ओजोन परत ह्रास और ओजोन छिद्र (Depletion of Ozone Layer and Ozone Hole)
प्रश्न : ओजोन परत की ह्रास के प्रमुख कारणों का वर्णन करें।
अथवा
ओजोन परत के क्षय के क्या कारण हैं? बतायें।
अथवा
ओजोन परत के ह्रास के लिए उत्तरदायी कारकों का उल्लेख करें।
अथवा
ओजोन परत के विनाश के कारणों का वर्णन करें।
अथवा
ओजोन परत की अल्पता या उसके विनष्ट होने में प्रकाश रासायनिक
अभिक्रियाओं का क्या योगदान है?
अथवा
समतापमण्डल में ओजोन परत की अल्पता से आप क्या समझते हैं? ओजोन परत
के क्षय, विनाश, ह्रास और अल्पता के कारणों का वर्णन करें।
अथवा
मानवीय क्रिया-कलाप के उन तीन क्षेत्रों का वर्णन कीजिये जो ओजोन
चक्र को प्रभावित करते हैं?
अथवा
'ओजोन परत के विनाश के लिए स्वयं मनुष्य ही उत्तरदायी है।' इस कथन की
युक्तियुक्तता पर विचार करें।
अथवा
नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO₂) एवं क्लोरो-फ्लोरो
कार्बन (CFCS) के ओजोन परत अल्पता में क्या हाथ (योगदान/भूमिका) है?
उत्तर : ओजोन क्या है : ओजोन एक गैस है। इस गैस की
गन्ध तीखी होती है। इस गैस का रंग नीला है। यह गैस वस्तुतः ऑक्सीजन का ही एक ऑक्सीकृत
(oxide) रूप है। ऑक्सीजन और ओजोन में मुख्य अन्तर यह है कि ओजोन के एक अणु में ऑक्सीजन
के तीन परमाणु होते हैं, जबकि ऑक्सीजन में उसके दो ही परमाणु होते हैं। इस गैस का निर्माण
प्राकृतिक रूप से समतापमण्डल में होता है।
ओजोन गैस परत का निर्माण : समतापमण्डल (stratosphere) में पराबैंगनी विकिरण ओजोन
का प्रकाश-विच्छेदन कर O3 से
0₂ एवं O में बदल देता है। समतापमण्डल में प्रकाश की रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप
ओजोन का निर्माण होता है। ओजोन की एक विशेषता यह है कि इसमें परा-बैंगनी किरणों को
अवशोषित करने की क्षमता होती है। जब समताप मण्डल में पराबैंगनी विकिरण ओजोन का प्रकाश-विच्छेदन
करता है तो इस क्रम में पराबैंगनी किरणों से ताप के रूप में ऊर्जा निकलती है। इस प्रकार
समतापमण्डल में ओजोन के निर्माण और विघटन में प्राकृतिक रूप से एक संतुलन स्थापित होता
रहता है। फलस्वरूप समुद्रतल से 20 से 26 किलोमीटर ऊपर समतापमण्डल में ओजोन की सान्द्रता
(concentration) स्थिर हो जाती है। मानक ताप एवं दाब में समताप मण्डल में ओजोन परत
भूमध्य रेखा पर 0.29 सेंटीमीटर एवं ध्रुवों के नजदीक 0.40 सेंटीमीटर मोटी हो जाती है।
ओजोन परत का विस्तार : समतापमण्डल में 16 कि. मी. से 40 किलोमीटर की ऊँचाई के
विभिन्न स्तरों पर ओजोन की परतों की मोटाई में अन्तर आता जाता है। ओजोन की सान्द्रता
पीपीएमभी (parts per million by volume) क्षोभमंडल (tropopause) में 1.0 से कम होती
है और इसके बाद इसमें बढ़ोत्तरी शुरू हो जाती है। 30 कि. मी. की ऊँचाई तक पहुँचते-पहुँचते
इसका मान 8.00 तक पहुँच जाता है। 20 किमी से 40 किमी. तक पहुँचकर इसका मान घटने लगता
है। 100 किमी. की ऊँचाई पर पहुँचकर इसका मान शून्य हो जाता है। ओजोन का निर्माण प्राकृतिक
रूप से तब होता है, जब पराबैंगनी किरणों के प्रकाश-विच्छेदन से ऑक्सीजन अलग हो जाता
