18. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources)

18. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources)

18. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources)

प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources)

प्राकृतिक संसाधन की संकल्पना (Concept of Natural Resources)

प्राकृतिक संसाधन की संकल्पना (अवधारणा)

प्रश्न : 'संसाधन' का अर्थ स्पष्ट करते हुए प्राकृतिक संसाधन की संकल्पना या अवधारणा को स्पष्ट करें।

अथवा

'संसाधन' से आप क्या समझते हैं? 'प्राकृतिक संसाधन' क्या है? इस संबंध में विभिन्न विद्वानों के मतों की समीक्षा करें।

अथवा

'संसाधन', 'प्राकृतिक संसाधन' एवं 'मानब संसाधन' की अर्थ-व्याप्तियों और अन्तर को स्पष्ट करें।

अथवा

'प्राकृतिक संसाधन' के अर्थ या अभिप्राय को स्पष्ट करें। वह 'मानव संसाधन' के किस अर्थ में भिन्न है?

अथवा

'प्राकृतिक संसाधन' किसे कहते हैं? अन्य संसाधनों से वह किस प्रकार भिन्न हैं?

उत्तर: 'संसाधन' का अर्थ 'संसाधन' का अर्थ किसी प्रकार की उपयोगी सूचना, पदार्थ या सेवा है। 'संसाधन' वह स्रोत है जिससे प्राणिमात्र की आवश्यकताओं की अंशतः या पूर्णतः पूर्ति होती है। इस प्रकार मानव और 'संसाधन' में घनिष्ठ एवं अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। किसी भी संसाधन को तब तक संसाधन नहीं कहा जा सकता है जब तक मानव की आवश्यकता की पूर्ति या कठिनाईयों को दूर करने की उसमें आंशिक या पूर्ण क्षमता नहीं हो। प्रकृति अथवा पर्यावरण प्रदत्त कोई भी वस्तु (goods) या पदार्थ (material) अथवा तत्त्व को तभी संसाधन कहा जाता है, जब वह मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो। संसाधन पूर्णतः या अंशतः मनुष्य के लिए लाभ पहुँचाने वाला होता है अर्थात् उसमें मानवीय हित की दृष्टि से उपयोगिता भरी होती है।

डॉ. जिम्मरमैन के अनुसार, "संसाधन से अर्थ किसी उद्देश्य की प्राप्ति करना अर्थात् व्यक्तिगत आवश्यकताओं तथा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करना है।" जिम्मरमैन की परिभाषा की दृष्टि से जल, वायु, सूर्य का प्रकाश एवं ताप, मिट्टी, वन, भूमि, कोयला (खनिज पदार्थ) मशीनरी इत्यादि सभी को संसाधन कहा जा सकता है। कोयला इसी अर्थ में संसाधन है क्योंकि उससे मनुष्य अपने उपयोग के लिए ऊर्जा प्राप्त करता है अन्यवा एक प्राकृतिक और रासायनिक वस्तु के रूप में मनुष्य के लिए उसका कोई महत्त्व या मूल्य नहीं होता। आदिम युग के मनुष्यों के लिए कोयला सहित अन्य खनिज पदार्थ संसाधन नहीं के क्योंकि उस समय तक मनुष्य उसके उपयोगी और लाभप्रद गुणों से अपरिचित और अनभिज्ञ था।

ज्यों-ज्यों वह एक-एक कर खनिज पदार्थों के उपयोगी और लाभप्रद गुणों से परिचित हो गया त्यों-त्यों खनिज पदार्थ उसके लिए (प्राकृतिक) संसाधन बनते गये। इसी कारण संसाधन की दो मुख्य विशेषताएँ मानी गयीं हैं-उसकी प्रथम विशेषता मानव के लिए उसकी उपयोगिता है। उसकी दूसरी विशेषता, उसमें बौद्धिक, सांस्कृतिक और भौतिक क्षमता का होना है। फलस्वरूप उसका महत्त्व कार्यात्मक (functional) हो जाता है। संसाधन के बारे में बाऊमैन (Bowman) ने एक बड़ी सटीक बात कही है'संसाधन होते नहीं, बनते हैं' (Resources are not, they become) अर्थात् संसाधन को संसाधन, मनुष्य अपने ज्ञान, श्रम और सहयोग से बनाता है (So because of man's co-operation)

साधारणतः संसाधन दो प्रकार के होते हैं-

(1) प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources)

(2) मानवीय संसाधन (Human Resources)

1. प्राकृतिक संसाधन : प्राकृतिक संसाधन पर्यावरण के ही अंग हैं। वायुमण्डल (वायु), जलमण्डल (जल) एवं स्थलमण्डल (स्थल-भूमि और मिट्टी) पर्यावरण के अंग हैं। इसलिए इन्हें प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है। इन संसाधनों का विदोहन मनुष्य अपने जीवन संधारण की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता है। दूसरे शब्दों में, पर्यावरण द्वारा वस्तुओं और सेवाओं की जाने वाली पूर्ति ही प्राकृतिक संसाधन है। प्राकृतिक संसाधन के अन्तर्गत ऊर्जा, खनिज, भूमि (मृदा) खाद्यान्न, वन, जल, वायु, वनस्पति, एवं पशुओं, की गणना होती है। चूंकि ये सभी पदार्थ पृथ्वी और पर्यावरण के प्राकृतिक संसाधनों की उपज हैं, प्रकृति ही इनकी जननी हैं, इसलिए इन्हें 'प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है।

2. मानव संसाधन : इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्राकृतिक संसाधन मनुष्य मात्र के लिए अमूल्य हैं, उसकी आवश्यकता की पूर्ति की दृष्टि से अनन्य हैं, लेकिन कोई संसाधन तब तक संसाधन नहीं बनता, जब तक मनुष्य अपनी प्रतिभा और परिश्रम का उपयोग करके उसे संसाधन बना न दे। इसका अर्थ यह है कि बिना मानव श्रम के प्राकृतिक संसाधनों का कोई मूल्य नहीं होता है। मानव ही अपने वातावरण में परिवर्तन कर उसमें पाये जाने वाले पदार्थों को अपनी आवश्यकता के लिए उपयोग में लाता है। कृषि उत्पादन मनुष्य के परिश्रम का ही फल है। खनिज पदार्थों की उपयोगिता के गुणों का अन्वेषण और उसका विदोहन भी मानव परिश्रम का प्रतिफल है। अतः पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने में मानव के विचार, उसके संगठन और श्रम सभी की आवश्यकता होती है। इस स्थल पर यह उल्लेख्य है कि मनुष्य की कल्पना-शक्ति, अन्वेषण-क्षमता, जिज्ञासा-वृत्ति, बौद्धिक क्षमता, अथक परिश्रमशीलता, रुचि, ज्ञान, राष्ट्रीय एवं सामाजिक संगठन, आर्थिक उन्नति, राजनीतिक स्थायित्व आदि स्वयं एक संसाधन हैं।

अतः यदि प्राकृतिक संसाधन पर्यावरण के अंग हैं तो मानव संसाधन स्वयं मनुष्य के अन्दर निहित उसकी आन्तरिक शक्ति, गुण, कल्पना, विचारणा, बौद्धिक क्षमता आदि हैं। वह इन्हीं के बल पर प्राकृतिक संसाधन को संसाधन बना पाता है अन्यथा वे प्रकृति एवं पर्यावरण में अनुपयोगी वस्तु की तरह निष्क्रिय पड़े रह जाते हैं। आज भी अनेक ऐसी प्राकृतिक वस्तुएँ हैं

जिनकी उपयोगिता को मनुष्य जान नहीं पाया है, इसलिए वह उन्हें संसाधन का अंग अभी तक नहीं बना पाया है। प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन में मूलभूत अन्तर यही है।

संसाधनों का वर्गीकरण (Classification of Resources)

प्रश्न : संसाधनों को कितने रूपों में वर्गीकृत किया गया है?

अथवा

संसाधनों के प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन करें।

अथवा

संसाधनों के वर्गीकरण का संक्षेपतः उल्लेख करें।

उत्तर : संसाधनों का वर्गीकरण कई आधारों पर किया गया है। उपलब्धता, अनुपलब्धता, उपलब्धता की सम्भाव्यता, असम्भाव्यता, प्रयोजनीयता, अप्रयोजनीयता, प्रयुक्तता, अप्रयुक्तता, वितरण की सुलभता, दुर्लभता, नव्यकरणीयता, अनव्यकरणीयता और स्वामित्व आदि की दृष्टि से संसाधनों का वर्गीकरण किया गया है, लेकिन अध्ययन की सुगमता और स्पष्टता की दृष्टि से संसाधनों के निम्नलिखित वर्गीकरण को सबसे उपयुक्त माना जा सकता हैं-

(1) जैवीय एवं अजैवीय संसाधन,

(2) पुनर्पूरणीय एवं अपूरणीय संसाधन,

(3) सम्भाव्य एवं विकसित संसाधन,

(4) कच्चे पदार्थ एवं ऊर्जाशक्ति के संसाधन,

(5) कृषि सम्बन्धी तथा पशुचारणिक संसाधन,

(6) खनिज पदार्थ तथा औद्योगिक संसाधन।

1. जैवीय एवं अजैबीय संसाधन :

(i) जैवीय संसाधन (Biotic Resources): जिन संसाधनों को जीवों या जीवित वस्तुओं से प्राप्त किया जाता है, वे जैवीय संसाधन कहलाते हैं। प्राणियों और वनस्पतियों से प्राप्त या सुलभ संसाधन जैवीय संसाधन हैं, जैसे जंगली जीव-जन्तु, पालतू पशु-पक्षी एवं अन्य जीव, मछलियाँ, कृषि से प्राप्त फसलें, प्राकृतिक वनस्पति एवं जन तथा वन इत्यादि।

(ii) अजैवीय संसाधन (Abiotic Resources) अजीवित वस्तुओं से प्राप्त होनेवाले पदार्थों को अजैवीय संसाधन कहा जाता है। ऐसे संसाधन खानों या चट्टानों से खनिज रूप में सुलभ होते हैं, जैसे लोहा, सोना, चाँदी, ताँबा, बॉक्साइट, कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस इत्यादि।

2. पुनर्पूरणीय एवं अपूरणीय संसाधन :

(i) पुनर्पूरणीय संसाधन : प्रकृति एवं पर्यावरण ने कुछ ऐसे संसाधन दिये हैं जो प्रायः असमाप्य हैं, अर्थात् जिनकी पूर्ति पुनः पुनः सम्भव है जैसे- प्राकृतिक वनस्पति, वन, वायु, जल, सौर्य ऊर्जा, वन्य पशु एवं जन्तु इत्यादि। नदियाँ सर्वदा प्रवाहमान हैं। वे जल के सतत संसाधन हैं। वनों के कट जाने के बाद पुनर्वनरोपण द्वारा उनसे प्राप्त होने वाली वस्तुओं को फिर से प्राप्त किया जा सकता है। जल-शक्ति और सौर्य ऊर्जा कभी नहीं समाप्त होनेवाले ऊर्जा के संसाधन हैं। वर्षा का चक्र, वर्षा से कृषि उत्पादन में वृद्धि, वर्षा जल का नदियों में संचयन आदि ऐसे संसाधन हैं जिनका उपयोग मनुष्य सतत या अक्षय संसाधन के रूप में करता है क्योंकि इनकी पुनःपूर्ति सम्भव हो जाती है।

(ii) अपूरणीय संसाधन वे संसाधन जिनकी पुनः पूर्ति सम्भव नहीं होती, उन्हें अपूरणीय संसाधन कहा जाता है। अधिकांश खनिज पदार्थ, जैसे कोयला, लोहा, सोना, चाँदी, ताँबा, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, बॉक्साइट, मैंगनीज, यूरेनियम, एस्बेस्टस, फॉस्फेट, कोबॉल्ट, थोरियम, यूरेनियम, सीसा, टिन, एण्टीमोनी, प्लूटोनियम, निकल, जिप्सम, गन्धक और पोटाश आदि ऐसे संसाधन हैं, जिनके भूगर्भ स्थित भंडार, विदोहन के कारण एक-न-एक दिन समाप्त हो जायेंगे। इसलिए इन संसाधनों के मितव्ययी उपयोग पर बल दिया जा रहा है। भविष्य में इन संसाधनों के समाप्त हो जाने के भय से संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस आदि देश, अपने देश में उपलब्ध कोयला, लोहा आदि के भंडार का उपयोग न करके विदेशों से उनका आयात करते हैं।

3. सम्भाव्य एवं विकसित संसाधन

(i) सम्भाव्य संसाधन (Potential Resources) किसी देश या क्षेत्र के वे संसाधन, जिनेका उपयोग भविष्य में किया जा सकता है, सम्भाव्य (potential) संसाधन कहलाते हैं। उदाहरण के लिए भारत की नदियों में प्रवाहमान जल का सम्पूर्णता में उपयोग अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है। इस जल का उपयोग जल-विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के लिए किया जाता है परन्तु जल-विद्युत ऊर्जा का उत्पादन उपलब्ध जल संसाधन के अनुपात में बिलकुल नगण्य है किन्तु भविष्य में नदियों पर बाँध बनाकर इनका समुचित उपयोग सम्भव हो सकेगा और उससे अपेक्षित एवं आकांक्षित मात्रा में जल-विद्युत ऊर्जा का उत्पादन भी सम्भव बा सकेगा। इसके अतिरिक्त किसी एक संसाधन के स्थान पर उसके दूसरे वैकल्पिक रूप का अनुसंधान एवं प्रयोग भी सम्भाव्य संसाधन कहलाता है।

(ii) विकसित संसाधन (Developed Resources) विकसित संसाधन वे हैं जिन संसाधनों को विकसित कर भविष्य में भी उनका उपयोग सम्भव बनाया जा सकता है। जैसे, जल-विद्युत ऊर्जा। अभी तक विश्व में जितना जल संसाधन उपलब्ध है, उससे मात्र 25% जल-विद्युत ऊर्जा का उत्पादन ही किया जा सका है, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान एवं यूरोपीय देशों में जल-विद्युत ऊर्जा के साधन को पर्याप्त मात्रा में विकसित किया जा चुका है।

4. कच्चे पदार्थ एवं ऊर्जा (शक्ति) संसाधन

(i) कच्चे पदार्थ (Raw Materials): उद्योगों में जिन विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उपयोग होता है, उन्हें 'कच्चा माल' कहा जाता है। इन्हीं वस्तुओं से उपयोगी या प्रयोजनीय वस्तुओं या माल को तैयार (उत्पादित) किया जाता है। ये कच्चे पदार्थ विभिन्न प्रकार के खनिज, कृषि या वनोत्पाद होते हैं। ये कच्चे पदार्थ जीव-जन्तुओं से भी प्राप्त किये जाते हैं जैसे दवा उद्योग में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों का तो प्रयोग होता है, इसके लिए नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं और सूक्ष्म जीवाणुओं का उपयोग भी औषधि उत्पादन के लिए किया जाता है। इसी प्रकार कपास, पटसन, बागाती, रबर, गन्ना, तिलहन, रसयुक्त फूल, वनों से प्राप्त लकड़ियाँ, गोंद, मोम, लाख, दाल, पशुओं के बाल, चर्बी, खालें, समूर आदि का उपयोग भी उद्योगों में कच्ची सामग्री या पदार्थ के रूप में किया जाता है। इन कच्ची सामग्रियों से मानव के हितार्थ अनेक प्रकार की वस्तुएँ तैयार की जाती हैं। अनेक खनिज जैसे-लोहा, टिन, जस्ता, ताँबा, अल्युमिनियम, अभ्रक, चाँदी और सोना भी उद्योगों में कच्ची सामग्री के रूप में प्रयुक्त होते हैं।

(ii) शक्ति या ऊर्जा संसाधन जिन संसाधनों से शक्ति या ऊर्जा प्राप्त की जाती है, उन्हें ऊर्जा या शक्ति संसाधन कहा जाता है। इन संसाधनों से विभिन्न प्रकार के कल-कारखानों, उद्योगों तथा विभिन्न प्रकार के यंत्रों, वायुयान, जेट, जहाज, जलयान, मोटरकार, मशीन, रेल, इंजन एवं परिवहन के अन्य साघनों को शक्ति प्रदान कर चलाया जाता है।

आधुनिक युग में ऊर्जा या शक्ति संसाधन में प्रमुखता जल-विद्युत, प्राकृतिक गैस, पेट्रोल, डीजल, कोयला, एल.पो जी, सी.एन.जी., ज्वारीय शक्ति, परमाणु शक्ति तथा भू-ताप शक्ति की है। वर्तमान युग में यूरेनियम और थोरियम से परमाणु ईधन प्राप्त किया जाता है। ये ऊर्जा के नवीनतम् एवं अधुनातन संसाधन है। वर्तमान युग में ऊर्जा संसाधनों पर अत्यधिक बल दिया जा रहा है।

5. कृषि एवं पशुचारणिक संसाधन

(1) कृषि संसाधन (Agricultural Resources): मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं में भोजन, वत्र एवं आवास की गिनती होती है। मोजन के लिए खाद्यान्न खेती (कृषि) से प्राप्त किया जाता है। कृषि के साथ-साथ पशुपालन का काम भी कृषक् करते हैं। पशुओं के लिए चारा कृषि (फसलों) से प्राप्त हो जाती है। कृषि से उद्योगों के लिए अनेक प्रकार की कच्ची सामग्री भी मिलती है।

(i) पशुचारणिक संसाधन (Pastoral Resources): पशुचारणिक संसाधन वे हैं जो पशुओं से प्राप्त होते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य पशुओं से दूध, घो, पनीर, मक्खन, दही, मांस, खाल, सींग आदि प्राप्त करता आया है। ऊन भी पशुओं से ही प्राप्त होता है। ऊन. सींग, खाल इत्यादि उच्द्योगों के लिए कच्ची सामग्री का काम करते हैं।

6. खनिज पदार्थ तथा औद्योगिक संसाधन

भूगर्भ से खदानों के खनन् द्वारा जिन संसाधनों को प्राप्त किया जाता है, वे खनिज संसाधन कहलाते है। यधा-लोहा, ताँबा, टिन, अल्युमिनियम, सोना, चाँदी, अभ्रक, कोयला, क्रोमियम, धोरियम, यूरेनियम, गंधक इत्यादि।

वे संसाधन जिनका उपयोग आधुनिक उद्योगों में किया जाता है, उन्हें औद्योगिक संसाधन कहा जाता है। आजकल लोहे की अपेक्षा गुणवत्ता और मजबूती में इस्पात अधिक श्रेष्ठ है। इस्पात, लौह अयस्क में अनेक दूसरे पदार्थों को मिलाकर तैयार किया जाता है। बोकारो का 'बोकारो स्टील लिमिटेड', इस प्रकार के कारखानों में से एक प्रमुख कारखाना, जहाँ इस्पात तैयार किया जाता है। इस्पात का उपयोग मोटर, कार, इंजन, पटरियाँ, डिब्ले स्तम्भ, मकान, जलयान, मशीन, डॉक्टरी उपकरण, यांत्रिक उपकरण, युद्ध सम्बन्धी उपकरण तथा अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माण के लिए किया जाता है। अल्युमिनियम धातु से ही हवाई जहाज, बिजली के तार, बर्तन तथा हल्की एवं मजबूत विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनायी जाती हैं। ताँबा से बिजली के तार, बर्तन तथा विद्युत टेली कम्युनिकेशन आदि उद्योगों में काम आने वाले बिजली के तार एवं उपकरण बनाये जाते हैं।

निष्कर्ष: संसाधनों का सुसंगत वर्गीकरण अधिकार क्षेत्र की दृष्टि से, पुनःपूर्ति की दृष्टि से, वितरण की दृष्टि से तथा प्रयोग की दृष्टि से किया गया है। जिम्मरमैन ने संसाधनों का वर्गीकरण नव्यकरण, प्राप्ति एवं अन्य दृष्टियों से किया है। लेकिन सुव्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से संसाधनों का वर्गीकरण जैविक, अजैविक, पुनःपूर्ति, अपूरणीय, सम्भाव्य एवं विकसित संसाधन, कच्ची सामग्री एवं ऊर्जा के संसाधन, कृषि एवं पशुचारणिक संसाधन तथा खनिज पदार्थ एवं औद्योगिक संसाधनों के रूप में किया गया है। अन्य सभी प्रकार के वर्गीकरण इन्हों वर्गों में शामिल हैं। अन्य प्रकार के वर्गीकरणो के नाम मात्र में अन्तर हो सकता है उनमें तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं होगा। संसाधनों के ये वर्गीकरण प्राकृतिक संसाधन के भी वर्गीकरण हैं। प्राकृतिक संसाधन में अमूर्त संसाधन पर भी विचार किया जाता है अन्यथा संसाधनों और प्राकृतिक संसाधनों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है।

प्रश्न : प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण करें।

उत्तर : प्राकृतिक संसाधन पर्यावरण के ही अंग हैं। प्राकृतिक संसाधन के दो प्रमुख वर्ग

1. नव्यकरणीय संसाधन (असमाप्य संसाधन) असमाप्य संसाधनों में पुनःपुनः प्रकट होने या पुनरापूर्ण के गुण होते हैं। प्रकृति के ये संसाधन पुनर्चक्रण, पुरुत्पादन या स्थानापन्नता के द्वारा पुनः पुनः प्रयोग में लाने योग्य बन जाते हैं। नव्यकरणीय संसाधनों में सूर्य का प्रकाश वनस्पति, पशु, मिट्टी, जल एवं जीवित पार्थ हैं। जीवीय जीवाणु स्वतः अपना नवीनीकरण कर लेते हैं जैसे-पशु से पशु, मनुष्य से मनुष्य, पौधों (के बीजों) से पौधे आदि स्वयं जन्म लेते या पनपते हैं। इनके नवीनीकरण की दर में अन्तर सम्भव है।

2. अनव्यकरणीय संसाधन (समाप्य संसाधन) अनव्यकरणीय प्राकृतिक संसाधन पृथ्वी के भूगर्भिक अवदान हैं, यथा-खनिज, जीवाश्म, ईंधन, अखनिजीय संसाधन एवं अन्य पदार्थ। ये सभी पदार्थ भूगर्भ या पर्यावरण में एक निश्चित मात्रा में ही विद्यमान हैं। नव्यकरणीय प्राकृतिक संसाधनों की तुलना में अनव्यकरणीय प्राकृतिक संसाधन की मात्रा एवं गुणवत्ता अत्यन्त सीमित हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का एक और वर्ग है, जिन्हें 'अमूर्त संसाधन' भी कहा जाता है यथा-खुली जगह, सूचना, विविधता, संतोष, प्रशांति, सौन्दर्य आदि। यह संसाधन नव्यकरणीय और अनव्यकरणीय दोनों प्रकार का होता है। ज्ञान, सूचना और सौन्दर्य इत्यादि की कोई उच्चतम या अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती किन्तु इन्हें बहुत सरलतापूर्वक नष्ट किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, घास-फूस का एक टुकड़ा भर किसी स्थान की सुन्दरता को बिनष्ट कर सकता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विश्व के दो प्रमुख और महत्त्वपूर्ण उद्योग पर्यटन एवं सूचना प्रबंधन अमूर्त या अति सूक्ष्म प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर हैं।

वन संसाधन (Forest Resources)

वन संसाधन का अभिप्राय एवं विश्व में उसका वितरण

प्रश्न : 'वन संसाधन' का अभिप्राय स्पष्ट करें? विश्व में वनों के वितरण की स्थिति पर प्रकाश डालें।

उत्तर : वन संसाधन का अभिप्राय प्रकृति ने वनों के रूप में मानव-समुदाय के लिए महत्त्वपूर्ण संसाधन प्रदान किया है। वन नव्यकरणीय संसाधन है। उजड़ जाने, काट लिए जाने या विनष्ट हो जाने की स्थिति में वन या तो स्वयं उग आते हैं या पुनर्वनरोपण द्वारा वनों का पुनः विकास किया जा सकता है। वन प्रकृति का एक जैविक संसाधन है। वनों में वृक्षों की प्रमुखता होती है। वन झाड़ियों एवं अन्य काष्ठीय वनस्पतियों के रूप में भी पाये जाते हैं। वन वृक्षों, झाड़ियों और वनस्पतियों से सघन रूप से आच्छादित होते हैं। वन बनावट और सघनता में एक दूसरे से भिन्न होते हैं। वन शाद्वल (घास के मैदान) और चरागाह से भी बिल्कुल अलग होते हैं। किसी भी देश की आर्थिक उन्नति में वन का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। वन व्यापक प्राकृतिक संसाधन है। वन से मनुष्य को अनेक प्रकार की आवश्यक वस्तुएँ, सुख-सुविधाएँ और पर्यावरणिक सेवाएँ प्राप्त होती हैं। ईंधन की लकड़ियाँ, वन्य पशुओं के लिए आश्रय, पशुओं के लिए चरागह, औद्योगिक वनोत्पाद, पशु-उत्पाद, मनोरंजन, मृदा की नमी का संरक्षण, जलवायु का नियमन, वायुमण्डल के लिए ऑक्सीजन का उत्पादन, नयी कृषि का एक स्त्रोत, चरागाह भूमि, आध्यात्मिक प्रशान्ति की भूमि आदि के उद्गम एवं प्राप्ति स्थल वन ही हैं।

विश्व में वनों के वितरण की स्थिति: 'संयुक्त राष्ट्रसंघ खाद्य एवं कृषि संगठन' के आँकड़े के अनुसार 1994 ई. तक विश्व का भू-क्षेत्र 144.8 मिलियन वर्ग किलोमीटर है। यह भू-क्षेत्र संसार के पृष्ठ का कुल 29 प्रतिशत है। इस भू-क्षेत्र का 30 प्रतिशत भाग वनाच्छादित है। खाद्य एवं कृषि संगठन की परिभाषा के अनुसार, वन एवं वनस्थली का निर्माण प्रकृति द्वारा अथवा वृक्षारोपण के माध्यम से संभव होता है। वन उत्पादक भी हो सकता है और अनुत्पादक भी। वनों के अंतर्गत वैसी भूमि को भी आँकड़े में शामिल किया गया है जिन्हें काट दिया गया है और जिनमें फिर से पेड़ लगाकर वनों का विकास किया जा सकता है।

हजारों-हजार वर्ष पूर्व तक पृथ्वी को लगभग 6.0 बिलियन हेक्टेयर वन आच्छादित किये हुए था लेकिन इस क्षेत्र में मानवीय हस्तक्षेप के बाद से कमी आना प्रारम्भ हो गया। उसके बाद इन वनाच्छादित क्षेत्रों में से 16 प्रतिशत क्षेत्र कृषि भूमि, चरागाह, आवास, अनुत्पादक बंजर भूमि इत्यादि के रूप में बदल दिये गये। एफ. ए. ओ. के आँकड़े के अनुसार 1994 ई. तक विश्व के वन एवं वनस्थली के क्षेत्र लगभग 4.7 बिलियन हेक्टेयर हैं। इस वन क्षेत्र का 4/5 भाग सघन वनों का क्षेत्र है। इनके 20 प्रतिशत हिस्से में वृक्ष फैले हुए हैं। इन वनों का इमारती लकड़ियों के व्यापार की दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्व है। शेषांश खुले बन या वनस्थली के क्षेत्र हैं। रूस, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका में विशाल उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन हैं। उत्तरध्रुवीय प्रदेशों में शंकुधारी वृक्षों के वन हैं। यदि इनमें ब्राजील के वनों को भी शामिल कर लिया जाये तो इन देशों के कुल वनों का क्षेत्र विश्व के कुल वनों का 56 प्रतिशत हो जायेगा। ये सभी देश सघन वनों से आच्छादित देश हैं। दक्षिण अमेरिका एवं मध्य अफ्रीका भी सघन वनाच्छादित देश हैं। इन देशों में वनों के वृक्षों के पत्ते चौड़े होते हैं। ये पतझड़ के उष्णकटिबंधीय वन हैं। अफ्रीका विश्व में खुले या मुक्त वनक्षेत्र की दृष्टि से सबसे बड़ा है।

भारत में वन-वितरण की स्थिति 1999 ई तक वनों की स्थिति के बारे में उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार भारत का वनाच्छादित क्षेत्र 6,37,293 वर्ग किलोमीटर है। यह क्षेत्र देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 19.39 प्रतिशत है। इनमें से सघन वनों का क्षेत्र 11.48 प्रतिशत, मुक्त वनक्षेत्र 7.76 प्रतिशत जबकि कच्छीय वनों का क्षेत्र 0.15 प्रतिशत है। इस देश में लगभग सोलह प्रकार के वन पाये जाते हैं, जिनमें से उष्णकटिबंधीय पर्णपाती सर्वसामान्य हैं। इसके बाद आर्द्र पर्णपाती वन आते हैं। तीसरे क्रम में उष्णकटिबंधीय कंटीले वन हैं। ये तीनों प्रकार के वन भारत के कुल वन के लगभग तीन चौथाई (76.5%) हिस्से में फैले हुए हैं। वनों के 96 प्रतिशत भागों पर सरकार का स्वामित्व है। केवल चार प्रतिशत वन क्षेत्र ही निजी स्वामित्व में हैं।

वन संसाधनों की उपयोगिता, महत्त्व और लाभ 

(Utilisation, Importance and Benefits of Forest Resources)

प्रश्न : वन मानव और पर्यावरण के लिए किस प्रकार उपयोगी और लाभप्रद हैं?

अथवा

प्रश्न : वनों से होने वाले लाभों का वर्णन संक्षेप में करें?

अथवा

प्रश्न : वन किस प्रकार हमारे लिए उपयोगी हैं? वनों से प्राप्त होने वाली वस्तुओं और उनके उपयोगों का संक्षेपतः उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न : वनों से लाभ और उनकी उपयोगिता पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखें।

अथवा

प्रश्न : वनों के महत्त्व पर प्रकाश डालें।

उत्तर : बनों का महत्त्व मनुष्य एवं राष्ट्र-जीवन के लिए अनन्य है। वनों से प्राप्त बहुमूल्य सामग्रियाँ समान रूप से उद्योग-प्रधान समृद्ध समाज एवं ग्रामीण क्षेत्र के निर्धनों के लिए महत्त्वपूर्ण और उपयोगी हैं। यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि समाज, राष्ट्र एवं मनुष्य-मात्र की सुख-सुविधा बहुत बड़ी सीमा तक बनों पर ही निर्भर करती है। वनों की उपयोगिता, महत्त्व एवं लाभ अनेक प्रकार के हैं, जिन्हें निम्नलिखित अनुच्छेदों में प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. लकड़ियाँ :

(i) वनों से दो प्रकार की लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं-मुलायम एवं कठोर शीतोष्ण कटिबन्धीय वनों से अच्छी किस्म की लकड़ियाँ प्राप्त की जाती हैं। चीड़, फर, लर्च, सीडर, स्प्रूस, हैमलोक और रेडवुड जैसी मुलायम लकड़ियों का व्यापारिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। शीतोष्ण कटिबंधीय कठोर लकड़ियों के स्रोत बीच, बर्च, मैपल, पोपलर, बलूत, एल्म, एश, चेस्टनट, यूकेलिप्टस, कॉरीगम एवं बॉलनट हैं। मुलायम लकड़ियों से कागज की लुगदी (pulp), दियासलाई की संकि और चाय आदि की रैंकिग पेटियाँ तैयार की जाती हैं। कठोर लकडियों का उपयोग फर्नीचर बनाने में होता है। उष्णकटिबंधीय कठोर लकड़ियों के वृक्ष एबोनी, महोगनी, लौह काष्ठ, सागवान, एवं रोजवुड हैं। इनसे भी फर्नीचर बनाया जाता है।

(ii) ईंधन के काम में आने वाली लकड़ियाँ वन का प्रमुख और बृहत् उत्पाद लकड़ियाँ ही हैं, विकासशील एवं अविकसित राष्ट्रों में ईंधन के काम के लिए लकड़ियों की बहुत भारी माँग है। ईंधन की लकड़ियों का प्रयोग खाना पकाने से लेकर ऊष्मा प्राप्त करने के लिए होता है। विश्व भर में बनों से कटी आधी लकड़ियों का उपयोग ईंधन के रूप में ही होता है। लगभग 1.5 बिलियन लोग ऊर्जा के प्राथमिक स्त्रोत के लिए लकड़ी के ईंधन पर निर्भर हैं। विश्व में लगभग 1,000 मिलियन घन मीटर लकड़ियों का उपयोग ईंधन के रूप में होता है। एक अनुमान के अनुसार, ईंधन के लिए लकड़ियों की माँग 2025 ई. तक 2,600 मिलियन घन मौटर हो जायेगी।

(iii) इमारती लकड़ियाँ (timber) उद्योग के लिए लकड़ियों के लड्डे (कुंदे) जंगलों से प्राप्त किये जाते हैं। इनका उपयोग काठ-कबाड़ (lumber), परत (veneer), बोर्ड्स, खिड़कियों, फर्नीचर, बैलगाड़ियों, हल, उपकरणों के हत्थे (मुट्ठे) खेल-सामग्रियों आदि के निर्माण में होता है। लकड़ियों का उपयोग कागज, रेशे (yarn) और आवरण (film) बनाने के लिए भी होता है।

2. लघु वनोपज :

बड़े जंगलों की तुलना में लघु बनों से प्राप्त उत्पादों का आर्थिक दृष्टि से महत्त्व कम नहीं है। जंगलों से नाना प्रकार की रेजीन, गोंद, छप्पर बनाने के सामान, बेंत, फल, नट (गिरी), जड़ी-बूटियाँ, औषधीय वनस्पतियाँ, औषधियाँ, तेल, चारा, व्यापारिक महत्त्व के फूल, मसाले और लोबान (incense) अर्क प्राप्त होते हैं। जंगल से प्राप्त बाँस को गरीबों की इमारती लकड़ी कहा जाता है। बाँसों का उपयोग कड़ी बनाने, छप्पर छारने, दीवारें उठाने, मचान, मंच बनाने चटाई तथा बैलगाड़ी बनाने के लिए करते हैं। बाँस का उपयोग कागज एवं रेशे तैयार करने के लिए भी होता है। बेंतों से फर्नीचर, रस्सी, छड़ी, छाते का डंडा एवं खेल सामग्रियाँ तैयार की जाती हैं। वनों के अनेक प्रकार के पौधों से विभिन्न तरह के उपयोगी तेल चंदन, रोसा घास एवं खस आदि से प्राप्त किये जाते हैं। इन तेलों का उपयोग श्रृंगार-प्रसाधनों, साबुनों, दवाइयों, तम्बाकू, सुगंधियों के निर्माण के लिए होता है। चर्मशोधन (tanning) के लिए अनेक प्रकार की सामग्रियाँ यथा रंग (dyes), गोंद, राल आदि भी बनों के पौधों से प्राप्त होते हैं। इनका उपयोग कच्ची सामग्रियों के रूप में अनेक उद्योगों में होता है। लाख, मधु, मोम और रेशम जंगल के कीटों से प्राप्त होते हैं, जिनके आर्थिक मूल्य बहुत अधिक हैं। जंगलों से शताधिक प्रकार की दवा, मसाले, कीटनाशक एवं विष भी प्राप्त होते हैं। तेंदू पत्ते का उपयोग बीड़ी बाँधने के लिए होता है। साबुन की जगह प्रयुक्त होने वाले रीठा और शिकाकाई भी जंगलों से मिलते हैं। सोला पीठ (sola pith) एवं रूद्राक्ष वनों के वाणिज्यिक मूल्य के महत्त्वपूर्ण उत्पाद हैं।

3. बनवासियों के जीवन के लिए बनों का महत्त्व :

वनों में निवास करने वाले बनवासियों, आदिवासियों एवं आदिम जातियों के जीवन के लिए वनों का बहुत अधिक महत्त्व है। उनके आर्थिक जीवन की रीढ़ भी वन हैं। बनवासियों को वन से भोजन, औषधि एवं अनेक प्रकार के व्यापारिक उत्पाद प्राप्त होते हैं।

4. वन-वस्तुओं का संचयन :

बनों से अनेक प्रकार की वस्तुओं का संचय किया जाता है; यथा, वृक्षों की जड़ें (सारसापलिता), वृक्षों की छालें (सिनकोना से कुनैन बनाने के लिए), पत्तियाँ (पेय पदार्थ के लिए), यरबा माटे (औषधियाँ), पौधे, छप्पर छारने, रेशे, फूस और कपड़ा बनाने के काम में आने वाली सामग्री, गिरियाँ (भोजन और तेल के लिए), वृक्षों के तने (रबड़, बालटा, मोम, राल, चिकल आदि के लिए)। जंगलों की गिरियाँ (nuts) में से ब्राजील नट, आइवरी नट, ताड़ नट, नारियल, कोहन नट, खजूर आदि प्रमुख हैं। चेस्टनट, क्यूबॉरोच, हैमलोक, ओक, मैंग्रोव, बॉटल, आँवला आदि वृक्षों की छाल, गूदे, पत्तियों और फूलों से रंगने के काम में आने वाले अनेक सामान प्राप्त होते हैं।

5. वनों का पर्यावरणिक महत्त्व :

