अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund)

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund)

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund)

प्रश्नः- अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के संगठन, उद्देश्यों तथा कार्यों की आलोचनात्मक समीक्षा करे ?

उत्तर - प्रथम विश्व युद्ध के बाद, स्वर्णमान टूटने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं भुगतान के क्षेत्र में काफी कविनाइ‌यां होने लगी। द्वितीय विश्व युद्ध ने भी विदेशी, विनिमय और व्यापार के क्षेत्र में अव्यवस्था की स्थिति पैदा कर दी। संसार के देशों के सामने गम्भीर प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन की समस्या विद्यमान थी। अतः सब देशों ने यह अनु‌भव किया कि इस समस्या के दीर्घकालीन एवं स्थायी हल के लिए पारस्परिक समझौता के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग की स्थापना की जाय। फलस्वरूप 1944 में अमेरिका के ब्रेटनवुड्स नामक स्थान में एक अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सम्मेलन बुलाया गया जिसमे 44 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया और पर्याप्त विचार विमर्श के बाद एक ऐसे माध्यम की खोज की जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और भुगतान में सरलता हो सके। इस प्रकार एक अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संगन के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना 27 दिसम्बर 1945 को वाशिंगटन में हुई, किंतु वास्तविक रूप में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने अपना कार्य 1 मार्च 1947 से आरम्भ किया।

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प्रो हाॅम के शब्दों में, "अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष केन्द्रीय बैंकों का बैंक है तथा यह संसार की मौद्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी संस्था है"

लेकिन IMF न केन्द्रीय बैंको का बैंक है और न तो परम्परागत स्वर्णमान का संशोधित रूप है। केन्स ने कहा है- "मुद्रा कोष अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली को सुधारने का महत्त्वपूर्ण प्रयास है"।

I. M. F का संग

मुद्रा कोष का मुख्य कार्यालय वाशिंगटन (अमेरिका) में है। 1 मार्च 1947 को IMF के केवल 40 सदस्य थे जिनकी संख्या वर्तमान में बढ़कर 184 हो गई है।

कोष की समझौता पत्र की धारा 12 में कोष के ढांचे का उल्लेख है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोष में प्रशासक मण्डल, एक कार्यकारी मण्डल, एक प्रबन्ध संचालका तया स्टाफ होगा। जो निम्न प्रकार के है-

(1) प्रशासक मंडल :- इसमे प्रत्येक सदस्य देश का एक एक प्रतिनिधि होता है जिसकी कार्य अवधि 5 वर्ष की होती है। सदस्य देश को एक वैकल्पिक गवर्नर नियुक्त करने का भी अधिकार रहता है। प्रशासक मंडल की बैठक सामान्यतः वर्ष में एक बार अवश्य होती है। इस बैठक में नये सदस्यों का प्रवेश, अभ्यांशों की मात्रा में कमी वृद्धि या पुनरावृत्ति आदि पर विचार किया जाता है।

(2) कार्यकारी संचालक मंडल :- यह निर्णय लेने वाली एक स्थाई संस्था है तथा कोष के सभी कार्य इसके द्वारा संपादित किए जाते है। वर्तमान में इसमे 22 कार्यकारी निदेशक है जिसमे से 6 की नियुक्ति की जाती है तथा 1 की नियुक्ति सऊदी अरब देश द्वारा की जाती है। शेष 16 कार्यकारी निदेशक, अन्य देशो द्वारा चुने जाते है तथा इनकी अवधि दो वर्ष की होती है।

(3) अंतरिम समिति :- यह एक सलाहकारी संस्था है जिसमे प्रशासक मण्डल के 22 सदस्य होते है। ये गवर्नर / मंत्री या समकक्ष श्रेणी के हो सकते है तथा उन्ही क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते है जो निदेशक मण्डल के होते है। इसकी वर्ष में दो बैठके होती है।

(4) विकास समिति :- यह IMF एवं IBRD की संयुक्त समिति है जो विकासशील देशों को वास्तविक संसाधनों के हस्तान्तरण पर विचार करती है। इस समिति में 22 सदस्य होते है जो कोष एवं बैंक के प्रशासक होते है तथा इसकी बैठक अंतरिम समिति के साथ ही साथ होती है।

