बैंकिंग-AD AS- संतुलन - गुणक - समस्याएं स्मरण रख (Remember an Banking-Equilibrium-Multiplier-Problems)

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6. बैंकिंग – वाणिज्यिक बैंक तथा केंद्रीय बैंक

☼ वाणिज्यिक बैंक (Commercial Bank): यह एक वित्तीय संस्था है जो लोगों से जमाएँ स्वीकार करने तथा उन्हें ऋण देने का कार्य करती है।

☼ सभी वित्तीय संस्थाएँ वाणिज्यिक बैंक नहीं होती (All Financial Institutions are not Commercial Banks): सभी वाणिज्यिक बैंक वित्तीय संस्थाएँ होती हैं किंतु सभी वित्तीय संस्थाएँ वाणिज्यिक बैंक नहीं होती। एक वित्तीय संस्था वाणिज्यिक बैंक तब बनती है जब वह निम्नलिखित दोनों कार्य संपन्न करे: (a) लोगों से जमाएँ स्वीकार करे और (b) उन्हें उधार दे।

☼ वाणिज्यिक बैंकों के कार्य (Functions of Commercial Banks): (i) वाणिज्यिक बैकों के मुख्य कार्य (Primary Functions of Commercial Banks) (a) जमा स्वीकार करना (सावधि जमा, माँग जमा, बचत जमा, आवर्ती जमा) (b) ऋण देना (नकद साख, ओवर ड्राफ्ट, माँग ऋण, अल्प अवधि ऋण) (c) साख निर्माण (ii) वाणिज्यिक बैंकों के गौण कार्य (Secondary Functions of Commercial Banks) (a) एजेंट के रूप में कार्य (b) सामान्य उपयोगिता की सेवाएँ

☼ वाणिज्य बैंक और मुद्रा आपूर्ति (Commercial Banks and Money Supply): जमाओं को स्वीकार करने तथा उधार देने वाले अपने प्राथमिक कार्यों को संपन्न करते हुए वाणिज्यिक बैंक साख का निर्माण भी करते हैं। अपनी जमा राशियों की तुलना में कई अग्रिम ऋण (माँग जमाओं के रूप में) देते हैं। यह क्रिया बैंकों के इस ऐतिहासिक अनुभव पर संभव है कि सभी जमाकर्ता एक ही समय में अपने खातों से अपनी राशियाँ निकलवाते नहीं हैं।

☼ वाणिज्य बैंक एवं आर्थिक विकास (Commercial Banks and Economic Development) (a) पूँजी निर्माण; (b) नव-प्रवर्तन को प्रोत्साहन; (c) निवेश-सहायक ब्याज दर ढंचा; (d) ग्रामीण क्षेत्र के विकास में योगदान (e) बाजार माँग में वृद्धि, (f) मौद्रिक नीति को लागू करना; (g) रोजगार के अवसर बढ़ाना।

☼ केंद्रीय बैंक (Central Bank): केंद्रीय बैंक एक देश की समस्त बैंकिंग प्रणाली का सर्वोच्च बैंक है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) भारत का केंद्रीय बैंक है।

☼ केंद्रीय बैंक के कार्य (Functions of the Central Bank): (a) नोट जारी करने का एकाधिकार, (b) सरकार का बैंक, (c) बैंकों का बैंक, (d) अंतिम ऋणदाता, (e) देश के विदेशी मुद्रा कोषों का संरक्षक, (1) समाशोधन गृह का कार्य; (g) साख नियंत्रण, (h) आँकड़े इकट्ठे करना (i) अन्य कार्य जैसे कृषि साख उपलब्ध कराना।

☼ साख नियंत्रण या मौद्रिक नीति (Credit Control or Monetary Policy): केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति के प्रवाह या साख को नियंत्रित करता है।

☼ मौद्रिक नीति के उपाय (Instruments of Monetary Policy): मौद्रिक नीति के उपकरणों (साख के प्रवाह/मुद्रा की पूर्ति के नियंत्रण की नीति) को दो मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है। जैसे (a) मात्रात्मक उपकरण (उपाय) तथा (b) गुणात्मक उपकरण (उपाय)।

☼ साख नियंत्रण के मात्रात्मक उपाय (Quantitative Instruments of Credit Control); मात्रात्मक साख नियंत्रण में निम्नलिखित उपाय सम्मिलित होते हैं: (a) बैंक दर (b) खुले बाजार की क्रियाएँ (c) नकद निधि अनुपात (CRR) (d) वैधानिक तरलता अनुपात (SLR)।

☼ मौद्रिक नीति के गुणात्मक उपाय (Qualitative Instruments of Monetary Policy): (1) सीमांत आवश्यकता (2) साख की राशनिंग (3) प्रत्यक्ष कार्यवाही (4) नैतिक प्रभाव।