है। इस अभिक्रिया में पराबैंगनी-बी विकिरण (ultraviolet-B radiation) का अवशोषण हो
जाता है। यही अभिक्रिया UV-B विकिरण के विस्थापन के लिए भी उत्तरदायी है।
प्रकृति के इस नियमित चक्र में किसी गड़बड़ी या व्यवधान उत्पन्न
होने की इस स्थिति में पराबैंगनी किरणें ओजोन की कमजोर सतह को भेदकर पृथ्वीतल तक पहुँच
जायेंगी और वह पृथ्वी, पर्यावरण, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों को अपूरणीय क्षति पहुँचा
देंगी।
ओजोन परत के क्षय या विनाश के कारण : गम्भीर समस्या उत्पन्न हो सकती है। जिस किसी प्रक्रिया
अथवा कारण से ओजोन की परत छीजेगी, पतली होगी या कमजोर पड़ेगी, उसके कारण पृथ्वी तल
तक पराबैंगनी-बी विकिरण बिना किसी अवरोध के पहुँच जायेगा। पराबैंगनी-बी विकिरण में
वृद्धि के कारण त्वचा के कैंसर एवं अन्य संक्रामक रोगों के आक्रमण की सम्भावना भी बढ़ेगी।
पारिस्थितिकी तंत्र पर भी उसके अनेक विनाशकारी प्रभाव पड़ेंगे।
ओजोन परत के ह्रास (क्षय/विनाश) के कारण ओजोन परत के ह्रास
के कारणों का पता लगाने में जुटे वैज्ञानिकों के अनुसार, उसके हास में मानवीय क्रिया-कलापों
के विभिन्न क्षेत्रों प्रमुखतः तीन क्षेत्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वे क्षेत्र
निम्नलिखित हैं-
पराध्वनिक (supersonic) जेटों का ओजोन परत के बीच से गुजरना,
परमाणु बमों का विस्फोट, हैलोजन गैसें या क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, रासायनिक उर्वरकों
एवं सल्फेटों का उपयोग, ज्वालामुखी उद्भेदन, वन-विनाश और अंतरिक्ष अनुसंधान।
ओजोन परत क्षय में जेटों की भूमिका: क्षोभमण्डल में पराध्वनिक (supersonic) जेटों और जहाजों
के पहुँच जाने के कारण, इनके इंजनों से उच्च ताप उत्सर्जित होता है। इस ताप के कारण
वायुमण्डल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के संयोग से नाइट्रिक ऑक्साइड (N₂O) गैस का निर्माण
होता है। परमाणु बमों के विस्फोट के कारण भी अधिक मात्रा में उच्च ताप उत्सर्जित होकर
वायुमण्डल में पहुँच जाता है। इससे भी वायुमण्डल में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के संयोग
से नाइट्रिक ऑक्साइड गैस भारी मात्रा में बनती है। इस गैस में भी क्लोरो-फ्लोरो कार्बन
की तरह ओजोन अणुओं को सामान्य ऑक्सीजन में बदलने की अपार क्षमता निहित है।
वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार, एक मेगावाट शक्ति वाले
परमाणु बम के विस्फोट से लगभग 5,000 टन नाइट्रिक ऑक्साइड गैस का निर्माण होता है। नाइट्रिक
ऑक्साइड की यह मात्रा 50 लाख टन ओजोन को सहज ही नष्ट करने में सक्षम है। वैज्ञानिकों
के अनुसार, वायुमण्डल में 4.08 (पीपीएमभी) ओजोन गैस विद्यमान है। ओजोन की यह मात्रा
एक हजार मेगावाट की शक्तिवाले परमाणु बम के विस्फोट से तुरंत नष्ट हो जायेगी।
ओजोन के विनाश के कारण क्लोरो-फ्लोरो कार्बन : ओजोन परत के विनाश का एक मुख्य कारण क्लोरो-फ्लोरो कार्बन
(CFC) गैस है। इस गैस के वायुमण्डल में पहुँचने का मुख्य स्रोत हैलोजन गैस के यौगिकों
