प्रश्न- भारत में सार्वजनिक ऋण तथा उसके झुकाव
की व्याख्या करें?
उत्तर-
संविधान संघ सरकार को यह अधिकार देती है कि वह भारत की संचित निधि की जमानत पर
संसद द्वारा निर्धारित की गई
सीमाओं के अधीन रहते हुए उधार
ले सके। इसी प्रकार कोई भी राज्य विधानमण्डल द्वारा
निर्धारित सीमाओं के अन्तर्गत उधार ले
सकता हैं। परन्तु भारत सरकार की सहमति के बिना कोई भी राज्य उधार नहीं ले
सकता।
स्वतन्त्रता से पूर्व सार्वजनिक ऋण
अन्य
सभी सरकारों के समान ही, भारत सरकार ने
भूतकाल में
भी उधार लिया है और वर्तमान में भी ले रही है। ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक दिनों
में भारत सरकार का उधार मुख्यतः युद्ध कार्यों के लिए होता था।
किंतु फिर भी उस समय भारतीय लोक ऋण
का एक बड़ा भाग उत्पादक होता था और उसका उपयोग पूँजीगत खर्चों के लिए ही किया जाता था जैसे कि रेलों व सिंचाई
योजनाओं आदि
के निर्माण के लिए सन्
1939 में कुल भारतीय लोक ऋण
की मात्रा 1206 करोड़ रु. थी जिसमें से लगभग 925 करोड़ रुपये ऋण ब्याजोत्पादक
परिसम्पत्तियों तथा अन्य प्रतिभूतियों या ऋण-पत्रो में सुरक्षित था, शेष धन असुरक्षित तथा
अनुत्पादक था। 1206 करोड़ रु. के कुल ऋण
में से लगभग 736 करोड़
रु. की ऋण
तो आन्तरिक या देशी ऋण
था और लगभग 470
करोड़ रु. इंग्लैण्ड में भारत के दायित्वों
के रूप में था।
द्वितीय
विश्वयुद्ध की अवधि में भारत को अपने स्टर्लिंग ऋणों को चुकाने का अवसर
मिला, यद्यपि इस कार्य के लिए विकास कार्यों का जो बलिदान किया गया, वह भी कम बड़ा
नहीं था। युद्धकाल में भारत में इंग्लैण्ड को भारी मात्रा में सैनिक एवं असैनिक
सामग्री का निर्यात किया, जिसके भुगतान में हमें भारतीय रिजर्व बैंक की तिजोरियों
में रखने को केवल स्टर्लिंग परिसम्पत्तियां ही मिली। अतः अनुकूल अदायगी शेषों के कारण
भारत के पास काफी मात्रा
में पौण्ड-पावनों का संग्रह हो गया। सन्
1945-46 तक इन पौण्ड-पावनो
की मात्रा 2,300 करोड़ रु. हो गई। भारत सरकार द्वारा इन स्टर्लिंग परिसम्पतियो
अथवा पौण्ड-पावनों के एक भाग का उपयोग इंग्लैण्ड में स्थित उसके स्टर्लिंग ऋणो के भुगतान के लिए किया
गया।
रुपये तथा स्टर्लिंग (करोड़ों में)
वर्ष |
रुपया ऋण |
स्टर्लिंग ऋण |
1914 |
179.77 |
265.81 |
1947 |
2142.00 |
36.61 |
1948 |
2134.97 |
30.21 |
इस प्रकार युद्धकाल में भारत के स्टर्लिंग ऋण में तो कमी
हुई किंतु रूपया ऋण बढ़ा । युद्धकाल में रुपये
के रूप में कुल ऋण 736 करोड़ रु. से बढ़कर 1937 करोड़
रु. हो
गया अर्थात इसमे लगभग 1200 करोड़ रु. की वृद्धि हुई। सरकारी
ऋण
में वृद्धि का मुख्य कारण युद्ध-व्यय
था जिसमे प्रतिरक्षा पर किया जाने वाला पूँजीगत व्यय तथा प्रत्यावर्तित स्टर्लिंग
ऋण के बदले में जारी रुपया प्रतिपर्ण भी सम्मिलित था। सरकार ने इन कर्जो का एक बड़ा भाग नीची व्याज दर अर्थात् लगभग 3% के ब्याज पर प्राप्त किया था।
