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आंकड़ों का संकलन :- आंकड़ों को
विभिन्न स्रोतों एवं विभिन्न तरीकों के प्राप्त करने की प्रक्रिया को आंकड़ों का संकलन
कहते
हैं।
आंकड़ों का संकलन
सांख्यिकीय विश्लेषण का एक महत्वपूर्ण आरंभिक कदम है। आंकड़ों का संकलन पूर्व
निश्चित उद्देश्यों के आधार पर किया जाता है। उद्देश्य के आधार
पर एकत्रित समंक मूलता सांख्यिकीय विश्लेषण के कच्चे पदार्थ
(Raw Material) हैं जिनकी सहायता से सांख्यिकीय विश्लेषण के अगले चरणों का संपादन किया
जाता है।
सांख्यिकीय अनुसंधान :- जब आंकड़ों
के संग्रहण (Collection) से लेकर निर्वचन (Interpretation) तक की
सभी क्रियाएं अपने क्रमानुसार पूर्ण हो जाती है तो यह प्रक्रिया
सांख्यिकीय अनुसंधान कहलाता है।
>
सांख्यिकीय अनुसंधान केवल उन ही
समस्याओं से संबंधित है जिनका संख्यात्मक विवेचना संभव हो।
जैसे आय, व्यय, जनसंख्या, गरीबी, बेरोजगारी
इत्यादि।
>
सांख्यिकीय अनुसंधान केवल उन ही
समस्याओं से संबंधित नहीं होती है जिनका संख्यात्मक विवेचना संभव न हो।
जैसे बुद्धिमता, सुन्दरता, लालच आदि।
आंकड़ा या समंक :- किसी समस्या से संबंधित संख्यात्मक तथ्यों के समूह के विस्तृत रूप को आंकड़ा कहते हैं।
आंकड़ों के दो स्त्रोत है
1. आन्तरिक स्रोत :- जब आंकड़े किसी संगठन के विभिन्न रिपोर्टों, रिकार्डों से
प्राप्त होते हैं तो ऐसे स्रोतों को आन्तरिक स्रोत कहते हैं। उदाहरण के लिए,
यूनियन
बैंक अपनी कुल जमाओ, कर्जों, लाभ, कर्मचारियों आदि
के विषय में प्रतिवर्ष रिपोर्ट प्रकाशित करता है। यह रिपोर्ट यूनियन बैंक के लिए
आंकड़ों का आन्तरिक स्रोत कहलाती है।
2. बाहरी स्रोत :- जब आंकड़े किसी
संगठन अथवा दूसरे स्त्रोतों के
माध्यम
से
प्राप्त
किये
जाते
हैं तो यह आंकड़े का
बाहरी
स्रोत
कहलाता
है।
बाहरी
स्रोत दो प्रकार के है
आंकड़ों के प्रकार
1.प्राथमिक आंकड़े :-
वे
आंकड़े
जिसे अनुसंधानकर्ता सर्वप्रथम स्वयं संबंधित
स्थान से संग्रह करता है एवं उपयोग करता है तो इस प्रकार
के
प्राप्त आंकड़ों को प्राथमिक आंकड़े कहते हैं।
2. द्वितीयक या गौण आंकड़ा :- वे आंकड़े जो किसी दूसरे के द्वारा पहले ही एकत्रित
किए जा चुके हैं, यदि कोई दूसरा विशेषज्ञ इन आंकड़ों का उपयोग करता है तो ये
आंकड़े द्वितीयक आंकड़े कहलाते हैं।
प्राथमिक
तथा द्वितीयक आंकड़ों में अंतर
प्राथमिक आंकड़े |
द्वितीयक या गौण
आंकड़ा |
ये
मौलिक होते
हैं, अनुसंधानकर्ता इनका
स्वयं संकलन
है। |
ये
मौलिक नहीं होते वरन् अन्य
संस्था या
व्यक्ति के
द्वारा संकलित होते हैं। |
प्राथमिक आंकड़े वास्तविक होते हैं
क्योंकि वे
प्रथम दृष्टया सूचनाएं देते
हैं। |
द्वितीयक आंकड़े प्राय:
वास्तविक नहीं होते। |
प्राथमिक आंकड़े अधिक
सही सूचनाएं देते हैं। |
द्वितीयक आंकड़ों की
सूचनाएं प्राय:
पूर्णत: सत्य
नहीं होती। |
ये
समंक कच्चे
माल की
भांति होते
हैं। |
ये
समंक निर्मित माल की
भांति होते
हैं। |
ये
उद्देश्य के
अनुकूल होते
हैं। इसमें संशोधन की आवश्यकता नहीं होती |
ये
किसी अन्य
उद्देश्य से
संकलित किये
जाते हैं। इनमें संशोधन एवं
समायोजन की
अधिक आवश्यकता होती है। |
इनके
में धन,
समय,परिश्रम,योजना और
बुद्धि का
प्रयोग होता
है। |
इनको
केवल अन्य
स्थानों से
उद्धत करना
होता है।धन,समय
और परिश्रम का विशेष
उपयोग नहीं होता। |
इनके
प्रयोग में
सतर्कता की
आवश्यकता नही
होती है। |
इनके
प्रयोग में
अत्यन्त सतर्कता की आवश्यकता होती है। |
प्राथमिक आंकड़ों का संकलन विधियां
(A)
प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान द्वारा
(B)
अप्रत्यक्ष
मौखिक जांच द्वारा
(C)
स्थानीय
व्यक्तियों या नियुक्त संवाददाता द्वारा
(D)
प्रश्नावली
व अनुसूची के माध्यम से
सूचनाएं
संग्रह करना
(a)
डाक पत्र द्वारा
(b) गणक या अनुसूचियां विधि
(A) प्रथम व्यक्तिगत अनुसंधान द्वारा :- यह
वह विधि है जिसमें एक अनुसंधानकर्ता स्वयं अनुसंधान क्षेत्र में जाकर सूचना
देने वालों से प्रत्यय तथा सीधा संपर्क स्थापित करता है और आंकड़े एकत्र करता है।
उपयुक्तता:-
1.
उस क्षेत्र के लिए यह उपयुक्त है जहां क्षेत्र छोटा हो।
2.
जहां आंकड़ों की मौलिकता अधिक जरूरी हो।
3.
जहां आंकड़ों की शुद्धता अधिक महत्वपूर्ण हो।
4.
जहां आंकड़ों को गोपनीय रखना हो।
5.
जहां
अनुसंधान में गहन अध्ययन की आवश्यकता हो।
6.
जहां
सूचना देने वाले से संपर्क करना आवश्यक हो।
गुण :-
1.
इससे प्राप्त आंकड़ों में परिशुद्धता अधिक पाई जाती है।
2.
एक
ही व्यक्ति द्वारा आंकड़े लिए जाने के कारण आंकड़ों में एकरूपता पाई जाती है।
3.
इस विधि द्वारा एकत्रित आंकड़ों में मौलिकता पाई जाती है।
4.
ये
आंकड़े अधिक विश्वसनीय होते हैं।
5.
यह
विधि लोचदार होता है, जरूरत के अनुसार अनुसंधानकर्ता प्रश्नों को घटा या
बढ़ा सकता है।
अवगुण :-
1.
यह विधि बड़े क्षेत्र के लिए
अनुपयुक्त
है।
2.
इसमें व्यक्तिगत पक्षपात होने का डर बना होता है।
3.
विस्तृत क्षेत्र होने पर इस विधि से अच्छे परिणाम नहीं आते हैं।
4.
श्रम
शक्ति और अधिक धन का प्रयोग होता है।
5.
इस विधि में समय अधिक लगता है।
(B) अप्रत्यक्ष मौखिक जांच द्वारा :- यह वह विधि
है जिसमें किसी समस्या से संबंध रखने वाले व्यक्तियों से अप्रत्यक्ष रूप से कुछ तैयार
प्रश्नों के द्वारा पूछताछ कर आंकड़े प्राप्त किये जाते
हैं।
बड़े एवं विस्तृत क्षेत्र के लिए यह विधि
उपयुक्त है।
उपयुक्तता :-
1.
जहां अनुसंधान संबंधी क्षेत्र बड़ा एवं विस्तृत हो।
2.
जहां सूचना देने वालों से प्रत्यक्ष संपर्क संभव न
हो।
3.
जहां सूचना देने वालों में अज्ञानता की संभावना हो।
4.
जहां प्रत्येक व्यक्ति से प्रश्न पूछकर आंकड़े संग्रह करना संभव नहीं हो।
गुण :-
1.
यह रीति मितव्ययी है। इसमें
धन एवं परिश्रम कम लगता है।
2.
यह रीति उस अनुसंधान के लिए अधिक उपयुक्त है जिसका क्षेत्र विस्तृत है।
3.