से युक्त वस्तुओं, उपकरणों का बढ़ता हुआ उपयोग है। हैलोजन युक्त यौगिकों का उपयोग सामान्यतः
रेफ्रीजरेटरों, वातानुकलन संयंत्रो, प्लास्टिक फोम, रंग-रोगन तथा एरोसोल (aersol) आदि
उद्योगों में होता है। रेफ्रीजरेटर में प्रशीतक (cooling) के रूप में प्रयुक्त फ्रेआन
गैस, अनेक दुर्गधनाशकों, कीटनाशकों, एवं प्रसाधन सामग्रियों में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन
समूह के यौगिकों का उपयोग होता है। इन यौगिकों में कार्बन, हाइड्रोजन के साथ-साथ फ्लोरीन
एवं क्लोरीन गैसों के परमाणु भी होते हैं। सूर्य के प्रकाश पड़ने से, इन यौगिकों से
क्लोरीन, फ्लोरीन आदि हैलोजन गैसें निकलती हैं। उत्सर्जित हैलोजन गैसें, ओजोन के साथ
प्रतिक्रिया करके उसे ऑक्सीजन में बदल डालते हैं, जिससे ओजोन परत का हास, क्षय और विनाश
होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि समतापमण्डल में वर्तमान समय में क्लोरीन की मात्रा
सामान्य से दोगुनी हो गयी है। यह गैस शीघ्र नष्ट नहीं होती। एक बार वायुमंडल में पहुँच
जाने के बाद बहुत काल तक वहाँ बनी रहती है। इसके एक अणु में ओजोन के एक लाख अणुओं को
नष्ट कर देने की क्षमता होती है। क्लोरीन के अणुओं की इस क्षमता के आधार पर यह अनुमान
लगाना सहज है कि मानवीय क्रियाकलापों द्वारा वायुमण्डल में क्लोरीन पहुँचाने का क्रम
यदि इसी तरह जारी रहा तो जैवमंडल के लिए यह बहुत भयंकर संकट उत्पन्न कर देगा।
ओजोन क्षय में रासायनिक उर्वरकों, सल्फेट एवं ज्वालामुखी
उद्भेदन की भूमिका
: नाइट्रोजन आधारित रासायनिक उर्वरकों के कृषि में उपयोग के कारण भी ओजोन की परत के
क्षय की सम्भावना बढ़ गयी है।
सल्फेटों की भूमिका और ज्वालामुखी उद्भेदन : ज्वालामुखी के उद्भेदन एवं कल-कारखानों से निकलनेवाली
सल्फेटयुक्त एरोसोल की सान्द्रता वायुमण्डल के प्रत्येक अक्षांश पर 15 से 22 किलोमीटर
के बीच बढ़ जाती है। जिन क्षेत्रों में उद्योगों का अधिक विस्तार हुआ है, उन क्षेत्रों
में वायुमण्डल में सल्फेट की सांद्रता बहुत अधिक बढ़ी हुई है। उत्तरी गोलार्द्ध में
अत्यधिक औद्योगिक विस्तार के कारण इसकी सांद्रता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। एरोसोल
सल्फेट के निर्माण के लिए मानव क्रियाकलाप ही बहुत बड़ी सीमा तक उत्तरदायी हैं। सल्फेट,
ओजोन को सामान्य आक्सीजन में बदलने के लिए उत्प्रेरित करता है। सल्फेट ओजोन परत को
विनष्ट करने में CFC (क्लोरो फ्लोरो कार्बन) से ज्यादा उत्तदायी है।
वन-विनाश और ओजोन परत का क्षय : ओजोन परत के क्षय के लिए बनों के विनाश को भी उत्तरदायी
ठहराया जा रहा है। इसका कारण है कि वनों के विनाश के कारण अपेक्षित मात्रा में ऑक्सीजन
का निर्माण नहीं हो पाता जिसकी वजह से ओजोन-निर्माण में कमी आती जा रही है। वनों के
विनाश के कारण ओजोन परत का प्रत्यक्षतः क्षय तो नहीं होता है, परन्तु इसके कारण ओजोन
के निर्माण में होनेवाली कमी की वजह से उसकी परत की मोटाई अवश्य घटती चली जाती है।
अंतरिक्ष अनुसंधान और ओजोन परत का क्षय : ओजोन परत के हास के लिए बढ़ता हुआ अंतरिक्ष अनुतंत्रान
