जलवायु परिवर्तन में मानवीय क्रियाकलापों की भूमिका
प्रश्न : "जलवायु परिवर्तन में मानव क्रिया-कलापों का भी
योगदान होता है।" इस कथन की व्याख्या करें।
अथवा
"जलवायु परिवर्तन केवल प्रकृतिजन्य ही नहीं है अपितु वह मानवजन्य
भी है।" इस कथन के अभिप्राय को स्पष्ट करें।
अथवा
यह बताइये कि जलवायु परिवर्तन के लिए किस सीमा तक मनुष्य के
कार्य-कलाप उत्तरदायी हैं?
उत्तर
: सामान्यतः यह समझा जाता है कि जलवायु परिवर्तन प्रकृति का खेल है। अर्थात्
जलवायु के स्वरूप, गुण, धर्म और विशेषता को प्राकृतिक कारक, यथा तापक्रम, वर्षा,
वायु की प्रवाह-दिशा एवं सापेक्षिक आर्द्रता, शुष्कता, अक्षांश एवं देशांतर ऊँचाई,
जल तथा स्थल का वितरण और पर्वत श्रेणी के प्रति क्षेत्र व प्रचलित पवनों की दिशा
आदि तत्त्व एवं कारक निर्धारित एवं नियंत्रित करते हैं। यह सच है। है कि मनुष्य इन
प्राकृतिक तत्त्वों एवं कारकों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। लेकिन मनुष्य
आदिकाल से ही कुछ ऐसे कार्य करता चला आ रहा है जिसका जलवायु परिवर्तन की प्रकृति
पर गहरा, व्यापक और सूक्ष्म प्रभाव पड़ता रहा है। मनुष्य को प्रत्यक्षतः इस बात का
कभी भान ही नहीं हो पाता कि उसके क्रियाकलाप जलवायु को प्रभावित कर उसकी प्रकृति
में बदलाव ला रहे हैं। इस सूक्ष्म तथ्य को कुछ उदाहरणों द्वारा समझाया जा सकता है।
मनुष्य
ने बसने एवं कृषि तथा अन्य उपयोगों के लिए जंगलों को काटा है। जंगलों के उजड़ने के
कारण वन पेड़ एवं पत्र से विहीन हो गये। वनों की कटाई एवं निष्पत्रण ने मनुष्य के
अनजाने में जलवायु की प्रकृति को सूक्ष्म रूप से बदल डाला।
जंगलों के कट जाने एवं वृक्षों के पत्रविहीन हो जाने के कारण
वृक्षों द्वारा किये जाने वाले वाष्पोत्सर्जन की दर में कमी आ जाना स्वाभाविक बात है।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि वृक्षों के वाष्पोत्सर्जन वर्षा में सहायक बनते हैं। इसके
अभाव में वर्षों में कमी आती है और धरती पर बरसने वाले जल की मात्रा भी घट जाती है।
वर्षा जल की मात्रा में इस परिवर्तन के कारण जलवायु में भी परिवर्तन आता है।
इस तरह मनुष्य पृथ्वी पर वृक्षों की छाया में कमी लाकर और
भूभागों में उलटफेर करके भी स्थान विशेष के तापमान और पवन को प्रभावित कर देता है।
वनों का अतिशय निकास भी जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करता
है। सघन वन के कारण पृथ्वी तल पर गिरने वाले वर्षा जल की मात्रा में न्यूनता आती है।
वृक्षों की सघनता पवन वेग में अवरोध उत्पन्न करती है और उसकी गति को कम कर डालती है।
इस प्रकार वनों के विकास द्वारा धरातलीय तापमान में कमी लाने और उसे नियंत्रित करने
में सहायता मिलती है।
सिंचाई के प्रयोजनों से वर्तमान समय में बड़े-बड़े बाँध बनाये
गये एवं बनाये जा रहे हैं। बड़ी-बड़ी झीलों और कृत्रिप जलाशयों का निर्माण और किया
जा रहा है। कृत्रिम रूप से हुआ नदियों के प्रवाह की दिशा बदली जा रही है। तटवर्ती दलदली
भूमि को सूखा कर उसे कृषि योग्य बनाया जा रहा है। इन कारणों से जलवायु में सूक्ष्म
रूप से परिवर्तन घटित हो रहा है। मनुष्य के इन कामों से उपलब्ध प्राकृतिक आर्द्रता
में परिवर्तन हो जाता है। नमी में परिवर्तन, स्थल एवं जल के तल में परिवर्तन द्वारा
विभेदी ऊष्मण प्रभावित होता है तथा स्थानीय रूप से पवन के प्रवाह में भी बदलाव आ जाता
है।
जलवायु परिवर्तन में नगरों के विकास का बहुत बड़ा योगदान
है। मानव सभ्यता की उन्नति तथा उद्योग-धंधों के विस्तार एवं आजीविका की सम्भावनाओं
ने नगरीकरण की प्रकृति को प्रोत्साहित किया है। इसके फलस्वरूप गाँव एवं कस्बे उजड़े
हैं। उनकी जगह बड़े-बड़े सघन आबादी वाले कंक्रीट के शहरों ने ले ली है। शहरों में ऊँची
इमारतें होतीं या बनायी जाती हैं। नगरों में खुले स्थानों की कमी होती है। शहर के मकान
भी प्रायः एक दूसरे से सटाकर बनाये जाते हैं। इस वजह से नगर गाँव एवं कस्बों की अपेक्षा
अधिक गर्म होते हैं। इसके अनेक कारण हैं। नगर के भवन या मकान कंक्रीट के बने होते हैं।
सड़कें भी कंक्रीट की बनी होती हैं। कंक्रीट के मकान और सड़कें कच्चे मकान और कच्ची
सड़कों की अपेक्षा अधिक ऊष्मा का अवशोषण करते हैं। फलतः वहाँ की हवा की परतें पृथ्वी
के विकिरणों द्वारा अपेक्षाकृत अधिक गर्म हो जाती है। नगरों की ऊँची अट्टालिकाएँ, भवन,
बहुमंजिली इमारतें आदि पवन के उन्मुक्त बहाव के मार्ग में रुकावट उत्पन्न करते हैं।
फलस्वरूप जहाँ कहीं भी भवनों के बीच में थोड़ी बहुत खुली जगह मिलती है उससे गुजर कर
हवा कुछ ऊपर उठती है और वायुमण्डल के एकदम से निचले स्तर के तापमान में वृद्धि कर डालती
है।
एयरकंडिशनरों आदि के कारण भी जलवायु प्रभावित हो रहा है।
उससे निकली ऊष्मा भी नायुमण्डल के तापमान में वृद्धि कर रही है। उद्योग-धंधों की भट्ठियों
(फर्नेस) में जलने वाले ईंधन एवं उसके अन्य उत्सर्जनों के कारण भी वायुमण्डल के ताप
में वृद्धि हो रही है। अम्लीय वर्षा, वैश्विक तापमान में वृद्धि आदि क्रियाएँ मानव
कृत्यों के परिणाम हैं। इनके चलते जलवायु और पर्यावरण को भयानक रूप से क्षति पहुँच
रही हैं।
निष्कर्ष मानवीय क्रिया-कलापों के कारण जलवायु एवं पर्यावरण
में होने वाला परिवर्तन पूरी पृथ्वी, उसके समस्त प्राणिजगत एवं वनस्पतियों आदि के लिए
कोई शुभ लक्षण नहीं है। निश्चय ही इसका कुपरिणाम सर्वप्रथम मानव अस्तित्व को ही संकट
में डाल देगा। अतः यथाशीघ्र मानव क्रिया-कलापों से जलवायु एवं पर्यावरण को पहुँचनेवाली
क्षति को नियंत्रित करना परमावश्यक और इसके लिए कठोर कानून बनाया जाना भी जरूरी है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
