व्यापार संबंधी समस्याएं (Business related issues)

व्यापार संबंधी समस्याएं (Business related issues)

 व्यापार संबंधी समस्याएं (Business related issues)

प्रश्न :- अर्द्धविकसित राष्ट्रों की विदेशी व्यापार संबंधी समस्याओं का वर्णन कीजिए 

• व्यापार बाधाओं की व्याख्या करें

उत्तर :- अर्द्धविकसित राष्ट्रों के लिए यद्यपि विदेशी व्यापार का अत्यधिक महत्व है। परन्तु इन देशों को विदेशी व्यापार सम्बंधी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है 

(1) बढ़ता हुआ ऋण भार :- अर्द्धविकसित देशों की विदेशी व्यापार की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन पर विकसित देशों द्वारा ऋण का भारी बोझ है। जो अधिकांश रूप से प्रतिकूल व्यापार संतुलन का परिणाम है। इन देशो से ऋण सेवा (मूलधन + ब्याज का भुगतान) के रूप में भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा कोष बाहर चला जाता है। फलतः इन देशों को अपनी विकास योजनाओं में भारी कटौती करनी पड़ती है अतः इन देशों के आर्थिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि निर्यात आयात से अधिक रहे।

(2) सीमित बाजार :- अर्द्धविकसित देशों की विदेशी व्यापार सम्बन्धी दूसरा महत्त्वपूर्ण समस्या बाजार का सीमित होना है अतः बड़े पैमाने के उत्पादन के लाभ प्राप्त नहीं हो पाते। बाजार सीमित होने के कारण श्रम विभाजन और बाह्य मितव्ययिताएं उपलब्ध नहीं हो पाती। अतः आवश्यकता है कि ये अर्द्धविकसित देश न केवल विकसित देशों के साथ अपने निर्यात व्यापार को द्विपक्षीय व बहुपक्षीय समझौतों के अन्तर्गत बढ़ाएं बल्कि परस्पर व्यापार को प्रोत्साहन दे।

(3) विकसित देशों की संरक्षणवादी नीति :- अर्द्धविकसित देशों के विदेशी व्यापार में बहुत बड़ा धक्का इसलिए भी लगा है क्योंकि विकसित देशों ने विकासशील, देशों के आयातो पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा दिए है। फलतः अर्द्धविकसित देशों का निर्यात व्यापार कम हो गया है। अमेरिका, यूरोपीय साझा बाजार एक्ट देशों की संरक्षात्मक नीतियों के कारण अर्द्धविकसित देशों के निर्यात का प्रवाह रूक गया है।

अर्द्धविकसित देशों की विदेशी व्यापार सम्बन्धी समस्याओं को देखते हुए तेजी से एक नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जा रही है। जिससे समृद्ध राष्ट्र विकासशील देशों को ऋणों में छूट देगे, अधिक आयात करेंगे तथा निर्यात की कीमतों में कमी करेंगे एवं कच्चे माल का उचित दाम देंगे। आवश्यकता वस्तुओं के भंडारण की ऐसी व्यवस्था करेंगे कि उनकी कीमतों में उतार चढ़ाव नहीं होगा।

(4) निर्यात संवर्द्धन संबंधी समस्याएं :- अर्द्धविकसित देशों में निर्यात संवर्द्धन (प्रोत्साहन) को अधिक से अधिक महत्त्व दिया जा रहा है जिससे घरेलू विनियोग की मात्रा में अधिक वृद्धि की जा सके। परन्तु इन राष्ट्रों में कुल निर्यात आय का बहुत थोड़ा भाग ही पूँजी निर्माण के लिए उपलब्ध होता है। क्योंकि चालू निर्यात से प्राप्त आय का बड़ा भाग आयात एवं विदेशी ऋणों के मूलधन एवं ब्याज के भुगतान में ही उपयोग हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में इन देशों के निर्यात में पर्याप्त वृद्धि करना बहुत आवश्यक हो जाता है ताकि पूँजी निर्माण में वृद्धि की जा सके। परन्तु निर्यात में इन राष्ट्रों के समक्ष बहुत सी समस्याएं है जैसे-

(a) आय के अनुरूप निर्यात में वृद्धि नहीं :- अर्द्धविकसित देशों की आय में वृद्धि होने के साथ-साथ मशीनों, प्लांट, पूँजीगत समानों एवं विलासिता की वस्तुओं की मांग बढ़ती है, जबकि विकसित राष्ट्रों में खाद्यान्न एवं कच्चे मालों का ही आयात किया जाता है। परन्तु विकसित राष्ट्रों में आय की वृद्धि के साथ-साथ खाद्य पदार्थों एवं कच्चे माल की मांग से आय वृद्धि के अनुपात में वृद्धि नहीं होती। इस प्रकार विकास के व्यापक वातावरण में अर्द्धविकसित देशों के आयात में तीव्र गति से वृद्धि होती है परन्तु निर्यात में उसके अनुरूप वृद्धि नहीं हो पाती है।