भी उत्तरदायी है। जब रॉकेट ओजोन परत के माध्यम से होकर गुजरते हैं तो वे उसको छिन्न-भिन्न
कर डालते हैं। स्काइलैव को जब सैटर्न-S द्वारा कक्षा में स्थापित किया गया तो ओजोन
परत (कवच) की 1800 कि.मी. व्यासवाली एक खिड़की (छिद्र) खुल गयी, जो डेढ़ घंटे बाद ही
भर सकी। अंतरिक्ष यान यदि इसी तरह ओजोन परत में पहुँचते रहे तो वे उसे पूरी तरह तहस-नहस
कर डालेंगे।
ओजोन-छिद्र
ओजोन मंडल में छिद्र (अपक्षय) सन् 1956-1970 ई. के दौरान अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत
की मोटाई 280 से 325 डोवसन इकाई थी (डोवसन इकाई (DU) = 1ppb)। सन् 1979 ई. में ओजोन
परत की मोटाई अचानक 225 DU तथा 1985 ई. में 136 DU रह गयी। सन् 1994 ई. में 94 DU रह
गयी। इसी ह्रास को पारिभाषिक शब्दावली में ओजोन छिद्र (Ozone Hole) कहा गया। इसके बारे
में 1985 ई. में पता चला। इस वर्ष अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत की मोटाई में कमी का
पता चला। 1980 ई. की तुलना में 1997-2001 तक ओजोन परत में 3 प्रतिशत की कमी हो गयी।
ध्रुवीय समतापमंडल बादल कम तापमान पर क्लोरीन को स्वतंत्र
क्रिया करने के लिए सतह (आधार) प्रदान करता है। इस सतह पर ओजोन ह्रास की क्रिया बहुत
तीव्र गति से होती है। सूर्य की रोशनी की उपस्थिति में तथा अंटार्कटिका, में बसन्त
की शुरूआत में बर्फ जमने के समय क्लोरीन ओजोन अणुओं पर आक्रमण करती है। फलस्वरूप अंटार्कटिका
में भी ओजोन परत का ह्रास शुरू हो जाता है। आर्कटिक समतापमंडल बसंत में जल्द गर्म और
जल्द ठंडा हो जाता है। सूर्य की रोशनी की क्रांतिक अतिव्याप्ति का समय कम हो जाता है।
सूर्य की रोशनी की अतिक्रांतिक अतिव्याप्ति की दीर्घ अवधि ओजोन की परत के ह्रास को
रोकती है। इस अवधि में कमी का अर्थ ओजोन परत के ह्रास में वृद्धि होना है।
शीत-ऋतु में ओजोन परत में अल्पता की घटना अधिक देखी जाती
है। उत्तरी यूरोप और अमेरिका में उत्तर शीतकाल तथा पूर्व बसंतकाल में ओजोन परत में
कमी आती है। आशंका व्यक्त की गयी है कि भविष्य में और अधिक छिद्र ओजोन परत में बनेंगे।
भारत में भी ओजोन क्षेत्र में कमी आयी है। ओजोन परत में ह्रास भारत में गम्भीर समस्याएँ
उत्पन्न करेगी।
ओजोन परत हास का प्रभाव और उसका संरक्षण
ओजोन
परत का ह्रास विश्व के लिए एक गम्भीर समस्या है। ओजोन परत के विनाश का अत्यन्त गम्भीर
और खतरनाक प्रभाव विश्व के समग्र पर्यावरण, पारिस्थितिकी तंत्र, मानव-जीवन एवं अन्य
जीव-जन्तुओं पर पड़ेगा। वैज्ञानिकों ने ऐसी सम्भावना व्यक्त की है। अतः ओजोन परत के
क्षय, ह्रास और विनाश के प्रभावों को ठीक से समझना आवश्यक है। इसके गम्भीर खतरों को
समझ लेने के बाद ही ओजोन परत की सुरक्षा के प्रति मनुष्य जागरुक बन सकेगा।
ओजोन
परत के ह्रास, विनाश और क्षय के प्रभावों/दुष्प्रभावों को निम्नलिखित उपशीर्षकों के
अन्तर्गत सम्यक रूप से समझा जा सकता है-
(1)
मनुष्य पर प्रभाव
(2)
जलवायविक प्रभाव
(3)
जैव-समुदाय पर प्रभाव और
(4)
पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव।
1.
