प्रश्न:-
आर्थिक समस्या क्या है? इसके निराकरण के उपाय बताए
☞ "आर्थिक समस्या, मुख्यतः साध्यों का
सीमित साधनों के साथ समायोजन की नहीं है, बल्कि साधनों की वृद्धि और विकास की है
ताकि बढ़ते हुए
और बदलते हुए साध्यों की पूर्ति की जा सके"। विवेचना कीजिए और बताइये कि रॉबिन्स ने आर्थिक समस्या को गलत ढंग से सोचा और
उन्होंने प्रावैगिक (Dynamic) समस्या का स्थैतिक (Static)
दृष्टिकोण लिया ?
उत्तर :- ब्रिटेन के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लॉड रॉबिन्स ने 1932 में अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक "An
Essay on the Nature and significance of Economic Science" में 'कल्याण' परिभाषाओं के दोषों की बताते
हुए न तो धन पर जोर दिया और न मनुष्य के कल्याण या हितों पर, बल्कि उन्होंने मनुष्य की असीमित आवश्यकताओं का
सीमित साधनों से सम्बंध स्थापित करने का प्रयत्न किया। उन्होने अर्थशास्त्र के
पुराने ढाँचे को, जोकि धन तथा भौतिक कल्याण
पर टिका हुआ था, तोड़कर अपनी परिभाषा एक नये
दृष्टिकोण से दी जो इस प्रकार है
"अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो साध्य एवं सीमित साधनों
जिसका वैकल्पिक प्रयोग होता है के सम्बंध के रूप में मानव आचरण का अध्ययन करता है"।
इस प्रकार रॉबिन्स की परिभाषा मानव आचरण के उस पहलू पर आधारित है जिसके चलते वह अपनी अनन्त आवश्यकताओं की
पूर्ति के लिये सीमित साधनों का प्रयोग चयन के आधार पर करता है। यह चयन की समस्या
केवल सामाजिक मनुष्य के लिये ही नहीं है वरन् समाज से बाहर एकान्तवासी मनुष्यों के
लिये भी यह चयन की समस्या उत्पन्न
होती है। रॉबिन्स के अनुसार मनुष्य की यही मूल आर्थिक समस्या है और इसी का अर्थशास्त्र में अध्ययन किया जाता है।
परिभाषा के मुख्य आधार
मानव आचरण से सम्बन्धित चुनाव का प्रश्न मानव जीवन के निम्नलिखित चार तथ्यों
पर आधारित है -
(1)
मनुष्य की आवश्यकताएं या उद्देश्य
असीमित है :- मनुष्य की आवश्यकताएं अनन्त होती है एवं उनमें भिन्नता भी पाई
जाती है। यदि एक आवश्यकता की पूर्ति की जाय तो दूसरी आवश्यकता तुरन्त उत्पन्न हो जाती है।
(2)
उन आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साधन सीमित है :-एक ओर
तो हमारी आवश्यकताएँ अनन्त है और दूसरी ओर उनकी पूर्ति करने के साधन सीमित
है। इसके अलावा हमारे पास समय की
भी कमी रहती है। यदि समय एवं साधन की कमी नहीं रहे तो वास्तव में आर्थिक समस्या ही
उत्पन्न नहीं होगी। प्रो. रॉबिन्स
साधनों के अन्तर्गत भौतिक वस्तुओं तथा अभौतिक सेवाओं दोनो को
सम्मिलित करते है।
(3)
परन्तु सभी आवश्यकताएँ एक समान प्रबल
एवं महत्त्वपूर्ण नहीं
होती :- हमारे लिए कुछ आवश्यकताएं अधिक महत्त्वपूर्ण होती है तो कुछ कम। उदाहरण के
लिये, एक विद्यार्थी के लिए पुस्तक खरीदने की आवश्यकता सिनेमा देखने की आवश्यकता से अधिक महत्त्वपूर्ण एवं तीव्र
होती है।
(4)
साधनों का वैकल्पिक प्रयोग हो सकता है :- किसी एक साधन का प्रयोग एक से अधिक आवश्यकता
की पूर्ति करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि हमारे पास पचास रुपये हैं
तो उससे हम सिनेमा देख सकते हैं, होटल में नास्ता कर सकते है या पुस्तक ही खरीद सकते
हैं। वास्तव में उपरोक्त विशेषताओं के कारण ही आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न
होती है।
व्याख्या
प्रो.
