प्रश्न: व्यापार की शर्तों से आप क्या समझते है? व्यापार की शर्तों को प्रभावित करने
वाले कारकों की विवेचना कीजिए ?
उत्तर:- जिस दर
पर एक देश की वस्तुओं का विनिमय दूसरे देश की वस्तुओं से होता है तो उसे व्यापार की शर्तें कहा जाता
है। अन्य शब्दों में, दो देशों में दो वस्तुओं के व्यापार का विनिमय अनुपात का संबंध
व्यापार की शर्तों से होता है। अतः जब दो या दो से अधिक वस्तुओं का व्यापार किया जाता
है तो हम कह सकते हैं कि व्यापार की शर्तों का संबंध उस दर से होता है जिन पर आयातों और निर्यातों का विनिमय किया जाता है। संक्षेप में, व्यापार शर्तें निर्यात कीमतों और आयात कीमतों में संबंध व्यक्त करती
है। डॉ. मार्शल ने व्यापार की शर्तों के लिए 'विनिमय दर 'प्रो. टाॅर्जिग ने 'शुद्ध अदल बदल व्यापार शर्तें तथा पीगू ने इसे 'विनिमय की वास्तविक दर' कहा है।
सूत्र से,
व्यापार की शर्तों = आयात का कुल मूल्य ÷ निर्यात का
कुल मूल्य
किसी देश के लिये व्यापार की शर्तें दो प्रकार की हो सकती
है।
(1) अनुकूल व्यापार की शर्ते :- एक देश के लिये व्यापार की शर्तें उस समय अनुकूल होती
है जब उसके आयातो के मूल्य की तुलना
में उसके निर्यातो का मूल्य अधिक होता है।
(2) प्रतिकूल व्यापार की शर्ते :- एक देश के लिये व्यापार की शर्तें उस समय प्रतिकूल होती है जब उसके निर्यातों के मूल्य की तुलना
में आयातों का मूल्य अधिक होता है।
अतः स्पष्ट है कि दो व्यापार करने वाले देशों में यदि व्यापार
की शर्तें एक देश के अनुकूल है तो वे दूसरे देश के प्रतिकूल होगी।
व्यापार की शर्तों के विभिन्न रूप
व्यापार की शर्तों को विभिन्न धारणाओं के आधार पर निम्न प्रकार
से व्यक्त करते है -
(1) शुद्ध वस्तु विनिमय व्यापार की शर्ते :- शुद्ध वस्तु विनिमय व्यापार शर्तों का वर्णन प्रो. टाजिंग
ने अपनी पुस्तक 'International Trade' में किया है। टाजिंग के अनुसार, निर्यात और आयात की कीमतों में जो अनुपात होता,
है, उसे शुद्ध वस्तु विनिमय व्यापार की शर्ते कहते हैं। सूत्र से
जहाँ
N = शुद्ध वस्तु विनिमय व्यापार
की शर्ते,
Px = नियात मूल्य,
Pm = आयात मूल्य
यदि शुद्ध वस्तु विनिमय की शतों को एक से अधिक कालो पर लागू किया जाये तो निर्यात व आयात मूल्यों के स्थान पर सूचकांकों का प्रयोग किया जाता है। सूत्र से
जहाँ,
Px1 =
चालू वर्ष का निर्यात मूल्य सूचकांक
Pm1=
चालू वर्ष का आयात मूल्य सूचकांक
Px0=
आधार
वर्ष में निर्यात मूल्य
Pmo =
आधार वर्ष का आयात मूल्य सूचकांक
आधार वर्ष में निर्यात और आयात की कीमतों के सूचकांक को 100 मान लिया जाता है जिसकी व्यापार की शर्त 1 होगी क्योंकि
यदि चालू वर्ष में निर्यात
कीमत सूचकांक 160 तथा आयात कीमत सूचकांक 120 है तो व्यापार की शर्तें की गणना इस
प्रकार होगी
इसका अर्थ यह है कि चालू
वर्ष की व्यापार शर्तें में 33% सुधार हुआ है।
(2)
विनिमय व्यापार की सकल वस्तु शर्ते :- प्रो. टाजिग
के अनुसार सकल वस्तु विनिमय व्यापार की शर्तें आयात की कुल भौतिक मात्रा और निर्यात
की कुल भौतिक मात्रा का संबंध व्यक्त करती है। सूत्र से,
जहाँ,
G =
सकल वस्तु विनिमय व्यापार की शर्ते
Qm =
आयातों की कुल मात्रा
Qx =
निर्यातो की कुल मात्रा
यदि हम व्यापार की शर्तें
की दो कालो के मध्य तुलना करना चाहे तो सूत्र होगा।
(3) आय व्यापार की शर्ते :- जी. एस. डोरेंस एवं एच.
