प्रश्न :- व्यापारिक नीति से क्या समझते हैं?
स्वतंत्र व्यापार तथा संरक्षण के पक्ष और विपक्ष में तर्क दे?
उत्तर:-किसी देश की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक क्रियाओं से
संबंधित नीति को व्यापारिक नीति कहा जाता है। प्रो. हैबरलर के शब्दों में,
"व्यापारिक नीति से आशय उन सब उपायों से है जो कि किसी देश के बाह्य आर्थिक
संबंधों का नियमन करते हैं। ये उपाय एक ऐसी क्षेत्रीय सरकार द्वारा किए जाते है,
जिसमे वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात एवं आयात में बाधा डालने या सहायता पहुंचाने
की शक्ति होती है"।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से संबंधित दो प्रकार की नीतियों
का अनुसरण किया जाता है - स्वतंत्र व्यापार नीति, व संरक्षण नीति
स्वतंत्र व्यापार
स्वतंत्र व्यापार का सूत्रपात अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ
के साथ हुआ। उन्होंने अपनी महान कृति 'वेल्स ऑफ नेशन्स' में इस सम्बंध में लिखा,
"स्वतंत्र व्यापार का आशय व्यापारिक नीति की उस प्रणाली से है जो घरेलू और
विदेशी वस्तुओं में कोई भेदभाव नहीं करती है। इसके फलस्वरूप न तो विदेशी वस्तुओं
पर अतिरिक्त कर लगाये जाते है और न घरेलू वस्तुओं को कोई रियायत दी जाती है"।
केयरनेस ने अपनी पुस्तक, "Leading Principles of Political
Economy" में कहा है," यदि विशेष लाभ के लिए राष्ट्र व्यापार करते है तो
उनका स्वतंत्र व्यापारिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करना लाभों से वंचित रहना होगा"।
स्वतन्त्र व्यापार के पक्ष में तर्क
हैबरलर ने इस नीति का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तक 'Theory of
International Trade' में कहा है कि "स्वतंत्र व्यापार में
सामाजिक उत्पादन अधिकतम होना आर्थिक रूप से लाभदायकता की ओर संकेत करता है"।
स्वतंत्र व्यापार के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए है
(1) अधिकतम उत्पादन :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में देश की श्रम शक्ति एवं
अन्य साधनों का वितरण तुलनात्मक लाभ के अनुसार हो जाता है जो श्रम विभाजन का
विस्तार है। श्रम विभाजन से विशिष्टीकरण सम्भव होता है जिससे
(i)
दक्षता प्राप्त होती है
(ii) श्रमिकों की योग्यता एवं क्षमता के अनुसार कार्यों का
वितरण होता है
(iii)
समय की बचत होती है एवं
(iv) नयी मशीनो के प्रयोग की प्रेरणा मिलती है। इन सबका परिणाम
यह होता है कि उत्पादन में वृद्धि होती है।
कुछ विशेष प्राकृतिक सुविधाओं के कारण प्रत्येक देश कुछ
विशेष वस्तुओं के उत्पादन में अधिक दक्ष होता है। जब देश स्वतंत्र व्यापार करते है
तो पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत कीमत संयन्त्र अपने आप यह निर्धारित कर देता है
कि प्रत्येक देश उन वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण करता है जिनके उत्पादन में
वह सबसे अधिक कुशल होता है एवं उन वस्तुओं का आयात करता है जो अपने देश की तुलना
में सस्ते में प्राप्त कर सकता है।
(2) उपभोक्ताओं को लाभ :- स्वतंत्र व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप केवल
