झारखण्ड
अधिविद्य परिषद्
ANNUAL
INTERMEDIATE EXAMINATION - 2024
PHILOSOPHY
Arts (Optional)
22.02.2024
Total
Time: 3 Hours 15 minute
Full
Marks: 80
सामान्य निर्देश
1.
इस प्रश्न-पुस्तिका में दो भाग भाग-A तथा भाग-B हैं।
2.
भाग-A में 30 अंक के बहुविकल्पीय प्रश्न तथा भाग-B में
50 अंक के विषयनिष्ठ प्रश्न हैं।
3.
परीक्षार्थी को अलग से उपलब्ध
कराई गई उत्तर-पुस्तिका में उत्तर देना है।
4.
भाग-A इसमें 30 बहुविकल्पीय प्रश्न हैं जिनके 4 विकल्प
(A, B, C तथा D ) हैं। परीक्षार्थी को उत्तर-पुस्तिका में सही उत्तर लिखना है। सभी
प्रश्न अनिवार्य हैं। प्रत्येक प्रश्न 1 अंक का है। गलत उत्तर के लिए कोई अंक काटा
नहीं जाएगा।
5.
भाग-B इस भाग में तीन खण्ड खण्ड-A, B तथा C हैं। इस भाग
में अति लघु उत्तरीय, लघु उत्तरीय तथा दीर्घ उत्तरीय प्रकार के विषयनिष्ठ प्रश्न
हैं। कुल प्रश्नों की संख्या 22 है।
खण्ड-A
प्रश्न संख्या 31-38 अति लघु उत्तरीय हैं। किन्हीं 6 प्रश्नों के उत्तर दें।
प्रत्येक प्रश्न 2 अंक का है। ।
खण्ड-B
प्रश्न संख्या 39-46 लघु उत्तरीय हैं। किन्हीं 6 प्रश्नों के उत्तर दें। प्रत्येक
प्रश्न 3 अंक का है। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अधिकतम 150 शब्दों में दें।
खण्ड-C
प्रश्न संख्या 47-52 दीर्घ उत्तरीय हैं। किन्हीं 4 प्रश्नों के उत्तर दें।
प्रत्येक प्रश्न 5 अंक का है। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अधिकतम 250 शब्दों में
दें।
6.
परीक्षार्थी यथासंभव अपने शब्दों में ही उत्तर दें।
7.
परीक्षार्थी परीक्षा भवन छोड़ने के पहले अपनी
उत्तर-पुस्तिका वीक्षक को अनिवार्य रूप से लौटा दें।
8.
परीक्षा समाप्त होने के उपरांत परीक्षार्थी
प्रश्न-पुस्तिका अपने साथ लेकर जा सकते हैं।
Part-A (बहुविकल्पीय प्रश्न)
प्रश्न
संख्या 1 से 30 तक बहुविकल्पीय प्रकार हैं। प्रत्येक प्रश्न के चार विकल्प हैं।
सही विकल्प चुनकर उत्तर पुस्तिका में लिखें। प्रत्येक प्रश्न 1 अंक का है। 1 x 30 = 30
1. गीता में मोक्ष के कौन-कौन से मार्ग बताए गए
हैं ?
(A) ज्ञान
(B) कर्म
(C) गुण
(D) इनमें से सभी
2. मनुष्य की प्रवृत्ति (याँ) है/हैं
(A) सात्विक
(B) राजसिक
(C) तामसिक
(D) इनमें से सभी
3. आध्यात्मिक अनुभूति को किस दर्शनशास्त्र में
बौद्धिक ज्ञान से उच्च माना गया है ?
(A) भारतीय दर्शनशास्त्र
(B) पाश्चात्य दर्शनशास्त्र
(C) (A) एवं (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
4. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष किसके प्रकार है
?
(A) कर्म
(B) पुरुषार्थ
(C) आश्रम
(D) वर्ण
5. त्रिपिटक संबंधित है
(A) बौद्ध दर्शन से
(B) सांख्य दर्शन से
(C) जैन दर्शन से
(D) इनमें से कोई नहीं
6. जैन दर्शन में विदेह मुक्ति को कहा जाता है
(A) बोधिसत्व
(B) कैवल्य
(C) निर्वाण
(D) परिनिर्वाण
7. अनुमिति के कारण को क्या कहते हैं ?
(A) शब्द
(B)
उपमान
(C) अनुमान
(D)
प्रत्यक्ष
8. भारतीय दर्शन के किस पहलू को योग दर्शन कहते
हैं ?
(A) भौतिक
(B) व्यावहारिक
(C) सामाजिक
(D) इनमें से कोई नहीं
9. प्रकृति के विकार होते हैं
(A) तेईस
(B) ग्यारह
(C) बाईस
(D) छः
10. 'पदार्थ शब्द' में दो शब्द निहित हैं, वे
कौन-से हैं ?
