प्रश्न :- मृत्युक्रम से क्या समझते है? भारत में शिशु मृत्यु दर ऊँची होने के क्या कारण है। इसे किस प्रकार
नीचे लाया जा सकता है।
→ जन्म के समय मृत्यु के कारणों की व्याख्या
करे एवं इस तथ्य के आंकड़े में हुई कमी के कारणों की व्याख्या करे?
उत्तर :- प्रजनन की भांति मृत्यु भी एक निश्चित घटित होने
वाली महत्त्वपूर्ण जैविकीय घटना है जिसके अन्तर्गत सजीव जन्मे व्यक्ति विशेष में निहित
जीवशास्त्रीय शक्ति का अन्त हो जाता है। आदर्श रूप में, मृत्यु एक दीर्घकालीन जीवन
व्यतीत करने के उपरान्त व्यक्ति विशेष में निहित जैवकीय शक्ति की समाप्ति का सूचक है।
मृत्यु में सजीव जन्मे व्यक्ति की जैविक शक्ति का अन्त हो जाता है, अतः सजीव
जन्म के अर्थ को जानना आवश्यक है। स्पेन, क्यूबा, बोलेविया आदि देशों में यदि कोई नवजात
शिशु 24 घण्टे से कम जीवित रहता है तो उसे गर्मसमापत के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता
है। इस प्रकार के जन्मे शिशु को न तो सजीव
जन्मे शिशुओं की गणना में स्थान मिलता है और न ही मृत्यु, की गणना में। यदि किसी शिशु
की मृत्यु पंजीकरण से पूर्व हो जाती है तो उसकी मृत्यु की गणना भ्रूण-मृत्यु के रूप
में की जाती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार "जब किसी गर्माधान के परिणामस्वरूप कोई पूर्ण शिशु
जन्म लेता है तथा उसमे जीवन होता है, जीवन का यह प्रमाण उस शिशु के श्वास लेने, हृदय
में स्पन्दन अथवा नाड़ियों अथवा शरीर की ऐच्छिक मांसपेशियों में निश्चित हरकत से मिलता है, ऐसे शिशु की गर्भावधि चाहे कितनी भी हो तथा चाहे उसकी नाल काटी
गयी हो अथवा नहीं, खेडी जुडी हुई हो अथवा नहीं, ऐसे प्रसव को जीवित प्रसव कहा जाता
है"।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भ्रूण-मृत्यु को इस प्रकार परिभाषित
किया है "मृत्यु जो गर्भाधान के परिणामस्वरुप पूर्ण शिशु के रूप में अपनी माता से
पृथक होने (उत्पन्न होने) से पूर्व हो जाती है, गर्भ धारण की अवधि चाहे जो हो, भ्रूण-मृत्यु
है। वास्तव में, मृत्यु इस तथ्य से सूचित होती है कि पृथक्करण के पश्चात् भ्रूण सांस
नहीं लेता और न ही जीवित रहने के किसी सबूत को प्रस्तुत करता है यथा- हृदय की धड़कन, नाल में कम्पन अथवा स्वैच्छिक
मांसपेशियों का हिलना आदि।
मृत्यु, सम्बंधी आंकड़ों के विश्लेषण की प्रक्रिया
मृत्यु सम्बन्धी प्राप्त आंकड़ों के
अध्ययन एवं विश्लेषण की प्रक्रिया में निम्न तीन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है:
(1) मृत्यु संमको (Data) का वर्गीकरण:- मृत्यु सम्बन्धी आंकड़ों का मृत्यु के कारणों, लिंग, आयु तथा
स्थान आदि के आधार पर वर्गीकरण किया जाना महत्वपूर्ण होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन
ने विश्व के अधिकांश देशों के मृत्यु सम्बन्धी आंकड़े एकत्र किए है तथा मृत्यु
के कारणों के आधार पर उनका वर्गीकरण किया है। इसके अतिरिक्त विश्व स्वास्थ्य संगठन
ने विश्व के सभी देशों के मृत्युक्रम के ऑकडों को वर्गीकृत करने के आधार भी प्रस्तुत किया जिसे
अधिकांश देशों ने अपनाया है।
(2) सांख्यिकीय स्थिरांको की गणना :- मृत्यु, सम्बंधी आंकड़ो के विश्लेषण
एवं अध्ययन हेतु जनसंख्या शास्त्री विभिन्न प्रकार से होने वाली मृत्युओं के आधार पर दरों की गणना