(b) चक्रीय परिवर्तन :- वस्तुओं के निर्यात पर अत्यधिक निर्भरता के कारण अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था में व्यापार चक्र का आगमन आसानी से हो जाता है क्योंकि विदेशों में मंदी के फलस्वरूप इन देशों की वस्तुओं की मांग कम हो जाती है। माँग की कमी आ जाने के कारण उन वस्तुओं का निर्यात कम हो जाता है, उत्पादन कम होने लगता है, बेकारी बढ़ने लगती है और लोगों की आय कम हो जाती है। इस प्रकार अर्द्धविकसित राष्ट्रों के विदेशी व्यापार पर विकसित अर्थव्यवस्था की आय में होने वाले चक्रीय परिवर्तनों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। 

(c) औद्योगिक उत्पादन के प्रकार में परिवर्तन :- विकसित और अर्द्धविकसित राष्ट्रों में औद्योगिक उत्पादन के प्रकार में परिवर्तन हो रहा है जिसके कारण भी अर्द्धविकसित देशों के निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। विकसित राष्ट्रों में प्राथमिक कच्चे माल की आवश्यकता कम होती जा रही है क्योंकि वहाँ उपभोक्ता उद्योगों के स्थान पर इंजीनियरिंग एवं रसायन जैसे भारी उद्योगों को महत्व दिया जा रहा है, जबकि विकासोन्मुख देशो में औद्योगीकरण को बढ़ावा दिये जाने के कारण द्वितीयक उद्योगों का विस्तार हुआ है। इसका परिणाम यह हुआ कि इन देशों के पास निर्यात में मांगी जाने वाली वस्तुओं की पर्याप्त पूर्ति नहीं है और अधिक विदेशी मुद्रा प्राप्त करना कठिन हो गया है जिसके परिणामस्वरूप आवश्यक आयात को भी कम करना पड़ता है, जो विकास की गति को अवरूद्ध कर देता है।

(d) विकसित देशों से प्रतिस्पर्धा :- विकासोन्मुख देशो में कच्चे माल व प्राथमिक वस्तुओं के निर्यात में कमी हो जाने पर अन्य वस्तुओं, जैसे हल्की इन्जीनियरिंग वस्तुएं, टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएं आदि के निर्यात को बढ़ाने के प्रयास किये जाते है। परन्तु प्रारंभिक अवस्था में विकासशील देश अधिक निर्यात नहीं कर पाते क्योंकि इन राष्ट्रों को विकसित राष्ट्रों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। चूंकि, अर्द्धविकसित राष्ट्रों द्वारा बनाई गई वस्तुएं अपेक्षाकृत निकृष्ट किस्म की व मंहगी होती है इसलिए ये राष्ट्र विकसित राष्ट्रों के साथ प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पाते।

(e) साहसी वर्ग का अभाव :- अर्द्धविकसित देशों में सुयोग्य साहसी वर्ग का अभाव होने और अर्थव्यवस्था सुसंगठित न होने के कारण निर्यात द्वारा प्राप्त विदेशी मुद्रा का उत्पादन विनियोजन नहीं हो पाता, कारण यह है कि विदेशी मुद्रा के लिए पूँजीगत उद्योगों में विदेशों से भारी पूँजीगत प्रसाधनों व प्राविधिक ज्ञान के आयात की आवश्यकता होती है। इन प्रसाधनों के आयात में राष्ट्र की आयात नीति व विदेशी विनिमय नियंत्रण की समस्याएं बाधाएं उपस्थित करती है।

(5) आयांत संबंधी समस्याएं :- एक विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था को जो औद्योगीकरण करने के लिए प्रयत्नशील है, बड़ी मात्रा में आयात की आवश्यकता होती है। आयात में सम्मिलित होने वाली वस्तुएं प्रायः देश के आकार, घरेलू साधनों की उपलब्धता, आय, वितरण के ढाँचे आदि पर निर्भर रहती है। यदि आर्थिक विकास के प्रारंभ के साथ-साथ मजदूरो की मजदूरी में वृद्धि हो जाती है और जनसंख्या तेजी से बढ़ती है तो खाद्यान्नों के आयात की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यदि समाज के उच्च वर्ग के व्यक्तियो की आय में वृद्धि हो जाती है तो उच्च कोटि की उपभोग वस्तुओं का आयात बढ़ जाता है। इसी प्रकार आर्थिक विकास के परिणाम स्वरूप निजी साहसियों की मात्रा में वृद्धि होती है तो नवीन व्यवसायो की स्थापना हेतु औद्योगिक कच्ची सामग्री एवं पूँजीगत वस्तु‌ओं के आयात की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। 

विकास के प्रारंभिक वर्षों में आयात में तीव्र गति से वृद्धि होती है जिसका भुगतान देश में उपलब्ध साधनो से करना संभव नहीं होता। अतः उन आयातों के भुगतान की अधिकाधिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए निर्यात बढ़ाना आवश्यक होता है। अन्यथा भुगतान की कठिन समस्या उत्पन्न हो जाती है और विकास के मार्ग में बाधा उपस्थित होने लगती है।