इस रीति से विशेषज्ञों की राय एवं उनके सुझाव प्राप्त किये जा
सकते हैं।
4.
जहां सूचकों से प्रत्यक्ष
या व्यक्तिगत संपर्क होना संभव न हो, वहां यह रीति
उपयुक्त रहती है।
5.
इस रीति से कोई निष्कर्ष शीघ्र निकाला जा
सकता है।
6.
इस रीति
में अनुसंधानकर्ता एवं साक्षियों के पक्षपात की संभावना नहीं
रहती है।
अवगुण :-
1.
इस
विधि के अंतर्गत समंक अप्रत्यक्ष रूप से संकलित किए जाते हैं।
इसलिए उनके अशुद्ध होने की संभावना रहती है।
2.
जिन
साक्षियों से समंक प्राप्त किये
जाते हैं, उनकी अज्ञानता, लापरवाही तथा
पक्षपात के कारण परिणाम अशुद्ध होने की संभावना रहती है।
3.
जिन व्यक्तियों की सहायता से समंक एकत्र किये
जाते हैं, उनकी पक्षपात की भावना का प्रभाव अनुसंधान पर पड़ता है।
अतः समंक दूषित हो जाते हैं।
4.
इस
रीति
में
कभी-कभी
समंको में एकरूपता का अभाव रहता है क्योंकि
विभिन्न साक्षियों द्वारा सूचनाएं अलग-अलग ढंग से दी जाती है।
प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान - अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान में अन्तर
प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान |
अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान |
इसमें विषय से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखने वालों से सूचना प्राप्त की जाती है। अनुसन्धानकर्ता स्वयं अनुसंधान के क्षेत्र में जाकर पूछताछ करता है। |
इसमें समस्या से अप्रत्यक्ष सम्बन्ध रखने वाले साक्षियों से जानकारी प्राप्त की जाती है।इस रीति में अनुसन्धान कार्य अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। |
यह रीति सीमित क्षेत्र के लिए अधिक उपयुक्त है। |
इस रीति
को विस्तृत क्षेत्र के लिए उपयुक्त माना जाता है। |
इस रीति में समय, परिश्रम व धन अधिक लगता है। |
इस रीति में समय, परिश्रम व धन कम लगता है। |
उपयुक्तता :-
1.
सूचना शीघ्रता से प्राप्त हो
जाती
हो।
2.
आंकड़े एकत्रित करने का क्षेत्र
व्यापक
हो।
3.
जहां अधिक शुद्धता की आवश्यकता नहीं होती।
गुण :-
1.
जब अनुसंधान का क्षेत्र विस्तृत होता है तो इस विधि के द्वारा दूर-दूर के स्थानों से
लगातार सूचना प्राप्त की जा सकती है।
2.
इस रीति में समय धन और परिश्रम की भी बचत होती है सूचना जल्दी से जल्दी और कम खर्च
पर ही प्राप्त हो जाती है।
अगुण :-
1.
इस रीति के द्वारा संकलित समंक मौलिक नहीं होते।
2.
इस रीति के द्वारा संकलित समंको में शुद्धता एवं विश्वसनीयता
की
कमी
रहती
है
क्योंकि
आंकड़े
अनुमान
के
आधार
पर भेजे जाते हैं।
3.
इसमें एकरुपता एवं सजातीयता की कमी रहती है।कारण यह है कि विभिन्न संवाददाता अलग- अलग
दृष्टिकोण
एवं
रीतियों
से
आंकड़े
एकत्रित
करते
हैं।
4.
संवाददाताओ की मनोवृत्तियां और
पूर्व-धारणाएं
समंको
को
प्रभावित
करती
है, जिससे
निष्कर्ष
पक्षपातपूर्ण
तथा
एकांगी
हो
जाते
हैं।
(D) प्रश्नावली व अनुसूची के माध्यम से सूचनाएं संग्रह करना :-
इस विधि में अनुसंधानकर्ता प्रश्नावली तैयार करता है और उन्हीं प्रश्नों के माध्यम
से सूचनाएं एकत्रित करता है ।
एक अच्छी प्रश्नावली के गुण :-
1.
प्रश्न
शुद्ध, सरल एवं स्पष्ट हो।
2.
प्रश्नों
की संख्या कम हो।
3.
प्रश्न अनुसंधान से संबंधित होने चाहिए।
4.
प्रश्नावली में सूचकों को
गणना
करना
पड़े ऐसे प्रश्न नहीं होने चाहिए।
5.
प्रश्न उचित क्रम में होने चाहिए।
6.
प्रश्नावली में ऐसे भी प्रश्न होने चाहिए जिससे
पूछे गए प्रश्नों की सत्यता की जांच हो सके।
इस
प्रश्नावली
के
आधार
पर
दो प्रकार
से सूचना
एकत्रित
की
जाती है।
(a) डाक पत्र द्वारा :- इस विधि
में तैयार प्रश्नावली कुछ सूचना देने वाले व्यक्तियों के पास भेज दी जाती है,
जब यह सूचना अनुसंधानकर्ता के पास पहुंचता है तो उसकी इन सूचनाओं को गुप्त रखा जाता
है।
उपयुक्तता :-
1.
जब अनुसंधान का क्षेत्र काफी विस्तृत हो।
2.
जब
सूचना देने वाला व्यक्ति शिक्षित हो।
गुण :-
1.
इस विधि में समय और धन की बचत होती है।
2.
ये
आंकड़े मौलिक एवं विश्वसनीय होते हैं।
3.
इस विधि द्वारा बड़े क्षेत्र से भी आंकड़े संग्रह किये जा
सकते हैं।
अवगुण :-
1.
इस विधि द्वारा प्राप्त सूचनाओं में सूचना भरते समय की बहुत सी त्रुटियां
रह जाती है।
2.
इस विधि में उदासीनता के कारण कई व्यक्ति फार्म भरकर वापस नहीं भेज पाते हैं।
3.
इस विधि में लोचशीलता का अभाव होता है।
4.
पक्षपात
होने की संभावना रहती है।
(b) गणक या अनुसूचियां विधि :- अनुसंधान के उद्देश्य की पूर्ति को ध्यान में रखकर
पहले प्रश्नावली तैयार की जाती है, फिर गणक (अनुसंधानकर्ता
का
सहायक)
उसे
लेकर सूचना देने वाले व्यक्ति के पास जाते
हैं।
वे सूचकों से प्रश्न पूछ कर स्वयं भरते हैं।
उपर्युक्तता :-
1.
जहां गणक सूचकों के भाषा, रीति- रिवाज से परिचित हो और निपुण हो।
2.
जिनका क्षेत्र विस्तृत हो
गुण :-
1.
इस
विधि द्वारा निरक्षर व्यक्तियों
से भी सूचना प्राप्त की जा सकती है।
2.
इस विधि द्वारा प्राप्त सूचनाओं में शुद्धता पाई जाती है।
3.
इस विधि में व्यक्तिगत पक्षपात का डर कम होता है, क्योंकि कुछ गणक
पक्ष में या कुछ विपक्ष में होते हैं।
4.
इस विधि में सूचनाएं पूर्ण होती है, क्योंकि गणक स्वयं सूचनाएं
इकट्ठा करता है।
अवगुण :-
1.यह
काफी खर्चीली होती है, क्योंकि इसमें प्रशिक्षित गणक प्रयोग
में लाये जाते हैं।
2.यह
अधिक समय लेता है।
3.यदि
उचित संख्या में गणक उपलब्ध नहीं
हो तो अनुसंधान पूर्ण नहीं हो सकता है।
4.
पक्षपात पूर्ण गणकों की सूचनाओं
में शुद्धता नहीं रहती है।
2. द्वितीयक या गौण आंकड़ा :- इस
प्रकार
के
आंकड़ों
का दो प्रकार से
संकलन किया जाता है।
(A) प्रकाशित स्रोत से :-
1.
सरकारी स्रोत
2.
अंतर्राष्ट्रीय
प्रकाशन
3.
पत्र
- पत्रिकाएं
4.
व्यक्तिगत
अनुसंधानकर्ताओं के प्रकाशन से
5.
अनुसंधान संस्थाओं के प्रकाशन से
6.
आयोग
एवं समितियों के रिपोर्टों से
7.
व्यापारिक संघों के प्रकाशन से
(B) अप्रकाशित स्रोत से :-
आंकड़ों के वे सभी स्रोत जो किसी अन्य अनुसंधानकर्ता
द्वारा संकलित किए गए हैं, और जिन्हें प्रकाशित नहीं किया गया है अप्रकाशित स्रोत के
आंकड़े कहलाते हैं।
ये आंकड़े सरकार,
विश्वविद्यालय ,निजी संस्थाएं तथा व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ता आदि से प्राप्त किए जा सकते
हैं जो विभिन्न उद्देश्यों के लिए आंकड़े संकलित करते रहते हैं।
ये वे आंकड़े होते
हैं जिन्हें प्रकाशित नहीं कराया जाता।
अप्रकाशित स्त्रोत से प्राप्त आंकड़ों की विशेषताएं:-
1.