वनीय पारिस्थितिकी पर्यावरण की बहुमूल्य सेवा करती है। वनीय पारिस्थितिकी जैव-वैविध्य को संरक्षण प्रदान करती है और इसकी निरन्तरता को बनाये रखती है। वन वन्य जीवों का सबसे सुरक्षित आश्रय है। वन पोषकीय तत्त्वों के चक्र को कायम रखता है। वनों के कारण ही ऑक्सीजन के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है। वन पर्यावरण प्रदूषण को कम करता है। वह कणीय प्रदूषणों को एकत्र कर लेता है और कार्बन डॉय ऑक्साइड का अवशोषण करता है। स्थानीय वर्षा भी वनों से प्रभावित होती है। वन नदियों के प्रवाह को नियमित करता हैं तथा बाढ़ को नियंत्रित करता है। वन जल का संग्रह करता है। वायु से होने वाले क्षरण को संतुलित करता है। अनुर्वर भूमि में सुधार लाता है। वन, जल और वायु से होने वाले मिट्टियों के क्षरण को नियंत्रित करता है। वन भूमि के लिए आच्छादन का काम करता है, जिससे भूमि ग्रीष्मकाल में अति शुष्क होने से बच जाती है। मिट्टियों की सरंध्रता और उर्वरकता में ह्यूम्स के माध्यम से सुधार लाता है।

6. सौंदर्यात्मक एवं अन्य मूल्य :

वनों का सौंदर्यात्मक मूल्य बहुत अधिक है। विश्व के हर देश में वनों के सौंदर्य और प्रशान्ति की लोग मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। इसके अतिरिक्त पारिस्थितिकी के अध्ययन के लिए वन उपयुक्त स्थल हैं। वन मनोरंजन का भी मनोरम स्थल है। वन आध्यात्मिक साधना के भी केन्द्र हैं। वन साहित्य, कला, संगीत एवं धर्म के लिए प्रेरणा का काम करते रहे हैं।

निष्कर्ष : वनों से भोजन, वस्त्र, आश्रय के लिए सामग्रियाँ तो प्राप्त होती ही हैं, वनोपजों से जीवन-रक्षक औषधियाँ, श्रृंगार एवं प्रसाधन की कच्ची सामग्रियाँ भी उपलब्ध होती हैं। दैनिक जीवन और उद्योगों में काम आने वाले अनेक पदार्थ वनों से ही मिलते हैं। वनों की लकड़ियाँ अभी भी विकासशील और अविकसित देशों के लिए ईंधन और ऊष्मा-प्राप्ति का एकमात्र प्रमुख साधन हैं। इमारती लकड़ियाँ, फर्नीचर की लकड़ियाँ एवं उपकरणों-निर्माण की सहायक सामग्रियाँ लकड़ियों से ही बनती हैं। वन किसी भी राष्ट्र के व्यापारिक, आर्थिक और औद्योगिक जीवन एवं प्रगति के लिए मेरुदण्ड की भाँति है। पर्यावरण को स्वच्छ बनाये रखने में वन का अमूल्य योगदान होता है। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में, पशुओं के लिए चारे की प्राप्ति में, बाढ़ रोकने में, नदियों के प्रवाह को नियमित करने में, मृदा के क्षरण को रोकने में, ग्रीष्म की प्रचण्डता को कम करने में तथा वायुमण्डल के प्रदूषण को रोककर उसे स्वच्छ बनाये रखने में वन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धर्म, आध्यात्म, त्याग, तप, साहित्य, संगीत, कला एवं सौंदर्यात्मक प्रेरणा की दृष्टि से भी वनों का अनन्य महत्त्व है।

भारत के वन-संसाधन/सम्पदा

प्रश्न : प्राकृतिक वनस्पति और भारत पर एक संक्षिप्त लेख लिखें।

अथवा

प्रश्न : भारत के वन संसाधनों में यहाँ की प्राकृतिक वनस्पतियों के प्रकारों और उपलब्धता पर प्रकाश डालें।

अथवा

प्रश्न : भारत की वन-सम्पदा के प्रकार एवं उनकी स्थिति का वर्णन करें।

उत्तर : भारत की वन-सम्पदा भौगोलिक दृष्टि से भारत का अधिकांश भाग उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पड़ता है। भारत का कुछ भाग समुद्र तल से अत्यधिक ऊँचाई पर अवस्थित है। अतः इस क्षेत्र की गिनती शीत शीतोष्ण भाग में की जा सकती है। इन दोनों क्षेत्रों के बीच का भाग शीतोष्ण कटिबंधीय है। भारत के भौगोलिक क्षेत्र की विभिन्नता का प्रभाव यहाँ की जलवायु पर पड़ा है। किसी क्षेत्र में औसत से बहुत अधिक वर्षा होती है तो कुछ क्षेत्र बिल्कुल शुष्क हैं। जलवायु-विभिन्नता के कारण भारतवर्ष में पायी जाने वाली प्राकृतिक वनस्पतियों में भी वैविध्य का दिखायी पड़ना स्वाभाविक ही है। किसी देश में वनस्पतियों के प्रकार और उपलब्धता वर्षा की मात्रा और वितरण पर निर्भर करती है।

प्राकृतिक वनस्पतियाँ जंगलों के रूप में विकसित होती हैं जबकि कुछ क्षेत्र की वनस्पतियाँ झाड़ियाँ भर रह जाती हैं। कुछ क्षेत्र में वनस्पति घास के मैदान का रूप धारण कर लेती है। भारत के लगभग 3,750 मीटर ऊँचे क्षेत्रों में पर्वतीय वनस्पतियाँ पायी जाती हैं। उससे नीचे 2,000 से 3,500 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में शीतोष्ण पतझड़ एवं शंकुल वनों का मिश्रित प्रकार मिलता है। पर्वतीय तलहटियों में उष्णकटिबंधीय वनस्पतियाँ उगती हैं। इस तरह की वनस्पतियाँ सामान्यतः पूरे देश में पायी जाती हैं। राजमहल के निकट गंगा के पश्चिमी घुमाव पर शुष्क वनस्पतियाँ पायी जाती हैं। पश्चिमी वन पर्णयुक्त कँटीली झाड़ियों का रूप ग्रहण कर लेते हैं। जिन पूर्वी क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है, वहाँ सदाबहार सघन वन पाये जाते हैं। भूगोलविदों के अनुसार, भारत के वन वर्षा के अनुगामी हैं।

वनों के प्रकार : भारत के वनों को उनकी प्रकृति के आधार पर पाँच बर्गों में विभाजित किया गया है। सदावहार वन, मानसूनी वन, मरुस्थलीय वन, पर्वतीय वन एवं डेल्टा वन।

1. सदाबहार वन : जिन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है, वहाँ सदाबहार बन पाये जाते हैं। ये वन वर्ष पर्यंत हरे-भरे बने रहते हैं। भारत में सदाबहार वन असम एवं पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में हैं। भारत के सदाबहार वनों में आबनूस, महोगनी, बाँस, बेंत, बेल, शीशम, पलास, नारियल, सिनकोना अधिक पाये जाते हैं।

2. मानसूनी या पर्णपाती वन इस तरह के वन अपेक्षाकृत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पाये जाते हैं। मानसूनी या पर्णपाती वनों के वृक्षों के पत्ते ग्रीष्मकाल में सूखकर झड़ जाते हैं और वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही हरे-भरे हो जाते हैं। मानसूनी बनों में सखुआ, शीशम, सागौन, महुआ, चंदन, शिरीष आदि बहुतायत से पाये जाते हैं। इस प्रकार के वन पश्चिमी बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड, उड़ीसा और मैसूर आदि राज्यों में पाये जाते हैं।

3. मरुस्थलीय वन : मरुस्थलों में उगने वाले वनों को शुष्कस्थलीय या मरुस्थलीय वन कहा जाता है। इन क्षेत्रों में नाममात्र की वर्षा होती है। मरूस्थलीय वनों में काँटेदार वृक्ष या झाड़ियों ही अधिक उगती हैं। इननें बेर, खजूर, बबूल, नागफनी, फरास आदि वृक्ष प्रमुख हैं। राजस्थान, सौराष्ट्र (गुजरात), हैदराबाद तथा पंजाब में मरुस्थलीय वन पाये जाते हैं।

4. डेल्टा वन: नदियों की डेल्टा में उगने वाले वनों को डेल्टा वन कहा जाता है। इस प्रकार के वन गंगा की डेल्टा में उगे हैं। महानदी, गोटावरी, कृष्णा, एवं कावेरी नदियों की डेल्टाओं में भी ये वन हैं। इन वनों में 'सुन्दरी' नामक पेड़ अधिक पाये जाते हैं। इसलिए इन्हें 'सुन्दरवन' भी कहा जाता है।

5. पर्वतीय वन : इस श्रेणी में हिमालय पर पाये जाने वाले वन सम्मिलित हैं। यहाँ 220 मीटर की ऊँचाई तक घने सदाबहार वन पाये जाते हैं, जो उष्ण कटिबंधीय वनों के समान होते हैं। इनमें बाँस, सागौन, रोजवुड, फर्न आदि पाये जाते हैं। 220 मीटर से 240 मीटर तक शीत कटिबंध के सदाबहार बन पाये जाते हैं। इस जगह के वनों के मुख्य वृक्ष ओक तथा बर्च हैं। 3640 मीटर तक पाये जाने वाले कोणधारी बन हैं, जिनके वृक्ष देवदार, फर, पाइन और स्प्रूस आदि हैं।

भारत के के वनों की स्थिति 'वन स्थिति रिपोर्ट' (State of Forest Report) 1999 ई. के अनुसार, भारत का सम्पूर्ण वनाच्छादित क्षेत्र लगभग 6,37,293 कि. मी. है। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रों का वनाच्छादित भाग लगभग 19.39% है। इसमें से सघन वन क्षेत्र लगभग 11.48% हैं। मुक्त (खुला) वन क्षेत्र लगभग 7.76% है। कछारी वन क्षेत्र का प्रतिशत 0.15% है। भारत के वनों को लगभग 16 वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। इन वन क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वनों का प्रतिशत 38.7% है। उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन 30.9% और उष्णकटिबंधीय कँटीले वन 6.9% हैं। भारत के वनों के इन प्रकारों के पर्णपाती वन कुल वन क्षेत्र के लगभग तीन चौथाई (लगभग 76.5%) भाग हैं। भारत के कुल वन-क्षेत्र के 96% भाग पर सरकार को मालिकाना हक प्राप्त है जबकि 4% वनों पर लोगों के व्यक्तिगत अधिकार हैं।

वन विनाश (Deforestation)

प्रश्न : वन विनाश से आप क्या समझते हैं? वन विनाश के कारणों का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न : वन विनाश का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए यह बतायें कि वन विनाश का प्रमुख कारण प्राकृतिक से अधिक मनुष्य का लालच है।

अथवा

प्रश्न : वन विनाश के प्राकृतिक और मानवीय कारकों का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न : "वन विनाश के लिए स्वयं मनुष्य उत्तरदायी है।" कैसे ?

उत्तर : विश्व के महाद्वीपीय स्थल खण्डों का क्षेत्रफल लगभग 1,490 लाख वर्ग कि.मी. हेक्टेयर है। ध्रुवीय प्रदेश से आच्छादित लगभग 16,200 हेक्टेयर भूभाग इस क्षेत्र में सम्मिलित नहीं है। इस सम्पूर्ण धरातलीय क्षेत्र के क्षेत्रफल में से 40% भूभाग भौतिक दृष्टि से वनों के अनुकूल है। 25% भूभाग पर खेती की जाती है। शेष भाग पर्वतीय क्षेत्र हैं। इसी क्षेत्र में नगरों, कस्बों, सड़कों, मरूस्थलों एवं झाड़ि‌यों से युक्त क्षेत्रों को शामिल कर लिया गया है।

प्रारम्भ में भूतल के लगभग 25% भाग पर वन प्रस्त थे किन्तु अनेक प्राकृतिक, भौतिक एवं आर्थिक कारणों से वनों का धीरे-धीरे विनाश होता चला गया। फलस्वरूप अब भूतल के 15% भाग पर ही वनों का विस्तार पाया जाता है।

वन विनाश का मुख्य कारण मनुष्य का अपरिमित स्वार्थ एवं लालच है। वन विनाश का अर्थ, अनेक कारणों से वन-वृक्षों का बड़े पैमाने पर धराशायी हो जाना या कट जाना है। सभ्यता के विकास काल से ही वनों को जलाया और काटा जाता है। कृषि योग्य भूमि निकालने के लिए, इमारती लकड़ियों के लिए, नगरीकरण के निमित्त एवं अन्य कारणों से वनों को उजाड़ा या नष्ट किया जाता रहा। लेकिन, इन सब कारणों की पृष्ठभूमि में मुख्य कारण 'आर्थिक समृद्धि (उपलब्धि)' का लालच ही है। लेकिन मनुष्य ने यह बात नहीं समाझी कि वनों को उजाड़ देने से उसे क्षणिक या अस्थायी लाम तो मिल सकता है लेकिन इसकी दीर्घावधिक अपूरणीय क्षति उससे कई गुना अधिक होगी, जिसकी भरपाई मनुष्य कोटिशः प्रयत्न करके भी नहीं कर सकता। वनों के विनाश के लिए मुख्य कारण मानवीय हैं तो उसके विनाश में प्राकृतिक, भौतिक, रोगजनित, पशुओं की चराई और पशुओं द्वारा विनाश के अतिरिक्त जंगल में लगने वाली आग भी प्रमुख भूमिका निभाती है।

1. वन विनाश के मानवीय कारक बनों के विनाश में मनुष्य की भूमिका प्रमुख है। मनुष्य ने वनों को कृषि, नगरों या आवासीय स्थलों के विस्तार, वाणिज्य-व्यापारिक हित, उत्खनन कार्य, कृषि-व्यापार, ईंधन की प्राप्ति, निर्माण कार्य आदि के लिए बर्बाद किया है-

(i) कृषि प्रयोजनों के लिए वन विनाश : जनजातियों एवं बनवासियों द्वारा खेती करने के लिए वन प्राचीन काल से विनष्ट किये जाते रहे हैं। इन लोगों ने खेती के लिए 'स्थानांतरित खेती' (Shifting Cultivation) या - 'झूम खेती' की पद्धति अपना रखी थी। झूम या स्थानांतरित खेती प्राचीन कृषि प्रणाली है। इस प्रणाली को उष्ण प्रदेशों के लोगों ने अपनाया, जहाँ वनों और वर्षा की अधिकता और पर्याप्तता रही। इस पद्धति के द्वारा अर्द्धमरुस्थलीय क्षेत्र के लोग भी खेती करते हैं।

एशिया, अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका के वनवासी लोगों में भी कृषि की यह पद्धति अत्यधिक लोकप्रिय रही। झूम खेती के विकास के पीछे एक विशिष्ट कारण रहा है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की भूमि की उर्वरा शक्ति अन्य क्षेत्रों की भूमि की अपेक्षा कम होती है। अतः एक स्थान पर खेती कर लेने के कुछ समय बाद इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र फसल लगाते हैं। इस तरह परती छोड़ी गयी जमीन में फिर से जंगल उग आने की सम्भावना बनी रहती है, यदि उस परती भूमि के साथ फिर से कोई छेड़छाड़ नहीं की जाय। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाता क्योंकि बढ़ती जनसंख्या और प्रतिस्पर्द्धा के कारण लोग पुनः जंगल की परती जमीन पर खेती करने के लिए विवश हो जाते हैं। परिणामतः उजड़े वनों के परती हिस्से में फिर से वन के उगने-जमने की सम्भावना बिल्कुल क्षीण हो जाती है। एक आकलन के अनुसार, 500 लाख लोग (विश्व की जनसंख्या की दस प्रतिशत आबादी) झूम खेती में लगे हुए हैं और लगभग 240 लाख हेक्टेयर भूमि झूम या स्थानांतरित खेती में हुई है।

प्रतिवर्ष 1.25% की दर से झूम खेती की भूमि में वृद्धि हो रही है। भारत में 35 लाख हेक्टेयर वन-भूमि कृषि भूमि में बदली जा चुकी है। कृषि भूमि के लिए वन-भूमि का सर्वाधिक विनाश उड़ीसा में हुआ है। कृषि कार्यार्थ इस राज्य में वन विनाश की दर अत्यधिक ऊँची है। कुल कृषि-भूमि के मामले में 'झूम खेती' का अनुपात उत्तरी-पूर्वी राज्यों यथा असम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नगालैण्ड, मेघालय तथा मणिपुर में अधिक है। झूम कृषि को विभिन्न राज्यों के लोग अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। केरल में इसे पोनम (Ponam), आन्ध्रप्रदेश एवं उड़ीसा में पोडू (Podu) मध्यप्रदेश में बेवर (Bewar), पेंडा (Penda), डाहया (Dahaya) तथा बीरा (Beera), पश्चिमी घाट क्षेत्रों में कुमारी (Kumari), हिमाचल क्षेत्र में खील (Khil) तथा दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में बालरा (Valra) के नाम से पुकारते हैं।

(ii) आवासीय क्षेत्रों के विस्तारार्थ वन विनाश बढ़ती जनसंख्या के दबाव ने भी वन विनाश को प्रोत्साहित किया है। नये-नये आवासीय क्षेत्रों को बनाने-बसाने के लिए भी जंगल साफ किये गये हैं।

(iii) वन विनाश में सरकारी नीति की भूमिका: सरकार ने बड़े-बड़े आवासीय क्षेत्रों के निर्माण, सड़क बनाने, रेल की पटरियाँ बिछाने, तथा उद्योगों, नदी घाटी योजनाओं एवं बाँधों के निर्माण के लिए वन-भूमि को साफ कराया है। विगत तीस वर्षों में भारत में सड़क निर्माण के लिए 73 हजार हेक्टेयर, उद्योगों के लिए 14.6 लाख हेक्टेयर तथा अन्य कार्यों के लिए 99 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्रों को साफ किया जा चुका है। कुछ चन क्षेत्र तो चाँधों के डूब-क्षेत्र में आकर जलमग्न भी हो चुके हैं।

(iv) वाणिज्यिक एवं व्यापारिक हितार्थ वन विनाश: इमारती लकड़ियों की पूर्ति, फर्नीचर बनाने, भवन निर्माण के आधारभूत ढाँचा निर्माण के लिए एवं अन्य प्रकार के वाणिज्यिक एवं औद्योगिक प्रयोजनों हेतु वनों की तीन गति से कटाई हुई कटाई हुई है। कृषि कार्य के बाद वन विनाश, की एक प्रमुख कारण वाणिज्यिक एवं औद्योगिक प्रयोजन है। एक एक अनुमान के अनुसार, इन प्रयोजनों के लिए 20 मिलियन हेक्टेयर की दर से वनों को उजाड़ा गया है।

(v) उत्खनन कार्य के लिए वन विनाश खनिजों की प्राप्ति के लिए उत्खनन कार्य तथा सिंचाई कार्यों के लिए भी वनों का विनाश होता रहा है। वन-भूमि में उत्खनन कार्य होने से बड़े खड्डू बन जाते हैं। इन खड्डों का पुनरुपयोग सम्भव नहीं होता। बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्य-प्रदेश एवं उत्तराँचल में उत्खनन कार्यों के लिए तेजी के साथ वनभूमि का विनाश किया गया है।

राजस्थान में संगमरमर और ताम्बा की खानों की खुदाई के लिए बनों का विनाश किया गया है।

(vi) ईंधन के लिए वनों की कटाई बहुत प्राचीन काल से बनों में रहने वाले लोग वनों को ईंधन की लकड़ियाँ प्राप्त करने के लिए काटते रहे हैं। कुछ दशक पूर्व तक (एल.पी.जी के प्रचलन से पूर्व) नगरों में भी ईंधन की लकड़ियों की माँग और खपत की दर बहुत ऊँची थी। आज भी देहाती क्षेत्रों में ईंधन का प्राथमिक स्रोत लकड़ी ही है।

(vii) कृषि-व्यापारार्थ वन विनाश पाम आयल तथा रबर प्राप्त करने एवं फलदार वृक्षों को लगाने के लिए वनों का विनाश किया गया है।

2. रोगजनित कारण और वन विनाश अत्यन्त उष्ण-आई और समशीतोष्ण प्रदेशों में जलवायविक कारणों से वृक्षों में रोग लग जाते हैं, जो, धीरे-धीरे वृक्षों को क्षीण कर देते हैं। रोगग्रस्त होकर वृक्ष अन्त में नष्ट हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, श्वेत पाइन में बिलस्टर रोग, चेस्टनट में चेस्टनट ब्लॉइट और एल्म वृक्ष पर डच एल्म रोग लग जाते हैं। ये रोग वृक्षों को नष्ट कर डालते हैं।

3. वृक्षों पर कीट-पतंगों का आक्रमण वन वृक्षों के विनाश में कौट-पतंगों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती है। नाना प्रकार के कीटों और पतंगों के आक्रमण के कारण वृक्ष नष्ट हो जाते हैं। ये कीट-पतंग पेड़ों में छेद बना डालते हैं, जिसके कारण उनमें घुन लगता है और वृक्ष खोखले होकर व्यापारिक काम के लायक नहीं रह जाते। पाइन वृक्ष में पाइन-बीटल और मैगोट कीटों का भयानक आक्रमण होता है। सी-फ्लाई, जिप्सी, टसोक, ब्राउनटेल आदि कीड़े वृक्षों की पत्तियों को खा जाते हैं और उनकी बाढ़ (वृद्धि) को रोक देते हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में दीमक वृक्षों को नष्ट करती है।

4. पशुओं द्वारा चराई और वन विनाश वनों में अनेक प्रकार के वन्य पशु भी रहते हैं। ये उगते हुए वृक्षों, प्रौढ़ वृक्षों की छालों, पत्तियों, जड़ों और तनों को खाकर नष्ट कर डालते हैं। घास के मैदानों में या खुले वनों में भेड़-बकरियाँ आदि अपने खुरों की सहायता से घास और नये पौधों की जड़ें अन्तिम बिन्दु तक चर जाती हैं तथा उन्हें बुरी तरह रौंद डालती हैं। फलस्वरूप फिर से ये पौधे से पनप नहीं पाते। अनियंत्रित चराई वनों के विनाश का एक अन्य कारण है।

साही, चूहे, गिलहरी, लोमड़ी, बीबर, खरगोश आदि जीव भूमि को खोद डालते हैं और वृक्ष की जड़ों को खाकर बनों को ही नष्ट कर देते हैं। उनके द्वारा भूमि के खुद जाने पर मिट्टी का अपरदन होता है। इसका कारण यह है कि वृक्षों की जड़ों के न होने से मिट्टी बँधी नहीं रह पाती।

5. प्राकृतिक कारणों से यम विनाश

(i) तेज गति से बहने बालो आँधियों और तूफानों के कारण सुक्ष जसहित कड़कर अरशायी हो जाते हैं।

(i) डावलल के कारण भी जंगल जल कार स्वाहा हो जाते हैं। शुष्क मौसम में रगड़ खाते रहने से दी बनों में आग लग जाती है और प्रवाहित पक्नों से यह आग घोरे-धीरे सारे इन आदेशों में फैलकर वृक्षों को नह कर डालती है। मानव की धूलों के कारण भी जंगल में असण लयती है जैसे वनभोवों के समय जलायी गयी आग या जलती सिगरेट अथवा बोड़ों के टुकड़ों से भी बयों में आग लग जाती है।

(iii) मेष-गर्वन के समय जब-जब बिजली गिरती है तब-तब वृक्षों में आग लग जाती है, जिससे में जलकर नाह हो जाते हैं।

वन विनाश का प्रभाव

प्रश्न :  वन विनाश के प्रभावों का वर्णन करें।

अथवा

प्रश्न : "मनुष्य अस्थायी लाभों के लिए बनों का असीमित विदोहन करता है, परिणामस्वरूप अपत्तना ही दीर्घकालिक नुकसान कर बैठता है।" इस कथन की व्याख्या करें।

अथवा

प्रश्न : वन विनाश के विनाशकारी प्रभावों पर प्रकाश डालें।

उत्तर- बचों के विनाश का प्रकृति, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, जैव विविधता एवं मनुष्य परनान्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जिनमें निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-

1. जलवायु पर प्रभाव जो वायु हम सौत्स द्वारा लेते हैं, उसे वन ही शुद्ध बनाते हैं। इससे स्पष्ट है कि बनों के विनाश से वायु का प्रदूषण बढ़ेगा। वायुमण्डल में कार्बन डॉय ऑक्साइड को मात्रा बढ़ेगी। फलस्वरूप भूमण्डलीय ताप में वृद्धि होगी। भूमण्डलीय ताप में वृद्धि दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। थार्नबेट के अनुसार, वर्षा को सक्रियता में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्षों के बाद नमी बढ़‌ती है। यह नमी तापमान को नियंत्रित करती है। वर्षों की कमी के कारण रेगिस्तानी स्थितियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। वन विनाश के कारण मु-जैव रासायनिक चक्र भी बाधित होता है। जल-चक्र में भी बनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मौधे भूमिगत जल का वाष्पोत्सर्जन करते हैं तथा वर्षा जल को छानने (infilterate) के कार्य में सहायता पहुँचाते हैं। वन विनाश जलवायु के विभिन्न चक्रों पर प्रभाव डालता है जिसका तात्कालिक और दूरगामी प्रभाव निकलता है। भयंकर कुपरिणाम मनुष्य को ही भोगना पड़ता है।

2. वन विनाश के कारण वर्षों में भी कमी आती है। वर्षों की कमी के कारण भूतल स्थित जल के स्तर में भी गिरावट आती है।

3. मृदा अपरदन : बनों एवं वृक्षों के अभाव में, विशेषकर डालों पर की मिट्टी तेजी के साथ वर्षा-जल के प्रवाह के साथ बह जाती है। फलस्वरूप नदियों में अवसाद की मात्रा में बृद्धि होती है जिससे मृदा अपरदन के साथ ही बाढ़ के प्रकोप की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। वन विनाश के कारण झारखण्ड में भी भूमि अपरदन की घटनाओं में वृद्धि हुई है।

4. मरुभूमि का विस्तार वनों के उजड़ जाने के कारण अनाच्छादित हुई भूमि क्रमशः मरुभूमि में बदल जाती है। इसका कारण हवा द्वारा उड़ाकर लायी गयी पत्थरों की धूलि होती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होती है, उन क्षेत्रों में मरुभूमि के विस्तार का खतरा ज्यादा होता है।

5. स्थानीय एवं जनजातीय आबादियों का प्रव्रजन मरुभूमियों के विस्तार के कारण स्थानीय एवं जनजातीय लोग उपयुक्त भोजन, बस्त्र और आवास की खोज में दूसरे स्थानों की ओर प्रस्थान करने को विवश हो जाते हैं।

6. वर्षा की कमी के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति में भी ह्रास होता है।

7. वन विनाश के कारण आर्थिक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है। इसके कारण औद्योगिक निर्माण के लिए लकड़ियाँ नहीं मिल पायेंगी। इन सबका दूरगामी प्रभाव आर्थिक विकास पर पड़ेगा।

8. वन विनाश का जैव विविधता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वन्य पशुओं का आश्रय छिन जाता है। शहरों (आवासीय क्षेत्रों) पर उनका आक्रमण बढ़ता है। उनकी संख्या में कमी आती है। वन-पशुओं को भोजन नहीं मिल पाता। खाद्य-श्रृंखला बुरी तरह प्रभावित होती है। कुल मिलाकर वन विनाश का पारिस्थितिकी तंत्र पर विध्वंसक प्रभाव पड़ता है।

9. वनों के ह्रास के कारण वनों से प्राप्त होने वाली अनेक प्रकार की उपयोगी वस्तुएँ नहीं मिल पायेंगी। औषधीय वृक्ष विनष्ट हो जायेंगे। इसका एक छोटा सा उदाहरण नीम है। अति भाचीनकाल से नीम का उपयोग दवा के रूप में होता आ रहा है। इसका उपयोग जैव-खाद के रूप में भी होता है। बन-विनाश का अर्थ औषधीय गुणों से भरपूर वनस्पतियों की अनेक बहुमूल्य प्रजातियों का विनाश भी होगा।

10. वन विनाश के कारण अति पिछड़े और गरीब लोगों, विशेषकर आदिवासियों के सामने ईंधन की कमी उत्पन्न हो जायेगी। वे शुरू से ही ईंधन की कमी का सामना करते आ रहे हैं। वन विनाश इस समस्या में कोढ़ में खाज का काम करेगा।

11. वन विनाश के कारण बाढ़ का खतरा बढ़ेगा, विशेषकर ढालवाँ क्षेत्रों में बाढ़ की आवृत्तियों में वृद्धि होगी।

निष्कर्ष: वन विनाश का प्रभाव बहु आयामी है। इसके एक प्रभाव के कई गुणक प्रभाव होते हैं। वन विनाश प्रतिकूल प्रभावों की लड़ी बनाता है। बन विनाश जलवायु, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र में भयानक परिवर्तन लाकर मानव जीवन को अत्यन्त कठिन बना देगा। इसका असर जैव विविधता पर पड़ेगा। बाढ़ों की आवृत्ति में वृद्धि होगी। भूमि की उर्वरता घटेगी। मृदा अपरदन से नदियों में अवसाद की मात्रा बढ़ेगी। वन विनाश के कारण वर्षा में कमी आयेगी, जिसके कारण मरुभूमि का विस्तार होगा। वन विनाश अनेक प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याएँ भी उत्पन्न करेगा।

वन-संरक्षण (Forest Conservation)

प्रश्न: वन-संरक्षण क्यों आवश्यक है? वन-संग्क्षण के लिए अब तक कौन-कौन उपाय अपनाये गये हैं? वन-संरक्षण के लिए और कौन सा कदम उठाया जाना चाहिए।

अथवा

प्रश्न: वन-संरक्षण की आवश्यकता और उसके उपायों का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न: वनों को विनष्ट होने से बचाने के लिए कौन-कौन से उपाय अपेक्षित हैं?

अथवा

प्रश्न: वन विनाश की हानियों के संदर्भ में वन-संरक्षण की आवश्यकता का उल्लेख करें एवं वनों को विनाश से बचाने के कारगर उपायों का वर्णन करें।

अथवा

प्रश्न: वनों का संरक्षण मनुष्य, जीव, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र के लिए आवश्यक है। कैसे? वनों को विनष्ट होने से कैसे बचाया जा सकता है?

अथवा

प्रश्न: भारत में वन-सम्पदा के संरक्षण के निमित्त अपनाये गये उपायों का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न: भारत के वनों को विनाश से बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

अथवा

प्रश्न: भारत में वन विनाश पर कैसे अंकुश लगाया जा सकता हैं?

उत्तर : वन-संरक्षण की आवश्यकता मनुष्य ने स्वार्थ और लालचवश वन-सम्पदा (संसाधन) का असीमित दोहन किया है, किन्तु उसने उसकी आनुपातिक भरपाई की कभी कोशिश नहीं की है। उजाड़े या काटे गये जंगलों की जगह नये जंगल लगाने या पुनर्वनरोपण 'का प्रयास कभी नहीं किया।

वनों का विनाश प्राकृतिक कारणों से बहुत ही कम, मानवीय क्रिया-कलापों के कारण अधिक हुआ है। वन-बिनाश का पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र पर भयानक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। वनों के विनाश के अनेक तात्कालिक और दूरगामी दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। वन विनाश ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के नैसर्गिक गुणों को नष्ट कर दिया। पर्यावरण की गुणवत्ता में गिरावट (degradation) ने कई प्रकार के पर्यावरणिक प्रदूषणों को जन्म दिया है। वन विनाश के कारण बहुत बड़ी संख्या में जैव-विविधता (bio-diversity) समाप्त होती जा रही है। कई प्रकार की औषधीय गुणोंवाली वनस्पतियों की प्रजातियाँ सदा के लिए विलुप्त हो गयीं और उनके विलोप का सिलसिला अभी थमा नहीं है। वन-जीवों का आश्रय उजड़ गया है। वन-जीव खत्म हो रहे हैं जिससे खाद्य-श्रृंखला बुरी तरह प्रभावित हो रही है। वन विनाश के कारण सूखा, बाढ़, भू-क्षरण बढ़ रहा है। रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है। मौसम का संतुलन गड़बड़ा रहा है। वनों पर आधारित और आश्रित समाज उजड़ रहे हैं। गाँव और वनों में निवास करने वाले लोग गरीबी और अकाल के शिकार हो रहे हैं।

वनों के विनाश के कारण जैविक एवं भौतिक भण्डार के रूप में देश के आर्थिक, सामाजिक एवं पारिस्थितिकीय विकास, जल-चक्र, मृदा संरक्षण, मृत एवं सड़े पदार्थों के पुनर्चक्रण, पर्यावरणीय गैसों में संयोजन और विभिन्न पौधों और पशु-रूपी संसाधनों का क्षरण हो रहा है।

वन विनाश एवं वैश्विक चिन्ता उपर्युक्त कारणों से वन विनाश विश्व के पर्यावरणविदों एवं जागरुक नागरिकों के लिए चिन्ता का विषय बन गया है। वे अब इस बात पर जोर देने लगे हैं कि पर्यावरण की इस अनमोल धरोहर का संरक्षण आज की महती आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में 19 सितम्बर, 1989 ई. को महासचिव को सौंपे गये एक ज्ञापन में बनों के विनाश पर गहरी चिन्ता प्रकट की गयी थी। वन विनाश के खतरे आणविक युद्ध के खतरों से कम भयावह नहीं है। भारत में पण्डित सुन्दरलाल बहुगुणा ने 'चिपको आन्दोलन' द्वारा वन-संरक्षण के प्रति लोगों में जागरुकता उत्पन्न करने की अथक कोशिश की थी। विश्व में आज 'वन बचाइये, मानव जाति को बचाइये' का नारा दिया जा रहा है। औद्योगिक देशों में अम्लीय वर्षा के कारण हुई वनों की तबाही ने विश्व वन-संरक्षण के आंदोलन का सूत्रपात पहले से ही कर दिया था।

वन-संरक्षण के उपाय: बनों के विनाश के विरोध में आज विश्व स्तर पर आवाजें उठायी जा रही हैं। मलेशिया, भारत, ब्राजील, जायरे, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया और फिलीपाइन्स से उठी आवाजें केवल वहीं तक सीमित नहीं रह गयी हैं, बल्कि इन्होंने विश्व के जनमत को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि अब वनों को परम्परागत प्रबन्धन एवं दोहन के तरीकों से बचाया नहीं जा सकता है। वनों की नियमित एवं वैज्ञानिक विधि से कटाई, उनका आग एवं हानिकारक कीटों से बचाव एवं पुनः रोपण के बावजूद वनों का ह्रास जारी है। यह भी सम्भव नहीं है कि केवल एक देश तो अपने वन को बचाये लेकिन पड़ोसियों और दूसरे देशों के वनों का विनाश करे और अपनी आवश्यकता पूरी करता रहे। इसके लिए तो एक 'विश्व चन-संरक्षण नीति' की आवश्यकता है। विश्व वन संरक्षण नीति में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए-

(1) विश्व में जो शीतोष्ण एवं उष्ण कटिबंधीय वन बचे हुए हैं, उनके संरक्षण की तत्काल घोषणा हो।

(2) वन-क्षेत्रों में रहने वाले और वनों पर आश्रित लोगों को जीवन-यापन के लिए रोजगार प्रदान करने की सुनिश्चित योजना बनायी जानी चाहिए। इसके निमित्त उन्हीं वृक्षों को लगाया जाना चाहिए जो स्थानीय लोगों की खाद्य और दूसरी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने योग्य हों।

(3) बनों के संरक्षण के लिए प्रबन्ध के उपायों में वनवासियों की भी महत्त्वपूर्ण सहभागिता सुनिश्चित की जानी चाहिए।

(4) वन-संरक्षण हेतु सबसे अधिक आवश्यकता आज इस बात की है कि भोगवादी सभ्यता द्वारा प्रचुरता अर्थात् बहुलता को विकास मानने की अवधारणा में परिवर्तन होना चाहिए। भोगवादी सभ्यता अत्यधिक उपयोग पर बल देती है। अतः इस दृष्टिकोण में भी तत्काल परिवर्तन जरूरी है। वन संरक्षण के अन्तर्गत बनों के क्षेत्र में वृद्धि करके पर्यावरण में आये असंतुलन को दूर किया जाना भी आवश्यक है। वन संरक्षण के लिए निम्नलिखित तकनीकों को प्रयोग में लाया जाना चाहिए -

1. दीर्घकालिक संरक्षणात्मक उपाय (Sustainable Limit): उपर से देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति ने अकूत संसाधन और सम्पदा दे रखी है किन्तु वास्तविकता कुछ और है। सृष्टि के उदय-काल से लेकर आज तक मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति और स्वार्थ लाभ के लिए प्रकृति और उसके संसाधनों का असीमित दोहन किया है। फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधन चुकते हुए नजर आ रहे हैं। वन-संसाधन भी समाप्तप्राय हैं। भारत में ब्रिटिश राज्य-काल से ही बनों का उजड़‌ना प्रारंभ हुआ था। आज हालात यहाँ तक पहुँच गये हैं कि वनों के समक्ष अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। अतः वनों के दीर्घकालिक संरक्षण और विकास के उपायों के अवलम्बन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। इसके लिए यह अत्यावश्यक है कि वनों की अंधाधुंध और अविवेकपूर्ण कटाई बंद की जानी चाहिए। इसकी जगह चयनात्मक कटाई पर ध्यान दिया जाना चाहिए। जितने जरूरी हों उतने ही पेड़ या उनकी डालें (अगर उनसे काम चल जाय) भर काटी जानी चाहिए।

वनों की कटाई की भरपाई के लिए पुनर्बनरोपण कार्यक्रम में तेजी लायी जानी चाहिए। औषधीय वनस्पति, खाद्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण वृक्ष, उद्योगों की जरूरतों को पूरा करने वाले वृक्ष, इमारती एवं फर्नीचरों की जरूरतों की पूर्ति करने वाले से लेकर पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र की दृष्टि से अनुकूल वृक्षों को लगाया जाना चाहिए।