(A) पद-प्रपद
(B) पद-सपद
(C) पद-अर्थ
(D) अर्थ-अनर्थ
11. वैशेषिक दर्शन के द्वारा कितने प्रकार के
गुण माने गए हैं ?
(A) अट्ठारह
(B) चौबीस
(C) तेईस
(D) अट्ठाइस
12. अन्योन्यभाव क्या है ?
(A) अनादि अनन्त
(B) अनन्त
(C) अनादि
(D) इनमें से कोई नहीं
13. व्यावहारिक दृष्टिकोण से जगत की सृष्टि, पालन
और संहार को माना गया है
(A) असत्य
(B) जगत
(C) सत्य
(D) सत्ता
14. वेदान्त दर्शन के प्रवर्तक हैं
(A) शंकर
(B) बादरायण
(C) गौड़पाद
(D) इनमें से कोई नहीं
15. ब्रह्म है
(A) चेतन
(B) संहारक
(C) पालनहार
(D) इनमें से कोई नहीं
16. अद्वैत का अर्थ होता है
(A) दो नहीं
(B) एक नहीं
(C) चार नहीं
(D) तीन नहीं
17. ग्रीक दर्शन के जनक हैं
(A) बुद्धिवाद
(B) थेलीज
(C) अरस्तू
(D) प्लेटो
18. अनुभववाद के समर्थक हैं
(A) देकार्त
(B) स्पीनोजा
(C) ह्यूम
(D) कांट
19. कारण कार्य नियम है
(A) वैज्ञानिक
(B) सामाजिक
(C) दार्शनिक
(D) सामान्य
20. कारण होता है
(A) पूर्ववर्ती
(B) अनौपाधिक
(C) नियत
(D) इनमें से सभी
21. वस्तुवाद है
(A) तत्वमीमांसीय सिद्धांत
(B) ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत
(C) (A) एवं (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
22. देकार्त्त ने स्वीकारा है
(A) समानान्तरवाद
(B) अन्तर्क्रियावाद
(C) पूर्व स्थापित सामंजस्यवाद
(D) इनमें से कोई नहीं
23. स्पीनोजा के अनुसार मन एवं शरीर का सम्बन्ध
है
(A) क्रियावाद
(B) समानान्तरवाद
(C) (A) एवं (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
24. बर्कले समर्थक हैं
(A) आत्मनिष्ठ प्रत्ययबाद का,
(B) वस्तुनिष्ठ प्रत्ययवाद का
(C) निरपेक्ष प्रत्ययवाद का
(D) इनमें से कोई नहीं
25. निरपेक्ष प्रत्ययवाद के समर्थक हैं
(A) प्लेटो
(B) बर्कले
(C) हेगेल
(D) अरस्तू
26. वस्तुएँ ज्ञाता से स्वतंत्र होती है। यह विचार
है
(A) भौतिक
(B) भौतिकवादी
(C) समीक्षावाद
(D) इनमें से कोई नहीं
27. पर्यावरणीय नीतिशास्त्र है।
(A) मनुष्य केन्द्रित
(B) जीवन केन्द्रित
(C) पशु केन्द्रित
(D) इनमें से सभी
28. भारतीय दर्शन में यथार्थ ज्ञान कहलाता है
(A) प्रमा
(B) अप्रमा
(C) ख्याति
(D) प्रमाण
29. निम्न में से कौन पुरुषार्थ है ?
(A) ईश्वर
(B) आत्मा
(C) संपत्ति
(D) इनमें से कोई नहीं
30. उपनिषदों का सार है
(A) गीता
(B) महाभारत
(C) रामायण
(D) बाइबिल
भाग-B (विषयनिष्ठ प्रश्न )
Section - A (अति लघु उत्तरीय प्रश्न)
किन्हीं छः प्रश्नों के उत्तर दें।
2 x 6 = 12
31. कौन सा दर्शन बौद्धिक है ?
उत्तर - बौद्धिक दर्शन भारतीय दर्शन की एक महत्वपूर्ण शाखा
है जो ज्ञान, चेतना और वास्तविकता की प्रकृति पर केंद्रित है। यह दर्शन,
ज्ञानमीमांसा, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान और भाषा विज्ञान सहित विभिन्न विषयों को
शामिल करता है।
32. स्वधर्म का वास्तविक संबंध किससे है ?
उत्तर - गीता के अनुसार जिस वर्ण का जो स्वाभाविक कर्म है,
वही उसका स्वधर्म है।
33. जैन धर्म की धारणा क्या है ?