7. समष्टि अर्थशास्त्र में समग्र माँग, समग्र पूर्ति तथा संबंधित अवधारणाएँ

☼ समग्र माँग (Aggregate Demand - AD): एक लेखा वर्ष में एक अर्थव्यवस्था में समस्त वस्तुओं तथा सेवाओं की माँग का योग ही समग्र माँग कहलाता है। इसे एक लेखांकन वर्ष में, वस्तुओं तथा सेवाओं पर किए जाने वाले, खर्च द्वारा मापा जाता है।

☼ समग्र माँग वक्र का ढलान (Slope of Aggregate Demand Curve): कीमत के संबंध में समग्र माँग वक्र नीचे को ढलवां होता है। किंतु आय के संबंध में समग्र माँग वक्र नीचे से ऊपर की ओर होता है। केन्ज़ ने समग्र माँग का अध्ययन आय के संबंध में किया है।

☼ समग्र पूर्ति (Aggregate Supply - AS): समग्र पूर्ति से अभिप्राय एक अर्थव्यवस्था में एक लेखांकन वर्ष में समग्र वस्तुओं तथा सेवाओ के प्रवाह से है। समग्र पूर्ति = मूल्य वृद्धि = आय का सृजन = उपभोग + बचत (C+S)

☼ समग्र पूर्ति का ढलान (Slope of Aggregate Supply Curve): कीमत के संबंध में, समग्र पूर्ति वक्र ऊपर होता है। रोजगार के संबंध में भी समग्र पूर्ति वक्र ऊपर होता है।

☼ उपभोग फलन (Consumption Function): उपभोग (C) आय (Y) का फलन (f ) है। C = f (Y) यह उपभोग तथा आय के संबंध को प्रकट करता है।

☼ उपभोग प्रवृत्ति (Propensity to Consume): यह आय एवं उपभोग का अनुपात है। आय के विभिन्न स्तरों पर उपभोग की विभिन्न मात्राओं को प्रकट करने वाली अनुसूची को उपभोग प्रवृत्ति कहा जाता है।

औसत उपभोग प्रवृत्ति (APC) `=\frac CY`

C= उपभोग व्यय , Y= आय

सीमांत उपभोग प्रवृत्ति (MPC) `=\frac{\triangle C}{\triangle Y}`

ΔC= उपभोग व्यय में परिवर्तन

ΔΥ= आय में परिवर्तन

☼ बचत प्रवृत्ति (Propensity to Save): यह बचत एवं आय का अनुपात है। यह आय के विभिन्न स्तरों पर बचत की कामना करती है।

☼ निवेश फलन (Investment Function): यह आय/रोजगार के विभिन्न स्तरों पर निवेश का व्यवहार है।

☼ प्रेरित निवेश (Induced Investment): लाभ की आशा से प्रेरित होकर किया गया निवेश प्रेरित निवेश कहलाता है। यह (i) पूँजी (निवेश) की सीमांत कुशलता तथा (ii) ब्याज की दर पर निर्भर करता है।

☼ स्वायत्त निवेश (Autonomous Investment): यह निवेश आय/रोजगार के स्तर से स्वतंत्र होता है। ऐसा निवेश सामाजिक कल्याण की भावना पर निर्भर करता है।

☼ निवेश के निर्धारक (Determinants of Investment): (i) निवेश से प्राप्त आय/लाभ की आशा, (ii) निवेश की लागत और

(iii) व्यावसायिक आशंसाएं।

☼ पूर्ण रोजगार (Full Employment): एक ऐसी स्थिति जिसमें उन सभी लोगों को जो काम करने के योग्य तथा प्रचलित मजदूरी की दर पर काम करने के लिए तैयार हैं, उन्हें काम मिल जाता है। पूर्ण रोजगार की स्थिति में भी संघर्षात्मक तथा संरचनात्मक बेरोजगारी पाई जा सकती है।

☼ अनैच्छिक बेरोजगारी (Involuntary Unemployment): वह स्थिति होती है जिसमें लोग काम करने के योग्य होते हैं और प्रचलित मजदूरी दर पर काम करने के लिए तैयार होते हैं, किंतु उन्हें काम नहीं मिलता।

☼ या प्रायोजित वचत तथा प्रत्याशित या प्रायोजित निवेश (Ex-ante Saving and Investment): बचतकर्ताओं तथा निवेशकर्ताओं द्वारा किसी योजना के उद्देश्य से बचत तथा निवेश का किया जाना। प्रत्याशित बचत तथा प्रत्याशित निवेश एक दूसरे के बराबर हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते।

☼ यथार्थ वचत तथा निवेश (Ex-post Saving and Investment): यथार्थ बचत तथा निवेश वह बचत तथा निवेश है जो वास्तवं में किया जाता है। राष्ट्रीय आय लेखांकन में एक लेखे की समानता के रूप में यथार्थ बचत = यथार्थ निवेश।