रॉबिन्स के अनुसार अर्थशास्त्र मानव आचरण के उस पहलू का अध्ययन करता है जिसका सम्बंध
उपरोक्त चार बातों से है। इसका कारण है कि जहाँ भी चार बातें होगी वहाँ
आर्थिक समस्या की उत्पत्ति होगी। हमारी आवश्यकताएँ अनन्त है और उनकी पूर्ति करने के
साधन सीमित है। तथा इन साधनों का वैकल्पिक प्रयोग हो सकता है। अतः ऐसी अवस्था में व्यक्ति
को यह चयन करना पड़ता है कि वह अपने साधन को किस आवश्यकता पर खर्च करें। जो आवश्यकता
अधिक तीव्र एवं महत्वपूर्ण होती है, हम उसी का चयन करते है। इस चुनाव में कौन सा चुनाव
अच्छा है और कौन सा बुरा है, इसपर विचार नहीं किया जाता। अच्छे-बुरे का निर्णय नीतिशास्त्र
करता है न कि अर्थशास्त्र।
अतः कहा गया है कि "अर्थशास्त्र चयन का तर्कशास्त्र है। यह चयन का प्रश्न इसलिये
उठता है क्योंकि हमारी आवश्यकताएं अनन्त है तथा उनकी पूर्ति के साधन हमारे पास कम है या साधन
दुर्लभ है। इस प्रकार अर्थशास्त्र को दुर्लभ साधनों का विज्ञान भी कहा गया है।
यह
चयन की समस्या (आर्थिक समस्या) केवल सामाजिक मनुष्य के लिये ही नहीं है
वरन् समाज से बाहर एकांतवासी मनुष्यो के
लिये भी चयन की समस्या उत्पन्न होती है। शर्त केवल यह है कि साधन सीमित होने
चाहिये और उनका विभिन्न कार्यों के लिये प्रयोग होना चाहिये। जहाँ भी ये बाते होगी
वहीं अर्थशास्त्र की आवश्यकता पड़ेगी। उदाहरण के लिये, किसी साधु को एक घंटा समय
(साधन) है जिसमें वह शिव की पूजा कर सकता है या विष्णु की पूजा कर सकता है या अपने
शिष्यों को उपदेश दे सकता है। ऐसी अवस्था में मान लिया जाय कि वह शैव है तो वह एक
घंटे के समय के लिये शिव की पूजा करने का चयन करेगा, क्योंकि शिव पूजा करना उसके
लिये सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इस प्रकार मनुष्य चाहे समाज के अन्दर रहे या बाहर
उसे अर्थशास्त्र की आवश्यकता पड़ती है।
प्रो. रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र को एक यथार्थवादी विज्ञान माना है
न कि आदर्शवादी विज्ञान। उन्होने अर्थशास्त्र में आर्थिक एवं गैर-आर्थिक क्रियाओं
तथा भौतिक एवं अभौतिक साधनों के बीच के अन्तर को समाप्त कर दिया है। प्रो. रॉबिन्स
की परिभाषा वर्गकारिणी न होकर विश्लेषणात्मक है और इसलिये यह अधिक यथार्थ है एवं
तार्किक दृष्टिकोण से परिपूर्ण है। इस प्रकार रॉबिन्स ने मार्शल की अनेक त्रुटियो
को समाप्त करने की चेष्टा की है।
आलोचनाएँ
प्रो रॉबिन्स की परिभाषा अधिक वैज्ञानिक है। फिर भी रॉबिन्स
की परिभाषा के विरुद्ध निम्नलिखित आलोचनाएँ दी जाती है-
(1) अर्थशास्त्र की सीमा अत्यधिक व्यापक हो जाती है :- प्रो. रॉबिन्स की परिभाषा के अनुसार जब भी आवश्यकताओं
की पूर्ति के लिये सीमित साधनों के प्रयोग में चुनाव का प्रश्न उठता है तो वह विषय