स्टेहल ने शुद्ध वस्तु विनिमय व्यापार की शतों में संशोधन किया एवं आय व्यापार की शर्तों का प्रतिपादन
किया। आय व्यापार की शतों को आयात करने की क्षमता के रूप में
भी परिभाषित किया जाता है।
किसी देश का भुगतान संतुलन
की स्थिति में होगा यदि -
PxQx
= PmQm
जहाँ,
Px = निर्यात
वस्तु की मूल्य
Qx = निर्यात वस्तु की मात्रा
Pm = आयात
वस्तु
का मूल्य
Qm = आयात वस्तु की मात्रा
आय व्यापार की शर्तें को देश की आयात क्षमता
भी कहा जाता है। एक देश अधिक आयात कर सकता है, यदि
(1) अन्य बातो के स्थिर रहने
पर निर्यात की कीमतों में वृद्धि हो जाये।
(2) अन्य बातों के स्थिर
रहने पर आयात की कीमतों में कमी हो जाये।
(3) अन्य बातों के स्थिर
रहने पर निर्यात की मात्रा में वृद्धि हो जाय।
(4) एक साघनात्मक व्यापार की शर्ते :- प्रो. वाइनर द्वारा प्रतिपादित एक साघनात्मक व्यापार की शर्ते
निर्यात कीमत निर्देशांक और आयात कीमत निर्देशांक के अनुपात को
व्यक्त करती है। प्रो वाइनर के शब्दों में," यदि वस्तु व्यापार की शर्तों के सूचकांक
को निर्यात वस्तु के तकनीकी गुणांको के सूचकांक
के व्युत्क्रम में गुणा कर दिया जाये तो जो सूचकांक ज्ञात होगा, वह व्यापार से लाभ
की प्रवृत्ति के बारे में वस्तु व्यापार की शर्तों के
सूचकांक की तुलना में अधिक अच्छा पथ-प्रदर्शक हो सकता है। सूत्र
से
जहाँ
S =
एक साघनात्मक व्यापार की शर्ते
शुद्ध वस्तु विनिमय व्यापार की शर्ते अर्थात् N
Zx = निर्यातों की उत्पादकता का सूचकांक
सूत्र को निम्न
प्रकार से भी स्पष्ट कर सकते है
S =
NZx
यदि
S में वृद्धि होती है तो यह इस
अर्थ में अनुकूल परिवर्तन की सूचक है कि निर्यात वस्तुओं के उत्पादन में प्रयुक्त प्रति
इकाई साधन आगत (Factor-input) के लिए आयातो को अधिक मात्रा को प्राप्त किया जा सकता
है।
(5) द्वि-साघनात्मक
व्यापार की शर्ते :- यदि वस्तु व्यापार की शर्तों
(N) को आयातो तथा निर्यातों का उत्पादन करते हुए उत्पादकता में होने वाले परिवर्तनों
के अनुकूल बना दिया जाये तो वस्तु व्यापार की शर्ते द्वि साघनात्मक
शर्तों में परिवर्तित हो जाती है। सूत्र से
जहाँ,
D = द्वि-साघनात्मक
व्यापार की शर्ते
N= शुद्ध वस्तु विनिमय व्यापार की शर्ते
Zx = निर्यात उत्पादकता सूचकांक ।
यदि D में वृद्धि होती है तो यह इस बात का सूचक है कि निर्यात उत्पादन में प्रयुक्त देश के
साधनों की एक इकाई के बदले आयात - उत्पादन में प्रयुक्त विदेशी साधनों की अधिक
इकाइयां प्राप्त की जा सकती है।
(6) वास्तविक लागत व्यापार की
शर्ते :- यदि एक साघनात्मक व्यापार शर्तें को निर्यात में प्रयुक्त उत्पादक साधनों
की प्रति इकाई अनुपयोगिता के सूचकांक से गुणा कर दे तो वास्तविक लागत व्यापार शर्त
प्राप्त हो जाती है। सूत्र से
या, R = N , Zx. Rx
जहां
R = वास्तविक लागत व्यापार की शर्ते
Zx = निर्यात उत्पादकता सूचकांक