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I.M.F के उद्देश्य

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F) के निम्नलिखित उद्देश्य है

(1) अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग को प्रोत्साहन :- मुद्रा कोष का प्रथम उद्देश्य सदस्य देशों में मुद्रा नीति सम्बन्धी सहयोग स्थापित करना है। इसके लिए कोष द्वारा विशेषज्ञों का एक दल रखा जाता है जो अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक समस्याओं के समाधान के लिए समय-समय पर सुझाव देता है।

(2) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का संतुलित विकास :- द्वितीय युद्धकाल में सब देशों द्वारा आयात-निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए थे। अनेक आर्थिक एवं राजनीतिक कारणों से भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की मात्रा में बहुत कमी हो गई। कोष के अनुसार मुद्रा कोष का कोई भी सदस्य कोष की अनुमति लिए बिना अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन अथवा भुगतानो पर कोई बन्धन नहीं लगा सकता। इस प्रकार IMF का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सन्तुलित विकास करना है।

(3) बहुमुखी भुगतान :- मुद्रा कोष का एक उद्देश्य विदेशी विनिमय सम्बंधी प्रतिबंधों को हटाकर बहुमुखी भुगतान प्रणाली की स्थापना करना है। इसका उद्देश्य उन समस्त विनिमय प्रतिबंधों को समाप्त करना है जिनसे विश्व व्यापार के विकास में बाधा उत्पन्न होती है।

(4) असंतुलन की अवधि तथा मात्रा को कम करना :- यह संगठन के सदस्य राष्ट्रों को कोष प्रदान करके उनके भुगतान शेष में अस्थायी असन्तुलन की मात्रा को कम करने का प्रयत्न करता है। इतना ही नहीं कोष असंतुलन की अवधि को कम से कम करने का उपाय खोजता है।

(5) मुद्रा कोष के संसाधनों से सदस्य देशों की सहायता :- कोष का उद्देश्य समुचित सुरक्षा के अन्तर्गत सदस्य राष्ट्रों के लिए कोष उपलब्ध कराना और भुगतान शेष की प्रतिकूलता में सुधार लाना।

(6) अन्तर्राष्ट्रीय भुगतानों की विषमता को दूर करना :- मुद्रा कोष सदस्य सदस्य राष्ट्रों की भुगतान संतुलन की अस्थायी विषमता को दूर करने में क्रियात्मक सहयोग प्रदान करता है। यह सह‌योग अल्पकालिन ऋण देकर किया जाता है। जिससे सम्बंधित देशों को आर्थिक सहायता ही नहीं मिलती बल्कि उन्हें अपनी व्यापारिक स्थिती को ठीक करने का समय मिल जाता है। इस प्रकार सदस्य राष्ट्र अपने भुगतान संतुलन को सुधारने के लिए कोई ऐसा कार्य नहीं करते है जो अन्तर्राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध हो।

(7) पिछड़े तथा अल्पविकसित देशों में पूँजी निवेश में सहायता प्रदान करना :- मुद्रा कोष धनी देशों से निर्धन देशों को पूँजी निर्यात में सहायता देता है, ताकि इन देशो में आर्थिक विकास संभव हो सके ।

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I.M.F के कार्य

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निम्नलिखित प्रमुख कार्य है -

(1) ऋण देने सम्बन्धी कार्य :- IMF का एक प्रमुख कार्य सदस्य राष्ट्रों के भुगतान संतुलन में होने वाले अस्थायी घाटे को दूर करना है। इसके लिए मुद्रा कोष सदस्य राष्ट्रो को विदेशी मुद्राएँ बेचता है तथा उन्हें उधार देता है ताकि वे भुगतान संतुलन के असन्तुलन को दूर कर सके। मुद्रा कोष द्वारा सदस्य राष्ट्रों को उनके केन्द्रीय बैंको के माध्यम से ही ऋण दिये जाते है।

भुगतान संतुलन के अस्थायी घाटे को दूर करने के लिए दिये गये अल्पकालीन ऋणों के अतिरिक्त मुद्रा कोष कुछ अन्य परिस्थितियों में भी ऋण प्रदान करता है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है

