तटकर अथवा प्रशुल्क (सीमा शुल्क) TARIFES

तटकर अथवा प्रशुल्क (सीमा शुल्क) TARIFES

तटकर अथवा प्रशुल्क (सीमा शुल्क) TARIFES

प्रश्न :- संरक्षणात्मक तटकर क्या है? अर्द्ध-विकसित देशों में इस तटकर का महत्त्व प्रतिपादित कीजिए ?

उत्पादन एवं वितरण पर टैरिफ (आयात कर) के प्रभावो का परीक्षण कीजिए ?

उत्तर :- संरक्षण की सबसे लोकप्रिय विधि प्रशुल्क है, जो आयातित वस्तुओं पर लगाया जाता है।

संकुचित अर्थ में प्रशुल्क अपना तकर का आशय वस्तुओं पर लगाये गये आयातकरों से है। प्रो एल्सवर्थ ने अपनी पुस्तक 'The International Economics' मे बताया है कि, "प्रशुल्क करो की वे मात्राएं है जो एक राष्ट्र द्वारा विदेशी आयातो पर लगायी जाती है"।

विस्तृत अर्थ में प्रशुल्क से आशय सभी प्रकार के तट करो से है जिनमें आयात कर, निर्यात कर एवं मार्गवर्ती कर शामिल होते है। मार्गवर्ती कर उन वस्तुओं पर लगाये जाते है जब किसी देश से वस्तु अपने गन्तव्य स्थान को जाते हुए किसी तीसरे देश से गुजरती है।

माप

प्रशुल्क की माप निम्नलिखित विधियों से की जाती है:-

(1) माप की एक सम्भावित विधि प्रतिशत विधि है जिसके अनुसार प्रशुल्क को वस्तु के मूल्य के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है। सूत्र से -

तटकर अथवा प्रशुल्क (सीमा शुल्क) TARIFES

इस विधि की कमजोरी यह है कि जैसे ही प्रशुल्क निषेधात्मक होते जाएंगे आयातो की मात्रा कम होती जायेगी ।

(2) प्रशुल्क के माप की दूसरी विधि आयात करो का औसत भार ज्ञात करना है। औसत भार कुल आयात की गयी वस्तुओं के मूल्य पर लगाये गये प्रशुल्क को प्रतिशत में व्यक्त किया गया रूप है। यह विधि भी दोषपूर्ण है, क्योंकि प्रशुल्क के ऊँचाई के सूचकांक में निषेधात्मक तस्करों को शामिल नहीं किया जाता।

(3) तीसरी विधि कुल आयातो के मूल्य का वह अनुपात ज्ञात करना है जिस पर कोई प्रशुल्क नहीं लगता।

प्रशुल्क के प्रभाव

प्रशुल्क के प्रभावों का विश्लेषण दो सन्दर्भों में किया जा सकता है

(A) आंशिक साम्य विश्लेषण :- चार्ल्स पी. किण्डलबर्गर ने आंशिक साम्य के अन्तर्गत निम्न प्रशुल्क प्रभावों का उल्लेख किया है -

(1) राजस्व प्रभाव :- यदि प्रशुल्क पूर्ण रूप से निषेधात्मक होते है तो उनसे आय नहीं मिलती, किंतु यदि वे पूर्ण रूप से निषेधात्मक नहीं होते तो उनमें सरकार को कुछ आय प्राप्त होती है। निषेधात्मक प्रशुल्क का अर्थ है कि प्रशुल्क दर इतनी ऊँची रहती है कि आयात पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित हो जाते है। यदि प्रशुल्क ऐसी वस्तुओं के आयात पर लगाया जाता है जिसका देश में बिल्कुल उत्पादन नहीं होता तो ऐसे प्रशुल्क का पूर्ण संरक्षण प्रभाव नहीं पड़ता और सरकार को राजस्व प्राप्त होता है। किंतु इस स्थिति में कुछ न कुछ संरक्षणात्मक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि अन्य उत्पादनो की मांग होने लगती है। प्रशुल्क का वास्तविक संरक्षण प्रभाव न हो, इसके लिए आवश्यक है कि जिस वस्तु पर प्रशुल्क लगाया जाए, उसके घरेलू उत्पादन पर भी आयात कर की मात्रा के अनुसार उत्पादन कर लगाया जाए। जो प्रशुल्क निषेधात्मक से कम होते है तथा उसी अनुपात में घरेलू उत्पादन पर उत्पादन शुल्क नही लगता तो ऐसे प्रशुल्क का आय एवं संरक्षण दोनों प्रकार का प्रभाव होता है।

