प्रश्न - मौद्रिक नीति से आप क्या समझते है ? मौद्रिक नीति के विभिन्न
उद्देश्यों की व्याख्या करे ?
> 'स्थिर मूल्य उतने ही हानिकारक तथा अन्यायपूर्ण होते है जितना
की द्रुत गति से बढ़ते अथवा घटते हुए
मूल्य" व्याख्या करें?
उत्तर - मुद्रा से अर्थव्यवस्था
में अवांछित तत्त्व जैसे तेजी एवं मंदी की अवस्था उत्पन्न होती है। अतः मुद्रा तथा
साख से संबंधित वह नीति जिससे अर्थव्यवस्था में अवांछित तत्त्व न उत्पन्न हो तथा
वांछित तत्त्वों का आगमन हो मौद्रिक नीति कहलाता है।
दूसरे
शब्दों में, "मौद्रिक नीति केन्द्रीय बैंक या सरकार की वह नीति है जिसके
द्वारा अर्थव्यवस्था में मुद्रा एवं साख की मात्रा को नियमित करता है"।
प्रो
हैरी जॉनसन के अनुसार, "मौद्रिक नीति का मतलब बैंक की उस नीति से जिसके
द्वारा केन्द्रीय बैंक सामान्य आर्थिक नीति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुद्रा
की पूर्ति को नियन्त्रित करता
है"।
मौद्रिक नीति की व्याख्या
व्यापक एवं संकुचित दोनों दृष्टिकोण से की जाती है। संकुचित अर्थ में मौद्रिक नीति
के मौद्रिक प्रणाली जैसे मुद्रा की पूर्ति, ब्याज की दर एवं साख नियंत्रण आदि
माध्यमों का सहारा लिया जाता है। जबकि व्यापक अर्थ में मौद्रिक प्रणाली के अलावे
गैर मौद्रिक उपाय आते है जैसे - मजदूरी एवं मूल्य नियंत्रण, व्यापार एवं विनियोग
नियंत्रण तथा बेरोजगारी को समाप्त करने, बजट नीति को सम्मिलित किया जाता है।
मौद्रिक नीति के उद्देश्य
मौद्रिक
नीति अर्थव्यवस्था में मूल्य, आय, व्यय, उत्पादन एवं रोजगार इत्यादि को प्रभावित
करती है। समय में परिवर्तन के साथ-साथ आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन होते रहते
है। इसलिए मौद्रिक नीति के उद्देश्य भी अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग रहे है।
अतः मौद्रिक नीति के कई उद्देश्य है जिसमे निम्नलिखित प्रमुख है:-
1.
मूल्यो में स्थिरता
:- मूल्य स्तर में उतार चढाव आने से समाज के विभिन्न वर्गों पर बुरा असर पड़ता है।
अतः मूल्यों में स्थिरता लाना मौद्रिक नीति का एक प्रमुख उद्देश्य है। गुस्ताव
कैसल तथा लार्ड
केन्स ने मौद्रिक नीति के इस उद्देश्य का समर्थन किया था। इन अर्थशास्त्रियों के
अनुसार मूल्य स्तर में उतार-चढ़ाव आने पर मुद्रा संकुचन एवं मुद्रा स्फीर्ति की
स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार कीमतों में स्थिरता का अर्थ यह नहीं कि सभी प्रकार
की वस्तुओं की कीमते एक निश्चित स्तर पर स्थिर कर दी जाये। इसका अभिप्राय केवल
सामान्य कीमत स्तरों में उचित स्थिरता लाना है।
कीमत में स्थिरता का समर्थन करने के पीछे यह तर्क दिया जाता
है कि इससे चक्रिय उथल- पुथल को रोका जा सकता है। मूल्यों में स्थायित्व रहने से
आर्थिक क्रियाओं को प्रोत्साहन मिलता है जिससे आर्थिक स्थायित्व की प्राप्ति होती
है। मूल्यो में स्थिरता में समाज के सभी वर्गो को लाभ प्राप्त होता है क्योंकि घटते
हुए मूल्य से गरीब व्यक्ति को और बढ़ते हुए मूल्यों से व्यापारी, पूंजीपतियों को
फायदा होता है। इसलिए मूल्यों में स्थिरीकरण द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों के बीच
राष्ट्रीय आय एवं सम्पत्ति का वितरण न्यायपूर्ण ढंग से हो सकता है।
आलोचना
कीमत स्थिरता मौद्रिक नीति का उद्देश्य मानना जितना आकर्षक
दिखाई पड़ता है इसको लागू करना उतना ही कठिन है।