जलवायु का अर्थ एवं अभिप्राय : 'जलवायु' दो शब्दों के मेल से बना है-'जल' और 'बायु'।
'जल' से अभिप्राय सभी प्रकार के जलों से हैं। वह 'नमी' (आर्द्रता) और वर्षा के माध्यम
से वायुमण्डल की निचली परतों एवं भूतल पर वितरित है। जल जलवाष्य (गैसीय अवस्था), द्रव
(प्रवाहित जलीय अवस्था) तथा ठोस (बर्फ), तीनों अवस्थाओं में पाया जाता है। जल की ये
तीनों अवस्थाएँ तापमान के लक्षणों के अनुरूप बनती या बदलती रहती हैं। 'बायु' का अर्थ
पृथ्वी के चारों ओर प्रसूत गैसों का घेरा है। वायु में जलवाष्प भी विभिन्न रूपों में
मिली रहती है। वायु में भी विविध प्रकार के लक्षण पाये जाते हैं। उसके लक्षण की विविधता
सूर्य के ताप के परिवर्तनशील प्रभाव से निर्धारित होती है। इस प्रकार सूर्य के ताप
के कारण बायुमण्डल एवं भूतल पर जो कुछ घटित होता है, उसकी औसत दशाओं को ही 'जलवायु'
(climate) कहा जाता है।
कूपैन के अनुसार, "जलवायु मौसम की औसत दशा का समन्वित
अथवा सार स्वरूप है।"
मौकहाउस ने जलवायु को इन शब्दों में परिभाषित किया है-"किसी
वृहत् क्षेत्र की वायुमण्डलीय दशाओं के लम्बे समय की औसत स्थिति का तथ्यपूर्ण वर्णन
जलवायु कहलाता है।"
मौसम और जलवायु के तत्त्व : मौसम और जलवायु की दशाओं में परिवर्तन अनेक कारकों का योग
है। वह वायुमण्डलीय दाब, तापमान, आर्द्रता, मेघ, वर्षा, पवन, प्रवाह आदि तत्त्वों पर
निर्भर है।
चूँकि वायुमण्डल का दाब, तापमान, आर्द्रता, मेघ, वर्षा और
पवन-प्रवाह स्थिर नहीं होते, उनमें निरतंर बदलाव आता रहता है, अतः जलवायु कोई स्थिर
चीज नहीं होकर परिवर्तनशील होती है। जलवायु स्थान और काल के अनुसार भी परिवर्तनशील
होती है। उदाहरण के लिए मिसीसिपी की घाटी और कैलीफोर्निया तट पर वर्षा की वार्षिक मात्रा
समान है परन्तु कैलीफोर्निया में वर्षा केवल शरद-काल में होती है जबकि मिसीसिपी की
घाटी में वर्षा पूरे साल होती है। अतः दो स्थानों पर मौसम के समान तत्त्व होने पर भी
जलवायु समान नहीं है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि इसमें समय एवं स्थान के अनुसार परिवर्तन
होता रहता है।
जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी :
जलवायु परिवर्तनों का पृथ्वी पर व्यापक प्रभाव पड़ता रहा
है। सुदूर अतीत में जलवायु का पृथ्वी पर कैसा प्रभाव पड़ा, इसकी कोई ठोस जानकारी
19वीं शताब्दी के पूर्व प्राप्त नहीं थी। वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के जीवन के इतिहास
इतिहास जानने के लिए 19वीं शताब्दी में गहन शोध प्रारम्भ किया। इस शोध से यह तथ्य सामने
आया कि पृथ्वी पर विभिन्न युगों के गमनागमन में उस समय की जलवायु की महत्त्वपूर्ण भूमिका
रही थी। पृथ्वी पर वनस्पतियों, नानाप्रकार के जीव-जन्तुओं, मनुष्यों के अस्तित्व में
आने के लिए उस समय की जलवायु ने अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की थीं। पृथ्वी पर से
अनेक प्रकार की वनस्पतियों एवं प्राणियों के विलुप्त हो जाने के पीछे भी जलवायु में
बदलाव ही मुख्य कारण रहा है। शैलों, खनिजों, पर्वतों, महासागरों और नदियों तथा विभिन्न
प्रकार की भू-आकृतियों के निर्माण में भी जलवायु ने सहायिका की भूमिका निभायी है। इसके
रर्याप्त ठोस प्रमाण और साक्ष्य वैज्ञानिकों ने जुटाये हैं।
पृथ्वी के जीवन के इतिहास में जलवायु परिवर्तन विषयक जानकारियों
को उपलब्ध कराने का श्रेय पुरा-वनस्पति (Paleo Botony), पुरा-जीवशास्त्र (Paleo
Zoology) तथा पुरा-भू-गर्भ शास्त्र (Paleo Geology) को जाता है। ज्ञान की इन शाखाओं
ने यह स्पष्ट किया कि पृथ्वी पर एक समान जलवायु की अवस्थाएँ कभी नहीं रहीं। पृथ्वी
के जीवन के इतिहास के अध्ययन के क्रम में यह भी ज्ञात हुआ कि काल-विशेष में पृथ्वी
के जिन जिन भू-भागों में एक समान प्राकृतिक वनस्पति, जीवाश्म (फोसिल्स) मिले हैं, निश्चय
ही उन-उन क्षेत्रों की जलवायु में एकरूपता रही होगी। जिस प्रकार जलवायु लबायु ने पृथ्वी
पर वनस्पतियों और विविध प्रकार के प्राणियों के जीवन को सम्भव बनाया, उसी प्रकार उनकी
विभिन्न प्रजातियों के काल-क्रम से विलुप्त होने में भी उसी का योगदान महत्त्वपूर्ण
रहा।
जलवायु को अक्षांश (latitude), देशान्तर (longitude), ऊँचाई
(altitude), नल एवं स्थल का वितरण (distribution of land and water) और पर्वत श्रेणी
के प्रति क्षेत्र एवं प्रचलित पवनों की दिशा (position of the area and that of
the prevailing winds with reference to the mountain ranges) आदि नियंत्रित करते हैं।
जलवायु के मुख्य तत्त्व तापमान, वर्षा, वायु की प्रवाह-दिशा, सापेक्षिक आर्द्रता एवं
शुष्कता आदि हैं। संसार की जलवायु के तत्त्वों के अध्ययन करने से पता चला है कि यह
तत्त्व अनेक संयोगों में पाये जाते हैं। इन संयोगों के अध्ययन के आधार कर कहा जा सकता
है कि सब स्थानों पर तत्त्वों के एक जैसे संयोग नहीं मिलते। इस कारण स्थान-स्थान की
जलवायु में तो भिन्नता पायी ही जाती है, एक ही स्थान की जलवायु विभिन्न युगों (समयों)
में भी विभिन्न प्रकार की होती है। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं
के आकार-प्रकार तथा गुण-धर्म में भी परिवर्तन होता रहता है। इसका कारण यह है कि बनस्पतियों
और जीवों की सभी प्रजातियाँ एक निश्चित प्रभाववाली जलवायु में ही विकसित होती हैं।
अक्षांशों, देशान्तरों और ऊँचाइयों आदि के परिवर्तन के कारण
जलवायु में स्थानीय या क्षेत्रीय विशेषताओं का समावेश हो जाता है। विषुवत रेखा के आस-पास
के प्रदेशों की जलवायु उससे बहुत दूर के क्षेत्रों की जलवायु से भिन्न होती है। विभिन्न
स्थानों के तापक्रम एवं वर्षा के आँकड़ों के अध्ययन बताते हैं कि जलवायु का मिजाज स्थान