तटकर अथवा प्रशुल्क (सीमा शुल्क) TARIFES

चित्र में SS' वस्तु के घरेलू पूर्ति का वक्र है जिसे दीर्घकालीन औसत लागत वक्र भी कहते हैं। DD' घरेलू माँग वक्र है। व्यापार न होने की स्थिति में वस्तु की कीमत OP3 पर निश्चित होती है जहां घरेलू मांग और पूर्ति में संतुलन है। स्वतंत्र व्यापार होने की स्थिति में कीमत गिरकर OP1 हो जाती है जहां घरेलू उत्पादन OM1 है तथा आयात की मात्रा M1M4 है।

अब वस्तु के आयात पर P1P2 के बराबर प्रशुल्क लगा दिया जाता है जिससे घरेलू बाजार में कीमत बढ़कर OP2 हो जाती है और घरेलू उत्पादन OM1 से बढ़कर OM2 हो जाता है तथा उपभोग OM4 से घटकर OM3 हो जाता है तथा आयात M1M4 से घटकर M2M3 हो जाता है। इस स्थिति में राजस्व प्रभाव निम्न होगा

यदि प्रशुल्क P1P3 के बराबर होता तो वह निषेधात्मक होता तथा राजस्व प्रभाव शून्य होता, किंतु प्रशुल्क केवल P1P2 है। P1P2 प्रति इकाई प्रशुल्क जब आयात मात्रा M2M3 पर लगाया जाता है तब सरकार को प्रशुल्क से कुल आयात पर BFGC क्षेत्रफल के बराबर राजस्व मिलता है। यही प्रशुल्क का राजस्व प्रभाव है।

(2) वस्तु के मूल्य एवं विक्रय पर प्रभाव (प्रशुल्क या आयात कर के प्रत्यक्ष प्रभाव) :- प्रशुल्क का देश की कीमतों, उत्पादन व विक्रय पर भी प्रभाव पड़ता है जिसे आयात कर के प्रत्यक्ष प्रभाव भी कहते है।

प्रशुल्क के आरोपण का प्रत्यक्ष प्रभाव वस्तु के मूल्य और विक्रय पर पड़ता है किंतु इनका प्रभाव कितना और कैसे पड़ता है यह उत्पादन नियमों और माँग की लोच पर निर्भर करता है। इस संबंध में निम्नलिखित स्थितियाँ हो सकती है

(a) यदि ऐसी वस्तुओं का आयात कर लगाया जाता है जिनकी पूर्ति इतनी अधिक है कि घरेलू माँग को पूरा करने के पश्चात् भी वे निर्यात के लिए पर्याप्त मात्रा में बची रहती है तो इसका आन्तरिक मूल्यों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

(b) जिस वस्तु पर कर लगाया जाता है उसका आंतरिक मूल्य लगाए गए कर की मात्रा में कम बढ़ता है, यदि कर योग्य वस्तु का उत्पादन बढ़ती हुई लागतों के अन्तर्गत होता है क्योंकि इसमें

