नाभिकीय दुर्घटना एवं विनाश (Nuclear Accident and Holocaust)
प्रश्न : नाभिकीय दुर्घटना से आप क्या समझते हैं? नाभिकीय दुर्घटना
के सम्भावित खतरों, विनाश और दुष्प्रभावों का वर्णन करें।
अथवा
नाभिकीय दुर्घटना और विनाश पर विचार करते हुए उससे बचाव के उपायों
का उल्लेख करें।
अथवा
सोदाहरण नाभिकीय दुर्घटना के परिणामों का उल्लेख करें और उससे
सुरक्षा के उपायों की चर्चा करें।
उत्तर:
परिमाण और ऊर्जा (mass-energy) समीकरण के अनुसार नाभिकीय अभिक्रिया (nuclear
reaction) के क्रम में जो ऊर्जा उन्मुक्त होती है, उसे नाभिकीय ऊर्जा कहा जाता है।
नाभिकीय ऊर्जा को उन्मुक्त करने की दो विधियाँ हैं-नाभिकीय विखण्डन (nuclear
fission) एवं नाभिकीय संलयन (fusion)। वाणिज्यिक रिएक्टरों में नाभिकीय ऊर्जा का
उत्पादन नियंत्रित नाभिकीय विखण्डन द्वारा किया जाता है। अब तक के ज्ञात ऊर्जा
स्रोतों और प्रकारों में नाभिकीय अथवा परमाणविक (atomic) ऊर्जा को सर्वाधिक
शक्तिशाली ऊर्जा माना जाता है। रेडियोएक्टिव पदार्थ की छोटी-सी मात्रा से अपार
नाभिकीय या परमाणविक ऊर्जा उत्पादित हो सकती है। उदाहरण के लिए, एक टन यूरेनियम से
तीन मिलियन टन कोयले अथवा बारह मिलियन बैरल खनिज तेल के समतुल्य ऊर्जा उत्पादित की
जा सकती है।
वर्तमान
समय में विश्व में विभिन्न उद्देश्यों से परमाणविक ऊर्जा का उपयोग बढ़ता चला जा
रहा है। परमाणविक ऊर्जा रिएक्टरों में उत्पादित की जाती हैं। परमाणु ऊर्जा का
उपयोग आग्नेयास्त्रों और युद्धात्रों में भी होता है। परमाणविक या नाभिकीय ऊर्जा
का वर्तमान समय में सर्वाधिक उपयोग विद्युत शक्ति के उत्पादन के निमित्त किया जा
रहा है। सम्प्रति विश्व के कुल उत्पादित विद्युत ऊर्जा का बीस प्रतिशत अंश
नियंत्रित नाभिकीय विखण्डन द्वारा उत्पादित किया जा रहा है। निकट भविष्य में इस
प्रतिशत में और भी वृद्धि होने की सम्भावना है। विश्व के प्रथम नाभिकीय ऊर्जा
संयंत्र की स्थापना 1957 ई. में युनाइटेड किंगडम में विद्युत ऊर्जा उत्पादन के
निमित्त कम्बरलैण्ड जिले के कॉलडर हिल में हुई थी। इस समय पूरे विश्व में 300
परमाणविक ऊर्जा संयंत्र ऊर्जा उत्पादन के कार्य में लगे हुए हैं।
संयुक्त
राज्य अमेरिका में सबसे अधिक 83 नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र काम कर रहे हैं। दूसरे
स्थान पर यूनाइटेड स्टेट ऑफ सोवियत रूस था, जहाँ 40 नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र कार्यरत
हैं। यूनाइटेड किंगडम में इनकी संख्या 35 है, जबकि फ्रांस में 34, जापान में 25,
जर्मनी में 5 और कनाडा में 13 हैं।
सम्पूर्ण
नाभिकीय चक्र में इसके विकिरणों के पर्यावरण में प्रवेश की प्रबल सम्भावना बनी
रहती है। नाभिकीय पदार्थों, यथा यूरेनियम के उत्खनन से लेकर उसके नियंत्रित
विखण्डन, उपयोग में लाये गये नाभिकीय ईंधन के पुनर्चक्रण, नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों
से उत्पादन का समापन, रेडियोएक्टिव कचरों के निपटान आदि के क्रम में अत्यधिक
मात्रा में नाभिकीय विकिरणों के पर्यावरण में प्रवेश करने की सम्भावना हर क्षण बनी
रहती है। यदि एक बार यह विकिरण पर्यावरण में प्रवेश कर जाता है तो उसका प्रभाव एक
हजार वर्ष से अधिक अवधि तक बना रह सकता है। मिट्टी में रेडियोएक्टिवों के विकिरणों
के दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन वैज्ञानिकों ने किया है। यद्यपि नाभिकीय
दुर्घटनाओं की सम्भावनाएँ अत्यन्त अल्प हैं, लेकिन यदि विश्व में कहीं भी किसी नाभिकीय संयंत्र में ऐसी दुर्घटना घट
जाती है तो इससे विश्व के अन्य नाभिकीय संयंत्रों के प्रभावित होने और उनके दुर्घटनाग्रस्त
होने की प्रबल सम्भावना हो सकती है। अब तक विश्व में दो नाभिकीय दुर्घटनाएँ घट चुकी
हैं, जिनमें से एक 'श्री माइल आइलैण्ड दुर्घटना' और दूसरी 'चेरनोबिल दुर्घटना' के नाम
से जानी जाती है।
28 मार्च, 1979 ई. को युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका में 'श्री
माइल नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र' में नाटकीय ढंग से दुर्घटना घटी। इस संयंत्र में दुर्घटना
के कारण रेडियो आइसोटोप तथा अत्यधिक मात्रा में विकिरण पर्यावरण में प्रविष्ट कर गया।
यह दुर्घटना संयंत्र की नाभिकीय सुविधा कार्यप्रणाली में गड़बड़ी के कारण घटी थी। यद्यपि
बायुमण्डल में पहुँची विकिरण की मात्रा बहुत कम कर आँकी गयी थी तथापि इससे होने वाली
हानियों की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। यह आकलन विषाक्त प्रभावों के अनुपात के
आधार पर किया गया था। इस दुर्घटना का सबसे बड़ा प्रभाव तो पेंसिलबानिया (जहाँ संयंत्र
स्थापित था) पर पड़ा था, जहाँ सीमातीत भय व्याप्त हो गया था। इस सीमातीत भय का सबसे
बड़ा कारण यह था कि पेंसिलवानिया इस दुर्घटना से बचाव के लिए कतई तैयार नहीं था।