R में होने वाली वृद्धि इस बात की सूचक
है कि प्रति इकाई वास्तविक लागत से प्राप्त आयातो की मात्रा अधिक है।
(7) उपयोगिता व्यापार की शर्ते:- यदि वास्तविक लागत व्यापार की शर्तों
में आयात की सापेक्षिक उपयोगिता और परित्याग की गयी वस्तुओं के सूचकांक का गुणा कर दिया जाय तो उपयोगिता व्यापार की
शर्तों को ज्ञात किया जा सकता है। सूत्र से
or, μ = N Zx
Rx
रॉबर्टसन, उपयोगिता व्यापार
की शर्तों को 'वास्तविक व्यापार की शर्त मानते है।
व्यापार की शर्तों को प्रभावित करने वाले घटक
किसी देश की व्यापार शर्तों
को प्रभावित करने वाले मुख्य तत्व निम्नलिखित है:-
(1) पूर्ति की लोच :- यदि देश में निर्यातों
की पूर्ति लोचदार है तो अन्य बातें समान रहने पर व्यापार की शर्ते उस देश के अनुकूल
होगी। इसके विपरीत आदि निर्यातों की पूर्ति बेलोचदार है,
तो व्यापार की शर्ते देश के लिए प्रतिकूल होगी।
(2) सापेक्षिक माँग की लोच:- माँग की लोच व्यापार शर्तों
के निर्धारण में सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। मांग की लोच
को प्रभावित करने वाली मुख्य बाते निम्नलिखित है
(i) जनसंख्या का आकार व वृद्धि :- जिस देश की जनसंख्या
अधिक होती है तथा जनसंख्या की वृद्धि दर तेज होती है उसकी आयातों की तीव्रता सापेक्षित
रूप से अधिक होती है।
(ii) वस्तुओं की प्रकृति :- प्राथमिक आवश्यकताओं
की पूर्ति करने वाली वस्तुओं की माँग प्रायः बेलोचदार होती है। इसके
विपरीत, आय में वृद्धि के साथ निर्मित वस्तुओं की मांग लोचदार हो जाती है।
(iii)
वस्तुओं की विभिन्नता
:- यदि एक देश विविध प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन करता है तो दूसरे देश के आयातों
की मांग उसके लिये कम तीव्र होगी
जबकि दूसरे देश के लिए उसके आयातो की मांग अधिक तीव्र होगी।
(iv)
लोगों की रुचि एवं क्रय शक्ति :- लोगों की रुचि यह
निर्धारित करती है कि देश में किस
प्रकार की वस्तुओं का आयात किया जायेगा और लोगों की क्रय शक्ति यह निर्धारित करती
है कि वस्तुओं का कितनी मात्रा में आयात किया
जायेगा।
(3)
स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धि:- एक देश जिन वस्तुओं
का निर्यात कर रहा है, यदि उसकी स्थानापन्न वस्तुऐ विदेशों में उपलब्ध है तो ऐसे
देश के लिये व्यापार की शर्ते प्रतिकूल होगी। इसका कारण यह है कि निर्यात की
वस्तुओं में तनिक सी मूल्य वृद्धि होने पर विदेशों में उसकी माँग कम हो जायेंगी
क्योंकि वहाँ स्थानापन्न वस्तुओं का प्रयोग होने लगेगा।
(4)
प्रशुल्क:- व्यापार शर्तों में सुधार करने के उद्देश्य से
प्रशुल्क लगाये जाते है। किंतु प्रशुल्क से व्यापार शर्तों में सुधार उस समय होता है
जब प्रशुल्क लगाने वाले देश की वस्तुओं की माँग विदेश में विस्तृत एवं बेलोचदार
होती है। प्रशुल्क का प्रभाव यह होता है कि निर्यात कीमतों की तुलना में उसकी आयात