पूर्ति की अतिरिक्त इकाइयों का उत्पादन प्रति इकाई अधिक लागत लगाकर ही किया जा सकता है। स्वतंत्र व्यापार की परिस्थितियों में विभिन्न बाजारों में मूल्यों में एक समान होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसलिए आयात कर का प्रारंभिक प्रभाव यह होगा कि उसके आंतरिक और अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों मे कर की राशि के बराबर अन्तर आ जाएगा। अधिक मूल्यों के कारण आयातकर्ता देश के उपभोग में कमी एवं संभवतः उत्पादन में वृद्धि होती है

चित्र में SS वक्र आयात कर आरोपित करने से पूर्व का पूर्ति क्र है और आयात कर लगने के बाद का पूर्ति वक्र S1S1 है। पूर्ति वक्र नीचे से ऊपर की ओर उठता हुआ है जो यह प्रदर्शित कर रहा है कि उत्पादन लागत वृद्धि नियम के अन्तर्गत हो रहा है। DD मांग वक्र है। आयात कर लगने से पूर्व मांग वक्र (DD) और पूर्ति वक्र (SS) एक दूसरे को A बिन्दु पर काटते है। इसलिए मूल्य OP है और विनिमय की जाने वाली वस्तु की मात्रा OM है। परन्तु आयात कर लगने के उपरान्त कीमत बढ़कर OP1 हो जाती है लेकिन मूल्य में यह वृद्धि आयात की राशि से कुछ कम है। लेकिन विनिमय की जाने वाली वस्तु की मात्रा में अपेक्षाकृत अधिक कमी आई है क्योंकि वह OM से घटकर OM1 हो गई है।

(c) उत्पादन वृद्धि निम के क्रियाशील होने की अवस्था में यदि किसी देश द्वारा आयात की जाने वाली वस्तु पर आयात कर लगाया जाता है तो आयात कर के कारण आंतरिक मूल्यों में वृद्धि सामान्यतः आयात कर की राशि से कुछ अधिक होगी

चित्र में SS और S1S1 क्रमशः आयात कर लगने के पूर्व व आयात कर लगने के बाद पूर्ति वक्र है और DD माँग वक्र है। कर लगने के पूर्व माँग और पूर्ति वक्र A बिन्दु पर एक दूसरे को काते है इसलिए कीमत OP है और विनिमय की जाने वाली वस्तु की मात्रा OM है परन्तु आयात कर लगने के बाद कीमत बढ़कर OP1 हो जाती है और विनिमय की जाने वाली वस्तु की मात्रा घटकर OM1 हो जाती है। चित्र से स्पष्ट है कि आयात कर के कारण आंतरिक मूल्यों में कर की राशि से अधिक वृद्धि हुई है।

(d) जिस वस्तु पर आयात कर लगाया जा रहा है यदि वह स्थिर लागतों के अन्तर्गत उत्पन्न की जा रही है तो सामान्यतः आयात कर के कारण आंतरिक मूल्यों में कर की राशि के बराबर वृद्धि हो जाएगी। ऐसी स्थिति में देश की सम्पूर्ण पूर्ति आयातो द्वारा की जायेगी।

तटकर अथवा प्रशुल्क (सीमा शुल्क) TARIFES

चित्र में आयात कर लगने के पूर्व A संतुलन बिन्दु है और कीमत OP है तथा विनिमय की जाने वाली वस्तु की मात्रा OM है। परन्तु आयात कर लगने के बाद B संतुलन बिन्दु है और कीमत OP1 है तथा विनिमय की जाने वाली वस्तु की मात्रा घटकर OM1 हो जाती है।

(3) व्यापार की शर्तों पर प्रभाव :- प्रशुल्क लगाकर देश वस्तु का आयात सीमित करके, आयातित वस्तुओं की कीमत को कम कर सकता है जिस पर कि अन्य देश उसे बेचता है। इसमे यह मान्यता है कि विदेश प्रशुल्क का पूर्ण अथवा आंशिक भुगतान करता है। इसे चित्र से स्पष्ट कर सकते है।