मनुष्य पुर प्रभाव : ओजोन परत की अल्पता, क्षय,
विनाश अथवा ह्रास का सर्वाधिक प्रत्यक्ष कुपरिणाम अन्ततः उसी मनुष्य को भोगना पड़ेगा,
जिसने अपने कृत्यों द्वारा इसके क्षय और विनाश में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
ओजोन परत के छीजने या उसके क्षीण हो जाने से सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी-बी
(Ultra Violet-B) का विकिरण पृथ्वी तल पर पहुँच जायेगा और मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा
प्रभाव डालेगा। पराबैंगनी-बी विकिरण के कारण मनुष्य में दुःसाध्य और गम्भीर रोग उत्पन्न
होंगे। इसकी वजह से त्वचा कैंसर जैसी असाध्य बीमारी की चपेट में मानव समुदाय आ जायगा।
'डीएनए सेल' में उत्क्रमण के कारण मनुष्य का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जायेगा। अनेक प्रकार
के संक्रामक रोग उत्पन्न होंगे। तापमान में वृद्धि से लोगों का शारीरिक एवं मानसिक
विकास अवरूद्ध होगा। पृथ्वी पर पराबैंगनी किरणों की सांद्रता के कारण विषैले धूम्र-कुहरों
(smog) की बजह से मानव शरीर में श्वसन तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। विषाक्त धूम्र-कुहरा
फेफड़ों पर असर डालने वाला होता है, जिससे मानव शक्ति में ह्रास आयेगा। पराबैंगनी विकिरण
फसलों को भी नष्ट करेगा, जिससे खाद्य समस्या उत्पन्न होगी। सागर के तापमान में वृद्धि
होगी और मछलियाँ मरने लगेंगी।
2.
जलवायविक प्रभाव : ओजोन परत के क्षय या अल्पता
के कारण भूमण्डलीय ताप में अतिशय वृद्धि होगी। फलस्वरूप वायुमण्डल की तापीय दशाओं में
जटिल किस्म का बदलाव आयेगा। मानव जीवन और समस्त जैव-मण्डल तथा पर्यावरण को गम्भीर रूप
से प्रभावित करने वाले जलवायविक परिवर्तन होंगे। सूर्य से आनेवाली पराबैंगनी विकिरण
के अवशोषण की दर में बहुत अधिक कमी आ जायेगी। फलस्वरूप पर्यावरण प्रदूषण बढ़ेगा।
हिमनदियाँ पिघलेंगी। समुद्रों के जलस्तर में वृद्धि होगी।
सागर के तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे और उन इलाकों में बसे महानगरों का अस्तित्व
समाप्त हो जायेगा।
3. जैव-समुदाय पर प्रभाव : पराबैंगनी बी विकिरणों के अवशोषण में कमी आने के फलस्वरूप
ऊष्मा संतुलन में परिवर्तन के कारण वनस्पतियों एवं जीव-जन्तुओं पर कई प्रकार के दुष्प्रभाव
पड़ेंगे। तापमान में बढ़ोत्तरी से प्रकाश संश्लेषण, जल उपयोग क्षमता तथा पौधों की उत्पादकता
एवं उत्पादन में भारी कमी आ जायेगी। जिन फसलों में अधिक उत्पादन के लिए रासायनिक उर्वरकों
का उपयोग होता है, वे पराबैंगनी विकिरणों के कारण झुलस जायेंगी। तापमान में वृद्धि
से जलीय सतह तथा मिट्टियों की नमी में कमी हो जायेगी। फसलें सूखेंगी तथा खाद्योत्पादन
में भारी कमी हो जायेगी।
4. पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव : ओजोन परत के क्षय के कारण पारिस्थितिकीय संतुलन में गड़बड़ी