2. हानिकारक कीटों एवं रोगाणुओं से वनों की रक्षा जंगल के वृक्षों को अनेक प्रकार के कीटों एवं रोगाणु क्षतिग्रस्त कर देते हैं। दीमक, सुंडी, झींगुर, गुबरैला, पाइन, बीटल, कोन, बीटल, मैगोट, सी फ्लाई, जिप्सी, टसोक, ब्राउनटेल इत्यादि कीटों तथा बिलस्टर, चेस्टनट ब्लॉइट एवं डच एल्म आदि रोगों के कारण वृक्ष नष्ट होते हैं। कीटनाशक दवाइयों के छिड़काव द्वारा वृक्षों को बचाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त वृक्षों को नुकसान पहुंचाने वाले अनावश्यक खर-पतवारों पर भी छिड़‌काव किया जाना चाहिए।

3. स्थानांतरित अथवा झूम पद्धति की खेती पर रोक वन विनाश का एक प्रमुख कारण झूम पद्धति से की जाने बाली खेती है। अतः कृषि की इस प्रणाली पर नियंत्रण आवश्यक है। झूम खेती करने वाले आदिवासियों, आदिम जातियों एवं वनवासियों को इसकी जगह स्थायी कृषि की प्रणाली को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

4. ईंधन की लकड़ी का वैकल्पिक प्रबन्ध ग्रामीण क्षेत्रों एवं वनों में रहने वाले लोगों के लिए आज भी सबसे सस्ता, सुलभ और प्राथमिक ईंधन का स्रोत वनों की लकड़ि‌याँ ही हैं। देश की बहुत बड़ी आबादी ईंधन के लिए लकड़ियों पर ही निर्भर है। अतः सरकार को चाहिए कि वह वनवासियों से लेकर ग्रामवासियों और नगर निवासियों तक के लिए लकड़ी के ईंधन की जगह वैकल्पिक व्यवस्था करे। प्राकृतिक गैस या जैव गैस, चूल्हा सहित उन्हें उपलब्ध कराये।

5. इमारती लकड़ियों का विकल्प भवन एवं उपस्कर निर्माण के लिए लकड़ी की जगह वैकल्पिक वस्तुओं की खोज की जानी चाहिए। लकड़ी के विकल्प के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

6. आग से जंगलों की रक्षा जंगल में अपने-आप या अन्य बाहरी कारणों से आग लगती है। इस आग पर समय रहते काबू पाना आवश्यक है। समय रहते आग नहीं बुझाने का परिणाम सम्पूर्ण वन-विनाश होता है।

7. सामाजिक वानिकी गाँवों में विविध उपयोगों के लिए वृक्ष लगाये जाने चाहिए। विस्तार वानिकी के अन्तर्गत नहर की पटरियों, सड़क के किनारों पर पेड़ लगाये जाने चाहिए। भूमि-क्षरण रोका जाना चाहिए। लघु बनीं के विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हरित पट्टियों का निर्माण किया जाना चाहिए।

8. पड़ोसी देशों से सहयोग पड़ोसी देशों से सहयोग लेकर वन विनाश पर अंकुश लगाया जाना चाहिए।

9. वन-संरक्षण कानूनों के सख्ती से पालन की अनिवार्यता : वनों की सुरक्षा हेतु विश्व के सभी देशों में अधिनियम बनाकर वृक्षों के काटे जाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। यदि कोई इसकी अवहेलना करता हो तो उसे उचित दण्ड दिया जाना चाहिए।

10. अन्य उपाय :

(i) चंदन, सागवान, तुन आदि वृक्षों तथा चमड़े एवं फर आदि का निर्यात बंद कर दिया जाना चाहिए।

(ii) आरक्षित वनों और अभ्यारण्यों को अधिकाधिक विकसित किया जाना चाहिए। इन क्षेत्रों की देखरेख का दायित्व निष्ठावान अधिकारियों और कर्मचारियों को सौंपा जाना चाहिए।

(iii) वन विकास निगम की स्थापना कर उसके माध्यम से विनष्ट वनों में फिर से नये वृक्ष लगावाकर उन्हें हरा-भरा बनाया जाना चाहिए।

(iv) वनों पर जीविका के लिए आश्रित आदिम एवं आदिवासी जनजातियों के लिए पेड़ काटने के साथ-साथ उन्हें पेड़ लगाने के लिए भी प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

(v) जंगल काटने की अनुमति जिन ठेकेदारों को दी जाय, उन्हें उतनी ही संख्या में नये वृक्ष लगाने, उनकी देखरेख करने तथा उनके संवर्धन के उपाय करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए।

(vi) वृक्षारोपण कार्य स्कूलों और कॉलेजों के लिए भी अनिवार्य हो। छात्रों के पाठ्यक्रम में इस विषय को शामिल कर अनिवार्य बनाया जाना चाहिए तथा उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

(vii) सरकार द्वारा वन क्षेत्रों के अन्तर्गत जगह-जगह अनुसंधानशालाओं की स्थापना की जानी चाहिए, जहाँ वन सम्बन्धी नये-नये शोध किये जा सकें। ऐसा करने से वनों का तीव्र गति से विकास होगा।

निष्कर्ष: वन-संरक्षण के प्रति जनचेतना में शनैः शनैः विकास हुआ है। सरकार ने भी अपनी जिम्मेवारी समझी है और वह वन-संरक्षण की ओर पर्याप्त ध्यान देने लगी है। अब केवल वयस्क वृक्षों (matured trees) को काटने की नीति अपनायी जा रही है। छोटे और मध्यम आयु वाले वृक्षों को पूरा होने तक बढ़ने दिया जाता है। वृक्षारोपण उत्सों के माध्यम मे जनजागरूकता बढ़ायी जा रही है। 'वन महोत्सव', वन दिवस, वृक्ष मित्रोपहार तथा अनेक पुरस्कारों द्वारा वन-संरक्षण एवं वन-संवर्धन के कामों में लगे लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

जल संसाधन (Water Resources)

जल संसाधन का अर्थ, प्रकार और उपलब्ध मात्रा

प्रश्न: 'जल संसाधन' का अभिप्राय स्पष्ट करें।

अथवा

प्रश्न: वितरण की दृष्टि से जल संसाधन के कितने प्रकार हैं? पृथ्वी पर उपलब्ध जल संसाधन की अनुमानित मात्रा का उल्लेख करें।

उत्तर: जल पृथ्वी पर जीवन का स्रोत है। यह कथन अक्षरशः सत्य हैं। जल, जलमण्डल का बृहत् अवयव है। जलमण्डल में महासागर, सागर, नदियाँ, सरिताएँ, हिमानियाँ, हिमनद, झील, जलाशय, ध्रुवीय, हिमाच्छादन एवं घरातलीय तथा भौम जलों के खोत सम्मिलित हैं।

पृथ्वी पर जितने भी संसाधन उपलब्ध हैं, उनका आरम्भ और अन्त जल संसाधन ही है। एक पर्यावरणविद् का कहना है कि, "All the resources of Earth surface starts and ends of the Water Resources"। पृथ्वी पर उपलब्ध मृदा एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। वन दूसरा महत्त्वपूर्ण संसाधन है। लेकिन इन दोनों को मिलाकर अन्य जितने भी संसाधन हैं, पृथ्वी पर उनकी कुल उपलब्ध मात्रा मात्र 29 प्रतिशत ही है, जबकि पृथ्वी पर प्राप्त जल संसाधन की मात्रा 71% है। उपयोग की दृष्टि से भी अन्य संसाधनों के उपयोग की सीमा बहुत ही सीमित है, जबकि जल की उपयोगिता की सीमा का कोई अन्त नहीं है। अन्य संसाधनों के महत्त्व की दृष्टि से जल संसाधन का महत्त्व वायु के पश्चात सर्वोपरि है। बिना जल के पृथ्वी पर न तो किसी तरह के जीव-जन्तु के अस्तित्व की कल्पना की जा सकती है और न ही किसी प्रकार की वनस्पतियों की हरियालियों की।

जल संसाधन को वितरण और प्राप्ति की दृष्टि से दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है-1. स्थलीय जल संसाधन और 2. महासागरीय जल संसाधन।

1. स्थलीय जल संसाधन स्थलीय जल संसाधन के अन्तर्गत नहरें, तालाब, नदियाँ, झीलें, सरिता आदि आते हैं। स्थलीय जल संसाधन द्वारा स्थलाकृतियों के उच्चावच, ढालों एवं समतलों का निर्माण होता है। मिट्टियाँ बनती हैं, भूतल पर बिछती हैं। इस तरह भूमि, मानव निवास के लिए उपयुक्त बनती है। जलराशियों द्वारा घरेलू जल की माँग की पूर्ति होती है। जन्तु-जगत एवं वनस्पति-जगत के जीवन-धारण के लिए भी आवश्यक मात्रा में जल प्राप्त होता है। औद्योगिक कारखानों के संचालन के लिए जल की पूर्ति भी जल संसाधन पर ही निर्भर है।

पृथ्वी पर स्थलीय जल सर्वाधिक कम मात्रा में उपलब्ध है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल के एक प्रतिशत से कम भाग ही स्थलीय या स्वच्छ जल (fresh water) के रूप में उपलब्ध है। जल की एक प्रतिशत (1%) से कम मात्रा ही मानवोपयोगी है।

2. महासागरीय जल संसाधन पृथ्वी के धरातल पर महाद्वीपों की अपेक्षा महासागरों का विस्तार अधिक है। भूतल का 71.6 प्रतिशत भाग महासागरीय जल से आच्छादित है, जिसकी औसत गहराई 3.5 किलोमीटर तक है। समुद्र जल से ऊपर उठे महाद्वीपीय पदार्थ के घनत्व की तुलना में महासागरीय जल का आयतन कई गुना अधिक है। पृथ्वी के जल का समस्त उच्चावच काटकर यदि भूतल पर फैला दिया जाय तो समस्त भूमण्डल 3.2 किलोमीटर गहरे महासागरों में डूब जायेगा। समुद्र तल का अपना उच्चावचीय स्वरूप है। जलमग्न तट, समुद्री ढाल, अगाध तल एवं महासागरीय गर्त इसके प्रमुख चार खण्ड हैं।

एक अनुमान के अनुसार, जलमण्डल में 1,360 मिलियन घन किलोमीटर जल है। इनमें से 97% जल महासागर एवं अन्तर्देशीय (inland) सागर के रूप में फैला हुआ है। महासागर एवं सागर का जल अत्यधिक लवणीय है। इस लवणीय जल का उपभोग और उपयोग मनुष्य नहीं कर सकता।

उपसंहार: भूगर्भिक इतिहास पर्यन्त महासागरीय जल एवं स्वच्छ जल (fresh water) का अनुपात प्रायः स्थिर रहा है। लेकिन जलवायविक परिवर्तनों के अनुसार इनके अनुपातों में अन्तर आता रहा है। जब जलवायु बहुत अधिक आर्द्र या ठंडी होती है तो सागर-जल का अधिकांश भाग हिमनदियों और हिमाच्छादनों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। फलस्वरूप, समुद्र जल की कीमत पर स्वच्छ जल की मात्रा (या अनुपात) बढ़ जाती है लेकिन जब जलवायु शुष्क होती है तब हिमनदियाँ एवं हिम-टोपियाँ पिघलने लगती हैं, फलस्वरूप समुद्र का जल-स्तर स्वच्छ जल की कीमत पर ऊँचा हो जाता है। पिछले दशकों के जल-स्तर के पर्यवेक्षण से पता चला है कि समुद्र का जल-स्तर धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है। इसका अर्थ है कि जलवायु क्रमशः गर्म होती जा रही है।

जल संसाधन का महत्त्व

प्रश्न : जल संसाधन के महत्त्व का उल्लेख करें।

उत्तर : जल जीवन के लिए अनिवार्य है। जल केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं अपितु पशुओं, अन्य जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों के जीवन के लिए भी परमावश्यक है। जल स्वयं जीवन का एक अंग है और उसी में जीवन की समस्त प्रक्रियाएँ घटित होती हैं। जल स्वयं में पोषण तत्त्वों को घुला लेता है और शरीर के कोषों (cells) तक पहुँचा देता है। जल, शरीर के तापमान को नियंत्रण में रखता है। शरीर के ढाँचे को सुस्थिर रखता है एवं अपशिष्टों को बाहर निकाल देता है। मानव शरीर का 90% भाग जल है। शरं शरीर में जल की इस मात्रा (प्रतिशत) में कमी का अर्थ जीवन का भयानक संकट में पड़ जाना है। मनुष्य कई दिनों तक भूखा रहकर भी जीवित रह सकता है। किन्तु बिना पानी के तो शायद वह एक-दो दिन भी नहीं जी पाये। अतः यह कहना उचित प्रतीत होता है कि जल ने मानव जीवन में अपना अनन्य स्थान बना लिया है।

मनुष्य के निवास स्थल की श्रेयस्करता का निर्णय सभ्यता के उदय काल से जलस्रोतों ने ही किया था। सभ्यता के प्रार्दुभाव काल से ही मनुष्य ने सागर या नदी तटों को अपने निवास के लिए उपयुक्त पाया और उन्हीं जगहों पर आवासीय भवनों का निर्माण किया। इसका एक मात्र कारण जल की आसान उपलब्धि था। पानी एक ओर पेय जल के रूप में महत्त्वपूर्ण था तो दूसरी ओर फसलों को उगाने के लिए भी जल जरूरी था। यह निर्विवाद सत्य है कि जल के बिना न तो कोई व्यक्ति जिन्दा रह सकता है और न ही कोई समुदाय। जल मनुष्य के लिए इतना महत्त्वपूर्ण है फिर भी उसने आज तक इसका उचित मूल्यांकन नहीं किया है। मनुष्य इसके वास्तविक महत्त्व को उस दिन समझ पायेगा जिस दिन वह उसकी पहुँच से अत्यन्त दुस्तर या बाहर हो जायेगा।

सभी ग्रहों में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जिस पर तरल रूप में जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। महासागर, सागर, हिमनद एवं तरल जल के अन्य स्रोत पृथ्वी तल के 70% भू-भाग को आच्छादित किये हुए हैं। पृथ्वी पर जल की कुल अनुमानित मात्रा 1,360 मिलियन (एक अरब छत्तीस करोड़) घन किलोमीटर है। यदि पृथ्वी पूर्णतः समतल हो, तो तीन किलोमीटर गहरा जल-स्तर अपने में सब कुछ को डुबो लेगा। पृथ्वी पर का अधिकांश जल लवणीय है। लवणीय जल (खारा पानी) पीने योग्य बिल्कुल नहीं है। यह पानी मनुष्यों के अन्य उपयोगों के लायक भी नहीं है। इसके बावजूद आबाद भू-क्षेत्र के लिए पर्याप्त स्वच्छ जल का भंडार उपलब्ध है।

मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि के साथ पानी अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसी कारण अज्ञात काल से ही वह शुद्ध और मीठे पानी की खोज में लगा रहा। मनुष्य को न केवल पीने के लिए पानी चाहिए अपितु स्नान, बस्त्रों की धुलाई, तापन, वातानुकूलन, कृषि, पशुधन, उद्योगों के विस्तार, संतरण, नौवहन, मनोरंजन, वन्य जीवाश्रय, एवं अपशिष्टों के निष्पादन के लिए भी जल संसाधन नितांत आवश्यक है। इसलिए यह कहा जाता है कि अच्छे जल की कमी का अर्थ है, विकास का अवरुद्ध हो जाना। जिस जन समुदाय के पास जल का संसाधन सीमित होता है, उसका विकास भी सीमित होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि मनुष्य बृहत् पैमाने पर अन्नोत्पादन एवं विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के लिए जल की उपलब्धता पर निर्भर है। इधर उद्योगों के विस्तार के साथ-साथ पानी की माँग में भी बढ़ोत्तरी हुई है। जिस तीव्रता से आबादी बढ़ी है उसकी द्विगुणित गति से (मात्रा में) जल की माँग भी बढ़ी है। ज्यों-ज्यों विश्व की आबादी बढ़ेगी, औद्योगिक उत्पादनों की दर में वृद्धि होगी, त्यों-त्यों पानी की माँग भी बढ़ती जायेगी।

स्थलीय जल का उपयोग

प्रश्न: स्थलीय जल संसाधन के उपयोग एवं महत्त्व पर प्रकाश डालें।

उत्तर : भूमितल पर व्याप्त व्यापक जल राशि के एक प्रतिशत से भी कम मात्रा में घरातलीय एवं भूमिगत या भौम-जल उपलब्ध है। यही जलं मूलतः मनुष्य के लिए उपयोगी है। स्थलीय जल का उपयोग मनुष्य निम्नलिखित प्रयोजनों के लिए करता है-

(1) घरेलू एवं दैनिक उपयोगों के साथ पेय जल के हेतु,

(2) उद्योग-धंधों की ज़रूरतों के उपयोग के लिए;

(3) सिंचाई के लिए;

(4) नौ-परिवहन एवं व्यापारिक मार्ग के रूप में;

(5) जल विद्युत उत्पादन के निमित्त;

(6) जल-प्रवाह और बाढ़ नियंत्रण के लिए;

(7) खनिजों के विदोहन, घुलाई एवं परिष्करण के लिए,

(8) गंदे पानी को निकालने के लिए;

(9) बालू, बजरी तथा अन्य पदार्थों की प्राप्ति के लिए;

(10) खाद्य पदार्थों की प्राप्ति के लिए;

(11) मत्स्य पालन के लिए;

1. पेय, घरेलू एवं दैनिक कार्यों के लिए पेय जल के रूप में पानी का उपयोग निर्विवाद है। विशाल सागरों और महासागरों के लवणीय (खारा) जल का विशाल भंडार मनुष्य के किसी काम का नहीं। इसके लिए तो उसे स्थलीय जल-स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। उसे पीने एवं अन्य दैनिक घरेलू कार्यों, जैसे खाना बनाने, स्नान करने, वस्त्रों की धुलाई, मवेशियों को पिलाने और साफ-सुथरा करने के लिए पानी चाहिए। उसे यह पानी कुआँ, तालाब तथा नदी आदि से मिलता है। नगरों की विशाल जल-प्रणाली नदी पर बने विशाल जलाशयों अथवा भूमिगत जल के विदोहन (नलकूपों) पर ही टिकी हुई है।

2. उद्योग-धंधों की जरूरतों के लिए : पानी उद्योग-धंधों के लिए भी जरूरी है। धानी उद्योग-धंधों की एक आधारभूत आवश्यकता है। उद्योग-धंधों में पानी का उपयोग अनेक रूप में होता है, चथा, संसाधित जल के रूप में (processed water), गर्म लौह पिण्डों को संडा करने के लिए, कपड़ों की घुलाई रंगाई के लिए, चर्च-उद्योगों के लिए, ग्वाथ-प्रसंस्करणों के लिए, कोयला-शोधन के लिए, जूट आदि की ५फाई के लिए स्थलीय जल का ही उपयोग किया जाता है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि विश्व में उद्योगों का विस्तार और विकास नदी तटीं पर ही हुआ है, जहाँ सहजता और सरलता के साथ संसाधनीय जल (processed water) उपलब्का था। जहाँ यह सुविधा उपलब्ध नहीं शी, नहाँ नदियों पर बड़े-बड़े बाँध बाँधकर जलाशयों के निर्माण द्वारा इस कमी को पूरा किया गया।

3. कृषि क्षेत्रों में सिंचाई के निमित्त : फसलों की सिंचाई के लिए स्थलीय जल का उपयोग एक जानी हुई बात है। सिंचाई के बिना कृषि सम्भव नहीं है। सिंचाई के लिए नदी का जल चाँध था जलाशय का जल, नहर का जल या भूमिगत जल, जैसे-कुओं (रहट) आदि अथवा नलकूपों का जल ही काम में आता है। जिस देश में सिंचाई की तकनीक जितनी अधिक उन्नत है, उस देश में फसलों का उत्पादन उतना ही अधिक होत्ता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए इसका अनन्य महत्त्व है।

4. नौ-वहन एवं परिवहन मार्ग के रूप में आज से नहीं, प्राचीन काल से ही नदी-मार्ग आवागमन, व्यापार एवं सम्पर्क का सबसे सस्ता और सुलभ साधन था। बड़ी नौकाओं और जलयानों पर माल लादकर व्यापारी एक जगह से उसे दूसरी जगह पर ले जाते और उनकी खरीद-बिक्री करते रहे। अन्तर्देशीय नदियों ने नौ-वाहन और परिवहन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अब नौकाओं का स्थान जहाजों, स्वचालित बोटों और स्टीमरों आदि ने ले लिया है। नदी मनुष्यों के आवागमन से लेकर मालों की ढुलाई का मार्ग बनी रही हैं। भारत में गंगा एवं सिन्धु नदी का इस दृष्टि से अन्नय महत्त्व है। यूरोप में राईन, डेन्यबू, वोल्गा, चीन में यांग टिशिकियाँग और दक्षिण अमेरिका में आमेजन नदी का जल-मार्ग के रूप में उपयोग होता रहा है।

5. जल-विद्युत उत्पादन के निमित्त वर्तमान समय में वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में जल विद्युत ने महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया है। विश्व के प्रायः सभी देश विद्युत ऊर्जा उत्पादन के अपेक्षाकृत इस निरापद संसाधन का उपयोग करते हैं। भारत के विकास में तो जल विद्युत का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जल विद्युत उत्पादन के निमित्त नदियों के जल-प्रवाह को रोककर जलाशयों का निर्माण किया जाता है। इसके बाद जल को नीचे गिराकर जल-विद्युत का उत्पादन किया जाता है।

झारखण्ड राज्य में तेनुघाट जल विद्युत निगम, स्वर्णरेखा हाइडल प्रोजेक्ट आदि जल विद्युत उत्पादन के केन्द्र हैं। झारखण्ड और बंगाल का दामोदर घाटी निगम, जल, विद्युत उत्पादन की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है।

6. जल-प्रवाह और बाढ़ नियंत्रण के लिए स्थलीय जल का उपयोग जल-प्रवाह और बाढ़ को नियंत्रण में रखने के लिए भी किया जाता है।

7. खनिजों के विदोहन के लिए बहुत सी नदियों से नमक और चूना जैसा खनिज भी प्राप्त किया जाता है।

8. गन्दे पानी को निकालने के लिए जमे हुए गंदे पानी को निकालने के लिए भी स्थलीय जल का उपयोग किया जाता है।

9. बालू, बजरी आदि की प्राप्ति के लिए नदी-जल से ही विभिन्न कार्यों के लिए बालू एवं बजरी प्राप्त होते हैं।

10. स्थलीय जल का उपयोग मछली पालन के लिए भी किया जाता है।

उपसंहार : उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मानव जगत के लिए पानी (स्थलीय जल) का कितना अधिक महत्त्व है। मनुष्य पीने के पानी के रूप में, स्नान, वस्त्र-धुलाई, भोजन बनाने एवं घरेलू कार्यों के लिए पानी का प्रत्यक्ष उपयोग करता है किन्तु, पानी के अन्य उपयोग जैसे सिंचाई, उद्योग, मत्स्य पालन, खनिज-विदोहन, जल विद्युत उत्पादन आदि सभी मनुष्यों की जरूरतों को ही पूरा करने वाले हैं। मनुष्यों द्वारा स्थलीय जल का यह अप्रत्यक्ष उपयोग ही उनकी प्रगति और सुदृढ़ आर्थिक भित्ति के निर्माण का मूलाधार है।

सागरीय जल संसाधन एवं उसका उपयोग

प्रश्न : सागरीय जल संसाधन के महत्त्व एवं उपयोग पर विचार करें।

उत्तर : पृथ्वी का तीन भाग जलाच्छादित है। एक भाग ही भूखण्ड है। पृथ्वी के तीन हिस्सों का जल सागरों, महासागरों, नदियों, झीलों, झरत्तों, सरिताओं और हिमनदों के रूप में परिव्याप्त है। क्षेत्रफल की दृष्टि से, पृथ्वी पर महाद्वीपों की अपेक्षा महासागरों का विस्तार अधिक है। सात महाद्वीप पृथ्वी के मात्र एक चौथाई भाग में सिमटे हुए हैं, जबकि पाँच महासागर पृथ्वी के तीन हिस्से में परिव्याप्त हैं। भूतल का 71.6 प्रतिशत भाग महासागरीय जल से आच्छादित है। इन महासागरों की औसत गहराई 3.5 कि.मी. है। समुद्र तल से ऊपर उठे हुए सम्पूर्ण महाद्वीप पदार्थ के घनत्व से महासागरों का आयतन कई गुणा अधिक है। पृथ्वी के जल के समस्त उच्चावच को काटकर यदि पृथ्वी पर फैला दिया जाये तो समस्त भूमण्डल 3.2 कि.मी. गहरे महासागरों में डूब जायेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि संसार जल-संसाधन या सम्पदा की दृष्टि से मालामाल है। अन्य प्राकृतिक संसाधनों की अपेक्षा जल-संसाधन बहुत अधिक, लगभग असीम है। जल संसाधन एक प्रकार से न चुकनेवाला अर्थात् नव्यकरणीय अक्षय संसाधन है। जल संसाधन अपने गर्भ में अनेक अन्य संसाधन, यथाअनेक प्रकार के रत्न (मोती) आदि, अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ, जैसे प्राकृतिक तेल, लवण, चूना इत्यादि, समुद्री वनस्पतियाँ, समुद्री जीव-जन्तु, जैसे-मछली, प्रवाल आदि छिपाये हुए है। अतः महासागरीय जल संसाधन का मानव जीवन के लिए उपयोग और महत्त्व निर्विवाद है।

महासागर जलवायु को नियंत्रित करता है। वह अनेक प्रकार का खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराता है। महासागर परिवहन का एक सर्वसुलभ और सस्ता माध्यम है। महासागरों पर अनेक उद्योग-धंधे निर्भर है। महासागर मनोरंजन का उत्तम और सस्ता माध्यम है। महासागर मनुष्य को स्वस्थ, संघर्षशील, कर्मठ और साहसी बनाता है। महासागर अन्तरराष्ट्रीय जल-मार्ग का माध्यम है। महासागरीय जल संसाधन का आर्थिक एवं पर्यावरणीय महत्त्व भी है। महासागर के जलीय संसाधन के उपर्युक्त महत्त्वों का क्रमशः विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है-

(i) अन्तरराष्ट्रीय जल-मार्ग के माध्यम के रूप में महासागरों का उपयोग: जिस समय आवागमन का कोई साधन उपलब्ध नहीं था और स्थल मार्ग अत्यन्त बीहड़, कठिन और प्रायः अज्ञात से थे, सभ्यता के उस उदयकाल में ही महासागरों ने आवागमन के माध्यम के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। पनुष्य ने अपनी खोजों से जान लिया था कि पृथ्वी के सभी महासागर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसी सूत्र को पकड़कर उसने महासागर से होकर विश्व की यात्रा शुरू की। बड़ी-बड़ी नौकाओं, बेड़ों, जलपोतों या जलयानों द्वारा उसने समुद्री सफर शुरू किया और उनपर माल लादकर अन्य देशों से व्यापार भी शुरू किया। महासागर अन्तरराष्ट्रीय राजमार्ग है, जिसके निर्माण और रख-रखाव पर मनुष्य की पाई-कौड़ी खर्च नहीं होती। कुछ हजार टन जहाज में 2.5 से 3 लाख टन तक माल ढोया जा सकता है। अर्थात् प्रति टन, प्रति कि.मी. आज भी बहुत थोड़ा व्यय होता है। इसलिए अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के परिवहन का सबसे सस्ता और सुलभ साधन जलयान (जहाज) या टैंकर है। महासागरीय जलमार्ग का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि इन पर किसी भी देश का एकाधिकार या स्वामित्व नहीं होता। इसलिए सागरों/महासागरों से जुड़े देशों के वाणिज्य-व्यापार की उन्नति में कोई बाधा नहीं आती। एक विद्वान का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि, "A country which has no port or sea coast is like a house which does not have outlet on the road" (जिस देश में न तो कोई समुद्री किनारा है और न बन्दरगाह है, वह उस आवास की भाँति है, जिसमें सड़क पर निकलने के लिए कोई द्वार नहीं है।) महासागरों में स्वतः निर्मित ऐसे राजमार्ग हैं, जिनमें मानव बड़े-बड़े जलयान या टैंकर चला सकता है।

(ii) महासागरों द्वारा जलवायु का नियंत्रण सूर्य के ताप से ग्रीष्म-काल में महासागरों का जल वाष्प बनकर उड़ता रहता है। फलस्वरूप महाद्वीपों की ओर भापयुक्त हवाएँ चलने लगती हैं। बाष्पयुक्त बायु मार्ग में जब, स्थलीय अवरोध से टकराती हैं तो वर्षा होती है। महासागरों के निकटवर्ती भागों का तापमान वर्षपर्यन्त लगभग समान रहता है जबकि महासागरों से दूर स्थित भाग गर्मी में अधिक गर्म और सर्दी में अधिक ठण्डे हो जात हैं। महासागरों में चलनेवाली महासागरीय धाराओं से भी किसी स्थान के तापमान में अन्तर आ जाता है, जैसे-गर्म जल धाराएँ जब ठण्डे स्थानों पर पहुँचती है तो वहाँ के जल का तापमान बढ़ जाता है। गल्फस्ट्रीम के कारण ही उत्तरी अमेरिका का दक्षिणी पूर्वी तथा यूरोप का उत्तरी-पश्चिमी तट जमने नहीं पाता।

(iii) महासागर खाद्य-सामग्रियों का भंडार महासागर मछलियों के स्थायी वास-स्थल हैं। अन्य खाद्यानों, यथा-चावल, गेहूँ एवं मांस के बाद विश्व में सर्वाधिक प्रिय भोजन मछली ही है। महासागर के तटवर्ती क्षेत्रों के लोगों का मुख्य पेशा मछली पकड़‌ना है। वे मछली पकड़ने के लिए समुद्र में दूर-दूर तक चले जाते हैं। जापान, ग्रेट ब्रिटेन, नार्वे, सोवियत संघ, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि में यह व्यवसाय अधिक लोकप्रिय है। समुदतटीय लोगों का मुख्य भोज्य पदार्थ मछली और भात है। पूर्वी एशिया में तो भात और मछली ही भोजन का प्रधान अंग है। महासागरों में प्रतिवर्ष लगभग 15 (पन्द्रह) करोड़ टन मछलियाँ पकड़ी जाती हैं लेकिन मछलियों की इस कमी की क्षतिपूर्ति इतनी ही मात्रा में महासागरों में मछलियों के प्रजनन एवं विकास द्वारा हो जाती है।

(iv) महासागर और उद्योग-धंधे महासागर के पानी से खारेपन अर्थात् लवणीय पदार्थ को निकालकर (desalination process) शुष्क प्रदेशों एवं तटवर्ती बस्तियों को शुद्ध जल की पूर्ति की जाती है। अकेले सऊदी अरब में डिसैलिनेशन प्लांट (desalination plants) का 15 इकाइयाँ कार्यरत हैं। ऐसी ही इकाइयाँ इस्रायल एवं दक्षिणी अरब में भी कार्यरत हैं। इनसे उप-उत्पाद के रूप में अनेक प्रकार के नमक, रसायन, दवाइयों व कच्चे माल प्राप्त होते हैं।

महासागरों में ऐसे अनेक पौधे, जीव काई (moss) आदि मिलते हैं, जिनको सुखाकर खाद्य पदार्थ, दवाइयाँ एवं रसायन भी प्राप्त किये जाते हैं।

(v) महासागर एवं मनोरंजन तटों पर धूप-स्नान, दृश्यावलोकन, नौका विहार आदि के लिए महासागर उपयुक्त स्थान है। महासागरीय जलवायु अत्यन्त उत्तम होती है, जो लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करती है। इसी कारण महासागर के तटवर्ती क्षेत्रों में मनोहारी कॉण्टिनेंटल होटलों का व्यवसाय काफी फला-फूला है। होनोलुलू के समुद्र तट पर अनेक राष्ट्रों के लोग धूप-स्नान (sun bath) के लिए जाते हैं। भारत में गोआ तथा मुंबई मनोरंजन के लिए विख्यात हैं। यहाँ भारतीयों के अतिरिक्त विदेशी नागरिक भी मनोरंजनार्थ आते हैं। समुद्री वायु अत्यन्त स्वस्थकर होती है।

(vi) सीमा निर्धारक के रूप में महासागरों की भूमिका कुमारी सैम्पुल के शब्दों में, "किसी, देश के लिए सागर ही ऐसी सीमा है जो अनंत काल तक स्थिर, अपरिवर्तित एवं यथार्थ बनी रहेगी।" यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महासागर देशों के प्रादुर्भाव काल से ही सीमा सुरक्षा का कार्य करते आये हैं।

इसके अतिरिक्त महासागर तटवर्ती क्षेत्रों में एक विशेष प्रकार की संस्कृति, वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि पाये जाते हैं। सागर एवं महासागर तटवर्ती लोगों को साहसी, जीवट, उद्यमी और कल्पनाशील बनाता है। यूरोपीय लोग इसी कारण कुशल उद्यमी, व्यापारी और विशाल साम्राज्य निर्माता बन सके। 16वीं से लेकर 19वीं शताब्दी तक उपनिवेशों के विकास और विस्तार के पीछे यही तथ्य काम करता रहा।

धरातलीय एवं भूमिगत जल का अविवेकपूर्ण उपयोग

(Over Utilisation of Surface and Ground Water)

प्रश्न : भूमिगत जल के अतिशय उपयोग ने अनेक जटिल समस्याओं को जन्म दिया है। कैसे? इन समस्याओं के निदानात्मक उपायों का वर्णन करें।

अथवा

प्रश्न : "जल संसाधन, विशेषकर भूमिगत जल के अविवेकपूर्ण उपयोग के कारण एक और जल प्रदूषित हुआ है, दूसरी ओर जलाभाब की भयानक समस्या मनुष्य के सामने मुँह बाये खड़ी हो गयी है।" इस समस्या का हल क्या है?

अथवा

प्रश्न : भूमिगत जल के अविवेकपूर्ण उपयोग के दुष्प्रभावों और उससे उसके बचाव के उपायों का वर्णन करें।

अथवा

प्रश्न : भूमिगत जल के अतिशय विदोहन ने भावी पीढ़ी को जलाभाव के भयानक संकट में डाल दिया है? इस समस्या का क्या समाधान है?