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माना दो देश A और B है। देश A को कपड़े के उत्पादन में तुलनात्मक हानि है अतः A देश B से कपड़े का आयात करता है जिसे कपड़े के उत्पादन में तुलनात्मक लाभ है।

चित्र में देश A का कपड़े का माँग वक्र DD है तथा SS उसका पूर्ति वक्र है। बिन्दु R व्यापार-पूर्व का संतुलन बिन्दु है। अ A और B दोनों में व्यापार होता है और A देश B से कपड़े का आयात करता है। रेखा Sf देश A के लिए घरेलू उत्पादन और आयात से उपलब्ध कपड़े की कुल मात्रा है तथा बिन्दु V स्वतंत्र व्यापार का सन्तुलन बिन्दु है। यहाँ कपड़े की कीमत OP1 होगी तथा A में इसका कुल उपभोग OQ1 होगा । A देश कपड़े की OM1 मात्रा का देश में उत्पादन करेगा तथा M1Q1 मात्रा का B से आयात करेगा।

अब यदि A कपड़े के आयात पर प्रशुल्क लगाता है तो A का पूर्ति वक्र Sf+t हो जाता है तथा अब नया संतुलन बिन्दु W है तथा A में कपड़े का मूल्य बढ़कर OP2 हो जाता है। देश A में घरेलू उत्पादन की वृद्धि एवं कपड़े के उपभोग में कमी होने से, कपड़े का आयात M1Q1 से घटकर M2Q2 हो जाता है एवं साथ ही, विदेशी कपड़े की पूर्ति कीमत घटकर OP3 हो जाती है। इस प्रकार प्रशुल्क लगाने के फलस्वरूप व्यापार की शर्ते देश A के पक्ष में हो जाती है।

A देश की सरकार आयातित कपड़े की प्रति इकाई पर P2P3 आयात कर वसूल करती है अपना कुल कर WNKG के बराबर होता है। A देश के उपभोक्ता, प्रशुल्क के बाद कपड़े की अधिक कीमत देते है, किंतु विदेशी उत्पादको को कम भुगतान किया जा सकता है।

(4) उपभोग प्रभाव :- सामान्य रूप से प्रशुल्क का उपभोग पर यह प्रभाव होता है कि प्रशुल्क से कीमतों में वृद्धि हो जाती है जिससे रेलू उपभोग की मात्रा कम हो जाती है। चित्र से स्पष्ट है कि प्रशुल्क के पूर्व OP1 कीमत पर उपभोग की मात्रा OM4 थी जो प्रशुल्क के बाद की कीमत OP2 पर घटकर OM3 रह गई है। प्रशुल्क के कारण उपभोग M3M4 घट जाता है। यही उपभोग प्रभाव है।

(5) आय प्रभाव :- प्रशुल्क का प्रभाव यह होता है कि विदेशों में व्यय की जाने वाली राशि में कमी हो जाती है। जब कोई देश अपने आयातो पर प्रशुल्क लगाता है तब दूसरे देश का निर्यात हतोत्साहित होता है और उसके आय और रोजगार दोनों में कमी होती है अतः यह कहा जाता है कि प्रशुल्क वाले देश में आय में वृद्धि, निर्यातक देश के बल पर होती है, इसलिए इस नीति को 'पडोसी को गरीब बनाने की नीति' कहा जाता है। यही कारण है कि आय प्रभाव को प्रशुल्क का अच्छा प्रभाव नहीं माना जाता।

(6) भुगतान सन्तुलन प्रभाव :- प्रशुल्क का प्रत्यक्ष प्रभाव यह होता है कि आयात की मात्रा कम हो जाती है, किंतु इसका आशय यह नहीं है कि आयातो का मूल्य कम हो जाता है। सम्भव है कि अब आयात करने वाला, पहले की तुलना में आयात पर अधिक व्यय करे जो उसकी माँग पर निर्भर रहता है। यदि आयात की मांग बहुत लोचदार है तो प्रशुल्क से होने वाली कीमतों में वृद्धि आयात की भौतिक मात्रा कम कर देगी तथा