के अनुरूप बदल जाता है। विभिन्न समयों में होनेवाली वर्षा के आँकड़ों की भिन्नता भी
यह दर्शाती है कि एक ही स्थान में समय के अन्तराल के अनुरूप जलवायु सम्बन्धी विशेषताओं
में भी पर्याप्त अन्तर आ जाता है।
इस समय पृथ्वी पर जलवायु की जो स्थिति है उसमें जिस प्रकार
के परिवर्तन दिखायी पड़ते हैं, उसके आधार पर सुदूर अतीत काल के जलवायु परिवर्तन के
विषय में अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार का अध्ययन जिन वैज्ञानिकों ने किया है,
उनका कहना है कि प्राचीन काल में जलवायु में विस्मयकारी परिवर्तन घटित हुए थे। यद्यपि
अतीत-कालीन 'जलवायु परिवर्तन का कोई दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध नहीं है तथापि जैसे-जैसे
जलवायु बदलती जाती है, वह अपनी छाप प्रकृति, पर्यावरण अर्थात् पृथ्वी पर छोड़ती चली
जाती है। जलवायु परिवर्तन की स्पष्ट छाप विभिन्न प्रकार के भौगोलिक एवं भूगर्भिक रचनाओं
के रूप में आज भी विद्यमान हैं। भूतकाल में पृथ्वी के गर्भ में जलवायु परिवर्तन का
व्यापक प्रभाव पड़ा था, इसके कुछ ठोस प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
चट्टानों को भू-वैज्ञानिक इतिहास समझने की कुँजी कहा जा सकता
है। ऐसा मत वैज्ञानिकों का है। पृथ्वी के इतिहास में प्रोटेरोजोइक महाकल्प
(proterozoic era) की अवधि सबसे लम्बी है। भूपटल के विभिन्न स्लेटी पत्थर (shales)
इसी काल में बनीं जिनमें ग्रेनाइट और नीस प्रमुख हैं। सं. रा. अगेरिका का एक प्रान्त
मेनीटोबा तथा भारत में बंगाल, बुन्देलखण्ड, धारवाड़, कडप्पा व विन्ध्य क्रम इसी काल
की चट्टानें हैं। इस महाकल्प के अन्त में विभिन्न भू-संचालनों के कारण वैजिया महाद्वीप
लॉरेशियन, बाल्टिक, अंगारालैण्ड एवं गोंडवाना लैण्ड नामक भूखण्डों में विभक्त हुआ।
पुराजीवी कल्प (Paleozoic era) के कार्बोनिफेरस युग में पृथ्वी की जलवायु
अत्यन्त उष्ण एवं आई थी। इसके कारण सघन वनों की उत्पत्ति हुई किन्तु भूपटल की उथल-पुथल
व अवतलन के कारण वे जलमग्न हो गये। इन पर अवसादों के जमाव, ऊपरी दबाव, पृथ्वी की गरमी
एवं रासायनिक परिवर्तनों के कारण कालान्तर में ये वन कोयले में बदल गये। विस्तृत पैमाने
पर कोयले की परतें बनने के कराण इस युग को 'कोयला युग' भी कहा गया गया है। झारखण्ड
की कोयला खानों में हिमनदी निक्षेपित गोलाश्म पाया जाता है। गिरिडीह, झरिया, कर्णपुरा,
रामगढ़ एवं बोकारो के कोयला खदानों में गोलाश्म बहुत बड़ी मात्रा में ये जाते हैं।
इस आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि अतीत में कभी इन क्षेत्रों में हिमनदी बहती होगी।
आजकल इस क्षेत्र की जलवायु मौनसूनी हो गयी है।
दामोदर घाटी में कोयले का विशाल भंडार पाया गया है। इस क्षेत्र
में कोयले के विशाल भंडार का होना इस बात का पक्का सबूत है कि यहाँ कभी सघन वन रहा
होगा और इस प्रदेश की जलवायु ऊष्म एवं आई रही होगी। इस घाटी क्षेत्र में बलुआ पत्थर,
स्लेटी पत्थर एवं कोयला के अनेक स्तरों का पाया जाना इस बात के प्रमाण प्रस्तुत करता
है कि इस प्रदेश में जलवायु परिवर्तन सक्रिय दशाओं में हुआ होगा।
आज से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व प्लिस्टोसीन (pleistocene)
युग अपने हिमावरण के लिए प्रसिद्ध है। भूपटल के विस्तृत भाग पर हिम आवरण के कारण अनेक
हिमानीकृत स्थलाकृतियाँ बनीं। प्लिस्टोसीन युग को बड़ा 'हिमयुग' भी कहा जाता है। उत्तरी
अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका (कनाडा और उत्तरी संयुक्त राज्य अमेरिका) आर्कटिका और एंटार्कटिका
हिम के मोटे आवरण से बँक गये। ऊँचे पर्वतों के हिमावरण विस्तृत हो गये। हिमावरण के
अनाच्छदन (पीछे हटने का) का स्थलाकृतियों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उत्तरी अमेरिका में
इसके कारण पाँच महान झीलें बर्नी। यूरोप एवं अमेरिका में हिमावरण हटने के कारण पर्वतों
की चोटियाँ घिसकर गोल और नदियों की घाटियाँ 'U' (यू) आकार की हो गयीं। दलदलों का प्रसार
हुआ। हिमोढ़ों द्वारा विभिन्न आकृतियों का निर्माण भी इसी गुग में हुआ। फीनलैंड, स्वीडेन,
रूस आदि देशों में हिमावरण द्वारा बनी स्थलाकृतियाँ अब भी स्पष्ट रूप से दीखती हैं।
नार्वे के तटीय भागों में फियोर्ड (Fiord) पाया जाता है। फियोर्ड वास्तव में पूर्वकालीन
घाटी हिमानियों द्वारा बनायी गयी 'U' अकार की डूबी हुई घाटियाँ हैं। ऐसी आकृतियाँ स्वीडेन,
अलास्का एवं ध्रुवीय द्वीपों के किनारों में भी पायी जाती हैं।
जुरासिक (Jurassic) युग में भारत में राजमहल एवं सिलहट की
पहाड़ियों का निर्माण हुआ।
अतीतकालीन जलवायु परिवर्तन के पर्याप्त साक्ष्य दामोदर घाटी
की कुछ पहाड़ियों जैसे पंचेत और लुगु पहाड़ में मिलते हैं। इन क्षेत्रों में लाल बलुआ
पत्थर पाया जाता है। इस प्रकार के पत्थरों का निर्माण शुष्क जलवायु में ही सम्भव है।
अतः इससे सिद्ध होता है कि इस प्रदेश में जलवायु में परिवर्तन हुआ था।
जिन क्षेत्रों में घनी आबादी पायी जाती है उससे प्रमाणित
होता है कि उन क्षेत्रों की जलवायु मानव-जीवन के अनुकूल रही होगी। सिन्धु घाटी की खुदाइयों
(मोहनजोदड़ों और हडप्पा) से ऐसे प्रमाण मिले हैं। इन क्षेत्रों में जल की निकासी के
लिए बनायी गयी नालियों के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि इस क्षेत्र में उस समय अधिक
वर्षा होती होगी परन्तु इस समय इस क्षेत्र की जलवायु शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क है। रसेल
स्मिथ के शब्दों में "साधारण कठिनाई वाली जलवायु ही सभ्यता
का बीजारोपण करती है और उसे पनपाती है।"
जिस