ऐसी दूसरी दुर्घटना 28 अप्रैल, 1986 ई. में रूस स्थित चेरनोबिल
ऊर्जा संयंत्र में घटी। इस दुर्घटना के बाद सोवियत रूस ने विकिरण से 237 व्यक्तियों
के पीड़ित होने के समाचार की पुष्टि की तथा 37 पीड़ित व्यक्तियों की मृत्यु की भी पुष्टि
उसने की थी। रेडियोएक्टिव पदार्थ शताधिक वर्षों तक जमीन में बने रह सकते हैं और उनके
कुप्रभाव मनुष्यों तक भोजन और पीने के पानी के माध्यम से पहुँचते रह सकते हैं। अब तक
विश्व में छोटी-बड़ी दस नाभिकीय दुर्घटनाएँ घट चुकी हैं। चेरनोबिल की दुर्घटना न तो
पहली थी और न ही आखिरी।
नाभिकीय दुर्घटना का दुष्प्रभाव : नाभिकीय दुर्घटना के दुष्प्रभावों के बारे में अभी तक ठीक-ठीक
अनुमान नहीं लगाया जा सका है। पर उसके कुछ निम्मलिखित दुष्प्रभावों से हमारा परिचय
हो चुका है-
(1) नाभिकीय विकिरण सेल में डीएनए के रासायनिक बँधकों को
तोड़ डालता है। फलस्वरूप जीनीय बनावट और नियंत्रण प्रणाली प्रभावित हो सकती हैं। विकिरण
के प्रभाव तात्कालिक, दीर्घकालिक या विलम्बित रूप से दिखायी पड़ सकते या प्रकट हो सकते
हैं। इसका दुष्प्रभाव भविष्य की अनेक पीढ़ियों को प्रभावित कर सकता है।
(2) विकिरण की थोड़ी मात्रा तत्काल लोगों की मृत्यु का कारण
तो नहीं बनेगी किन्तु उससे लोगों में घुमड़ी, मितली जैसे लक्षण प्रकट हो सकते हैं।
सिर के बाल झड़ जा सकते हैं। तथापि इस तरह के विकिरण प्रभावों के उपचार सम्भव हैं।
(3) अधिक मात्रा वाले विकिरण से प्रभावित लोगों की अस्थि
मज्जा (bone marrow) प्रभावित हो सकती है। रक्त कणों में कमी आ सकती है। कीटाणुओं,
विषाणुओं से लड़ने की शारीरिक क्षमता में ह्रास आ सकता है। रक्त स्राव की स्थिति में
रक्त का थक्का बनना बंद हो सकता है। ऐसी स्थिति में अनवरत रक्त स्राव के कारण लोगों
की मृत्यु भी हो सकती है।
(4) उच्च विकिरण के कारण हृदय एवं मस्तिष्क के ऊतकों को क्षति
पहुँचने की वजह से जीवों की मृत्यु हो सकती है।
(5) नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र में लगातार काम करने वाले श्रमिकों
के शरीर रेडियोएक्टिव विकिरणों से प्रभावित हो जाते हैं। फलस्वरूप वे कैंसर एवं अन्य
दुःसाध्य बीमारियों से ग्रसित होकर अन्ततः मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे।
(6) खाद्य-श्रृंखला के माध्यम से भी लोगों ने रेडियोएक्टिव
विकिरणों के प्रभावों का अनुभव किया है।
रेडियोएक्टिव विकिरणों का दीर्घकालिक प्रभाव गम्भीर चिन्ता
का विषय है। इससे मनुष्य का भविष्य और उसकी सभ्यता तथा संस्कृति के विनष्ट होने का
भी संकट उत्पन्न हो सकता है। रेडियोएक्टिव विकिरणों के दुष्प्रभाव का जीवंत साक्षी
जापान है। सन् 1945 ई. में प्लुटोनियम निर्मित एक बम का परीक्षण विस्फोट 16 जुलाई को
मेक्सिको की मरुभूमि में किया गया था। जिस मीनार पर बम रखा गया था, वह मीनार गल गयी
और मरुभूमि की कई किलोमीटर तक की रेत भी पिघल गयी। इससे आँखों को चुधिया देनेवाला प्रकाश
उत्पन्न हुआ और कुछ समय के लिए बम विस्फोट के इस प्रकाश में सूर्य केवल एक पीली गेंद
की तरह ही दिखायी पड़ता रहा। परमाणु बम विस्फोट के इस प्रभाव को देखकर वैज्ञानिकों
ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के विरुद्ध परमाणु बम के प्रयोग का विरोध किया था,
परन्तु अमेरिका नहीं माना और उसने 6 अगस्त, 1945 ई. ई. को यूरेनियम निर्मित बम जापान
के हिरोशिमा नगर पर बरसा ही दिया। प्लुटोनियम निर्मित बम, उसके तीन दिन बाद नागासाकी
पर गिरा दिये गये। जापान के ये दोनों नगर मरुभूमि बन गये। विस्फोट से उत्सर्जित अतिशय
ताप के कारण बहुत से लोग झुलस गये या झुलस कर मर गये।
यूरेनियम की खदानों में काम करने वाले श्रमिकों को फेफड़े
के कैंसर से पीड़ित पाया गया है। घड़ी के कारखानों में घड़ी की चमकीली रंगाई करने वाली
महिला श्रमिकों को भी फेफड़े के कैंसर हो जाते हैं। ब्रशों को नोकदार बनाने के लिए
उनकी नोक मुँह में डाल लेने के कारण पेंट में विद्यमान रेडियम मुँह के माध्यम से उनके
पेट में चला जाता है। फलस्वरूप या तो वे रक्ताल्पता की शिकार होती हैं या अस्थि कैंसर
से पीडित होकर मर जाती हैं।
हाल-फिलहाल में नाभिकीय ऊर्जा के उपयोग के विरुद्ध विश्व
के देशों में गंभीर विचार-मंथन प्रारम्भ हुआ है। चेरनोबिल दुर्घटना के बाद अनेक यूरोपीय
देशों ने ऊर्जा उत्पादन के लिए नाभिकीय उपयोग पर पुनर्विचार प्रारम्भ कर दिया है।
1978 ई. के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में नये नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण
या स्थापना का कोई नया आदेश नहीं दिया गया है। फिर भी, विश्व में नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों
की छोटी-छोटी इकाइयों के निर्माण आदि से सम्बन्धित अनुसंधान कार्यों में लगातार बढ़ोत्तरी
ही होती गयी है। इस क्रम पर अब तक विराम नहीं लगा है। नाभिकीय ऊर्जा सयंत्रों की स्थापना