(1) किस मूल्य तल का स्थिरीकरण किया जाए :- इससे यह निश्चित रूप से स्पष्ट पता नहीं चलता है कि कौन
सी कीमत को और किस स्तर पर स्थिर रखा जाए। मूल्य स्तर में थोक मूल्य, खुदरा
मूल्य एवं श्रम मूल्य आते हैं लेकिन इसमें किस मूल्य तल को स्थिर किया जाए पता
नहीं चलता है।
(2) मूल्य
स्तर मे होने वाले परिवर्तन अवांछनीय नहीं होते है :- मूल्य स्तर में होने वाले कुछ परिवर्तन अवांछनीय होते
हैं। थोक मूल्य है लेकिन इसमें किस अतः वे हानिकारक है लेकिन कुछ परिवर्तन लाभदायक
होते है क्योंकि उनसे आर्थिक क्रियाओं को प्रोत्साहन मिलता है।
(3) आर्थिक विकास में बाधक :- आर्थिक विकास के लिए उत्पादन व्यवसाय आदि में वृद्धि
होना जरूरी है। यह तभी होगा जब मुनाफे में वृद्धि हो और मुनाफा मूल्यों पर निर्भर
करता है।
(4) मूल्य स्थायित्व अन्यायपूर्ण हो सकता है :- मूल्यों में होने वाले वृद्धि से व्यापारी, पूँजीपति
एवं धनिया को फायदा होता है और मूल्यों में कमी होने से गरीब मजदूरों को फायदा
होता है। यदि मूल्यों को स्थायी बना दिया जाए तो इन दोनो वर्ग के लिए अन्यायपूर्ण
सिद्ध होगा।
इसलिए कहा जाता है कि स्थायी मूल्य उतने ही हानिकारक होते
है जितने कि तेजी से बढ़ते अथवा घटते हुए मूल्य
2. विनिमय
दर का स्थायित्व :- कुछ
अर्थशास्त्रियों के अनुसार मौद्रिक नीति का उद्देश्य विनिमय दर में स्थायित्व
प्राप्त करना होना चाहिए। स्वर्णमान के समय में विनिमय दर में स्थायित्व लाना ही
मौद्रिक नीति का उद्देश्य था। विदेशी विनिमय दर में स्थिरता प्राप्त करने के पक्ष
में निम्नलिखित बातों का तर्क दिया जाता है:-
(a) आयातक निर्यातक देशों को अस्थिरता से बचाता है :- जिन राष्ट्रो की अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापार पर आधारित
होती है उनके लिए विदेशी विनिमय दर में स्थिरता बहुत महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि
विदेशी विनिमय दर की अस्थिरता से विदेशी व्यापार अस्त व्यस्त हो जाता है क्योंकि
इससे आयातकर्ता एवं नियातकर्ता देश के मन में अनिश्चिता पैदा हो जाती है और आयात-निर्यात
कम होता है।
(b) विदेशी विनिमय की अस्थिरता से अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन भी प्रभावित होती है। ऋणदाता
ऋणी देशों को ऋण देकर जोखिम नहीं उठाना चाहते है।
(c) विनिमय दर की अस्थिरता से पूँजी बाहर चली जाती है :- जिस देश के विनिमय दर में अधिक उथल पुथल होता है उस देश से
पूँजीपतियों की मुद्रा से विश्वास उठ जाता है जिससे वे पूंजी वहाँ न लगाकर दूसरी
ओर रुख कर लेते हैं।
(d) सट्टेबाजी को बढ़ावा :- विनिमय दर में अस्थिरता से सट्टेबाजी की प्रवृत्ति को
बढ़ावा मिलता है जिससे और अधिक विनिमय दर में अस्थिरता आती है।
(e) सम्बंधों में खटास :- विनिमय दर की अस्थिरता अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक एवं
राजनीतिक सम्बन्धों पर भी बुरा प्रभाव डालती है।
आलोचना
विनिमय दर का परिवर्तन होते रहना देश की आर्थिक व्यवस्था
के लिए हानिकारक होता है किंतु बिल्कुल निश्चित विनिमय दर आर्थिक व्यवस्था को
अस्थायी बना देती है। अतः सदा परिवर्तित विनिमय दर एवं बिल्कुल निश्चित विनिमय दर
दोनों ही अमान्य है। अतः सबसे अच्छी विनिमय दर वह है जिसमें लोच पायी जाती है और
लोच व्यवस्थित होनी चाहिए।
3. मुद्रा
की तटस्थता :- मौद्रिक नीति के
उद्देश्य के रूप में तटस्थ मुद्रा अथवा प्रभावहीन मुद्रा का विचार सबसे पहले प्रो.