काल में हम जी रहे हैं उस काल को वैज्ञानिकों ने 'होलोसीन (holocene) युग' कहा है।
इस युग का प्रारम्भ आज से दस हजार वर्ष पूर्व हुआ था। इसी युग में प्लिस्टोसीन हिमयुग
के हिमावरण ने पिघलना शुरू कर दिया था। फलस्वरूप समुद्रों का जलस्तर लगभग 100 मीटर
ऊपर उठ गया। हिम के हटने पर कई भागों में हिमोढ़ के निक्षेप व झीलें बन गयीं। एशिया
एवं अफ्रीका के विशाल मरुस्थलों की उत्पत्ति हुई। पृथ्वी पर तापमान बढ्ने का सिलसिला
अब भी जारी है। भविष्य में भी हिमानियों के पिघलने की सम्भावना है जिससे समुद्रों का
जलस्तर बढ़ेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। इसके फलस्वरूप जलवायु में परिवर्तन होगा,
जिसके व्यापक प्रभाव पृथ्वी और उसके जीवों पर पड़ेंगे। इसी प्रकार के जलवायु परिवर्तनों
के कारण वनस्पत्ति एवं प्राणियों की अनेक प्रजातियाँ पृथ्वी से लुप्त होती जा रही हैं।
निष्कर्ष
: उपर्युक्त तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि सृष्टि के आदिकाल से ही जलवायु में अनेक
प्रकार के महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते रहे हैं। इन परिवर्तनों का पृथ्वी, पर्यावरण,
वनस्पति और जीव जगत पर सूक्ष्म एवं स्थूल दोनों प्रकार के प्रभाव पड़े। जलवायु में
परिवर्तन का क्रम आज भी जारी है और भविष्य में उसमें परिवर्तन होता रहेगा। यह एक वैज्ञानिक
सत्य है। अतः कहना न होगा कि जलवायु परिवर्तन एक अनवरत एवं सतत प्रक्रिया है।
भूमण्डलीय तापवृद्धि (Global Warming)
भूमण्डलीय ताप वृद्धि का अर्थ भूमण्डलीय ताप में लगातार वृद्धि
हो रही है। यद्यपि भूमण्डलीय ताप वृद्धि की गति बहुत ही धीमी है लेकिन उसका असर दिखायी
पड़ने लगा है। भूमण्डलीय ताप-वृद्धि का जलवायु पर भयानक और प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
पृथ्वी पर सौर ऊर्जा प्रकाश के दृश्य (visible) और लघु तरंगों
के रूप में आती है। पृथ्वी की सतह सौर ऊर्जा को ग्रहण कर लेती है और उसे लम्बी तरंगों
के विकिरण और तापीय रूप में वायुमण्डल में उत्सर्जित कर देती हैं। पृथ्वी के वायुमण्डल
में अनेक प्रकार की गैसें हैं। इनमें जलवाष्प और कार्बन डॉयऑक्साइड प्रमुख हैं। पृथ्वी
की सतह पर गैसों का आवरण शीशे जैसा काम करता है। गैस का यह आवरण सौर विकिरण को तो सीधे
धरती की ओर आने देता है, परन्तु धरती से विकिरित या वापस लौट रही infrared लम्बी तरंग
वाले विकिरण को रोक लेता है। इसका अर्थ यह है कि जलवाष्प और कार्बन डॉयऑक्साइड पृथ्वी
पर सौर ऊर्जा की लघु तरंगों के पहुँचने के लिए पारदर्शी (transparent) माध्यम का काम
करते हैं। लघु तरंगों की भेदन क्षमता अधिक होती है। इसलिए जलवाष्प और कार्बन डॉयऑक्साइंड
गैस की परत को भेद कर सौर ऊर्जा पृथ्वी तक पहुँच जाती है। लेकिन पृथ्वी द्वारा उत्सर्जित
लम्बी तरंगों वाले ताप के लिए यह माध्यम लगभग अपारदर्शी (opaque) अर्थाव अमेयनीम होता
है। इस तरह और ऊर्जा से प्राप्त अधिकांश ताप पृथ्वी पर ही संचित रह जाता है। पृथ्वी
पर का मही संचित ताप भूमण्डलीय त्ताप-वृद्धि का कारण है। इस मरिधना को वैज्ञानिकों
में 'ग्रीन हाउस प्रभाव' (Green House Effect) का नाम बिया है। जो गैस रूम की लम्बी
तरंगों के विकिरण के अवभीषण विकिरण के अवशोषण की क्षमता रखती है और ग्रीन हाउस प्रभाव
उत्पन्न करती है, उन्हें 'ग्रीन हाउस गैरों' कहते हैं। प्राकृतिक ग्रीन हाउस (गैसे)
पृथ्वी की सतह को गर्म रखता है तथा एक समान तापमान प्रदान करता है।
सन् 1896 ई. में स्वति अग्हेनियस ने ने 'ग्रीन हाउस प्रभाव'
शब्दों का प्रथम बार प्रयोग किया था। 'ग्रीन हाउस' पृथ्वी के निचले वायुमण्डल श्रीभ
मण्डल में ताप संचय के संदर्भ को संकेतित करता है। प्राकृतिक ग्रीन हाउस प्रभाव पृथ्वी
को माध्य नापमान 16°C पर गर्म रखता है। सीन हाउस गैसों की अनुपस्थिति में पृथ्वी का
माध्य ताप -20°C तक गिर जा सकता है। चातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की सान्द्रता
(concentration) में वृद्धि से अवरक्त विकिरण (infrared radiation) का अधिक मात्रा
में अवशोषण होगा, जिससे ग्रीन हाउस प्रभाव में बढ़ोत्तरी होगी। इस तरह भूमण्डलीय माध्य
तापमान की वृद्धि को ही भूमण्डलीय तापन (global warming) कहते हैं। वायुमण्डल में सर्वाधिक
प्रचुर मात्रा में पायी जाने वाली गैसों में जलवाष्म और कार्बन डॉयऑक्साइड (CO₂) है
तथा ये गैसें प्रचुर मात्रा में अवरक्त विकिरणों को अवशोषित करती हैं। दूसरी प्रमुख
ग्रीन हाउस गैसों में CH., N₂O तथा क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CPC) आदि हैं। हाल के वर्षों
में विभिन्न ग्रीन हाउस गैसों की सान्द्रता, विशेषकर CO, में वृद्धि हुई है।
वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार पिछले 100 वर्षों में
लगभग 24 लाख टन ऑक्सीजन वायुमण्डल से समाप्त हो चुका है और उसका स्थान 36 लाख टन, कार्बन
डॉयऑक्साइड गैस ले चुकी है। वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले 50 वर्षों में पृथ्वी का औसत
तापक्रम एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। यदि पृथ्वी का औसत तापक्रम 3.6 डिग्री सेल्सियस
और बढ़ता है तो आर्कटिक पूर्व एंटार्कटिक के विशाल हिमखण्ड पिचल जायेंगे और समुद्र
के जल स्तर में वृद्धि होगी।
भूमण्डलीय तापवृद्धि के कारण। भूमण्डलीय तापवृद्धि के निम्नलिखित
प्रमुख कारण है -
(1) कार्बन डॉयऑक्साइड गैस की मात्रा में वृद्धि।
(2) क्लोरोफ्लोरो कार्बन की मात्रा में वृद्धि।
(3) नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि।
(4) मीथेन गैस की मात्रा में वृद्धि।
1. कार्बन डायऑक्साइड (CO₂) गैस की मात्रा में वृद्धि : वर्ष, 2000 ई.