8. आय रोजगार तथा उत्पादन के संतुलन स्तर का निर्धारण

☼ आय उत्पाद रोजगार का संतुलन स्तर (Equilibrium level of Income/Output/Employment), इससे अभिप्राय ऐसी स्थिति है जिसमें समग्र पूर्ति = समग्र माँग (AS = AD)

अथवा

उपभोग + बचत = उपभोग + निवेश (C + S = C + I)

अथवा

बचत = निवेश (S = I)

☼ केन्ज के अनुसार समग्र पूर्ति फलन (Keynesian Aggregate Supply Function): (i) कीमत स्तर के संबंध में समग्र पूर्ति वक्र पूर्ण रोजगार से पहले क्षैतिज सरल रेखा या पूर्ण लोचदार होती है तथा पूर्ण रोजगार के पश्चात् ऊर्ध्वाधर सरल रेखा हो जाती है। (ii) रोजगार के संदर्भ में समग्र पूर्ति को स्थिर माना गया है। इसे एक सीधी रेखा जो अपने मूल बिंदु से निकलती है और 45° का कोण बनाती है द्वारा दिखाया जाता है। समग्र पूर्ति उसी अनुपात में बढ़ती है या घटती है जिस अनुपात में रोजगार का स्तर।

☼ केन्ज के अनुसार समग्र माँग फलन (Keynesian AD Function): समग्र माँग (AD) के दो घटक: उपभोग + निवेश (C+I) होते हैं। उपभोग (C) का आय (Y) से धनात्मक संबंध है। किंतु उपभोग का सदा एक न्यूनतम स्तर होता है (भले ही आय शून्य होती है) और उपभोग व्यय सदैव आय में वृद्धि से कम होती है। क्योंकि लोग आय के एक भाग की बचत करते हैं। निवेश दो प्रकार का होता है: (a) स्वायत्त निवेश तथा (b) प्रेरित निवेश। स्वायत्त निवेश का आय के स्तर से कोई संबंध नहीं होता जबकि प्रेरित निवेश का आय के स्तर से संबंध होता है। आय तथा उत्पादन के संतुलन स्तर के संदर्भ में, केन्ज स्वायत्त निवेश पर अधिक बल देता है।

☼ संतुलन स्थितियाँ (Equilibrium Situations): समग्र पूर्ति तथा समग्र माँग अथवा बचत और निवेश में संतुलन तीनों स्थितियों में

संभव है: (a) पूर्ण रोजगार (b) अपूर्ण रोजगार तथा (c) अति पूर्ण रोजगार।

☼ क्षरण तथा भरण का संतुलन पर प्रभाव (Effect of Injections and Withdrawals on Equilibrium): जब समग्र पूर्ति समग्र माँग से अधिक या जब समग्र माँग समग्र पूर्ति से अधिक होती है तब एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में बाजार की शक्तिया (माँग तथा पूर्ति की शक्तियाँ) इस प्रकार क्रियाशील होंगी कि समग्र पूर्ति तथा समग्र माँग में पुन: समानता स्थापित हो जाएगी।

(a) समावेश तथा वापसी के कारण आय के संतुलन स्तर में खिसकने की प्रवृत्ति पाई जाती है। समावेश (Injection) के कारण आय के स्तर में वृद्धि और वापसी (Withdrawal) के कारण आय के स्तर में कमी होती है।

(b) समावेश तथा वापसी का आय-स्तर पर गुणक प्रभाव पड़ता है। समावेश का धनात्मक तथा वापसी का ऋणात्मक गुणक प्रभाव पड़ता है।

9. निवेश गुणक तथा उसका कार्यकरण

☼ निवेश गुणक (Investment Multiplier): निवेश गुणक, निवेश में परिवर्तन तथा आय में परिवर्तन का अनुपात है। `K=\frac{\triangle Y}{\triangle I}` K: गुणक; ΔY: आय में परिवर्तन; ΔI: निवेश में परिवर्तन

☼ सीमांत उपभोग प्रवृत्ति एवं गुणक में संबंध (Relation between MPC and Multiplier): गुणक का MPC से धनात्मक तथा MPS से ऋणात्मक संबंध है, उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति MPC जितनी अधिक होती है गुणक भी उतना ही अधिक होता है। इसके विपरीत MPC जितनी कम होती है गुणक भी उतना ही कम होता है।

अत:  `K=\frac1{1-MPC}=\frac1{MPS}`

☼ गुणक की अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रक्रिया (Forward and Backward action of the Multiplier): निवेश गुणक दोनों दिशाओं में काम करता है '+' तथा '-'