(a) आर्थिक संकट की अवस्था में :- यदि किसी देश में किन्ही कारणों से आर्थिक एवं राजनीतिक संकट उत्पन्न हो जाय जिससे उस देश के अतिरिक्त अन्य देशों को भी हानि होने की सम्भावना हो तो मुद्रा कोष तत्काल आकस्मिक ऋण की व्याख्या कर देता है।

(b) विनिमय सम्बन्धी सामयिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए :- कोष कुछ देशों को उसके विनिमय सम्बंधि सामयिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए भी ऋण देता है। विश्व के कुछ देशो के निर्यात सामयिक होते है। वे एक फसल पर निर्भर करते है। अतः इन देशों को दूसरी फसल तैयार होने तक भुगतान संबंधी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। इन देशों को मुद्रा कोष 6 से 12 महीने तक का ऋण देता है।

(c) चालू भुगतान में असंतुलन दूर करने के लिए :-कभी कभी विभिन्न देशों द्वारा उपभोग अथवा विकास की योजनाओ में अधिक पूँजी लगाने के कारण उनके चालू भुगतान में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है जिसे दूर करने के लिए मुद्रा कोष सहायता प्रदान करता है।

(d) स्थायित्व ऋण :- कभी-कभी कुछ देश अपने भुगतान संतुलन की स्थिती को ठीक करने के लिए एक के बजाये कई विनिमय दरें अपना लेते है लेकिन इन से भी उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं होता। अतः जब उनकी स्थिती कुछ सुधरने लगती है तो वे विभिन्न विनिमय दरों को त्याग कर एक स्थायी समता दर अपना चाहते है लेकिन तत्काल वे ऐसा नहीं कर सकते क्योकि इसके लिए उन्हें स्थायी ऋण की जरूरत पड़ती है ऐसी स्थिती में कोष उन्हें ऋण देता है।

(2) विनिमय स्थायित्व :- जब मुद्रा कोष की स्थापना हुई थी तो उसका मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों के बीच विनिमय स्थायित्व को कायम करना था। अतः सभी देशो के मुद्रा का मूल्य स्वर्ण अथवा डॉलर में निर्धारित किया गया था। विनिमय दरों को लोचपूर्ण रखने के लिए मुद्रा कोष ने विनिमय दरों के निर्धारण के सम्बंध में प्रबन्धित परिवर्तन शीलता का सिद्धांत अपनाया था जिसके अन्तर्गत सदस्य देश अपनी मुद्रा की प्रारम्भिक समता दर में 10% तक परिवर्तन, कोष को सूचना देकर ही कर सकते थे।

(3) दुर्लभ मुद्रा :- कोष के विधान के अन्तर्गत दुर्लभ मुद्राओं के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। दुर्लभ मुद्रा वह होती है जिसकी पूर्ति, माँग की अपेक्षा बहुत कम होती है। मुद्रा कोष के पास सभी देशों की मुद्राएँ रहती है और मुद्रा कोष उन्हें विभिन्न देशों को बेचता है तथा उधार देता है। जब किसी देश की मुद्रा के लिए अन्य देशों द्वारा अत्यधिक माँग होती है तो मुद्रा कोष इस प्रकार की मुद्रा को उस देश से उधार ले सकता है। यदि वह देश अपनी मुद्रा उधार नहीं देता तो मुद्रा कोष स्वर्ण देकर उसे खरीद भी सकता है। इस प्रकार मुद्रा कोष उस मुद्रा की बढ़ी हुई माँग को संतुष्ट करने का प्रयत्न करता है परन्तु फिर भी इस मुद्रा की मांग पूर्णतः संतुष्ट नहीं होती, तब मुद्रा कोष इस प्रकार की मुद्रा को दुर्लभ घोषित कर सकता है।