(6) व्यापार की शर्ते :- किसी भी देश की निर्यात से प्राप्त होने वाली आय केवल निर्यात की मात्रा पर निर्भर नही रहती बल्कि उसके मूल्य पर निर्भर रहती है। इस प्रकार विदेशी व्यापार के लाभ की गणना करने में व्यापार की शर्तों का अधिक महत्त्व होता है। व्यापार की शर्त उस दर से संबंधित है जिस पर किसी देश के निर्यात और आयात में विनिमय होता है। व्यापार की शर्तों के अनुकूल होने पर निर्यात से अधिक विदेशी मुद्रा मिलती है और आयात के बद‌ले में कम विदेशी विनिमय का भुगतान करना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप देश को विदेशी व्यापार से काफी लाभ आर्थिक विकास हेतु प्राप्त हो जाता है। 

इसके विपरीत जब व्यापार की शर्तें प्रतिकूल होती है तो आयात की तुलना में निर्यात की मात्रा अधिक होने पर भी लाभ की मात्रा नगण्य होती है। इस तथ्य को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। माना, एक ऐसा अर्द्धविकसित देश है जो इतने कच्चे माल का निर्यात कर रहा है, जिसमे निर्मित वस्तुओं के आयात का ठीक भुगतान हो जाता है। अब मान लीजिए, कच्चे माल का मूल्य अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ जाता है परन्तु निर्मित वस्तुओं का मूल्य यथा-स्थिर रहता है या कम बढ़ता है, तो ऐसी स्थिति में व्यापार शर्तें अर्द्धविकसित देश के पक्ष में बदल जाएंगी। कच्चे माल की उतनी ही मात्रा से वह देश पहले से अधिक विदेशी मुद्रा प्राप्त कर सकेगा। चूंकि निर्मित वस्तुओं का मूल्य स्थिर रहता है इसलिए, इन वस्तुओं की पहले जितनी मात्रा खरीदने के बाद भी अर्द्धविकसित देश के पास कुछ विदेशी मुद्रा बची रहेंगी। स्पष्टतः विदेशी व्यापार से मिलने वाले आर्थिक विकास के लिए योगदान व्यापार की शर्तों पर निर्भर रहता है। परन्तु दुर्भाग्यवश विदेशी व्यापार से निर्धन राष्ट्रों की व्यापार शर्तों में दीर्घकाल तक प्रतिकूल रहने से उनकी आय का अधिकांश भाग विकसित राष्ट्रों को जाता रहता है जिससे अर्द्धविकसित राष्ट्रों के कार्यक्रम में बाधा उपस्थित होती है। विभिन्न अर्द्धविकसित देशों के विदेशी व्यापार का अध्ययन विभिन्न अर्थशास्त्रियो द्वारा किया गया है और इन अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि सामान्यतः व्यापार की शर्ते अर्द्धविकसित राष्ट्रों के प्रतिकूल रहती है।

यदि व्यापार प्राथमिक वस्तुओं अर्थात् कृषि वस्तुओं का उत्पादन करने वाले देशो (अर्द्धविकसित देशों) तथा औद्योगिक वस्तु के उत्पादक देशो (विकसित देशों) के बीच हो रहा हो तो व्यापार की शर्तें सदैव औद्योगिक राष्ट्रों के पक्ष में रहती है। क्योंकि 

(a) कृषि वस्तुओं की मांग की एक अधिकतम सीमा होती है जिसके आगे उसकी मांग नहीं होती जबकि औद्योगिक वस्तुओं की मांग प्रायः बढ़ती ही रहती है। 

(b) कृषि पदार्थों के मूल्यों में अत्यधिक अस्थिरता होती है जबकि औद्योगिक वस्तुओं के मूल्य मंदी के समय भी धीरे-धीरे गिरते है और एक निश्चित सीमा के बाद शायद नहीं गिरते । 

(c) कृषि वस्तुएं टिकाऊ नहीं होती है और उनका दीर्घकाल तक संग्रह नहीं किया जा सकता है जबकि औद्योगिक वस्तुएं शीघ्र नष्ट न होने से दीर्घकाल तक संग्रह करके रखी जा सकती है। इन विभिन्न कारणों से व्यापार की शर्ते कृषि वस्तुओं के उत्पादक देशों के प्रतिकूल और औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादक देशों के अनुकूल होती है। किसी भी देश की अपने साधनों के वैकल्पिक उपयोग में हस्तांतरण की क्षमता पर व्यापार की शर्ते निर्भर रहती है। साधनों के हस्तांतरण की सुविधा, साधनो के प्रकार, साहसियों की योग्यता एवं कुशलता व श्रम की गतिशीलता इत्यादि बातो पर भी ये निर्भर रहती है। जो देश अपने उत्पादन में व्यापार की शर्तों के परिवर्तन के अनुकूल परिवर्तन करने में समर्थ होते है, वे अनुकूल व्यापार शर्तें का लाभ उठा सकते है। साधनो के वैकल्पिक उपयोगों में हस्तांतरण की क्षमता स्वभावत: विकसित देशों को ही उपलब्ध होती है जिसके कारण वे ही अनुकूल व्यापार की शर्तों से लाभान्वित होते है।

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