उत्पन्न होगी। पारिस्थितिकी तंत्र की समस्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। पारिस्थितिकी
तंत्र में परिवर्तन के कारण मनुष्य की शारीरिक संरचना (डीएनए आदि) में भी उलटफेर सम्भव
है। जैबमण्डल में भू-रसायन चक्र एवं जलीय चक्र में परिवर्तन होगा। फलस्वरूप जैविक संघटकों
में पोषक तत्त्वों के संचरण में व्यवधान आने से पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता और
उपादेयता भी घट जायेगी।
निष्कर्ष: यह निर्विवाद सत्य है कि समताप मण्डल में ओजोन की मोटी परत पृथ्वी, पर्यावरण
और जैवमण्डल के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है। ओजोन की मोटी परत सूर्य से निकलने
वाली पराबैंगनी-बी विकिरण को पृथ्वी पर आने से रोकती है अर्थात् वह स्वयं इन्हें सोख
(absorb) लेती है। इस प्रकार पौधे, पशु एवं मनुष्य पराबैंगनी-बी विकिरण के हानिकारक
प्रभावों की चपेट में आने से बच जाते हैं। वैज्ञानिक प्रेक्षणों (observation) के आधार
पर माना गया है कि पराबैगनी बी विकिरण जीवों के विवृत डीएनए (DNA) के सेल को क्षति
पहुँचाते हैं। इसके कारण शरीर की संरचना में उत्परिवर्तन होता है और त्वचा कैंसर का
रोग उत्पन्न होगा। ओजोन परत के विनाश के फलस्वरूप गम्भीर किस्म का प्रतिफल जलवायविक
परिवर्तन होगा। इसके कारण भूमण्डलीय ताप में भी वृद्धि होगी। हिमनदियाँ पिघलेंगी। समुद्र
का जलस्तर बढ़ेगा। तटवर्ती क्षेत्र जलमग्न होकर नष्ट हो जायेंगे। समतापमण्डलीय वायु
के निर्माण में भी इसके कारण रुकावट आयेगी। ओजोन परत का क्षय वनस्पतियों और समस्त जैवमण्डल
के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा। अतः इसके गम्भीर हानिकारक एवं विनाशकारी दुष्प्रभावों
को समझकर विश्व-मानव को तत्काल इसकी सुरक्षा के उपायों में जुट जाना चाहिए।
ओजोन परत की सुरक्षा की आवश्यकता और उपाय
ओजोन
परत की सुरक्षा की आवश्यकता : ओजोन परत का क्षय या विनाश
किसी एक देश को नुकसान पहुँचाने वाला नहीं है। इसका प्रभाव समस्त भूमण्डल, जैवमण्डल
और पर्यावरण पर पड़ेगा। इसका दुष्प्रभाव पूरी दुनिया के लिए एक जटिल समस्या बन जायेगा।
वैज्ञानिक अनुमानों के अनुसार ओजोन परत के विनाश के कारण सूर्य से विकिरित पराबैंगनी-बी विकिरण बेरोकटोक पृथ्वी तक पहुँच जायेंगे।
फलस्वरूप वे मनुष्यों में अनेक प्रकार की गम्भीर और लाइलाज बीमारियाँ उत्पन्न करेंगे।
इसके चलते वनों और वनस्पतियों का विनाश होगा। प्रतिकूल जलवायविक परिवर्तन होंगे। इस
परिवर्तन से मानव-सभ्यता के विनष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा। खाद्य-समस्या विकराल
बन जायेगी। मनुष्य एवं जीवों में अनेक विकृतियाँ और व्याधियाँ उत्पन्न होंगी। अतः समय
रहते ओजोन परत की सुरक्षा पर विश्व में गम्भीर विचार-विमर्श होना चाहिए और तत्काल सुरक्षात्मक
कदम उठाया जाना चाहिए।
ओजोन परत का क्षय किसी एक देश के लिए समस्या नहीं है। यह
समस्या सम्पूर्ण विश्व के लिए गम्भीर संकट है। अतः ओजोन परत की सुरक्षा का दायित्व