स्वतन्त्रता- प्राप्ति के बाद, भारतीय ऋण
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता
प्राप्ति के साथ-साथ इसका विभाजन भी हुआ। विभाजन के साथ-साथ ऋणों का भी बटवारा किया गया था। पाकिस्तान के हिस्से में
300 करोड़ रुपये के ऋण आये, जिन्हें अदा
करने का भार भारत ने अपने ऊपर ले लिया तथा पाकिस्तान ने भारत को 50 किस्तों में ऋणों की अदायगी करने का वचन दिया था। इन ऋणों में 3% वार्षिक की दर से ब्याज देना भी निश्चित किया।
भारत के सार्वजनिक ऋण को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता
है-
(A) आन्तरिक ऋण
आन्तरिक ऋण
में खुले बाजार से उधार लिया जाता है। इसका मुख्य रूप में निम्न प्रकार वर्गीकरण
किया जाता है
(1)
स्थायी ऋण :- इन्हें
कोषित ऋण या दिनांकित ऋण
भी कहते है। ये ऋण निर्गमन तिथि से
12 महीने अथवा अधिक के होते है। इन
ऋणों के अन्तर्गत अल्पकालीन दायित्वो (ट्रेजरी बिल्स) के स्थान पर दीर्घकालीन ऋण जारी किये जाते है। इस प्रकार के ऋण प्रायः ब्याज वाले
होते है।
(2) अस्थायी अथवा फ्लोटिंग
ऋण :- इस प्रकार के ऋणों
में निम्नलिखित ऋण
सम्मिलित किये जाते है-
(i) कोषागार जमा रसीदे :- इसका मुख्य उद्देश्य अल्पकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की
पूर्ति करना तथा व्यावसायिक बैंकों की अतिरिक्त तरलता को समेटना है । इन्हें 6,9
तथा 12
महीने की परिपक्वता के लिए केवल व्यावसायिक बैंकों को ही जारी किया जाता है तथा इन
पर ब्याज की दर नीची होती है।
(ii) कोषागार -बिल्स
:- ये बिल्स भारत सरकार के घाटे के बजट की बिल व्यवस्था के मुख्य
साधन माने जाते है। इन बिलों की 13 सप्ताह की परिपक्वता
होती है। ये बिल बट्टे पर जारी किये जाते हैं तथा
सममूल्य पर अदा किये जाते है।
(iii)
उपायार्थ ऋण :- वित्त
की अस्थायी पूर्ति के लिए रिजर्व बैंक से लिया गया अल्पकालीन ऋण है।
(iv) विशेष फ्लोटिंग ऋणः- ये प्रतिभूतियां अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष,
विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय विकास परिषद् और अन्य विश्व वित्तीय संस्थाओं के दायित्वों को पूरा करने के लिए जारी किये जाते हैं।
(3) अन्य दायित्व :- इनमें क्षतिपूरक बॉण्ड, प्राइज बॉण्ड्स, लघु बचते, राज्य
प्रोविडेन्ट फण्ड इत्यादि
सम्मिलित होते है।
आन्तरिक लोक ऋण का विकास
भारत का आन्तरिक लोक ऋण जो 1950-51 में 2022.36 करोड़ था वह 1990-91 में बढ़कर 1,54,003.77
करोड़ हो
गया। इस प्रकार भारत का आन्तरिक लोक ऋण 1950-51
के मुकाबले 1990-91 में लगभग 76 गुना बढ़ गया।
भारत में सार्वजनिक ऋण की स्थिति निम्न तालिका में दिखायी गयी है।
कुल आन्तरिक सार्वजनिक ऋण (करोड़ रुपयों में)
वर्ष मार्च के अन्त में |
कुल आन्तरिक ऋण |
1950-51 |
2,022.30 |
1980-81 |
29,008.49 |
1990-91 |
154003.77 |
1995-96 |