और निर्माण के पक्षधरों का तर्क है कि,
(i) नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों से कार्बन डॉयऑक्साइड गैस नहीं
निकलती। अतः अन्य संयंत्रों से इस गैस के निकलने के कारण जिस भूमण्डलीय ताप वृद्धि
की आशंका प्रबल बनी रहती है, वह आशंका नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना से पूर्णतः
निर्मूल हो जाती है।
(ii) नाभिकीय ऊर्जा से वायु प्रदूषण एवं अम्लीय वर्षा का
खतरा भी समाप्त हो जाता है।
लेकिन, जो लोग नाभिकीय ऊर्जा के उपयोग का विरोध कर रहे हैं
उनका तर्क है कि यदि चेरनोबील नाभिकीय दुर्घटना से बड़ी कोई दुर्घटना असावधानीवश घट
गयी तो इसका अत्यन्त भयावह परिणाम पृथ्वी एवं पृथ्वीवासियों को भोगना पड़ेगा। इस तरह
की दुर्घटनाओं के कारण पृथ्वी पर लम्बी शीत ऋतु का आगमन होगा। गणितीय एवं कम्प्यूटरीय
गणना के आधार पर सम्भावना व्यक्त की गयी है कि यदि कभी विश्व में थर्मोन्यूक्लीयर युद्ध
छिड़ता है तो पृथ्वी पर भयावह आग लगेगी। अत्यधिक मात्रा में धूलि पृथ्वी से उड़कर आकाश
में पहुँच जायेगी। फलस्वरूप महीनों क्या, वर्षों तक पृथ्वी और आकाश अंधकार से आच्छन्न
बना रहेगा। तापमान में बहुत भारी गिरावट आ जायेगी। पृथ्वी के अधिकांश क्षेत्रों में
जल के हिमीकरण के बिन्दु तक तापमान में गिरावट आ जायेगी। इसकी वजह से वनस्पतियों का
विकास अवरुद्ध हो जायेगा और पृथ्वी पर से होमो सैप्यिन (मानव) प्रजाति विलुप्त हो जायेगी।
नाभिकीय दुर्घटना रोकने के लिए सुरक्षात्मक उपाय नाभिकीय
रिएक्टरों में रिसावरोधी यंत्र, उपकरण एवं प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए और इनके रखरखाव
पर समुचित ध्यान देते हुए इनके सफलतापूर्वक काम करने की सुनिश्चितता भी होनी चाहिए।
रेडियो एक्टिव ईंधनों आदि के परिवहन, संचालन एवं उपयोग में
सतर्कता बरती जानी चाहिए। इस काम में किसी प्रकार की लापरवाही प्रतिबन्धित होनी चाहिए।
ऊर्जा संयंत्रों के कचरों को उपचारित (treatment) करने के बाद ही उसका निपटान
(disposal) किया जाना चाहिए। रिएक्टर संयंत्रों की स्थापना आबादी से बहुत दूर निर्जन
स्थानों पर की जानी चाहिए। नाभिकीय दुर्घटना की सम्भावना को निर्मूल करने के लिए सुरक्षा
सम्बन्धी नियमों का पालन कठोरता पूर्वक किया जाना चाहिए।
पर्यावरण संरक्षण : राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य
पर्यावरण संरक्षण के अन्तरराष्ट्रीय प्रयास
पृष्ठभूमि: पर्यावरण संरक्षण का अर्थ प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा
एवं पृथ्वी के अस्तित्व को बचाये रखने के प्रयास और उपाय हैं। पर्यावरण संरक्षण की
दिशा में राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय प्रयासों का शुभारंभ 1967 ई. में हुआ। इसी वर्ष
सर्वप्रथम पर्यावरण संक्षण के लिए बाह्य अंतरिक्ष सन्धि का प्रस्ताव पारित हुआ। इसके
बाद 1972 ई. में 5 जून से 12 जून तक स्टॉकहोम (स्वीडन की राजधानी) में संयुक्त राष्ट्र
(United Nation) के तत्वावधान में पर्यावरण सम्बन्धी एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन 'मानव
पर्यावरण सम्मेलन' (Human Environmental Conference) आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में
119 देशों ने भाग लिया था और उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में अनेक प्रस्ताव
पारित किये। 5 जून 1972 ई. को 'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम' (United
Nations Environmental Programme UNEP) की स्थापना की गयी। इस तिथि को 'विश्व पर्यावरण
दिवस' (World Environment Day) घोषित करने का प्रस्ताव पारित हुआ। उक्त सम्मेलन का
उद्देश्य राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण एवं सुधार निमित्त
उपायों एवं समाधानों को खोजना था। इस सम्मेलन का एक उद्देश्य अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं
को बिश्व-निर्देश देना भी था। इसी सम्मेलन में सर्वप्रथम 'एक ही पृथ्वी' का सिद्धान्त
सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। इसी सम्मेलन की कोख से 'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण
कार्यक्रम' का जन्म हुआ।
मानव पर्यावरण सम्मेलन, स्टॉकहोम, 1972 ई. में विश्व के देशों
ने एक संयुक्त घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किया। इस घोषणा पत्र को 'स्टॉकहोम घोषणा पत्र,
1972' कहा गया। इस घोषणापत्र में 26 सैद्धान्तिक प्रस्ताव पारित किये गये, जिनमें से
कुछ मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. इस घोषणा पत्र में मानवीय पर्यावरण घोषणाओं पर हस्ताक्षर
हुए। यह घोषणा मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 1948 ई. (Charter of Human
Rights 1948) के समकक्ष मानी जाती है।
2. इस घोषणापत्र में एक कार्ययोजना की अनुशंसा भी की गयी