उत्तर - जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने
जाते हैं। जैन धर्म इस विश्वास पर आधारित है कि प्रत्येक जीवित प्राणी में एक
आत्मा या जीव है, और जीवन का अंतिम लक्ष्य जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से
मुक्ति, या मोक्ष प्राप्त करना है।
34. न्यायसूत्र में कितने पदार्थों का उल्लेख
किया गया है ? न्यायसूत्र में पहला पदार्थ कौन-सा है ?
उत्तर - न्यायसूत्र में सोलह पदार्थों का उल्लेख किया गया
है । न्यायसूत्र में पहला पदार्थ प्रमाण है ।
35. वस्तुवाद कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर - वस्तुवाद दो प्रकार के होते हैं - लोकप्रिय और दार्शनिक
36. बुद्धिवाद क्या है ?
उत्तर-बुद्धिवाद एक ज्ञान मीमांसीय
सिद्धान्त है जिसके अनुसार ज्ञान की उत्पत्ति बुद्धि से होती है। बुद्धिवादी दार्शनिक
हैं- पारमेनाईडिस, सुकरात, प्लेटो, डेमोक्राइट्स, देकार्त, स्पीनोजा, हेराक्लीट्स।
37. कारण के गुणात्मक लक्षण बताइए ।
उत्तर - तात्कालिक, नियत, अनौपाधिक, पूर्ववती घटना है।
38. दुःख किसे कहते है ? बुद्ध ने दुःख के कितने
कारणों की खोज की हैं ?
उत्तर- मरना, रोना पीटना, चिन्ता करना, परेशान होना आदि को
दुःख कहते हैं। बुद्ध ने दुःख के बारह कारणों की खोज की है।
खण्ड – B (लघु उत्तरीय प्रश्न )
किन्हीं
छः प्रश्नों के उत्तर दें। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अधिकतम 150 शब्दों में दें। 3
x 6 = 18
39. भारतीय दर्शन का एक संक्षिप्त परिचय दीजिए
।
उत्तर - भारतीय दर्शन, जिसे "दर्शनशास्त्र" भी
कहा जाता है, मानव जीवन, वास्तविकता और ज्ञान की प्रकृति को समझने का एक प्राचीन
प्रयास है। यह वेदों, उपनिषदों और अन्य प्राचीन ग्रंथों में निहित है।
भारतीय दर्शन की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं:
1. आध्यात्मिकता: भारतीय दर्शन का मुख्य उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार और
मुक्ति प्राप्त करना है।
2. विविधता: भारतीय दर्शन में विभिन्न दर्शनों का समावेश है, जो विभिन्न दृष्टिकोणों से
वास्तविकता और ज्ञान की व्याख्या करते हैं।
3. प्रमाण:
भारतीय दर्शन में ज्ञान प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रमाणों का उपयोग किया जाता
है, जैसे कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द।
4. तर्क:
भारतीय दर्शन में तर्क और वाद-विवाद को महत्वपूर्ण माना जाता है।
5. नैतिकता: भारतीय दर्शन में नैतिकता और जीवन जीने के सही तरीके पर भी ध्यान दिया जाता है।
कुछ प्रमुख भारतीय दर्शन:
वेदांत: वेदांत,
उपनिषदों पर आधारित दर्शन है, जो ब्रह्म (परम वास्तविकता) और आत्मा (व्यक्तिगत आत्मा)
की एकता पर केंद्रित है।
सांख्य: सांख्य
दर्शन, प्रकृति (प्रकृति) और पुरुष (आत्मा) के द्वैतवाद पर आधारित है।
योग: योग
दर्शन, मन और शरीर को नियंत्रित करने और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए विभिन्न
तकनीकों पर केंद्रित है।
न्याय: न्याय
दर्शन, ज्ञान और तर्क के सिद्धांतों पर केंद्रित है।
बौद्ध धर्म: बौद्ध धर्म, दुख और उसके निवारण पर केंद्रित दर्शन है।
जैन धर्म: जैन धर्म, अहिंसा और आत्म-शुद्धि पर केंद्रित दर्शन
है।
निष्कर्ष:
भारतीय दर्शन, मानव जीवन और वास्तविकता की प्रकृति को समझने का एक समृद्ध और विविध
प्रयास है। यह विभिन्न दर्शनों का समावेश करता है जो विभिन्न दृष्टिकोणों से ज्ञान
और जीवन के अर्थ की व्याख्या करते हैं।
40. भगवद्गीता में कर्मयोग के अर्थ को स्पष्ट
करें।
उत्तर - कर्मयोग, भगवद्गीता में वर्णित एक महत्वपूर्ण दर्शन
है, जो कर्म और कर्तव्य के महत्व पर केंद्रित है।
कर्मयोग का अर्थ:
कर्म:
कर्म का अर्थ है कार्य या क्रिया।
योग: योग
का अर्थ है जुड़ना या मिलना।
कर्मयोग:
कर्मयोग का अर्थ है कर्म को ईश्वर से जोड़ना।
कर्मयोग के मुख्य सिद्धांत:
☞ निष्काम कर्म: कर्मफल की इच्छा बिना कर्म करना।
☞ कर्तव्य का पालन: अपनी क्षमता के अनुसार अपने
कर्तव्यों का पालन करना।
☞ समर्पण:
कर्म का फल ईश्वर को समर्पित करना।
☞ समानता: सभी
कार्यों को समान भाव से करना।
☞ असक्ति:
कर्म और कर्मफल में आसक्ति न रखना।
41. अष्टांगिक मार्ग में सम्यक दृष्टि का क्या
अर्थ है ?