उत्तर : भूमिगत जल के अतिशय उपयोग का अर्थ आबादी बढ़ने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जल की बढ़ी हुई मात्रा की माँग भी बढ़ी है। अनेक क्षेत्रों में इस आवश्यकता को अपेक्षित मात्रा में पूरा कर पाना सम्भव नहीं हो पा रहा है। जल का अतिशय उपयोग विभिन्न स्तरों पर किया जाता है। बहुत से लोग पानी का उपयोग जरूरत से ज्यादा मात्रा में करते हैं। अपने देश में जल का अपव्यय लोगों की विरासती आदत-सी बनी हुई है। हममें से अधिकांश लोग नहाने और कपड़ा धोने में अनावश्यक मात्रा में पानी बर्बाद करते हैं। फसलों की सिंचाई के लिए जितना पानी आवश्यक है, किसान उससे कई गुणा अधिक पानी का उपयोग करते हैं। अन्य घरेलू कार्यों, जैसे-बर्तनों की सफाई, घर की धुलाई, पूजा-पाठ एवं बागवानी आदि में भी अधिक मात्रा में पानी का व्यर्थ उपयोग होता है।

भारत एक कृषिप्रधान देश है। भारत की खेती मौनसूनी वर्षा पर निर्भर है। मौनसूनी वर्षा की अनिश्चितता के कारण भारतीय कृषक सिंचाई की वैकल्पिक व्यवस्था के मुहताज हो गये हैं। भारत में सिंचाई के लिए नलकूपों, गहरे कुँओं तथा बोरिंग का प्रचलन जब से बढ़ा है तब से भूमिगत जल का स्तर अत्यधिक नीचे की ओर खिसकता चला जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के किसान लगभग 210 लाख ट्यूब वेल लगाकर खेतों की सिंचाई कर रहे हैं। इसी कारण भारत को 'पम्प क्रान्ति का केन्द्र' कहा गया है। पहले के लगाये नलकूप बेकार होते चले जा रहे हैं और उनकी जगह पर अधिक गहरे नलकूप बैठाये जा रहे हैं। इस प्रकार भूमिगत जल का स्तर दिनानुदिन नीचे और नीचे चला जा रहा है। एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि धरती के तल से हम एक बूँद भी जल नहीं निचोड़ पायें।

गार स्मिथ का कहना है कि, "जल विश्व का एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। एक औसत व्यक्ति तीन दिन से अधिक पानी के बिना अर्थात् प्यासा नहीं रह सकता। हमारे अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूमिगत जल का स्तर दुनिया में प्रतिवर्ष औसतन दस फुट गिरता जा रहा है। इसलिए प्राकृतिक जल स्रोतों पर कब्जा करने के लिए सैन्य शक्ति का भी प्रयोग किये जाने से इन्कार नहीं किया जा सकता है।" मार स्मिथ ने भूमिगत जल स्तर की गिरावट के प्रति जो चिन्ता व्यक्त की है, उसके जिस मावी दुष्परिणाम की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है, उस पर ध्यान देने की जरूरत है। इसी प्रकार की चेतावनी 'स्टॉकहोम के वार्षिक जल सम्मेलन' में विशेषज्ञों ने दी है, कि यदि इसी प्रकार जल का अति उपयोग होता रहा तो अगले दशक में भारत सहित एशिया को भयानक जल संकट का सामना करना पड़ सकता है।

जल संरक्षण की आवश्यकता गोये का कहना है कि "प्रत्येक वस्तु जल से उत्पन्न हुई है, प्रत्येक वस्तु जल द्वारा ही प्रतिपालित है। अतः इस प्रतिपालनीय संसाधन का संरक्षण अत्यावश्यक है।" विशेषकर भूमिगत जलों के दुरुपयोग और अति विदोहन को रोकना जरूरी है। इसकी शुरुआत हम घर से ही कर सकते हैं। पानी के दुरुपयोग की आदतों पर अंकुश लगाकर जल संरक्षण की दिशा में हम एक महत्त्वपूर्ण कदम उठा सकते हैं। किसान जरूरत भर ही फसलों की सिंचाई कर भूमिगत जल-स्तर को और नीचे गिरने से बचा सकते हैं। वे ड्रिप पद्धति (Drip Irrigation) की सिंचाई करके पानी को बचा सकते

जल संरक्षण के उपाय जल संरक्षण के लिए यह परम आवश्यक है कि पृथ्वी के अनेक गागों में सामान्य से अधिक वर्षा के जल को किसी एक स्थान पर जमा कर लिया जाय। जमा जल का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाय। उध्योग में आनेवाला जल सदैव सागर की ओर उन्मुख रहता है। अतः इसकी गति को कम कर इसका अधिकाधिक उपयोग करना जल संरक्षण का प्रमुख सिद्धान्त है। धरातल पर अथवा भूमि के भीतर कहीं भी जल को संचित करने से जल की उपलब्धता की निरन्तरता और नियमितता बढ़ती है तथा इसकी उपयोगिता में वृद्धि होती है।

जल संरक्षण का प्राथमिक प्रयास पृथ्वी पर वर्षा की पहली बूंद गिरने के साथ आरम्भहोना चाहिए। यदि वर्षा की बूँदों को व्यर्थ बहने न देकर, उसे उपयुक्त तकनीकों के प्रयोग द्वारा पृथ्वी में रिसने के लिए उन्मुख किया जाय तो वाष्पीकरण कम होगा, भूमिगत जल की मात्रा में वृद्धि होगी, मिट्टी की नमी बढ़ेगी, उसका कटाव रुकेगा।

जल संरक्षण का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम सघन वन होता है। वन सबसे ज्यादा मात्रा में जल का संचय करता है। वर्षा की बूँदों को प्रारम्भ से ही वनभूमि ग्रहण करना शुरू करती है। वन एक ऐसे जलाशय का काम करता है, जिसमें अवसादों के बैठने अथवा जमने की कोई सम्भावना नहीं होती। वन, जल संचय और संरक्षण के प्राकृतिक साघन हैं। वर्षा का पानी वनाच्छादित भूमि पर गिरता है। वह पत्तियों, अन्य बिखरे पदार्थों तथा मिट्टी के जैव पदार्थों द्वारा भूमि में प्रवेश करता है और अन्यत्र सरिताओं, झरनों एवं नदियों के रूप में प्रकट होता है। नदियों आदि के जल का कुछ अंश भूमिगत जलागारों में पहुँच जाता है। थोड़े समय की भी मूसलाधार वर्षा बनाच्छादित भूमि पर रुक जाती है और धीरे-धीरे बहती है।

मिट्टी की नमी में वृद्धि करने से भी जल का संरक्षण होता है। इससे वाष्पीकरण की क्रिया मंद पड़ जाती है और जल भी कम दूषित होता है। भूमिगत जल के ज्यादा उपयोग करने के कारण उसका स्तर नीचे चला जाता है। अतः भूमि के अन्दर अधिकाधिक जल को प्रवेश कराने के लिए एक ओर वन तथा मिट्टी से सम्बन्धित प्राकृतिक तत्त्वों की सुरक्षा करनी चाहिए वहीं दूसरी ओर भूमिगत जल के अपव्यय पर नियंत्रण स्थापित किया जाना चाहिए।

वर्षा जल संग्रहण भूमिगत जल-स्तर को ऊँचा उठाता है। वर्षा जल का संचय पुनर्भरण की उत्तम विधि है। इसमें वर्षा जल को रोकने तथा एकत्र करने के लिए विशेष ढाँचों, जैसे-कुएँ, गड्ढे, बँधिका, आदि का निर्माण किया जाना चाहिए। ये विधियाँ न केवल जल संचय के कारगर उपाय हैं अपितु ये जल को भूमिगत होने के लिए प्रेरित भी करती हैं और उसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। भूमिगत जलाशयों में पुनर्भरण की तकनीक को अपना कर वर्षा जल को इकट्ठा किया जाता है।

उपसंहार घरातल पर नदियों में बहनेवाले पानी के संरक्षण के लिए बाँध बनाना जरूरी है। बाँध प्रवाहित जल की गति को कम करके इसे संरक्षित करते हैं। नदी के जलप्रवाह क्षेत्र में आरम्भ से अन्त तक सहायक नदियों तथा मुख्य नदी पर कई बाँध बनाने की आवश्यकता होती है। ऊपर का हर बाँध नीचे के बाँध की समस्या को कम करता है। बाँध जल के बहुउद्देश्यीय उपयोग की सम्भावनाओं को बढ़ा देते हैं। सिंचाई के लिए नहरों द्वारा बाँध के ऊपर जलाशय में रुके जल को खेतों तक पहुँचाना सम्भव होता है। बाँधों से गिरते जल से जल विद्युत उत्पन्न कर सकते हैं। इनके अतिरिक्त जल-संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं-जल का पुनर्वितरण, जलाशयों का निर्माण, नहरों द्वारा शुष्क क्षेत्रों में पानी पहुँचाना, भूमिगत जल का विवेकपूर्ण उपयोग तथा भूतापीय जल का उपयोग इत्यादि।

प्रश्न : "जल संरक्षण की एक महत्त्वपूर्ण विधि उसका प्रदूषणों से बचाव है।" कैसे?

उत्तर : जल संरक्षण का एक और सर्वोत्तम उपाय उसे प्रदूषणों से मुक्त करना है। सामान्यतः पारिस्थितिकी ने स्वयं ऐसी प्रणाली विकसित कर रखी है कि नदियों आदि के जल का प्रदूषण स्वतः कम होता जाता है। यह क्रम अपने आप निरंतर चलता रहता है। नदियों के जल को प्रदूषण मुक्त करने तथा उसके सुदृढ़ीकरण में सूर्य का प्रकाश, वायु एवं सूक्ष्म वानस्पतिक जीव विशेष रूप से सहायक होते हैं। जल तथा जलस्रोतों में विद्यमान बैक्टिरिया, प्रदूषक पदार्थों का उपचयन के माध्यम से उनके कार्बनिक अंश को शनैः शनैः अकार्बनिक रूप में बदलते रहते हैं। फलस्वरूप जल के विभिन्न स्तरों में एकत्र होते रहनेवाले भारी पदार्थ पानी के तल में बैठ जाते हैं और जल शुद्ध हो जाता है किन्तु जब प्रदूषकों की मात्रा सीमा से बाहर हो जाती है तो पारिस्थितिकी का स्वतः शुद्धीकरण तंत्र विफल हो जाता है। ऐसी स्थिति में प्रदूषित जल का उपचार जरूरी हो जाता है। घरों से निकलकर नालों के माध्यम से नदियों के प्रवाह में मिलनेवाले जल को उपचारित करने के बाद ही प्रवाहित किया जाना जाहिए।

कृषि कार्यों में जरूरत से अधिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। उद्योगों को स्थापित करने की तब तक अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, जब तक वे अपशिष्ट जल के समुचित उपचारोपरांत बहाव का पक्का आश्वासन न दें। नदियों और जलाशयों में पशुओं को नहलाने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। सागरीय प्रदूषण को दूर करने के लिए उस पर फैले तेल को चूषिक युक्ति से शुद्ध किया जाना चाहिए। इस विधि का प्रयोग कई खाड़ियों तथा सागरों में किया गया है, जो सफल सिद्ध हुआ है।

भारत की नदियों, झीलों और समुद्र का प्रदूषण पराकाष्ठा को भी लाँघ चुका है। झारखण्ड राज्य की दो प्रमुख नदियाँ, स्वर्णरखा और दामोदर का पानी प्रदूषण के मामले में मानक ग्राफ को पार कर गया है। इसका मुख्य कारण दामोदर जैसी नदी के इर्द गिर्द औद्योगिक कारखानों की सीमातीत वृद्धि है। कारखानों के अपशिष्ट इन नदियों में बेरोकटोक बहा दिये जाते हैं।

जल में रेडियोसक्रिय पदार्थों का अम्बार भी बढ़ता जा रहा है। परमाणु ऊर्जा के उपयोग की दृष्टि से विकसित देश रेडियोएक्टिव कचरों को समुद्रों में डाल देते हैं। वे तो रेडियोएक्टिव कचरों की समस्या से मुक्ति पा लेते हैं किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से वे जल संसाधन को गम्भीर रूप से प्रदूषित कर पृथ्वी, पर्यावरण एवं मानवजाति के वर्तमान और भविष्य को गम्भीर संकट में डाल रहे हैं। अतः समुद्र में रेडियोएक्टिव कचरों को फेंकनेवाले राष्ट्रों पर अन्तरराष्ट्रीय विधान द्वारा अनिवार्य प्रतिवन्ध लगाया जाना चाहिए और जलस्रोतों में उसे फेंकने से पूर्व उसे हानिरहित सीमा तक उपचारित करने के लिए उन्हें विवश किया जाना चाहिए।

आजकल रासायनिक बुद्धक सामग्रियों का उपयोग निरंकुशता पूर्वक किया जा रहा है। रासायनिक युद्धक सामग्री न केवल युद्धस्थल के वायुमण्डल को प्रदूषित करती है अपितु अपनी चपेट में समस्त वायुमण्डल को ले लेती है। इसके कारण अम्ल वर्षा की तीव्रता और आवृत्ति बढ़ जाती है। ये जल स्रोतों को भी प्रदूषित कर डालती है। कुवैत-इराक युद्ध के समय देखा गया था कि फारस की खाड़ी के विस्तृत क्षेत्र का वायु एवं जलमण्डल प्रभावित हो गया है, जिससे वहाँ के पशु-पक्षी और जलधर बड़ी संख्या में मर गये।

बढ़ती आबादी ने सामुद्रिक जल संसाधन का अविवेकपूर्ण उपयोग किया है। इसके कारण समुद्र का पानी तेजी से अनुपयोगी होता जा रहा है। अतः समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों की जनसंख्या के घनत्व को कम करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण एवं सफल पहल की जानी चाहिए।

समुद्रों से अनेक प्रकार के बहुमूल्य खनिज प्राप्त होते हैं। मनुष्य आरम्भ से ही सामुद्रिक खनिजों का विदोहन करता आया है। सामुद्रिक जल में पर्याप्त मात्रा में नमक एवं पेट्रोलियम पदार्थ विद्यमान हैं। कुछ देशों ने समुद्रतली का छिद्रण कर उससे पेट्रोलियम पदार्थ निकालना भी शुरू कर दिया है, फलस्वरूप समुद्र का पानी जलीय जीव, वनस्पति एवं मनुष्य के उपयोग के लायक नहीं रह गया है। अतः समुद्र के तल से खनिजों के दोहन की सीमा निर्धारित की जानी चाहिए और उससे होनेवाले जल प्रदूषण को नियंत्रित करने का उपाय भी काम में लाया जाना चाहिए।

समुद्र-तट उद्योगों के विस्तार और विकास के लिए हर दृष्टि से अनुकूल होता है। लेकिन ये उद्योग समुद्रों में अपने कचरों और अपशिष्ट जल को डालकर उसे भयानक रूप से प्रदूषित कर देते हैं। उद्योगों पर प्रतिबंधक कानून लागू किया जाना चाहिए। समुद्र तट पर नये उद्योगों को लगाने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। उद्योगों को लगाने की छूट उद्योगपतियों को इसी शर्त पर दी जानी चाहिए कि वे कचरों और अपशिष्ट जल का समुचित उपचार करके ही समुद्र में बहायेंगे।

जल संरक्षण का समुचित उपाय उसका प्रदूषण से बचाव भी है। यह समय की माँग है और इस ओर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए।

वर्षा जल संचयन (Rain Water Harvesting)

प्रश्न : 'वर्षा जल संचयन' से आप क्या समझाते हैं? वर्षा जल संचयन की पुरानी और नयी विधि क्या है? वर्षा जल संचयन के महत्त्व और लाभों का वर्णन करें।

अथवा

प्रश्न : 'वर्षा जल संचयन' के अर्थ, तकनीक, महत्त्व और उपयोगिता पर प्रकाश डालें।

अथवा

प्रश्न : 'वर्षा जल संचयन' की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए उसकी उपादेयता का बर्णन करें।

उत्तर : 'वर्षा जल संचयन' जल संरक्षण का ही एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। वर्षा-जल संचयन का अर्थ, वर्षा के जल की एक-एक बूँद को आगामी उपयोग के लिए संरक्षित रख लेना है। वर्षा जल संचयन की तकनीक को अपनाकर वर्षा जल की बर्बादी को अधिकतम सीमा तक रोका जा सकता है। वर्षा जल को संचित और संरक्षित रख लेने से जल-संकट की समस्या से जूझ रहे विश्व को बहुत बड़ी राहत मिल सकती है।

भारतवर्ष में शताब्दियों पूर्व से घरेलू उपयोग, कृषि-कर्म, बागवानी एवं पशु-पालन के लिए वर्षा के पानी को संरक्षित रखने की परम्परा चली आ रही थी। भारतवर्ष में वर्षा जल संचयन की प्रचलित पुरानी तकनीक यह थी कि घरों और खेतों के ईर्द-गिर्द तालाब, पोखर, आहर, सरोवर आदि को खुदवाया जाता था। भारत के गाँवों, कस्बों और शहरों में तालाब खुदवाना धर्म एवं पुण्य का महान कार्य समझा जाता था। तालाबों से लोगों की पानी की जरूरतें पूरी होती थीं। वर्षा जल संचयन की प्रणाली तो शुष्क क्षेत्रों के लिए वरदान साबित हुई थी। केन्द्रित जलापूर्ति योजनाओं के प्रारम्भ होने से पूर्व तालाब, पोखर और आहर ही लोगों के लिए मुख्य जल-स्रोत थे। एक समय भोपाल भूतालों के शहर के रूप में प्रसिद्ध था। भूताल का अर्थ है राजाओं द्वारा निमित्त तालों। तालाबों का भूप ताल (राजाओं द्वारा निर्मित) के शहर के नाम से विख्यात था। भोपाल में तालाबों की भरमार थी। इस मामले में राजस्थान राज्य का मेवाड़ क्षेत्र भी अग्रणी था। अपने झारखण्ड राज्य की एक मौलिक पहचान तालाबों की भरमार थी। किन्तु मशीन द्वारा गहरी खुदाई (deep boring) के नलकूपों के प्रचलन में आने के बाद से परिस्थितियाँ बदल गयीं और 'वर्षा जल संचयन' की पुरानी प्रणाली की उपेक्षा शुरू हो गयी। फलस्वरूप तालाबों और पोखरों के रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया जाने लगा। ये तालाब उचित देखभाल के अभाव में या तो सूख गये या भर गये या गंदगियों का भण्डार बनकर अनुपयोगी हो गये।

जब से पानी की समस्या विकराल बनने लगी है और बड़े बाँधों के विनाशकारी परिणाम सामने आने लगे हैं तब से भारत के जल प्रबंधन विशेषज्ञों का ध्यान एक बार फिर से वर्षा जल संचयन की पुरानी भारतीय पद्धति की ओर चला गया है।

वर्षा जल संचयन की प्राथमिक तकनीक यह है कि उसका उपयोग स्त्रोत पर ही हो। वर्षा जल को जितनी अधिक मात्रा में संचित करके रख लिया जायेगा, पानी की वह राशि वर्षा-ऋतु की समाप्ति के बाद वह उतनी ही उपयोगी सिद्ध होगी। विश्व के अनेक देशों में, विशेषकर शुष्क प्रदेशों में पारम्परिक रूप से वर्षा जल का संचय लोग करते रहे हैं लेकिन संचित वर्षा जल को प्रदूषण मुक्त रखना एक बहुत ही जटिल एवं कठिन समस्या है। वर्षा का संचित जल प्रदूषण मुक्त रहने पर ही पीने के लायक हो सकता है। संचित जल में शैवाल एवं जूप्लैकटन नामक सूक्ष्म जीवाणु उत्पन्न हो सकते हैं। शैवाल और जूप्लैंकटन रोगाणुजनक होते हैं और ये रोगाणु शरीर को गम्भीर संक्रामक बीमारियों की चपेट में ले लेते हैं। अतः संचित वर्षा जल को संदूषण मुक्त रखना भी एक बड़ी गम्भीर समस्या है।

वर्षा जल संचयन की वर्तमान विधि के अन्तर्गत छत, छप्पर एवं छज्जों से बहते वर्षा जल को एक ढँकी हुई टंकी में संचित किया जाता है, जिसका उपयोग भानसून के बाद किया जाता है। वर्षा-जल-संचयन की यह प्रणाली सूखे इलाकों में बहुत ही उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध हुई है, लेकिन वर्षा जल संचयन की यह प्रणाली अत्यधिक खर्चीली होती है। इसीलिए लोग चाहकर भी इसे अपना नहीं पाते।

द्वारका के लोगों ने शताब्दियों पुरानी वर्षा जल संचयन प्रणाली को अपना कर अपनी जल संकट की समस्या का समाधान कर लिया है। द्वारका के नागरिकों के घरों में एक भूमिगत टंकी होती है। इस टंकी से छत या छज्जे से जुड़ी पाइप लाइन संयुक्त होती है। वर्षा का पानी सीधे इस टंकी में आकर जमा हो जाता है। यह टंकी पूरी तरह डॅकी होती है। सफाई के लिए थोड़ा-सा खुला स्थान होता है। टंकी के पानी की सफाई चूना 'भरे थैलों (बोरों) को डालकर की जाती है। टंकियों का आकार 25 वर्गमीटर होता है। अगर अच्छी वर्षा हो तो इसमें काफी पानी संचित हो सकता है। इसका उपयोग यदि केवल पेय जल एवं भोजन बनाने के लिए हो तो बल का यह भंडार लगातार दो वर्षों तक चल सकता है।

वर्षा जल संचयन की दूसरी विधि इसका इस प्रकार का संग्रहण है, जिससे वर्षा जल की एक-एक बूँद रिस (percolate) कर धरती के अन्दर चली जाय। इससे भूतल जलाशयों का पुनर्भरण सम्भव होता है और ये व्यर्थ बहकर नदी में नहीं जा पातीं। भूतल जलाशयों के पुनर्भरण के फलस्वरूप भौम जल का स्तर भी ऊपर उठेगा। भौम जल के स्तर के ऊपर उठने से कुओं का भी जल-स्तर ऊपर उठेगा और वह वर्ष-पर्यन्त काम आ सकेगा।

कुछ जगहों में वर्षा जल को भूमि में 'पम्पिग प्रणाली' द्वारा पहुँचाया जाता है। खुले स्थान में वर्षा-जल को संचित रखने घर वाष्पीकरण द्वारा उसके नुकसान की बहुत अधिक सम्भावना बनी रहती है। राजस्थान में अधिक गहरे तालाब और कुओं जैसे पारम्परिक वर्षा-जल-संचयन के उपायों का चमत्कार देखा जा रहा है, किन्तु सभी जगहों के लिए यह प्रणाली हू-ब-हू अपनाना उपयोगी नहीं भी सिद्ध हो सकता है। स्थानीय स्थिति के अनुसार, इस प्रणाली में यत्किचित परिवर्तन की भी आवश्यकता हो सकती है।

विशाल नगरीकरण एवं ऊँचौ अट्टालिकाओं के निर्माण के कारण वर्षा ऋतु में भी वहाँ वर्षा-जल-संचयन और भौमजल पुनर्भरण की प्राकृतिक प्रक्रिया अवरुद्ध हो गयी है। ऐसी स्थिति में निजी घरों की छत्तों और छन्जों से वर्षा जल के संचयन द्वारा भौम जल पुनर्भरण सम्भव है।

हॉलैण्ड विश्व का प्रथम आधुनिक देश है जहाँ आधुनिक तकनीकों द्वारा भौम जल पुनर्भरण की विकसित प्रणाली को अपनाया गया है।

वस्तुतः वर्षा-जल-संचयन की प्रणाली भूमिगत जल की क्षमता बढ़ाने की ही तकनीक है। इसमें वर्षा जल को रोकने और संग्रह करने के लिए विशेष ढाँचों जैसे कुँए, गड्ढे, बंधिका आदि का निर्माण करना शामिल है। इस तकनीक से न केवल जल का संग्रहण होता है अपितु उसके भूमिगत होने के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं। भूमिगत जलाशयों में कृत्रिम पुनर्भरण तकनीक को अपना कर वर्षा-जल को एकत्र किया जा सकता है। इससे घर-परिवार की आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है। जल संचयन के निम्नलिखित उद्देश्य बताये जाते हैं-

(1) पानी की कमी को दूर करना

(2) घरातल पर बहते जल को बर्बाद होने से रोकना

(3) सड़कों को जल-भराव से बचाना

(4) भौम-जल की गुणवत्ता और राशि को बढ़ाना

(5) भौम-जल संग्रहण की क्षमता तथा जल-स्तर को बढ़ाना

(6) भौम-जल प्रदूषण में कमी लाना

(7) ग्रीष्म काल तथा लम्बी-शुष्क अवधि में जल की घरेलू आवश्यकता को पूरा करना।

भौम-जल पुनर्भरण के लिए कम लागत की कई तकनीकें विकसित की गयी हैं। इनमें जल के रिसने के लिए सहायक गड्ढों का निर्माण, खेतों के चारों ओर गहरी नालियाँ खोदना, गड्ढों को फिर से भरना और छोटी-छोटी नदिकाओं पर बँधिकाएँ बनाना आदि शामिल हैं।

हमारे देश में वर्षा जल के संचयन के काम में अनेक स्वयंसेवी व्यक्ति और संस्थाएँ लगी हुई हैं। बिना सरकारी वित्त पोषण के इन्होंने पानी के संकट से जूझते लोगों को अविस्मरणीय राहत दिलायी है। स्वयंसेवी व्यक्तियों में महाराष्ट्र के औरंगाबाद के श्री अन्ना हजारे और 2000 ई. में रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित अलवर जिले (राजस्थान) के राजेन्द्र सिंह अग्रणी हैं। इन्होंने अपने प्रयासों से सिद्ध कर दिया है कि जल-संकट के समाधान में यदि जनसमुदाय रुचि लेने लगे तो यह संकट, संकट नहीं रह जायेगा।

जलछाजन प्रबंधन (Watershed Management)

प्रश्न: 'जलछाजन प्रबंधन' क्या है? इसकी क्या उपयोगिता है? जलछाजन प्रबंधन के उद्देश्यों और लाभों का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न: 'जलछाजन प्रबंधन' पर एक सारगर्भित टिप्पणी लिखें।

अथवा

प्रश्न: 'जलछाजन प्रबंधन' वर्त्तमान समय की एक महती आवश्यकता है।" क्यों?

उत्तर : जलछाजन प्रबंधन की संकल्पना नयी है और विगत कुछ दशकों से जल प्रबंधन की इस नयी तकनीक को विकसित करके कार्यान्वित किया जा रहा है। जलछाजन और वर्षा-जल-संचयन वस्तुतः जल संरक्षण की ही तकनीकें हैं। दोनों प्रणालियों को बर्तमान एवं भावी जल संकट के समाधान के निमित्त अपनाया जा रहा है। इन दोनों प्रणालियों में मुख्य अन्तर यह है कि वर्षा जल-संचयन की तकनीक घर से बाहर थोड़ी दूर की सीमा तक सीमित होती है, जबकि जल छाजन की तकनीक उसकी अपेक्षा अधिक व्यापक एवं विस्तृत क्षेत्र में अपनायी जाती है। इस तकनीक का उपयोग अधिक खुले स्थानों, यथा विस्तृत भूखण्डों, नदियों की घाटियों और पर्वत-पहाड़ियों की तलहटियों में किया जाता है।

जल छाजन क्या है: नदी सरिताओं से उद्गमित होती है। सरिताएँ, पहाड़ों और पहाड़ी ढालों से नीचे की ओर बहती हैं। छोटी-छोटी सरिताओं के समूह पर्वतीय घाटियों में बड़ी सरिताओं से मिलने के लिए नीचे की ओर प्रवाहित होते रहते हैं। बड़ी सरिताएँ उपनदियों का रूपाकार ग्रहण करती हैं। इन्हीं उपनदियों से नदियों का निर्माण होता है। एक विशिष्ट भूखण्ड का इससे जुड़ी जल नलिका प्रणाली के प्रबंधन को जलछाजन प्रबंधन कहा जाता है। डॉ. भरूचा ने 'जलछाजन प्रबंधन' की परिभाषा इन शब्दों में दी है- "The management of a single unit of land with its water drainage system is called watershed management."

जलछाजन प्रबंधन एक तकनीक है, जिसके कई महत्त्वपूर्ण अवयव हैं। इस तकनीक में मृदा एवं जल प्रबंधन तथा वनस्पति आच्छादन का विकास सम्मिलित है। जलछाजन के प्राकृतिक नालों के ढाँचों की यदि उचित रीति से देखरेख और प्रबंध हो तो ये स्थानीय लोगों की जरूरतों के लिए वर्ष भर पानी उपलब्ध करके उनके जीवन में खुशहाली ला सकते हैं। इस तरह जलछाजन के प्राकृतिक नाले, क्षेत्र विशेष के जीवन की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार लाने में सक्षम होते हैं।

जलछाजन की तकनीक द्वारा वर्षपर्यन्त जल उपलब्ध कराकर सामुदायिक स्वास्थ्य में सुधार लाती है क्योंकि इस तकनीक द्वारा साफ और शुद्ध पानी उपलब्ध हो जाता है। जलछाजन प्रबंधन कृषि की उपज बढ़ाने में भी सहायक होता है। यहाँ तक कि शुष्क प्रदेशों में भी इस तकनीक को अपनाने से एक वर्ष में अनेक फसलें उगायी जा सकती हैं।

जलछाजन प्रबंधन का प्रारम्भ अनुन्नत भूमि पर नियंत्रण-स्थापना से होता है। यह काम स्थानीय लोगों के सहयोग से ही सम्भव होता है। लोगों को यह बात समझायी जाने चाहिए कि जलछाजन प्रबंधन की तकनीक अपनाने से जल की मात्रा भी बढ़ेगी और उसकी गुणवत्ता में भी सुधार होगा। साथ ही जल की उपलब्धता की स्थिति में भी सुधार होगा। एक बार यदि लोगों को जलछाजन के महत्त्व और उपयोगिता समझ में आ जायेगी तो लोग स्वतः इसमें रुचि लेने लगेंगे तथा वे जलछाजन प्रबंधन के कार्यों में हाथ बँटाने के लिए आगे बढ़ेंगे।

जलछाजन प्रबंधन का प्राथमिक चरण मृदा संरक्षण के उपायों से प्रारम्भ होता है। मृदा संरक्षण खाइयों की श्रृंखलाओं और पहाड़ियों की समोच्चरेखा के चराबर टीलों के निर्माण से ही सम्भव है। इस प्रक्रिया को अपनाने से वर्षा जल को भूमिगत होने में सहायता मिलती है। इस प्रकार भौम जल के सम्पूर्ण पुनर्भरण की गारंटी मिल जाती है। मृदा का संरक्षण घास और झाड़ियों को उगा कर, पौधों (स्थानीय प्रजाति) को लगाकर किया जा सकता है। इस तकनीक से वर्षा काल में मिट्टी के क्षरण (कटाव) को कारगर ग से रोका जा सकता है। स्थानीय घासों के आच्छादन को तभी बचाया जा सकता है, जबकि पशु चारण को सीमा के अन्दर रखा जाय।

जलछाजन की तकनीक का अगला कदम सरिताओं के लिए बंद मुँह वाले नालों (nala plug) का निर्माण है। बंद मुँह वाले नालों के कारण सरिता का पानी व्यर्थ नहीं बहने पायेगा अपितु वह सरिता में ही रह जायेगा। चुनी हुई जगहों में चेक डैम (बंधिकाओं) का भी निर्माण किया जाना चाहिए। इन बंधिकाओं से विशाल जल-राशि को संचित रखने में मदद मिलेगी। इन सभी उपायों से ही कुशल जलछाजन प्रबंधन सम्भव हो पाता है। जलछाजन सरिताओं का भी जल स्तर ऊपर उठायेगा और उसमें वर्ष भर जल का प्रवाह बना रहेगा।

जलछाजन का सिद्धान्त क्षेत्र विशेष की जल-सम्बन्धी समस्याओं को जलछाजन प्रबंधन के अन्तर्गत स्थान दिया गया है। जलछाजन की तकनीक नदी के उद्गम स्थल से लेकर उसकी अन्तिम सीमा तक अपनायी जा सकती है। जलछाजन की व्यवस्था किसी एक घाटी के लिए भी की जा सकती है जो इसकी सरिताओं पर आधारित होगी। नाला प्लगों एवं चेक डैमों के निर्माण द्वारा स्थानीय जल को भूमिगत होने देने की व्यवस्था से उसे संरक्षित रखा जा सकता है। नाला प्लग और चैक डैम पानी के सतह पर व्यर्थ और तीव्रगामी बहाव को वर्षाकाल में रोकते हैं। जलछाजन का यह एक उत्तम पहलू है। इससे भूमिगत जलाशयों का पूर्णरूपेण पुनर्भरण सम्भव होता है। निर्वनीकरण जल की कमी का प्रमुख कारण है। जलछाजन का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू पुनर्वनरोपण है।

'जलछाजन प्रबंधन' में निम्नलिखित उद्देश्य शामिल हैं -

1. पानी को बह जाने से रोकने के लिए खेती एवं वानिकीकरण की सघन योजना को कार्यान्वित करना।

2. खड़ी ढाल वाली जगहों में जुताई और जंगलों की कटाई में कमी लाना।

3. खेतों में ही फसलों के अपशिष्ट छोड़ देने से बाढ़ की गति धीमी पड़ जाती है।

4. नमी वाले भू-क्षेत्रों के संरक्षण से प्राकृतिक जल भंडारण की क्षमता एवं पुनर्भरण क्षमता बढ़ती है।

5. जिन नदियों के निकट दलदली स्थान होता है और घास होती है, उन क्षेत्रों में बाढ़ की उग्रता कम हो जाती है क्योंकि दलदल पानी सोखने (स्पंज) का काम करता है।

6. नदिकाओं पर छोटी-छोटी बँधिकाओं (चेक डैम) के निर्माण का लाभ यह है कि उनमें जाकर जल रुक जायेगा और भीषण बाढ़ की सम्भावना क्षीण हो जायेगी। इन बंधिकाओं से निर्मित तालाब वन्य जीवों के लिए अच्छा आवास उपलब्ध करायेंगे और जल-भंडारण की सुविधा भी बढ़ेगी।

जल संरक्षण और बाढ़ नियंत्रण जैसे दोहरे एवं बहुआयामी उपायों को ही जलछाजन कहा जाता है।

खनिज संसाधन (Mineral Resources)

खनिज संसाधन, वर्गीकरण (प्रकार) और महत्त्व

प्रश्न : खनिज संसाधन क्या है? खनिज कितने प्रकार के होते हैं? खनिजों के महत्त्व का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न : 'खनिज संसाधन' का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके वर्गीकरण और महत्त्व पर प्रकाश डालें।

उत्तर : व्यापक अर्थ में खनिज रासायनिक यौगिक हैं, जो चट्टानों में संचिता रहते हैं। चट्टानों से इन्हें अलग (निकाल) करके टिकाऊ और उपयोगी सामग्रियाँ तैयार की जाती हैं। जो वस्तुएँ पृथ्वी के धरातल अथवा उसके गर्भ से खोदकर निकाली जाती है, उन्हें खनिज पदार्थ कहते हैं। खनिज प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाला वह पदार्थ है, जिसकी अपनी मौतिक विशेषताएँ होती हैं और जिसकी बनावट को रासायनिक गुर्णी द्वारा प्राप्त किया जाता है। जिन विशेष स्थानों से खनिज निकाले जाते हैं, उन्हें खदान (mines) कहते हैं। खनिज पदार्थ, जिन कच्ची धातुओं में मिलते हैं उन्हें अयस्क (ores) कहते हैं।

खनिजों का वर्गीकरण (प्रकार) खनिजों का वर्गीकरण उपयोगिता के आधार पर किया गया है। सामान्यतः खनिजों के दो ही मुख्य वर्ग हैं- (1) धात्विक खनिज (mettalie minerals) एवं (2) अधात्विक खनिज (non-mettalic minerals)1

1. धात्विक खनिज (Mettalic Minerals): घात्विक खनिज वे खनिज हैं, जिन्हें खदानों से निकालने के बाद सर्वप्रथम परिष्कृत किया जाता है। परिष्करण से घात्विक खनिज में चमक आ जाती है। चाँदी, सोना, ताँबा, जस्ता, सीसा, और लोहा इसी कोटि के खनिज हैं।

2. अधात्विक खनिज (Non-mettalic Minerals): अघात्विक खनिज वैसे खनिज हैं, जिनका परिष्करण सम्भव नहीं होता। उन्हे केवल खुरचकर अथवा काटकर विभिन्न आकृतियों में परिवर्तित किया जा सकता है। कोयला, चूना पत्थर, गन्धक, जिप्सम, नमक्क, खनिज तेल आदि ऐसे ही खनिजों के उदाहरण हैं।

उपयोग के आधार पर खनिजों को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है-

खनिज, ईंधन, धात्विक खनिज, अघात्विक खनिज खाद्यान्न उद्योगों में प्रयुक्त होने वाले खनिज, निर्माणोपयोगी (भवनादि) खनिज, रोधी खनिज, बहुमूल्य या प्रसाधन प्रधान खनिज। इन खनिजों का विवरण सहित वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. ईंधन के रूप में प्रयुक्त खनिज कुछ खनिज पदार्थ ऐसे हैं, जिनसे विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का उत्पादन किया जाता है। ऐसे खनिजों को 'ईंधन खनिज' कहा जाता है, यथा-कोयला, खनिज या जीवाश्मीय तेल, और प्राकृतिक गैस ।

2. धात्विक खनिज : जिन खनिजों का परिष्कार सम्भव होता है, परिष्कार से जिनमें चमक आ जाती है और जो प्रायः विभिन्न प्रकार के अयस्कों (ores) से प्राप्त किये जाते हैं, उन्हें घात्विक खनिज कहा जाता है, जैसे लोहा, टंगस्टन, मैंगनीज, ताँबा, सोना इत्यादि।

3. अघात्विक खनिज इस कोटि के खनिजों का परिष्करण सम्भव नहीं होता। ये खदानों से खुरचकर या काटकर निकाले जाते हैं, जैसे-कोयला, चूना, अभ्रक, गन्धक, ग्रेफाइट, संगमरमर इत्यादि।

4. खाद्यान्न उद्योगों में प्रयुक्त होने वाले खनिज, जैसे एपेटाइट, फॉस्फोराइट, फेल्सफर।

5. निर्माणोपयोगी खनिज कुछ खनिज पदार्थ ऐसे हैं, जिनका उपयोग भवनादि के निर्माण में होता है, जैसे-चूना पत्थर, संगमरमर, ग्रेनाइट, ऐस्बेस्टस इत्यादि।

6. रोधी खनिज (Insulating Minerals): कुछ खनिज पदार्थ ऐसे हैं जो विद्युत प्रवाह या ताप-प्रवाह आदि के रोधी होते हैं। अतः इनका उपयोग रोधी (insulation) के रूप में होता है, जैसे-ऐस्बेस्टस, जिप्सम, अभ्रक, इत्यादि। इनका उपयोग विद्युत उपकरण आदि के निर्माण में होता है।

7. बहुमूल्य या प्रसाधन प्रधान खनिज भूगर्भ से मनुष्य ने कुछ ऐसे खनिज खोज निकाले हैं जो उसके दैनिक उपयोग में तो नहीं आते परन्तु वे प्राचीन काल से ही प्रसाधन सामग्री की तरह, सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में तथा अमीरी और विलासिता की निशानी के रूप में प्रयुक्त होते आये हैं, जैसे-हीरा, सोना, चाँदी इत्यादि। एक-डेढ़ शताब्दी पूर्व तक सोना और चाँदी की मुद्राएँ (सिक्के) प्रचलन में थीं। आज भी धनराशियों की प्रत्याभूति (guarantee) के रूप में बैंकों में सोना को ही अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है।

8. रेडियोसक्रिय खनिज खानों से यूरेनियम, थोरियम, बोरियम आदि कुछ ऐसे खनिज प्राप्त किये गये हैं जो रेडियोएक्टिव गुणों से युक्त हैं। आज इनका व्यापक पैमाने पर उपयोग युद्धक सामग्रियों और ऊर्जा के सस्ते उत्पादन के लिए हो रहा है।

खनिजों का महत्त्व :

मनुष्य के शारीरिक ढाँचे के निर्माण और क्रियाशीलता के लिए कुछ खनिज पदार्थ विलकुल अनिवार्य हैं। प्रत्येक जीव, पौधे और पशुओं के शरीर में उनके जीवन-संधारण और क्रियाशीलता के लिए एक सुनिश्चित मात्रा में ये खनिज प्राकृतिक रूप में उपस्थित रहते हैं। इन खनिजों की कमी से शरीर विकार एव रोगग्रस्त होने लगता है, जिसकी पूर्ति मनुष्य औषधीय रूप में करता है।

लेकिन आधुनिक युग में मनुष्यों ने उद्योगों के विकास के लिए नाना प्रकार के खनिजों का विविध रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया है। आज की सभ्यता खनिजों के विदोहन और उपयोग पर ही टिकी हुई है। किसी राष्ट्र या देश की सुख-समृद्धि का मानदण्ड खनिज पदार्थ हो तय करते हैं। जिन देशों में खनिजों की बहुतायत है, उनके विशाल भंडार पाये जाते हैं और जो देश उनके उपयोग में जितना ही अधिक कुशल है, वह देश उतना ही सुसभ्य, समुन्नत, समृद्ध और शक्ति-सम्पन्न माना जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, यूक्रेन, ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम और जापान ऐसे ही राष्ट्र है, जिनकी उन्नति अन्य राष्ट्रों की तुलना में सर्वाधिक हुई है। आज की सभ्यता बहुत बड़ी सीमा तक खनिज पदार्थों पर ही निर्भर है। खनिजों ने मानव सभ्यता के विकास कास में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, इसका अनुमान विभिन्न खनिजों के नाम पर सभ्यता कालों के नामकरण के आधार पर लगाया जा सकता है, जैसे-प्रस्तर युग, लौह युग, कांस्य युग एवं स्वर्ण युग इत्यादि।

वर्तमान समय में कृषि, उद्योग, परिवहन और संदेश-वहन आदि सभी का विकास खनिज-सम्पत्ति पर ही निर्भर है। विश्व के उष्णतम मरुस्थल (विशेषकर कालाहारी) और ठण्डे मरुस्थल (विशेषकर अलास्का) आदि का विकास, इन क्षेत्रों में खनिजों की खोज के कारण ही सम्भव हो सका है।

खनिजों के विदोहन और पर्यावरण

प्रश्न: खनिजों के विदोहन (exploration) और उपयोग (use) के पर्यावरणिक प्रभावों का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न: "खनिजों का पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध है। खनिजों के विदोहन, उत्पादन की प्रक्रिया न केवल पर्यावरण अपितु सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र को दूषित करती है।" इस समस्या पर विचार करें।

अथवा

प्रश्न: खनिजों के विदोहन का दुष्प्रभाव न केवल पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है अपितु वह मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। कैसे?