थी जिसे 'विश्व पर्यावरण निर्धारण कार्यक्रम' (Global Environment Assessment
Programme) नाम दिया गया।
3. इसी सम्मेलन में प्रति वर्ष 5 जून को 'विश्व पर्यावरण
दिवस' मनाने का संकल्प लिया गया। इस संकल्प को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी अंगीकार
कर लिया।
4. इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अन्तर्गत पर्यावरण
सम्बन्धी समस्याओं के निराकरण के लिए एक शासी परिषद (Governing Council for
Environment Programme) की स्थापना का भी निर्णय लिया गया, जिसे संक्षेप में 'यूनेप'
(UNEP) कहा गया।
5. इस सम्मेलन में एक 'पर्यावरण सचिवालय' स्थापित करने की
भी संस्तुति की गयी। इस सचिवालय को संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित
करने, विश्व वैज्ञानिक सहयोग प्राप्त करने, अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं को परामर्श देने
के लिए तथा संयुक्त राष्ट्र कार्यवाही के लिए योजना प्रस्तुत करने का दायित्व सौंपने
का निश्चय किया गया।
इन प्राथमिक प्रयासों के बाद विश्व में अन्तरराष्ट्रीय स्तर
पर पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित अनेक सम्मेलनों का आयोजन किया गया। इन सम्मेलनों
का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है-
1. हैबिटैट सम्मेलन (Habitat Conference) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम
(UNEP) द्वारा 1976 ई. में 'हेविटैट सम्मेलन' आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में घोषणा
की गयी कि जैवमण्डल और महासागरों को प्रदूषण से बचाने के संगठित प्रयास किये जाने चाहिए।
सभी प्रकार के पर्यावरणीय संसाधनों के अनुचित विदोहन (exploitation) को समाप्त करने
के लिए सभी देशों को मिलकर संयुक्त प्रयास करना चाहिए।
2. नैरोबी सम्मेलन : परिषद द्वारा मरुस्थल के विस्तार की प्रवृत्ति (मरुस्थलीकरण
प्रवृत्ति) को रोकने एवं नियंत्रित करने के लिए नैरोबी में एक सम्मेलन 1977 ई. में
आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में भी एक कार्ययोजना पर हस्ताक्षर हुए।
3. व्यापक मध्यम अवधि पर्यावरण कार्यक्रम प्रणाली : परिषद के प्रयासों से 1982 ई. में पर्यावरण कार्यक्रमों
के बारे में संयुक्त राष्ट्र अधिशासी परिषद के साथ समुचित सामंजस्य स्थापित करने के
लिए 'व्यापक मध्यम-अवधि पर्यावरण कार्यक्रम प्रणाली' (The System Wide Medium-Term
Environment Programme) विकसित की गयी।
4. नैरोबी योजना पत्र : नैरोबी योजना पत्र पर 18 मई, 1982 ई. को हस्ताक्षर हुए।
इस घोषणा पत्र में यह बात पुनः दुहरायी गयी कि स्टॉकहोम घोषणा, 1977 के सिद्धान्त आज
भी प्रासंगिक हैं तथा उनके अनुरूप कार्यक्रमों को कार्यन्वित करने की आवश्यकता बनी
हुई है।
5. यूनेप का अगला कदम : यूनेप की अगली महत्त्वपूर्ण उपलब्धि ओजोन परत संरक्षण
के विषय में थी, जिसके फलस्वरूप ओजोन परत 'वियना कन्वेंशन, 1985,' की नींव पड़ी।
ओजोन परत संरक्षण 'वियना कन्वेंशन, 1985 ई.' (The Viena Convention for the Protection of Ozone
Layer 1985): सन् 1983 ई. में ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने दक्षिण ध्रुव के ऊपर ओजोन परत
में छिद्र का पता लगाया। इसके दो वर्षों के बाद सन् 1985ई. में 'ओजोन परत संरक्षण विधना
कन्वेंशन' का आयोजन हुआ, जिसमें पारित प्रस्तावों पर विश्व के देशों के प्रतिनिधियों
ने हस्ताक्षर किये। इस कन्वेंशन का आयोजन यूएनईपी के तत्वावधान में हुआ था। इस कन्वेंशन
में ओजोन परत के संरक्षण की दिशा में प्रथम अन्तरराष्ट्रीय समझौता हुआ। इस समझौते को
22 मार्च, 1985 ई. को स्वीकार किया गया।
इस कन्वेंशन का मुख्य उद्देश्य विश्व में देशों द्वारा समतापमण्डलीय
ओजोन परत के संरक्षणार्थ कन्वेंशन के माध्यम से देशों को अन्तरराष्ट्रीय विधिक संरचना
(International Legal Frame-Work) प्रदान करना था।
माण्ट्रियल संलेख (Montreal Protocol, 1987 ई.): ओजोन परत संरक्षण की प्रक्रिया
को व्यापक तथा सफल बनाने के उद्देश्य से 16 सितम्बर, 1987 ई. को इस संलेख
(protocol) पर 56 देशों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किया। यह संलेख 1989 ई. से प्रभावी
हुआ।
'माण्ट्रियल संलेख' के एक उपबन्ध के अनुसार विश्व के देशों
के समक्ष 1998 ई. तक क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन
के उपभोग में 50 प्रतिशत तक की कटौती करने का लक्ष्य रखा गया था। माष्ट्रियल संधि के
संलेख का लागू होना संदिग्ध लगता है क्योंकि इस संधि को विश्व के विकसित देशों ने अपने
हितों और स्वार्थों के अनुकूल तैयार किया था तथा इसमें विकासशील और अविकसित देशों के
हितों की पूर्णतः उपेक्षा की गयी थी। इसलिए विकासशील देशों ने इस सन्धि का विरोध किया
और उस पर हस्ताक्षर नहीं किये। इस सन्धि के विरोध करने वालों में भारत, चीन और ब्राजील