3,07,868.60 |
1997-98 |
3,88,997.78 |
1998-99 |
4,58,842.40 |
1999-2000 |
7,14,254.23 |
2000-2001(R.E) |
8,04,527.58 |
2001-2002(B.E) |
8,92,934.92 |
सन् 1980-81 में भारत सरकार पर कुल बाजार के उधार का
दायित्व 2,949.00 करोड़ रु. का था। जिसमे से 270.00 करोड़ रु. का वापिस भुगतान कर दिया गया। इस प्रकार
1980-81 में आन्तरिक ऋण में विशुद्ध बढोत्तरी
2679.00
करोड़ की थी।
(B) बाह्य सार्वजनिक ऋण
एक
आदर्श विकसित देश को विकास की प्रारम्भिक अवस्था विदेशी सहायता की अधिक आवश्यकता होती
है। इस प्रकार की सहायता विदेशों से पूँजीगत साधनों तथा औद्योगिक कच्चा माल खरीदने
के लिए उपयोग में लायी जा सकती है। भारत को भी अपने नियोजित आर्थिक विकास के लिए विदेशी
पूँजी की आवश्यकता हुई है। इस प्रकार भुगतान संतुलन इस विनियोग अन्तराल की पूर्ति के लिए भारत ने बड़ी मात्रा
में विदेशों से ऋण
प्राप्त किया।
सन्
1950-51 में भारत पर कुल बाह्य ऋण भार
केवल 32.03 करोड़ था जो बढ़कर
सन् 1990-91 में 31524.97 करोड़ रुपये हो गया । इस प्रकार 1950-51 के मुकाबले 1990-91
में बाह्य लोक ऋण में 1000 गुने से अधिक की वृद्धि हो गयी।
बाह्य लोक ऋण (करोड़ रुपयों में)
वर्ष |
कुल बाह्य ऋण (संचय वृत्ति में) |
1950-51 |
32.03 |
1980-81 |
10,782.39 |
1990-91 |
31,524.97 |
1995-96 |
51,248.74 |
1996-97 |
54,238.56 |
1997-98 |
55,331.97 |
1998-99 |
57,254.33 |
1999-2000 |
58,437.19 |
2000-2001(R.E) |
58,28.45 |
2001-2002(B.E) |
59,593.55 |
भारत
सरकार का सन् 1980-81 में कुल बाह्य उधार 1728.00 करोड़ रुपये था। जिसमे सरकार ने
447.00 करोड़ रुपये का ऋण
वापिस कर दिया। इस प्रकार इस वर्ष विशुद्ध बाह्य ऋण 1281.00 करोड़ रुपये था। कुल बाह्य ऋण जो
सन् 2001-2002 के बजट अनुमानों में 11463.00 करोड़ रु. ऑका गया।
(C) अन्य दायित्व
सरकार
के भी कुछ दायित्व होते है जिनकी अदायगी करनी होती है। इन दायित्वों को निभाने के
लिए सरकार को ऋणों
की आवश्यकता होती है। ये अन्य दायित्व तीन वर्गो में बाँटे जा सकते हैं-
(i)
अल्प बचत योजनाएं :- भारत सरकार पोस्ट ऑफिस बचते, बैंक जमा, संचयी समयावधि, राष्ट्रीय
बचत सर्टिफिकेट तथा 7 वर्षीय राष्ट्रीय बचत पत्र आदि की सहायता से अल्प बचते
एकत्रित करती है।
(ii) प्रोविडेंट फण्ड योगदान :- भारत सरकार के
प्रोविडेण्ट फण्ड योगदान तीन शीर्षकों से सम्बन्धित है
(a) राज्य प्रोविडेण्ट फण्ड योगदान (b) सार्वजनिक
प्रोविडेण्ट फण्ड (c) गैर
सरकार प्रोविडेन्ट फण्ड के लिए विशेष जमा ।
(iii) रिजर्व कोष एवं जमाये :- इसमें वार्षिक आय कर जमा योजना तथा विशेष जमा योजनाएं मूल्य ह्मस ; रेलवे एवं पोस्ट ऑफिस के रिजर्व फण्ड पर ब्याज आदि सम्मिलित होती है। इसके अतिरिक्त स्थानीय कोष की जमा तथा निजी जमाये एवं पुराने ऋणों पर गैर दावे भुगतान भी सम्मिलित होते है।
