारखण्ड की एक प्राचीन सांस्कृतिक विरासत माना जाता है। वर्ष 1938 में
इस नृत्य की प्रस्तुति राजकुमार सुधोन्दु नारायण सिंह द्वारा यूरोप में कराई गई थी।
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इस नृत्य को यूनेस्को ने वर्ष 2010 में विश्व विरासत में शामिल किया है ।
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इस नृत्य के संरक्षण एवं विकास के लिए राजकीय मानभूम छऊ नृत्य कला केन्द्र, सिल्ली
की स्थापना वर्ष 2011 में की गई है ।
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छऊ नृत्य के प्रमुख कलाकार केदारनाथ साहू, राजकुमार शुधेन्दु, नारायण सिन्धु, श्यामाचरण
पति, मंगलाचरण पति, मकर ध्वज दरोगा, पण्डित गोपाल प्रसाद द्विवेदी तथा प्रभात कुमार
आदि हैं।
अन्य
प्रमुख जनजातीय लोकनृत्य
नृत्य |
विशेषता |
भादुरिया
नृत्य |
यह
सदानी (गैर जनजाति) लोक नृत्य है। यह भाद्रपद महीने में आयोजित किया जाता है। |
कली
नृत्य |
यह
सदानी लोक नृत्य है। इसे ‘नचनी- खेलड़ी’ नाच भी कहते हैं। |
अँगनई
नृत्य |
यह
नृत्य महिलाओं द्वारा आषाढ़ से कार्तिक माह तक किया जाता है। |
नटुआ
नृत्य |
यह
पुरुष प्रधान नृत्य है, जिसमें कलाबाजी का प्रर्दशन किया जाता है। |
दोंगड़े
नृत्य |
यह
सन्थाल जनजाति का पुरुष प्रधान नृत्य है। |
दोहा
नृत्य |
यह
नृत्य वैशाख (अप्रैल-मई) महीने में सन्थाल जनजाति के विवाह संस्कार के अवसर पर
किया जाता है। |
बाहा
नृत्य |
इसमें
सन्थाल स्त्री-पुरुष सामूहिक नृत्य करते हैं। |
डाहार
नृत्य |
यह
सन्थालों द्वारा बाँगा पर्व के अवसर पर किया जाता है। |
दसंय
नृत्य |
यह
स्त्री-पुरुष सामूहिक नृत्य सन्थालों का है। |
दोसमी
नृत्य |
यह
सन्थाल जनजाति त्योहारों के अवसर पर किया जाने वाला है। |
सकरात
नृत्य |
यह
मकर संक्रांति के अवसर पर सन्थालों द्वारा किया जाता है। |
इंद
जतरा नृत्य |
खड़िया
जनजाति का नृत्य यह आश्विन माह में किया जाता है। |
हलका
नृत्य |
यह
खड़िया जनजाति में स्त्री-पुरुषों द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। |
हारियो
नृत्य |
यह
खड़िया जनजाति का सामूहिक नृत्य है। यह माघ (फरवरी) महीने में होता है। |
जेठ
लहसुआ |
यह
नृत्य ज्येष्ठ (मई-जून) महीने में लोग रात्रि को अखरा में करते हैं। |
करम
ठढ़िया नृत्य |
यह
खड़िया जनजाति का नृत्य है। |
जेठवारी
ठोयलो |
यह
सामूहिक नृत्य खड़िया जनजाति नृत्य का है। |
डोडोंग
नृत्य |
यह
उराँव जनजाति का नृत्य है। इसे जदिरा नृत्य भी कहा जाता है। |
तुसगो
नृत्य |
यह
करम पूजा के अवसर पर उराँव जनजाति द्वारा किया जाता है। |
खद्दी
नृत्य |
यह
उराँव जनजाति का नृत्य है। |
करसा
नृत्य |
यह
उराँव जनजाति का नृत्य है। इसमें महिलाएँ कलश लेकर नाचती हैं। |
नृत्य से सम्बन्धित प्रमुख व्यक्तित्व
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नृत्य के क्षेत्र से सम्बन्धित झारखण्ड के प्रमुख व्यक्तित्वों का वर्णन निम्न है
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श्यामाचरण पति इनका जन्म वर्ष 1940 में इचा में हुआ था। ये छऊ नृत्य के प्रसिद्ध कलाकार
हैं। वर्ष 2006 में इन्हें भारतीय नृत्य कला में योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित
किया गया था ।
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मुकुन्द नायक इनका का जन्म सिमडेगा जिले के ओकेवा नामक गाँव में 15 अक्टूबर, 1949 को
हुआ था। इन्होंने लोकनृत्य को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने में प्रमुख भूमिका निभाई
है। उन्होंने झूमर लोकनृत्य को एशिया, अफ्रीका व यूरोप के कई देशों तक पहुँचाया।
मुकुन्द
नायक को कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हेतु वर्ष 2017 में पद्मश्री पुरस्कार
से सम्मानित किया गया ।