ये कम खर्चीले होते हैं, इनसे
समय और धन की बचत होती है।
2.
ये
वर्तमान उद्देश्यों की पूर्णत: पूर्ति नहीं करती है।
3.
इसमें कम शुद्धता पाई जाती है।
द्वितीयक समंक के कुछ प्रमुख स्त्रोत -जनगणना एवं एन. एस. एस. ओ.
राष्ट्रीय प्रतिदर्श या नमूना सर्वेक्षण संगठन (National Sample
Survey Organisation) :- राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (NNS) की स्थापना वर्ष
1950 में हुई जो राष्ट्रीय स्तर पर बड़े आकार के लगातार कई दौरों (Rounds)
में
सर्वेक्षण करता था। इसकी स्थापना प्रो.पी.सी. महालानोबीस के
प्रस्ताव पर सामाजिक - आर्थिक योजना तथा नीति निर्धारण में आवश्यक
आंकड़ों की कमी को प्रतिदर्श सर्वेक्षण द्वारा पूरा करने के लिए की गई थी।
मार्च
1970 में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण का पुनर्गठन
किया गया और इसके कार्यों को एक सरकारी संगठन के अंतर्गत लाया गया जिसे राष्ट्रीय प्रतिदर्श
सर्वेक्षण संगठन (NSSO) का नाम दिया गया।
इस नये संगठन NSSO को एक संचालन समिति के निर्देशन
में आंकड़ों का संकलन, संसाधन एवं प्रकाशन
का कार्य स्वतंत्र रूप से करने का दायित्व सौंपा गया।
NSSO की संरचना :- कार्य संचालन
की
दृष्टि
से
NSSO के चार प्रमुख विभाग है तथा प्रत्येक विभाग एक निदेशक के अधीन कार्य करता है।
ये
विभाग निम्नलिखित है :
(A) सर्वेक्षण, अभिकल एवं शोध प्रयाग :- इस
प्रभाग (Division) का मुख्य कार्यालय कोलकाता में है।
इस
प्रभाग
के प्रमुख कार्य निम्नलिखित है-
1.
सर्वेक्षण
की योजना तैयार करना।
2.
प्रतिदर्श
अभिकल्प का निर्माण करना।
3.
सर्वेक्षण अनुसूचियां तैयार करना।
4.
सर्वेक्षण कर्मचारियों के लिए निर्देश तैयार करना।
5.
सर्वेक्षण
परिणाम को अंतिम रूप देना तथा उसे प्रकाशित करना।
(B) क्षेत्र- संकार्य प्रभाग :-
इस प्रभाग का मुख्य कार्यालय नई दिल्ली में है तथा इसका कृषि प्रभाग
फरीदाबाद में है। इसके छ:
जोनल कार्यालय ( जो बंगलुरु,कोलकाता, गुवाहाटी, जयपुर, लखनऊ एवं
नागपुर में स्थित है), 48 क्षेत्रीय कार्यालय एवं 117 उप- क्षेत्रीय कार्यालय कार्यरत
है।
इस प्रभाग के
प्रमुख कार्य निम्नलिखित है :
1.
सामाजिक,
आर्थिक, औद्योगिक तथा कृषि इन क्षेत्रों में प्रतिदर्श सर्वेक्षण का
आयोजन करना।
2.
ग्रामीण एवं नगरीय खण्डों से तर्कसंगत प्रतिदर्श
प्राप्त करने के लिए ग्रामीण ढांचों को प्रतिदशक
जनगणना के साथ नवीनतम करना।
3.
सर्वेक्षण कार्य में लगे कर्मचारियों को प्रशिक्षण देना तथा सर्वेक्षण अनुसूचियों की
जांच करना।
(C) समंक विधायन प्रभाग :- प्रभाग
का मुख्यालय कोलकाता में है। इसके समंक
विधायन
केंद्र दिल्ली, गिरिडीह, नागपुर, बंगलुरु तथा
अहमदाबाद में है।
इस
प्रभाग
द्वारा अनुसूचियों का विधियन किया जाता
है जिसमें अनुसूचियों की जांच, पत्रको पर सूचना
छिद्रांकित
करना, सारणीयन करना, सारणीकृत परिणामों की जांच करना तथा अंतिम रूप में सारणीयों
का निर्माण करना सम्मिलित है।
(D) समन्वय एवं प्रकाशन प्रभाग :- यह प्रभाग
नई दिल्ली में स्थित है। इसके प्रमुख
कार्य इस प्रकार है -
1.
NSSO के सभी प्रभागों की गतिविधियों में समन्वय करना।
2.
प्रशासकीय परिषद को तकनीकी एवं प्रशासनिक मदद देना।
3.
शोधा संस्थाओं, शोधार्थियों, सरकारी संस्थाओं तथा
प्राइवेट संस्थाओं को सर्वेक्षण के विभिन्न चक्रों के आंकड़े उपलब्ध कराना।
4.
संस्था द्वारा प्रकाशित जनरल सर्वेक्षण के
माध्यम से विभिन्न सर्वेक्षणों के परिणामों को
प्रसारित
करना।
राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के कार्य :-
1.सामाजिक - आर्थिक सर्वेक्षण का आयोजन करना :- इस संगठन का पहला प्रमुख कार्य
एकीकृत बहुउद्देशीय सर्वेक्षण द्वारा दो या अधिक विषयों पर एक साथ
सूचना एकत्रित करना है। तीन
विषयों के सर्वेक्षण चक्र की अवधि 10 वर्ष होती है। ये
विषय है :
1.
जनांकिकी,
स्वास्थ्य
व परिवार कल्याण
2.
परिसंपत्तियों,
ऋण
और पूंजी- निवेश और
3.
भूमि-जोत व पशुधन उपक्रम में से प्रत्येक पर 10 वर्षों
में एक बार सर्वेक्षण किया जाता है।
इसके अतिरिक्त रोजगार, ग्रामीण श्रम,
उपभोक्ता व्यय, गैर- कृषि उपक्रमों में
स्वरोजगार पर किये गये सर्वेक्षणों
की अंतराल अवधि 5 वर्ष होती है।
2. औद्योगिक समकों का संग्रहण :- NSSO संगठित
औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक समंको का संकलन करके
उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करता है।
3. फसल पूर्वानुमान सर्वेक्षण :- NSSO राज्य सरकारों को
फसल प्राक्कलन से सम्बन्धित
तकनीकी
दिशा-निर्देश प्रदान करता है। यह
फसल प्राक्कलन सर्वेक्षण कृषि
मंत्रालय के फसल प्राक्कलन सर्वेक्षण से
अलग है। फसल समंको में
सुधार के लिए NSSO राज्य तथा क्षेत्रों
के साथ सहयोग करता है।
4. मूल्य संग्रहण :- NSSO द्वारा दो प्रकार के मूल्यों
का संकलन किया जाता है - (1) कृषि/ ग्रामीण - श्रम के
लिये
सूचकांकों
की
संशोधित
श्रेणियों
की
रचना
हेतु
मूल्यों
का
संकलन
(2) शहरी गैर- श्रमिक कर्मचारियों
के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की रचना हेतु मूल्य संकलन करना।
भारत की जनगणना (Census of India) :-
संयुक्त
राष्ट्र संघ के अनुसार," जनगणना
का
अभिप्राय
एक निश्चित प्रदेश में एक निश्चित
समय
में रहने वाले व्यक्तियों के संबंध में जनांकिकी, आर्थिक
एवं
सामाजिक
तथ्यों का संकलन, सम्पादन
एवं प्रकाशन करने की संपूर्ण प्रक्रिया है।"
जनगणना की प्रमुख विशेषताएं :-
1. व्यापकता :- देश में रहने वाले सभी नागरिकों को जनगणना में शामिल
किया जाता है।
2. नियमितता :- एक निश्चित समयान्तराल
पर
जनगणना की जाती है। भारत में प्रत्येक
दस
वर्ष
में
जनगणना
की जाती है।
3. निश्चित क्षेत्र :- जनगणना एक
स्पष्ट रूप से परिभाषित क्षेत्र से संबंध होती है।
4. एक साथ :- सारे राष्ट्र में एक साथ जनगणना की
जाती है, वह भी उस समय जबकि देश में आवागमन न्यूनतम होता है।
5. वैयक्तिक सूचना :- जनगणना के वक्त प्रत्येक
व्यक्ति के बारे में व्यक्तिगत सूचना एकत्र की जाती है।
6. प्रकाशन व प्रसारण :- जनगणना समंको का प्रकाशन व प्रसारण किया जाता है।
7. राज्य द्वारा किया जाना :- जनगणना के लिए विस्तृत
संगठन एवं पर्याप्त साधनों की आवश्यकता होती है। अतः
उसे केवल राष्ट्रीय सरकार द्वारा राज्य एवं स्थानीय निकायों के सहयोग से किया जाता
है।
भारत में जनगणना : सम्मिलित पैरामीटर :-
जनगणना आंकड़े