(4) मुद्रा का पुनः क्रय :- मुद्रा के पुनः क्रय सम्बन्धी कार्यों का उद्देश्य मुद्रा कोष के स्वर्ण एवं परिवर्तनशील मुद्रा स्टॉक में वृद्धि करना एवं कोष को गतिशील बनाये रखना है। दुर्लभ मुद्रा के ठीक विपरीत यह भी सम्भव है कि मुद्रा कोष के पास ऐसी मुद्राएँ काफी मात्रा में जमा हो जाये जिनकी मांग नहीं है। ऐसी स्थिति में कोष अपना कार्य सफलतापूर्वक नहीं चला सकेगा। मुद्रा कोष की तरलता को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि कोष के पास किसी सदस्य देश की मुद्रा अधिक मात्रा में जमा न होने पाये ।

(5) अल्पकालीन अन्तर्राष्ट्रीय साख की व्यवस्था :- सदस्य देशों के भुगतान शेष की प्रतिकूलता की मात्रा एवं अधि को कम करने के लिए मुद्रा कोष दो प्रकार से अल्पकालीन अन्तर्राष्ट्रीय सारव की व्यवस्था करता है (i) सदस्यों को विदेशी मुद्रा बेचकर तथा (ii) सदस्यों की आवश्यकता के अनुसार विदेशी मुद्रा का वचन देकर । यह सहायता संबंधी देश के केन्द्रीय बैंक ऋण वचन का सुझाव प्रो. वर्नस्टीन ने दिया था। उनके अनुसार 1952 से अनेक देशों के साथ ऋण वचन के समझौते किए गए।

(6) विनिमय नियंत्रण संबंधी परामर्श :- I.M.F अपने अधिकारियों की सहायता से विभिन्न सदस्य राष्ट्रों को और विशेषकर अविकसित देशों को विनिमय एवं विनिमय नियंत्रण सम्बन्धी परामर्श भी देता है। इससे इन देशों को विदेशी विनिमय के क्षेत्र में सुधार लाने में मदद मिलती है।

(7) तकनीकी सहायता :- वित्तीय सहायता के साथ-साथ मुद्रा कोष सदस्य देशों को तकनीकी सहायता भी देता है। यह सहायता दो प्रकार से दी जाती है-

(a) मुद्रा कोष के विशेषज्ञों की सेवा

(b) बाहरी विशेषज्ञों की सेवा ।

(8) क्षतिपूरक वित्तीय सहायता :- इस योजना के अन्तर्गत उन देशों को अम्यांश के आधार पर निश्चित राशि के अतिरिक्त भी सहायता देने का प्रावधान है जो मुख्य रूप से प्राथमिक पदार्थों का उत्पादन और निर्यात करते है। प्रारम्भिक प्रावधान के अनुसार क्षतिपूरक वित्तीय सहायता के रूप में सदस्य देश को एक वर्ष की अवधि में अपने अम्यांश का 50% भाग प्राप्त करने का अधिकार था किंतु 1980 में मुद्रा कोष ने एक वर्ष में अभ्यांश के 50% की उपर्युक्त शर्समाप्त कर दी।

(9) संक्रान्तिकालीन सुविधाएँ :- अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विदेशी व्यापार एवं विदेशी विनिमय पर लगाये गये सभी प्रकार के प्रतिबंधों के विरुद्ध है, परन्तु सक्रांतिकाल में सदस्य देशों को विनिमय नियंत्रण आयातों पर प्रतिबन्ध आदि लगाने का अधिकार दिया गया है। संक्रांतिकाल के उपरान्त सदस्य देशों को विदेशी व्यापार तथा विदेशी विनिमय पर लगाये गये प्रतिबन्धों को हटाना होगा।

(10) पूरक वित्त पोषण सुविधा :- मुद्रा कोष ने अपने सदस्य देशों की सुविधा के लिए एक और सहायता का प्रारंभ पूरक वित्त पोषण सुविधा के माध्यम से किया । जिन सदस्य देशों के भुगतान संतुलन में भारी घाटा होता है, उन्हें मुद्रा कोष सामान्य सहायता अतिरिक्त पूरक वित्तीय सहायता भी देता है जो प्रायः दीर्घकाल के लिए होती है।