वही देश जीवित रह सकते है, जो कुशल होते है और उनमें उत्पादन न्यूनतम लागत पर होता
है। इसके अतिरिक्त चूंकि स्वतंत्र व्यापार के अन्तर्गत आयातित वस्तुओं पर कर नहीं
लगते, इसके कारण वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि नहीं होती। अतः स्वतंत्र व्यापार के
अन्तर्गत उपभोक्ताओं को वस्तुएं कम दामों पर उपलब्ध होती है।
इसे उदासीन वक्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
चित्र में IC1 व
IC2 दो उदासीन वक्र है।
माना शुरू में आयात कर X वस्तु पर लगा हुआ है। ऐसी स्थिति में चित्र में कीमत रेखा
AD है और उपभोक्ता का साम्य बिन्दु E है।
अब माना कि सभी देश स्वतंत्र व्यापार की नीति अपनाते है तो
X वस्तु पर किसी प्रकार का आयात कर न लगने के कारण X वस्तु
सस्ती हो जाएगी । फलतः कीमत रेखा AD से बदल कर AC हो जाएगी। यहां पर उदासीन वक्र
IC2 कीमत
रेखा AC को F बिन्दु पर स्पर्श करती है। अतः उपभोक्ता का नया संतुलन बिन्दु F होगा
। चूंकि F बिन्दु E बिन्दु
की अपेक्षा ऊँचे उदासीनता वक्र पर स्थिर है जिससे यह स्पष्ट होता है कि आयात कर के
अभाव में X वस्तु की कीमत में कमी होने से उपभोक्ताओं का संतुष्टि स्तर
पहले की अपेक्षा अधिक हो गया है। अतः यदि सभी देशों के साथ स्वतंत्र व्यापार की नीति
अपनायी जाए तो उपभोक्ता ऊँचे उदासीन वक्र IC2
पर पहुँच
जाएगा और उनका संतुष्टि स्तर भी
पूर्वापेक्षा अधिक होगा
(3) राष्ट्रीय आय में वृद्धि :- स्वतंत्र व्यापार के अन्तर्गत प्रत्येक देश अपने भौगोलिक,
प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग कर सकता है और वह देश उन्ही वस्तुओ का उत्पादन
कर सकता है, जिनके उत्पादन के लिए वह सर्वाधिक उपयुक्त है। इससे देश की वास्तविक राष्ट्रीय
आय में वृद्धि होती है।
(4) बाजारों का विस्तारः- स्वतंत्र व्यापार के अन्तर्गत विभिन्न वस्तुओं के बाजार विस्तृत हो जाते है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापार पर किसी प्रकार के प्रतिबंध नहीं लगाए जाते और वस्तुएं दूरस्थ देशों में भी
बेची जा सकती है। बाजारों के विस्तृत होने पर वस्तुओं के मूल्य कम हो जाते है। विशेषतया
तब, जबकि उनका उत्पादन उत्पत्ति वृद्धि नियम के अन्तर्गत किया जा रहा है।
(5) उत्पादन रीतियों में सुधारा
:- चूँकि स्वतंत्र व्यापार के अन्तर्गत देशी उद्योगपतियों को विदेशी प्रतियोगिता का सामना
करना पड़ता है, इसलिए वे अपनी उत्पादन विधियों में सुधार करते है। विवेकीकरण और वैज्ञानिक
प्रबंध आदि लागू किए जाते है। मशीनों का उपयोग किया जाता है और उत्पादन व्यय न्यूनतम
रखने के लिए नवीनतम आविष्कारों को काम में लाया जाता है।
(6)
राजनैतिक अनाचारों पर रोक :- जब किसी देश में उद्योगों
को संरक्षण प्रदान किया जाता है तो अनेक स्वार्थ उत्पन्न हो जाते है और रिश्वत और राजनैतिक
अनाचार बढ़ जाते
है। इसके विपरीत स्वंतत्र व्यापार में निहित स्वार्थों का प्रश्न ही नहीं उठता।
(7)
देनदार देशों को भुगतान में सुविधा :- स्वतंत्र
व्यापार की अवस्था में वस्तुओं के आवागमन (अर्थात् देनदार देशों से निर्यात और लेनदार
देशों से आयात, द्वारा देनदार देशो को लेनदार देशों का भुगतान करने में बड़ी सुविधा
होती है।
(8)