द्वितीयक आंकड़ों के वर्ग में अत्यंत महत्वपूर्ण आंकड़े हैं जो भारत के रजिस्ट्रार
जनरल एवं जनगणना आयुक्त द्वारा प्रकाशित किये जाते हैं।
जनगणना आंकड़ों की
प्रकृति विस्तृत होती है जिनमें जनसंख्या संबंधी अनेक पैरामीटरों को सम्मिलित किया
जाता है। जनगणना के आंकड़ों में सम्मिलित मुख्य पैरामीटर है :
(1) भारत में जनसंख्या का आकार, वृद्धि दर एवं वितरण (2) जनसंख्या प्रक्षेपण (3) जनसंख्या घनत्व (4) जनसंख्या की लिंग संरचना (5) साक्षरता दशा
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. प्राथमिक समंक हैं
(अ) मौलिक समंक
(ब) पहली बार एकत्रित किये जाने वाले समंक
(स) पहले से अस्तित्व में न होने वाले समंक बाल समक
(द) ये सभी
प्रश्न 2. द्वितीयक समंक संकलित किये जाते हैं
(अ) अनुसूची भराकर
(ब) प्रश्नावली भराकर
(स) प्रकाशित एवं अप्रकाशित स्रोतों द्वारा
(द) ये सभी
प्रश्न 3. सांख्यिकी का आरम्भ कहाँ से होता है
अ) संगणना से
(ब) प्रतिदर्श से
(स) आँकड़ों के संकलन से
(द) सभी से
प्रश्न 4. समग्र में से प्रतिचयन (Sample) चुनने की कौन सी विधि सर्वोत्तम विधि है
(अ) सविचार प्रतिचयन
(ब) दैव प्रतिचयन
(स) मिश्रित प्रतिचयन
(द) अभ्यंश प्रतिचयन
प्रश्न 5. जिन समंकों को अनुसन्धानकर्ता नये सिरे से पहली बार संकलित करता है उन्हें कहते हैं
(अ) प्राथमिक समंक
(ब) द्वितीयक समंक
(स) मिश्रित समंक
(द) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 6. जब अनुसन्धानकर्ता द्वारा समग्र में से कुछ इकाइयों का चयन अपनी इच्छानुसार जान-बूझकर किया जाता है, उसे कहते हैं
(अ) दैव प्रतिचयन
(ब) सविचार प्रतिचयन
(स) मिश्रित प्रतिचयन
(द) स्तरित प्रतिचयन
प्रश्न 7. अच्छी प्रश्नावली के गुण हैं
(अ) स्पष्ट एवं छोटे प्रश्न
(ब) सही क्रम
(स) प्रश्नों की सीमित संख्या
(द) ये सभी
प्रश्न 8. प्राथमिक समंक संकलित किये जाते हैं
(अ) जब उच्च परिशुद्धता की आवश्यकता हो
(ब) जब अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत हो
(स) जब क्रय खर्चा करना हो
(द) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 9. द्वितीयक समंकों को प्रयोग करने से पहले निश्चय कर लेना चाहिए
(अ) क्या आँकड़े विश्वसनीय हैं
(ब) क्या आँकड़े अपने उद्देश्य के अनुरूप हैं।
(स) क्या आँकड़े पर्याप्त है।
(द) ये सभी
प्रश्न 10. सांख्यिकी अनुसन्धान की रीतियाँ है
(अ) दो।
(ब) चार
(स) तीन
(द) एक
प्रश्न 11. जब समग्र में से कुछ प्रतिनिधि इकाइयों का चयन किया जाता है, वह रीति है
(अ) संगणना रीति
(ब) प्रतिदर्श रीति
(स) स्तरित रीति
(द) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 12. समितियों एवं आयोग की रिपोर्ट है
(अ) प्रकाशित स्रोत
(ब) अप्रकाशित स्रोत
(स) दोनों
(द) इनमें से कोई नहीं
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. संकलन के दृष्टिकोण से समंक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर: संकलन के दृष्टिकोण से समंक दो प्रकार के होते हैं : a. प्राथमिक समंक, b. द्वितीयक समंक।
प्रश्न 2. प्राथमिक समंक क्या है?
उत्तर : अनुसन्धानकर्ता द्वारा नवनिर्मित योजना के अन्तर्गत अपने अनुसन्धान के उद्देश्य से जो सर्मक स्वयं पहली बार संकलित किये जाते हैं, उन्हें प्राथमिक समंक कहते हैं।
प्रश्न 3. द्वितीयक समंक क्या है?
उत्तर: किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता द्वारा संकलित समंकों का जब अपने उद्देश्य के लिए कोई दूसरा व्यक्ति प्रयोग करता है, तो ये द्वितीयक समंक कहे जाते हैं।
प्रश्न 4. प्राथमिक समंक मौलिक समंक क्यों कहे जाते हैं?
उत्तर: प्राथमिक समंक मौलिक समंक होते हैं क्योंकि अनुसन्धानकर्ता द्वारा पहली बार आरम्भ से अन्त तक बिल्कुल नये सिरे से एकत्रित किये जाते हैं।
प्रश्न 5. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान क्या है?
उत्तर: ऐसे अनुसन्धान जिनका क्षेत्र सीमित या स्थानीय प्रकृति का हो। इसमें स्वयं अनुसन्धानकर्ता स्वयं अनुसन्धान वाले क्षेत्र में जाकर सूचना देने वाले व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करता है।
प्रश्न 6. प्रश्नावली का अर्थ लिखिए?
उत्तर: प्रश्नावली प्रश्नों की वह सूची है जिसे सूचको द्वारा भरा जाता है।
प्रश्न 7. दैव प्रतिदर्श क्या है?
उत्तर: “दैव प्रतिदर्श’ समग्र में से प्रतिदर्श चुनने की वह विधि है, जिसमें समग्र की प्रत्येक इकाई के चुने जाने के समान अवसर होते हैं।
प्रश्न 8. समग्र को परिभाषित कीजिये?
उत्तर: अनुसन्धान क्षेत्र की सभी इकाइयों का सामूहिक रूप समग्र कहलाता है।
प्रश्न 9. प्रतिदर्श को परिभाषित कीजिये?
उत्तर: किसी समग्र का प्रतिनिधित्व करने वाली कुछ इकाइयों के समूह को प्रतिदर्श कहते हैं।
प्रश्न 10. प्राथमिक समंकों को एकत्रित करने की दो विधियों के नाम बताइए?
उत्तर: a. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान विधि, b. अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान विधि।
प्रश्न 11. अनुसूची से क्या आशय है?
उत्तर: अनुसूची प्रश्नों की वह सूची है जो प्रशिक्षित द्वारा प्रगणकों सूचको से पूछताछ करके भरी जाती है।
प्रश्न 12. सांख्यिकी समंकों की मूलभूत प्रक्रिया क्या है?
उत्तर: समंकों को एकत्रित करना।
प्रश्न 13. सांख्यिकी विज्ञान की आधारशिला क्या है?
उत्तर: समंक
प्रश्न 14. प्राथमिक एवं द्वितीयक समंक में कोई एक अन्तर लिखो?
उत्तर: प्राथमिक, समंक मौलिक एवं सांख्यिकी विधियों के लिए कच्चे माल की भाँति होते हैं जबकि द्वितीयक समंक सांख्यिकी क्षेत्र में से एक बार गुजर चुके होते हैं तथा निर्मित मान की भाँति होते हैं।
प्रश्न 15. प्राथमिक समंकों के संकलन की कितनी रीतियाँ है?
उत्तर: 5 रीतियाँ है।
प्रश्न 16. आर्थर यंग ने कृषि उत्पादन के अध्ययन में किस रीति का प्रयोग किया?
उत्तर: प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान रीति
प्रश्न 17. सूचको द्वारा प्रश्नावली भरवाकर सूचना प्राप्ति रीति किसे क्षेत्र के लिए उपयुक्त है?
उत्तर: अनुसन्धान के व्यापक क्षेत्र के लिए।
प्रश्न 18. पारिवारिक बजट, सूचना, मत सर्वेक्षण, बेरोजगारी से सम्बन्धित आँकड़ो का संकलन किस रीति से किया जाता है।
उत्तर: सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरवाकर सूचना प्राप्ति रीति का प्रयोग किया जाता है।
प्रश्न 19. सर्वेक्षण के लिए समंक एकत्रित करने के लिए किसका प्रयोग किया जाता है?