करते है। उदाहरण के लिए, अशोधित मृत्यु दर, आयु विशिष्ट मृत्यु दर, मातृत्व-मरण दर,
शिशु मृत्यु दर, प्रामाणिक मृत्यु दर तथा भ्रूण मृत्यु दर आदि। ये मृत्यु दरे एक तरह से भारित माध्य होता है।
(3) मृत्यु क्रम सम्बंधी आंकडों का
विश्लेषण :- मृत्यु सम्बंधी आंकडों के अध्ययन एवं विश्लेषण हेतु जीवन तालिका का निर्माण किया जाता है। इस
तालिका की सहायता से मृत्यु के संबंध में अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त की जा सकती है। यथा-किसी विशेष कारण से भविष्य में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या क्या होगी? यदि किसी मृत्यु के कारण
का निवारण कर दिया जाय तो व्यक्तियों की औसत आयु में कितनी वृद्धि होगी? आदि ।
शिशु मृत्यु दर
शिशु मृत्यु से तात्पर्य आयु के प्रथम
वर्ष की मृत्युओं से है। यह वर्ष जीवन तालिका को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला वर्ष
होता है क्योंकि वृद्धावस्था को छोड़कर सामान्यतया इस वर्ष में होने वाली मृत्युओं
की संख्या आयु के किसी अन्य वर्ष की अपेक्षा अधिक ही होती है। शिशु मृत्यु दर समाज की सामान्य स्वास्थ्यप्रद दशाओं की
सर्वश्रेष्ठ सूचकांक मानी जाती है। शिशु मृत्यु दर जितनी कम होगी, जीवन स्तर और जन स्वास्थ उतना ही अच्छा
होगा तथा प्रजनन दर भी कम होगी क्योंकि वहाँ बच्चो के जीवित रहने की सम्भावना भी अधिक होती है। इसके
विपरीत जहाँ शिशु मृत्यु दर अधिक होती है वहाँ प्रजनन दर भी ऊंची होती है।
शिशु मृत्यु दर को ज्ञात करने के लिए
जीवन के प्रथम वर्ष में हुई मृत्यु दर को इस काल विशेष में हुए जन्मों से भाग दिया
जाता है। इस प्रकार प्राप्त संख्या को शिशु मृत्यु दर कहा जाता है और जब कभी यह मृत्यु
दर प्रति हजार जन्मों पर निकाली जाती है तो प्राप्त भजनफल को 1000 से गुणा कर दिया
जाता है।
इसकी गणना के सूत्र को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है
`or,I.M.R=\frac{D_{0-1}}B\times1000`
शिशु-मृत्यु को प्रभावित
करने वाले कारण
शिशु मृत्यु को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक
निम्नलिखित है
(1) जीवन स्तर :- माता-पिता की आयु और रहन-सहन
का स्तर, शिशु मृत्यु दर को प्रभावित करता
है। यदि माता-पिता की आय अधिक होगी तो शिशु का पालन-पोषण अच्छी तरह से किया जा सकेगा तथा आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सा सम्बंधी सुविधाएं सहजता से
सुलभ हो सकेंगी। इस तरह पर्याप्त देखभाल के फलस्वरुप शिशु मृत्यु दर में कमी आ जाती
है।
(2) वैधता :- वैध शिशुओं की मृत्यु दर अवैध शिशुओं की तुलना में काफी कम होती है क्योंकि
अवैध बच्चों को और उनकी माताओं को समाज में तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है। अवैध
बच्चों की माताएं या तो गर्भपात करा लेती
है अथवा फिर बच्चे के उत्पन्न होने पर उसका परित्याग कर देती है। परित्याग करने पर
बच्चों का पालन- पोषण ठीक से नहीं हो पाता है अतः उनके मरने की सम्भावना बढ़ जाती है।
(3) चिकित्सा सुविधाएं :- जहाँ चिकित्सा सुविधाएँ अच्छी तरह सुलभ
है वहाँ शिशु मृत्यु दर कम पायी जाती है। चिकित्सा सुविधाओं से शिशु रोगों का शीघ्र उपचार
हो जाता है। नगरीय क्षेत्रों की तुलना
में ग्रामीण क्षेत्रों में मृत्यु दर अधिक पायी जाती है क्योंकि यहाँ अच्छी चिकित्सीय