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आलोचनाएँ

कई आधारों पर इसकी आलोचना की जाती है जो निम्नलिखित है:-

(1) कार्य क्षेत्र सीमित :- मुद्रा कोष मुख्य रूप से केवल चालू लेन-देन से सम्बन्धित विदेशी विनिमय की समस्याओं को अल्पकालीन सहायता द्वारा हल करने का प्रयास करता है। चूंकि यह पूंजी के आयात निर्यात, आर्थिक विकास अथवा युद्ध सम्बन्धी ऋणों आदि के लिए कोई व्यवस्था नहीं करता इसलिए इसका कार्य क्षेत्र सीमित रह जाता है।

(2) भेद‌पूर्ण व्यवहार :- आलोचकों का यह भी कहना है कि मुद्रा कोष का व्यवहार सभी सदस्य देशों के साथ एक सा नहीं है। विकसित एवं विकासशील सभी देशों को प्रायः विशेष सुविधाएँ दी जाती है, जबकि अविकसित देशों की उपेक्षा की जाती है। अफ्रीका के कुछ देशो ने इसे 'धनाढ्‌‌यो का क्लब' कहा है।

(3) विनिमय स्थिरता स्थापित करने में असफलता :- कुछ राष्ट्र ऐसे भी है जिन्होंने कोष के नियमों की अवहेलना की है तथा कोष की आज्ञा प्राप्त किये बिना ही अपनी मुद्राओं के समता मूल्यों में परिवर्तन कर लिया है। कोष इन देशों के विरुद्ध कोई कड़ी कारवाई नहीं कर सकता।

(4) तरलता समस्या का समाधान नही :- अपने सीमित साधनों के कारण मुद्रा कोष सदस्य देशो की विदेशी मुद्रा सम्बन्धी आवश्यकताओं को पुरा नहीं कर सका है। सत्य तो यह है कि दुर्लभ मुद्राओं के आबंटन में मुद्रा कोष सदस्य देशो की आवश्यकताओं को पुरा करने में असमर्थ रहा है।

(5) गुणित विनिमय दरो का उन्मूलन नहीं :-गुणित विनिमय दरो से अभिप्राय यह है कि कुछ देश विभिन्न प्रकार के अन्तर्राष्ट्रीय सौदों के लिए विभिन्न प्रकार की विनिमय दरो को अपनाते है। इस प्रकार की विनिमय दरो का उन्मूलन करना मुद्रा कोष का एक प्रमुख उद्देश्य है। लेकिन, उस उद्देश्य की पूर्ति में मुद्रा कोष बुरी तरह असफल रहा।

(6) छोटे सदस्य राष्ट्रों के प्रति असहानुभूतिपूर्ण रवैया :- तत्कालीन महामंत्री रामफल ने 30 नवम्बर 1985 में कहा था कि छोटे सदस्य देशो के प्रति मुद्रा कोष का रवैया बहुत ही असहानुभूति पूर्ण एवं निराशाजनक है। इन देशों को बहुत ही कम एवं अपर्याप्त वित्तीय सहायता दी जाती है। यही नहीं, इन देशो से ऋणों की वसूली करते समय कठोरता का व्यवहार किया जाता है।

(7) विकासशील देशों को दी गयी आर्थिक सहायता अपर्याप्त :- विकासशील देशों को मुद्रा कोष से दो उद्देश्य की पूर्ति हेतु वित्तीय सहायता की आवश्यकता पड़ती है (ⅰ) आर्थिक विकास (ⅱ) पुराने ऋणों का भुगतान। इन दोनो ही उद्देश्यों के लिए विकासशील देशों को मुद्रा कोष से अत्यन्त अपर्याप्त वित्तीय सहायता प्राप्त हुई है।

(8) 1971 के मौद्रिक संकट को दूर करने में असमर्थ :- 1971 में अमेरिका सरकार ने डॉलर तथा स्वर्ण की परिवर्तनशीलता समाप्त करने की घोषणा की थी। जिसका परिणाम यह हुआ कि मुद्रा कोष के प्रमुख उद्देश्य विनिमय दरो में स्थिरता पर अमल नहीं किया जा सका।

मुद्रा कोष और भारत

भारत उन प्रारम्भिक 44 देशों में से एक है जिन्होंने ब्रेटन वुड्‌स सम्मेलन में भाग लिया। शुरू में भारत उन पाँच देशों में एक था जिनके शेयर सबसे अधिक थे। अतः भारत को मुद्रा कोष के संचालक मण्डल में स्थाई स्थान दिया गया था। किंतु 1970 के बाद अन्य देशों का कोटा अधिक हो जाने के कारण संचालक मण्डल में भारत की स्थाई सदस्यता समाप्त हो गई है।