उत्तर : पर्यावरण और खनिज में घनिष्ठ सम्बन्ध है। खनिजों का भण्डार मिट्टी या पृथ्वी के नीचे दबा पड़ा होता है। कुछ खनिज समुद्रों के तल-छिद्रण द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। खनिज भंडारों की विदोहन प्रक्रिया बड़ी लम्बी और जटिल होती है। इस लम्बी प्रक्रिया के क्रम में तनिक सी भी असावधानी, लापरवाही या चूक से पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को भयानक क्षति पहुँचती है।

खनिजों की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम उनके प्राप्ति-स्थल की सफाई की जाती है। भूमि पर उगे वृक्षों और वनस्पतियों या बन को काट दिया जाता है। फलस्वरूप इनसे मिलने वाली प्राणवायु आक्सीजन की मात्रा में एकाएक कमी आ जाती है। वनस्पतियों और वृक्षों द्वारा जहरीली गैसें सोख ली जाती हैं किन्तु उनके अनाच्छादन के कारण यह प्रक्रिया बाधित होती है और वायुमण्डल में जहरीली गैसों की मात्रा बढ़ जाती है। इसका बुरा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य, वन्य जीवों, पशुओं एवं शेष निकटवर्ती वनस्पतियों पर पड़ता है।

क्षेत्र-विशेष की सफाई के बाद उत्खनन प्रारंभ होता है। तह की मिट्टी काटी जाती है। जितने क्षेत्र की मिट्टी काटी जाती है, वह उससे चार गुणा क्षेत्र में फैल जाती है। इस तरह उपयोगी क्षेत्र को भी वह फैली मिट्टी बर्बाद कर डालती है। उत्खनन के कार्यों के बाद कठोर चट्टानों को विस्फोटकों (explosive) द्वारा तोड़ा जाता है। विस्फोटकों में प्रयुक्त बारूद वायु को प्रदूषित कर डालता है। विस्फोट के समय भयानक और कर्कश ध्वनि उत्पन्न होती है। यह आवाज आस-पास के मनुष्यों के दिल-दिमाग और श्रवण क्षमता को हानि पहुँचाती है। विस्फोटों की आवाज के कारण पशु-पक्षी और वन्य जीवों में भय व्याप्त हो जाता है। वे या तो मर जाते हैं या उस क्षेत्र को छोड़कर भाग जाते हैं। फलस्वरूप खनन क्षेत्र से महत्त्वपूर्ण वन्य जीव एवं पक्षियों का न केवल विनाश होता है अपितु कालान्तर में वे वे विलुप्त भी हो जाते हैं। खनिजों को निकालने के बाद अनुपयोगी पत्थर या चट्टानें सतह पर बेतरतीब पड़ी रहती हैं। इनके अनावश्यक बोझ के कारण वह भूमि बिल्कुल अनुपयोगी हो जाती है।

खनिजों के अयस्कों का उपयोग परिष्करण के बाद ही सम्भव होता है। इनकी धुलाई में लाखों लाख गैलन पानी बर्बाद होते हैं। धुलाई के पानी में अनेक प्रकार के विषैले हानिकारक रसायन घुले होते हैं जो अन्ततः प्राकृतिक जलस्रोतों में मिलकर उन्हें प्रदूषित कर डालते हैं। खनिजों के परिष्करण की एक प्रक्रिया धमन भट्ठियों में उनका गलाया जाना है। गलन प्रक्रिया से वायुमण्डल का तापीय प्रदूषण तो होता ही है, उससे निकले अनेक प्रकार के हानिकारक अपशिष्ट जमीन, जल और वायु को प्रदूषित करते हैं। खनिजों की खुदाई की गहरी खाने एवं जिन खानों में उत्खनन कार्य बंद कर दिया जाता है, वे प्रतिपल भयानक दुर्घटनाओं को आमंत्रित करते रहते हैं।

खनिजों के बिदोहन और उपयोग का पर्यावरणिक प्रभाव कई तथ्यों पर निर्भर करता है।

पर्यावरण पर पड़ने वाला प्रभाव खनिज की गुणवत्ता, खनन प्रक्रिया, स्थानीय जलीय स्थिति, जलवायु, चट्टानों की प्रकृति, खनन का आकार, स्थलाकृति एवं अन्य सम्बद्ध कारकों गर खनिजों के विदोहन और उपयोग पर निर्भर करता है। खनिज संसाधन के विकास-स्तर पर उसका पर्यावरण पर पड़ने वाला असर निर्भर करता है। अर्थात् विदोहन उत्खनन प्रक्रिया और इसमें बरती गयी लापरवाही की मात्रा पर खनिज विदोहन के कारण पर्यावरण प्रदूषण की मात्रा निर्भर है। उदाहरण के लिए, विदोहन और परीक्षण स्तर का प्रभाव पर्यावरण पर कम पड़ता है। इसकी अपेक्षा खनन प्रक्रिया एवं चूक स्तर का प्रभाव अधिक पड़ता है। खनिजों के उपयोग का समाज पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

खनिजों के विदोहन से पूर्व आँकड़ों का विश्लेषण किया जाता है। तत्पश्चात् क्षेत्र का नक्शा तैयार किया जाता है। इसके बाद खुदाई प्रारम्भ होती है। इन सब का पर्यावरण पर बहुत कम असर होता है। लेकिन विदोहन से पूर्व संवेदनशील क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। विशेषकर शुष्क एवं दलदली क्षेत्रों में उत्खनन कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व पूर्ण सावधानी बरती जानी चाहिए। शुष्क क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण या अन्य गतिविधियों के कारण मरुभूमि की बारीक गाद का क्षरण हो जाता है। है। इसके इसके कारण मिट्टी के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुण नष्ट हो जाते हैं। मिट्टी के इन गुणों के नष्ट हो जाने के कारण वह भू-क्षेत्र वर्षों-वर्ष के लिए अनुपयोगी हो जाता है। दलदली और नमी वाले क्षेत्र तनिक छेड़‌छाड़ से अपना गुण-धर्म खोने लगते हैं।

खनिज संसाधनों के उत्खनन के कारण भूमि, जल, वायु एवं जैविक संसाधनों पर महत्त्वपूर्ण प्रतिकूल असर पड़ता है। इसका समाज पर भी असर होता है। उत्खनन कार्य में लगे लोगों के आवासन एवं अन्य सेवाओं का भी स्थानीय समाज पर असर होता है।

खनिजों के विदोहन का निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कुप्रभाव पड़ता है-

1. भूमि का अवनयन।

2. घरातलीय एवं भौम जल संसाधन खनिजों के हानिकारक रसायनों के कारण प्रदूषित हो जाते हैं। कैडमियम, कोबाल्ट, ताँबा, सीसा एवं अन्य खनिज से संसर्गित प्राकृतिक जल-स्त्रोत दूषित हो जाता है।

3. खनिजों की घुलाई के क्रम में उसमें घुलकर बहने वाले अनेक प्रकार के विषैले रसायनों के दुष्प्रभाव के कारण बनस्पतियों का उगना अवरुद्ध हो जाता है।

4. धूलों और गैसों के उत्सर्जन से वायु प्रदूषित होता है।

5. खनिजों के विदोहन का एक अनिवार्य परिणाम निर्वनीकरण है, जिसके कारण वनस्पतियाँ एवं जीव विलुप्त होने लगते हैं।

6. जमीन, मिट्टी, पानी और हवा के दूषण (खनन कार्यों के कारण) से जैविक पर्यावरण पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ता है। विषैली मिट्टियों और पानी के उपयोग से मृत्यु होती है। खनिज विदोहन की यह प्रत्यक्ष क्षति है। इसके कारण पोषण तत्त्वों का चक्र प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है। सम्पूर्ण बायोमॉस (जैवभार) प्रजातियों की विविधता एवं पारिस्थितिकी का संतुलन भौम एवं धरातलीय जल की गुणवत्ता में उत्परिवर्तन के कारण बिगड़ जाता है। विदोहन के ये अप्रत्यक्ष प्रभाव हैं।

7. खनिजों के बिदोहन के क्रम में दुर्घटनाएँ घटती हैं। भूकम्प एवं बाढ़ जैसे प्राकृतिक आपदा काल में इस तरह की दुर्घटनाओ की सम्भावना बढ़ जाती है।

सामाजिक दुष्प्रभाव : खनिजों के विदोहन के निम्नलिखित सामाजिक दुष्प्रभाव पड़ते हैं -

1. विदोहन क्षेत्र में पूर्व से बसे लोगों की स्थानीय सेवाएँ, जैसे-जलापूर्ति, मल-जल और ठोस कचरों की निस्तार प्रणाली, स्कूल एवं आवासीय स्थिति आदि पर प्रभाव पड़ता है।

2. वन, कृषि एवं खुले क्षेत्रों के उपयोग की जगह भूमि का उपयोग घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए किया जाने लगता है।

3. स्थानीय मनोरंजन की सुविधाओं एवं वनस्थलियों पर दबाव बढ़ जाता है।

4. निर्माणकारी गतिविधियों एवं नगरीकरण का प्रभाव सरिताओं और नदियों पर पड़ता है क्योंकि इनमें गाद भरने लगती है, जल की गुणवत्ता घटने लगती है और बाढ़ की सम्भावना बढ़ जाती है।

5. निर्माण कार्यों, गाड़ियों के अधिकाधिक चलने से बहुत अधिक धूलि उड़ती है, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता है।

खाद्यान्न संसाधन (Food Resources)

खाद्य संसाधन और खाद्यान्नों के प्रमुख स्रोत

प्रश्न : खाद्य संसाधन और खाद्यान्नों के प्रमुख स्त्रोतों का वर्णन करें।

उत्तर : भोजन, वत्र और आबास में भोजन मनुष्यं की सर्वप्रमुख आवश्यकता है। बिना भोजन के मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। मनुष्य को जीवनी शक्ति भोजन से ही प्राप्त होती है। भोजन में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्त्व होते हैं। मनुष्य का शरीर भोजन से अपनी आवश्यकतानुसार पोषण तत्त्वों को प्राप्त करता है।

भोजन का मुख्य स्रोत खाद्यान्न हैं। मनुष्य एक प्रकार का अथवा एकरस भोजन नहीं करता। उसकी खाद्य-सामग्री विभिन्न प्रकार की होती है लेकिन खाद्य-सामग्रियों में मुख्य स्थान खाद्यान्नों का ही है। मनुष्य के आहार का दूसरा मुख्य स्रोत पशुओं के दूध, दूध से बनी सामग्रियाँ एवं पशुओं के माँस भी हैं। आहार का तीसरा स्रोत समुद्री खाद्य, यथा-मछली आदि हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के फल-फूल, दाल एवं सब्जियाँ भी मनुष्य खाता है।

आहार के स्त्रोत : आदिम समाज का मनुष्य शिकार करके अपना पेट भरता था। आपदा या अभाव के समय के लिए वह शिकार का संग्रह करना भी सीख गया था। आज भी बहुत-से जनसमुदाय जीवन-यापन शिकार द्वारा ही करते हैं लेकिन विशाल जनसमुदाय अपना आहार कृषि की फसलों और पालतू पशुओं द्वारा प्राप्त करता है। कुछ भोजन सामग्री महासागरों, सागरों एवं अन्य जल-स्त्रोतों से प्राप्त होती हैं। लेकिन अधिसंख्य लोगों के भोजन का मुख्य स्त्रोत भू-आधारित कृषि फसल और पशुधन ही हैं। खाद्यान्न संसाधन से सम्बन्धित प्रमुख - खाद्यान्न-स्रोतों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. फसलें : विश्व के लगभग ढाई लाख पौधों की प्रजातियों में से मनुष्य ने तीन हजार प्रजातियों का प्रयोग कृषि क्षेत्र में किया है तथा उनमें केवल तीन सौ प्रजातियों को खेती खाद्यान्न प्राप्ति के लिए की। इन तीन सौ प्रजातियों में से भी केवल एक सौ प्रजातियों ' का खाद्यान्न के रूप में प्रमुखता से उपयोग होता है। कुछ फसलों से खाद्यान्न प्राप्त होते हैं। कुछ फसलें व्यापारिक सामग्रियाँ प्रदान करती हैं यथा-रेशे और तेल इत्यादि। लेकिन आश्वर्य ही बात यह है कि इनमें से मात्र बीस किस्म की फसलों से ही विश्व की खाद्यान्न समस्या का निदान होता है। इन फसलों का महत्त्व क्रम इस प्रकार है-गेहूं, चावल (धान), मक्का, आलू, जौ, शकरकंद, कैसाभास (Cassavas), सोयाबीन, जैतून (Oats), सोरघुम (Sorghum), बाजरा (millet), ईख, केला एवं नारियल। इन खाद्य फसलों में से मात्र तीन फसलें-चावल, गेहूँ और मक्का-ही ऐसी हैं जिन पर उनके पोषक तत्त्वों और कैलोरी के लिए अधिसंख्य लोग निर्भर करते हैं। प्रतिवर्ष इन तीनों फसलों का कुल उत्पादन लगभग 1.6 मिलियन मीट्रिक टन है। संसार के विकासशील देशों के लिए गेहूँ और चावल ही खाद्यान्न के रूप में प्रमुख हैं क्योंकि ये रेशेदार खाद्यान्न हैं। मनुष्य द्वारा उपभोग किये जानेवाली कैलोरी का 60% भाग इन्हीं दो प्रमुख फसलों से प्राप्त होता है। इन दोनों खाद्यान्नों में 8 से 15% तक प्रोटीन होता है। ये दोनों अनाज विटामिनों और रेशों के भी प्रमुख स्रोत हैं।

ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में आलू, जौ, जैतून, राई (Rye) की अच्छी पैदावार होती है क्योंकि इनकी पैदावार के लिए ठंडा और नमी युक्त जलवायु चाहिए जो इन क्षेत्रों में उपलब्ध है। कैसाभास, शक्करकंद, कंदमूल और अन्य रेशेदार खाद्यान्न असेजोनिया, अफ्रीका एवं दक्षिण प्रशांत महासागरीय प्रदेशों में पैदा होते हैं। ये खाद्यान्न शुष्क और नमी वाले क्षेत्रों में उपजते हैं।

अफ्रीका के शुष्क क्षेत्रों में सोरघुम और बाजरे की अच्छी खेती होती है क्योंकि ये उष्णता (ताप या गर्मी) की प्रचण्डता सहने में सक्षम होते हैं।

फल और सब्जियाँ (वनस्पतिक तेल सहित) भी मनुष्य के आहार के प्रमुख प्रतिपूरक हैं। फल और सब्जियाँ इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये विटामिनों, खनिजों, रेशों और संश्लिष्ट कार्बोहाइड्रेट से परिपूर्ण होते हैं।

2. पशुधन : घरेलू या पालतू पशुधन भी खाद्यों के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। जिन पशुधनों से प्रमुख खाद्य सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं, वे पशु जुगाली करनेवाले होते हैं। यथा-गाय, भेड़, बकरा-बकरी, ऊँट-ऊँटनी, हिरन इत्यादि। जुगाली करने वाले पशु, पौधों के काष्ठीय उत्तकों (woody tissue) को सेलुलोज में बदल देते हैं। काष्ठीय उत्तकों को मनुष्य सीधे पचा नहीं पाता। मनुष्य को दूध दुधारू पशुओं से प्राप्त होता है।

3. जलीय खाद्यान्न नदी, तालाब एवं सागरों/महासागरों से जलीय खाद्यान्न प्राप्त होते हैं। मछली और रामुद्री खाद्यान्नों से लगभग 70 मिलियन टन उच्च कोटि के प्रोटीनयुक्त आहार विश्व को प्राप्त होता है। समुद्री खाद्यान्न और मछली को यदि हम मिला दें तो वे मिलकर पार्थिव पशुओं से प्राप्त होनेवाली खाद्य सामग्री के अर्द्धश ही होंगे। यद्यपि जलीय स्त्रोतों से प्राप्त खाद्य सामग्री की मात्रा थोड़ी ही है तथापि वे एशिया एवं यूरोपवासियों के लिए प्रोटीन प्राप्ति के महत्त्वपूर्ण स्त्रोत हैं।

विश्व की खाद्य समस्या

प्रश्न : विश्व की खाद्य समस्या का वर्णन करें।

अथवा

प्रश्न : विश्व की खाद्य समस्या अन्नोत्पादन की कमी के कारण है अथवा असमान वितरण के कारण? स्पष्ट करें।

अथवा

प्रश्न : विश्व खाद्य समस्या पर अपना तर्कसंगत विचार प्रस्तुत करें।

अथवा

प्रश्न : "विश्व खाद्य समस्या भुखमरी और कुपोषण से लेकर अतिशय उपभोग के बीच झूल रही है।" इस समस्या के समाधानात्मक उपायों का संकेत करें।

अथवा

प्रश्न : विश्व की खाद्य समस्या वास्तविक है या कृत्रिम ? स्पष्ट करें।

उत्तर : विगत दो दशकों के भीतर दक्षिण अफ्रीकी देश सोमालिया और पूर्व सोवियत संघ के विघटित देशों को विश्व ने भयानक खाद्य समस्या से जूझते हुए देखा है। प्राकृतिक आपदा जैसे अनावृष्टि, अतिवृष्टि और बाढ़ से उत्पन्न दुर्भिक्ष हो या अन्य अनेक राजनीतिक, आर्थिक कारणों से उत्पन्न अकाल हो, आज के प्रगतिशील विश्व में लोगों को भूख से मरते देखकर आश्चर्य होता है। 'खाद्य एवं कृषि संगठन' (FAO) के एक आकलन के अनुसार लगभग 840 340 मिलियन लोग दीर्घकालिक भूख से पीड़ित हैं। इनमें से 800 मिलियन बुभुक्षित लोग केवल विकासशील देशों के हैं। शेष चौबीस मिलियन में विश्व के शेष भागों के बुभुक्षित लोग हैं। 'खाद्य एवं कृषि संगठन' का कहना है कि यद्यपि भुखमरों की संख्या में प्रतिवर्ष 2.5 मिलियन लोगों की कमी विगत आठ वर्षों में देखी गयी है लेकिन इससे विश्व की खाद्य समस्या से जूझते लोगों की तकलीफों में कोई कमी नहीं आयी है। विश्वस्तरीय संगठनों ने 2015 ई. तक बुभुक्षितों की संख्या आधी कर देने का लक्ष्य रखा है, परन्तु जिस मंथर गति से इस दिशा में कार्य हो रहा है, उस गति से तो लक्ष्य की प्राप्ति में आगामी सौ वर्ष भी कम पड़ेगा। केवल अपने ही देश में लगभग 300 मिलियन लोग भुखमरी के शिकार हैं। ये लोग निर्धनता रेखा (poverty line) के नीचे जीवन यापन कर रहे रहे हैं। उनके लिए भोजन 'की उपलब्धता बिल्कुल अनिश्चित है। इसका अर्थ साफ है कि इन लोगों में खाद्य-सामग्री की क्रय-क्षमता नहीं है और वे अपनी आमदनी से प्रतिदिन के लिए आवश्यक कैलोरी युक्त भोजन प्राप्त करने या खरीदने में पूर्णतः अक्षम हैं। भारत ही नहीं विश्व भर में खाद्य समस्या खाद्यान्नों की कमी के कारण नहीं है अपितु इस समस्या की जड़ में 'आय का असमान वितरण' है। थोड़े से लोगों की मुट्ठी में राष्ट्र/राष्ट्रों की अपार संपदा बंद है।

विश्व के खाद्य-संकट के पीछे और अनेक कारण हैं। कुछ कारण वास्तविक हैं तो कुछ कारण बनावटी हैं। अनेक विकसित राष्ट्र जिनके यहाँ खाद्यान्नों का अतिरेक है, वे राजनीतिक प्रभुत्व, मुनाफाखोरी एवं अन्य कूटनीतिक कारणों से कमी वाले क्षेत्रों में अन्नों के निर्यातों पर नाना प्रकार के प्रतिबंध लगाये रहते हैं। उनकी क्रूरता की हद तो तब देखी जाती है जब एक ओर अन्य देशों के लोग भूखों मर रहे होते हैं तो दूसरी ओर वे अपने अन्नागार को समुद्र में डुबो कर अथवा अन्य प्रकार से नष्ट कर या खड़ी फसलों में आग लगाकर बर्बाद कर देते हैं।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इस कूटनीतिक चालों के कारण खाद्य-संकट गहराता है तो देश के भीतर भी मुनाफाखोर व्यापारी कालाबाजारी में लिप्त व्यवसायी और जमाखोर कारोबारी बाजारों में कृत्रिम अभाव उत्पन्न कर लोगों के भूखों मरने के लिए मजबूर कर देते हैं।

खाद्यान्न संकट का एक कारण बहुत से देश की अकुशल प्रबंधन नीति है। भारत यद्यपि अन्न के मामले में लगभग आत्मनिर्भर बन चुका है तथापि भंडारण की उचित व्यवस्था के अभाव में रेलवे शेडों तथा खुले गोदामों में अन्न का विशाल भंडार सड़ जाता है। किसानों को अपने उत्पादन का जब उचित मूल्य नहीं मिलता तो वे आगामी वर्षों में उत्पादन कम कर देते हैं। इसके कारण भी अन्न का अभाव उत्पन्न हो जाता है और कीमतें आसमान छूने लगती हैं। फलस्वरूप अन्न की खरीद गरीबों की पहुँच से बाहर हो जाती है।

विश्व में खाद्यान्न की कमी का एक कारण किसानों के रुझान में परिवर्तन भी है। वे आजकल खाद्यान्नों की जगह नकदी (cash) फसल या वाणिज्यिक फसलें (commercial crops) उपजाने में अधिक रुचि लेने लगे हैं।

खाद्यान्नों के संकट के इन प्रवृत्तिगत, कूटनीतिक एवं मुनाफाखोरी आदि की वजहों से भी बड़े अनेक कारण हैं जिनमें प्रमुख कारण कृषि योग्य भूमि का अभाव एवं असमान वितरण, जलवायबिक अनिश्चितता एवं प्राकृतिक आपदामूलक कारण, जनसंख्या में वृद्धि की तीव्र गति, कृषि में महँगा निवेश, खाद्यान्न फसलों पर निर्भरता, खाद्य पदार्थों की वर्जना, नयी तकनीकों की जानकारी और प्रसार का अभाव, संस्थागत भूमि सुधार का अभाव, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर समन्वय का अभाव पोषक तत्त्वों की कमी तथा कुपोषण आदि हैं।

भारत की खाद्य समस्या और उसका समाधान

प्रश्न : भारत की खाद्य समस्या और उसके समाधान के उपायों का वर्णन करें।

उत्तर : पिछले पाँच दशकों में भारत का खाद्यान्न उत्पादन पिछले वर्षों की तुलना में चार गुना बढ़ गया है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में अपने देश में 510 लाख टन ही खाद्यान्न उत्पादित हुआ था। उत्पादन की यह सीमा 1999-2000 ई. में बढ़कर 2090 लाख टन हो गयी। लेकिन देश की आबादी 1951 ई. में जहाँ 36 करोड़ 10 लाख थी, वह 2001 ई. में बढ़कर एक अरब दो करोड़ सत्तर लाख हो गयी। पिछले चार-पाँच वर्षों में देश की जनसंख्या में और भी बढ़ोत्तरी हुई है। बढ़ती जनसंख्या के दबाव के बीच भी सन् 2001 ई. में हमारा देश 4 करोड़ 47 लाख टन का खाद्यान्न भंडार बनाने में समर्थ हो गया। इस भंडार ने हमें अनेक सूखों (droughts) का सामना करने में समर्थ बनाया।

भारत वर्तमान समय में अपने नागरिकों की न्यूनतम खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है। परन्तु खाद्यान्न भंडार के इस संतुलन को भविष्य में में भी टिकाऊ बताने रखना सहज प्रतीत नहीं होता। यह अनुमान व्यक्त किया गया है है कि 2020 तक देश की जनसंख्या लगभग एक अरच तीस करोड़ हो जायेगी। इस बड़ी आबादी का पेड भरने के लिए पर्याप्त खाद्यान्नों, पलहनों, तिलहनों, शाक-सब्जियों और फलों की जरूरत पड़ेगी।

लेकिन इस विशाल अन्न भंडार और खाद्यान्नोत्पादन के बावजूद यह एक कटु चधार्थ है कि देश की असंख्य जनता दो वक्त के पर्याप्त भोजन से पैसे के अभाव में चंचित है। 1999-2000 ई. के आँकड़े के अनुसार भारत में गरीधी रेखा से नीचे जीवन यापन करनेवाले 26% लोग हैं। गाँवों में गरीबी रेखा से चीचे जीवन बसर करनेवाले लोगों का प्रतिशत 27% है जबकि नगरों में 23.6% लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन स्तर पर जीने के लिए विवश है। फिर भी गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का प्रतिशत काफी घटा है। 1993-94 ई. में यह 36% था जो 1999-2000 ई. में घटकर 26% हो गया। एक अरच दस लाख जनसंख्या वाले देश में 66 करोड़ लोगों के गरीबी रेखा से नीचे के जीवन स्तर का होना कोई सामान्य चिन्ता का विषय नहीं है अपितु यह एक असाधारण समस्या है।

किसानों के बीच खाद्यान्नों की जगह फल, सब्जी, तिलहन तथा उद्योगों में प्रयुक्त होनेवाले कच्चे मालों की फसलों को उगाने की प्रवृत्ति प्रक्रमशः बढ़ती चली जा रही है। अत: खाद्यान्नों और दलहनों की फसलें पहले जितने भागों में उपजायी जाती थी, वर्तमान समय में उसके शुद्ध बोये क्षेत्रफल में बहुत कमी आ गयी है। फलस्वरूप देश के समक्ष बढ़ती हुई जनसंख्या और खाद्यान्नों के उत्पादन की घटती दर के कारण खाद्य सुरक्षा की बहुत बड़ी चुनौती है। 2000-2001 ई. में भारत में कुल खाद्यान्न उत्पादन 1990 लाख टन था। अन्य प्रयोजनों के लिए भूमि के बढ़ते उपयोग के कारण कृषि भू-क्षेत्र का उत्पादन घंटा है। देश में अब कृषि योग्य नयी उर्वर भूमि उपलब्ध नहीं है। भूमि की उर्वरता में कमी के कारण उसकी उत्पादन क्षमता भी घटी है। कभी रासायनिक उर्वरकों और फसलों की सुरक्षा के लिए कीटनाशक दवाइयों के उपयोग को कृषि के लिए वरदान माना गया था, किन्तु यह चीजें अब अभिशाप बन गयी हैं और इसके कारण उत्पादन में बहुत कमी आ गयी है। इनके कारण न केवल उत्पादन घटा है अपितु फसलों की गुणवत्ता में भी उत्तरोत्तर हास आता जा रहा है। अतिवृष्टि और जलाभाव के कारण भी सिंचित भूमि का क्षेत्रफल घटा है। जल के अकुशल प्रबंधन के कारण जलाक्रांति (डूब) एवं क्षारीयता (salinity) भी बढ़ी है।

खाद्यान्न की समस्या का निदान देश के समक्ष क्रमशः खाद्यान्न की कमी की गंभीर होती समस्या का हल ढूँढ़ने के लिए कृषि वैज्ञानिकों को नयी कृषि तकनीक अपनाने का प्रयास करना होगा। उन्हें इस बात पर ध्यान देना होगा कि अंगीकृत तकनीक पर्यावरण की दृष्टि से सतत पोषणीय और टिकाऊ हो। कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए जैव प्रौद्योगिकी भी एक पूरक उपकरण का काम कर सकती है। जैव प्रौद्योगिकी (bio-technology) के द्वारा प्रति हेक्टेयर अधिक उपज लेने के लिए फसलों को आनुवंशकीय (genetically) रूप से सुधारा जा सकता है। इससे हमारे खाद्यान्न की समस्या हल होगी। पशुओं के लिए चारा रेशेदार फसलों की कमी भी पूरी हो सकेगी। इस प्रकार की तकनीक के उपयोग से फसलों की कीड़े-मकोड़े तथा बीमारियों से लड़ने की क्षमता भी बढ़ेगी। जैव प्रौद्योगिकी को अपनाने से कीटनाशी दवाओं पर निर्भरता भी घटेगी। आनुवंशकीय रूप से बदली फसलों को अन्य फसलों की तुलना में पानी की आवश्यकता कम पड़ेगी। इन सबका सकारात्मक परिणाम कुछ समय के बाद सामने आयेगा। कृषि उत्पादन का बाजार मूल्य भी घटेगा और कम आयवाले भी अपनी आवश्यकतानुरूप उपयुक्त कैलोरीयुक्त खाद्य सामग्री खरीद सकेंगे। इस तकनीक से पर्यावरणीय परिस्थितियों में भी सुधार होगा। बड़े अर्थात् अमीर किसानों सहित छोटे और गरीब किसानों, दीनों के लिए जैव प्रौद्योगिकी समान रूप से लाभप्रद सिद्ध होगा। जैव प्रौद्योगिकी पर्यावरणीय सुरक्षा और उसे सतत पोषणीय बनाये रखने में भी सहायक बनेगी।

खाद्य-संकट और आधुनिक कृषि का प्रभाव

(Food Problems and Effect of Modern Agriculture)

प्रश्न : खाद्य-संकट और आधुनिक कृषि का प्रभाव में क्या सम्बन्ध है?

अथवा

प्रश्न : आधुनिक कृषि का हम पर, हमारे पर्यावरण पर, खाद्य-संकट और मानव स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ा है?

अथवा

प्रश्न : आधुनिक कृषि ने किस तरह हमें, हमारे पर्यावरण तथा हमारे वर्तमान एवं भविष्य को प्रभावित किया है?

अथवा

प्रश्न : आधुनिक कृषि के समग्र प्रभावों का विवेचन प्रस्तुत करें।

उत्तर : पृष्ठभूमि: 'आधुनिक कृषि' का अर्थ उपज बढ़ाने के लिए किया जानेवाला कृत्रिम प्रयास है। प्राचीन काल से खेती के लिए किसान परम्परागत उपायों का सहारा लेते आये थे। इन उपायों का पर्यावरण के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध होता था किन्तु आधुनिक युग में जो कृषि तकनीक अपनायी गयी, उसका पर्यावरण के साथ मैत्रीपूर्ण सह-सम्बन्ध नष्ट हो गया। खाद्यान्न की बढ़ती जरूरतों के लिए अधिकाधिक वन-भूमि साफ (या नष्ट) कर दी गयी। सिंचाई की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बड़े-बड़े बाँध बाँधे गये। अधिक से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए रासायनिक खादों के प्रयोग की प्रवृत्ति में एकाएक वृद्धि हो गयी। कीटों, शाकनाशियों, पीड़कों आदि से बचाव के लिए रासायनिक दवाइयों के छिड़काव पर जोर दिया जाने लगा। सिंचाई के लिए भौम-जल का भी अतिशय दोहन हुआ। इस तरह खाद्यान्न के संकट से उबरने के लिए आधुनिक युग में अनेक ऐसी अन्य तकनीक एवं विधियाँ अपनायी गयीं जिनका अत्यन्त बुरा एवं विपरीत प्रभाव पड़ा। जो तकनीक एक समय बरदान प्रतीत हो रही थी, वह अभिशाप बनकर मनुष्य के वर्तमान और भविष्य तथा पर्यावरण को भयानक रूप प्से क्षति पहुँचानेवाली सिद्ध हो रही है। आधुनिक कृषि के प्रभावों और साथ ही उन उपायों के बारे में भी चर्चा की जा रही है जिनके माध्यम से आधुनिक कृषि द्वारा उत्पन्न समस्या का निदान सम्भव है-

1. कृषि भूमि के विस्तार के लिए वनभूमि का विनाश और उसका प्रभाव इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस गति से मानव आबादी बढ़ी है और बढ़ती जा रही है, उस अनुपात में अन्नोत्पादन को बढ़ाने के लिए पारम्परिक कृषि में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गयी। सबसे पहले, पहले से उपलब्ध कृषि योग्य भूमि में विस्तार लाने की जरूरत की ओर ध्यान गया। अतः इसके लिए जंगलों को काटा जाने लगा। इस क्रम में बनों का विनाश बुरी तरह हो गया।

वन-विनाश का कुपरिणाम शीघ्र सामने आ गया। वनों के कम हो जाने के कारण मिट्टी का क्षरण (अपरदन) बढ़ गया। मृदा अपरदन का प्रभाव मिट्टी की उपजाऊ शक्ति पर पड़ा और वह निरंतर घटती गयी। अपरदित मिट्टी बहकर नदियों तक पहुँचने लगी। फलस्वरूप नदियों में अवसाद की मात्रा बढ़ गयी। नदी की तली अवसाद के कारण ऊपर उठने लगी। इस तरह नदी की जल-संधारण की क्षमता भी कम हो गयी। इसका परिणाम बाढ़ के बढ़ते प्रकोप के रूप में दिखायी दिया। बाढ़ की चपेट में आकर लहलहाती खड़ी फसलें नष्ट हो जाती हैं।

पूर्व सोवियत संघ के स्टेपी, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा के शाद्वल (Prairies) क्षेत्र, दक्षिणी अमेरिका के पम्पाज, दक्षिण अफ्रीका के वेल्ड तथा डाउन्स शीतोष्ण घास क्षेत्रों को साफ करके कृषि योग्य भूमि का विस्तार किया गया। एक ओर तो बढ़ी हुई कृषि भूमि से प्राप्त अधिक उपज के कारण खाद्य संकट की समस्या का बहुत दूर तक निवारण हुआ लेकिन दूसरी ओर पारिस्थितिकी तंत्र में घोर असंतुलन उत्पन्न हो गया।

2. किसानों के बीच एकल फसल (Mono-Culture) की प्रवृत्ति पनपी। इसके परिणामस्वरूप बहुत भारी संख्या में जीव-जंतुओं का विस्थापन हुआ। जीव-जंतुओं की कई प्रजातियाँ सदा के लिए विलुप्त हो गयीं। भूमध्यसागरीय प्रदेशों में भी वनों को साफ करके अंगूर की खेती की जाने लगी। इसके कारण मौलिक एवं प्राकृतिक वन-सम्पदा और वनीय पारिस्थितिकी का विनाश हुआ। दूसरी ओर मृदा अपरदन में भी वृद्धि हुई।

3. 'झूम खेती' की प्रणाली (स्थानांतरणीय कृषि) भी अन्ततः विनाशकारी सिद्ध हुई। इस प्रणाली के कारण भी वृहतर वन क्षेत्र नष्ट हो गये। एक अनुमान के अनुसार 'झूम खेती' के कारण अकेले भारतवर्ष में प्रतिवर्ष 10,000 वर्ग कि.मी. वनभूमि नष्ट कर दी जाती है। असम एवं मेघालय के क्षेत्रों में वनों का विनाश कर व्यापक पैमाने पर आलू की खेती शुरू हुई। यद्यपि आलू की की इस पैदावार से उत्तर-पूर्व भारत की आलू की माँग की पूर्ति हो जाती है तथापि इसके कारण ऋतुचक्र (मौसम) एवं जलवायविक दशाओं और पारिस्थितिकी तंत्र में भारी उलट-फेर हो गया है। इसका कुप्रभाव व्यापक रूप में अब परिलक्षित होने लगा है।