सुविधाएं उपलब्ध नहीं होती है।
(4) शिक्षा का अभाव :- शिशु मृत्यु दर माता-पिता की शिक्षा से प्रभावित होती है। शिक्षित माता-पिता पालन-पोषण सम्बन्धी सामान्य नियमों
की जानकारी रखते है तथा आहार एवं रोग निरोधक औषधियों के प्रयोग के बारे में तत्पर रहते
है। इसके विपरीत अशिक्षित माता-पिता बच्चों के उचित पालन-पोषण पर कम ध्यान देते है।
यही कारण है कि अशिक्षित वर्ग में शिशु मृत्यु दर अधिक होती है।
(5) उच्च जन्म दर :- जिन देशों में जन्म दूर ऊँची होती है वहां शिशु मृत्यु
दर भी अधिक पाई जाती है। इसके विपरीत जन्म दर ज्यों-ज्यों
कमी आती जाती है, शिशु मृत्यु दर भी कम होती जाती है
जन्म के समय जीवन प्रत्याशा
जन्म के समय किसी नवजात शिशु के जितने वर्ष तक जीवित रहने
की उम्मीद की जाती है वह उस शिशु की जन्म के समय जीवन प्रत्याशा कही जाती है। किसी
देश में जीवन प्रत्याशा वहाँ के निवासियों की स्थास्थ्य दशा पर निर्भर करती है। जिन
देशों में मृत्यु दर अधिक होती है वहाँ
के निवासियों की जीवन प्रत्याशा भी बहुत कम होती है और ज्यो-ज्यो मृत्यु दर कम होती
जाती है, औसत प्रत्याशित आयु बढ़ती जाती है। भारत में भी जन्म के समय जीवन प्रत्याशा
में क्रमशः वृद्धि हो रही है जो निम्न तालिका से देखी जा सकती है।
भारत में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा
वर्ष |
जीवन प्रत्याशा (वर्षो में) |
|
पुरुष |
स्त्री |
|
1951 |
32.45 |
31.66 |
1961 |
41.89 |
40.55 |
1971 |
47.10 |
5.60 |
1981 |
54.8 |
52.0 |
1991 |
60.8 |
61.7 |
1999 |
62.4 |
63.3 |
2001 |
64.10 |
65.60 |
2006 |
65.8 |
67.2 |
उपरोक्त तालिका से स्पष्ट होता है कि भारत में सामान्य स्वास्थ्य
दशाओं में सुधार तथा सरकार द्वारा उठाएं गए अन्य विविध कदमों के फलस्वरूप मृत्यु
दर में पर्याप्त कमी हुई है जिससे यहाँ जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में बढोत्तरी
हुई है।
भारत में शिशु मृत्यु दर
शिशु मृत्यु दर किसी देश की स्वास्थ्य दशाओं, की ओर
संकेत करने वाला अत्यन्त संवेदनशील सूचक है। भारत में शिशु दर (अर्थात् जीवन के प्रथम
वर्ष में मृत्यु की सम्भावना) अभी भी बहुत ऊँची है। विभिन्न वर्षों में, भारत में
शिशु मृत्यु दर को निम्न तालिका में प्रदर्शित किया गया है।
भारत में शिशु मृत्यु दर
अवधि |
शिशु मृत्यु दर (प्रति हजार) |
||
लड़का |
लड़की |
संयुक्त |
|
1881-1891 |
272.6 |
239.6 |
257 |
1891-1901 |
285.4 |
258.8 |
272 |
1901-1911 |
290.0 |
284.6 |
287 |
1911-1921 |
302.0 |
279.0 |
291 |
1921-1931 |
248.0 |
232.3 |
241 |
1931-1941 |
218.0 |
304.0 |
211 |
1941-1951 |
190.0 |
175.0 |
183 |
1951-1961 |
153.2 |
138.3 |
146 |
1961-1971 |
130.1 |
128.4 |
129 |
1971-1981 |
86.0 |
82.0 |
84 |
1981-1991 |
74.0 |
79.0 |
77 |
1999 |
- |
- |
70 |
उपरोक्त तालिका में स्पष्ट होता है कि भारत में शिशु
मृत्यु दर बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बहुत ऊँची रही परन्तु इसमे धीरे-धीरे
गिरावट आती गयी है। साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि लड़कों में शिशु मृत्यु दर लड़कियों
की अपेक्षा अधिक है। यह माना जाता है कि तुलनात्मक दृष्टि से जन्म के समय लड़का,