कीमते घट जाती है और उसकी व्यापार शर्तों में सुधार हो जाता है।
प्रशुल्क के व्यापार शर्तों पर पड़ने वाले प्रभाव को आंशिक संतुलन विश्लेषण द्वारा समझा जा सकता है।
दो देश A और
B
है, A निर्यात करता है तथा B
आयात करता है।
प्रशुल्क
लगने के पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य स्तर P है।
अब आयात करने वाला देश B प्रशुल्क
लगाता है जो रेखाचित्र में P1Pa
के बराबर
है। प्रशुल्क लगाने के बाद प्रत्येक देश के बाजार में कीमत P1 है।
यदि हम यह मानकर चले कि दोनों देशों में माँग और पूर्ति की लोच लगभग एकसमान है तो प्रशुल्क
का प्रभाव यह होगा कि आयात करने वाले देश B में
कीमत आंशिक रूप से बढ़ जाएगी
तथा निर्यात करने वाले देश A में आंशिक रूप
से कम हो जाएगी।
जब निर्यातक देश में कीमतें घटती है तो वस्तुऐ सस्ती
हो जाती है, किन्तु आयात करने वाले देश में उपभोक्ताओं को ऊँची कीमते देनी पड़ती है
पर आयात के आय प्रभाव के कारण ऊंची कीमते निष्प्रभावित
हो जाती है। चित्र से स्पष्ट
है कि कुल प्रशुल्क P1Pa बराबर
लगाया जाता है जिसमें से PaP भाग
निर्यातक देश द्वारा तथा PP1 आयात
करने वाले देश द्वारा वहन किया जाता है। चूंकि PaP की तुलना में PP1 कम
है अतः स्पष्ट है कि प्रशुल्क लगाने से आयात
करने वाले देश B की व्यापार की शर्तों में सुधार
हुआ है।
प्रशुल्क के व्यापार शर्तों पर पड़ने वाले प्रभाव को मार्शल के प्रस्ताव वक्र द्वारा भी प्रदर्शित किया जा सकता है।
चित्र
में प्रस्ताव वक्र OA इग्लैण्ड
का प्रस्ताव वक्र है तथा OB पुर्तगाल
का प्रस्ताव वक्र है। दोनों वक्र एक दूसरे को P बिन्दु पर काटते है जहां व्यापार की
शर्तें निर्धारित होती है अर्थात् OX2 कपड़े
की इकाइयां = OY0 शराब
की इकाइयां ।
अब
यदि पुर्तगाल द्वारा शराब के आयात पर प्रशुल्क लगा दिया जाता है, इसके फलस्वरूप इसका
प्रस्ताव वक्र OB से हटकर OB1 हो
जाता है। यदि पुर्तगाल कपड़े के निर्यात पर प्रशुल्क लगा दे तो भी प्रस्ताव वक्र
OB से हटकर OB1 हो
जाएगा। प्रशुल्क का उद्देश्य यह होगा कि पुर्तगाल कपड़े की निश्चित मात्रा के बदले
शराब की अधिक मात्रा चाहता है। पुर्तगाल पहले OY1
शराब के बदले Y1S
कपड़े की इकाइयां देने को तैयार था परन्तु प्रशुल्क के बाद अब केवल कपड़े की Y1P
इकाइयां ही देने को तैयार है और शेष PS इकाइयां
प्रशुल्क के रूप में प्राप्त कर लेता है।
यदि दोनों देश समझौता कर
प्रशुल्क हटा देते है तो व्यापार की मात्रा बढ़ती है और दोनों को लाभ होता है।
(5)
अवमूल्यन :- अवमूल्यन से विदेश की मुद्रा के रूप में घरेलू
मुद्रा के मूल्य में कमी हो जाती है। फलस्वरूप उस देश की व्यापार शर्ते विपक्ष में
हो जाती है। किंतु वास्तविकता यह नहीं है क्योंकि अवमूल्यन के प्रभाव देश के आयातो
व निर्यातों की माँग एवं पूर्ति की लोच पर निर्भर करते हैं।
Dm. Dx >
Sm.