अर्थशास्त्र की क्षेत्र के अन्तर्गत आ जाता है। किंतु इससे अर्थशास्त्र का क्षेत्र
अत्यधिक व्यापक हो जाता है क्योकि मानव की सारी क्रियाएँ तथा प्रायः सभी शास्त्र
अर्थशास्त्र में चले जाते है। इससे अर्थशास्त्र एवं अन्य शास्त्रों के बीच स्पष्ट
अन्तर करना कठिन हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति विष्णु की पूजा नहीं करके शिव की
पूजा करता है तो उसका आचरण अर्थशास्त्र के अध्ययन का विषय बन जाता है, यद्यपि इसका
अध्ययन धर्मशास्त्र में होना चाहिए।
(2) सरलता का अभाव :-
मार्शल की परिभाषा की तुलना में यह परिभाषा कम बोधगम्य है। रॉबिन्स ने अपनी
परिभाषा को जटिल एवं निराकार बना दिया है जो जन-साधारण की समझ में जल्दी नहीं आती।
(3) अर्थशास्त्र उद्देश्यों के बीच तटस्थ नहीं रह सकता :- रॉबिन्स
के अनुसार
अर्थशास्त्र एवं वस्तुगत विज्ञान है और यह उद्देश्यों के बीच तटस्थ
रहता है क्योंकि इसका कोई आदर्श नहीं होता किंतु अर्थशास्त्र वस्तुगत विज्ञान होने
के साथ-साथ आदर्शवादी विज्ञान भी है और यह उद्देश्यों के बीच तटस्थ नहीं रह सकता ।
आदर्श के अभाव में यह सिद्धान्तों का मात्र ढाँचा रह जायेगा और इससे किसी
आर्थिक उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकेगी।
अतः बारबरा बूटन ने ठीक ही कहा है, "अर्थशास्त्रियों
के लिए यह बहुत ही कठिन है कि वे अपने विश्लेषण से आदर्श के महत्त्व को पूर्णतः
समाप्त कर दें"।
(4) निश्चितता का अभाव :- प्रो. मार्शल ने अर्थशास्त्र के अध्ययन को सामाजिक मनुष्यों तक
इसलिये सीमित रखा था कि उनके कार्यकलापों को मुद्रारुपी मापदंड के रूप में मापा जा
सके और अर्थशास्त्र को अधिक निश्चित बनाया जा सके। किंतु रॉबिन्स अर्थशास्त्र के
क्षेत्र की मुद्रा-सम्बन्धी कार्यों तक ही सीमित नहीं रखते जिससे उनकी परिभाषा में
निश्चितता का अभाव है।
(5) साधन एवं साध्य का अस्पष्ट अन्तर :- रॉबिन्स ने अपनी परिभाषा में प्रयुक्त साधन एवं साध्य
शब्दों के बीच के अन्तर को स्पष्ट नहीं किया है। कभी-कभी साध्य साधन बन जाता है ।
उदाहरण के लिये, किसी विद्यार्थी के लिए अध्ययन करना साध्य है किंतु वहीं साध्य
अच्छी नौकरी प्राप्त करने का साधन बन जाता है।
(6) यह परिभाषा मार्शल के प्रतिस्थापन नियम का एक भाग है :- कुछ
अर्थशास्त्रियों का विचार है कि रॉबिन्स की परिभाषा मार्शल द्वारा दिये गये
प्रतिस्थापन नियम का एक अंश है। मार्शल ने जिस बात को पहले अस्पष्ट रूप से व्यक्त कर
दिया था उसे रॉबिन्स ने केवल स्पष्ट मात्र
कर दिया।
(7) मानवीय स्पर्श की अवहेलना :- कोई भी मानव विज्ञान तभी पूर्ण समझा जाता
है, जब उसमे मानवीय स्पर्श होता है। जो रॉबिन्स की परिभाषा में अभाव पाया जाता है।
प्रो एली ने ठीक ही कहा है, "अर्थशास्त्र एक विज्ञान से भी कुछ
अधिक है, यह एक ऐसा विज्ञान है जिसके लिये क्रमबद्ध ज्ञान ही