आदि देश प्रमुख हैं। भारत ने इस सन्धि के विरोध में अपना पक्ष रखते हुए यह कहा कि इस
सन्धि में विकसित और विकासशील देशों के बीच विभेद किया गया है। विकासशील देशों द्वारा
इस सन्धि को मान लेने, अर्थात् क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन के उपयोग को एकाएक प्रतिबन्धित
कर देने से, उनके हितों और विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। दूसरी ओर यह संधि-संलेख
विकसित देशों को उनकी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने की अनुमति प्रदान करता है।
अतः भारत ने इस सन्धि-संलेख को मान लेने से होने वाली हानि के बदले 2 खरब डॉलर की क्षतिपूर्ति
राशि की माँग की। भारत का एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह भी था कि भारत में क्लोरो-फ्लोरो
कार्बन का उपभोग मात्र 30 ग्राम है जबकि विकसित देशों में इसकी औसत उपभोग दर 1000 ग्राम
है। एक अनुमान के अनुसार ओजोन परत को क्षति पहुँचाने का विकसित एवं विकासशील देशों
के बीच का अनुपात 19:1 है।
हेग घोषणापत्र, 1989 ई. नीदरलैण्ड की राजधानी हेग में 11 मार्च, 1989 ई. को 24 देशों
के प्रतिनिधियों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले
देशों में भारत, जापान, इटली, फ्रांस, स्पेन, नीदरलैण्ड और हगरी प्रमुख थे। इस घोषणापत्र
के प्रावधान के अनुसार, ऐसे देशों को विशेष आर्थिक सहायता (पैकेज) देने का वचन दिया
गया जिन्हें पर्यावरण संरक्षण के लिए असाधारण एवं विशेष आर्थिक बोझ उठाना पड़ रहा है।
इसी उद्देश्य की पूर्ति में एवं पर्यावरण के प्रति जागरुकता फैलाने के उद्देश्य से
भारतवर्ष में प्रत्येक वर्ष 16 सितम्बर को 'ओजोन परत संरक्षण दिवस' मनाया जाता है।
पृथ्वी सम्मेलन, 1992 ई. विश्व पर्यावरण के संरक्षण हेतु बढ़ते प्रयासों की दृष्टि
से 1992 ई. में ब्राजील के प्रमुख नगर रियो डि जेनरो में एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन
आयोजित हुआ। इस शिखर सम्मेलन को आयोजकों ने 'पृथ्वी सम्मेलन' नाम दिया था। यह सम्मेलन
3 जून से 14 जून तक चला। इस सम्मेलन में प्रतिभागी देशों की संख्या 183 थी। 'पृथ्वी
सम्मेलन' में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पारित हुए और प्रतिभागी देशों के बीच इन प्रस्तावों
पर सर्वमान्य सहमति बनी। इस सहमति को इस सम्मेलन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता
है। सम्मेलन की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं-
1.
कार्यवृत्त संख्या-21 (Agenda-21): एजेण्डा 21 लगभग
900 पृष्ठ का एक अन्तरराष्ट्रीय संलेख (दस्तावेज) है। इस दस्तावेज पर 182 राज्यों के
प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से हस्ताक्षर किया। इस ऐजेण्डा को सतत् विकास की एक ऐसी
व्यापक कार्य-योजना कहा जा सकता है, जिसमें पर्यावरण के बारे में भावी योजनाओं का उल्लेख
है। गह एजेण्डा पारिस्थितिकी विनाश एवं आर्थिक असमानता दूर करने के लिए कार्यक्रमों
का उल्लेख करता है। इस एजेण्डे में सम्मिलित कुछ प्रमुख विषय निम्नलिखित हैं-
निर्धनता,
स्वास्थ्य, वित्तीय संसाधन, उपभोग के ढंग, मानवीय व्यवस्थापन, प्रौद्योगिकी अन्तरण,
ऊर्जा, जलवायु तथा पर्यावरण एवं विकास। इस सम्मेलन के संकल्प या प्रस्ताव को मानने
की विधिक बाध्यता हस्ताक्षर करने वाले देशों के लिए नहीं है परन्तु प्रतिभागी देशों
ने इसके प्रति गहरी राजनीतिक प्रतिबद्धता अभिव्यक्त की है। प्रतिभागी राष्ट्रों से
इस एजेण्डे में अपेक्षा की गयी है कि वे अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों को, इस एजेण्डे
के कार्यक्रमों को ध्यान में रखकर बनाने का प्रयास करें।
2.
रियो-घोषणा (Rio-Declaration): 'रियो-घोषणा' राज्यों के बीच
नये-नये स्तर के सहयोग के माध्मय से नयी एवं सामयिक विश्व स्तरीय व्यवस्था को स्थापित
करने के लिए की गयी। इस घोषणा पर भी पृथ्वी सम्मेलन के प्रतिभागी 182 देशों ने हस्ताक्षर
किये थे। इस घोषणा में पर्यावरण संरक्षण के लिए अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की प्रतिबद्धता
की बात प्रमुख है।
3.
जलवायु परिवर्तन कन्वेशन, 1992 ई. (U. N. Convention
on Climate Change, 1992): ओजोन परत की क्षीणता एवं विश्वव्यापी तापमान के खतरे को
देखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव द्वारा न्यूयार्क में 9 मई, 1992
ई. को जलवायु परिवर्तन कन्वेंशन स्वीकार किया गया।
इस
कन्वेंशन का मुख्य उद्देश्य कार्बन डॉय ऑक्साइड, मीथेन तथा मानव निर्मित ऐसी अन्य गैसों
के उत्सर्जन को रोकना था, जो 'ग्रीन हाउस' प्रभाव उत्पन्न करके वातावरण के ताप में
वृद्धि करती हैं।
पचास
राष्ट्रों के अनुसमर्थन के बाद संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में 21 मार्च, 1994 ई. से
लागू होकर यह अन्तरराष्ट्रीय विधि का अंग बन गया।
4.