Sx
जहा,
Dm =
आयात की माँग की लोच
Dx = निर्यात की माँग लोच
Sm
= आयात की पूर्ति की लोच
Sx = निर्यात की पूर्ति लोच
चित्र में अवमूल्यन के पहले
देश की मुद्रा में आयात की कीमते OPm
तथा निर्यात की कीमतें OPx है। अवमूल्यन के पश्चात आयात का पूर्ति वक्र ऊपर की ओर
जायेगा अर्थात् Sm
से S'm हो जाएगा तथा निर्यात का माँग वक्र भी Dx
से हटकर ऊपर की ओर D'x
हो जाएगा। अब कीमतों में परिवर्तन होगा तथा नयी संतुलन कीमत आयात के लिए OPm से
बढ़कर OP'm हो जाएगी तथा निर्यात कीमत
OPx से बढकर OP'x हो जाएगी। चित्र से स्पष्ट है कि निर्यात कीमतों की तुलना में
आयात कीमतों में कम वृद्धि हुई है। दी गई दशाओं में अवमूल्यन व्यापार की शर्तों
में सुधार करता है। इसके विपरीत यदि एक देश की आयातों एवं निर्यातों की पूर्ति लोच
की तुलना में उसके निर्यात एवं आयातो की माँग की लोच कम होती है तब अवमूल्यन करने
पर व्यापार की शर्ते प्रतिकूल हो जाती है।
(6) आयात-निर्यात की मांग में परिवर्तन :- यदि अन्य बातो के स्थिर रहने पर एक देश के निर्यातों के लिए विदेश में माँग बढ़ती है तो आयातो की तुलना में उसके निर्यातों की कीमतों में वृद्धि हो जाएंगी। फलस्वरूप उस देश की व्यापार शर्तों में सुधार होगा। इसके विपरीत, अन्य बातों के समान रहने पर देश की व्यापार शर्तों में ह्मस होगा। इसे चित्र में स्पष्ट किया गया है
चित्र (a)
और (b) में माँग परिवर्तन के पूर्व की स्थिति यह है कि पुर्तगाल का शराब का
प्रस्ताव वक्र OP है तथा इंग्लैंड का कपड़े
का प्रस्ताव वक्र OE है। चित्र (a) में
यह मान लिया गया है कि पुर्तगाल में इंग्लैंड की कपड़े की मांग बढ़ जाती है जिसके
फलस्वरूप पुर्तगाल का शराब का प्रस्ताव वक्र बायी ओर हटकर OP'
हो जाता है। पहले व्यापार की शर्तों का संतुलन N बिन्दु था जो अब हटकर N' बिन्दु
हो जाता है। पुर्तगाल को कपड़े के बदले में अधिक शराब देनी पड़ती है। इस प्रकार
पुर्तगाल की व्यापार की शर्तों में ह्मस होता है तथा इंग्लैंड की व्यापार की
शर्तों में सुधार होता है।
चित्र (b) में यह माना गया
है कि इंगलैण्ड में पुर्तगाल की शराब की मांग बढ़ जाती है जिसके फलस्वरूप इंग्लैंड
का कपड़े का प्रस्ताव वक्र दायी ओर हटकर OE
से OE' हो जाता है। पहले व्यापार
का संतुलन N बिन्दु पर था जो अब हटकर
N' बिन्दु पर हो जाता है अर्थात अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय दर ON से बदलकर ON'
हो जाती है एवं इंगलैण्ड को अब शराब के बदले अधिक कपड़ा देना पड़ता है। इस प्रकार
इंग्लैंड की व्यापार की शर्तों में ह्मस तथा पुर्तगाल की शर्तों में सुधार होता है।
(7) आर्थिक विकास :- किसी देश में होने वाला आर्थिक विकास भी व्यापार शर्तों को प्रभावित करता है। किसी देश में आर्थिक विकास होने पर उसका उत्पादन सम्भावना वक्र मूल बिन्दु से दूर ऊपर की ओर खिसक जाता है जो अधिक उत्पादकता का सूचक है। इसे चित्र में प्रदर्शित कर सकते है।
देश का आरम्भिक उत्पादन
सम्भावना वक्र SK है जिस पर देश A
बिन्दु पर T1T2
व्यापार शर्त रेखा के साथ उत्पादन कर रहा है। आर्थिक विकास के बाद उत्पादन
सम्भावना वक्र खिसक कर S1K1
हो जाता है जहाँ नई व्यापार शर्त रेखा T3T4 है। यदि आर्थिक
विकास के बाद बिन्दु B
पर उत्पादन होता है तब व्यापार की शर्त अपरिवर्तित रहेगी।
यदि आर्थिक विकास के बाद
उत्पादन B बिन्दु के दाये (BT4)