4. भारत के कुछ राज्यों यथा हिमाचल प्रदेश एवं उत्तरांचल में सेब की खेती बहुत अधिक होने लगी है। सेब की फसल बहुत अधिक पैसा देनेवाली है। इस कारण इस क्षेत्र के लोगों ने वन-भूमि को विनष्ट कर दिया है। इन राज्यों में वनों के व्यापक विनाश के कारण हिमालय के पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। सेब के पौधे 6 से 7 वर्ष बाद फल देते हैं। इस अवधि में बाग के खाली क्षेत्रों में किसान आलू उगाते हैं। आलू उगाने के कारण मिट्टी का अपरदन बहुत अधिक होता है। सेब की एकल फसल के कारण पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन आता जा रहा है क्योंकि इसके कारण अधिकांश प्राकृतिक पौधे, जीव-जन्तु तथा सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं। उनसे उनका प्राकृतिक आश्रय छिन जाता है। फलस्वरूप उनके विस्थापन और विनाश की दोनों घटनाएँ एक साथ घटती हैं। सेब की सुरक्षा के लिए जिन रसायनों का 'उपयोग किया जाता है, उन रसायनों के प्रयोग से हानिकारक कीट-पतंग तो मरते ही हैं, लाभदायक कीट-पतंग एवं सूक्ष्म जीवाणु भी मर जाते हैं जिनका असर भविष्य में शताब्दियों तक मनुष्य को भोगना पड़ सकता है।

सेब की खेती का एक और कुपरिणाम सामने आया है। सेब के संवेष्टन (packing) के लिए बहुत अधिक लकड़ियों की आवश्यकता होती है। इस लकड़ी की प्राप्ति के लिए भी वनों को काटा जाता है।

5. रासायनिक उर्वरकों के प्रयोगाधिक्य के कारण मृदा का प्रदूषण बढ़ा है। जितनी मात्रा में खेतों में रासायनिक उर्वरक डाले जाते हैं, पौधे या फसलें उतनी मात्रा में उनका उपयोग नहीं कर पार्टी। बचे हुए रासायनिक उर्वरक घरातल पर इकट्टा होते जाते हैं। इनकी सांद्रता बढ़ जाने से कालांतर में मिट्टी के स्वाभाविक गुण, उसमें रहनेवाले लाभदायक सूक्ष्म जीवाणु भी समाप्त हो जाते हैं। धरातल पर संचित रासायनिक उर्वरक वर्षा जल के साथ बहकर प्राकृतिक जलस्रोतों में पहुँच जाते हैं और वे जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन उत्पन्न करते हैं। रासायनिक उर्वरकों का कुछ अंश रिसकर मिट्टी की सतह के नीचे भी पहुँचता है और वह भौम-जल को प्रदूषित कर डालता है।

फसलों की कीटों, पीड़कों एवं खरपतवारों से सुरक्षा के लिए अनेक प्रकार के रसायनों का छिड़काव किया जाता है। विभिन्न तरह के रसायनों के प्रयोग से मिट्टी में विभिन्न तरह के अवांछित रासायनिक पदार्थों की सांद्रता बढ़ती है। अमोनिया सल्फेट के खाद के प्रयोग से सल्फेट आयन, पोटैशियम एवं सोडियम नाइट्रेटस के प्रयोग से मिट्टी में पोटैशियम एवं सोडियम आयन की सांद्रता बढ़ती है। इनके प्रभाव से मिट्टी अम्लीय हो जाती है और इस प्रकार वह अनुपजाऊ बनकर बंजर में बदलने लगती है।

नाइट्रेट बहुत धीमी गति से पृथ्वी की तह तक पहुँचता है लेकिन वह भूमिगत जल मरों (aquifer) तक पहुँच ही जाता है। नाइट्रेट भौम-जल में जहर घोल रहा है। यह जहर अभी दिखाई नहीं पड़ रहा है लेकिन एक ऐसा समय आनेवाला है जब यह जहर मनुष्य पर कहर बनकर टूटेगा और उस समय असहाय मनुष्य अपने बचाव के लिए कुछ भी नहीं कर पायेगा।

6. सिंचाई के लिए ऊँचे बाँधों का निर्माण हुआ है तथा अब भी इनका निर्माण जारी है। लेकिन ऊँचे बाँधों और जलाशयों के कारण डूब क्षेत्रों का विस्तार हुआ है। इससे एक ओर विस्थापन की समस्या उत्पन्न हुई, दूसरी ओर जल की क्षारीयता में वृद्धि हुई है। भारत के कृषि वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन ने ऊँचे तटबंधों और जलाशयों के निर्माण के दुष्परिणाम की ओर संकेत करते हुए कहा था कि इनके निर्माण से बहु उद्देश्यीय प्रयोजनों की पूर्ति तो हुई लेकिन डूब क्षेत्रों के विस्तार और बढ़ती क्षारीयता ने कृषि, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण पर गहरा प्रतिकूल प्रभाव डाला। इस चेतावनी का सीधा अर्थ है कि इस तरह के जलाशयों एवं बाँधों के निर्माण पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।

7. कृषि के लिए प्रयुक्त रसायनों के विषैले प्रभाव फसलों के माध्यम से मनुष्य के शरीर तक पहुँच रहे हैं। इनका विषैला प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य को नष्ट कर रहा है। मनुष्य के शरीर के उत्तक और जीन भी घातक रूप से प्रभावित हो गये हैं जो आनुवंशिक विकार उत्पन्न कर रहे हैं। अतः मनुष्य के जिस कल्याण के लिए इनके प्रयोग को एक समय बढ़ावा मिला, वह अब मनुष्य को राक्षस बन कर खाने लगा है। भारत में 'हरित क्रांति' ने देश को खाद्यान्न के मामले में आत्म-निर्भर अवश्य बनाया परन्तु, इसने अनेक जटिल पर्यावरणिक एवं मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक समस्याएँ भी उत्पन्न की है।

आधुनिक कृषि द्वारा उत्पन्न समस्याओं के निदानात्मक उपाय -

आधुनिक कृषि ने जिन समस्याओं को जन्म दिया है उनका हल पारम्परिक कृषि प्रणाली में ही ढूँढा जा सकता है। कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग पर नियंत्रण के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैं रासायनिक उर्वरकों पर सरकार द्वारा दी जानेवाली छूट बंद कर दी जानी चाहिए। फसलों के समर्थन मूल्य में कमी लायी जानी चाहिए। फसलों के उत्पादन को नियमित किया जाना चाहिए। उत्पादन से भूमि को मुक्त (अलग) कर दिया जाना चाहिए। महँगा किन्तु आवश्यक चूना-उपचार को प्रारम्भ किया जाना चाहिए। शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में शीतोष्ण गेहूँ के साथ श्वेत वनमेथी (white clover) लगायी जानी चाहिए। इससे नाइट्रेट के घुलकर बहने का क्रम रुकेगा। फलस्वरूप रासायनिक उर्वरकों पर होनेवाला खर्च कमेगा और कीटों में भी कमी आयेगी। फसलों को बदल-बदलकर लगाना चाहिए। छीमीदार पौधों को मक्का एवं गेहूँ के साथ उगाया जाना चाहिए। इसका फायदा यह होगा कि छीमीदार पौधों की जड़ों में स्थित जीवाणु नाइट्रोजन चक्र को स्थिर रखने में सहायक बनेंगे।

कीटों पर नियंत्रण के लिए पूर्व औद्योगिक युग के किसानों द्वारा जो तरीका अपनाया गया था, वह तरीका आज भी श्रेयस्कर सिद्ध होगा। पारम्परिक तरीके निम्नलिखित हैं-

(1) नमक का छिड़काव। धुआँ करना तथा कीटों को भगाने बाला पौधा लगाना।

(2) तेलों का छिड़काव, राखों का छिड़काव और गंधक के लेपों का प्रयोग करना।

(3) ऐसी गंधों या मसालों का प्रयोग करना जिससे फसलों की बर्बादी भी रुके और कीटों से फसल प्रभावित भी नहीं होने पायें।

(4) खेतों में बतकों को छोड़ देना चाहिए जो कीटों का भक्षण करते हैं।

(5) बहुविध फसलों को लगाने की प्रणाली अपनायी जानी चाहिए। 'स्वीडेन कृषि' से कीटों की सघनता में कमी आयेगी। गैर फसली पौधों को लगाने से भी कीटों पर नियंत्रण पाना सम्भव होता है।

(6) खेतों को जलाने से फसलों में होनेवाली बीमारी नियंत्रित होती है। फसलों के पुनर्चक्रण से भी कीटों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

(7) खतरनाक कीटनाशक रसायनों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

(8) कौटों पर जैविक नियंत्रण एवं समेकित कीट प्रबन्धन का उपाय आजमाया जाना चाहिए।

(9) कौटनाशक रसायनों से संदूषित खाद्य पदार्थों के व्यापार पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

(10) कीटों पर नियंत्रण के लिए जागरूक किसानों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।

(11) कम खतरनाक कीटनाशक रसायन के प्रयोग की अनुमति दी जानी चाहिए।

(12) कीटनाशक रसायनों की बिक्री को हतोत्साहित करने के लिए उसकी कीमतों पर लगाम लगायी जानी चाहिए।

(13) खरपतवारों को हाथों से निराने अथवा अरासायनिक उपायों का उपयोग किया जाना चाहिए।

(14) पेय जलों के उपचार से भी कीटों को हटाने में मदद मिलती है।

उर्वरक एवं कीटनाशक के हानिकारक प्रभाव 

(Adverse effect of Fertilizers and Pesticides)

प्रश्न : रासायनिक उर्वरकों (खादों) एवं कीटनाशी रसायन अथवा औषधियों के अतिशय प्रयोग के हानिकारक प्रभावों का वर्णन करें।

उत्तर : सर्वप्रथम विकसित देशों में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग प्रचलन में आया बल्कि रासायनिक उर्वरक यूरोपीय देशों एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के ही आविष्कार रहे। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग का तात्कालिक लाभ मिला। पूर्व की अपेक्षा पैदावार में कई गुनी अधिक वृद्धि हुई। पश्चिमी देशों की देखादेखी विकासशील देशों में भी रासायनिक उर्वरकों की माँग बढ़ी। भारत जैसे देश में कई रास्गयनिक उर्वरक कारखाने स्थापित किये गये। भारतीय कृषि में जिस युग को 'हरित क्रांति' के नाम से जाना जाता है, वस्तुतः वह रासायनिक उर्वरकों के प्रयोगातिरेक का ही चमत्कार था। लेकिन विश्व स्तर पर रासायनिक उर्वरकों के बहुस्तरीय कुपरिणामों को देखते हुए विकसित राष्ट्रों ने अपने यहाँ उनके प्रयोगों पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया है किन्तु, विकासशील देशों, जैसे भारत में इनका प्रयोग अभी भी जारी है।

औद्योगिक युग के प्रारम्भ होने से पूर्व किसान खेतों की उर्वरकता बढ़ाने के लिए पारस्परिक खादों का प्रयोग करते थे। गोबर, कम्पोस्ट, सरसों-तीसी आदि की खली आदि उस समय के कुछ प्रमुख उर्वरक थे। लेकिन जब से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग बढ़ा तब से उसके हानिकारक प्रभाव भी सामने आने लगे। रासायनिक उर्वरकों ने एक ओर मिट्टी के स्वाभाविक और प्राकृतिक गुणों को नष्ट करना शुरू कर दिया, दूसरी ओर मिट्टी में रहनेवाले फसलों के लिए लाभकारी कीट-पतंग आदि भी मरने लगे। रासायनिक उर्वरकों का प्रभाव पर्यावरण पर भी पड़ा। पौधों के परागण में लगे महत्त्वपूर्ण कीटों आदि का भी विनाश होता गया। कुछ समय के बाद कीटों में भी प्रतिरोधक क्षमता का विकास हो गया। फलस्वरूप कीटनाशी रसायनों का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ने लगा। लेकिन सबसे खतरनाक बात तो यह हुई कि रासायनिक उर्वरक और कीटनाशी रसायन खाद्यान्नों के माध्यम से मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट होने लगे। मनुष्य के शरीर पर इनका विषकारी प्रभाव पड़ता है लेकिन शीघ्र ही इसके लक्षण दिखायी नहीं पड़ते। जब तक लक्षण पकड़ में आते हैं तब तक मनुष्य जीवन-मृत्यु के बीच झुलता नजर आता है।

रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशियों के प्रचलन से पूर्व किसान फसलों की रक्षा के लिए फसल चक्र को अपनाते थे। कुछ खास ऋतु, विशेषकर ग्रीष्मकाल में जमीन को परती या खुला छोड़ देते थे। ऐसा करने से भूमि की उर्वरा शक्ति स्वतः लौट आती थी। खरपतवारों की निराई हाथों द्वारा की जाती थी। इन उपायों से खेत हानिकारक कीटों से मुक्त हो जाता था।

कृषि और पशुपालन पहले दोनों पूरक व्यवसाय थे। खेती से ही किसानों को पशुओं के लिए चारा, दलहन, तिलहन और खाद्यान्न प्राप्त हो जाते थे। पशुपालन का लाभ यह था कि पशुओं के गोबर तथा मलमूत्र खेतों की उर्वरकता बढ़ाने में सहायक बन जाते थे। कृषि और पशुपालन का सह-सम्बन्ध पर्यावरण को संरक्षित और संतुलित रखता था।

बढ़ती जनसंख्या के पेट भरने की समस्या का एकमात्र तात्कालिक हल रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग में दिखायी दिया। कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग फसलों की सुरक्षा के नाम घर होने लगा। कीटनाशकों में एण्डो सल्फान, एल्डी कार्बन फोरेट, लिण्डेन मोनोक्रोटोमिडॉन, एल्ड्रीन, डी.डी.टी., ई.डी.बी. एवं बी.एच.सी. का सर्वाधिक प्रयोग होता रहा है। इनके अलावा हजारों किस्म के कीटनाशकों का भी प्रयोग होता है। इन कीटनाशकों का दुष्परिणाम खेतों से लेकर घर तक और पर्यावरण से लेकर सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र दिखायी दे रहा है। कीटनाशक खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों और दूध को भी संदूषित कर चुके हैं। भोजन के माध्यम से कोटनाशकों के जहरीले प्रभाव शरीर में तो प्रविष्ट हो ही रहे हैं, साँसों के द्वारा भी इनका शरीर में प्रवेश सहज हो गया है। कीटनाशकों द्वारा हमारी त्वचा भी संक्रमित हो रही है। यद्यपि फसलों या कृषि-कर्म के लिए डी.डी.टी. का प्रयोग प्रतिबंधित है फिर भी किसान इनका प्रयोग घड़ल्ले के साथ खुलेआम कर रहे हैं।

हमारे देश में जितने प्रकार के कीटनाशकों का उपयोग होता है उनमें से 70-75 प्रतिशत पर बिकसित राष्ट्रों ने दशकों पूर्व प्रतिबंध लगा दिया है। उनके देश के किसान इनका प्रयोग नहीं करते। लेकिन भारत जैसे देश में अब तक इस तरह का कोई कठोर कदम नहीं उठाया गया है। कीटनाशकों के विश्वव्यापी दुष्प्रभावों को देखते हुए 'विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) ने निम्नलिखित कीटनाशकों के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है-डेल्ड्रीन, ई.पी.एन., क्लोरेडेन तथा फास्फेल इत्यादि। कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से पीड़ित मनुष्यों की दृष्टि से भारत का विश्व में तीसरा स्थान है। कीटनाशकों के प्रभाव से मरने वाले लोगों की वास्तविक संख्या ज्ञात करना एक कठिन कार्य है। फिर भी इतना तो सुनिश्चित है कि इनका मानव-स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा है।

कीटनाशकों के प्रभाव दो तरह के देखने में आते हैं-तात्कालिक और दीर्घकालिक। जुकाम का बार-बार होना, जी मिचलाना, चक्कर आना, आँखों में जलन होना या पानी आना, पेट-दर्द, कै-दस्त, खुजली एवं त्वचा की जलन आदि कीटनाशकों के तात्कालिक प्रभावों के लक्षण हैं। लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव असाध्य रोग उत्पन्न करता है। शारीरिक विकृतियाँ, साँस एवं हृदय रोग, फेफड़ों के रोग, उच्च रक्तचाप बंध्यापन तथा कैंसर आदि कीटनाशकों के प्रभाव से उत्पन्न ऐसी ही बीमारियाँ है जिसके लक्षण तुरंत दिखायी नहीं पड़ते। डी.डी.टी. और बी.एच.सी. श्रेणी के कीटनाशक ऑरगेनोक्लोरीज वर्ग के हैं और इनका प्रभाव अत्यन्त घातक है। इन कीटनाशकों का सर्वाधिक प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर देखा गया है। डी.डी.टी. का प्रयोग मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम के अन्तर्गत खुलकर किया गया। कालांतर में मच्छरों की पचास प्रजातियों पर डी.डी.टी. प्रभावहीन सिद्ध हो गया लेकिन प्रकारांतर से इसने मानव-स्वास्थ्य को व्यापक क्षति तो पहुँचा ही दी। यद्यपि डी.डी.टी. का छिड़काव अब बंद किया जा चुका है तथापि अन्य कीटनाशकों का उत्पादन घटने की जगह बढ़ा ही है।

रासायनिक उर्वरकों ने मिट्टी को अनुर्वर बना दिया है। जिन खेतों में रासायनिक उर्वरकों का बार-बार प्रयोग होता है, उन खेतों की सिंचाई भी बहुत अधिक करनी पड़‌ती है। फलस्वरूप जल-संसाधन का भी काफी दोहन हुआ है। इस प्रकार रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशियों के प्रयोग ने विनाशकारी प्रभावों का एक अटूट गैर अंतहीन श्रृंखला रच दी है।

पर्यावरण का प्रदूषण, पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन, मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव, भावी पीढ़ियों तक इस प्रभाव का संवहन आदि कुछ इसके विशिष्ट दुष्परिणाम हैं। इनके प्रयोगाधिक्य के कारण मिट्टी में कैल्शियम, मैग्नेशियम, एन.पी. के. और सल्फर आदि तत्त्वों की कमी होती जा रही है। इसके अतिरिक्त मैंगनीज, लोहा, ताँबा, जस्ता, बोरोन आदि तत्त्वों में भी ह्रास देखा गया है।

उपसंहार : अतः श्रेयस्कर यही है कि किसान रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशियों की प्रयोग-निर्भरता को छोड़ें और उनकी जगह कृषि के पारम्परिक तरीकों को अपनायें। पारम्परिक खादों का प्रयोग करें। खेतों में बत्तकों को छोड़े जो कीटों को खा जाते हैं। इसके लिए वे खेतों में धुआँ करें। कुछ विशेष प्रकार की गंधों का इस्तेमाल करें। खेतों को कुछ समय के लिए खाली छोड़ दें। मक्का और गेहूँ के साथ छीमीदार पौधों को लगायें। छीमीदार पौधों की जड़ों में नाइट्रोजन चक्र को स्थिर रखने की क्षमता होती है। जिसका प्रकारांतर लाभ फसलों और पर्यावरण को मिलता है। फसलों को बदल-बदल कर लगायें। वन भूमि की रक्षा करें। इन उपायों से रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के दुष्प्रभावों से शनैःशनैः मुक्ति मिलने लगेगी।

ऊर्जा संसाधन (Energy Resources)

ऊर्जा का अभिप्राय और उसके स्रोत

प्रश्न : ऊर्जा क्या है? ऊर्जा के स्रोतों का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न : ऊर्जा संसाधन से आप क्या समझते हैं? उसके विभिन्न स्रोतों का वर्णन करें।

अथवा

प्रश्न : 'ऊर्जा संसाधन और उसके चक्र' पर प्रकाश डालें।

उत्तर : ऊर्जा का अभिप्राय भौतिक विज्ञान की परिभाषा के अनुसार कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहा जाता है। हमारी पृथ्वी पर ऊर्जा विभिन्न रूपों में उपलब्ध है। फुउ ऊर्जा का उपभोग तत्काल किया जाता है, जबकि ऊर्जा के अन्य रूपों की प्राप्ति के लिए परिवर्तन की अनेक प्रक्रियाओं से गुजरना होता है।

पृथ्वी पर का प्रत्येक जीव एवं उसकी क्रियाएँ ऊर्जा द्वारा ही संचालित हैं। ऊर्जारहित जीव धरती पर जीवित नहीं मृतक के समान होता है। जीव को ऊर्जा पर्यावरण से प्राप्त होती है। मनुष्य भी प्रकृति के ऊर्जा प्रवाह का ही एक अंग मात्र है। प्रकृति में ऊर्जा कई रूपों में विद्यमान है। मनुष्य सूर्य, वायु और जल द्वारा सीधे प्रकृति से ऊर्जा प्राप्त करता है। मनुष्य को वास्तविक जीवनी शक्ति या ऊर्जा भोजन या खाद्य-सामग्रियों से प्राप्त होती है। खाद्य-सामग्रियों में संचित ऊर्जा भी खाद्य फसलों द्वारा प्रकृति से संचित ऊर्जा है।

ऊर्जा का स्रोत और उसका चक्र पृथ्वी पर ऊर्जा-प्राप्ति का प्राथमिक स्रोत सूर्य है। गर्मी या ऊष्मा की प्राप्ति के लिए हम सौर ऊर्जा का उपभोग सीधे-सीधे करते हैं। सौर ऊर्जा की प्राप्ति के अनेक अन्य अप्रत्यक्ष स्रोत भी हैं परन्तु, सौर ऊर्जा के ये रूपांतरित रूप विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजर कर हम तक पहुँचते हैं। भोजन, जल और ईंधन आदि में संचित ऊर्जा सौर ऊर्जा ही होती है।

सूर्य की किरणों से पौधों को बढ़ने की क्षमता प्राप्त होती है। मनुष्य या अन्य जीवों की भोजन-प्राप्ति का मुख्य माध्यम पौधा ही है। पौधों द्वारा उत्सर्जित (exhaled) ऑक्सीजन को जीव प्राण-वायु के रूप में ग्रहण करता है। पौधे जीवों और मनुष्यों द्वारा उत्सर्जित (exhaled) वायु कार्बन-डायऑक्साइड को ग्रहण (inhale) करते हैं।

सूर्य की किरणें ही महासागर, सागर, नदी, सरिता और झीलों की जल राशि को निरन्तर नाष्प के रूप में बदलती रहती है। वाष्प से ही बादल बनता है। बादल अनुकूल परिस्थितियों के संयोग से वर्षा के पानी के रूप में पृथ्वी पर बरस जाता है। इस प्रकार वर्षा के द्वारा पृथ्वी को पुनः जल प्राप्त हो जाता है।

वर्तमान समय में जिस जीवाश्मीय (fossils) ऊर्जा के अधिकाधिक उपभोग का प्रचलन है, वह प्राग्तैहासिक काल में कभी पृथ्वी पर वन के रूप में विद्यमान थी। पौधे निरंतर अपने भीतर सौर्य ऊर्जा को संचित करते रहते हैं। वास्तव में सौर्य ऊर्जा का रूपांतरित रूप ही जीवाश्मीय ऊर्जा ईंधन के रूप में पृथ्वी पर उपलब्ध होता है।

रासायनिक यौगिकों में संचित रासायनिक ऊर्जा पशुओं द्वारा विखण्डित किये जाने पर ही मुक्त होती है हमारे देश में प्राचीनकाल से ही कृषि कार्यों में मानव-श्रम का सर्वाधिक उपयोग होता आया है। खेतों की जुताई अथवा गाड़ियों को खींचने के लिए मनुष्य पालतू पशुओं, यथा बैल, भैंसा या ऊँट आदि का उपयोग करता आया है।

विद्युत ऊर्जा का उत्पादन अनेक प्रकार से होता है। इस ऊर्जा का उपयोग यातायात के साधनों, कृत्रिम रोशनी, कृषि एवं उद्योगों के संचालन के लिए किया जाता है। विद्युत ऊर्जा जल से भी उत्पन्न की जाती है। जल जल-चक्र द्वारा प्राप्त होता है। जलचक्र सौर ऊर्जा द्वारा संचालित है। विद्युत ऊर्जा ताप विद्युत केन्द्रों (Thermal Power Stations) में भी उत्पादित की जाती है। ताप विद्युत उत्पन्न करने के लिए जीवाश्मीय ईंधन का उपयोग किया जाता है। परमाणविक ऊर्जा परमाणुओं के केन्द्रकों में संचित होती है। इस समय परमाणविक ऊर्जा का उपयोग मुख्य रूप से विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के लिए किया जा रहा है।

ऊर्जा का उपयोग ऊर्जा का उपयोग अनेक घरेलू उद्देश्यों, कृषि-कार्यों, उद्योगों (कल-कारखानों) में औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन एवं वाहनों को चलाने के लिए किया जाता है। आधुनिक कृषि में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग वृहत पैमाने पर होता है। रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन के लिए बहुत बड़े पैमाने पर ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। उद्योगों में ऊर्जा की जरूरत उत्पादन इकाइयों को शक्ति प्रदान करने के लिए किया जाता है। उद्योगों में जिन वस्तुओं का उत्पादन होता है उन्हें सड़क, रेल, यातायात के अन्य साधनों द्वारा ढोया जाता है। परिवहन के इन संसाधनों को भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है। कारखानों में उत्पादन के लिए कच्ची सामग्रियों की जरूरत पड़ती है। कच्ची सामग्रियाँ जंगलों या खदानों से निकालकर उन्हें कारखानों तक परिवहन के साधनों द्वारा पहुँचाया जाता है। परिवहन के इन साधनों को भी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है।

ऊर्जा से सम्बन्धित कोई भी तकनीक पूर्णतः निरापद नहीं होती है। ज्यों-ज्यों ऊर्जा की माँग बढ़ती जा रही है त्यों-त्यों उससे सम्बन्धित खतरों के आयामों में भी वृद्धि होती जा रही है। ऊर्जा के प्रत्येक उपयोग के क्रम में ताप उत्पन्न होता है। इस ताप से वायुमण्डल के ताप में वृद्धि होती है। ऊर्जा के बहुत से रूपों से कार्बन डायऑक्साइड विमुक्त होता है। इस विमुक्त कार्बन डाय ऑक्साइड के कारण भूमण्डलीय ताप में वृद्धि का खतरा बढ़ जाता है। परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से परमाणु पदार्थों के रिसाव के कारण पर्यावरण को गहरी क्षति पहुँच चुकी है। परमाणु कचरों के सुरक्षित प्रबंधन और निपटान के अभाव के कारण विश्व को गम्भीर संकट के सामना करने की सम्भावना प्रबल हो गयी है।

ऊर्जा उपभोग की सतर्कताएँ: वर्तमान समय में भारत में लगभग 2 बिलियन लोगों को आज तक विद्युत ऊर्जा अनुपलब्ध है। इसके अलावे जो लोग विद्युत ऊर्जा का उपभोग इस समय कर रहे हैं, विद्युत ऊर्जा की उनकी माँग भी बढ़ जाने की सम्भावना है। विद्युत ऊर्जा का बहुत बड़ा अंश संचरण (transmission) और उपभोग (use) के क्रम में नष्ट हो जाता है। इस समय इस बात पर बल दिया जाने लगा है कि दीर्घावधिक ऊर्जा का उपभोग विश्व के लिए निरापद एवं सुरक्षित होना चाहिए। ऐसे ही ऊर्जा के उपयोग को मान्यता प्रदान की जानी चाहिए जो सर्वाधिक सुरक्षित, विश्वसनीय एवं कार्बन डायऑक्साइड को न्यूनतम मात्रा में विमुक्त करती है। साथ ही यह ऊर्जा सीमित नवीकरणीय संसाधनों द्वारा प्राप्त किया जा सकता हो। जिस तरह आज नवीकरणीय एवं अनवीकरणीय जीवाश्मीय ईंधन का उपभोग किया जा रहा है, उस तरीके से अगले 50-100 वर्षों के भीतर ऊर्जा के ये संसाधन बहुत ही अपर्याप्त सिद्ध होंगे।

ऊर्जा का जब असुरक्षित उपभोग होता है तब उसकी वजह से हमारी पृथ्वी के पर्यावरण भी गुणवत्ता में उल्लेखनीय द्वारा आता है। है। अतः जरूरी है कि हम ऊर्जा के उतरदायी उपभोक्ता बनें। यह बात ध्यान में रखने की है कि यदि हम अनावश्यक रूप से एक बल्ब की जलाते हैं तो हम पर्यावरण के हास के उत्तरदायी बन जाते हैं।

ऊर्जा संसाधनों का वर्गीकरण

प्रश्न : ऊर्जा को कितने वर्गों में बाँटा गया है?

अथवा

प्रश्न : ऊर्जा संसाधनों का वर्गीकरण प्रस्तुत करें।

उत्तर: ऊर्जा के स्रोत का वर्गीकरण कई प्रकार से किया गया है वाणिज्यिक ऊर्जा, अवाणिज्यिक ऊर्जा, प्राथमिक ऊर्जा स्रोत, द्वितीय ऊर्जा स्रोत, पारम्परिक ऊर्जा स्रोत, अपारम्परिक ऊर्जा स्रोत, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत और अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत।

1. वाणिज्यिक ऊर्जा स्रोत (Commercial Energy Resources): कोयला, लिगनाइट, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस एवं विद्युत ऊर्जा वाणिज्यिक ऊर्जा स्रोत के उदाहरण हैं।

2. अवाणिज्यिक ऊर्जा स्रोत (Non-Commercial Energy Resources): लकड़ी, गोबर के उपले, कृषि अपशिष्ट आदि अवाणिज्यिक ऊर्जा के स्रोत हैं।

3. प्राथमिक ऊर्जा स्रोत प्राथमिक ऊर्जा का अभिप्राय पर्यावरण से प्राप्त ऊर्जा है। खनिज अर्थात् जीवाश्मीच ईंधन भी ऊर्जा के इसी वर्ग में आता है। जीवाश्मीय ऊर्जा में कोयला, लिगनाइट, कच्चा तेल एवं प्राकृतिक गैस की गिनती होती है। नाभिकीय ऊर्जा (nuclear energy), जल-ऊर्जा, सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा, सागरीय ऊर्जा एवं भूतापीय (geothermal) ऊर्जा भी प्राथमिक ऊर्जा स्रोत के उदाहरण हैं।

4. ऊर्जा का द्वितीय स्रोत ऊर्जा का द्वितीय स्रोत वे हैं जो पर्यावरण में नहीं हैं अपितु ऊर्जा के इन स्रोतों का दोहन प्राथमिक ऊर्जा के स्रोतों से किया जाता है, जैसे पेट्रोल, डीजल, विद्युत ऊर्जा (कोयला, डीजल एवं गैस से रूपांतरित इत्यादि) स्रोत के उदाहरण हैं।

5. पारम्परिक ऊर्जा स्रोत पारम्परिक ऊर्जा स्रोत में जीवाश्मीय ईंधन (कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ एवं प्राकृतिक गैस) जल ऊर्जा एवं नाभिकीय ऊर्जा की गिनती होती है।

6. अपारम्परिक ऊर्जा : ऊर्जा के अपारम्परिक स्रोत के उदाहरण सौर, वायु, भूतापीय, ज्वारीय तरंगीय (सागरीय), बॉयोमास एवं हाइड्रोजन ऊर्जा हैं।

7. अनवीकरणीय ऊर्जा ऊर्जा के कुछ स्रोत ऐसे हैं जो एक बार उपभोग में लाये जाने के बाद समाप्त हो जाते हैं और मनुष्य उनका दुबारा निर्माण नहीं कर सकता। ऐसी ऊर्जा सीमित मात्रा में में ही उपलब्ध है। इस तरह की ऊर्जा को विकसित होने में लम्ब लम्बा समय लगा है। जीवाश्मीय ऊर्जा (अर्थात् कोयला, खनिज तेल एवं प्राकृतिक गैस) एवं नाभिकीय ऊर्जा अनवीकरणीय ऊर्जा के ही उदाहरण हैं।

8. नवीकरणीय ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा प्रकृति से प्राप्त ऊर्जा के वैसे स्रोत हैं जो कभी समाप्त नहीं हो सकते (हमलोग अपनी सुविधा के अनुसार उनका रूप बदल सकते हैं)। इस तरह की ऊर्जा एक बार उपयोग में लायी जाने के बाद समाप्त नहीं हो जाती अपितु उनका बार-बार उपयोग किया जाता है। प्रकृति के चक्र के द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा का क्षय नहीं होता है बल्कि वह असीमित मात्रा में सदैव उपलब्ध रहती है। जैसे जिस जल-राशि का उपयोग विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के लिए किया जाता है, बारबार लगातार उसी जलराशि का उपयोग विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के लिए किया जाता है। प्रकृति में इस तरह की ऊर्जा सौर, वायु, जल, भूतापीय, सागरीय एवं बॉयोमास ऊर्जा हैं। कुछ हद तक नाभिकीय ऊर्जा को भी असीमित ऊर्जा स्रोत माना जा सकता है। यदि रिएक्टरों द्वारा परमाणु ऊर्जा के उत्पादन के लिए खनिजों का रिएक्टरों में उपयोग किया जा सके तो इनसे असीमित मात्रा में ऊर्जा प्राप्त हो सकती है।

अपारम्परिक ऊर्जा स्रोत की भूमिका का मूल्यांकन

प्रश्न: अपारम्परिक (गैर परम्परागत) ऊर्जा के नवीकरणीय स्त्रोतों का वर्णन करें।

अथवा

अपारम्परिक ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों का भारतीय सन्दर्भ सहित उल्लेख करें।

उत्तर : ऊर्जा का अपारम्परिक (नवीकरणीय) स्त्रोत ऊर्जा पूर्ति की दो प्रमुख समस्याओं के समाधान में समर्थ है। ऊर्जा के इस स्रोत के उपयोग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे पर्यावरण बिलकुल स्वच्छ और टिकाऊ बना रहता है। लेकिन अपारम्परिक ऊर्जा स्रोतों की भूमिका के बारे में कोई भी भविष्यवाणी करना मुश्किल है। इसके उपयोग के लिए पर्याप्त तकनीकी विकास आवश्यक है (यथाशक्ति संलयन अथवा सौर फोटो वोल्टीय विद्युत)। ऊर्जा के इस संसाधन के दोहन में कितनी लागत आयेगी, इसके बारे में सही-सही अनुमान लगाना भी सहज नहीं है। अपारम्परिक ऊर्जा के अन्य स्रोत (यथा ज्वारीय ऊर्जा एवं सौर निम्न श्रेणी ताप) को प्राप्त करने के लिए मौजूदा तकनीकों में गहन सुधार की जरूरत है। जीवाश्मीय ईंधन के मूल्य एवं तकनीक विकास के खर्च के आधार पर ही अपारम्परिक ऊर्जा स्रोतों की भूमिका का निर्धारण किया जा सकता है।

इस समय विश्व में ऊर्जा की वार्षिक खपत दर लगभग 300 × 10J (300 EJ) है। 2020 ई. तक ऊर्जा की खपत 800 से 100 EJ हो जाने की सम्भावना है। यह तो महज एक अनुमान भर है, कोई सटीक आकलन नहीं। अपारम्परिक ऊर्जा का उपयोग तत्सम्बन्धी तकनीकों के विकास, पारम्परिक ईंधन के मूल्य और बाजार की दर पर निर्भर है किन्तु ये सभी कारक निश्चित रूप से अनिश्चयात्मक है।

यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि 2020 ई. तक विश्व के ऊर्जा उपभोग के 10% अंश की पूर्ति अपारम्परिक ऊर्जा कर पायेगा। इस अंश में सबसे बड़ा (लगभग 2/3) योगदान सौर-ताप और प्रशीतन का होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि कुशल प्रबंधन एवं सक्षम तकनीकों का विकास किया जा सका तो अपारम्परिक ऊर्जा के योगदान का प्रतिशत इससे कहीं अधिक बढ़ सकता है।

अपारम्परिक ऊर्जा के लाभों को बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाना अथवा उसके महत्त्व को सिरे से नकार देना, ये दोनों बातें अविवेकपूर्ण होंगी। अन्ततः अपारम्परिक ऊर्जा का योगदान बृहत हो सकता है। अपारम्परिक ऊर्जा का विश्व के कुछ देशों में उपयोग कम खर्चीला साबित हुआ है।

अपारम्परिक ऊर्जा और भारत भारत में अपारम्परिक नवीकरणीय ऊर्जा की सम्भावना अत्यन्त व्यापक है। अपने देश में अपारम्परिक ऊर्जा के उपयोग की कई तकनीकें विकसित की जा चुकी हैं। बहुत बड़ी संख्या में सौर, तापीय, सौर फोटो बोल्टीय, पवन, लघु जल बॉयोमास ऊर्जा के लिए कई आधारभूत औद्योगिक संरचनाएँ विकसित की जा चुकी हैं। लगभग 900 एमएमभी क्षमता वाले ऊर्जा स्त्रोतों (जो उपर्युक्त स्रोतों पर आधारित है) को प्रस्थापित किया जा चुका है।

भारत की सरकार नयी एवं नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को ऊर्जा की बढ़ती हुई माँग को ध्यान में रखकर प्रोत्साहित कर रही है। इस ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा पारम्परिक एवं अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के भंडारों को चुकते जाने को दृष्टिपथ में रखकर दिया जा रहा है। अपारम्परिक ऊर्जा स्रोतों के दोहन से ग्रामीण क्षेत्रों की ऊर्जा की माँग भी पूरी की जा सकती है।