उत्तर: अनुसूचियों और प्रश्नावलियों का
प्रश्न 20. प्रश्नावली को किसके द्वारा भरा जाता है?
उत्तर: सूचना देने वाले द्वारा ही भरा जाता है।
प्रश्न 21. अनुसूची को किसके द्वारा भरा जाता है?
उत्तर: प्रगणको द्वारा पूछताछ कर
प्रश्न 22. द्वितीयक समंकों के कितने स्रोत है।
उत्तर: दो
प्रश्न 23. द्वितीयक समंकों के दो स्रोतों के नाम बताओ?
उत्तर: a. प्रकाशित स्रोत , b. अप्रकाशित स्रोत
प्रश्न 24. अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का प्रकाशन द्वितीयक समंक का कैसा स्रोत है?
उत्तर: प्रकाशित स्रोत है।
प्रश्न 25. सांख्यिकी अनुसन्धान की कितनी रीतियाँ
उत्तर: दो।
प्रश्न 26. संगणना अनुसन्धान किसे कहते हैं?
उत्तर: जब अनुसन्धानकर्ता द्वारा समग्र की सभी इकाइयों का अध्ययन किया जाता है तो इसे संगणना अनुसन्धान कहते हैं।
प्रश्न 27. संगणना और प्रतिदर्श विधि में से कौन सी विधि में अधिक खर्च होता है?
उत्तर: संगणना विधि में प्रतिदर्श विधि से अधिक खर्च होता है।
प्रश्न 28. प्रतिदर्श चयन की कितनी रीतियाँ है?
उत्तर: तीन
प्रश्न 29. प्रतिदर्श चयन की रीतियों के नाम लिखो?
उत्तर: a. सविचार प्रतिदर्श, b. दैव प्रतिदर्श, c. स्तरित प्रतिदर्श।
प्रश्न 30. समंकों को एकत्रित करने का कार्य कब प्रारम्भ किया जाता है?
उत्तर: सांख्यिकीय अनुसन्धान की योजना बनाने के बाद उपयुक्त रीति का चुनाव कर समंकों को एकत्रित करने का कार्य प्रारम्भ किया जाता है।
प्रश्न 31. खेलने की आदत के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए विद्यार्थीयों से खेल के मैदान में जाकर आँकड़े संग्रहित करना कौन से आँकड़े कहलाएंगे।
उत्तर: खेलने की आदत के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों से खेल के मैदान में जाकर मौलिक रूप से आँकड़े संग्रहित करना प्राथमिक समंक कहलाएगा।
प्रश्न 32. यदि अनुसन्धानकर्ता सरकार द्वारा कृषि, श्रम, रोजगार के अन्तर्गत संकलित एवं प्रकाशित समंकों को उपयोग करता है तो वे समंक क्या कहलाते हैं।
उत्तर: यदि अनुसन्धानकर्ता सरकार द्वारा कृषि, श्रम, रोजगार के अन्तर्गत संकलित एवं प्रकाशित समंकों का उपयोग करता है तो वे समंक द्वितीयक समंक कहलाते हैं।
प्रश्न 33. प्राथमिक समंकों के संकलन की कोई चार रीतियाँ लिखिए?
उत्तर: a. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान, b. अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान, c. संवाददाताओं से सूचना प्राप्ति, d. संगणकों द्वारा सूचना प्राप्ति।
प्रश्न 34. प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरना रीति के दो उदाहरण दीजिये।
उत्तर: a. जनगणना, b. आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण
प्रश्न 35. एक अच्छी प्रश्नावली के दो गुण लिखिए।
उत्तर: a. प्रश्न सरल व आसानी से समझ में आने वाले होने चाहिए।, b. सही उत्तर दिये जा सकने वाले प्रश्न हो। ये बहुविकल्प वाले या सामान्य विकल्प वाले प्रश्न भी हो सकते
प्रश्न 36. प्रश्नावली तथा अनुसूची में कोई दो। अन्तर लिखिए?
उत्तर: a. प्रश्नावली सूचक भरता है जबकि अनुसूची को प्रगणक सूचना देने वाले से पूछताछ कर भरता है।, b. प्रश्नावली मितव्ययी प्रणाली है। अनुसूची अधिक खर्चीली प्रणाली है।
प्रश्न 37. द्वितीयक समंकों के प्रयोग में कौन-सी सावधानियाँ रखनी चाहिए? कोई दो बताओ।
उत्तर:
a. आँकड़े संग्रहण की जो रीति अपनायी है। वह समंकों के वर्तमान प्रयोग के लिए कहाँ तक उपयोगी है। यह जान लेना आवश्यक है।
b. यदि एक ही विषय पर अनेको स्रोतों से द्वितीयक समंक प्राप्त होते हैं तो इनकी सत्यता की जाँच करने के लिए। उनकी तुलना कर लेनी चाहिए।
प्रश्न 38. संगणना अनुसन्धान विधि के दो गुण बताइए?
उत्तर:
a. इस विधि द्वारा विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती है।
b. इस विधि द्वारा संकलित समंकों में उच्च स्तर की शुद्धता रहती है।
प्रश्न 39. दैव प्रतिचयन रीति के दो गुण बताइए।
उत्तर: a. यह सरल विधि है, b. यह कम खर्चीली
प्रश्न 40. सविचार प्रतिदर्श रीति की परिभाषा दीजिये?
उत्तर: जब अनुसन्धानकर्ता अपनी बुद्धि एवं अनुभव के आधार पर पूर्ण विचार करके प्रतिदर्श का चयन करता है। करें तो इसे सविचार प्रतिदर्श रीति कहते हैं।
प्रश्न 41. लॉटरी रीति क्या है?
उत्तर: इस रीति में समग्र की समस्त इकाइयों की पर्चियाँ या गोलियाँ बनाकर किसी निष्पक्ष व्यक्ति से एक-एक पर्चियाँ उठवा ली जाती हैं।
प्रश्न 42. स्तरित प्रतिदर्श रीति क्या है?
उत्तर: यह रीति सविचार एवं दैव प्रतिचयन का मिश्रित स्वरूप है। इस रीति में सबसे पहले समंकों को सविचार प्रतिदर्श द्वारा अनेक भागों में बाँट लिया जाता है। इसके बाद प्रत्येक भार से दैव प्रतिचयन रीति से कुछ इकाइयों का चयन किया जाता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. प्रकाशित एवं अप्रकाशित स्रोतों में क्या अन्तर है?
उत्तर: प्रकाशित स्रोत : अनेक अनुसन्धानकर्ता संस्थाएँ, शोध संस्थाएँ, निगमें विभिन्न विषयों पर मौलिक समंक एकत्रित करके उन्हें समय-समय पर प्रकाशित करवाते हैं। जैसे-सरकारी प्रकाशन, समितियों एवं आयोग की रिपोर्ट। अप्रकाशित स्रोत: कभी-कभी सरकारी या अन्य संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा महत्त्वपूर्ण विषयों पर सामग्री संग्रह तो कर ली जाती है परन्तु अप्रकाशित रह जाती है। ऐसी अप्रकाशित सामग्री कार्यालय की पत्रावलियों, रजिस्टरों या अनुसन्धानकर्ता की डायरी आदि से प्राप्त की जा सकती है।
प्रश्न 2. प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों में कोई तीन अन्तर लिखिए।
उत्तर: प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों में निम्नलिखित अन्तर हैं :
a. प्रकृति : प्राथमिक समंक मौलिक एवं सांख्यिकी विधियों के लिए कच्चे माल की भाँति होते हैं जबकि द्वितीयक समंक सांख्यिकी क्षेत्र में से एक बार गुजर चुके होते हैं तथा निर्मित माल की भाँति होते हैं।
b. संग्रहकर्ता : प्राथमिक संग्रह अनुसन्धानकर्ता या उसके प्रतिनिधि द्वारा संकलित किये जाते हैं जबकि द्वितीयक समंक अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा पूर्व में संकलित एवं प्रकाशित होते हैं।
c. योजना : प्राथमिक समंक नये सिरे से स्वतः योजना बनाकर एकत्र किये जाते हैं जबकि द्वितीयक समंक पहले से उपलब्ध समंक होते हैं अर्थात् किसी प्रकाशन या अभिलेखों में उपलब्ध समंक द्वितीयक समंक है।
प्रश्न 3. प्राथमिक समंक को अर्थ उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर: प्राथमिक समंकों से आशय उन समंकों से लगाया जाता है जिन्हें अनुसन्धानकर्ता पहली बार बिल्कुल नये सिरे से एकत्रित करता है। इसके संकलन की सम्पूर्ण योजना नवनिर्मित्त होती है, यह मौलिक अनुसन्धान होता है। खेलने की आदत के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों से खेल के मैदान में जाकर मौलिक रूप से आँकड़े संग्रहित करना प्राथमिक समंक कहलाएगा।
प्रश्न 4. द्वितीयक समंकों का अर्थ उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर: द्वितीयक समंक वे है जो पूर्व में किसी अन्य व्यक्ति या संस्था द्वारा संकलित किये हुये हों और जो प्रकाशित किये जा चुके हो। अनुसन्धानकर्ता केवल उनका प्रयोग करता है। उदाहरण के लिए यदि अनुसन्धानकर्ता सरकार द्वारा कृषि, श्रम, रोजगार, से सम्बन्धित संकलित एवं प्रकाशित समंकों का उपयोग करते हैं तो ये द्वितीयक समंक हैं।
प्रश्न 5. एक अच्छी प्रश्नावली के क्या गुण हैं? कोई तीन गुण लिखिए?