जैविकीय विविधता कन्वेंशन, 1992 ई. (Convention on
Bio-diversity 1992): इस कन्वेंशन का उद्देश्य पृथ्वी पर विद्यमान वानस्पतिक एवं प्राणिक
विविधता के संरक्षण हेतु अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करना है। 29 दिसम्बर, 1993
ई. को 30 देशों के अनुसमर्थन के बाद इसे लागू कर दिया गया और उसी तिथि से यह अन्तर्राष्ट्रीय
विधि का अंग बन गया।
संयुक्त
राष्ट्र द्वितीय हैबिटेट सम्मेलन, 1996 ई.
(United Nations Conference on Human Settlement 1996) तुर्की के नगर इस्ताम्बुल में
3 जून, 1996 ई. को आयोजित इस सम्मेलन में यह स्वीकार किया गया कि यह अन्तिम दस्तावेज
हैबिटेट एजेण्डा (Habitat Agenda) के नाम से जाना जायेगा। इस एजेण्डा के द्वारा 21
वीं शताब्दी के पहले के दो दशकों में विश्व के सभी गाँवों, नगरों एवं उपनगरों के समुचित
विकास के लिए सभी स्तरों पर कार्रवाई एवं मार्गदर्शन की अपेक्षा की गयी है।
विश्व
जलवायु (परिवर्तन सम्मेलन) जलवायु परिवर्तन पर गम्भीर
विचार-विमर्श का आरम्भ 1979 ई. में हुआ। 1988 ई. में 'इण्टर गवर्नमेण्टल पैनल ऑन क्लाइमेट
चेंज' नामक संस्था की स्थापना हुई। 1991 ई. में 'फ्रेम-वर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज'
की स्थापना हुई। 1997 ई. में इस संस्था के एक सम्मेलन का आयोजन जापान के क्योटो नगर
में हुआ। इन सभी सम्मेलनों और संस्थाओं का उद्देश्य पर्यावरण में ग्रीन हाउस सान्द्रता
को स्थिर रखने के समयबद्ध कार्यक्रमों पर बल देना था। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धित एक महत्त्वपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय सन्धि 2001 ई. में जर्मनी
की राजधानी बॉन में हुई। इस सन्धि में क्योटो समझौते के कार्यान्वयन के लिए व्यापक
आधार तैयार किया गया। विश्व के ताप को बढाने के लिए उत्तरदायी ग्रीन हाउस गैसों के
उत्सर्जन के नियंत्रण के लिए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर समझौता हुआ। किन्तु इस सन्धि का
विरोध अनेक विकासशील देशों ने किया है। विकासशील देशों ने क्योटो सम्मेलन के प्रस्तावों
को भी स्वीकार नहीं किया था। अमेरिकी प्रशासन ने भी इस सन्धि को अभी तक स्वीकार नहीं
किया है।
भारतीय संविधान और पर्यावरण
भारत में पर्यावरण की संवैधानिक स्थिति एवं उसके संरक्षण
के प्रयास
भारत के संविधान में पर्यावरण के संकट एवं उसकी सुरक्षा से
सम्बन्धित कोई सीधा-सीधा प्रावधान तो नहीं किया गया है लेकिन संविधान की उद्देशिका,
मूल अधिकारों के अनुच्छेदों एवं राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों के अन्तर्गत कुछ ऐसे
प्रावधानों एवं व्यवस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं, जिनको आधार बनाकर पर्यावरण सुरक्षा
से जुड़े प्रश्नों पर न्यायालयों में वाद दायर किया जाता रहा और न्यायालयों द्वारा
जनहित से जुड़े पर्यावरण सुरक्षा सम्बन्धी न्याय के निर्देश भी प्राप्त होते रहे हैं।
शनैः शनैः पर्यावरण संकट की समस्या ज्यों-ज्यों गहराती गयी, त्यों-त्यों उसकी ओर प्रतिनिधियों,
सरकार, संस्थाओं और नागरिकों का ध्यान आकृष्ट होता गया। पर्यावरण संकट के प्रति बढ़ती
जागरुकता के जन-दबाव से प्रेरित होकर स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी पर्यावरण संरक्षण
के विविध क्षेत्रों से सम्बन्धित अनेक कानून और अधिनियम बनाये। भारत में पर्यावरण की
अद्यतन संवैधानिक स्थिति का एक संक्षिप्त ब्योरा यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-
1. संविधान की उद्देशिका (Preamble) में पर्यावरण संरक्षण
सम्बन्धी प्रावधान
: यद्यपि
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण के बारे में कुछ भी नहीं
कहा गया है तथापि इसमें जिस 'समाजवादी' राज्य की स्थापना की बात कही गयी है, वह तभी
संभव हो सकती है जब देश के सभी नागरिकों का जीवन-स्तर एक समान ऊँचा उठे। इस प्रकार
के जीवन-स्तर के उन्नयन में स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित पर्यावरण की विशेष भूमिका होगी।
2.
संविधान के मूल अधिकारों (Fundamental Rights) में पर्यावरण संरक्षण
: गद्यपि भारतीय संविधान के भाग-3 में वर्णित मूलाधिकारों के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण
के विषय में कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता तथापि अप्रत्यक्ष रूप से मूलाधिकारों
की कुछ धाराओं के अन्तर्गत पर्यावरण को भी समाहित कर लिया गया है। उदाहरणार्थ, अनुच्छेद-14
में वर्णित समानता के अधिकार में जो प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, उनका सम्बन्ध पर्यावरण
संरक्षण से है। इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता
के अन्तर्गत न्यायिक निर्णयों में धूम्र-पान से बचाव को भी शामिल किया गया है।
3.