विक्सटिड ने दिया। लेकिन इस विचार को विकसित करने का श्रेय प्रो रॉबर्टसन तथा
प्रो. हेयक को जाता है।
इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक असन्तुलत या उतार
चढ़ाव मौद्रिक परिवर्त्तनो के ही परिणाम होते है। मुद्रा की मात्रा बढ़ने से वस्तुओं
एवं सेवाओं की मांग बढ़ जाती है लेकिन उनकी पूर्ति तत्काल नहीं बढ़ती है जिससे
कीमतों में वृद्धि होती है। इसी प्रकार मुद्रा की मात्रा घटा देने पर वस्तु एवं
सेवायों की माँग घट जाती है परन्तु उसकी पूर्ति में तत्त्काल कोई कमी नहीं होती है
जिससे कीमतों में गिरावट आती है। अतः अर्थव्यवस्था में आर्थिक अस्थिरता का कारण
मुद्रा की पूर्ति (कमी या वृद्धि) है। तटस्थ मुद्रा की विचारधारा के अनुसार
मुद्रा की मात्रा इस प्रकार नियंत्रित करनी चाहिए कि कुल उत्पादन, कुल क्रय विक्रय
तथा वस्तु एवं सेवाओं की कीमते वैसी रहे जैसा कि मुद्रा विहीन समाज में होगी।
दूसरे शब्दों में मुद्रा का काम सीर्फ विनिमय का माध्यम बनना है।
आलोचना
तटस्थ मुद्रास्फीति की भी कई बिन्दुओं को लेकर आलोचना की
गयी है, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख हैं -
(ⅰ) तटस्थ मुद्रानीति इस गलत मान्यता पर आधारित है कि
मुद्रा की मात्रा एवं मूल्य स्तर के बीच प्रत्यक्ष एवं समानुपातिक सम्बंध होता है।
लेकिन आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार इस तरह का संबंध नहीं पाया जाता है।
(ⅱ) इस नीति में मुद्रा को निष्क्रिय किया गया है लेकिन हम
जानते है कि मुद्रा तटस्थ न होकर एक सक्रिय भूमिका अदा करती है।
(iii) जनसंख्या, प्राविधित ज्ञान, उत्पादन एवं रोजगार तथा
व्यापार की मात्रा में वृद्धि होने पर मुद्रा की कुल मांग बढ़ जाती है और मुद्रा की
कुल मात्रा को बढ़ाना पड़ता है।
(iv) मुद्रा की तटस्थता का विचार एक भ्रम है क्योंकि देखा गया
है कि मंदी के समय मुद्रा की पूर्ति बढ़ने से भी तेजी नही आती है और तेजी के समय
मुद्रा की पूर्ति में कमी करने से स्थिरता प्राप्त नहीं होती है।
4. पूर्ण रोजगार :- वर्तमान समय में पूर्ण रोजगार को प्राप्त करना मौद्रिक नीति का प्रधान उद्देश्य
माना जाता है।
केन्स के अनुसार रोजगार समाज की सम्पूर्ण प्रभावोत्पादक
माँग पर निर्भर करती है। प्रभावपूर्ण माँग में कमी होने पर रोजगार घटती है
(बेरोजगारी बढ़ती है) अतः पूर्ण रोजगार की प्राप्ति के लिए यह जरूरी है कि उपभोग
एवं विनियोग दोनों में वृद्धि की जाए। इसके लिए उपभोग तथा विनियोग पर किये जाने
वाले व्ययों में वृद्धि करना आवश्यक है। अतः मौद्रिक अधिकारियो को चाहिए कि वे इस
तरह की मौद्रिक नीति अपनाए कि उपभोक्ता के हाथों में पर्याप्त क्रयशक्ति उत्पन्न
हो। चूंकि अल्पकाल में उपभोग स्थिर रहता है इसलिए विनियोग में वृद्धि की जानी
चाहिए। अतः मौद्रिक नीति के द्वारा ब्याज दर को निम्न स्तर पर रखकर (जिसे सस्ती
मुद्रा नीति कहते है) विनियोग को प्रोत्साहित करना चाहिए। विनियोग में वृद्धि
होने से आय उत्पादन एवं रोजगार में वृद्धि की जा सकती है। क्राउथर ने अपनी पुस्तक 'An Outline
of Money' में कहा है कि " पूर्ण रोजगार के स्तर पर मौद्रिक
नीति का उद्देश्य बचत तथा निवेश में सन्तुलन बनाये रखना है"।