भारतीय अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक ऋण भार
भारतीय अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक ऋण का भार बढ़ता जा
रहा है, इस संबंध में विशेषकर संसद, विधान सभाओं एवं अन्य मंचों पर वाद-विवाद का
विषय रहा है कि भार में सार्वजनिक ऋण
प्राप्त करने की अधिकतम सीमा आ चुकी है, अब आगे ऋण का भार न
बढ़ाया जाए। यह इस तथ्य पर आधारित है कि सार्वजनिक ऋण अधिक मात्रा में लिया जा चुका है और लोक ऋण का भार दिन
प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। धारा 292 में यह निश्चित है कि संसद को सरकार के लिए लोक ऋण प्राप्त करने की एक अधिकतम सीमा बाँध देनी चाहिए। किंतु
दुर्भाग्यवश संसद ने अभी तक इस प्रकार का कोई कानून नहीं बनाया है जो सरकार की लोक
ऋण प्राप्त करने में एक अधिकतम सीमा में बाँध दे। इस प्रकार का सवाल अनुमान समिति ने अपनी 20वी रिपोर्ट में उठाया
था। इस संबंध में वित्त मंत्रालय ने अधिकतम सीमा
न बाँधने के पक्ष में
निम्न तर्क प्रस्तुत किये है -
(1) सरकार लोक ऋण की मात्रा का वर्णन अपनी पंचवर्षीय योजना तथा बजट में करती
है। संसद जब पंचवर्षीय योजनाओं तथा बजट पर बहस करती है उस समय लोक ऋण प्राप्त
करने पर नियंत्रण लगा सकती है।
(2) लोक ऋण
के सम्बंध में कोई भी अधिकतम सीमा निश्चित करना व्यावहारिक नहीं होगा।
(3) आन्तरिक ऋण की सीमा तो रिजर्व बैंक निश्चित कर सकता है किंतु बाह्य ऋण
के सम्बंध में यह सम्भव नहीं है।
बाह्य ऋण भार
आन्तरिक ऋण
की भाँति भारत सरकार का झुकाव बाह्य ऋण पर भी बढ़ा है, फलस्वरूप उसके भुगतान का भार भी बढ़ता जा रहा
है। बाह्य ऋण का
वापिस भुगतान करना अपने आप में जटिल समस्या है क्योकि इसके अदा करने में न केवल देश की वस्तुओं एवं सेवाओं का दूसरे देश
में स्थानान्तरण होता है बल्कि देश
के नागरिको की क्रय शक्ति में भी गिरावट आ जाती है जिसका उपभोग देश में उपभोग अथवा विनियोग बढ़ाने में हो सकता है। इसके अतिरिक्त इसका प्रभाव बजट क्रियाओं एवं भुगतान संतुलन
पर भी पड़ता है। रूपये का विदेशी मुद्राओं में प्रतिस्थापन देश के भुगतान सन्तुलन
पर बुरा प्रभाव डालता है क्योंकि निर्यात आधिक्य तो केवल बाह्य ऋण के भुगतान में ही शोषित हो जाता है। सरकार को जब बाह्य ऋण का भुगतान करना होता है तो उसको अपने विनियोग तथा विकास कार्यक्रमों में कटौती करनी
पड़ती है।
भारत सरकार द्वारा बाह्य ऋण के ब्याज भुगतान प्रथम पंचवर्षीय योजना के अन्त में 13.5 करोड़ रु. था जो तृतीय पंचवर्षीय योजना के अंत में बढ़कर 237.00 करोड़ हो गया। सन् 1989-90 में कुल ब्याज भुगतान बढ़कर 3,566 करोड़ रु. हो गया तथा कुल ऋण सेवाये शुल्क 8,864 करोड़ रुपये हो गया।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
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अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)