उत्तर - दुख से मुक्ति के आठ उपायों को बुद्ध ने आष्टांगिक
मार्ग कहा है। अष्टांगिक मार्ग में सम्यक दृष्टि का अर्थ है यथार्थ को स्पष्ट रूप
से समझना। यह चार आर्य सत्यों को स्वीकार करना है:
1. दुःख: जीवन में दुःख मौजूद है, चाहे वह शारीरिक हो या
मानसिक।
2. दुःख का कारण: दुःख अज्ञानता, मोह और तृष्णा से उत्पन्न
होता है।
3. दुःख का निरोध: दुःख से मुक्ति संभव है।
4. दुःख निरोध का मार्ग: आर्य आष्टांगिक मार्ग दुःख से
मुक्ति का मार्ग है।
सम्यक दृष्टि केवल बौद्ध धर्म की अवधारणा नहीं है, बल्कि यह
जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण है। यह हमें जीवन की वास्तविकता को स्वीकार
करने और दुःख से मुक्ति के लिए प्रयास करने में मदद करता है।
42. अनेकान्तवाद से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर - जैन दर्शन ने तत्व की प्रकृति के सम्बन्ध में अनेकान्तवाद
की स्थापना की है। जैन दर्शन का विचार है कि प्रत्येक वस्तु में बहुत-से धर्म होते
हैं। इस प्रकार किसी भी वस्तु की व्याख्या केवल एक ही तरह से न होकर के कई प्रकार
से की जा सकती है। वस्तु भिन्न-भिन्न पक्षों के मुताबिक उसके सत्य रूप भी कई
प्रकार के हो सकते हैं। समय (काल) के साथ योग करने पर इन रूपों की विविधता भी बढ़
जाती है।
निष्कर्ष के आधार पर प्रत्येक वस्तु के अनेक रूप होते हैं
भिन्न-भिन्न विचारधारा से उसको समझा या देखा जा सकता है। अन्य शब्दों में प्रत्येक
वस्तु के अनेक धर्म होते हैं, इसलिए किसी वस्तु के एक ही धर्म पर जोर देना
अनुपयुक्त होगा। इसी को अनेकान्तवाद कहते हैं।
43. ज्ञान क्या है ? समझाइए ।
उत्तर - ज्ञान एक व्यापक शब्द है जिसके कई अर्थ और
परिभाषाएं हैं। सामान्य तौर पर, ज्ञान को किसी विषय या वस्तु के बारे में जानकारी
और समझ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह जानकारी विभिन्न तरीकों से
प्राप्त हो सकती है, जैसे कि अनुभव, अध्ययन, शिक्षा, या दूसरों से प्राप्त
जानकारी।
44. अरस्तू द्वारा स्वीकार किये गये किन्हीं दो
कारणों के बारे में बताएँ ।
उत्तर - अरस्तू ने चार कारणों का सिद्धांत प्रस्तुत किया
था, जो किसी भी घटना या वस्तु के अस्तित्व को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन चार
कारणों में से दो कारणों का वर्णन नीचे किया गया है:
1. उपादान कारण (Material Cause): यह किसी वस्तु या घटना के निर्माण में उपयोग किए गए पदार्थ
या सामग्री को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, एक मूर्ति का उपादान कारण संगमरमर हो
सकता है, या एक घर का उपादान कारण ईंट, लकड़ी और सीमेंट हो सकता है।
2. औपचारिक कारण (Formal Cause): यह किसी वस्तु या घटना का स्वरूप या रूप को दर्शाता है। यह
वस्तु को उसकी विशिष्ट पहचान प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, एक मूर्ति का औपचारिक
कारण उसका आकार और डिजाइन हो सकता है, या एक घर का औपचारिक कारण उसकी वास्तुकला और
डिजाइन हो सकता है।
उदाहरण: मान
लीजिए कि हम एक मूर्ति के निर्माण के बारे में सोच रहे हैं।
उपादान कारण: मूर्ति बनाने के लिए संगमरमर का उपयोग किया जाएगा।
औपचारिक कारण: मूर्ति का स्वरूप एक व्यक्ति का चेहरा होगा।
45. स्पीनोजा का सर्वेश्वरवाद क्या है ?