होता है तब निर्यात वस्तु का अधिक उत्पादन तथा आयात वस्तु का कम उत्पादन होने के
कारण देश की व्यापार की शर्तें प्रतिकूल हो जाएंगी।
इसके विपरीत आर्थिक विकास
के बाद उत्पादन यदि बिन्दु B के बाये (BT3)
होता है तब आयात वस्तु का अधिक उत्पादन तथा निर्यात वस्तु का कम उत्पादन होने के
कारण व्यापार की शर्त अनुकूल हो जाती है।
(8)
पूंजी की गतिशीलता :- देश में पर्याप्त पूँजी की
प्राप्ति व्यापार की शर्तों को अनुकूल बना देती है तथा देश से पूंजी का बहिर्गमन
व्यापार की शर्तों को प्रतिकूल बना देता है।
(9)
सरकारी नीति :- यदि सरकार अपने विदेशी व्यापार की नीति में
आयातों को हतोत्साहित करने के लिए नियंत्रित उपायों को अपनाती है तो देश में आयातो
की कमी हो जाती है और उसकी व्यापार की शर्तों में सुधार होता है।
व्यापार की शर्तों का महत्व
किसी देश की अर्थव्यवस्था
के लिये व्यापार शर्तों का विशेष महत्त्व है। इसका देश के आर्थिक विकास की
प्रकृति, देश में आय और धन के वितरण, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से प्राप्त होने
वाले लाभ आदि पर गहरा प्रभाव पड़ता है। व्यापार की शर्तों का महत्व निम्न तथ्यों
से स्पष्ट हो जाता है-
(1)
साधनों के पुरस्कार और रोजगार पर प्रभाव
:- व्यापार शर्ते देश में साधनों के रोजगार एवं उनके पुरस्कार को प्रभावित करती
है। जब एक देश की व्यापार शर्तों में सुधार होता है, तो उसके निर्यात उद्योग
प्रोत्साहित होते है जिससे इन उद्योगों में लगे साधनों की मांग बढ़ती है, अतः
रोजगार में वृद्धि होती है, इन साधनो की आय बढ़ती है, अन्य उपभोग वस्तुओं की माँग
बढ़ती है, अन्य उद्योग प्रोत्साहित होते है और सम्पूर्ण देश में रोजगार व आय में
वृद्धि होती है। व्यापार शर्तों के प्रतिकूल होने पर प्रभाव ठीक इसके विपरीत होता
है।
(2)
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभ का निर्धारण
:- यदि किसी देश के लिये व्यापार की शर्ते अनुकूल है तो इसका अर्थ है कि उसे
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से लाभ प्राप्त हो रहा है। इसके विपरीत यदि किसी देश के
लिये उसकी व्यापार शर्तें प्रतिकूल है तो इसका अर्थ है कि उसका अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापार मे लाभ घट रहा है। वाटरक्रन के अनुसार, "आयात और निर्यात करने वाले
देशों के बीच लाभ का वितरण प्रचलित व्यापार की शर्तों द्वारा निर्धारित होता है।
(3)
विदेशी विनिमय के अनुमान में सहायक :- व्यापार की शर्तों से
इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि एक देश के लिये विदेशी विनिमय के साधनों की
कितनी आवश्यकता है, उस देश के निर्यात और आयात मूल्य क्या है तथा उसे कितनी मात्रा
में अतिरिक्त विदेशी मुद्रा का भुगतान करना होता है।
(4)
जीवन स्तर का अनुमान :- अनुकूल व्यापार शर्तों से आशय
है - निश्चित निर्यात वस्तुओं के बदले में अधिक वस्तुओं का आयात करना। इससे लोगों
के जीवन स्तर में वृद्धि होती है। इसके विपरीत, प्रतिकूल व्यापार की शर्तों से
जीवन स्तर नीचे गिरता है।
(5)
आर्थिक विकास में सहायता :- एक देश की व्यापार
शर्तों में सुधार होने से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में उसकी क्रय शक्ति बढ़ती है जो
उसके विकास में सहायक होती है । व्यापार की शर्तों के प्रतिकूल होने पर देश में
विकास की गति को ठेस लगती है।