किसी एक देश का नहीं, सम्पूर्ण विश्व का है। यह ज्ञातव्य तथ्य है कि ओजोन परत के विनाश
में CFC (क्लोरो-फ्लोरो कार्बन) गैसों की बहुत बड़ी हिस्सेदारी है। इस समस्या के निदान
के लिए 1978 ई. में विश्व पर्यावरण सम्बन्धी संस्थाओं ने एरोसोल में क्लोरो-फ्लोरो
कार्बन गैसों के प्रयोग करने पर रोक लगा दी है। इस प्रतिबंध के बावजूद विश्व में लगभग
750 हजार टन गैस प्रति वर्ष वायुमण्डल में उत्सर्जित की जा रही हैं।
मॉण्ट्रियल मसौदा : ओजोन परत की समस्या सुलझाने के लिए 1987 ई. में मॉण्ट्रियल
में एक बैठक हुई, जिसमें एक मसौदे पर अन्तरराष्ट्रीय सहमति बनी। इस समझौते पर 33 देशों
ने हस्ताक्षर किये परन्तु इस पर भारत, चीन और ब्राजील ने हस्ताक्षर नहीं किये। अधिकांश
विकसित राष्ट्रों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये। इस समझौते के अनुसार क्लोरो-फ्लोरो
कार्बन के उत्पादन और उपयोग में निरंतर कमी लाते रहने पर विकसित राष्ट्रों ने सहमति
व्यक्त की थी और वायदा किया था कि 1999 ई. तक वे इसमें तीस प्रतिशत तक कमी लायेंगे।
विकासशील देश, यथा भारत, चीन और ब्राजील ने इस समझौते पर
इस तर्क के आधार पर हस्ताक्षर नहीं किया कि दुनिया के विकसित राष्ट्र CFC का जितना
उपयोग और उत्पादन करते हैं, उसमें से विश्व के कुल उत्पादन और उपयोग के 15% की हिस्सेदारी
ही विकासशील देशों की है। अतः विकसित राष्ट्रों को इन रसायनों के समतुल्य रसायनों के
उत्पादन के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करें और इसके लिए एक वित्तीय कोष की स्थापना करें।
ओजोन-सुरक्षा सम्मेलन : 1989 ई. में 118 देशों का तीन दिवसीय (5 से 7 मार्च तक)
एक 'ओजोन बचाओ सम्मेलन' लंदन में हुआ। इस सम्मेलन में भी 1987 ई. के 'मॉण्ट्रियल समझौते'
के कार्यान्वयन पर बल दिया गया। ओजोन की सुरक्षा के अन्य उपायों पर भी विचार-विमर्श
किया गया। ऐसी तकनीकों पर भी बातचीत हुई, जिसके उपयोग से वायुमंडल में नाइट्रिक और
क्लोरीन जैसी घातक गैसें बनने ही न पायें। वन की कटाई और सघन वृक्षारोपण पर भी चर्चा
हुई।
हेलेंसिकी सम्मेलन : 1990 ई. में हेलेंसिकी में विश्व पर्यावरण सम्मेलन हुआ।
इस सम्मेलन में ओजोन परत की सुरक्षा हेतु प्रभावशील कदम उठाने पर विचार-विमर्श किया
गया और तत्सम्बन्धी प्रस्ताव पारित किये गये।
इधर संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी जबावदेही से बचने के लिए
एक नया तर्क दिया है। उसका कहना है कि ओजोन परत का क्षय और छिद्र एक वास्तविकता है
या नहीं, इसकी पूरी जाँच की जरूरत है। मतलब यह है कि ओजोन परत को विनष्ट करने की अपनी
जबावदेही से बचने के लिए वह इस प्रकार की बहानेबाजी से भरा तर्क प्रस्तुत कर रहा है।
इसलिए वह टालमटोल की नीति अपना रहा है, परन्तु उसे यह भी समझना चाहिए कि यह समस्या
उसके लिए भी खतरे की घंटी बजा देगी।
पर्यावरणीय अध्ययन(Environmental Studies)