के पूर्व तक वायुमण्डल में कार्बन डॉयऑक्साइड की सान्द्रता 280 ppm (280 कार्बन
डॉय ऑक्सइड का अणु प्रति मिलियन हवा के अणु में) थी जो इस समय तक बढ़कर 368 ppm ही
गयी है। इसका प्रमुख कारण उद्योगों का बेतहाशा विस्तार है। कार्बन डायऑक्साइड की
वृद्धि का कारण जैव इंधनों को जलाया जाना भी है। अगर मनुष्य इसी तरह जैव ईधनों को
जलाते रहा तथा चर्त्तमान दर से वनों की कटाई भी जारी रही तो कार्बन डॉयऑक्साइड की
मात्रा की वृद्धि भविष्य में चिन्ताजनक स्थिति में पहुँच जायेगी। फलस्वरूप वैश्विक
ताप में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि होगी जिसका विश्व की जलवायु और जीवन पर व्यापक
असर पदेगा।
2. क्लोरोफ्लोरो कार्बन की मात्रा में वृद्धि :
वैश्विक ताप वृद्धि में इस गैस का भी बहुत बड़ा योगदान है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन से
पृथ्वी के स्थायित्व को सबसे अधिक खतरा है। यह गैस अज्वलनशील, अविपावत और अत्यधिक
स्थायी है। यह गैस कृत्रिम गैसों के अवयव, जैसे कार्बन तथा हैलोजन से बनी है।
कोर्बन के मुख्य स्रोतों में रिसावयुक्त वातानुकूलन संयंत्र, फ्रीज तथा औद्योगिक बिलायकों का वाष्पीकरण,
प्लास्टिक फोम का उत्पादन, एरोसोल स्प्रे डिब्बे के नोदक, आदि हैं। क्लोरोफ्लोरो कार्बन
वायुमण्डल में 45 से 260 वर्ष तक बना रह सकता है। 1990 ई. तक वायुमण्डल में इसकी सान्द्रता
484 PPTV थी जो 2000 ई. के अंत तक बढ़कर 525 PPTV तक पहुँच गयी है। वायुमण्डल में इस
गैस की मात्रा 4% की दर से प्रति वर्ष बढ़ रही है। 1980 ई. से 1990 ई. तक की एक दशक
की अवधि में पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने बढ़ाने में इस गैस का योगदान 17% से अधिक रहा
है। ग्रीन हाउस प्रभाव की वृद्धि में इस गैस और हैलोजेन गैस का योगदान 90% से भी अधिक
है।
3. नाइट्स ऑक्साइड गैस की मात्रा में
वृद्धि : विभिन्न कारणों से वायुमण्डल में नाइट्रस
ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है। फलस्वरूप मानवकृत ग्रीन हाउस प्रभाव 6% तक बढ़ा है।
नाइट्स ऑक्साइड की वार्षिक वृद्धि दर 0.2% से 0.3% प्रति वर्ष है। नाइट्रस ऑक्साइड
का मुख्य स्रोत, कृषि, जैव-भार (biomass) का जलना तथा औद्योगिक क्रियाएँ हैं। N₂O और
नायलॉन के उत्पादन से, नाइट्रोजन युक्त ईंधन से मवेशियों के उत्सर्ग (excrete) तथा
भूमि में नाइट्रोजन धनी उर्वरकों के टूटने से तथा नाइट्रेट संक्रमित सतही जल से होता
है। नाइट्रस ऑक्साइड अल्प मात्रा में होते हुए भी CO₂ से 250 गुणा अधिक खतरनाक गैस
है। वायुमण्डल में इसकी जीबनावधि लगभग 150 वर्षों की होती है।
4. मीथेन गैस की मात्रा में वृद्धि : मीथेन गैस की मात्रा में वृद्धि के कारण भी भूमण्डलीय ताप में
वृद्धि की आशंका बढ़ गयी है। वर्तमान समय में वायुमण्डल में मीथेन गैस की सान्द्रता
दोगुनी बढ़ गयी है। उद्योगीकरण के पूर्व वायुमण्डल में इस गैस की सान्द्रता 0.700
ppb थी। उद्योगों के बिस्तार के पश्चात इसकी सान्द्रता में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि
हुई है और वह बढ़कर 1750 ppb हो गयी है। मीथेन अपूर्ण अपघटन का उत्पाद है एवं अनाक्सीय
हालातों में मीथेनोर्जन जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न होता है। मीठा जल, आर्द्र भूमि मीथेन
उत्पादन के स्रोत हैं। इसका कारण यह है कि कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीजन के अभाव तथा
खराब पर्यावरण में अपघटन होने एवं दीमकों द्वारा मीथेन गैस का उत्पादन किया जाता है।
दीमक सेल्युलोज को पचा लेती है। बाढ़ के पानी के धानखेतों में जमा जमा होने और कच्छ
क्षेत्रों में मीथेनोर्जन में में अनाक्सी क्रिया द्वारा मीथेन गैस निष्कृत होती है।
इस प्रकार विभिन्न स्रोतों से 52.6 करोड़ टन प्रति वर्ष मीथेन गैस वायुमण्डल में पहुँचती
है। प्रतिवर्ष इसकी वृद्धि 7% है जबकि ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने में इसका योगदान
18% है।
भूमण्डलीय ताप वृद्धि के प्रभाव
पृथ्वी के पर्यावरण में पिछली शताब्दी
से ही विस्मयकारी परिवर्तन देखे जा रहे हैं। बदलाव का मुख्य कारण बढ़ती हुई जनसंख्या
और उसके प्रकृति-प्रतिकूल आचरण और क्रियाकलाप हैं। भूमण्डलीय बदलाव का कारण मनुष्य
द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का असीमित दोहन और दुरुपयोग है। जैव ईंधन भंडारों का ह्रास
तथा बड़े पैमाने पर भू-क्षेत्रों के उपयोग के कारण ही पर्यावरणीय संतुलन में गड़बड़ी
आयी है। मानव क्रियाओं द्वारा वातावरण में कार्बन डॉय ऑक्साइड की मात्रा एवं ग्रीन
हाउस प्रभाव में वृद्धि तथा समताप मण्डल की ओजोन परत के ह्रास के कारण भूमण्डलीय जलवायु
और पर्यावरण में भयानक परिवर्तन घटित्त हो रहे हैं। भूमण्डलीय माध्य तापमान की वृद्धि
के कारण भूमण्डल के ताप में अप्रत्याशित वृद्धि की सम्भावना बढ़ गयी है। धूमण्डलीय
ताप वृद्धि के लक्षित एवं सम्भावित प्रभावों और दुष्प्रभावों का आकलन वैज्ञानिकों ने
प्रस्तुत किया है। हाल में वायुमण्डलीय कार्बन डाय ऑक्साइड का बढ़ना तथा अनुमानित भूमण्डलीय
तापन का मौसम तथा जलवायु पर प्रभाव, समुद्री सतह में वृद्धि तथा जीवों का घटना, फैलाब
और दूरी में बदलाव आदि प्रभावों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
1. मौसम तथा जलवायु पर प्रभाव: कार्बन डॉयऑक्साइड तथा अन्त्य ग्रॉन
हाउस गैसें पृथ्वी के औसत तापमान को बढ़ाती हैं। बीसवीं शताब्दी में भूमण्डलीय माध्य
तापमान में लगभग 0.6°C तक की वृद्धि हुई है। उत्तरी गोलार्द्ध में सन् 1960 ई. के उत्तरार्ध
से जलवायु में अधिक परिवर्तन आया। फलस्वरूप शरद ऋतु और जाड़े में वर्षा में 0.5% से
1% तक की वृद्धि हुई है।
उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में 0.3%
प्रति दशक की दर से कम हुई है। एक सरकारी आँकलन में सन् 2100 ई. तक पृथ्वी के औसत तापमान
में 1.4°C से 5.8°C तक की वृद्धि की सम्भावना व्यक्त की गयी है। इस आँकड़े में स्थानानुसार
थोड़ा-बहुत अन्तर आ सकता है। वैज्ञानिकों ने यह आशंका व्यक्त की है कि समूचे ग्रह पर
औसत तापमान में वृद्धि होगी। अनेक तरह की विनाशकारी घटनाओं जैसे सूखा, बाढ़ आदि में
पर्याप्त वृद्धि हो सकती है। जलवायु परिवर्तन से उष्णकटिबन्धीय एवं सम उष्ण कटिबन्धीय
भागों में मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा मुख्यतः रोगों के वहन करने वाले
जीवाणु एवं जलीय रोगाणु के परिवर्तन से मानव स्वास्थ्य प्रतिकूल रूप से प्रभावित होकर
संकटग्रस्त हो जायेगा।
2. समुद्रतल में परिवर्तन : बीसवीं शताब्दी में समुद्रतल में प्रति वर्ष 1.5 +05 मिलीमीटर
की वृद्धि हुई है। धूमण्डलीय तापन के फलस्वरूप आगामी वर्षों में इसमें और अधिक वृद्धि
होगी क्योंकि 1990 ई. तक समुद्र में 0.88 मि. मी. तक की वृद्धि लक्ष्य की जा चुकी है।
समुद्रतल में परिवर्तन में कई कारकों का योग होता है। इसके लिए सागर के ऊष्मीय प्रसार
का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अन्य कारण हैं-हिमनदों का पिघलना, अंटार्कटिका
तथा ग्रीनलैण्ड की बर्फ की पट्टियों (चादर) का पिघलना तथा स्थलीय जल भण्डार में परिवर्तन।
भूमण्डलीय तापमान में वृद्धि के कारण हिमनदों का और हिमचादरों का पिघलना निश्चितप्राय
है। फलस्वरूप समुद्रतल में वृद्धि होगी जिसका दुष्प्रभाव मानव बस्तियों, पर्यटन, मीठे
जल की आपूर्ति, मत्स्य उद्योग, खुले ढाँचा, कृषि तथा शुष्क एवं आर्द्र भूमि पर पड़
सकता है।
3. जीव जन्तुओं, जातियों और प्रजातियों
के वितरण परिसर पर प्रभाव : यह ज्ञातव्य है कि पृथ्वी मण्डल के जीव-जन्तुओं की प्रत्येक
प्रजाति एक विशेष प्रकार के तापक्रम-परिसर में ही रह सकती है। ऐसे ही परिवेश में वे
पायी जाती हैं। यदि भूमण्डलीय ताप में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई तो इसका जीवों
के भौगोलिक वितरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। ऐसी सम्भावना व्यक्त की गयी है कि
कई प्रजातियाँ शनैः शनैः ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित होती चली जायेंगी।
अगर जलवायु 2°C से 5°C तक गर्म होगी तो वनस्पतियों की प्रजाति का वितरण 250-600 कि.
मी. तक स्थानांतरित हो जायेगा। प्रजातियों के वितरण में इन परिवर्तनों का जैव-विविधता
तथा पारिस्थितिकी तंत्र पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ेगा।
4. खाद्य उत्पादन पर प्रभाव : भूमण्डल के तापक्रम में वृद्धि से पौधों में कई रोग एवं पीड़क
जन्तु, खरपतवार एवं श्वसन क्रिया की दर में वृद्धि हो जायेंगी। इन सब कारणों से अन्नोत्पादन
में भारी कमी आयेगी। तापक्रम में न्यून वृद्धि शीतोष्ण जलवायु में फसलों की उत्पादकता
बढ़ा सकती है परन्तु अधिक वृद्धि के कारण फसलों की उत्पादकता घट जायेगी। समस्त उष्णकटिबंधीय
एवं समोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में तापमान में थोड़ी-सी वृद्धि से भी फसल की उत्पादकता
पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है। लगभग 1°C तापक्रम बढ़ने से केवल दक्षिण पूर्वी एशिया
में चावल उत्पादन करीब 5% तक गिर जाता है। कार्बन डाय ऑक्साइड युक्त ठर्वरक के लाभकारी
प्रभाव के बावजूद भूमण्डलीय तापन से खाद्य उत्पादन गिर जायेगा एवं पूरे विश्व में खाद्य
समस्या उत्पन्न हो जायेगी।
5. हिमानी संकुचन तथा बाढ़जनित प्रभाव : पहाड़ी क्षेत्रों में वर्ष के पिघलने
से नदियों में भयानक बाढ़ आ सकती है। गंगा अपने मूल स्रोत से 19 किमी दूर गोमुख तक
पहुँच गयी है।
6. पेड़े पौधों पर प्रभाव : वनस्पतियों की जो प्रजातियाँ कम तापमान
पर जीवित रहती हैं, भूमण्डलीय ताप में वृद्धि के फलस्वरूप पौधों की अनेक प्रजातियाँ
नष्ट हो जायेंगी। दूसरी और सूखे के कारण हानिकारक वनस्पतियों (पेड़-पौधों) की प्रजातियाँ
पनपनी शुरू हो गयी है।
7. जीव-जन्तुओं पर प्रभाव : जीव-जन्तुओं की अनेक प्रजातियाँ तापमान कम रहने की अभ्यस्त होती
हैं। यदि भूमण्डलीय ताप में वृद्धि हुई तो इनका जीवन खतरे में पड़ जायेगा। समुद्र के
तटवर्ती वनों तथा द्वीपों में रहने वाले जीव-जन्तु समाप्त हो जायेंगे। अनावृष्टि के
कारण चरागाह के अभाव में चौपायों की मृत्यु हो जायेगी। कार्बन डॉयऑक्साइड और ऑक्सीजन
की कमी से साँस लेना कठिन हो जायेगा।
निष्कर्ष : उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि
भूमण्डलीय तापमान में वृद्धि का अर्थ पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन
का उत्पन्न होना है। इसका असर मानव जीवन, उसके स्वास्थ्य, आवास, भोजन, फसलोत्पादन आदि
पर भी पड़ेगा। यदि भूमण्डल के तापमान में वृद्धि की गति इसी तरह जारी रही तो धरती पर
से कई प्रकार के जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों की प्रजातियाँ नष्ट होकर विलुप्त हो जायेंगी।
नाना प्रकार के रोगाणुओं में बढ़ोत्तरी होगी जो मानव स्वास्थ्य के लिए गम्भीर संकट
उत्पन्न करेंगे। अनेक प्रकार के कीटों और पीड़कों की भरमार से फसलें नष्ट होंगी और
उसकी उत्पादकता में क्रमशः कमी आती जायेगी। मनुष्य और जीव-जन्तुओं के लिए सबसे गम्भीर
संकट तो वायुमण्डल में कार्बन डॉय ऑक्साइड गैस की वृद्धि उत्पन्न करेगी क्योंकि वैसी
परिस्थिति में ऑक्सीजन की मात्रा न्यूनातिन्यून हो जायेगी और जीवों के लिए साँस लेना
भी दूभर हो जायेगा।
भूमण्डलीय तापन को नियंत्रित करने के उपाय
भूमण्डलीय ताप में वृद्धि के लिए मुख्यतः