व्यापार की शर्तों की गणना करने में कठिनाई
व्यापार-शर्तो की गणना करने
में अनेक प्रकार की सांख्यिकीय कठिनाइयां सामने आती है। मुख्य कठिनाइयां निम्न है-
(1)
वस्तुओं के गुणों में परिवर्तनः- कभी-कभी वस्तुओं की
कीमतों में वृद्धि उनके गुणों में सुधार के कारण होती है। अतः वस्तुओं के गुणात्मक
सुधार की उपेक्षा करके केवल कीमतों के आधार पर व्यापार की शर्तों की गणना करना सही
नहीं होगा।
(2)
निर्देशांको की समस्याये:- यदि कोई देश सिर्फ एक ही
वस्तु का निर्यात एवं आयात करें तो व्यापार की शर्तों की गणना सरलता से की जा सकती
है, किंतु वास्तव में हर देश कई वस्तुओ का निर्यात एवं आयात करता है जिनकी मात्रा
एवं रकम में भिन्नता होती है। ऐसी स्थिति में व्यापार की शर्तों में होने वाले
परिवर्तनों की गणना करने में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
(3)
आयात-निर्यात संरचना में परिवर्तन:- विदेशी व्यापार की कई
वस्तुएं विभिन्न प्रकारों, आकारों एवं वर्गों की होती है। आयातो एवं निर्यातों की
सापेक्षिक कीमतों में इसलिए भी परिवर्तन हो सकता है एवं व्यापार की शर्ते
परिवर्तित हो सकती है क्योंकि आयात एवं निर्यात की संरचना में परिवर्तन हो गया है
अर्थात् वस्तुओं की विभिन्न श्रेणियों में परिवर्तन हो गया है।
(4)
इकाई मूल्य का उपयोग :- जिन मूल्यों के आधार पर
व्यापार की शर्तों का निर्धारण किया जाता है, वे सरकारी आंकडों पर आधारित होते है,
किंतु जब तक वस्तुओं का बाजार में विक्रय नहीं किया जाता, वास्तविक कीमतों का सही
ज्ञान नहीं हो पाता। सम्भव है कि प्रत्याशित कीमतों की तुलना में वास्तविक कीमतों
में भारी अन्तर हो । उसी सीमा तक व्यापार की शर्तों की गणना भी गलत हो सकती है।
(5)
भारांकन की समस्या :- जब हम व्यापार की शर्तों की
गणना करने के लिए, विभिन्न वस्तुओं की कीमतों का औसत निकालते है तो सब वस्तुओं को
समान महत्व नहीं दिया जा सकता अर्थात् आयात-निर्यात वस्तुओं का सूचकांक बनाते समय
वस्तु को उचित भार देने की समस्या आती है। इसके अतिरिक्त, समय के साथ ही साथ
वस्तुओं के महत्त्व में भी परिवर्तन होता है अतः उसी के अनुरूप उन्हे भार दिया
जाना चाहिए।
(6)
परिवहन एवं बीमा का व्यय :-
व्यापार की शर्तों की गणना करते समय केवल आयात-निर्यात की वस्तुओं
की कीमतो को ही शामिल किया जाता है, किंतु प्रायः विकसित देश अपने निर्यातों के लिए
परिवहन व्यय और बीमा आदि का व्यय भी वसूल करते हैं। इसके विपरीत, विकसित देशों की आयात
कीमतों में वे व्यय शामिल कर लिये जाते है जिनका
अर्द्धविकसित देशो को भुगतान नहीं किया जाता।
(7)
निर्यातों एवं आयातों में समय अन्तराल
:- व्यापार की शर्तों से किसी विशेष समय में आयातो एवं निर्यातों की सापेक्षिक कीमतों
का बोध होता है, किंतु यह सम्भव है
कि आयात और निर्यात में समय का अन्तराल हो, विशेषकर उस समय जबकि देश को भुगतान सन्तुलन
में बचत अथवा घाटा हो। व्यापार
की शर्तों का सही माप उसी समय सम्भव है
जब आयात और निर्यात एक साथ ही किये
जाये।
निष्कर्ष
उपर्युक्त कठिनाइयों का यह निष्कर्ष नही निकाला जाना चाहिए कि व्यापार- शर्तों की गणना महत्त्वहीन है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि व्यापार शर्तों का प्रयोग, आर्थिक गणना करने के लिए सावधानी के साथ किया जाना चाहिए।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)