भारत सरकार ने 1982 ई. में अपारम्परिक ऊर्जा विभाग (DNES) की स्थापना की और इस विभाग को एक पूर्ण मंत्रालय का दर्जा आगे चलकर दे दिया गया। अपारम्परिक ऊर्जा मंत्रालय नयी एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के कार्यकलापों पर निगाह रखता है। सौर, पवन, सागर, बॉयोमास, हाइड्रोजन, रसायनिक ऊर्जा, कचरे एवं बॉयोमास की ऊर्जा, विकसित चूल्हा तथा कचरों का पुनर्चक्रण आदि की तकनीक को विकसित करने के उद्यम में यह विभाग लगा हुआ है। यह मंत्रालय अपारम्परिक ऊर्जा आपूर्ति की योजना बनाकर उसे कार्यान्वित करने की दिशा में भी काम कर रहा है। इस मंत्रालय का एक उद्देश्य स्थानीय समुदाय के सहयोग को प्रकाश में लाकर ऊर्जा की उनकी छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करना भी है। गाँव के लोगों को भोजन बनाने के लिए, लघु सिंचाई के लिए, पेय जल के लिए, घर के अन्य उपयोगों के लिए तथा पथ-प्रकाश के लिए अपारम्परिक ऊर्जा के स्त्रोत को उपलब्ध कराने का दायित्व भी इसी मंत्रालय ने सम्भाल रखा है। अपारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों की इन योजनाओं से सबसे ज्यादा लाभपर्वतीय एवं दुर्गम क्षेत्रों के कमजोर वर्ग के लोगों को पहुँचा है।

जल ऊर्जा (Hydel Energy)

प्रश्न : जल ऊर्जा के महत्त्व, उपयोग एवं सम्भाव्यता पर भारत की स्थिति पर विश्व के सन्दर्भ में विचार करें।

उत्तर : जल ऊर्जा (Hydel Energy): घरातलीय ऊर्जा कुछ क्षेत्रों में अपनी व्यापक सम्भाव्यता के कारण, सस्ता एवं स्वच्छ ऊर्जा स्त्रोत उपलब्ध कराता है। ऊर्जा के एक महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में जल ऊर्जा जल-शक्ति द्वारा संचालित पहियों के रूप में मानव सभ्यता की सेवा प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल से करती आयी है। जल विद्युत ऊर्जा संयंत्र बहते जल के दबाव से जल विद्युत ऊर्जा का उत्पादन करता है। टर्बाइन द्वारा संचालित विद्युत जनित्र (Electric Generator) जल ऊर्जा के विद्युतीय उपयोग का उदाहरण है।

जल-ऊर्जा न केवल स्वच्छ और प्रदूषणमुक्त ऊर्जा संसाधन है अपितु यह एक पारम्परिक नवीकरणीय ऊर्जा का भी स्रोत है। कोयला, लिगनाइट एवं खनिज तेल जैसे ऊर्जा के पारम्परिक स्त्रोतों के सीमित भंडार को देखते हुए जल-ऊर्जा अति विश्वसनीय एवं भरोसेमंद स्त्रोत के रूप में स्वयं को स्थापित कर चुकी है। जल ऊर्जा परियोजना पर प्रारम्भिक लागत जितनी अधिक आती हो, यह ऊर्जा, ऊर्जा प्राप्ति के अन्य संसाधनों की अपेक्षा कम खर्चीला है। तापीय ऊर्जा (Thermal Energy) के बाद जल ऊर्जा का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस बात का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि इस समय विश्व में ऊर्जा की जितनी खपत होती है उसमें से 30% ऊर्जा जलविद्युत ऊर्जा द्वारा प्राप्त की जाती है। विश्व स्तर पर जल विद्युत ऊर्जा की कुल सम्भाव्यता लगभग 5000 जी. डब्ल्यू. (G.W.) है। विश्व के कुछ ऐसे भी देश हैं जहाँ सम्पूर्ण ऊर्जा के उपभोग की पूर्ति जल विद्युत ऊर्जा द्वारा ही की जाती है। नार्वे अपनी ऊर्जा की 99% जरूरतों को जल विद्युत ऊर्जा द्वारा ही पूरा करता है। अमेरिका में भी ऊर्जा उपभोग के 75% अंश की पूर्ति जल विद्युत परियोजनाओं द्वारा पूरी की जाती है। जल विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के क्षेत्र में विश्व के कुछ देश, जैसे अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ, जापान और ब्राजील अग्रणी राष्ट्र हैं।

जल ऊर्जा संसाधन और भारत वर्तमान समय में देश की ऊर्जा की खपत के 24% अंश की पूर्ति जल विद्युत ऊर्जा परियोजना द्वारा पूरी की जा रही है। विद्युत ऊर्जा उत्पादन के काम में लगे संयंत्रों द्वारा कुल उत्पादित 92, 864 मेगावॉट में से 22, 438.48 मेगावॉट ऊर्जा की पूर्ति जल विद्युत परियोजना द्वारा होती है। ऊर्जा उत्पादन की यह क्षमता 1998-99 ई. के एक आकलन पर आधारित है। केन्द्रीय विद्युत परियोजना प्राधिकार के अनुसार भारत में विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के 60% अंश की पूर्ति जल विद्युत ऊर्जा द्वारा हो सकती है लेकिन फिलवक्त इसके 25% अंश की पूर्ति ही सम्भव हो पायी है। देश को इस समय 89,830 मेगाबाट ऊर्जा पूर्ति का भार वहन करना पड़ रहा है लेकिन जल विद्युत परियोजना से इसका चौथाई अंश ही पूरा हो पा रहा है। लगभग 80% जल विद्युत ऊर्जा उत्पादन का क्षेत्र महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर एवं उत्तरांचल में पड़ता है।

जल विद्युत ऊर्जा का उपयोग जल-ऊर्जा विश्व की विद्युत ऊर्जा के 30% अंश की पूर्ति कर एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। टिकाऊपन अथवा बहुत लम्बे समय तक उपयोग की दृष्टि से जल ऊर्जा वर्तमान समय की चर्चा का एक मुख्य विषय है। एक बार जल विद्युत ऊर्जा संयंत्र की स्थापना के बाद, न्यूनतम खर्च पर अनेक वर्षों तक के लिए वह लगातार ऊर्जा उत्पादन करता रह सकता है। इसके रखरखाव पर भी कम व्यय आता है। ऊर्जा रूपी सम्पत्ति के अकूत भंडार का उत्तराधिकार भावी पीढ़ी को जल विद्युत ऊर्जा के रूप में ही प्रदान किया जा सकता है। ताप विद्युत ऊर्जा एवं अन्य ऊर्जा संयंत्रों की अपेक्षा जल-विद्युत ऊर्जा संयंत्रों के तुलनात्मक रूप से निम्नलिखित लाभ है-

जल विद्युत ऊर्जा के लाभ :

(1) ऊर्जा के सभी ज्ञात संसाधनों की अपेक्षा जल विद्युत ऊर्जा अधिक व्यापक एवं कम व्ययसाध्य है।

(2) जल विद्युत ऊर्जा का उत्पादन ही न केवल कम खर्चीला है अपितु ऊर्जा का यह संसाधन पुनः पुनः उपयोग के योग्य अर्थात् नवीकरणीय ऊर्जा संसाधन है।

(3) जल विद्युत ऊर्जा के उत्पादन एवं रखरखाव पर बहुत ही कम खर्च आता है।

(4) अन्य ऊर्जा संयंत्रों की अपेक्षा जल विद्युत ऊर्जा संयंत्र अधिक बिश्वसनीय है।

(5) जल विद्युत ऊर्जा संयंत्र अन्य ऊर्जा संयंत्रों की अपेक्षा बहुत अधिक टिकाऊ होता है।

(6) जल विद्युत ऊर्जा संयंत्र अधिक ऊर्जा भार का वहन कर सकता है।

(7) जल विद्युत ऊर्जा संयंत्र लचीला होता है और शीघ्र ही चालू किया जा सकता है। इसी तरह शीघ्र ही इस संयंत्र को बन्द भी किया जा सकता है। जल विद्युत ऊर्जा बढ़ती-घटती माँग के अनुरूप तुरत अपने उत्पादन को घटाने-बढ़ाने में सक्षम होता है लेकिन विद्युत ऊर्जा के अन्य उत्पादन संयंत्रों, विशेषकर परमाणविक एवं तापीय ऊर्जा संयंत्रों में. इस तरह की सुविधा का अभाव होता है।

(8) तापीय एवं परमाणविक विद्युत ऊर्जा संयंत्र अधिक प्रदूषण फैलाते हैं किन्तु जल बिद्युत ऊर्जा संयंत्र इस तरह के प्रदूषण की कोई समस्या उत्पन्न नहीं करता।

(9) जल विद्युत ऊर्जा कोयला की खपत में उल्लेखनीय कमी लाता है। एक हार्स पावर विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में लगभग 4 मिट्रीक टन कोयला की खपत होती है परन्तु इतनी ही ऊर्जा के उत्पादन में जल विद्युत ऊर्जा संयंत्र में कुछ भी खर्च नहीं आता।

(10) जल विद्युत परियोजना में अधिक श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इस तरह यह परियोजना बेरोजगारी की समस्या भी हल करती है। जल विद्युत ऊर्जा सस्ती दर पर उपभोक्ताओं को मिलती है। इस तरह बेरोजगार लोग भी कम खर्च पर उद्योगों की स्थापना और कृषि का विकास कर सकते हैं। प्रकारांतर से जल विद्युत ऊर्जा परियोजना देश की बेरोजगारी की समस्या को बहुत बड़ी सीमा तक दूर करती है।

(11) जल विद्युत परियोजनाएँ बहुउद्देश्यीय हुआ करती हैं। विद्युत ऊर्जा के उत्पादन के अतिरिक्त इनसे सिंचाई, उद्योगों एवं घरेलू आवश्यकताओं के लिए जलापूर्ति भी की जाती है।

जल विद्युत परियोजनाओं द्वारा बाढ़ का नियंत्रण भी सम्भव होता है। ये परियोजनाएँ नौवहन के साथ-साथ मनोरंजन के भी साधन हैं।

जल विद्युत ऊर्जा परियोजना की कमियाँ जल विद्युत परियोजनाओं के क्रियान्वयन की सबसे बड़ी कठिनाई इसकी प्रारम्भिक लागत का बहुत अधिक होना है। इस परियोजना को प्रारम्भ करने से लेकर चालू करने के बीच का अन्तराल भी बहुत अधिक होता है। जल विद्युत परियोजनाओं का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसे क्रियान्वित करने के क्रम में बहुत बड़ी संख्या में ग्रामीणों का विस्थापन होता है। साथ ही वृहत पैमाने पर उर्वरा भूमि डूब जाती है।

इस परियोजना के क्रियान्वयन में लगनेवाले अन्तराल से बचने का कोई अन्य विकल्प नहीं है। ग्रामीण जनों के बड़े पैमाने पर विस्थापन, उर्वरा भूमि के डूब क्षेत्र में आने और पर्यावरण को क्षति पहुँचने को दृष्टिपथ में रखकर अब बड़े बाँधों के निर्माण की जगह छोटे-छोटे जल विद्युत परियोजनाओं को प्रश्रय दिया जा रहा है। लेकिन निष्पक्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि किसी भी देश को दोनों प्रकार की जल विद्युत परियोजनाओं-बड़ी और छोटी परियोजनाओं की आवश्यकता है।

परमाणविक ऊर्जा (Atomic Energy)

प्रश्न : परमाणविक ऊर्जा क्या है? उसके महत्त्व, उपयोग और सम्भाव्यता पर भारत के विशेष सन्दर्भ में विचार करें।

उत्तर : परमाणु ऊर्जा अल्बर्ट आइंसटीन ने द्रव्य तथा ऊर्जा के रूपांतरण (E = mc²) से सम्बन्धित आपेक्षिकता का विशिष्ट सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत के अनुसार जिस मात्रा में किसी द्रव्य के परमाणु को विखण्डित किया जाता है, उसी मात्रा में उससे ऊर्जा उत्पन्न होती है। द्रव्य के परमाणुओं के विखंडन के क्रम में असीमित मात्रा में ताप और ऊर्जा उत्सर्जित होती है। इस ऊर्जा और ताप का उपयोग परमाणविक बिजली केन्द्र को चलाने तथा विद्युत उत्पादन में किया जाता है। परमाणु बिजली घरों में शनैः शनैः नियंत्रित रूप से नाभिकीय अभिक्रिया सम्पादित करायी जाती है जिससे ताप और ऊर्जा विमुक्त होती है। इसी का उपयोग बिजली के उत्पादन में किया जाता है।

नाभिकीय या परमाणविक ऊर्जा ऊर्जा के अब तक के ज्ञात सभी स्रोतों में से सर्वाधिक शक्तिशाली ऊर्जा है। रेडियोएक्टिव पदार्थ की छोटी मात्रा भी असीमित ऊर्जा उत्पादित करने में सक्षम है। उदाहरण के लिए एक मीट्रिक टन यूरेनियम से उतनी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है जितनी ऊर्जा 3 मिलियन टन कोयले या तेल के 12 मिलियन बैरेल से ऊर्जा उत्पादित हो सकती है।

सम्प्रति विश्व में जितनी बिजली पैदा की जा रही है उसका 20% अंश नियंत्रित नाभिकीय विखण्डन द्वारा उत्पादित किया जा रहा है। भविष्य में नाभिकीय विखण्डन से उत्पादित होने वाली ऊर्जा की मात्रा में बढ़ोत्तरी की पूर्ण सम्भावना है। विश्व का प्रथम नाभिकीय या परमाणु बिजली घर की स्थापना संयुक्त राज्य (U.K.) के कम्बरलैण्ड जिले में अवस्थित कैलडार हाल (Calder Hall) में 1957 ई. में हुई। इस समय तक विश्व में लगभग 300 परमाणु बिजली घर स्थापित किये जा चुके हैं और वे कार्यरत हैं। विश्व में परमाणु बिजली के उत्पादन के क्षेत्र में अमेरिका अग्रणी देश है। अभी अमेरिका में 83, पूर्व सोवियत संघ में 40, संयुक्त राज्य में 35, फ्रांस में 34, जापान में 25, जर्मनी में 15 तथा कनाडा में 13 परमाणु बिजली पर काम कर रहे हैं।

बेल्जियम, फिनलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, हंगरी, जापान, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैण्ड तथा ताइवान जैसे औद्योगिक देशों में विभिन्न प्रकार के रिएक्टरों द्वारा उनकी कुल विद्युत शक्ति का 30% से अधिक उत्पादित किया जा रहा है।

परमाणु बिजली और भारत भारत में परमाणु विज्ञान के अध्ययन और अनुसंधान का व्यवस्थित क्रम 1945 ई. से प्रारम्भ होता है। इसी वर्ष डॉ. होमी जहाँगीर भाभा के नेतृत्त्व में टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना मुंबई (बम्बई) में हुई। उस समय से लेकर आज तक नाभिकीय विज्ञान के क्षेत्र में देश ने द्रुत गति से प्रगति की है। भारत के नाभिकीय विज्ञान के अनुसंधान और अध्ययन का मुख्य लक्ष्य बिजली का सस्ता उत्पादन, कृषि, उद्योग, औषधि एवं अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ अनेक शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए उसका उपयोग करना है।

भारत के प्रथम नाभिकीय ऊर्जा स्टेशन का निर्माण मुंबई के थाणे जिले के तारापुर में -किया गया। तारापुर परमाणु या नाभिकीय बिजली घर से अक्तूबर, 1969 ई. से विद्युत उत्पादन प्रारम्भ हुआ। इस समय देश में लगभग 1,940 मेगावाट बिजली उत्पादित की जा रही है। बिजली उत्पादन की यह मात्रा देश के कुल बिजली उत्पादन का लगभग 2 से 3% है।

भारत में तारापुर, रावथबाटा, कलपक्कम, नरोरा एवं ककरापारा में परमाणु बिजली घर काम कर रहे हैं।

भारत विश्व के उन गिने चुने नौ देशों में से एक है जिसे परमाणु ऊर्जा केन्द्रों के डिजाइन बनाने, उसे स्थापित कर संचालित करने की स्वतंत्र रूप से जानकारी प्राप्त है।

यही जानकारी भारत के इस विश्वास का आधार है कि यह देश 2004 ई. तक 10,000 मेगावाट बिजली (mwe) उत्पादित कर सकेगा।

फिर भी परमाणु बिजली का उत्पादन इतना व्ययसाध्य है कि भारत के लिए अन्य विकसित देशों की तुलना में इसका और अधिक विकास करना एक कठिन कार्य है। दूसरे, परमाणु से बिजली उत्पन्न करना मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए खतरे से खाली नहीं है। अतः भारत में परमाणु से बिजली उत्पन्न करने की तकनीक को अत्यधिक प्रोत्साहन मिल सकेगा, इसमें संदेह है।

सौर ऊर्जा (Solar Energy)

प्रश्न : सौर ऊर्जा के महत्त्व, उपयोगिता और सम्भाव्यता पर भारत के सन्दर्भमें विचार करें।

अथवा

प्रश्न : सौर ऊर्जा क्या है? उसके महत्त्व और उपयोगिता का विवेचन करें। सौर ऊर्जा की विश्व एवं भारत में उपलब्धता की सम्भाव्यता का वर्णन करें?

अथवा

प्रश्न : सौर ऊर्जा को परिभाषित करते हुए उसके महत्त्व और उपयोगिता का वर्णन करें। सौर ऊर्जा के भारत में उपयोग का भविष्य क्या है?

उत्तर : सूर्य असीमित और अक्षय ऊर्जा का स्रोत है। हम सूर्य की परिकल्पना एक दूरस्थ पृथ्वी से लगभग 150 × 10° कि.मी. दूर स्थित बृहत संलयन रिएक्टर के रूप में कर सकते हैं। खगोलविदों ने सूर्य को लगभग 4 × 10° वर्ष पुराना माना है। सूर्य से आगामी 4 × 10° वर्षों तक ऊर्जा का विकिरण होते रहने की सम्भावना है। सूर्य से विकिरण के रूप में प्राप्त ऊर्जा को ही सौर ऊर्जा कहा जाता है। 75,000 ट्रिलियन के डब्ल्यू एच (किलो वाट हॉर्स) सौर ऊर्जा का मात्र 0.1% ही पृथ्वी तक पहुँच पाता है परन्तु सौर ऊर्जा का यह नगण्यांश ही हमारी पृथ्वी की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

सौर ऊर्जा की युक्तियाँ : सौर्य ऊर्जा का व्यावहारिक उपयोग तभी सम्भव है जब उसे अधिक से अधिक क्षेत्र से इकट्ठा करने अथवा अधिक समय तक उसे संग्रहीत रखने या दोनों के लिए उचित साधन या युक्तियाँ उपलब्ध हों। सौर्य ऊर्जा की तकनीक में दो महत्त्वपूर्ण युक्तियाँ या तकनीक शामिल हैं-सौर ऊर्जा का तापीय रूर्यातरण अथवा प्रकाशकीय रूपांतरण। सौर ऊर्जा का तापीय या ऊष्मीय रूपांतरण सीधे तौर पर प्रकृति में भी घटित होता रहता है। सौर ऊर्जा के विकिरण से सागरों की तरंगें और धाराएँ तथा वायु गर्म हो जाती है। प्रकाशकीय रूपातंरंण में प्रकाश संश्लेषण, प्रकाश-रसायन, प्रकाश-विद्युत-रसायन, प्रकाश कलई एवं प्रकाश वोल्टीय सम्मिलित हैं। सौर ऊर्जा के प्राकृतिक संग्राहक वायुमण्डल, महासागर एवं पादप-जीवन हैं जबकि इसके मानव निर्मित संग्राहक अनेक प्रकार के हैं। इस समय अनेक प्रकार की तकनीकें एवं युक्तियाँ उपलब्ध हैं जिनके द्वारा सौर ऊर्जा का विदोहन या उपयोग सम्भव है। इस समय सौर ऊर्जा के उपयोग के लिए दो प्रकार की 'युक्तियाँ विशेष प्रचलन में हैं। वे हैं सौर ऊर्जा के विकिरण से उसका ऊष्मा के रूप में संग्रह तथा सौर सेला सौर सेल एक ऐसी युक्ति है जिसमें सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित कर लिया जाता है। सौर कूकर, सौर-जल ऊष्मक और गीजर ऐसी युक्तियाँ हैं जो सौर ऊर्जा का दोहन कर सौर ऊर्जा को ऊष्मा के रूप में एकत्र कर लेते हैं। यह ज्ञातव्य तथ्य है कि सौर-ऊर्जा एक नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत है।

सौर ऊर्जा का उपयोग मनुष्य आरम्भ से ही सौर ऊर्जा का उपयोग अनेक कार्यों के लिए करता आया है। अनाज, मछली और लकड़ी को सुखाने के लिए सौर ऊर्जा का उपयोग सभ्यता के आरम्भिक काल से होता आया है और इन कामों के लिए आज भी सौर ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। इसका उपयोग समुद्री पानी से नमक बनाने में भी होता है।

वर्तमान युग में ऐसी प्रौद्योगिकी विकसित की जा चुकी है जिससे हम सौर ऊर्जा का दोहन अधिक उन्नत एवं सुविधाजनक रूप से कर सकते हैं। सौर ऊर्जा के दोहन के लिए सामान्यतः प्रयुक्त प्रयुक्तियाँ सौर-कूकर, सौर जल ऊष्मक, सौर जल पम्प, और प्रकाश बोल्टीय सैल या सौर सैल हैं। घर को गर्म रखने, वातानुकूलन एवं प्रशीतन (Refrigeration) के लिए भी सौर ऊर्जा का उपयोग होता है। पदार्थों या वस्तुओं को सुखाने, भोजन बनाने, फर्नेस दहन, जल को लवणरहित करने, नमक बनाने इत्यादि के लिए भी सौर ऊर्जा का उपयोग होता है। इन युक्तियों को ही सौर ऊर्जा युक्तियाँ कहते हैं। इन युक्तियों को इनके कार्य करने के सिद्धान्त के आधार पर दो संवर्गों में बाँटा गया है। पहले प्रकार की युक्तियों में सौर ऊर्जा को ऊष्मा के रूप में एकत्र किया जाता है। दूसरी युक्ति में सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर लिया जाता है।

भारत में सौर ऊर्जा का भविष्य भारत सरकार के अधीन गठित अपारम्परिक ऊर्जा स्त्रोत मंत्रालय के अन्तर्गत 'सौर ऊर्जा केन्द्र' अनुसंधान एवं विकास की दिशा में कार्यरत प्रमुख एजेन्सी है। सौर ऊर्जा केन्द्र का मुख्य काम सौर ऊर्जा से वस्तुओं को गर्म रखने की विधि से सम्बन्धित अनुसंधान करना है। इस केन्द्र का काम सौर ऊर्जा प्रणाली का डिजाइन तैयार करना तथा तत्सम्बन्धी अभियांत्रिकी का विकास करना है। इस केन्द्र का एक काम सौर ऊर्जा से संचालित ताप विद्युत केन्द्रों से विद्युत का उत्पादन एवं ग्रीन हाउस तकनीक का भी विकास करना है। इस केन्द्र के पास सौर ताप एवं सौर प्रकाश वोल्टीय (Solar Photovoltaic) की परख के लिए उपकरण या युक्तियाँ भी उपलब्ध हैं। इस केन्द्र में सौर संग्राहक को मापने के लिए आन्तरिक सूर्य अनुरूपक (Simulator) भी उपलब्ध है। केन्द्र को उपलब्ध यह युक्ति एशिया की सबसे बड़ी युक्ति है। इसके अतिरिक्त अनेक अन्य महत्त्वपूर्ण साधन, युक्तियाँ और उपकरण उपलब्ध हैं।

अब तक भारतवर्ष में लगभग दस हजार घरेलू एवं 5,000 औद्योगिक जल-ऊष्मकों का उपयोग हो रहा है। लगभग ढाई लाख सोलर कूकर भी उपयोग में है। दस सोलर स्टील्स एवं 200 सोलर हट्स (सौर-घर) भी प्रस्थापित किये जा चुके हैं। मेडिकल कॉलेज, रोहतक में 650°C तापमान पर 25,000 लीटर की दर से पानी को गर्म करने की सौर-जल-ऊष्मक प्रणाली कार्यरत है। भारत में जल को लवणरहित करने वाली प्रणाली की प्रथम स्थापना दुबचिक स्थित हरियाणा पर्यटन कम्प्लेक्स में हुआ। यह प्रणाली प्रतिदिन 2,000 लीटर बाली जल (की हाँडी) का उपचार करती है।

द डिपार्टमेंट ऑफ मेटेलर्जी कॉलेज ऑफ इन्जीनियरिंग, पुणे ने एक ऐसे सौर फर्नेस का प्रारूप (Design) तैयार किया है जो 2,000°C तक का तापमान उत्पादित कर सकता है। इस ताप का उपयोग इस्पात की सतह एवं कास्ट आयरन को कठोर बनाने के लिए किया जा सकता है।

22 किलोवॉट का एक सोलर धर्मल पावर प्लाण्ट आन्ध्र प्रदेश के सोलाजीपैल्ली गाँव में लगाया गया है। सोलर इनर्जी सेन्टर, गुड़‌गाँव, हरियाणा के त्वालपहाड़ी परिसर में 50 किलोवॉट का एक दूसरा सोलर थर्मल पावर प्लाण्ट लगाया गया है। 35 मेगावॉट के एक अन्य सोलर पावर प्लाण्ट लगाने पर ऊर्जा मंत्रालय विचार कर रहा है। यह पावर प्लाण्ट जोधपुर (राजस्थान) के मैथनिया गाँव में स्थापित किया जायेगा।

गाजियाबाद स्थित सरकारी उपक्रम सेण्ट्रल इलेक्ट्रोनिक्स लिमिटेड ने 1978 ई. से सोलर फोटोबोल्टीय प्रणाली के सम्बन्ध में अनुसंधान एवं विकास का कार्य प्रारम्भ किया, तब से इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है। 1985-90 ई. के मध्य सोलर विद्युत प्रणाली का प्रथम वाणिज्यिक उपयोग राजस्थान इलेक्ट्रोनिक्स इन्स्ट्रुमेन्ट लिमिटेड जयपुर में प्रारम्भ हुआ। गाँवों में सौर विद्युतीकरण भी प्रारम्भ हुआ। आन्ध्रप्रदेश के गाँव सैलीजीपैल्ली में सोलर विद्युतीकरण प्रणाली का प्रयोग किया गया। यह गाँव देश का प्रथम गाँव है जहाँ सौर फोटोबोल्टीय प्रणाली के आधार पर गाँव के घरों में बिजली पहुँचायी गयी। दो 100 किलोवॉट के आंशिक ग्रिड ने भी काम करना प्रारम्भ किया है जो सौर फोटोवोल्टीय प्रणाली पर आधारित हैं। ये ग्रिड उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ जिले के कल्याणपुर तथा मऊ जिले में सरैयासादी में स्थापित किये गये हैं। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार में फोटोवोल्टीय सिंचाई पम्पसेट स्थापित किया गया है।

सम्प्रति कम शक्तिवाली सौर फोटोवोल्टीय विद्युतीकरण की प्रणाली का उपयोग दूरस्थ और बिजली की सुविधा से वंचित गाँवों में बिजली पहुँचाने के लिए किया जा रहा है। इस प्रणाली का उपयोग पानी के नल, रेलवे सिग्नल, ग्रामीण क्षेत्रों में दूर संचार प्रणाली, पीने एवं सिंचाई के लिए पानी के स्वच्छीकरण माइक्रोवेव्स रिपीटर स्टेशन, समुद्र तटों पर तेल गैस पाइप लाइन को बिजली की सुविधा पहुँचाने तथा टी.वी. संचार के लिए किया जा रहा है। सौर ऊर्जा के उपयोग के ये आयाम काफी आकर्षक हैं। इनसे विकेन्द्रित रूप से विस्तृत क्षेत्रों में वृहत्तर पैमाने पर बिजली पहुँचायी जा सकती है। सौर ऊर्जा द्वारा विकसित विद्युतीकरण की प्रणाली लगभग दोषरहित है। इससे ध्वनि प्रदूषण नहीं होता। इसकी स्थापना अत्यन्त सरल है। इस प्रणाली का रखरखाव सस्ता है। सौर ऊर्जा प्रदूषण के अन्य खतरों से भी मुक्त है। सुविधाओं से वंचित नगरों से दूर अवस्थित वन एवं पर्वतीय प्रदेशों तथा रेगिस्तानी इलाकों के लिए सौर ऊर्जा प्रणाली (सौर फोटोवोल्टीय) अत्यन्त उपयोगी है।

पवन ऊर्जा, लहर ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, कृषि अपशिष्ट ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा

प्रश्न : निम्नलिखित ऊर्जा स्रोतों के महत्त्व, उपयोग एवं सम्भाव्यता का सारगर्भित वर्णन संक्षेप में करें-

पवन ऊर्जा, लहर ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, कृषि अपशिष्ट ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा एवं हाइड्रोजन ऊर्जा।

उत्तर : पवन ऊर्जा :

पवन ऊर्जा का उपयोग मनुष्य सभ्यता के उषाकाल से ही करता आया है। इसका प्रथम उपयोग समुद्रों आदि में जहाजों या बेड़ों को पालों के माध्यम से संतरण के लिए नाविक करते थे। पानी को नलिका (pump) से निकालने के लिए भी पवनचक्कियों का उपयोग प्रारम्भिक नदी घाटी सभ्यताओं के युग में प्रारम्भ हो चुका था। पवन चक्कियों के द्वारा उत्पन्न ऊर्जा से अजों की पीसने-कूटने का भी काम लिया जाता था। इस ऊर्जा को लोग सिंचाई के लिए भी व्यवहार में लाते थे। सौर ऊर्जा से मिलने वाला लाभ द्विफलकीय है जबकि पवन ऊर्जा के लाभ त्रिफलकीय हैं। पवन ऊर्जा अत्यन्त संश्लिष्ट ऊर्जा है। पवन ऊर्जा सदैव समरूप से उपलब्ध नहीं होती। इसका कारण यह है कि हवा कभी तीव्र गति से चलती है, कभी मंद तो कभी मध्यम गति से। आँधी-तूफान के समय पवन का वेग कुछ समय के लिए अकस्मात् बहुत अधिक बढ़ जाता है। पवन ऊर्जा की काम के लायक उपलब्धता भौगोलिक अथवा भूभागीय बनावटों पर निर्भर करता है। हवा की अस्थायी और यांत्रिक प्रकृति के कारण पवन टर्बाइन से हवा की गति एवं पवन ऊर्जा के उत्पादन के बीच सीधा या रैखिक सम्बन्ध नहीं होता, इस कारण इस ऊर्जा के उपयोग की अनिश्चितता सदैव बनी रहती है।

पवन गतिशील हवा है। सूर्य के ताप के वैशिष्ट्य के अनुसार वह बहुत बड़ी मात्रा में गतिशील होती है। इस प्रकार पवन ऊर्जा गतिज ऊर्जा का ही एक उदाहरण है। विशेष समय में पवन में निहित ऊर्जा उसके वेग के अनुपात में होती है और उसी अनुपात में पवन ऊर्जा आधारित ऊर्जा का उत्पादन भी निर्भर करता है। इस ऊर्जा का यांत्रिक एवं वैद्युतीय कामों में उपयोग किया जा सकता है। पवन, टर्बाइन द्वारा बिजली उत्पादित की जा सकती है। पवन ऊर्जा के द्वारा कूपों से पानी निकाला जा सकता है। पानी को सीधे पम्प करने के लिए भी पवन ऊर्जा का उपयोग किया जाता है।

पवन ऊर्जा की विशेषताएँ (गुण) :

(1) पवन ऊर्जा प्रदूषण रहित ऊर्जा का स्रोत है और पर्यावरण से इसका समरस सम्बन्ध

(2) पवन ऊर्जा एक महत्त्वपूर्ण नवीकरणीय, टिकाऊ और बिना मूल्य के उपलब्ध होनेवाली ऊर्जा है।

(3) विश्व-स्तर पर पवन ऊर्जा का स्रोत असीमित है। सौर ऊर्जा की तरह पवन ऊर्जा की अक्षांशीय स्थिति पर निर्भरता बहुत ही कम है।

(4) पवन ऊर्जा के उत्पादन को शुरू करने में बहुत ही कम समय लगता है।

(5) पवन ऊर्जा का उत्पादन बहुत ही सस्ता होता है क्योंकि इसके उत्पादन पर पूँजी की कोई कमी नहीं होती। इस ऊर्जा के उत्पादन पर अनुवर्ती व्यय भी प्रायः नहीं के बराबर आता है।

(6) पवन ऊर्जा समुद्र तट पर उससे बहुत दूर और दुर्गम स्थानों में भी आसानी से उपलब्ध है। फलस्वरूप दुर्गम एवं ग्रामीण क्षेत्रों में पवन ऊर्जा द्वारा उत्पादित बिजली आसानी से पहुंचायी जा सकती है।

(7) बिजली उत्पादन के अन्य क्षेत्रों या तकनीकों में बड़ी इकाइयों (मेगावॉट में) को स्थापित करने की आवश्यकता पड़ती है किन्तु पवन ऊर्जा से बिजली के उत्पादन के लिए अपेक्षाकृत आकार में छोटी इकाइयाँ भी स्थापित की जा सकती हैं। पवन ऊर्जा से बिजली का उत्पादन विकासशील देशों के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। पम्प कर के जल निकासी के लिए बैट्री चार्ज करने के लिए, साधारण यंत्रों के परिचालन के लिए एवं तापीय तथा संकर ऊर्जा के उद्देश्यों के लिए भी पवन ऊर्जा का उपयोग किया जा सकता है।

(8) विकासशील देशों में पवन ऊर्जा के उपयोग का प्रचलन बिल्कुल नया है विशेषकर जिन विकासशील देशों में विजली की पूर्ति की उपलब्धता नहीं है या बहुत कम क्षमतावाली है, वहाँ के लिए पवन ऊर्जा अत्यन्त उपयोगी है।

(9) नयी एवं वैकल्पिक ऊर्जा की सम्भावनाओं के क्षेत्र को विस्तृत करने की दृष्टि से पवन ऊर्जा का विकास आवश्यक है।

पवन ऊर्जा की न्यूनताएँ पवन ऊर्जा की सघनता बहुत कम होती है। पवन ऊर्जा उन्हीं जगहों में उत्पादित की की जा सकती और उपयोग में लायी जा सकती है, जहाँ की भौगोलिक स्थिति उसके अनुकूल हो। पवन क्षण-क्षण परिवर्तनशील, चंचल, तीव्र, अस्थिर, अनियमित, अन्तरालयुक्त, अनिश्चित है एवं कभी-कभी वह अत्यन्त खतरनाक सिद्ध होता है। पवन ऊर्जा के टर्बाइन के डिजाइन, उसका उत्पादन एवं प्रस्थापन एवं संचालन वायुमण्डल की बदलती स्थिति के कारण अत्यन्त कठिन, दुष्कर एवं जटिल होता है। जिन क्षेत्र की वायु अनुकूल होती है, वहाँ वायु फार्म (wind farm) की स्थापना के लिए अत्यन्त विस्तृत भूक्षेत्र की जरूरत पड़ती है। सामान्यतः जिन क्षेत्रों में ऊर्जा की आपूर्ति वांछित होती है, वहाँ से पवन फार्म बहुत दूर अवस्थित होता है। पवन फार्म की अवस्थिति पंछियों के प्रव्रजनीय मार्गों में नहीं होना चाहिए अन्यथा पंछियों के भीतर यह भयानक डर पैदा कर देगा। फलस्वरूप पवन ऊर्जा फार्म कुछ विशिष्ट प्रजातियों के विनाश का कारण बन जायेगा। पनचक्कियों से लगातार शोर उत्पन्न होता है। यह शोर-शराबा मनुष्य के चित्त को अशान्त कर देनेवाला होता है। छोटे पैमाने पर बिजली का उत्पादन तो कम व्ययसाध्य और लाभप्रद है लेकिन वृहत् पैमाने पर पवन ऊर्जा से बिजली का उत्पादन बहुत अधिक खर्चीला और व्यय की तुलना की दृष्टि से बहुत ही कम लाभप्रद है। अस्थिर प्रकृति के कारण पवन ऊर्जा को संचित रखने के लिए बैट्रियों की जरूरत पड़ती है। अप्रत्यक्ष रूप से इन बैट्रियों के कारण पर्यावरण प्रदूषित होता है। बैट्री से होनेवाले प्रदूषण से बचने के लिए यदि पवन ऊर्जा के संचयन के लिए बैट्री का उपयोग न भी करें तो इसकी जगह किसी-न-किसी अन्य विकल्प का सहारा लेना जरूरी है।

यद्यपि पवन ऊर्जा एक उपयोगी ऊर्जा है और इसके भंडार के कम होने की भी समस्या नहीं है तथापि इसकी प्रकृति की अस्थिरता संचयन काल में उत्पन्न भयानक शोर-शराबे के दुष्प्रभाव एवं अन्य पर्यावरणिक समस्याओं को देखते हुए इसके वृहत उपयोग की सम्भावना क्षीण नजर आती है।

लहर ऊर्जा (Wave Energy)

महासागरीय लहर ऊर्जा सौर ऊर्जा से ही उत्पन्न होती है। लहर ऊर्जा सौर ऊर्जा का ही रूपांतरित रूप है। इस ऊर्जा के उत्पादन में पवन एक एजेंट का काम करता है। पवन सूर्य की ऊर्जा को सागर की सतह तक पहुँचता है। सामान्यतः लहर ऊर्जा की परिभाषा इन शब्दों में दी जाती है-सूर्य के ताप से पृथ्वी गर्म होती है किन्तु पृथ्वी सर्वत्र समान रूप से गर्म नहीं होती। असमान भू-तापन के कारण पृथ्वी पवन ऊर्जा उत्पन्न करती है और जल की सतह के ऊपर से बहता पवन 'लहर ऊर्जा उत्पन्न करता है। महासागरीय लहर की एक विलक्षणता यह होती है कि वह महासागरीय अन्तरालों को अत्यधिक तीव्र वेग के साथ ऊर्जा की नगण्य क्षति के साथ पार कर जाता है।