स्वर्णमान व्यवस्था के अनुकूल :- स्वतंत्र व्यापार स्वर्णमान
की व्यवस्था के अनुकूल है। किसी भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रामान की सफलता करेंसियों के
स्वतंत्र क्रय-विक्रय पर निर्भर होती है। यह सुविधा तभी प्राप्त हो सकती है जब स्वतंत्र
व्यापार की अवस्था मौजूद हो।
(9)
अधिकतम औद्योगिक
विकास की प्रगति :- स्वतंत्र व्यापार के अन्तर्गत प्रत्येक
क्षेत्र या देश दूसरे क्षेत्र या देश में उत्पन्न होने वाला कच्चा माल प्राप्त कर सकता
है। यदि कोई एक देश प्रतिबंध भी लगा दे तो कच्चा माल अन्य देशों या क्षेत्रों से प्राप्त
कर सकता है। इस लाभ के कारण प्रत्येक देश किसी भी प्रकार के उद्योग को अपने यहां स्थापित
कर सकता है।
(10)
चक्र विरोधी महत्त्व :- स्वतंत्र व्यापार के कारण
आर्थिक स्थायित्व
बना रहता है, क्योंकि यदि किसी देश में मंदी हो तो वहाँ की चीजे सस्ती हो जाने के कारण
निर्यात में वृद्धि हो जाएगी और कीमतों में शनैः शनैः वृद्धि होनी शुरू हो जाएगी। इसके
विपरीत यदि देश में स्फीतिजनक परिस्थितियां है तो आयात अधिक होने से और निर्यात घटने
से कीमते गिरेंगी। इस प्रकार स्वतंत्र व्यापार अपने आप में चक्र विरोधी है।
स्वतंत्र व्यापार के विपक्ष में तर्क
स्वतंत्र
व्यापार के उपर्युक्त लाभों के बावजूद अनुभव यह बताता है कि स्वतंत्र व्यापार की नीति
एकाधिकार संघों को निर्मित होने से रोक नही पायी है। स्वतंत्र व्यापार में कुछ ऐसे दोष निहित है जिनके कारण या तो सब देशों ने इसे अपनाया
नहीं और यदि इस नीति का अनुसरण भी किया तो बाद में इसका परित्याग करना पड़ा।
स्वतंत्र व्यापार के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत
किये गये है:-
(1) प्रतियोगिता के कारण अर्द्धविकसित देशों को हानि :- स्वतंत्र व्यापार के कारण सबसे अधिक हानि अर्द्धविकसित
देशों को हुई जो विकसित देशों के साथ प्रतियोगिता नही कर सके। उदाहरण के लिए,
स्वतन्त्रता के पूर्व भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा जो स्वतंत्र व्यापार की नीति
अपनायी गयी उसके कारण देश के कुटीर उद्योगो का पतन हो गया ।
(2) वितरण पक्ष की अवहेलना :- स्वतन्त्र व्यापार अनुकूलतम वितरण एवं सामाजिक न्याय
के पक्ष पर विचार नहीं करता। स्वतंत्र व्यापार के फलस्वरूप विभिन्न देशों एवं एक
ही देश के विभिन्न वर्गों में आय का वितरण असमान हो जाता है अतः वितरण की दृष्टि
से स्वतंत्र व्यापार की नीति सर्वोत्तम नीति नहीं है। यह आवश्यक हो सकता है कि देश
के भीतर एवं विभिन्न देशों में वितरण में सुधार करने के लिए आयात करो द्वारा
स्वतंत्र व्यापार को नियंत्रित किया जाए।
(3) पूर्ण रोजगार की गलत मान्यता :- स्वतंत्र व्यापार का तर्क इस मान्यता पर आधारित है कि
देश में सारे संसाधनों को पूर्ण रोजगार प्राप्त है किंतु वास्तविकता तो यह है कि
अनेक देशों में अत्यधिक बेरोजगार की स्थिति है। जब साधन अप्रयुक्त है तो आयातो को
नियन्त्रित कर उनका पूर्ण प्रयोग कर उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। इस आधार पर
स्वतंत्र व्यापार का तर्क दुर्बल हो जाता है।
(4) कीमत प्रणाली के दोष :- स्वतंत्र व्यापार यह मानकर चलता है कि कीमत प्रणाली पूर्ण