आवश्यक नहीं, वरन् मानवीय सहानुभूति तथा असाधारण मात्रा में व्यावहारिक ज्ञान का
संचित अनुग्रह भी आवश्यक है।
उपयुक्त आलोचनाओं के आधार पर हम निश्चित रूप से कह सकते हैं
कि मार्शल की परिभाषा, रॉबिन्स से श्रेष्ठ है।
आर्थिक सिद्धांत अधिकांशतः पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत
विकसित किया गया है जहाँ कि उपर्युक्त समस्याओं के हल करने में कीमत प्रणाली
महत्त्वपूर्ण भाग लेती है। इसलिए आर्थिक सिद्धांत बहुधा मुक्त मार्किट प्रणाली की
पूर्वधारणा करता है और उसके द्वारा उपर्युक्त छः समस्याएँ किस प्रकार तथा कितनी
कुशलता से हल की जाती है, का विवेचन करता है -
(1) साधनों से किन वस्तुओं का तथा कितनी-कितनी मात्रा में
उत्पादन किया जाता है? साधनों के आवण्टन की समस्या :- यदि हमारे पास उत्पादन के साधन असीमित होते तो हम
वस्तुओं का जितनी मात्रा में चाहते, उत्पादन कर सकते थे और इसलिए यह प्रश्न उठता
ही नहीं कि "किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाय और कितनी-कितनी मात्रा में किया
जाए। किंतु चूंकि साधन वास्तव में मनुष्य की आवश्यकताओं की अपेक्षा कम मात्रा में
उपलब्ध है, अर्थव्यवस्था को वस्तुओं और सेवाओं में से चयन करना ही पड़ता है।
यदि समाज किसी वस्तु का ज्यादा मात्रा में उत्पादन करना
चाहता है तो उसे अन्य दूसरी वस्तुओं के उत्पादन से कुछ साधन हटा लेने होगे। जैसे,
युद्ध के समय जब एक देश युद्ध सम्बंधी वस्तुओं के उत्पादन बढ़ाने का निश्चय करता
है तो उसे असैनिक वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण में से कुछ साधन हटाकर उन्हें
युद्ध सामग्री के निर्माण में लगाने होंगे।
अर्थव्यवस्था में, क्या वस्तुएँ उत्पादित करनी है तथा
कितनी-कितनी मात्रा में, के सम्बंध में निर्णय स्वतंत्र मार्किट पद्धति अथवा कीमत
प्रणाली के माध्यम द्वारा लिए जाते है। स्वतंत्र - मार्किट (पूँजीवादी)
अर्थव्यवस्था में उत्पादक, जो कि लाभ कमाने के उद्देश्य से उत्पादन कार्य करते
हैं, किन वस्तुओं को उत्पादित करना है तथा कितनी मात्रा में, के सम्बंध में
निर्णय, विभिन्न वस्तुओं की सापेक्ष कीमतों को ध्यान में रख कर करते है। इसलिए
वस्तुओं की सापेक्ष कीमतें जो कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मांग और पूर्ति की
शक्तियों के स्वतंत्र रूप से कार्य करने के परिणामस्वरूप निर्धारित होती है,
अन्ततः वस्तुओं का उत्पादन तथा साधनों का आवंटन निर्धारित करती है।
(2) वस्तुओं का उत्पादन कैसे किया जाय : उत्पादन तकनीको के
चुनाव की समस्या :- उत्पादन कैसे
किया जाय का अर्थ है एक वस्तु के उत्पादन के लिए साधनों के कौन से संयोग का प्रयोग
करना है अथवा उत्पादन की कौन सी तकनीकों को अपनाना है। जैसे- अर्थव्यवस्था को यह