लड़की से कमजोर होता है तथा उसमे रोग प्रतिरोधी शक्ति लड़कियों की अपेक्षा कम
होती है। इसकी पुष्टि विश्व के अन्य देशों में किए गए शिशु मृत्यु दर के अध्ययन से
भी होती है।
ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर
भारत में ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर में भिन्नता पाई जाती है। ग्रामीण तथा नगरीय आधार पर न्यादर्श पंजीयन प्रणाली ने शिशु मृत्यु दर के निम्न अनुमान प्रस्तुत किये हैं।
उपर्युक्त तालिका में स्पष्ट होता है कि ग्रामीण
क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दरे नगरीय क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक थी। इसका अर्थ हुआ
कि शहरो की अपेक्षा गांवों में शिशुओं पर मृत्यु का दबाव अधिक रहता है। शिशु
मृत्यु दरो में ग्रामीण तथा नगरीय दोनो क्षेत्रों में कमी हो रही है। परन्तु यह
कमी ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरों में अधिक तीव्र गति से हो रही है।
भारत में बाल मृत्यु
भारत में नवजात शिशुओ से लेकर 5 वर्ष तक की आयु तक के बच्चों की मृत्यु का अध्ययन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा किया गया जिसके आधार पर यह कहा जाता है कि शिशु के जन्म से 5 वर्ष तक की आयु तक भारत में मृत्यु का दबाव अधिक रहता है। इसे निम्न तालिका द्वारा दर्शाया गया है
उपर्युक्त, तालिका में सर्वेक्षण से पता चलता है कि देश में नवजात
शिशुओं की मृत्यु दर में क्रमशः कमी होती गयी है। यही प्रवृत्ति ग्रामीण तथा नगरीय
दोनो क्षेत्रों में देखने को मिलता है।
मानव विकास रिपोर्ट 2001 के अनुसार भारत में वर्ष
1999 में बाल मृत्युदर 98 प्रति हजार तथा शिशु मृत्यु दर 70 प्रति हजार थी।
इसका कारण लोगों के रहन-सहन के स्तर में सुधार,
पौष्टिक आहार के सेवन में वृद्धि, कम सन्तानोत्पादन, स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं
में सुधार तथा अज्ञानता में अपेक्षाकृत कमी आना हो सकता है।
इस तरह, सर्वेक्षणों से प्राप्त आंकड़ों
के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा
मृत्यु दर अधिक है। इसका प्रमुख कारण यह होता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य
सुविधाओं का अभाव होने के साथ- साथ यहाँ अशिक्षा व्याप्त होने के कारण लोगों का स्वास्थ्य सम्बन्धी
सामान्य ज्ञान का स्तर भी बहुत नीचा है। ग्रामीण क्षेत्रों में यौवनारम्भ से पूर्व विवाह होना एक सामान्य बात है जिससे लड़कियाँ कम
आयु में ही माँ बन जाती है। स्त्रियों में 18 वर्ष की आयु से पूर्व गर्भाशय तथा डिम्ब
ग्रन्थियों का विकास पूर्णतः नहीं हो पाता
है। इसका परिणाम यह होता है कि जन्म लेने वाले बच्चे दुर्बल होते है तथा उनकी रोग प्रतिरोधी क्षमता भी कम रहती है जिससे
शिशु मृत्यु की सम्भावनाए अधिक रहती है। इसके अतिरिक्त असन्तुलित तथा अपौष्टिक आहार,
दोषपूर्ण प्रसव पद्धति आदि अनेक कारण है जिससे गांवों में शिशु एवं मातृत्व मृत्यु
दर अपेक्षाकृत अधिक होती है।
सामान्यतया नवजात शिशु मृत्यु जो जन्म के एक माह के अन्दर होती है अधिकांश
पर्यावरण, दोषपूर्ण प्रसव पद्धति तथा स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों से होती है। जन्म के एक माह पश्चात् और एक