भुगतान शेष की कठिनाइयो को दूर करने के लिए भारत ने मुद्रा कोष से समय-समय पर ऋण लिए है। जो निम्न तालिका से स्पष्ट है:-

वर्ष (मार्च के अन्त तक)

कुल ऋण(मिलियन डाॅलर)

1991

2623

1992

3451

1993

4799

1994

5040

1995

4300

1996

2374

1997

1313

1998

664

1999

287

2000

26

भारत को मुद्रा कोष से अनेक लाभ हुए है जिनमे मुख्य निम्नलिखित है:-

(1) विश्व बैंक की सदस्यता :- मुद्रा कोष की सदस्यता के फलस्वरूप भारत विश्व बैंक का सदस्य बन सका है जिससे भारत को आर्थिक विकास के लिए सर्वाधिक सहायता मिली है।

(2) संकट में सहायक :- भारत को अपने भुगतान असन्तुलन को दूर करने में मुद्रा कोष से यथासमय सहायता मिली है। प्रथम, द्वितीय व तृतीय योजनाओं के अन्तिम वर्षों में प्रायः भारत को विदेशी विनिमय संकट का सामना करना पड़ा और मुद्रा कोष ने उस समय उदारतापूर्वक सहायता दी । 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण के फलस्वरूप जब आर्थिक कठिनाइयां उत्पन्न हुई, मुद्रा कोष ने तत्काल भारत को 20 करोड़ डालर का ऋण देना स्वीकार किया। 1966, 1974, 1975 तथा 1982 में भी आर्थिक संकट का निवारण करने के लिए मुद्रा कोष से विदेशी मुद्रा मिल गई।

(3) अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय मान :- मुद्रा कोष की सदस्यता के फलस्वरूप भारत की मुद्रा का सम्बंध संसार की सभी महत्त्वपूर्ण मुद्राओं से जुड़ गया है। फलस्वरूप भारत को दो लाभ हुए है:- (a) भारत किसी भी देश में सरलता से भुगतान कर सकता है (b) भारत स्टर्लिंग के गठबन्धन से मुक्त ो गया है।

(4) विशेषज्ञों से परामर्श :- सदस्यता के फलस्वरूप IMF के विशेषज्ञ भारत को समय-समय पर भुगतान सन्तुलन के सम्बंध में उचित सलाह देते रहते है। इस सलाह के आधार पर भारत को आर्थिक सहायता भी प्राप्त हो रही है।

(5) नीति निर्धारण मे हाथ :-भारत प्रारम्भ से ही मुद्रा कोष के कार्यकारी संचालक मण्डल का स्थाई सदस्य रहा है। इसके फलस्वरूप भारत अपनी तथा अन्य विकासशील देशों की समस्याओं को प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत कर रहा है।

(6) अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव में वृद्धि :- मुद्रा कोष का सदस्य बनने के बाद भारत के अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव में वृद्धि हुई है तथा अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की बात पर ध्यान दिया जाता है। भारत की अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कोष स्थापित करने की सलाह पर मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक ने अपनी सहमति व्यक्त की है।

(7) आर्थिक सुधारों एवं उदारीकरण नीति में सहायता :- 1991 के उत्तरार्ध में जब भारत संकट के दौर से गुजर रहा था। IMF ने भारत की आर्थिक सुधारो तथा उदारीकरण की नीति को सफल बनाने के लिए अक्टूबर 1991 से जुलाई 1993 के बीच उद्यत ऋण व्यवस्था के अन्तर्गत 2.2 अरब डालर का ऋण स्वीकृत किया।

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निष्कर्ष

IMF ने अधिकाश देशो को आर्थिक सहायता प्रदान कर उनके विकास में मदद दी है। यही कारण है कि IMF की सदस्य संख्या जो स्थापना के समय 30 थी, 1990 तक बढ़कर 856.3 अरब SDR हो गया है। यह इसकी सफलता को दर्शाता है।

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