कार्बन डॉयऑक्साइड एवं अन्य ग्रीन हाउस गैसें उत्तरदायी हैं। अतः भूमण्डलीय ताप को
एक सीमा तक नियंत्रित रखने का इससे कोई अच्छा उपाय नहीं हो सकता कि जिन मानवीय क्रिया-कलापों
और गतिविधियों द्वारा अधिकाधिक मात्रा में वायुमण्डल में ये गैसें पहुँचायी जा रही
हैं, उनके स्रोत पर ही नियंत्रण स्थापित हो ताकि वे अवांछित और असीमित मात्रा में वायुमण्डल
में पहुँचने नहीं पायें। इसके निमित्त निम्नलिखित कुछ उपायों पर अमल किया जाना चाहिए-
1. कार्बन डॉयऑक्साइड गैस के उत्सर्जन
पर नियंत्रण : वायुमण्डल में कल-कारखानों एवं अनेक प्रकार के घरेलू उपकरणों
और संयंत्रों द्वारा असीमित मात्रा में कार्बन डॉयऑक्साइड गैस उत्सर्जित की जा रही
है। कार्बन डॉयऑक्साइड गैस के उत्सर्जन का एक बहुत बड़ा स्रोत जैव ईंधनों का जलाया
जाना है। अतः जैव या जीवाश्म ईंधनों के उपयोग में अधिकाधिक कमी लाकर वायुमण्डल में
कार्बन डॉयऑक्साइड को जाने से रोका जा सकता है। कल-कारखानों और संयंत्रों में ऐसे रोधी
उपकरण लगाये जाने चाहिए कि वे अधिक मात्रा में कार्बन डॉयऑक्साइड वायुमण्डल में छोड़
नहीं पायें। इस प्रकार कार्बन डॉयऑक्साइड की मात्रा को नियंत्रित करके बहुत बड़ी सीमा तक भूमण्डलीय ताप वृद्धि
को नियंत्रित किया जा सकता है।
2. वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग : भूमण्डलीय ताप में वृद्धि में कमी लाने के लिए जीवाश्मीय ईंधनों
के दहन (जलाने) की मात्रा में उल्लेखनीय रूप से कमी लानी होंगी क्योंकि भूमण्डलीय ताप
वृद्धि के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी इनके द्वारा उत्सर्जित कार्बन डॉयऑक्साइड गैस
ही है। अतः जीवाश्मीय ईंधन की जगह पर वैकल्पिक ऊर्जा की तलाश करनी होगी। एल.पी.जी एवं
सी.एन.जी. गैसें जीवाश्मीय ईंधनों के बेहतर विकल्प हैं। इन वैकल्पिक उपायों के अवलम्बन
से भूमण्डलीय ताप की वृद्धि में भी कमी आयेगी और पर्यावरण प्रदूषण का खतरा घटेगा।
प्राकृतिक गैसों की तरह सौर ऊर्जा भी
जीवाश्मीय ईंधनों का एक अच्छा और पूर्णतः हानिरहित विकल्प है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों
के लिए वायोगैस भी अच्छा विकल्प प्रमाणित हुआ है।
3. वानिकी विकास : वनों के विकास और वृक्षों की सुरक्षा
कार्बन डॉयऑक्साइड गैस के लिए प्राकृतिक अपवाहिका (natural sink) का काम करते हैं।
अतः इस उपाय पर अधिक ध्यान देने की जरूरत हैं।
4. रासायनिक उर्वरकों का नियंत्रित
उपयोग : रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग
की प्रवृत्ति को निरुत्साहित किया जाना चाहिए। इसकी जगह पर जैव खादों के उपयोग को बढ़ावा
दिया जाना चाहिए।
5. ग्रीन हाउस गैसों के विरुद्ध जन-चेतना
को प्रबुद्ध करने की आवश्यकता : ग्रीन हाउस गैसों के दुष्प्रभावों से सामान्य नागरिकों को
परिचित कराया जाना चाहिए। इस काम में सरकार, स्वयंसेवी संगठन एवं समाचारपत्र तथा इलेक्ट्रॉनिक
संचार माध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
पर्यावरण सुरक्षा को दृष्टि में रखकर
अब तक अनेक विश्वस्तरीय सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं। ऐसे सम्मेलनों में प्रथम 'पृथ्वी
सम्मेलन' (Earth Summit) 1992 ई. का प्रमुख स्थान है। यह सम्मेलन रियो डि जिनेरो (ब्राजील)
में सम्पन्न हुआ था। ऐसे ही सम्मेलन न्यूयार्क (सं. रा. अमेरिका), क्योटो (जापान) और
बॉन (हेम्बर्ग) में भी आयोजत हो चुके हैं। इन सम्मेलनों में विश्व के नेताओं ने पर्यावरण
सम्बन्धी समस्याओं पर गम्भीरता पूर्वक विचार-विमर्श किया जिसमें भूमण्डलीय तापवृद्धि
और ग्रीन हाउस के पर्यावरण पर दुष्प्रभावों पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया था। इसलिए
इसके खतरों को पहचानते हुए इसके नियंत्रण के कारगर उपायों के बारे में भी संकल्प लिये
गये थे। अतः यदि ईमानदारीपूर्वक इन संकल्पों को कार्यान्वित किया जाय तो भूमण्डलीय
ताप वृद्धि की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।
अम्लीय वर्षा: कारण, प्रभाव और क्षति
'अम्लीय वर्षा' का अभिप्राय (अम्लीय वर्षा क्या है?): 'अम्लीय
वर्षा' शब्द का पारिभाषिक अर्थ में प्रथम बार प्रयोग रोबर्न ए. स्मिथ ने 1872 ई. में
किया था। इसके बाद से अनेक पश्चिमी शोधकर्ताओं ने अपने शोधों के आधार पर अम्लीय वर्षा
द्वारा उत्पन्न चुनौतियों के बारे में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी प्रस्तुत
की।
'अम्लीय वर्षा' शब्द का प्रयोग पृथ्वी पर सामान्य से अधिक अम्लता
के अवक्षेप या जमाव के लिए किया गया है। सक्सेना ने अम्लीय वर्षा की सीधी परिभाषा तो
प्रस्तुत नहीं की है परन्तु उन कार और कारणों का उल्लेख अवश्य किया है जिसके कारण अम्लीय वर्षा होती है। उनके शब्दों
में अम्लीय वर्षा वायुमण्डल में जीवाश्मीय ईंधनों के दहन द्वारा उन्मुक्त सल्फर डॉयऑक्साइड
गैस का प्रतिफल है। सल्फर डॉयऑक्साइड (वर्षा) जल में घुलकर शीघ्र ही सल्फ्युरिक एसिड
(H₂SO₄) में परिवर्तित हो जाता है और वही अम्ल वर्षा-जल की बूंदों के साथ नगरों आदि
पर बरस जाता है। वर्षा जल में घुली और प्रवाहित सल्फ्युरिक एसिड में सल्फेट आयन
(sulphate ion) असामान्य रूप से घुला हुआ रहता है। वर्षा जल के साथ इसके संयोग को ही
सामान्यतः 'अम्लीय वर्षा' कहा जाता है।
(Acid rains is the outcome of
sulphar dioxide gas (SO₂) released into the air by the combustion of fossils
fuels. This readily forms sulphuric acid (H2SO4) in the minute water forms of
suspended droplets in the air over cities. The washout of sulphuric acid by
precipitation results in rain water an abnormally high content of the sulphate
ion, a condition known as acid rain.)