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गोपाल दुबे इनका जन्म 25 जून, 1957 को झारखण्ड के सरायकेला में हुआ था । ये छऊ नृत्य
के प्रसिद्ध कलाकार हैं। उन्हें वर्ष 2012 में पद्मश्री तथा 2016 को संगीत नाटक अकादमी
पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
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मकरध्वज दरोगा इनका जन्म सरायकेला में हुआ था। ये प्रसिद्ध छऊ कलाकार एवं गुरु थे।
वर्ष 2011 में इन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। 17 फरवरी, 2014 को इनकी मृत्यु
सरायकेला में हुई थी ।
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केदारनाथ साहू छऊ नृत्य के प्रसिद्ध कलाकार हैं। ये झारखण्ड के सरायकेला-खरसावाँ जिले
के रहने वाले हैं। इन्हें छऊ नृत्य पर महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए भारत सरकार ने वर्ष
2005 में पद्मश्री से सम्मानित किया। वर्ष 1981 में इन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
से सम्मानित किया गया था । इनकी मृत्यु अक्टूबर, 2008 को हुई।
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सुधेन्द्र नारायण सिंह देव झारखण्ड के प्रसिद्ध नर्तक एवं नृत्य निर्देशक थे। ये छऊ
नृत्य कला की सरायकेला नृत्य शैली के प्रसिद्ध नर्तक थे। इन्होंने छऊ नृत्य को विश्व
स्तर पर फैलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इन्हें संगीत कला अकादमी पुरस्कार से
सम्मानित किया गया है ।
राज्य के प्रमुख वाद्य-यन्त्र
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झारखण्ड राज्य में लोगों की जीवन शैली में संगीत, नृत्य और नाट्य आदि की प्रमुखता है।
यहाँ प्रत्येक पर्व-त्योहार, धार्मिक अनुष्ठान, सामाजिक कार्य, आर्थिक क्रियाकलाप में
नृत्य संगीत का आयोजन किया जाता है, जिसमें राग उत्पन्न करने वाले वाद्य यन्त्र की
मुख्य भूमिका होती है।
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राज्य में वाद्य-यन्त्रों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है, जिनका विवरण
इस प्रकार हैं
तन्तु
वाद्य – यन्त्र
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बुअंग यह सन्थाल समुदाय का वाद्य यन्त्र है। यह धनुष और सूखी लौकी के तुम्बा से निर्मित
होता है।
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केंदरा यह खोखले बाँस से निर्मित तथा लौकी के दो गोलाकार खोलों से बना होता है। इसे
कमानी से बजाया जाता है ।
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बनम यह सन्थाल समुदाय का वाद्य यन्त्र है । यह नारियल के खोल तथा चमड़े से निर्मित होता
है।
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एकतारा यह साधु तथा फकीरों का वाद्य-यन्त्र है। यह लकड़ी तथा सूखी लौकी से निर्मित
होता है।
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सारंगी इसकी बनावट बनम जैसी ही होती है। यह बनम से थोड़ा चौड़ा होता है।
फूँककर
बजाए जाने वाले वाद्य – यन्त्र
>
मुरली यह सन्थाल जनजातियों का वाद्य-यन्त्र है, यह बाँस से निर्मित होती है।
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बाँसुरी यह सन्थाल परगना क्षेत्र का पारम्परिक वाद्य यन्त्र है, इसे भी बाँस से बनाया
जाता है। झारखण्ड में बाँसुरी सबसे अधिक लोकप्रिय वाद्य यन्त्र है ।
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केंदरी यह सन्थालों का वाद्य-यन्त्र है, जो कछुएँ की खाल या नारियल के खोल से बनाया
जाता है ।
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धमसा यह लोहे की चादर से कड़ाही की आकृति की बनी होती है। यह छऊ नृत्य के अवसर पर बजाया
जाता है ।