वर्ष के बीच होने वाली मृत्यु दर को Post neo-natal mortality कहा जाता है, वह सामान्यतया
कुपोषण, जन्मजात रोगों, एवं अन्य स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों से होती है। इस तरह प्रत्येक 9 बच्चों
में से एक बच्चा पाँच वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व मर जाता है।
भारत में ऊँची शिशु मृत्यु दर के कारण
भारत में उच्च शिशु मृत्यु दर के कारणों
को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है:
(1) गरीबी :- भारत में ऊँची शिशु मृत्यु दर का
प्रमुख कारण यहाँ व्याप्त घोर गरीबी है। अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को वांछित पौष्टिक
आहार तथा दूध आदि की व्यवस्था नहीं कर पाते जिससे बच्चे शारीरिक रूप से दुर्बल होते है और
उनमें रोग प्रतिरोधी क्षमता न हो पाने के कारण वे बीमार हो जाते हैं और चिकित्सीय सुविधा के अभाव में मर
जाते हैं।
(2) प्रसव से सम्बन्धित कारण :- कम आयु में विवाह के फलस्वरूप स्त्रियां कम आयु में मां बन जाती
है और मातृत्व की अज्ञानता, कुशल दईयो एवं जच्चा बच्चा केन्द्रो तथा प्रसव संबंधी समुचित सुविधाओं के न
होने से उनके द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले बच्चे की मृत्यु की संभावना अधिक रहती
है।
(3) माँ बाप की अज्ञानता :- भारत में अभी भी अशिक्षा
व्याप्त है जिससे माँ-बाप अज्ञानता के कारण अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों के मध्य
शिशुओ का पालन-पोषण करते है और अधिकांश बीमारियों का इलाज 'झाड़- फूंक' द्वारा
करने का प्रयास करते हैं। जब रोग पुराना, असाध्य हो जाता है तब डॉक्टर के पास जाते
है और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है जिससे बच्चे को बचाना कठिन हो जाता है।
(4) शिशुओं के स्वास्थ्य सम्बन्धी
सुविधाओं का अभाव :- यहाँ अभी भी शिशुओं के स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं का पर्याप्त अभाव है।
ग्रामीण क्षेत्रों में तो इन सुविधाओं की हालत अभी भी चिन्ताजनक है। शिशुओं की
बीमारियों के प्रतिरोधी टीके अभी न तो जनसाधारण को सुलभ है और न ही अधिकांश लोगों
को इन टीको के बारे में जानकारी ही है। साथ ही गाँव व शहर में गरीब व्यक्तियों
द्वारा सामान्य स्वास्थ्य एवं सफाई के नियमों का पालन भी नहीं किया जाता ।
(5) अवांछित मातृत्व :- कम आयु में विवाह होने से तथा
शीघ्र एवं बार-बार बच्चा पैदा करने से माताओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य पर विपरीत
प्रभाव पड़ता है। इस तरह माँ के खराब स्वास्थ्य, दो बच्चों के मध्य कम समयान्तर
अनेक प्रसवों और इस तरह विवेकहीन मातृत्व एवं अवांछित सन्तानों से शिशु मृत्यु दर
को बढ़ावा मिलता है।
इस तरह, शिशु मृत्यु के अधिकांश कारण पर्यावरण एव सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बन्धी है, जिनमें सुधार की दिशा में ठोस एवं पर्याप्त कदम उठाने की आवश्यकता है तभी हम शिशु मृत्यु दर को नियन्त्रित करने में एक सीमा तक सफल हो सकेंगे। यद्यपि विगत वर्षों में यहाँ शिशु मृत्यु दर में पर्याप्त कमी आयी है फिर भी इस दिशा में एक लम्बा रास्ता तय करना है तभी हम शिशु मृत्यु दर को विकसित देशों के बराबर ला सकेंगे।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)