संविधान के राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों
(Elements of Directive of State principles) में पर्यावरण संरक्षण और राज्यों का दौयित्व
संविधान के अनुच्छेद-47 तथा 48-A पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित हैं। अनुच्छेद-47 राज्य
को मादक पेयों और हानिकारक औषधियों के उपयोग को कुछ अपवादों के साथ रोकने का निर्देश
देता है। इसी प्रकार अनुच्छेद 48-A कहता है कि राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन,
वन तथा बन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।
संविधान
में पहले केवल मूल अधिकारों की व्यवस्था थी किन्तु आगे चलकर 42वें संशोधन के माध्यम
से उसमें मूल कर्त्तव्यों (Fundamental Duties) को भी जोड़ दिया गया। संविधान के मूल
कर्तव्यों में पर्यावरण संरक्षण स्पष्ट रूप से सन्निहित है। अतः पर्यावरण संरक्षण की
दृष्टि से इन कर्तव्यों का अत्यधिक महत्त्व है। ये कर्तव्य पर्यावरण-संरक्षण सम्बन्धी
संवैधानिक स्थिति को सुदृढ बनाते हैं। अतः यहाँ इनका भी उल्लेख किया जा रहा है-
मूल
कर्त्तव्यों के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण :
संविधान
का अनुच्छेद 51-A (G) कहता है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह-
(i)
प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे।
(ii)
प्राकृतिक पर्यावरण का संवर्धन करे।
(iii)
जैव एवं प्राणियों के प्रति दया करे।
यहाँ
'प्राकृतिक पर्यावरण' में प्राकृतिक तथा कृत्रिम दोनों प्रकार के वातावरण सम्मिलित
हैं। इस अनुच्छेद में जिस कर्त्तव्य का उल्लेख किया गया है, उसकी पूर्ति तभी सम्भव
है जब पर्यावरण सुरक्षित रहे, उसमें किसी प्रकार का प्रदूषण न हो। संसद इस कर्तव्य
का पालन करने के लिए उपयुक्त विधायन की व्यवस्था भी कर सकती है। संसद ने इसी भावना
से प्रेरित होकर अनुच्छेद-253 की शक्ति से वायु प्रदूषण अधिनियम, 1981 ई., पर्यावरण
(संरक्षण) अधिनियम, 1986 ई. अधिनियमित किये हैं।
भारतीय
दण्ड संहिता और पर्यावरण :
भारतीय
दण्ड संहिता (Indian Penal Code): 1860 ई. के अध्याय 14 में, लोक स्वास्थ्य, क्षेत्र,
सुविधा, शिष्टता और सदाचार पर प्रभाव डालने वाले अपराधों के विषय में उपबन्ध किया गया
है। इसके उल्लंघन पर 6 माह का कारावास या अर्थदण्ड (जुर्माना) अथवा दोनों की व्यवस्था
की गयी है।
दण्ड
प्रक्रिया संहिता और पर्यावरण दण्ड प्रक्रिया संहिता,
1973 ई. का अध्याय-10 लोक व्यवस्था एवं शान्ति बनाये रखने के लिए उपबन्ध करता है। इसमें
धारा-133 से लेकर 144 तक पब्लिक न्यूसेंस (लोक उपद्रव) का उल्लेख है, जो पर्यावरण से
सम्बन्धित है।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 ई.
संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा 1972 ई. में आयोजित 'मानव पर्यावरण
सम्मेलन (स्टॉकहोम)' में पारित प्रस्तावों और संकल्पों के आलोक में भारत (सरकार) ने
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 ई. एवं पर्यावरण (संरक्षण) नियमावली, 1986 ई. बनाया।
यह अधिनियम एक सामान्य अधिनियम है, जो केन्द्र सरकार को पर्यावरण प्रदूषण के निवारण,
नियंत्रण एवं उसमें कमी लाने की शक्ति प्रदान करता है। इस अधिनियम के प्रभावकारी कार्यान्वयन
के लिए इस कानून के अनेक प्रावधानों में समय-समय पर विभिन्न प्रकार के संशोधन किये
गये। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
अधिनियम के उद्देश्य इस अधिनियम के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित
हैं-
(1) पर्यावरण में सुधार और उसका संरक्षण।
(2) जीवों (वनस्पति, पशु एवं मनुष्य) एवं सम्पत्ति को पर्यावरणिक
संकटों से बचाना।
(3) मनुष्य एवं पर्यावरण के बीच सम्यक सम्बन्धों की स्थापना
एवं उसका निर्वहन।
अधिनियम में प्रयुक्त प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली
1. पर्यावरण: इस अधिनियम के अनुसार पर्यावरण में जल, वायु एवं पृथ्वी
तथा जल, वायु, पृथ्वी, मनुष्य, अन्य जीव-जंतु, वनस्पतियाँ, सूक्ष्म जीवाणु एवं सम्पत्ति
आदि के अन्तर्सम्बन्ध।
2. पर्यावरण प्रदूषक: इस अधिनियम के अनुसार पर्यावरण में किसी प्रकार के ठोस,
तरल या गैसीय पदार्थ की क्षतिकारक सीमा तक की उपस्थिति की गणना प्रदूषकों में की गयी
है।
3. पर्यावरण प्रदूषण: पर्यावरण प्रदूषण का अभिप्राय पर्यावरण में प्रदूषक पदार्थों
की विद्यमानता है।
4. संकटकारक पदार्थ : संकटकारक (संकट उत्पन्न करने वाले) पदार्थ से अभिप्राय वैसे
पदार्थों से है, जो मनुष्य, जीव-जन्तुओं, सम्पत्ति या पर्यावरण को क्षति (या हानि)
पहुँचाते हों।
5. संकटकारक पदार्थों : का संचालन इस अधिनियम में रासायनिक एवं शारीरिक रसायनों