उत्तर: एक अच्छी प्रश्नावली के निम्न गुण होते हैं :
a. प्रश्नावली का आकार छोटा तथा प्रश्नों की संख्या कम होनी चाहिए।
b. प्रश्न सरल व आसानी से समझ में आने वाले होने चाहिए।
c. सही उत्तर दिये जा सकने वाले प्रश्न हो। ये बहुविकल्प वाले या सामान्य विकल्प वाले प्रश्न भी हो सकते हैं।
प्रश्न 6. प्रश्नावली तथा अनुसूची में कोई तीन अन्तर लिखिए।
उत्तर: प्रश्नावली तथा अनुसूची में निम्न अन्तर हैं :
a. प्रश्नावली सूचक भरता है जबकि अनुसूची को प्रगणक सूचना देने वाले से पूछताछ कर भरता है।
b. प्रश्नावली डाक द्वारा सूचना देने वाले से भरवाई जाती है। अनुसूची को प्रगणक स्वयं सूचना देने वाले के पास व्यक्तिगत रूप से लेकर जाता है।
c. अनुसन्धानकर्ता का सूचना देने वाले से प्रश्नावली में व्यक्तिगत सम्पर्क नहीं होता, जबकि अनुसूची में व्यक्तिगत सम्पर्क होता है।
प्रश्न 7. द्वितीयक समंकों के स्रोतों को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर: द्वितीयक समंकों के प्रमुख स्रोत निम्न हैं :
a. प्रकाशित स्रोत : अनेक अनुसन्धानकर्ता संस्थाएँ, सरकारी संस्थाएँ, शोध संस्थाएँ, निगमें विभिन्न विषयों पर मौलिक समंक एकत्रित करके उन्हें समय-समय पर प्रकाशित करवाते हैं। प्रकाशित समंकों के स्रोत निम्न है-सरकारी प्रकाशन, समितियों एवं आयोगों की रिपोर्ट, व्यापारिक संस्थाओं को प्रकाशन, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन, अनुसन्धान संस्थाओं द्वारा प्रकाशन, विश्वविद्यालय के योधकार्य, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का प्रकाशन विशेषज्ञों के मौलिक ग्रन्थ।
b. अप्रकाशित स्रोत : कभी-कभी सरकारी या अन्य संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा महत्त्वपूर्ण विषयों पर सामग्री संग्रह तो कर ली जाती है परन्तु अप्रकाशित रह जाती है ऐसी अप्रकाशित सामग्री कार्यालय की पत्रावलियों, रजिस्टरों या अनुसन्धानकर्ता की डायरी आदि से प्राप्त की जा सकती है।
प्रश्न 8. प्राथमिक तथा द्वितीयक समंकों में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर: प्राथमिक तथा द्वितीयक समंकों में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं
a. उद्देश्य : प्राथमिक समंकों का संकलन अनुसन्धान के उद्देश्यों के अनुकूल होता है जबकि द्वितीयक समंकों का प्रयोग अन्य उद्देश्य के लिए भी किया जाता है।
b. मौलिकता : प्राथमिक समंक मौलिक होते हैं, क्योंकि इन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं पहली बार संकलित करता है, जबकि द्वितीयक समंक मौलिक नहीं होते। ये पहले से ही किसी अन्य अनुसन्धानकर्ता द्वारा संकलित किये जाते हैं और दूसरे अनुसन्धानकर्ता द्वारा इनका प्रयोग किया जाता है।
c. नवनिर्मित योजना : प्राथमिक समंक नव-निर्मित योजना के अनुसार संकलित किये जाते हैं। द्वितीयक समंकों की संकलन योजना नवीन नहीं होती।
d. धन व समय का प्रयोग : प्राथमिक समंकों के संकलन में धन, समय व श्रम अधिक खर्च होता है, जबकि द्वितीयक समंकों में धन, समय व श्रम काफी कम लगता है।
e. उपलब्धता : प्राथमिक समंकों का संकलन अनुसन्धान क्षेत्र की साख्यिकीय इकाइयों से किया जाता है, जबकि द्वितीयक समंक अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा पूर्व संकलित होते हैं।
f. प्रयोग व संशोधन : प्राथमिक समंकों के प्रयोग में अधिक सावधानी की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि ये अनुसन्धानकर्ता द्वारा अपने उद्देश्य के अनुरूप स्वयं संकलित किये जाते हैं, लेकिन द्वितीयक समंकों का प्रयोग बड़ी सावधानी के साथ करना होता है। बिना जाँच-पड़ताल के द्वितीयक समंकों का प्रयोग हानिकारक हो सकता है।
प्रश्न 9. प्राथमिक आँकड़े एकत्र करने की मुख्य विधियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर: प्राथमिक आँकड़े एकत्र करने की विधियाँ-प्राथमिक आँकड़े एकत्र करने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं
1. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान विधि,
2. अप्रत्यक्ष मौखिक अनसंन्धान विधि
3. स्थानीय लोगों एवं संवाददाताओं से सूचना प्राप्त करना
4. सूचकों द्वारा प्रश्नावलियाँ भखाकर सूचना प्राप्ति करना
5. प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरना।
प्रश्न 10. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान विधि से क्या आशय है? इसके गुण व दोष बताइए।
उत्तर: प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान विधि से आशय-यह प्राथमिक समंकों के संकलन की एक विधि है जिसमें अनुसन्धानकर्ता स्वयं अनुसन्धान क्षेत्र में जाकर व्यक्तिगत रूप से सूचना प्राप्त करने हेतु व्यक्तियों अथवा संस्थाओं से सम्पर्क स्थापित करता है तथा उनसे आवश्यक प्रश्न पूछकर आवश्यक सूचनाएँ एवं समंक संकलित करता है।
यह समंक संकलन की रीति उस अवस्था में अधिक उपयुक्त मानी जाती है जबकि अनुसन्धान का क्षेत्र सीमित हो तथा अनुसन्धान में परिशुद्धता की उच्च मात्रा की आवश्यकता हो।
गुण :
1. समंक शुद्ध एवं मौलिक होते हैं।
2. समंकों में एकरूपता एवं सजातीयता का गुण पाया जाता है।
3. यह लोचपूर्ण है।
4. इस रीति में अतिरिक्त सूचनाएँ भी एकत्र की जा सकती है।
5. इस रीति में संकलित समंकों की साथ-साथ जाँच भी हो सकती है।
दोष :
1. विस्तृत क्षेत्र के लिए अनुपयुक्त है।
2. यह खर्चीली है।
3. इसमें समय अधिक लगता है।
4. इसमें व्यक्तिगत पक्षपात की सम्भावना रहती है।
प्रश्न 11. द्वितीयक समंकों का प्रयोग करते समय क्या-क्या सावधानियाँ रखनी चाहिए?
उत्तर: द्वितीयक समंकों का प्रयोग करते समय निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिए
1. पूर्व अनुसन्धानकर्ता की योग्यता, ईमानदारी, निष्पक्षता एवं अनुभव के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।
2. यह देख लेना चाहिए कि पूर्व अनुसन्धान का उद्देश्य एवं क्षेत्र हमारे उद्देश्य एवं क्षेत्र के समान है या नहीं।
3. पूर्व अनुसन्धानकर्ता द्वारा समंक संकलन की रीति विश्वसनीय होनी चाहिए।
4. अनुसन्धान में प्रयुक्त इकाई हमारे अनुसन्धान में प्रयुक्त इकाई के समान हो।
5. प्रकाशित समंकों में परिशुद्धता का स्तर उच्च होना चाहिए।
6. पूर्व अनुसन्धान का समय सामान्य होना चाहिए।
7. प्रतिदर्श का आकार उचित होना चाहिए।
8. प्रकाशित समंकों के स्रोत विश्वसनीय होने चाहिए।
9. प्रकाशित समंकों में सजातीयता होनी चाहिए।
10 प्रकाशित समंकों की परीक्षात्मक जाँच कर लेनी चाहिए।
प्रश्न 12. प्रश्नावली से क्या आशय है? प्रश्नावली एवं अनुसूची में क्या अन्तर है?