कुशलता के साथ कार्य करती है और इसके कारण वस्तुओ की कीमते प्रत्येक स्थान पर इस
तरह समान हो जाती है कि इसके बाद और अधिक विनिमय सम्भव नहीं होता। इसके साथ ही
कीमत प्रणाली से वस्तुओं की कीमते उनकी सीमांत लागत के बराबर हो जाती है जिससे
उत्पादन अनुकूलतम होता है, किंतु ऐसे अनेक कारण है जिनसे कीमत प्रणाली कुशलता से
कार्य नही कर पाती जैसे फर्म की बाह्य बचते एवं अमितव्ययताएं, फर्मों अथवा साधनों
में प्रतियोगिता का अभाव, इत्यादि ।
(5) स्वतन्त्र व्यापार से गलाकाट प्रतियोगिता :- स्वतंत्र व्यापार गलाकाट प्रतियोगिता को जन्म देता है।
अपने निर्यातों को बढ़ाने के लिए अनेक देश राशिपातन का सहारा लेते है जिससे छोटे
एवं अर्द्धविकसित देशों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इसी कारण इन देशों द्वारा
आयातो पर प्रतिबन्ध लगाने पड़ते है।
(6) राजनीतिक हस्तक्षेप :- स्वतंत्र व्यापार का यह परिणाम होता है कि पारस्परिक
आर्थिक निर्भरता के साथ ही साथ राजनीतिक हस्तक्षेप एवं दबाव बढ़ने लगते है। अनेक
देशों ने यह अनुभव किया है कि राजनीतिक स्थिरता एवं स्वतंत्रता के लिए आर्थिक आत्म
निर्भरता भी आवश्यक है। इसी कारण देशों ने संरक्षण की नीति का सहारा लिया।
(7) शिशु उद्योगों का पतन :- स्वतंत्र व्यापार का एक परिणाम यह हुआ कि छोटे-छोटे
विकासशील देशों में उद्योगों की स्थापना नहीं हो सकी, क्योंकि ये उद्योग विकसित
देशों के उद्योगों से प्रतियोगिता नहीं कर पाते थे अतः पिछड़े देशों ने अपने यहाँ
शिशु उद्योगों को संरक्षण देने के लिए स्वतंत्र व्यापार की नीति को छोड़ दिया।
स्वतंत्र व्यापार के उक्त दोषों के कारण एक समय ऐसा आया जब
विश्व में संरक्षण की लहर फैल गयी और प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की स्वतंत्र
व्यापार की नीति लड़खड़ाकर समाप्त हो गयी।
संरक्षण
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सम्बन्ध में संरक्षण नीति का
समर्थन सर्वप्रथम अमेरीकी अर्थशास्त्री अलेक्जेण्डर हेमिल्टन ने अपनी पुस्तक
'Report of Manufacturers (1791) में किया।
सरंक्षण की नीति अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की वह नीति है
जिसके अन्तर्गत सामान्य रूप से आयात कर लगाकर अथवा घरेलू उत्पादको को आर्थिक
सहायता देकर घरेलू उद्योगो को प्रोत्साहन दिया जाता है। साधारण रूप से इसका आशय आयातो
पर प्रशुल्क लगाने
से होता है, किंतु इसका सम्बंध ऐसी नीति से हो सकता है जिसके कारण आयात कि हुई वस्तुओं
की कीमते घरेलू कीमतों की तुलना में अधिक हो जाती है।
सरंक्षण
के कई रूप हो सकते है जैसे प्रशुल्क, आयात अम्यांश एवं आयात लाइसेंस, विनिमय नियंत्रण,
देश के उत्पादको को आर्थिक अनुदान, कीमत- विभेद, राज्य व्यापार, अन्तर्राष्ट्रीय उत्पादन
संघ आदि। किंतु इनमे प्रशुल्क अथवा आयात कर संरक्षण की सबसे महत्त्वपूर्ण रीति है।
सरक्षण के पक्ष में तर्क
संरक्षण
के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते है -
(A)
आर्थिक तर्क- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित तर्को को रखा
जाता है
(1)
शिशु उद्योग तर्क :- संरक्षण के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण
तर्क शिशु उद्योग सम्बन्धी तर्क है। सबसे पहले 1791 ई. में अमेरिका के अलेक्जेण्डर
हेमिल्टन ने अपनी Report on Manufacture मे शिशु उद्योग सम्बन्धी तर्क का प्रतिपादन
किया। शिशु उद्योग वे उद्योग होते है जो नए-नए ही प्रारम्भ किये जा गये है तथा वे इतना
परिपक्व नहीं हुए है कि दीर्घकाल से स्थापित विदेशी उद्योगों से प्रतियोगिता कर सके
। अतः यदि ऐसे उद्योगों को सरक्षण नहीं दिया जाये तो वे अपनी जड़ें मजबूत कर सकते है
और न जीवित रह सकते है। विकासशील देशों में स्थापित शिशु उद्योगों की लागते प्रारम्भ
में ऊँची रहती है। अतः यह स्वभाविक है कि ये उद्योग उन विदेशी निर्यातको से प्रतियोगिता
नहीं कर सकते जो विकसित होते है एवं जिनकी लागते भी कम होती है। ऐसी स्थिति में प्रशुल्क
लगाकर आयातो की कीमते बढ़ा ली
जाती है ताकि देश के माल की बिक्री होती रहे। इस उद्योग के संबंध में यह बात लागू होती
है "बच्चे का पालन करो, शिशु की रक्षा करो एवं युवक को स्वतंत्र छोड दो"
( Nurse the baby Prodect the child and free the adult)
इस तर्क की आलोचना
शिशु
उद्योग सम्बंधी तर्क के विरुद्ध में
निम्नलिखित आलोचना दी गई है -
(1)
स्थायी बनने की प्रवृत्तिः- संरक्षण अस्थायी होना चाहिए
लेकिन एक बार किसी उद्योग को संरक्षण दे दिया जाता है तो उसमें स्थायी होने की प्रवृत्ति
पाई जाती है। इतना ही नहीं वैसे उद्योग भी बिना संरक्षण के भी आगे बढ़ सकते हैं, संरक्षण
हटाने के विरुद्ध जोरदार आवाज उठाते है क्योंकि वे संरक्षण द्वारा एकाधिकारी लाभ कमाना
चाहते है या अपने को भविष्य के लिए सुरक्षित रखना चाहते है।
(2)
उपभोक्ताओं को हानि :- संरक्षण के विरुद्ध यह
भी कहा जाता है कि उससे उपभोक्ताओं को हानि होती है क्योंकि संरक्षण के समय उन्हें
वस्तुओं के लिए अधिक मूल्य देना पड़ता है।
(3)
बेकार :- कुछ लोगों का यह भी विचार है कि शिशु उद्योगों
को संरक्षण देना बेकार है, क्योंकि निजी उपक्रम स्वयं ही अपने उत्पादन को बढ़ा सकता
है तथा उचित लाभ कमा सकता है।
(4)
भ्रष्टाचार :- संरक्षण के विरुद्ध यह भी कहा जाता है कि
एक बार शिशु उधोगो को सुरक्षा देने से दूसरे सभी प्रकार के उद्योग भी संरक्षण की मांग
करने लगते है। इससे देश में भ्रष्टाचार और पक्षपात फैलता है।
(5)
चुनाव की कठिनाई :- शिशु उद्योगों को संरक्षण देने के विरुद्ध
में यह भी कहा जाता है कि कभी-कभी यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कौन सा उद्योग
शिशु उद्योग है और कौन सा नही।
(6)
निर्णय के गलत होने की संभावना :- यह भी विचार निश्चित रूप से नहीं किया जा
सकता कि क जिस उद्योग को संरक्षण दिया जा रहा है वह बाद में अपने पैरो पर खड़ा होकर
बिना संरक्षण के ही विदेशी प्रतियोगिता का सामना कर सकेगा।
(2)
रोजगार वृद्धि का तर्क :- रोजगार की मात्रा में वृद्धि करने के लिए संरक्षण की नीति
का समर्थन किया गया है।
संरक्षण द्वारा नऐ उद्योगों के विकास से रोजगार के अवसरों
में वृद्धि होती है। यदि देश के प्राचीन उद्योगों को भी संरक्षण नहीं दिया जाये तो
वे नष्ट हो जाएंगे और बेरोजगारी की सृष्टि होगी।
इस तर्क की आलोचना
स्वतंत्र व्यापार के समर्थको ने रोजगार तर्क की कटु आलोचना