अम्लीय वर्षा के कारण अम्लीय वर्षा
का कारण औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाली सल्फर डॉय ऑक्साइड एवं नाइट्रोजन
ऑक्साइड गैस है। वायुमण्डल में जलवाष्प और सूर्य के प्रकाश के साथ शीघ्र ही अभिक्रिया
करके ये गैसें सबल अम्लीय यौगिकों यथा सल्फ्युरिक, सल्फर, नाइट्रिक एवं नाइट्रस अम्ल
(Acid) में बदल जाते हैं। ये यौगिक जब अन्य कार्बनिक या अकार्बनिक रसायनों के साथ वायु
के माध्यम से पृथ्वी पर आकर जमा हो जाते हैं तब इसे 'अम्ल वर्षा' कहा जाता है। अम्ल
वर्षा शुष्क और आर्द्र दोनों प्रकार की होती है। जब वायुमण्डल में एकत्र अम्ल यौगिक
वर्षा की बूँदों, बर्फ, कुहासा और ओस के साथ पृथ्वी पर आते हैं तो इन्हें 'आर्द्र अम्ल
वर्षा' कहा जाता है।
अम्लीय वर्षा का दुष्प्रभाव 'अम्लीय
वर्षा (acid rains)' का पृथ्वी और पर्यावरण पर अत्यधिक गम्भीर प्रभाव पड़ता है। अम्ल
वर्षा के कारण पर्यावरण में दुर्निवार परिवर्तन होता है। अम्ल वर्षा के कारण सरिताएँ
और झील अम्लीय बन जाते हैं। अमेरिका एवं पश्चिमी यूरोपीय देशों में अम्लीय वर्षा के
कारण वहाँ के अनेक झीलें भयानक रूप से प्रदूषित हो गयीं। स्वीट्जरलैण्ड की झीलों का
प्रदूषण भी इससे बढ़ा। कनाडा में दो हजार से चार हजार झीलें अम्लीय वर्षा के कारण इस
कदर प्रदूषित हो गयीं कि उनमें किसी प्रकार के जलीय जीवन की सम्भावना लगभग समाप्त प्राय
हो गयी है। अम्लीय वर्षा के झीलों पर नीमातीत दुष्प्रभाव को व्यक्त करने के लिए उसे
'झीलों का हत्यारा' कहा गया है। अमेरिका एवं पश्चिमी यूरोपीय देशों में अम्लीय वर्षा
के झीलों पर इस तरह का प्रभाव देखा गया है। कनाडा के ओण्टोरियो प्रांत की पच्चीस लाख
झीलों में से पचास हजार झीलें बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। अम्लीय वर्षा के कारण कनाडा
की झीलों के जल की अम्लता में अतिशय वृद्धि हुई है जिसके कारण उसका पीएच (pH) मान बहुत
अधिक घट गया। फलतः लगभग 140 झील वहाँ मृत हो गये।
अम्लीय वर्षा के कारण जलीय जीव एवं
पौधे नष्ट होने लगते हैं। नदियों और झीलों की मछलियाँ मरने लगती हैं और उनकी संख्या
में बहुत अधिक कमी हो जाती हैं।
अम्लीय वर्षा के कारण जल में उगने वाला
हरित शैवाल और अनेक प्रकार के जीवाणु मर जाते हैं। हरित शैवाल और जीवाणु जल की पारिस्थितिकी
तंत्र के लिए अनिवार्य हैं। अम्लीय वर्षा के कारण pH मान घटने से जल-स्रोतों में कार्बनिक
और जैव पदार्थों के अपघटन की दर भी घट जाती है जिसके परिणामस्वरूप जल-प्रदूषण में बढ़ोत्तरी
होती है।
अम्ल-वर्षा अनेक प्रकार से मृदा एवं
वनस्पतियों को प्रभावित करती है। पौधों और वनस्पतियों का विकास रुक जाता है। इस तरह
जंगल नष्ट होने लगते हैं और हरियाली भी समाप्त होने लगती है। अम्लीय वर्षा के कारण
पौधों का पोषण तत्त्व पोटैशियम आदि मिट्टी से निकल जाता है। मृदा में जीवित रहने वाले
अनेक कीटों (earth worms) की संख्या घट जाती है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति का ह्रास होता
है।
अम्ल वर्षा से धातुओं का शरण होता है।
कपड़े छीजते हैं। कागज, संगमरमर एवं स्थापत्य कला की बहुमूल्य कृतियाँ पक्ष हो जाती
हैं। भवनों के संगमरमर और मार्बल पर धब्बा लगना शुरू हो जाता है। इंग्लैंड का सन्त
पाल चर्च, ब्रिटेन का संसद भवन, न्यूयार्क (से. रा. अमेरिका) की अनेक भल्य अठ्ठालिकाएँ
और भारत के ताजमहल को अम्लीय वर्षा से भयानक क्षति पहुँची है।
निष्कर्ष: अम्लीय वर्षा नदी, सरिता, झील, जलीय
जील, वन, वनों की हरियाली, वन-सम्पदा, जीव-जन्तु, मृदा के कीटों, हरित शैवालों, मछलियों,
मिट्टी की उर्वरा शक्ति आदि को नष्ट कर डालती है। इससे भवनों, धातु से बने सामानों
आदि को भी नुकसान पहुँचता है।
अम्लीय वर्षा का नियंत्रण : अम्लीय वर्षा के दुष्प्रभावों को निष्प्रभावी बनाने का सबसे
सरल उपाय अम्ल का चूना द्वारा उपचार है। लेकिन अम्लीय वर्षा से प्रदूषित जल का चूने
से उपचार एक व्ययसाध्य उपाय है, विशेषकर वैसी परिस्थिति में जब जलीय क्षेत्र अति विस्तृत
भूभाग में फैला हुआ हो। अधिक मात्रा में चूने द्वारा जल के उपचार का भी पारिस्थितिकी
तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। फलस्वरूप अनेक जटिल पारिस्थितिकीजन्य समस्याएँ
उत्पन्न हो सकती हैं। अम्लीय वर्षा के दुष्प्रभावों के नियंत्रण का सरल एवं सर्वोत्तम
उपाय है उन मानवीय क्रिया-कलापों के स्रोतों को नियंत्रित करना जिनके द्वारा सल्फर
डाँय ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO) का उत्सर्जन होता है।
स्थिर एव गतिशील वायु प्रदूषण के स्रोतों
को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। इसके निमित्त वायु-प्रदूषण के नियंत्रण के प्रभावकारी
उपायों को अपनाया जाना चाहिए।