ड्यूसेनबेरी के अनुसार, पूर्ण रोजगार की प्राप्ति किये जाने वाले अस्त्रों में मौद्रिक नीति भी सम्मिलित है। मौद्रिक नीति का मुख्य कार्य एक ऐसी ब्याज दर का निर्धारण करना है जो पूर्ण रोजगार स्तर पर बचतों एवं निवेश की माँग में समानता ला सके। इस प्रकार की ब्याज दर के निर्धारण के लिए यह भी आवश्यक है कि मुद्रा की मात्रा भी निर्धारित की जाये।
चित्र -a में S रेखा पूर्ण रोजगार स्तर पर बचत के स्तर को व्यक्त
करती है। I रेखा ब्याज की विभिन्न दलों से सम्बन्धित निवेश की माँग को दर्शाती है। RO
ब्याज दर पूर्ण रोजगार आय स्तर पर निवेश को बचत के बराबर कर देती है।
चित्र -b में Yf वक्र आय स्तर के सम्बन्ध में मुद्रा की माँग को व्यक्त
करता है। OM के बराबर मुद्रा की पूर्ति होने पर ही Ro
ब्याज दर निर्धारित होती है जिससे पूर्ण रोजगार स्तर पर बचत तथा निवेश की मात्राएं
समान हो जाती है। स्पष्ट है कि बचत तथा निवेश में समानता ब्याज दर के माध्यम से
प्राप्त की जा सकती है और ब्याज दर का स्तर मुद्रा की पूर्ति पर निर्भर करता है।
पूर्ण रोजगार का स्तर प्राप्त हो जाने पर विनियोग की मात्रा
नहीं बढ़ानी चाहिए । अतः इस स्थिति में मौद्रिक नीति का प्रमुख कार्य यह रह जाता
है कि ऐसी ब्याज दर निर्धारित करें कि जो पूर्ण रोजगार के स्तर पर बचत एवं विनियोग
में समानता ला सके। अन्यथा अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीर्ति की स्थिति उत्पन्न हो
जाएगी। इसलिए अर्थव्यवस्था में रोजगार के स्तर को स्थायी बनाये रखने के लिए न तो
बढ़ते हुए मूल्य की नीति और न घटते हुए मूल्य की नीति अपनायी जानी चाहिए अर्थात्
इस अवस्था में मूल्य स्थायित्व की नीति अपनानी चाहिए।
5.आर्थिक विकास :- विगत कुछ वर्षों में अधिकांश अर्थशास्त्री आर्थिक विकास को मौद्रिक नीति
का प्रधान उद्देश्य मानने लगे है। आर्थिक विकास को मौद्रिक नीति का उद्देश्य के
रूप में अधिक महत्व दिए जाने के कई कारण है-
i. जब
तक आर्थिक विकास की दर में वृद्धि नहीं की जायेगी तब तक अर्थव्यवस्था में पूर्ण
रोजगार को प्राप्त नही किया जा सकता है।
ii.
विकसित एवं अर्द्धविकसित दोनों ही देशों में लोग उच्चतम जीवन स्तर प्राप्त करना
चाहते है। अतः आर्थिक विकास के द्वारा ही उनके जीवन स्तर को उच्चा उठाया जा सकता
है।
iii. आज
प्रतियोगिता के युग में अपने आर्थिक विकास की दर में वृद्धि करके ही अविकसित देश
अपने अस्तित्व को कायम रख सकते हैं।
आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए मौद्रिक नीति के
रूप में निम्नलिखित तीन तरीके अपनाए जा सकते है-
(1) ब्याज की दर में कमी करके :- अविकसीत देश में विनियोग के लिए पूँजी की कमी रहती है
जिसके चलते विदेशों से भी ऋण लेना पड़ता है। इसलिए बैंको को अपने ब्याज दर में
कमी करना चाहिए। ब्याज दर कम रहने पर सरकार और जनता भी ऋण लेकर विनियोग कर सकते
है। जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले।
(2) ब्याज
की दर पूर्ववत् रहने पर बैंक मुद्रा में वृद्धि करके :- यदि ब्याज की दर पूर्ववत् रहे तो अविकसीत देशों में
बैंक मुद्रा में वृद्धि करके आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
अर्द्धविकसित देशों में बचत कम होती है जिससे विनियोग नहीं हो पाता है। इसलिए बैंक
मुद्रा का प्रयोग केवल विनियोग के लिए ही किया जाना चाहिए।
(3) घाटे
की वित्त व्यवस्था :- अर्द्धविकसीत
देशों में घाटे की वित्त व्यवस्था के द्वारा भी विनियोग के लिए अतिरिक्त पूंजी का
प्रबन्ध किया जा सकता है। लेकिन घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रयोग एक सीमा के