(physio chemical) के निर्माण, प्रक्रिया, भंडारण, ढुलाई, प्रयोग, एकत्रीकरण, विनाश
(नष्टीकरण), परिवर्तन, विक्रय, पैकेज, प्रबन्धन अथवा उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना
ही 'संकटकारक पदार्थों का संचालन' (handling of hazardous substances) कहा गया है।
अधिनियम के मुख्य प्रावधान
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 ई. में पर्यावरण प्रदूषण
की कमी लाने एवं उसके निवारण और नियंत्रण के लिए निम्नलिखित प्रावधान उपबंधित किये
गये हैं-
(1)
अधिनियम की धारा 7.1 के अनुसार, उद्योगों को संचालित
करने अथवा उसकी प्रक्रिया में संलिप्त किसी भी व्यक्ति को मान्य (मानक) स्तर से अधिक
किसी भी प्रदूषक को पर्यावरण में उत्सर्जित अथवा निस्तारित करने की अनुमति नहीं होगी।
(2)
धारा 8.2 के अनुसार, मान्य (मानक) कार्यविधिक
और सुरक्षात्मक उपायों के अवलम्बन के बिना, किसी भी व्यक्ति को पर्यावरण के लिए संकट
उत्पन्न करने वाले पदार्थों को लाने अथवा ले जाने की अनुमति नहीं होगी।
(3)
धारा 9.3 के अनुसार, पर्यावरण प्रदूषण को कम करना
अथवा पर्यावरण प्रदूषण से सम्बन्धित किसी घटना की जानकारी सम्बन्धित अधिकारी को देना
तथा प्रदूषण को कम करने में सहायता पहुँचाना प्रत्येक नागरिक का दायित्व है।
(4)
धारा 10 के अनुसार, इस अधिनियम में सौंपे गये
कार्यों एवं दायित्वों के निर्वहन हेतु केन्द्र सरकार एवं इसके अधिकारियों को किसी
भी स्थान में प्रवेश करने एवं उसके निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है।
(5)
धारा 11 के अनुसार, इस अधिनियम में विहित कार्यविधिक
के अधीन केन्द्र सरकार और उसके अधिकारी को, किसी फैक्ट्री या स्थान से वायु, जल, मिट्टी
एवं पदार्थ के नमूनों के संग्रह का अधिकार, उनके विश्लेषण के निमित्त प्राप्त है।
(6)
धारा 12 के अनुसार, केन्द्र सरकार को पर्यावरणिक
प्रयोगशालाओं को स्थापित करने अथवा प्रयोगशालाओं या संस्थाओं को पर्यावरणिक प्रयोगशाला
के रूप में प्रस्वीकृति प्रदान करने का अधिकार प्राप्त है।
(7)
धारा 13 के अनुसार, वायु, जल, मृदा या पदार्थों
के नमूनों की जाँच एवं विश्लेषण के लिए विश्लेषकों की नियुक्ति अथवा किसी भी व्यक्ति
को सरकारी विश्लेषक के रूप में मान्यता प्रदान करने का अधिकार भी प्राप्त है।
(8)
अधिनियम की धारा 14 में विहित है कि सरकार किसी
कार्रवाई के निमित्त सरकारी विश्लेषकों द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन में निहित तथ्यों
का उपयोग साक्ष्य (या प्रमाण) के रूप में कर सकती है।
इस
अधिनियम में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पर्यावरण प्रदूषण के लिए दोषी व्यक्ति से,
प्रदूषण के उपचार (सुधार आदि) अर्थात् उसे दूर करने में हुए व्यय को वसूला जा सकता
है।
अधिनियम
के प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दण्ड का विधान
(1)
धारा 15.5 में विहित है कि इस अधिनियम के प्रावधानों के
उल्लंघन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को पाँच वर्ष के कारावास या एक लाख रुपये तक के अर्थ-दण्ड
की सजा हो सकती है। परिस्थिति विशेष में दोषी व्यक्ति को एक साथ दोनों दण्डों से दण्डित
किया जा सकता है।
दोष-सिद्धि
के उपरांत एक वर्ष से ज्यादा की अवधि तक, अगर प्रावधानों का उल्लंघन दोषी व्यक्ति द्वारा
किया जाता रहा तो वैसी स्थिति में, उसे सात वर्ष के कारावास का दण्ड भुगतना पड़ेगा।
(2)
अधिनियम की धारा 16 में विहित है कि यदि कोई कम्पनी
प्रदूषण के लिए दोषी पायी गयी तो उस कम्पनी के निदेशकों एवं प्रमुख पदाधिकारियों के
विरुद्ध अपराधमूलक (फौजदारी) दायित्व का निर्धारण भी किया जा सकता है।
(3)
इस अधिनियम की धारा 17 में विहित है कि यदि कोई सरकारी
विभाग प्रदूषण के लिए दोषी पाया जाता है, और उस विभाग का प्रमुख यदि यह सिद्ध करने
में असफल हो जाता है कि प्रदूषण की घटना उसकी गैर-जानकारी में घटी तथा घटना के पश्चात
उसने प्रदूषण रोकने के लिए भरपूर प्रयास किया तो उसके विरुद्ध अपराधमूलक दायित्व सुनिश्चित
किया जायेगा।
पर्यावरण-संरक्षण अधिनियम 1986 ई. के अन्तर्गत केन्द्र सरकार
को पर्यावरण संरक्षण के लिए विभिन्न प्रकार के उपायों, प्रयोगशालाओं, जाँचों, निरीक्षणों
एवं मानकों आदि के निर्धारण, कानूनी प्रावधानों को लागू करने की कठिनाइयों को दूर करने
सम्बन्धी व्यापक अधिकार प्राप्त है।
इसी प्रकार केन्द्र सरकार को जल एवं वायु के प्रदूषण को नियंत्रण करने के लिए क्रमशः 1947 ई. एवं 1981 ई. के अन्तर्गत व्यापक अधिकार प्राप्त हैं। इसके निमित्त केन्द्र सरकार बोर्ड, निकायों एवं प्राधिकारों आदि का गठित करने के साथ-साथ समय-समय पर कानून बनाने उसे लागू करने, राज्यों और केन्द्र सरकार के कानूनों एवं निकायों के बीच समन्वय के भी अधिकार प्राप्त है।