उत्तर - स्पीनोजा का सर्वेश्वरवाद एक दार्शनिक सिद्धांत है
जो ईश्वर और ब्रह्मांड के बीच संबंध को समझने का प्रयास करता है। यह सिद्धांत
निम्नलिखित मुख्य विचारों पर आधारित है:
1. ईश्वर ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है: स्पीनोजा का मानना था कि ईश्वर ही एकमात्र वास्तविक सत्ता
है और ब्रह्मांड ईश्वर का ही एक रूप है। वे ईश्वर को एक निराकार, अनंत और अविभाज्य
सत्ता के रूप में देखते थे।
2. ईश्वर और प्रकृति एक हैं: स्पीनोजा के अनुसार, ईश्वर और प्रकृति एक ही सत्ता के दो
पहलू हैं। ईश्वर प्रकृति में निहित है और प्रकृति ईश्वर की अभिव्यक्ति है।
3. नियतिवाद: स्पीनोजा का मानना था कि ब्रह्मांड में सभी घटनाएं पूर्वनिर्धारित हैं और
स्वतंत्र इच्छा का कोई अस्तित्व नहीं है। सभी घटनाएं ईश्वर की इच्छा के अनुसार
घटित होती हैं।
4. मनुष्य का लक्ष्य: स्पीनोजा के अनुसार, मनुष्य का लक्ष्य ईश्वर को जानना और
उसके साथ एकात्मता प्राप्त करना है। यह ज्ञान हमें जीवन के दुखों से मुक्ति दिला
सकता है और हमें सच्ची खुशी प्रदान कर सकता है।
46. सद्गुण क्या है ?
उत्तर - सद्गुण वे गुण हैं जो किसी व्यक्ति को नैतिक रूप से
अच्छा और श्रेष्ठ बनाते हैं। ये गुण व्यक्ति को दूसरों के प्रति दयालु, ईमानदार,
निष्पक्ष, और उदार बनाते हैं। सद्गुणों के कुछ उदाहरण हैं:
☞ दया: दूसरों के प्रति सहानुभूति और करुणा दिखाना।
☞ ईमानदारी: सच बोलना और दूसरों के साथ विश्वासघात न करना।
☞ न्याय: सभी के साथ समान व्यवहार करना।
☞ उदारता: दूसरों को बिना किसी अपेक्षा के देना।
☞ धैर्य: कठिन परिस्थितियों में भी शांत और संयमित रहना।
☞ हौसला: चुनौतियों का सामना करने और हार न मानने का साहस।
☞ आत्म-संयम: अपनी इच्छाओं और भावनाओं पर नियंत्रण रखना।
सद्गुणों का विकास व्यक्ति को एक बेहतर इंसान बनाता है। ये
गुण व्यक्ति को समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाते हैं। सद्गुणों के विकास से
व्यक्ति को आत्म-संतुष्टि और खुशी भी मिलती है।
खण्ड – C (दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)
किन्हीं
चार प्रश्नों के उत्तर दें। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अधिकतम 250 शब्दों में दें।
5 x 4 = 20
47. स्वधर्म की महत्ता को स्पष्ट करें ।
उत्तर - स्वधर्म का अर्थ है अपना कर्तव्य या धर्म। यह वह
कर्म है जो व्यक्ति को अपने जीवन में करना चाहिए। स्वधर्म का पालन करने से व्यक्ति
को आत्म-संतुष्टि, खुशी और सफलता प्राप्त होती है।
स्वधर्म की महत्ता निम्नलिखित कारणों से है:
1. आत्म-विकास: स्वधर्म का पालन करने से व्यक्ति का आत्म-विकास होता है। जब व्यक्ति अपने
कर्तव्यों का पालन करता है, तो उसे आत्म-संतुष्टि और खुशी प्राप्त होती है।
2. सामाजिक विकास: स्वधर्म का पालन करने से समाज का विकास होता है। जब सभी
व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, तो समाज में सुव्यवस्था और शांति
स्थापित होती है।
3. राष्ट्रीय विकास: स्वधर्म का पालन करने से राष्ट्र का विकास होता है। जब
सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, तो राष्ट्र प्रगति करता है।
4. आध्यात्मिक विकास: स्वधर्म का पालन करने से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता
है। जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता है, तो उसे ईश्वर की कृपा प्राप्त
होती है।
48. न्याय के ईश्वर संबंधी प्रमाणों को बताइये
तथा परीक्षण करें ।
उत्तर - न्याय दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने
के लिए तीन मुख्य प्रमाण दिए गए हैं:
1. नैतिक नियमों का प्रमाण: यह प्रमाण कहता है कि नैतिक नियमों का अस्तित्व ईश्वर के
अस्तित्व को सिद्ध करता है। नैतिक नियम वस्तुनिष्ठ और सार्वभौमिक होते हैं। यदि
ईश्वर नहीं होता, तो नैतिक नियमों का कोई आधार नहीं होता।
2. न्याय का प्रमाण: यह प्रमाण कहता है कि दुनिया में न्याय का होना ईश्वर के
अस्तित्व को सिद्ध करता है। यदि ईश्वर नहीं होता, तो दुनिया में अन्याय और अराजकता
का साम्राज्य होता।
3. दुष्टों की समृद्धि का प्रमाण: यह प्रमाण कहता है कि दुष्टों की समृद्धि ईश्वर के अस्तित्व
को सिद्ध करता है। यदि ईश्वर नहीं होता, तो दुष्टों को दंड नहीं मिलता और अच्छे
लोगों को पुरस्कार नहीं मिलता।
इन प्रमाणों का परीक्षण
इन प्रमाणों की वैधता पर कई विद्वानों ने प्रश्न उठाए हैं।
कुछ मुख्य आलोचनाएं इस प्रकार हैं:
1. नैतिक नियमों का प्रमाण
☞ नैतिक नियमों की वस्तुनिष्ठता और सार्वभौमिकता को लेकर
विवाद है।
☞ नैतिक नियमों का आधार सामाजिक सहमति हो सकता है, न कि
ईश्वर।
2. न्याय का प्रमाण
☞ दुनिया
में बहुत अन्याय और अराजकता है।
☞ यदि ईश्वर
है, तो वह इस अन्याय को क्यों नहीं रोकता?
3. दुष्टों की समृद्धि का प्रमाण
☞ कई दुष्ट
लोग दंडित नहीं होते हैं।
☞ कई अच्छे
लोग पुरस्कृत नहीं होते हैं।
49. काण्ट के समीक्षावाद की विश्लेषणात्मक व्याख्या
कीजिए ।
उत्तर - इमानुएल काण्ट (1724-1804) जर्मन दार्शनिक थे
जिन्हें ज्ञानोदय काल के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में से एक माना जाता है। काण्ट
ने ज्ञान, नैतिकता, और सौंदर्यशास्त्र सहित कई विषयों पर महत्वपूर्ण योगदान दिया।
काण्ट का समीक्षावाद ज्ञान के सिद्धांत पर केंद्रित है।
समीक्षावाद का अर्थ है ज्ञान के स्रोतों और सीमाओं की आलोचनात्मक जांच करना। काण्ट
का मानना था कि ज्ञान दो स्रोतों से आता है: अनुभव और बुद्धि।
अनुभव हमें बाहरी दुनिया के बारे में जानकारी प्रदान करता
है। हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से अनुभव प्राप्त करते हैं। अनुभव हमें यह बताता
है कि दुनिया कैसी है, लेकिन यह हमें यह नहीं बताता कि दुनिया क्यों है।
बुद्धि हमें ज्ञान की संरचना प्रदान करती है। बुद्धि हमें
यह समझने में मदद करती है कि अनुभव का क्या अर्थ है। बुद्धि हमें सामान्य सिद्धांत
और अवधारणाएं प्रदान करती है जो हमें अनुभव को व्यवस्थित और समझने में मदद करती
हैं।
काण्ट का मानना था कि ज्ञान अनुभव और बुद्धि के संयोजन से
बनता है। अनुभव हमें सामग्री प्रदान करता है, और बुद्धि हमें रूप प्रदान करती है।
काण्ट के समीक्षावाद के कुछ मुख्य बिंदु:
☞ ज्ञान अनुभव और बुद्धि के संयोजन से बनता है।
☞ अनुभव हमें सामग्री प्रदान करता है, और बुद्धि हमें रूप
प्रदान करती है।
☞ हम केवल वही जान सकते हैं जो अनुभव द्वारा दिया जाता है
और बुद्धि द्वारा समझा जाता है।
☞ हम "चीजें अपने आप में" (noumena) नहीं जान
सकते हैं, हम केवल "प्रतिभा" (phenomena) जान सकते हैं।
☞ ज्ञान की सीमाएं हैं, लेकिन हम इन सीमाओं को समझ सकते हैं
और उनका विस्तार कर सकते हैं।
काण्ट के समीक्षावाद का महत्व:
☞ काण्ट के समीक्षावाद ने ज्ञान के सिद्धांत में क्रांति ला
दी।
☞ इसने ज्ञान के स्रोतों और सीमाओं को समझने में हमारी मदद
की।
☞ इसने आधुनिक दर्शन की नींव रखी।
काण्ट के समीक्षावाद की आलोचना:
☞ कुछ आलोचकों का मानना है कि काण्ट अनुभव और बुद्धि के बीच
बहुत अधिक अंतर करते हैं।
☞ अन्य
आलोचकों का मानना है कि काण्ट "चीजें अपने आप में" के बारे में बहुत
अधिक अज्ञेयवादी हैं।
50. अरस्तू के चतुष्कोटिक कारणतावाद सिद्धांत
की व्याख्या करें ।
उत्तर - अरस्तू, प्राचीन यूनानी दार्शनिक, ने कारणतावाद का