अन्दर ही किया जाना चाहिए अन्यथा मुद्रा स्फीति की भी स्थिती उत्पन्न हो सकती है।
मौद्रिक नीति की कार्य-विधि
केन्स द्वारा प्रस्तुत की गयी व्याख्या का सम्बंध मंदी काल से था, इसलिए उसने सुलभ मुद्रा नीति का समर्थन किया। ब्याज दरों में कमी तथा ऋणो के विस्तार के परिणामस्वरुप निवेश की मात्रा बढ़ती है जिससे कुल मांग में वृद्धि होती है और आय का ऊँचा स्तर प्राप्त होता है। इसे चित्र द्वारा स्पष्ट कर सकते है -
चित्र (c) में निवेश (I) तथा सरकारी व्यय (G) में वृद्धि होने से कुल
माँग की नयी रेखा C + I, + G, 45° की रेखा को E2 बिन्दु पर काटती
है। इस बिन्दु पर आय स्तर OY2 है जोकि पहले के आय स्तर OY1 से अधिक है। निवेश बढ़ने पर आय में कितनी वृद्धि होगी यह गुणक के आकार पर
निर्भर करेगा, जोकि सीमांत उपभोग प्रवृत्ति के द्वारा निर्धारित होता है।
केन्स के विचार में, यदि मुद्रा की पूर्ति बढ़ने से ब्याज दर कम हो जाय तो भी मन्दी काल में निवेश नहीं बढ़ेगा। ब्याज की नीची दरो पर मुद्रा की मांग पर तरलता जाल का प्रभाव पड़ता है जिससे लोग अपने पास अधिक मात्रा में नकदी रखने लगते है। चित्र -d से स्पष्ट है कि, ब्याज की नीची दर पर मुद्रा की माँग रेखा Md पूर्णतया लोचदार है। इस प्रकार मुद्रा पूर्ति Ms से अधिक होने पर लोग सट्टे के उद्देश्य से मुद्रा अपने पास रखते है, निवेश नहीं करते। आधुनिक केन्सवादी अर्थशास्त्रियों के विचार इतने निराशावादी नहीं है। ब्याज की नीची दर पर वह तरलता पसन्दगी की रेखा को इतना चपटा नहीं मानते जितना कि स्वंय केन्स ने माना था।
अतः यह माना जाता है कि नीची ब्याज दर का निवेश की मात्रा
पर कुछ प्रभाव अवश्य पड़ेगा। मन्दी से छुटकारा पाने के लिए राजकोषीय नीति के साथ
मौद्रिक नीति का भी कुछ महत्त्व होता है।
तेजी की स्थिति में जब मांग प्रेरित स्फीति की स्थिति उत्पन्न होती है तो कठोर मौद्रिक नीति की आवश्यकता होती है
मुद्रा पूर्ति को कम करने के उद्देश्य से साख की मात्रा कम
और इसकी लागत अधिक की जाती है। दूसरे शब्दों में, ब्याज दर बढ़ती है। इससे निवेश
में कमी होती है तथा कुल माँग कम होकर मांग प्रेरित स्फीति को नियन्त्रित करती है।
चित्र (e) में मुद्रा पूर्ति M से घटाकर M1
करने पर ब्याज दर r से बढ़कर r1 हो जाती
है।
चित्र -f में यह दिखाया गया है कि r1
ब्याज दर पर निवेश में कमी होती है। इन रेखाचित्रों में मुद्रा की माँग की रेखा Md का
ढलाव इतना है कि ब्याज दर में वृद्धि होती है। निवेश माँग की रेखा II इतनी
लोचपूर्ण है कि ब्याज दर में वृद्धि होने पर निवेश की मांग I से घटकर I1 हो जाती है। यदि यह मान्यताएं व्यावहारिक जीवन पर लागू की
जाये तो कठोर मौद्रिक नीति मुद्रास्फीति को नियन्त्रित करने में सफल होगी। वास्तव
में, मन्दी की स्थिति की तुलना में तेजी की स्थिति में मौद्रिक नीति अधिक
प्रभावपूर्ण होती है।
निष्कर्ष
उपयुक्त विश्लेषणों से स्पष्ट है कि मौद्रिक नीति के विभिन्न उद्देश्यों में परस्पर विरोध है अंत: सभी उद्देश्य एक ही साथ नहीं अपनाए जा सकते है। मौद्रिक अधिकारियो को अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उद्देश्यों का चुनाव करना चाहिए। परन्तु इनमें से कौन सा उद्देश्य अधिक महत्त्वपूर्ण है, कहा नहीं जा सकता है क्योंकि यह समय, स्थान एवं परिस्थिति पर निर्भर करता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)