उत्तर: प्रश्नावली का आशय-सांख्यिकीय अनुसन्धान के लिए चुने गए विषय से सम्बन्धित प्रश्नों की सूची को प्रश्नावली कहते हैं। प्रश्नावली डाक द्वारा सूचकों के पास भेजी जाती है, सूचकों द्वारा स्वयं प्रश्नों के उत्तर दिये जाते हैं। प्रश्नावली एवं अनुसूची दोनों में ही अनेक प्रश्न दिये होते हैं। इन दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि प्रश्नावली के प्रश्नों के उत्तर सूचक को स्वयं देने होते हैं जबकि अनुसूची के प्रश्नों के उत्तर प्रगणक सूचकों से पूछकर भरते हैं।
प्रश्नावली एवं अनुसूची में अन्तर :
1. प्रश्नावली का प्रयोग विस्तृत क्षेत्र में किया जाता है, जबकि अनुसूची का क्षेत्र सीमित होता है।
2. प्रश्नावली शिक्षित सूचकों के लिए ही प्रयुक्त हो सकती है, जबकि अनुसूची शिक्षित एवं अशिक्षित दोनों प्रकार के सूचकों के लिए प्रयुक्त हो सकती है।
3. प्रश्नावली में प्रश्न के उत्तर, सूचकों द्वारा लिखे जाते हैं, जबकि अनुसूची में प्रगणकों द्वारा लिखे जाते हैं।
4. प्रश्नावली डाक द्वारा सूचकों के पास भेजी जाती है, जबकि अनुसूची को लेकर प्रगणक स्वयं सूचकों के पास जाते हैं।
5. प्रश्नावली द्वारा समंक संकलन में धन एवं समय कम लगता है, जबकि अनुसूची में अधिक लगता है।
6. प्रश्नावली में सूचक को उत्तर अपने विवेक से देने होते हैं, जबकि अनुसूची में उत्तर देने के लिए प्रगणक की सहायता ली जा सकती है।
प्रश्न 13. एक अच्छी प्रश्नावली के मुख्य गुण कौन-से हैं?
उत्तर: एक अच्छी प्रश्नावली के गुण :
1. प्रश्नावली में अनुसन्धानकर्ता को अपना परिचय, अनुसन्धान का उद्देश्य तथा सूचक की सूचनाओं को गुप्त रखने का आश्वासन देना चाहिए।
2. प्रश्नावली में प्रश्नों की संख्या कम होनी चाहिए।
3. प्रश्नावली के प्रश्न सरल एवं स्पष्ट होने चाहिए।
4. प्रश्नावली में प्रश्न उचित क्रम में दिये होने चाहिए।
5. प्रश्न ऐसे होने चाहिए जिनका संक्षिप्त उत्तर दिया जा सके।
6. प्रश्नावली में सूचक के आत्म-सम्मान एवं धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले प्रश्न नहीं होने चाहिए।
7. प्रश्न केवल अनुसन्धान से सम्बन्धित ही होने चाहिए।
8. प्रश्नावली का गठन ठीक प्रकार का होना चाहिए, जिसमें उत्तर देने के लिए पर्याप्त स्थान हो।
9. प्रश्न सूचक की योग्यतानुसार ही होने चाहिए।
10. प्रश्नों के उत्तर के लिए आवश्यक निर्देश भी दिये जाने चाहिए।
11. प्रश्नावली में ऐसे प्रश्न होने चाहिए जिनसे प्रश्नों की परस्पर सत्यता जाँची जा सके।
प्रश्न 14. संगणना एवं प्रतिदर्श अनुसन्धान से क्या आशय है?
उत्तर: संगणना अनुसन्धान : जब किसी समस्या से सम्बन्धित सम्पूर्ण समूह की प्रत्येक इकाई से आवश्यक सांख्यिकीय तथ्य संकलित किये जाते हैं, तो इसे संगणना अनुसन्धान कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी शिक्षण संस्थान के 500 विद्यार्थियों में से प्रत्येक विद्यार्थी की मासिक आय के आँकड़े एकत्रित किये जाएं तथा उनके आधार पर विद्यार्थियों की आय का स्तर जाना जाये, तो इसे संगणना अनुसन्धान कहेंगे। भारत की जनगणना संगणना अनुसन्धान का उदाहरण है।
प्रतिदर्श अनुसन्धान : प्रतिदर्श अनुसन्धान में समग्र की सभी इकाइयों का अध्ययन नहीं किया जाता है, बल्कि समग्र में से कुछ प्रतिनिधि इकाइयाँ बिना पक्षपात के चुन ली जाती हैं। इन चुनी हुई इकाइयों का अध्ययन करके निकाले गए निष्कर्ष समग्र पर लागू किये जाते हैं। समग्र में से छाँटी गई इकाइयों को ही प्रतिदर्श कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हमें किसी शहर के 10 हजार परिवारों की औसत आय ज्ञात करनी है और इसके लिए हम 10 हजार परिवार में से 1000 प्रतिनिधि परिवार चुनकर उनसे आय के आँकड़े इकट्ठे करते हैं तथा उनके आधार पर औसत आय निकालकर 10 हजार परिवारों पर लागू करते हैं, तो यह प्रतिदर्श अनुसन्धान होगा।
प्रश्न 15. संगणना तथा प्रतिदर्श प्रणाली में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर: संगणना तथा प्रतिदर्श प्रणाली में अन्तर
क्रम सं. |
अन्तर का आधार |
संगणना विधि, |
प्रतिदर्श विधि |
1 |
क्षेत्र |
इसका प्रयोग अनुसन्धान के सीमित क्षेत्र में किया जाता है। |
इसका प्रयोग अनुसन्धान के विस्तृत क्षेत्र के लिए भी किया जा सकता है। |
2 |
सम्पर्क |
इसमें समग्र की प्रत्येक इकाई से सम्पर्क किया जाता है तथा सूचना प्राप्त की जाती है। |
इसमें चुने गये प्रतिदर्श की इकाइयों से ही सूचना संकलित की जाती है। |
3 |
व्यय |
इसमें धन, श्रम व समय को अधिक व्यय होता है। |
इसमें अपेक्षाकृत कम व्यय होता है। |
4 |
उपयोगिता |
जहाँ समग्र की इकाइयाँ विजातीय हों, रीति अधिक उपयोगी रहती है। |
वहाँ यह यह रीति वहाँ उपयोगी रहती है, जहाँ सभी इकाइयाँ सजातीय हों। |
5 |
शुद्धता को स्तर |
इसमें शुद्धता का स्तर अधिक रहता है। |
इसमें शुद्धता को स्तर अपेक्षाकृत कम रहता है। |
6 |
प्रयोग |
जब समग्र की सभी इकाइयों से सूचना लेना अपेक्षित हो, तो इसे प्रयोग करना चाहिए। |
जब समग्र अनन्त एवं विशाल हो, तो प्रतिदर्श विधि का प्रयोग करना ज्यादा लाभदायक रहता है। |
प्रश्न 16. दैव प्रतिदर्श के गुण-दोष बताइए।
उत्तर: दैव प्रतिदर्श के गुण एवं दोष निम्नवत् हैं :
गुण :
1. इस विधि में पक्षपात की कोई सम्भावना नहीं रहती है।
2. इस विधि में धन, श्रम एवं समय की बचत होती है।
3. यह विधि सांख्यिकीय नियमितता नियम एवं महक जड़ता नियम पर आधारित है। इस कारण चुने गए प्रतिदर्श में समग्र के सभी गुण पाये जाते हैं।
4. यह एक सरल विधि है।
5. इस विधि द्वारा प्राप्त प्रतिदर्थों की जाँच दूसरे प्रतिदर्श से की जा सकती है।
दोष :
1. यदि कुछ खास इकाइयों को उनके महत्त्व के कारण प्रतिदर्श में शामिल करना आवश्यक हो तो यह विधि उपयुक्त नहीं रहती है।
2. यदि समग्र का आकार छोटा हो या उसमें विषमता अधिक हो, तो इस विधि द्वारा लिए गए प्रतिदर्श समग्र का पूरी – तरह प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते हैं।
3. यह विधि तभी उपयुक्त रहती है, जबकि समग्र की सभी इकाइयाँ स्वतन्त्र हो।
प्रश्न 17. दैव प्रतिदर्श की कोई दो रीतियों को समझाइए?