निर्णय करना होता है कि कपडा हथकरघे द्वारा तैयार किया या विद्युत करघे द्वारा।
हथकरघे द्वारा कपड़े के उत्पादन में अधिक श्रम और कम पूँजी का प्रयोग किया जाता
है। इसलिए हथकरघे द्वारा उत्पादन श्रम-प्रधान तकनीक कहलाती है। विद्युत करघे
द्वारा कपड़े के उत्पादन में अपेक्षाकृत कम श्रम और अधिक पूँजी का प्रयोग किया
जाता है। इसलिए इसे पूँजी-प्रधान तकनीक कहते है। स्पष्टतः यह उत्पादन के तकनीकों
में चयन की समस्या है।
उत्पादको द्वारा उत्पादन की किस तकनीक का चयन किया जाय और
क्यों के विषय को उत्पादन सिद्धांत के अन्तर्गत अध्ययन किया जाता है। उत्पादन के
सिद्धांत में हम साधनों और उत्पादन के बीच भौतिक सम्बंध की विवेचना करते है।
साधनों तथा उत्पादन में यह भौतिक सम्बंध वस्तुओं की उत्पादन लागत को निर्धारित
करता है। यह उत्पादन लागत वस्तुओं की पूर्ति को निश्चित करती है जो कि वस्तुओं की
मांग से क्रिया द्वारा वस्तुओं की कीमतों को निर्धारित करती है।
(3) समाज में वस्तुओं का वितरण किस प्रकार हो : राष्ट्रीय
उत्पादन के वितरण की समस्या :-
समाज के सदस्यों में राष्ट्रीय उत्पादन का वितरण किस प्रकार किया जाय, एक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इसका अर्थ यह है कि वस्तुओं और सेवाओं की कुल उत्पादित
राशि से किस-किस को कितना - कितना मिले। राष्ट्रीय उत्पादन के वितरण का
प्रश्न। एडम स्मिथ और डेविड़ रिकार्डों के समय से ही अर्थशास्त्रियों की चिन्ता का
विषय रहा है।
श्रम, भूमि और पूँजी उत्पादन के विभिन्न साधन है और
राष्ट्रीय उत्पादन अथवा आय को उत्पादित करने में अपना-अपना योगदान देते है और अपने
इस योगदान के बदले में कीमत अथवा पारिश्रमिक प्राप्त करते है। इन साधनों में जिसकी
सीमांत उत्पादकता सबसे अधिक होगी, पारिश्रमिक उसे ही ज्यादा प्राप्त होगी। यह
प्रश्न की उत्पादन के साधनों की कीमते किस प्रकार निर्धारित होती है वितरण के
सिद्धांत की विषय वस्तु है।
(4) क्या साधनों का कुशलता से प्रयोग हो रहा है : कल्याण
अधिकतम करने की समस्या :-
चूंकि साधन दुर्लभ और न्यून है, इसलिये यह वांछनीय है कि उनका अधिकतम कुशलता से
प्रयोग हो। प्रायः यह माना जाता है कि उत्पादन तथा वितरण की अकुशलताएँ सभी प्रकार
की अर्थव्यवस्थाओ में पाई जाती है। यदि इन अकुशलताओं को दूर किया जाए तो राष्ट्रीय
उत्पादन तथा लोगों के कल्याण में वृद्धि की जा सकती है। परन्तु इन अकुशलताओं को
हटाने के लिये कुछ लागत उठानी पड़ती है। यदि इन अकुशलताओं को हटाने की लागत, उनके
दूर होने से प्राप्त अतिरिक्त लाभ अथवा अतिरिक्त सन्तुष्टि की अपेक्षा अधिक है तो
इन्हें हटाना हितकर नहीं होगा।
आर्थिक सिद्धांत का वह भाग, जिससे समाज में उत्पादन तथा
वितरण की कुशलताओं एवं अकुशलताओं के सम्बंध में विवेचना की जाती है, को कल्याणकारी