कुल क्रय कम हो जाएगा पर यदि मांग बेलोचदार है तो प्रशुल्क के बाद आयात व्यय बढ जाएगा जिसके कारण देश का भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल हो जाएगा।

(7) प्रतियोगितात्मक प्रभाव :- प्रशुल्क देश की प्रतियोगितात्मक शक्ति को क्षीण करता है। जब कोई देश घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने की दृष्टि से प्रशुल्क लगाता है तब घरेलू उद्योग विदेशी प्रतियोगिता से सुरक्षा कवच प्राप्त कर लेते हैं और अपने विकास को आगे बढ़ाते है, किन्तु प्रशुल्क का सुरक्षा कवच घरेलू उद्योगों के लिए स्थाई नहीं होना चाहिए। किण्डलबर्जर के अनुसार, "यदि प्रशुल्क द्वारा विदेशी प्रतियोगिता को दूर रखा जाता है तो घरेलू उद्योगों में अकुशल, मोटा एवं सुस्त होने की प्रवृत्ति पाई जाती है"।

इस प्रकार अधिक प्रशुल्क का प्रतियोगितात्मक प्रभाव घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतियोगिता के अयोग्य बनाता है जबकि प्रशुल्क को धीरे-धीरे हटाया जाना घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतियोगिता के योग्य बनाता है।

(8) माँग के प्रवाह मे परिवर्तन :- आयात कर का प्रभाव मांग के प्रवाह पर भी पड़ता है। यदि आयातक से संबंधित वस्तु की मांग लोच इकाई के बराबर है तो क्रेता उस पर पहले जितना व्यय करेंगे लेकिन अन्य वस्तुओं के लिए उनकी सापेक्ष मांगे परिवर्तित हो सकती है। यदि माँग की लोच इकाई से कम है तो आयात कर के कारण उस वस्तु पर पहले की अपेक्षा अब अधिक व्यय किया जाएगा और इसलिए अन्य वस्तुओं के लिए व्यय की जाने वाली राशि कम हो जाएगी। यदि मांग की लोच इकाई से अधिक है तो अन्य वस्तुओं के क्रय के लिए अधिक मुद्रा उपलब्ध हो सकेंगी।

(B) सामान्य संतुलन के अन्तर्गत प्रशुल्क के प्रभाव :- जब एक देश द्वारा अपने आयातो पर प्रशुल्क लगाया जाता है तब उस देश में आयात प्रतिस्थापन को प्रोत्साहन मिलता है और निर्यातक देश के निर्यात क्षेत्र का सकुंचन होता है। निर्यात क्षेत्र के संकुचन से विदेशी व्यापार के विशिष्टीकरण से होने वाला लाभ (उत्पादन प्रभाव) और वस्तुओं के विनिमय से होने वाले लाभ (उपभोग प्रभाव) दोनों में ही कमी आती है। चार्ल्स पी. किण्डलबर्गर के अनुसार, जब कोई देश प्रशुल्क लगाता है तब अर्थव्यवस्था का प्रत्येक क्षेत्र किसी न किसी रूप में प्रभावित होता है और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था किसी दूसरी साम्य दशा की ओर स्थानान्तरित हो जाती है।

किण्डलबर्गर के शब्दों में, "प्रशुल्क व्यापार, कीमत उत्पादन और उपभोग को परिवर्तित करता है, संसाधनो का पुनआबंटन करता है, साधनों के प्रयोग अनुपात को बदल देता है, आय का पुनर्वितरण करता है, रोजगार सरंचना को बदलता है और भुगतान संतुलन को प्रभावित करता है"।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचनाओं के आधार पर हम कह सकते है कि, वास्तविक जगत में प्रशुल्क का व्यापार की शर्तों पर काफी प्रभाव पड़ता है तथा देश के उपभोग स्तर का भी उत्पादन पर प्रभाव होता है।

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