अन्य नवीकरणीय ऊर्जा की तकनीकों (या युक्तियों) की तरह लहर ऊर्जा के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास का कार्यक्रम खनिज तेल उत्पादक राष्ट्रों (ओपेक राष्ट्र) द्वारा 1973 ई. में प्रारम्भ किया गया। इस दिशा में सबसे ज्यादा प्रयत्न संयुक्त राज्य (यू.के.), नार्वे एवं जापान में हुआ। जिन अन्य राष्ट्रों ने ऐसी तकनीकों के विकास में कदम आगे बढ़ाया है, वे हैं स्वीडन, डेनमार्क, यू.एस.ए., चीन और भारत।

लहर ऊर्जा की विशेषताएँ लहर ऊर्जा मुफ्त में प्राप्त नवीकरणीय ऊर्जा है। लहर ऊर्जा प्रदूषणमुक्त ऊर्जा है। ज्वारीय ऊर्जा से लहर ऊर्जा इस अर्थ में भिन्न है कि कुछ अपवादों को छोड़कर भारत के सम्पूर्ण तटीय क्षेत्रों में यह ऊर्जा उपलब्ध है। ऊर्जा प्राकृतिक रूप से लहरों में संचित रहती है। इसलिए इस ऊर्जा की सघनता सौर एवं पवन ऊर्जा की अपेक्षा अधिक होती है। लहरीय ऊर्जा के उपकरण पवन और सौर ऊर्जा के उपकरणों के प्रस्थापनक्षेत्र की अपेक्षा बहुत कम जगह घेरते हैं। लहरीय ऊर्जा के उत्पादन में काम आनेवाले यंत्रों या उपकरणों से बहुत ही कम प्रदूषण फैलता है। इससे ईंधन के रूप में हाइड्रोजन गैस उत्पादित किया जा सकता है।

लहरीय ऊर्जा की न्यूनताएँ पवन ऊर्जा की तरह लहरीय ऊर्जा की प्रकृति भी क्षण-क्षण बदलती रहती है। कब यह ऊर्जा कितनी मात्रा में उपलब्ध हो सकती है, यह कहना कठिन है। इस कारण इसकी उपयोगिता सीमित हो जाती है क्योंकि इस ऊर्जा स्त्रोत पर निर्धारित सुनिश्चित मात्रा में ऊर्जा की प्राप्ति के लिए पूर्ण विश्वास के साथ निर्भर नहीं किया जा सकता। फिर भी ज्वारीय ऊर्जा के साथ-साथ इस ऊर्जा की सम्भावना पर संयुक्त रूप से विचार करना लाभप्रद सिद्ध हो सकता है।

भूतापीय ऊर्जा

भूतापीय ऊर्जा पृथ्वी की गर्मी (ऊष्मा) है। चट्टानों के निर्माण-काल में इनके बीच के तरल पदार्थों में प्राकृतिक रूप से जो ऊष्मा या गर्मी संचित हो गयी थी, उसी को भूतापीय ऊर्जा कहते हैं। पृथ्वी की पिघली सतह का तापमान 4000°C है। पृथ्वी की सुनिश्चित भट्ठी में ताप की उत्पत्ति का कारण पृथ्वी के भीतर चुम्बकीय या रेडियोएक्टिव पदार्थों के क्षरण को माना जाता है। पृथ्वी की भीतरी पिघली सतह में असीमित तापीय ऊर्जा संचित रहती है। यद्यपि भूतापीय ऊर्जा का भंडार अक्षय है तथापि सभी क्षेत्रों में इसका दोहन सम्भव नहीं होता। कुछ विशिष्ट क्षेत्र जिन्हें 'हाट स्पॉट' कहा जाता है, से ही इस ऊर्जा का विदोहन सम्भव है। इस तरह के 'हाट स्पॉट' ज्वालामुखी फटने की जगहों, गर्म जल स्रोतों (गीजर) एवं बुलबुले छोड़नेवाले कीचड़ों के छिद्रों वाले क्षेत्रों में पाये जाते हैं। लगभग पृथ्वी का दस प्रतिशत हिस्सा ही भूतापीय ऊर्जा उपलब्ध करा सकता है। भूतापीय ऊर्जा का उपयोग विद्युत ऊर्जा के उत्पादन, जगहों को गर्म करने के लिए घरातलीय जल ऊष्मा पम्प, कृषि के विकास, फसलों एवं औद्योगिक वस्तुओं को सुखाने, मनोरंजन तथा स्वास्थ्य के लिए किया जा सकता है। भूतापीय ऊर्जा प्राप्त करने के लिए 'हाट स्पॉट' स्थित चट्टानों की दरारों में कूपरूपी छिद्र में पम्प के माध्यम से पानी पहुँचाया जाता है। पम्प का पानी गर्म होकर कूप के ऊपर तक उठ आता है। इस गर्म पानी को वाष्प में बदला जा सकता है। शुष्क वाष्प से टर्बाइन को चलाकर बिजली तैयार की जा सकती है।

भूतापीय ऊर्जा के प्रयोग का इतिहास :

भूताप से जगहों को गर्म करने का प्राचीनतम प्रमाण 1300 ई.पू. का आइसलैण्ड में प्राप्त होता है। भूताप का प्रथम उपयोग आवासों/परिसरों को गर्म करने, भोजन पकाने एवं दवाओं को बनाने के लिए हुआ था। आज भी भूतापीय ऊर्जा के उपयोग के लिए आइसलैण्ड सुविख्यात है। इस देश के दो-तिहाई आवासीय क्षेत्रों को भूताप से गर्म किया जाता है। न्यूजीलैण्ड एवं यू. एस. ए. में स्थानीय क्षेत्रों की ताप-आपूर्ति के लिए भूतापीय ऊर्जा का उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त गर्म जलापूर्ति, वातानुकूलन, अकुआकल्चर, बागवानी (अंगूर और केले के उत्पादन के लिए), भूतापीय ऊष्म जल पम्प तथा उद्योगों में अनेक प्रयोजनों के लिए भूतापीय ऊर्जा का उपयोग आइसलैण्ड सहित अनेक देशों में किया जाता है। भूतापीय ऊर्जा का उपयोग अधिकाधिक खनिज तेल की प्राप्ति के लिए भी किया जाता है। भूतापीय ऊर्जा के ये सब प्रत्यक्ष उपयोग हैं। इस समय भूतापीय ऊर्जा का सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए होता है। सौर या पवन ऊर्जा की अपेक्षा भूतापीय ऊर्जा से अधिक बिजली प्राप्त की जा सकती है। लेकिन इससे प्राप्त बिजली की मात्रा जल विद्युत एवं बॉयोगैस की अपेक्षा कम होती है।

भूतापीय ऊर्जा का प्रथम व्यापारिक उपयोग 1904 ई. में इटली के लारडेरेलो नामक नगर में प्रारम्भ हुआ। सम्प्रति 6,000 मेगावॉट ऊर्जा विश्व भर में भूतापीय ऊर्जा से प्राप्त हो रही है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि तीसरी दुनिया में भूतापीय ऊर्जा के उपयोग की सम्भावना सबसे अधिक है। विश्व का सर्वाधिक बड़ा भूतापीय ऊर्जा पावर प्लांट सैन फ्रांस्सिको (यू. एस. ए.) में अवस्थित है जिसकी उत्पादन क्षमता 2000 मेगावॉट है।

कृषि अपशिष्ट ऊर्जा

भारत कृषिप्रधान देश है। इसी कारण यहाँ कृषि अपशिष्टों की बहुतायत है। फरालों के डंठल, पत्ते, खोई, भूसी आदि प्रत्यक्ष कृषि अपशिष्ट हैं। भारत में कृषि फार्म से पशुपालन भी जुड़ा हुआ है। पशुओं के के गोबर और मलमूत्र भी कृषि अपशिष्ट में गिने जाते हैं। गाँवों में रहने वाले लोग फसलों की खोई, भूसी, डंठल और पत्तों आदि का उपयोग ईंधन के रूप में करते हैं। रसोई तैयार करने एवं कोलसार में गुड़ तैयार करने के लिए फसलों के अपशिष्ट का प्रमुख रूप से उपयोग होता है। गोबर के कंडे या उपते ग्रामवासियों के लिए सबसे सुलभ ईंधन का साधन है।

ज्वारीय ऊर्जा (Tidal Energy)

धाराप्रवाह जल स्रोतों में गतिशील ऊर्जा होती है। जल की धारा जब टर्बाइन पर छोड़ी जाती है तो टर्बाइन घूमने लगता है। घूमते हुए टर्वाइन का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए किया जा सकता है। महासागर, सागर, नदीमुख, नदी आदि की जल धाराओं की गति का उपयोग बिजली उत्पादन के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार महासागर का ज्वार ऊर्जा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

ज्वारीय ऊर्जा की संकल्पना अन्य ऊर्जा स्रोत की अपेक्षा एक नयीं संकल्पना है। इसकी उपलब्धि की सीमा सागर के अनंत विस्तार तक निहित है। ज्वारीय चक्कियों के उपयोग का प्रमाण पश्चिमी यूरोप में ग्यारहवीं शताब्दी में मिलता है। ज्वारीय ऊर्जा का उपयोग उस समय के अनेक कठिन सामाजिक कार्यों के लिए किया जाता था। अनाज की कटाई के काम में ज्वारीय ऊर्जा का उपयोग होता था। जीवाश्मीय ऊर्जा की बढ़ती लागतों को देखते हुए ज्वारीय ऊर्जा के बृहत उपयोग की सम्भाव्यता की खोज पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। ज्वारीय उत्पादन की सम्भाव्यता लगभग 550 किलोवॉट घंटा प्रतिवर्ष है। यह आकलन है तो बहुत ही आकर्षक किन्तु इसके उत्पादन स्थल की उपयुक्तता की विरलता है। फलस्वरूप ज्वारीय ऊर्जा के उपयोग की सम्भावना क्षीण है।

ज्वारीय ऊर्जा के गुण ज्वारीय ऊर्जा असमाप्य एवं नवीकरणीय ऊर्जा का स्रोत है। ज्वारीय ऊर्जा का स्त्रोत अक्षय तो है ही इसके स्रोत पर जलवायु के अपरिवर्तन यथा अनावृष्टि आदि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वर्षों वर्ष लगातार पानी न पड़े, सूखा हो तो भी ज्वारीय ऊर्जा से ब्रिजली के उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

ज्वारीय ऊर्जा प्रदूषणमुक्त ऊर्जा है। इसके उत्पादन से पर्यावरण पर कोई अनिष्टकारी प्रभाव नहीं पड़ता। न ही इसके उत्पादन में किसी ईंधन की जरूरत पड़ती है।

ज्वारीय ऊर्जा के उत्पादन के लिए उपयोगी भूमि की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि इसके प्लाण्ट प्रायः नदीमुख या खाड़ियों में बैठाये जाते हैं।

जिस समय ऊर्जा की माँग शिखर पर हो उस समय पारम्परिक ऊर्जा प्लांटों के साथ मिलकर ज्वारीय ऊर्जा प्लांट इस माँग को पूरा करने में पूर्णतः सक्षम हैं।

ज्वारीय ऊर्जा की न्यूनताएँ ज्वारीय क्षेत्रों की विभिन्नता के कारण उत्पादन भी प्रभावित होता है। ज्वारीय ऊर्जा से लगातार बिजली का उत्पादन नहीं किया जा सकता। उत्पादन की अवधि अन्तरालयुक्त (intermittent) होती है। इस अन्तराल को कम करने के लिए दो या दो से अधिक तलों (basins) या द्विचक्रीय प्रणाली का उपयोग किया जा सकता है।

ज्वारीय ऊर्जा योजना में निम्नशीर्ष (lowhead) टर्बाइन की जरूरत पड़ती है जो उच्य शीर्ष (highhead) टर्बाइन लगाने की अपेक्षा ज्यादा खर्चीला है। चूंकि ज्वारीय ऊर्जा निरंतर घटती-बढ़ती रहती है इसलिए टर्बाइन को एक विस्तृत क्षेत्र में काम करना पड़ता है। इसके 'कारण ज्वारीय ऊर्जा प्लांट की कार्य क्षमता प्रभावित होती है। ज्वारीय ऊर्जा प्लांट वहीं लगाये जा सकते हैं जहाँ इनके विदोहन की उच्च सम्भावना होती है किन्तु इससे प्राप्त ऊर्जा का लाभबहुत कम जरूरतमंदों को प्राप्त हो पाता है। ज्वारीय ऊर्जा के प्लांट की स्थापना के लिए बड़े बाँध बनाये जाते हैं जहाँ ज्वारीय ऊर्जा का उच्च प्रवाह होता है लेकिन बाँध, जलमार्ग एवं टर्बाइन के खारे पानी से विनष्ट हो जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। ज्वारीय ऊर्जा प्लांट से नदीमुख, नौवहन, मछली मारने एवं समुद्रीय जीवों के प्रव्रजन से नैसर्गिक कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ज्वारीय विद्युत केन्द्रों से धारा की गति उलट जाती है। तरंग की क्रिया का अनुवर्ती प्रभाव तटों के क्षरण का कारण बन जाता है। इससे नदियों में गाद की मात्रा भी बढ़‌ती है।

हाइड्रोजन ईंधन (Hydrogen Fuel):

प्रश्न: भारत के सन्दर्भ में पवन, लहर, भूतापीय, भूतापीय एवं हाइड्रोजन ईंधन ऊर्जा की सम्भावनाओं पर विचार करें।

उत्तर :

1. पवन ऊर्जा और भारत

पवन ऊर्जा की दृष्टि से भारत ऊँचा स्थान रखता है। भारत में उपलब्ध पवन ऊर्जा की क्षमता 25,000 मेगावॉट है। इनमें से तमिलनाडु से 6,000 मेगावॉट और गुजरात से 5,000 मेगावॉट पवन ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। पवन ऊर्जा के उत्पादन की दृष्टि से तमिलनाडु, गुजरात, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र एवं राजस्थान, उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश के मैदानी क्षेत्र अत्यन्त उर्वर हैं। 1995-96 ई. के मध्य भारत में 732 मेगावॉट वाला एक पवन ऊर्जा केन्द्र स्थापित किया जा चुका था।

एशिया में सर्वप्रथम स्थापित होनेवाला पवन फार्म प्रोजेक्ट गुजरात के कच्छ जिले में मांडवी में अवस्थित है। मुप्पांडल (तमिलनाडु) में 150 मेगावॉट का एक पवन फार्म कल्स्टर स्थापित किया जा चुका है। यह पवन फार्म कल्स्टर एशिया का सबसे बड़ा पवन फार्म कल्स्टर है। भारत के प्रमुख पवन फार्म कल्स्टर कायाथार, मुप्पांडल अयुकुडी और टुटीकोरन (तमिलनाडु), माण्डवी, ओरबा, टुना, लाम्बा एवं वरवाल (गुजरात) में स्थापित हैं।

अपारम्परिक ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार ने पवन ऊर्जा के उत्पादन पर बहुत अधिक जोर दिया है। भारत सरकार ने पवन ऊर्जा प्लांट की स्थापना करनेवालों को अनेक प्रकार के प्रोत्साहन देने की योजना बना रखी है। सरकार ने शत-प्रतिशत हास का लाभ, उत्पाद कर के भुगतान में छूट, बिक्री एवं अवकाश में छूट, रियायती वित्तीय सहायता आदि की छूट दे रखी है।

अनेक संस्थानों में पवन ऊर्जा सम्बन्धी अनुसंधान कार्य चल रहे हैं।

2. लहर ऊर्जा और भारत :

6,000 कि.मी. लम्बे भारत के सागर तट की लहर ऊर्जा की क्षमता लगभग 40,000 मेगावॉट है। अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी की 'व्यापारिक हवा' का मार्ग 'लहर ऊर्जा' को संचित करने का आदर्श क्षेत्र है। भारत का प्रथम लहर ऊर्जा पावर प्लांट बिझिनजान (Viznhingjam) में आई. आई. टी., चेन्नई द्वारा स्थापित किया गया। यह भारत सरकार द्वारा प्रायोजित उपक्रम है। इस प्लाण्ट की स्थापना 1991 ई. में हुई थी। महासागरीय विकास विभाग, भारत सरकार ने इस पावर प्लांट को सागरीय लहर ऊर्जा के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसंधान के लिए राष्ट्रीय केन्द्र घोषित किया है। इस प्लांट की स्थापना में एक स्वीडिश कम्पनी ने भी सहयोग किया है।

3. भूतापीय ऊर्जा और भारत :

भारत में लगभग 340 गर्म जल के झरने हैं जिनका तापमान 80°C से 100°C के बीच है। इस प्रकार भारत में भूतापीय ऊर्जा की सम्भावना उज्ज्वल है। कई स्थानों पर भूतापीय ऊर्जा की सम्भावनाओं से सम्बन्धित अनुसंधान कार्य चल रहा है। इस अनुसंधान कार्य का उद्देश्य भूतापीय ऊर्जा का ताप एवं बिजली उत्पादन के क्षेत्र में प्रत्यक्ष उपयोग की सम्भावनाओं का पता लगाना है। हिमाचल प्रदेश के मनीकरण में एक पाँच किलोवॉट का पॉयलट पावर प्लांट स्थापित किया गया है। लद्दाख की पुगाघाटी (जम्मू-कश्मीर राज्य) में 4 से 5 मेगावॉट भूतापीय ऊर्जा के उत्पादन का अनुमान लगाया गया गया है। फिर भी अभी तक वृहत् पैमाने पर भूतापीय ऊर्जा के उपयोग की दिशा में कोई अपेक्षित प्रगति नहीं हो पायी है।

आवासीय परिसरों को गर्म करने तथा ग्रीन हाउस प्रभावों की तकनीक का प्रदर्शन किया जा चुका है। पुगा में परिसरों को गर्म करने के प्रयोग किये जा चुके हैं। एक 62.5 m² झोपड़ी भूताप से गर्म करने का प्रयोग किया गया है जिसमें आस-पास के तापमान से 20°C से अधिक उच्च तापमान पर घर/झोपड़ी को गर्म करने के लिए भूताप ऊर्जा के उपयोग पर काम किया गया है।

मनीकरण (हिमाचल प्रदेश) में एक 7.5 टन की क्षमतावाले शीत-गृह (Cold Storage) का निर्माण किया गया है। यह शीतगृह 90°C पर प्रवाहित गर्म भूजल के माध्यम से भूताप ऊर्जा का उपयोग करता है।

पुगा में स्थानीय खदानों में बोरेक्स एवं गंधक को निकालने एवं उसके शोधन कार्यों के लिए भूतापीय ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है।

भूताप ऊर्जा के उपयोग की सम्भाव्यता के प्रदर्शन के निमित्त एक परियोजना तपोवन (गढ़वाल में जोशीमठ के निकट) आकार ले चुकी है। इस परियोजना का उद्देश्य भूतापीय ऊर्जा के विभिन्न उपयोगों की सम्भावनाओं को तलाशना है।

4. ज्वारीय ऊर्जा और भारत :

भारत में लगभग 15,000 मेगावॉट ज्वारीय ऊर्जा के विदोहन की सम्भावना है। जिन स्थानों से ज्वारीय ऊर्जा का विदोहन सम्भव है, वे स्थान हैं-काम्बे की खाड़ी (7,000 मेगावॉट), कच्छ की खाड़ी (1,000 मेगावॉट) एवं सुन्दरवन (100 मेगावॉट)। अन्य सम्भाव्य स्थल लक्षद्वीप का टापू, अंडमान और निकोबार का टापू एवं उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के तटवर्ती क्षेत्र हैं। कच्छ की खाड़ी में एशिया के सबसे बड़े ज्वारीय ऊर्जा पावर प्लांट, जिसकी उत्पादन क्षमता 800-1000 मेगावॉट होगी, की प्रस्थापना प्रस्तावित है।

5. हाइड्रोजन ईंधन (Hydrogon Fuel):

इस समय पानी से हाइड्रोजन (H₂) प्राप्त कर उसका उपयोग ईंधन के रूप में करने का प्रयोग चल रहा है। हाइड्रोजन ईधन का उपयोग विभिन्न प्रयोजनों के निमित्त किया जाता है।

प्रश्न : बॉयोगैस क्या है? उसके उत्पादन, उपयोग और गुणों का वर्णन करें।

उत्तर : बॉयोगैस : बॉयोगैस ऊर्जा का एक टिकाऊ स्रोत है। बॉयोगैस का उत्पादन बृहत रूप से उपलब्ध प्राकृतिक जैविक कचरों द्वारा किया जा सकता है। बॉयोगैस के पावर प्लाण्ट की बनावट बड़ी सरल होती है। इसका रखरखाव और संचालन भी बहुत आसान है। बॉयोगैस एक छोटे घर से लेकर पूरे राष्ट्र के लिए एक लाभप्रद ऊर्जा स्त्रोत है।

बॉयोगैस अनेक प्रकार के गैसों का सम्मिश्रण हैं जिसमें लगभग 60 प्रतिशत मीथेन (एक बहुमूल्य ईंधन) और 40% कार्बन डाय ऑक्साइड (अक्रिय गैस) होती है। इसमें नगण्य मात्रा में कुछ अन्य गैसें भी मिली-जुली होती हैं जिनमें नाइट्रोजन और हाइड्रोजन सल्फाइड प्रमुख है। इसका ऊष्मीय मान 5,000 Kcal/m' से अधिक है। यह मान उसमें निहित कार्बन डॉयऑक्साइड की मात्रा पर निर्भर है। कार्बन डॉयऑक्साइड की मात्रा को कम करके बॉयोगैस के तापीथ मान में वृद्धि की जा सकती है। इसके निमित्त बॉयोगैस को चूने के बोल के माध्यम से प्रवाहित किया जाता है। बाँयोगैस 157°C से कम ताप पर किसी चीज को उबाल सकता है और किसी पदार्थ को 350 कि.ग्रा.से.मी. के दबाव पर तरलीकृत कर सकता है।

बाँयोगैस का उत्पादन बाँयोतकनीक द्वारा किया जाता है। जैविक पदार्थों के प्राकृतिक अपघटन की प्रक्रिया के क्रम में चाँयोगैस निकलती है। जैविक पदार्थों से बॉयोगैस बनाने के बाद बचे कचरे का उर्वरकीय मूल्य कम नहीं हो जाता प्रत्युत् बॉयोगैस के कीच (slurry) में उच्च कोटि का उर्वरकीय गुण होता है। निश्चित मात्रा के कचरे से बॉयोगैस के साथ-साथ उतनी ही मात्रा में उर्वरक भी प्राप्त होता है। इस तरह के उर्वरकों में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटैशियम बहुत अधिक मात्रा में रहते हैं। बाँयोगैस प्लांट से ईंधन और उर्वरक दोनों एक साथ प्राप्त होते हैं। साधारणतया बाँयोगैस गोबर से प्राप्त किया जाता है। गोबर से बॉयोगैस बनाने के प्लांट को 'गोबर गैस प्लांट' कहा जाता है। गोबर, मानव मल, कृषि अपशिष्ट शैवाल धान के पुआल, जलीय खरपतवार, औद्योगिक अपशिष्ट जिनमें सेल्युइक पदार्थ होते हैं। यथा डिस्टिलरी के कीचड़, चर्मोद्योग के कचरों, खाद्य एवं कागज उद्योग के कचरों से भी बॉयोगैस तैयार किये जाते हैं।

बॉयोगैस इस्पात या ईंट के बने जलरोधी प्लांटों के माध्यम से उत्पादित किया जाता है। इस प्लांट में जैविक कचरे आदि डाल दिये जाते हैं। एक औंधे ड्रम के माध्यम से बॉयोगैस निकलता है।

बॉयोगैस सस्ता एवं सुविधाजनक रूप से खाना बनाने के ईंधन के रूप में प्रयुक्त होता है। बॉयोगैस को भंडारित करके करके रखा रखा भी जा सकता है जिसका उपयोग कृत्रिम रूप से प्रकाश प्राप्त करने के लिए भी किया जाता है। लघु कुटीर उद्योगों के मोटर भी बॉयोगैस से चलाये जाते हैं। बॉयोगैस के अन्य लाभ भी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को इससे ज्यादा लाभ पहुँचता है। बॉयोगैस के प्रचलन से दूर जंगलों से ईंधन के लिए लकड़ी के बोझ ढोने से स्त्रियाँ एवं बच्चों को मुक्ति मिलेगी। पारम्परिक चूल्हों से जो धुआँ होता है, उससे भी गृहणियों को मुक्ति मिलेगी। फलस्वरूप उनकी आँखें और फेफड़े अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाने से बच जायेंगे। बर्तन कम गंदा होगा। स्त्रियों का समय बच जायेगा। ईंधन की प्राप्ति के लिए वृक्षों की कटाई में भी कमी आयेगी। यदि बॉयोगैस प्लांटों से शौचालयों को भी सम्बद्ध कर दिया जाय तो गाँवों की स्वच्छता भी बढ़ेगी। बॉयोगैस के उपयोग से नकद आर्थिक लाभ भी होता है क्योंकि इससे ईंधन और उर्वरकों में लगनेवाले पैसे भी बच जाते हैं। वैज्ञानिक अब तक अनेक प्रकार के कचरों से बॉयोगैस बनाने के बहु प्रकार के प्लांटों का डिजाइन विकसित कर चुके हैं।

बॉयोगैस और भारत : पूरे विश्व में बॉयोगैस के उत्पादन में रुचि ली जा रही है। भारत और चीन में बॉयोगैस से ऊर्जा की प्राप्ति आम प्रचलन में है। बॉयोगैस का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है। 1981-82 ई. में बॉयोगैस विकास राष्ट्रीय परियोजना (National Project for Bio-gas Development) ने बॉयोगैस के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएँ बनायी हैं। आठवीं पंचवर्षीय योजना में दस लाख बॉयोगैस प्लांट लगाने का लक्ष्य रखा गया था जबकि सातवीं योजना में यह लक्ष्य 7.5 लाख बॉयोगैस प्लाण्टों की स्थापना तक सीमित था।

बॉयोगैस से ऊर्जा उत्पादन में बढ़ोत्तरी के लिए निम्नलिखित कंदम उठाये गये हैं-

(1) पंजाब के झालकारी में एक 10 मेगावॉट का धान की भूसी के ताप पर आधारित प्लांट भेल (BHEL) के द्वारा लगाया गया है।

तिमारपुर, दिल्ली में नगरीय कूड़े-कर्कट एवं अपशिष्टों पर आधारित एक पॉयलट प्लांट विद्युत उत्पादन के लिए बैठाया गया है।

मुम्बई में नगरीय कूड़े-कर्कटों से कंडे (pellet) बनाने का एक बड़ा संयंत्र लगाया गया है।

पोर्ट ब्लेयर में 100 किलोवॉट का गैस्सीफायर प्रणाली की स्थापना हुई है। 15 किलोवॉट के ईख और पानी पर आधारित प्रणाली के क्षेत्रीय मूल्यांकन का कार्य प्रगति में है। पूरे देश में सात अनुसंधान केन्द्र विभिन्न कृषि की अनुकूल परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं। इन अनुसंधान केन्द्रों से बॉयोगैस के उत्पादन और विकास सम्बन्धी अनुसंधान एवं विकास कार्यों में सहायता मिलेगी

बॉयोगैस ऊर्जा के गुण बॉयोगैस प्लांट से लगातार और अबाधित रूप से ऊर्जा की आपूर्ति सम्भव है क्योंकि इसका विकास सतत रूप से होता रहता है। जीवाश्मीय ईंधन से ऊर्जा प्राप्ति के लिए लगाये जानेवाले संयंत्रों के खर्चों की तुलना में बॉयोगैस के संयंत्र को लगाने में बहुत कम खर्च आता है। बॉयोगैस के उत्पादन से (विशेषकर मानव और पशुओं के मलमूत्र) प्रदूषणरहित सघन कृषि में भी मदद मिलती है। जैव-भार के विकास द्वारा अधिक मात्रा में कार्बन डॉयऑक्साइड का उपभोग किया जाता है। इससे वातावरण के शुद्धीकरण के निमित्त अधिक मात्रा में ऑक्सीजन गैस भी प्राप्त होता है। बॉयोगैस को सुरक्षित भी रखा जा सकता है। इसका उपयोग गाड़ियों के प्रणोदन के लिए भी किया जा सकता है। अन्य सभी नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों द्वारा बिजली उत्पादन के क्षेत्र में बॉयोगैस द्वारा बिजली का उत्पादन एक आंशिक योगदान है। खनिज तेल, एल. पी. जी. तथा गैस ईंधनों की बढ़ती माँग के दबाव को बाँयोगैस द्वारा उत्पादित बिजली बहुत कम कर देगी। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तो बॉयोगैस चमत्कारिक रूप से वरदान सिद्ध हुआ है।

बॉयोगैस ऊर्जा की न्यूनता बॉयोगैस के लाभों का बिबरण ऊपर दिया जा चुका है। ऊर्जा के अन्य स्रोतों का आर्थिक महत्त्व स्थापित हो चुका है किन्तु, बॉयोगैस ऊर्जा अभी तक अपना आर्थिक महत्त्व स्थापित नहीं कर पायी है।

पारम्परिक एवं अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत

प्रश्न : पारम्परिक एवं अनवीकरणीय ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोत जीवाश्मीय ईंधन-कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस एवं परमाणु ऊर्जा के महत्त्व, उपयोग और सम्भावनाओं पर भारत के सन्दर्भ में विचार करें।

उत्तर : पारम्परिक ऊर्जा के स्त्रोत: पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोत के अन्तर्गत जीवाश्मीय ईंधन जैसे-कोयला, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस, जल-शक्ति एवं परमाणु ऊर्जा की गिनती होती है। इनकी उपलब्धता और उपयोग का उल्लेख इस प्रकार है-

1. कोयला :

भारत में कोयला ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत दीर्घकाल से रहा है। औद्योगिक युग के आरम्भिक काल में ऊर्जा की प्राप्ति के लिए प्रमुख रूप से कोयले का उपयोग किया गया। कोयले से वाष्प इंजन चलाये गये। बिजली पैदा की गयी। रोड रॉलर एवं कल-कारखाने चलाये गये। भारत में कोयले के वाष्प के रेल इंजन पिछले दो-तीन दशकों तक चले।

कोयला घरेलू ईंधन का प्रमुख स्रोत है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में कोयले के चूल्हे का उपयोग भोजन बनाने के लिए होता है। कोयले का उपयोग इस्पात बनाने के लिए होता है।

कोयले से भारत में उत्पादित विद्युत शक्ति का योगदान 60 प्रतिशत है। कोयला उत्पादन में भारत का स्थान पाँचवाँ है। भारत में कोयले का लगभग 2,14,000 करोड़ टन भंडार है। फिर भी प्रति व्यक्ति कोयले का भण्डार 210 टन है। भारत में कोयले का ज्ञात भण्डार विश्व के कोयला संसाधनों का केवल 0.8 प्रतिशत है। कोयला का उपलब्ध भण्डार 1487 मिलियन टन है। इनमें से खनन द्वारा निकाले जाने लायक कोयले का भण्डार मात्र 60,000 मिलियन टन है। अपनी उपयोगिता की सर्वोच्चता के कारण कोयले को 'काला सोना' कहा जाता है। कोयले के चार प्रकार हैं-ऐन्थ्रासाइट, बिटुमिनस, लिगनाइट और पीट। इनमें सबसे उच्चकोटि का कोयला ऐन्द्रास, इट है। कोयले के इस प्रकार में कार्बन की मात्रा 80% होती है। यह कोयला केवल जम्मू-कश्मीर के भारतीय क्षेत्र में पाया जाता है। बिटुमिनस कोयले का उपयोग सबसे ज्यादा होता है। लिगनाइट को भूरा कोयला भी कहा जाता है। इसका उपयोग भी काफी होता है। पीट कोयला सबसे निम्न श्रेणी का कोयला है।

2. खनिज तेल

खनिज तेल से बहुत कम धुआँ निकलता है। जलाने के बाद इससे राख तनिक सी भी नहीं निकलती। खनिज तेल का उपयोग अंतिम बूँद तक किया जा सकता है। भारत में पट्रोलियम (खनिज तेल) का अनुमानित भण्डार लगभग 400 करोड़ टन है। इसमें से मात्र एक-चौथाई अर्थात् 100 करोड़ टन तेल निकाला जा सकता है।

भारत में लगभग 3.3 करोड़ टन कच्चे तेल का उत्पादन होता है। खनिज तेल के प्राप्ति-स्थल मुंबई हाई, अंकलेश्वर (गुजरात), असम, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश और अरुणाचल प्रदेश हैं। कच्चे तेल के उत्पादन का कुल 63 प्रतिशत मुंबई हाई से होता है। 8 प्रतिशत अंकलेश्वर से, 16 प्रतिशत असम से होता है। खनिज तेल कुआँ से अशुद्ध रूप में निकलता है। इसे परिष्करणशालाओं (refineries) में साफ किया जाता है। देश में कुल 18 परिष्करणशालाएँ हैं। भारत की तेल परिष्कृत करने की क्षमता 11.47 करोड़ टन प्रतिवर्ष है।

निकट भूत में पेट्रोलियम की माँग बहुत बढ़ी है। वर्तमान समय में इसकी माँग 10.2 करोड़ टन है। 2007 ई. तक इस माँग के बढ़कर लगभग 17.6 करोड़ टन हो जाने की सम्भावना है। भारत अभी भी पेट्रोलियम एवं पेट्रोलियम उत्पादों का आयात करता है। वह खाड़ी देशों से प्रतिवर्ष लगभग 5 करोड़ टन पेट्रोलियम एवं उसके उत्पाद मँगाता है। इसके आयात पर भारत को बहुत अधिक विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है।

3. प्राकृतिक गैस :

प्राकृतिक गैस खनिज तेल के साथ और खनिज तेल के बिना पायी जाती है। भारत में प्राकृतिक गैस का ज्ञात भण्डार लगभग 70,000 करोड़ घनमीटर है। भारत में इसकी खपत लगभग 2,300 करोड़ घनमीटर है। हाल के दिनों में महाराष्ट्र, गुजरात, असम तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूहों में प्राकृतिक गैस के विशाल भण्डार का पता चला है। इस क्षेत्र से 4.76 करोड़ घनमीटर प्राकृतिक गैस प्राप्त होने की सम्भावना है। कृष्णा-गोदावरी बेसिन में प्राकृतिक गैस का विशाल क्षेत्र हाल में ही खोजा गया है।

भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2,786 करोड़ घनमीटर प्राकृतिक गैस निकाली जाती है। इसमें से लगभग 3/4 भाग गैस मुंबई हाई से प्राप्त होती है। 17% असम से तथा 10% गुजरात से प्राकृतिक गैस प्राप्त होती है। प्राकृतिक गैस का शेष भाग आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, त्रिपुरा और राजस्थान से प्राप्त किया जाता है।

घरों में प्रयुक्त प्राकृतिक गैस को लिक्विड पेट्रोलियम गैस अर्थात् एल.पी.जी. कहते हैं। वाहनों में प्रयुक्त होनेवाले प्राकृतिक गैस को कम्प्रेस्ड (संपीडित) नेचुरल गैस (सी.एन.जी.) कहते हैं।

भारत अपने स्त्रोत से देश में खपत होनेवाली प्राकृतिक गैस की कुल माँग को पूरा नहीं कर पाता। अतः माँग की इस कमी को पूरा करने के लिए भारत पेट्रोलियम पदार्थ, सहित प्राकृतिक गैस का भी आयात करता है। प्राकृतिक गैस सहित पेट्रोलियम पदार्थों और उसके उत्पादों के ज्ञात स्रोत के आगामी तीस-चालीस वर्षों में खत्म हो जाने की सम्भावना है। इसके बाद इसके आयात-व्यय का देश के आर्थिक विकास पर भारी दबाव पड़ेगा।

4. जल-विद्युत :

जल विद्युत जल से पैदा की जाती है। जल एक नवीकरणीय ऊर्जा का संसाधन है। भारत में जितनी विद्युत ऊर्जा का उत्पादन होता है, उसमें जल विद्युत का योगदान 25 प्रतिशत है। भारत में एक अनुमान के अनुसार 1,50,000 मेगावॉट जल विद्युत पैदा की जा सकती है।

5. परमाणु ऊर्जा :

भारत में छः परमाणु ऊर्जा केन्द्र कार्यरत हैं। ये तारापुर (महाराष्ट्र), कपकल्लम (चेन्नई, तमिलनाडु), रावतभाटा (कोटा के निकट राजस्थान), नरोरा (उत्तर प्रदेश), काकरापारा (गुजरात) और कैंगा (कर्नाटक) में स्थित है। इन परमाणु ऊर्जा केन्द्रों में ऊर्जा उत्पादन की कुल क्षमता 2720 मेगावॉट प्रतिवर्ष है। यह उत्पादन क्षमता कुल विद्युत उत्पादन का मात्र 4 प्रतिशत अंश ही है। अपने देश में परिष्कृत यूरेनियम के भण्डार का अभाव-सा है। फलस्वरूप परमाणु ऊर्जा के तत्पादन के इस क्षेत्र में देश बहुत अधिक विकास नहीं कर पाया है।


पर्यावरणीय अध्ययन(Environmental Studies)

















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