1. अतिरिक्त निवेश से आय में कई गुणा वृद्धि होती है। यह गुणक की अनुकूल प्रक्रिया है।

2. निवेश कम करने या विनिवेश से आय में कई गुणा कमी होती है। यह गुणक की विपरीत प्रक्रिया है।

☼ निवेश गुणक उपभोग में परिवर्तन द्वारा कार्य करता है (Investment Multiplier works through change in consumption): प्रारंभिक निवेश व्यय के फलस्वरूप आय में प्रारंभिक वृद्धि होती है, इससे उपभोग में वृद्धि होती है (क्योंकि यह व्यय है), उपभोग व्यय किसी अन्य व्यक्ति की आय बन जाती है। इसलिए अतिरिक्त आय (ΔΥ) में से अतिरिक्त उपभोग (ΔC) जितना अधिक किया जाएगा, उतना ही आय का सृजन अधिक होगा, अन्य शब्दों में सीमांत उपभोग प्रवृत्ति `\left(\frac{\triangle C}{\triangle Y}\right)`  जितनी अधिक होगी गुणक का मूल्य भी उतना ही अधिक होगा।

10. न्यून ( अभावी ) और अधि माँग की समस्याएं

☼ न्यून माँग (Deficient Demand): न्यून माँग तब होती है जब समग्र माँग पूर्ण रोजगार स्तर पर समग्र पूर्ति से कम होती है।(Deficient demand occurs when AD falls short of aggregate supply corresponding to the full employment level.) न्यून माँग: AD <AS (पूर्ण रोजगार स्तर पर)

☼ अवस्फीतिक अंतराल (Deflationary Gap): अवस्फीतिक अंतराल पूर्ण रोजगार पर समग्र माँग (AD-at Full Employment) तथा अपूर्ण रोजगार पर समग्र माँग (AD at Underemployment) के अंतर के बराबर होता है।

☼ अवस्फीतिक अंतराल के कारण (Causes of Deflationary Gap): (i) निजी उपभोग व्यय में कमी, (ii) निवेश व्यय में कमी, (iii) सरकारी व्यय में कमी, (iv) निर्यातों में गिरावट, (v) आयातों में वृद्धि, (vi) कर दरों में वृद्धि।

☼ न्यून माँग के परिणाम (Consequences of Deficient Demand): न्यून माँग अवस्फीति तथा बेरोजगारी का कारण है (Deficient Demand Causes Deflation and Unemployment) । पूर्ण रोजगार के स्तर पर जब समग्र माँग (AD) समग्र पूर्ति (AS) से कम रह जाती है, तब देश में उत्पादित सभी वस्तुएँ तथा सेवाएँ बिक नहीं पातीं। इसके परिणामस्वरूप अवस्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है अथवा कीमत में निरंतर गिरावट की स्थिति पैदा हो जाती है। ऐसी स्थिति में लाभ घटने लगते हैं। इससे निवेश निरुत्साहित होने लगता है और देश में रोजगार का स्तर घटने लगता है।

☼ अधि माँग (Excess Demand): अधि माँग तब उत्पन्न होती है जब समग्र माँग पूर्ण रोजगार स्तर पर समग्र पूर्ति से अधिक होती है। Excess demand occurs when AD is greater than AS corresponding to the full employment level] अधि माँग: AD > AS (पूर्ण रोजगार स्तर पर)

☼ स्फीतिक अंतराल (Inflationary Gap) : स्फीतिक अंतराल अधि समग्र माँग (AD – Beyond Full Employment) तथा पूर्ण रोजगार समग्र माँग (AD - at Full Employment) के अंतर के बराबर होता है।

☼ स्फीतिक अंतराल के कारण (Causes of Inflationary Gap): स्फीतिक अंतराल के कारण (ऊपर व्यक्त) विस्फीतिक अंतराल के कारणों के विपरीत हैं। इसका संबंध AD के विभिन्न घटकों में वृद्धि से है, वह वृद्धि जो तब भी जारी रहती है जबकि संसाधनों का पूर्ण उपयोग हो चुका है।

☼ अधि माँग के परिणाम (Consequences of Excess Demand): अधि माँग स्फीति का कारण है (Excess Demand Causes Inflation) क्योंकि अधि माँग समग्र माँग (AD) का वह स्तर है जो पूर्ण रोजगार के स्तर पर समग्र पूर्ति (AS) से बढ़ जाता है, इसलिए यह स्फीति का कारण अवश्य बनता है। पूर्ण रोजगार की अवस्था प्राप्त हो जाने के बाद उत्पादन को और अधिक बढ़ाया नहीं जा सकता। अतएव इस स्तर के बाद समग्र माँग का बढ़ना वर्तमान समग्र पूर्ति पर दबाव बढ़ाता है, इसके फलस्वरूप स्फीति उत्पन्न हो जाती है।

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