की है। उनका कहना है कि चूंकि निर्यात ही आयात का भुगतान करते है, प्रशुल्क के
माध्यम से आयातों में कटौती के फलस्वरूप निर्यातों में कटौती होगी तथा घरेलू
उद्योगों में जितने रोजगार की वृद्धि होगी उतनी ही कमी निर्यात उद्योगों में हो
जायेगी। इस सन्दर्भ में केन्स ने किसी आयात कर की इन शब्दों में आलोचना की
है-"क्या कोई ऐसी चीज है जिसे प्रशुल्क कर सकता है और जिसे भूकम्प अच्छी तरह
नहीं कर सकता "।
(3) उद्योग विविधता का तर्क :- इस तर्क के मुख्य समर्थक Frederichlist है। उनके अनुसार
किसी भी देश में उत्पादन और रोजगार के विभिन्न स्त्रोतों का विकास होना चाहिए। देश
की अर्थव्यवस्था को संतुलित बनाये रखने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। थोडे से
उद्योगों पर निर्भर रहना आर्थिक और राजनीतिक दोनो ही दृष्टियो से घातक हो सकता है।
इस तर्क की निम्न प्रकार से आलोचना की गई है-
(a) उद्योगों में विविधता का तर्क तुलनात्मक लागत एवं विशिष्टीकरण
के लाभों की अवहेलना करता है।
(b) संरक्षण का यह अर्थ कदापि नहीं है कि पूर्ण रूप से
अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों को तिलांजलि दे दी जाय। अतः विविधता का तर्क
अपने आप में कमजोर है।
(c) आज के पारस्परिक निर्भरता के बढ़ते हुए युग में कोई भी
देश पूर्ण स्वतंत्र होकर रहने की कल्पना नहीं कर सकता।
(4) आय का तर्क :- कुछ लेखको ने सरकारी आय में वृद्धि करने के लिए भी सरंक्षणात्मक करो के
पक्ष में तर्क दिया है। लेकिन यह तर्क महत्त्वपूर्ण नहीं है, क्योकि यदि पूर्ण
संरक्षण प्रदान कर आयातों को स्वर्ण निषिद्ध बना दिया जाय तो सरकार को कोई आय
प्राप्त नहीं होगी।
(5) राष्ट्रीय संसाधनों का संरक्षण :- मुक्त व्यापार के अन्तर्गत देशों के प्राकृतिक साधनों
का व्ययपूर्ण उपयोग होता है। इसके फलस्वरूप उनके भांडार समाप्त होने लगते है।
Carrey and Pattern ने यह तर्क दिया कि मुक्त व्यापार से कृषि वस्तुओं
का निर्यात होता है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। Jevons ने भी इसी
आधार पर इंग्लैण्ड से कोयले के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था। इस
प्रकार राष्ट्रीय साधनों की सुरक्षा की दृष्टि से भी सरंक्षण की नीति आवश्यक हो
जाती है।
(6) आधारभूत उद्योग तर्क :- किसी भी देश के औद्योगिकीकरण के लिए आधारभूत उद्योगों
को विकसित करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के उद्योगों में लोहा एवं इस्पात
विद्युत तथा इंजीनियरिंग उद्योग आदि शामिल किये जाते है। ये देश औद्योगिक ढाँचे के
आधार होते है। अतः देश के औद्योगिक आधार को सुदृढ़ बनाने के लिए इन मूलभूत उद्योगों
को संरक्षण देना आवश्यक है।
(7) राशिपातन विरोधी तर्क :- इस तर्क के अनुसार यदि कोई देश हमारे देश की वस्तुओं के
आयात पर प्रतिबंध लगाता है तो हमे उस देश से आनेवाली वस्तुओं पर प्रतिबन्ध लगा
देना चाहिए। इसी प्रकार जब कोई देश राशिपातन का सहारा लेता है अर्थात् लागत से भी
कम मूल्य पर दूसरे देशों में अपनी वस्तुओं को बेचता है तब संरक्षण का प्रयोग उस
दूसरे देश के लिए अनिवार्य हो जाता है।
(8) व्यापार संतुलन तर्क :- कभी-कभी संरक्षण नीति का इस आधार पर भी समर्थन किया