अर्थशास्त्र कहते है।
कुशलता की प्राप्ति तब होती है जब उत्पादित वस्तुओं का समाज
के विभिन्न उपभोक्ताओं में इस प्रकार से वितरण हो जिससे उनमें किसी पुनः वितरण
द्वारा किसी उपभोक्ता की सन्तुष्टि में वृद्धि करना किसी अन्य व्यक्ति की संतुष्टि
घटाए बिना सम्भव न हो अर्थात् आय वितरण दिया हुआ होने पर उन समस्त सम्भावनाओं को
जिनसे किसी व्यक्ति की सन्तुष्टि में वृद्धि किसी अन्य व्यक्ति की सन्तुष्टि को कम
किए बिना की जा सकती हो को वास्तव में प्राप्त कर लिया गया हो।
(5) क्या समस्त उपलब्ध साधनों का पूर्ण रूप से उत्पादन के
लिए प्रयोग हो रहा है : साधनों के पूर्ण प्रयोग अथवा रोजगार की समस्या :- प्रायः एक समाज अपने उपलब्ध साधनों को स्वेच्छा से
निष्प्रयोग पड़े रहने की आज्ञा नहीं दे सकता। परन्तु पूँजीवादी देश में मन्दी के
समय कुछ इस प्रकार की व्यवस्था होती है कि भारी मात्रा में श्रम-शक्ति तथा अन्य
उत्पादन के साधनों का पूर्ण उपयोग नहीं होता जिससे एक ओर श्रमिकों में भीषण
बेरोजगारी फैल जाती है तथा दूसरी और औद्योगिक फैक्टरियों, खानों जैसे उत्पादन के
साधन या तो बंद हो जाते है या अपनी उत्पादन क्षमता से कम स्तर पर उत्पादन करते
हैं।
इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे. एम. केन्स का
धन्यवाद हो जिसने अपनी विख्यात कृति "General Theory
of Employment, Interest and Money" में जो कि 1936 में प्रकाशित हुई, साधनों
की इतनी बड़ी मात्रा में बेकारी तथा अप्रयुक्त उत्पादन क्षमता का कारण समस्त मांग
का घट जाना बताया। उन्होंने बताया कि प्रभावपूर्ण मांग को बढ़ाकर हम रोजगार के
स्तर में वृद्धि कर सकते है।
(6) क्या अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो रही है ? आर्थिक विकास की समस्या :- यदि अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता बढ़ रही है, तो यह वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्तरोत्तर अधिक उत्पादन कर सकेगी जिसके फलस्वरूप देश के लोगों का जीवन स्तर ऊँचा होगा। उत्पादन क्षमता का बढ़ना और परिणामस्वरूप कुल राष्ट्रीय उत्पाद अथवा राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने को आर्थिक, विकास कहा जाता है। एडम स्मिथ ने अपनी प्रख्यात पुस्तक राष्ट्रों की धन की प्रकृति एवं कारणों की जाँच में आर्थिक विकास के कारणों पर प्रकाश डाला । वर्तमान शताब्दी के तृतीय दशक में और केन्स के रोजगार, ब्याज और मुद्रा का सामान्य सिद्धांत "General theory of Employment, Interest and money" के प्रकाशित होने से अर्थशास्त्री मन्दी तथा व्यापार चक्रों की समस्याओं के विश्लेषण करने और उनके उचित समाधान सुझाने में व्यस्त रहे।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)