एक सिद्धांत प्रस्तुत किया जो चार प्रकार के कारणों पर आधारित है:
1. उपादान कारण (Material Cause): यह वह पदार्थ या सामग्री है जिससे कोई वस्तु बनती है।
उदाहरण के लिए, एक मूर्ति का उपादान कारण संगमरमर है।
2. स्वरूप कारण (Formal Cause): यह वह रूप या संरचना है जो किसी वस्तु को उसकी पहचान देती
है। उदाहरण के लिए, एक मूर्ति का स्वरूप कारण मूर्तिकला का डिजाइन है।
3. प्रेरक कारण (Efficient Cause): यह वह एजेंट या शक्ति है जो किसी वस्तु के निर्माण के लिए
ज़िम्मेदार है। उदाहरण के लिए, एक मूर्ति का प्रेरक कारण मूर्तिकार है।
4. अंतिम कारण (Final Cause): यह वह उद्देश्य या लक्ष्य है जिसके लिए किसी वस्तु का निर्माण
किया जाता है। उदाहरण के लिए, एक मूर्ति का अंतिम कारण सुंदरता को व्यक्त करना या
किसी व्यक्ति की स्मृति को बनाए रखना हो सकता है।
अरस्तू के अनुसार, इन चारों कारणों का एक साथ होना किसी भी
वस्तु के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। इनमें से किसी भी एक कारण की अनुपस्थिति में,
वस्तु का अस्तित्व नहीं होगा।
उदाहरण:
☞ मान लीजिए कि हम एक घर के निर्माण के बारे में सोच रहे
हैं।
☞ उपादान
कारण: घर के निर्माण के लिए ईंट, सीमेंट, लकड़ी, आदि जैसे उपादानों की आवश्यकता
होगी।
☞ स्वरूप
कारण: घर का स्वरूप कारण उसकी वास्तुकला, डिजाइन, और आकार होगा।
☞ प्रेरक
कारण: घर का प्रेरक कारण कारीगर, मजदूर, और इंजीनियर होंगे जो घर का निर्माण करते
हैं।
☞ अंतिम
कारण: घर का अंतिम कारण एक परिवार के लिए आश्रय प्रदान करना, सुरक्षा प्रदान करना,
या सामाजिक स्थिति का प्रतीक बनना हो सकता है।
अरस्तू के कारणतावाद सिद्धांत के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु:
☞ यह सिद्धांत सभी प्रकार की वस्तुओं पर लागू होता है, चाहे
वे प्राकृतिक हों या मानव निर्मित।
☞ यह सिद्धांत हमें यह समझने में मदद करता है कि वस्तुएं
कैसे और क्यों अस्तित्व में आती हैं।
☞ यह सिद्धांत हमें यह समझने में भी मदद करता है कि वस्तुओं
का क्या अर्थ है और उनका उद्देश्य क्या है।
अरस्तू के कारणतावाद सिद्धांत की आलोचना:
☞ कुछ आलोचकों का मानना है कि यह सिद्धांत बहुत जटिल है और
इसे लागू करना मुश्किल है।
☞ अन्य आलोचकों का मानना है कि यह सिद्धांत अंतिम कारण पर
बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करता है, जो हमेशा स्पष्ट नहीं होता है।
51. चिकित्सा नीतिशास्त्र के मुख्य सिद्धांतों
की विवेचना कीजिए ।
उत्तर - चिकित्सा नीतिशास्त्र, जिसे जैव-चिकित्सा नैतिकता
भी कहा जाता है, चिकित्सा पेशेवरों के आचरण और निर्णय लेने के लिए मार्गदर्शक
सिद्धांतों का एक समूह है। यह रोगियों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और समाज के बीच
नैतिक संबंधों को नियंत्रित करता है।
चिकित्सा नीतिशास्त्र के मुख्य सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
1. स्वायत्तता (Autonomy):
☞ रोगियों को अपनी स्वास्थ्य देखभाल के बारे में स्वतंत्र
निर्णय लेने का अधिकार है।
☞ स्वास्थ्य
सेवा प्रदाताओं को रोगियों को उनके विकल्पों के बारे में जानकारी प्रदान करनी
चाहिए और उनके निर्णयों का सम्मान करना चाहिए।
2. लाभ (Beneficence):
☞ स्वास्थ्य
सेवा प्रदाताओं को रोगियों को लाभ पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए।
☞ उपचार
के संभावित लाभों को संभावित जोखिमों से अधिक होना चाहिए।
3. गैर-दुर्भावना (Non-maleficence):
☞ स्वास्थ्य
सेवा प्रदाताओं को रोगियों को नुकसान पहुंचाने से बचना चाहिए।
☞ उपचार
के संभावित जोखिमों को कम से कम किया जाना चाहिए।
4. न्याय:
☞ स्वास्थ्य