जाता है कि इसकी सहायता से देश के व्यापार संतुलन में सुधार किया जा सकता है।
मुद्रा स्फीति के समय तो इस तर्क का महत्त्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि ऐसे समय
आन्तरिक कीमत स्तर के ऊँचे होने के कारण देश के आयात बढ़ जाते है और निर्यात कम हो
जाते हैं। यदि ऊँचे आयात करो द्वारा आयातो को कम कर लिया जाय तो व्यापार संतुलन
में निश्चित ही सुधार हो सकता है।
(9)
व्यापार शर्त तर्क :- प्रशुल्क द्वारा संरक्षण
देकर व्यापार शर्तों को देश के अनुकूल बनाया जा सकता है। प्रशुल्क लगने से आयातकर्ता
देश में कीमत में वृद्धि हो जाती है तथा निर्यातक देश को कीमत में कमी करनी पड़ती है।
यदि वस्तु की मांग लोचदार होती है तो निर्यातक देश को कीमत और भी अधिक कम करनी होगी।
इस प्रकार प्रशुल्क का भार निर्यातक देश वहन किया जायेगा और व्यापार शर्तें आयातक देश
के पक्ष में हो जायेगी।
(10)
आर्थिक विकास तर्क:- वर्तमान समय का सरंक्षण
सम्बन्धी तर्क आर्थिक विकास है। यह कहा जाता है कि किसी भी देश का संतुलित आर्थिक विकास
संरक्षण के बिना संभव नहीं है। विकासशील देशों के लिए आज के युग में सरंक्षण अनिवार्य
है।
(B)
गैर आर्थिक तर्क :- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत
किए जाते है:-
(1)
सुरक्षा तर्क:- इस तर्क के अनुसार देश की स्वतंत्रता
एवं सुरक्षा को बनाए रखने के लिए रक्षा उद्योगों का विकास अत्यंत आवश्यक है। अत: ऐसे
उद्योगों के विकास के लिए सरकार को अवश्य ही संरक्षण नीति का आश्रय लेना चाहियो
(2)
देश भक्ति का तर्क :- देशभक्ति के आधार पर भी
संरक्षण का समर्थन किया जाता है। प्रत्येक देश को अपने देश में बनी वस्तुओं का ही प्रयोग
करना चाहिए एवं इस दृष्टि से संरक्षण नीति अपनायी जानी चाहिए।
(3)
आत्मनिर्भरता का तर्क :- इस तर्क का आशय यह है कि
किसी देश को आवश्यक वस्तुओं के लिए अन्य देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
(4)
विशिष्ट फर्मों की सुरक्षा का तर्क :- कुछ देशों में जनसंख्या
के कुछ फर्मों अथवा व्यवसायों की सुरक्षा के लिए संरक्षण का समर्थन किया गया है। जैसे
कृषि उद्योग अथवा कृषकों की सुरक्षा के लिए कृषि करो को लागू किया गया। यदि विदेशों
से सस्ते अनाज का आयात किया जाता है तो इसका कृषक समुदाय के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव
पड़ता है।
संरक्षण के विपक्ष में तर्क
संरक्षण
के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क है:-
(1)
प्राकृतिक साधनों का आर्थिक प्रयोग सम्भव नही होता :-
मुक्त व्यापार के अन्तर्गत प्रत्येक देश तुलनात्मक लागत सिद्धांत के आधार पर ही
उत्पादन करता है अर्थात् प्रत्येक देश उन्ही वस्तुओं का उत्पादन करता है जिसमे उसे
प्राकृतिक लाभ होता है। परिणामतः प्रत्येक देश प्रादेशिक श्रम विभाजन के आधार पर
उत्पादन करता है और उसे प्रादेशिक श्रम विभाजन सम्बन्धी सभी बचते उपलब्ध होती है।
परन्तु संरक्षण नीति के अन्तर्गत देश का उत्पादन प्रादेशिक श्रम विभाजन के आधार पर
नहीं होता।
(2) स्थायी होने की प्रवृत्ति :- जब एक बार किसी उद्योग को संरक्षण प्रदान कर दिया जाता