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सिंगा यह भैंस के सींग से बनाया जाता है। यह छऊ नृत्य के अवसर पर बजाया जाता है ।
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थाला यह कांसे से निर्मित थाली होती है, जिसे भुट्टे की खलरी से बजाया जाता है।
>
शहनाई यह खोखले लकड़ी के टुकडे से बना होता है। इसे छऊ, पइका व नटुआ आदि नृत्य पर बजाया
जाता है ।
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मदनभेरी यह लकड़ी की नली के अग्र भाग में पीतल की नली से जुड़ी होती है, जिसे विवाह,
छऊ नृत्य आदि के अवसर पर बजाया जाता है।
पीटकर
बजाए जाने वाले वाद्य – यन्त्र
>
माँदर यह मिट्टी अथवा लकड़ी का गोलाकार बना होता है, जिस पर चमड़ा मड़ा होता है।
>
ढोल यह आम, कटहल, गम्हार आदि की लकड़ी से बने गोलाकार होते हैं, जिसे विवाह, पर्व,
नृत्य आदि अवसरों पर बजाया जाता है ।
>
नगाड़ा यह लोहे के गुम्बदाकार खोल से निर्मित होता है, इसे बजाने के लिए छड़ी का प्रयोग
किया जाता है।
>
ढाक इसे लकड़ी के खोल पर चमड़ा मढ़कर बनाया जाता है, इसे दुर्गा पूजा, पइका नृत्य,
नटुआ नृत्य आदि अवसरों पर बजाया जाता है ।
राज्य के प्रमुख लोकनाट्य
झारखण्ड
के लोकनाट्यों में जाट-जटिन, विदेशिया, सामा-चकेवा, भकुली-बंका, डोमकच, कीरतनिया,
रामलीला, कृष्णलीला आदि मुख्य रूप से शामिल हैं।
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इन लोकनाट्यों में से प्रमुख का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है
डोमकच
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यह लोकनाट्य स्त्रियों के मनोरंजन के लिए आयोजित किया जाता है। इसमें हास- परिहास एवं
संवाद प्रदर्शित होता है।
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इसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होता तथा यह नृत्य पुरुषों को देखने के लिए प्रतिबन्धित
होता है।
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डोमकच शादी-विवाह से सम्बन्धित नाट्य है। इसे दूल्हे की बारात जाने के बाद एवं अन्य
विशेष अवसरों पर देर रात्रि में महिलाओं द्वारा घर आँगन में किया जाता है।
सामा-चकेवा
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यह लोकनाट्य भाई-बहन के पवित्र प्रेम से सम्बन्धित है। यह कार्तिक (नवम्बर) महीने के
शुक्ल पक्ष में आयोजित होता है।
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इस नाट्य के चार प्रमुख पात्र सामा (नायिका), चकेवा (नायक), चूड़क चुगला (खलनायक) एवं
साम्ब ( सामा का भाई ) होते हैं।
भकुली
– बंका
यह
नाट्य श्रावन के महीने में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें भकुली एवं बंका के
वैवाहिक जीवन को दर्शाया जाता है।
कीरतनिया
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इसमें कई वाद्य-यन्त्रों की संगत से कीर्तन का मंचन किया जाता है । इस भक्तिपूर्ण लोकनाट्य
में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन भक्ति गीतों के माध्यम से किया जाता है।
> इसमें गृहस्थ जीवन के उतार-चढ़ाव देखे जा सकते हैं
।
जाट-जटिन
>
श्रावण – कार्तिक महीने में कुँवारी कन्याओं द्वारा किए जाने वाले इस लोकनाट्य में
जाट-जटिन के वैवाहिक जीवन को दर्शाया जाता ।
झारखण्ड
की प्रमुख नाट्य संस्थाएँ एवं नाट्य संगठन
स्थान |
नाट्य संस्था एवं संगठन |
जमशेदपुर |
निहारिका,
निशान ड्रामाटिका एसोसिएशन, अरब नाट्य संघ, मंच, आराधना, कल्पना, अनुपमा कल्चरल
सोसायटी, रंगभारती तथा अभिनय आदि। |
बोकारो |
बोकारो
कला केन्द्र, छन्दरूपा, एमेच्योर आर्टिस्ट एसोसिएशन आदि। |
गिरिडीह |
टेटस
नाट्य ग्रुप, त्रिमूर्ति, रंगालय तथा युवा रंगमंच आदि। |
हजारीबाग |
सम्राट,
नाट्यांचल |
रांची |
आयाम,
वसुन्धरा आर्ट, रंग दर्पण, सार्थक, देशप्रिया आदि। |