सेवा सभी रोगियों के लिए समान रूप से उपलब्ध होनी चाहिए।
☞ स्वास्थ्य
सेवा प्रदाताओं को रोगियों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए।
5. गोपनीयता (Confidentiality):
☞ रोगियों की स्वास्थ्य जानकारी गोपनीय होनी चाहिए।
☞ स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को रोगियों की सहमति के बिना उनकी
जानकारी किसी के साथ साझा नहीं करनी चाहिए।
इन सिद्धांतों के अलावा, चिकित्सा नीतिशास्त्र में कुछ अन्य
महत्वपूर्ण अवधारणाएं भी शामिल हैं:
☞ सच बोलना (Truth telling): स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को रोगियों
को उनके स्वास्थ्य के बारे में सच बताना चाहिए।
☞ सम्मान (Respect): स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को रोगियों के
साथ सम्मान के साथ व्यवहार करना चाहिए।
☞ करुणा (Compassion): स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को रोगियों
के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए।
चिकित्सा नीतिशास्त्र एक जटिल और गतिशील क्षेत्र है। नए चिकित्सा
प्रौद्योगिकियों और सामाजिक बदलावों के साथ, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को लगातार नैतिक
दुविधाओं का सामना करना पड़ता है। चिकित्सा नीतिशास्त्र के सिद्धांत इन दुविधाओं को
हल करने और रोगियों के लिए सर्वोत्तम निर्णय लेने में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं.
52. अनुभववाद का वर्णन ज्ञानशास्त्रीय सिद्धांत
के रूप में आप किस प्रकार करेंगे ? स्पष्ट कीजिए
।
उत्तर - अनुभववाद ज्ञानशास्त्र में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत
है जो ज्ञान के स्रोत के रूप में अनुभव को प्राथमिकता देता है। अनुभववादियों का
मानना है कि ज्ञान इंद्रिय अनुभवों से प्राप्त होता है, न कि किसी अन्य स्रोत से,
जैसे कि तर्क, रहस्योद्घाटन, या अंतर्ज्ञान।
अनुभववाद के मुख्य सिद्धांत:
☞ ज्ञान का स्रोत अनुभव है: ज्ञान इंद्रिय अनुभवों से
प्राप्त होता है, जैसे कि देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, और स्पर्श करना।
☞ अनुभव
ही वास्तविकता का आधार है: हम केवल वही जान सकते हैं जो हम अनुभव कर सकते हैं।
☞ ज्ञान
जन्मजात नहीं होता है: हम जन्म के समय ज्ञान के साथ नहीं पैदा होते हैं। हम अनुभव
के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करते हैं।
☞ तर्क
अनुभव पर आधारित होता है: तर्क अनुभवों से प्राप्त जानकारी का उपयोग करता है।
अनुभववाद के कुछ प्रमुख विचारक:
☞ जॉन
लॉक: लॉक को अनुभववाद का जनक माना जाता है। उन्होंने तर्क दिया कि हमारा मन एक
"खाली स्लेट" (tabula rasa) की तरह होता है, जो अनुभवों से भरा जाता है।
☞ डेविड
ह्यूम: ह्यूम ने तर्क दिया कि सभी ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है, और हम
"कारण" और "प्रभाव" जैसी अवधारणाओं का सीधे अनुभव नहीं कर
सकते।
☞ जॉन
स्टुअर्ट मिल: मिल ने तर्क दिया कि ज्ञान को अनुभव द्वारा परीक्षण किया जाना
चाहिए।
अनुभववाद के कुछ फायदे:
☞ यह एक सरल और समझने में आसान सिद्धांत है।
☞ यह अनुभवजन्य
साक्ष्य और तर्क पर आधारित है।
☞ यह
ज्ञान के विकास और प्रगति को समझने में मदद करता है।
अनुभववाद के कुछ नुकसान:
☞ यह
अनुभवों की व्याख्या करने के लिए तर्क और अंतर्ज्ञान की भूमिका को कम करता है।
☞ यह
ज्ञान के कुछ स्रोतों, जैसे कि रहस्योद्घाटन या अंतर्ज्ञान को नकारता है।
☞ यह नैतिकता और सौंदर्यशास्त्र जैसे क्षेत्रों में ज्ञान प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है।
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