है तो फिर इसके विकसित हो जाने पर भी सरंक्षण को वापस लेना बहुत कठिन हो जाता है।
इसका कारण यह है कि संरक्षण काल में उद्योग में कई प्रकार के निहित स्वार्थ
उत्पन्न हो जाते है जो सदैव इस बात का प्रयत्न करते है कि सरकार संरक्षण को वापस न
ले।
(3) राष्ट्रीय आय के वितरण में असमानता :- सरंक्षण नीति के कारण राष्ट्रीय आय का वितरण असमान हो
जाता है। इसका कारण यह है कि संरक्षण के कारण वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती है जिससे
उपभोक्ताओं पर अनावश्यक दबाव पड़ता है। उपभोक्ता प्रायः निर्धन वर्ग के होते है।
इसके अतिरिक्त संरक्षण नीति के फलस्वरूप देशी उद्योगपतियों को भारी लाभ प्राप्त
होते है।
(4) एकाधिकार की स्थापना :- जिन उद्योगों को संरक्षण दिया जाता है, वे प्रतियोगिता
के भय से मुक्त हो जाते है तथा प्रतियोगिता के अभाव में ऐसे संरक्षित उद्योगों में
एकाधिकार की प्रवृत्ति पनपने लगती है जो देश के लिए घातक होती है।
(5) राजनीतिक भ्रष्टाचारः- देश में ऐसे निहित स्वार्थ पनपने लगते है जो संरक्षण को
समाप्त नहीं होने देना चाहते तथा इसे जारी रखने के लिए वे अनुचित उपायो-
रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि का सहारा लेते है।
(6) देशों में तनावपूर्ण सम्बन्ध:- जब एक देश आयातों को कम करने के लिए प्रशुल्क का सहारा लेता है तो
अन्य देश भी चुप नहीं बैठते । वे भी बदले की भावना से प्रशुल्क की दीवारे खड़ी कर लेते
है। इससे देशों में मनमुटाव की भावना फैलती है।
(7)
उपभोक्ताओं को हानि :- संरक्षण नीति के अन्तर्गत
विदेशी वस्तुओं के आयात पर कर या शुल्क लगा दिये जाते है, जिससे उनके मूल्यों में वृद्धि
हो जाती है। संरक्षण प्राप्त घरेलु उद्योगों में भी अकुशलता की सृष्टि होती है तथा
उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की लागत ऊँची रहती है।
(8)
अकुशल एवं अनार्थिक उद्योगों को प्रोत्साहन :-
संरक्षण की आंड में कुछ ऐसे उद्योगों को भी प्रोत्साहन मिल
जाता है जो आर्थिक दृष्टिकोण से देश के लिए उपर्युक्त नहीं होते है तथा जिनमें कुशलता
का अभाव होता
है।
(9)
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण में बाधा
:- स्वतंत्र व्यापार के अन्तर्गत ही अन्तर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण
संभव होते है तथा उनके लाभ प्राप्त होते है। लेकिन संरक्षण के कारण
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण में बाधा उत्पन्न होती है जिससे
साधनों का समुचित उपयोग नहीं हो पाता और उत्पादन तथा आय में कमी होती है।
(10)
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में कमी :- संरक्षण कर लगने
से आयात कम हो जाते है। आयात की कमी का प्रभाव निर्यात पर भी पड़ता है और उनमें भी
कमी आ जाती है, क्योंकि निर्यात का भुगतान आयात द्वारा मिलता है। इस भाँति विश्व
के कुल व्यापार में कमी आ जाती है।
निष्कर्ष
इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि संरक्षण के विरोध में तर्क अवश्य प्रकट किये जा रहे है परन्तु व्यवहार में कोई भी ऐसा देश नही मिलेगा जो संरक्षण की नीति पर नहीं चल रहा हो।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)