उत्तर: लॉटरी रीति : इस रीति में समग्र की समस्त इकाइयों की पर्चियाँ या गोलियाँ बनाकर किसी निष्पक्ष व्यक्ति से एक-एक पर्चियाँ उठवा ली जाती है।
ढोल धुमाकर : इस रीति में एक ढोल या गोलाकार लोहे या लकड़ी के गोल टुण्डे जिन पर समग्र की इकाइयों के संकेत यो संख्याएँ लिखी होती है डाल दिये जाते हैं बाद में ढोल को खूब घुमाया जाता है। किसी निष्पक्ष व्यक्ति से ढोल में जितनी इकाइयों को प्रतिदर्श लेना हो उतने टुकड़े निकाल लिए जाते हैं।
प्रश्न 18. प्राथमिक समंक संकलन की अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान विधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर: अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान-जब अनुसन्धान का क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है तथा प्रत्यक्ष सूचना देने वालों से व्यक्तिगत सम्पर्क सम्भव नहीं होता है तो ऐसे अनुसन्धान में प्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान रीति का प्रयोग किया जाता है। इस रीति के अन्तर्गत अनुसन्धान के लिए सूचनाएँ उन व्यक्तियों से प्राप्त नहीं की जाती हैं जिनका समस्या से सीधा सम्बन्ध होता है, बल्कि ऐसे व्यक्तियों अथवा पक्षों से मौखिक पूछताछ द्वारा सूचनाएँ एकत्रित की जाती हैं जो तथ्य या स्थिति से अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित होते हैं। उदाहरण के लिये, श्रमिकों की आय के बारे में जानकारी सीधे श्रमिकों से नं करके मिल मालिकों से की जाती है।
रीति की उपयुक्तता : यह रीति निम्नलिखित अवस्थाओं में उपयुक्त रहती है :
1. जहाँ अनुसन्धान का क्षेत्र ज्यादा विस्तृत हो।
2. सूचना देने वालों से प्रत्यक्ष सम्पर्क करना सम्भव न हो।
3. सम्बन्धित व्यक्ति सूचना देने में हिचकते हो अथवा अज्ञानता के कारण सूचना देने में असमर्थ हो।
4. सम्बन्धित व्यक्तियों से सूचना मिलने में पक्षपातपूर्ण व्यवहार की सम्भावना हो।
5. अनुसन्धान से सम्बन्धित व्यक्तियों से प्रश्न पूछना उचित न हो।
6. अनुसन्धान को गुप्त रखना हो।
रीति के गुण :
1. यह रीति कम खर्चीली है।
2. यह रीति सरल व सुविधाजनक है।
3. विस्तृत क्षेत्र के लिए सर्वाधिक उपर्युक्त रीति है।
4. इस रीति से गुप्त सूचनाएँ मिल जाती हैं।
5. इस रीति में विशेषज्ञों की सेवाओं का लाभ मिल जाता है।
दोष :
1. इस रीति से अनुसन्धान में उच्च स्तर की शुद्धता प्राप्त नहीं होती है।
2. संकलित संमंकों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है।
3. सूचना देने वालों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार की सम्भावना रहती है।
4. सूचना देने वाले द्वारा लापरवाही बरती जाती है।
प्रश्न 19. समंक संकलन की संवाददाताओं से सूचना प्राप्त करना विधि पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर: संवाददाताओं से सूचना प्राप्त करना-इस रीति व अनुसन्धानकर्ता विभिन्न क्षेत्रों में संवाददाता नियुक्त कर देता है। ये संवाददाता आवश्यक सूचना एकत्रित करके समय-समय पर अनुसन्धानकर्ता के पास भेजते हैं। सामान्यतः संवाददाता सूचनाएँ स्वयं ही एकत्रित करते हैं। इस रीति के द्वारा भेजी गई सूचनाओं में अशुद्धि की मात्रा अधिक देखने को मिलती है। समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं तथा बाजार भावों के लिए इस अपनाया जाता है।
रीति की उपयुक्तता : यह रीति निम्नलिखित अवस्थाओं में उपयुक्त रहती है :
1. जब उच्च स्तर की शुद्धता की आवश्यकता नहीं।
2. जब सूचनाएँ निरन्तर लम्बे समय तक प्राप्त करनी हों।
रीति के गुण :
1. यह रीति विस्तृत क्षेत्र वाले अनुसन्धान के लिए उपयुक्त है।
2. इस रीति में समय, धन व श्रम की बचत होती है।
3. यह रीति सरल है।
रीति के दोष :
1. इस रीति में उच्च स्तर की शुद्धता नहीं होती है।
2. इस रीति का संकलित समंकों में मौलिकता नहीं होती।
3. समंकों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है।
4. समंक संवाददाताओं के पक्षपातपूर्ण भावना से प्रभावित होते हैं।
5. समंक संकलन में समय अधिक लग जाता है।
प्रश्न 20. सूचकों द्वारा प्रश्नावालियाँ भरवाकर सूचना प्राप्ति विधि को विस्तार से समझाइए।
उत्तर: सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरवाकर सूचना प्राप्ति-इस रीति में अनुसन्धानकर्ता आँकड़े एकत्रित करने के लिए प्रश्नावली तैयार करता है और उसे छपवाकर उन लोगों के पास डाक द्वारा अथवा व्यक्तिगत रूप से भेज देता है जिनसे सूचना प्राप्त करनी है। उन्हें सूचनाएँ गुप्त रखने का आश्वासन भी दिया जाता है। सूचना देने वाले प्रश्नावलियों को भरकर एक निश्चित तिथि तक अनुसन्धानकर्ता के पास भेज देते हैं।
रीति की उपयुक्तता
यह रीति निम्नलिखित अवस्थाओं में उपर्युक्त रहती है :
1. यह रीति ऐसे विस्तृत क्षेत्र के लिए उपयुक्त है, जहाँ सूचना देने वाले शिक्षित हों।
2. यह रीति मत सर्वेक्षण तथा उपभोक्ताओं की रुचियों की जानकारी के लिए उपयुक्त है।
रीति के गुण :
1. यह रीति विस्तृत क्षेत्र के लिए उपयुक्त है।
2. इसमें धन, समय व श्रम कम व्यय होता है।
3. सूचनाएँ मौलिक होती है।
रीति के दोष :
1. प्रायः परिणाम अशुद्ध रहते हैं।
2. सूचक सूचनाएँ देने में रुचि नहीं रखते हैं।
3. सूचनाएँ अपर्याप्त व अपूर्ण होती है।
प्रश्न 21. प्राथमिक समंक संकलन की “प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरना” विधि पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर: प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरना-इस विधि में प्रश्नावलियाँ भरने का कार्य प्रशिक्षित प्रगणकों द्वारा कराया जाता कर सूचकों से पूछताछ करके प्रश्नावलियों को भरते हैं। इस विधि की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि प्रगणक ईमानदार, अनुभवी, व्यवहार कुशल और परिश्रमी हों तथा उन्हें अनुसन्धान क्षेत्र की भाषा, रीति-रिवाज आदि का ज्ञान हो।
रीति की उपयुक्तता
यह रीति अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र के लिए ही उपयुक्त है। प्राय: इस रीति का प्रयोग सरकार द्वारा आँकड़े एकत्रित करने के लिए किया जाता है। भारतीय जनगणना में इसी रीति का प्रयोग होता है।
रीति के गुण :
1. व्यापक क्षेत्र से सूचना इकट्ठी की जा सकती है।
2. इस रीति द्वारा प्रशिक्षित संगणक व्यक्तिगत सम्पर्क द्वारा सही सूचना प्राप्त कर सकते हैं।
3. इस रीति द्वारा संकलित आँकड़े मौलिक व निष्पक्ष होते हैं।
4. संकलित समंकों में परिशुद्धता की मात्रा उच्च रहती है।
रीति के दोष :
1. अनुसन्धान-कार्य में समय अधिक लगता है।
2. यह अधिक खर्चीली विधि है।
3. प्रगणकों की नियुक्ति के प्रशिक्षण में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
4. इस रीति में लोच का अभाव है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों में अन्तर स्पष्ट कीजिये तथा प्राथमिक समंकों को एकत्रित करने की रीतियों को समझाइए।
उत्तर: प्राथमिक एवं द्वितीयक समंक में अन्तर :
1. प्रकृति : प्राथमिक समंक मौलिक एवं सांख्यिकी विधियों के लिए कच्चे माल की भाँति होते हैं। जबकि द्वितीयक समंक सांख्यिकी क्षेत्र में से एक बार गुजर चुके होते हैं तथा निर्मित माल की भाँति होते हैं।
2. संग्रहणकर्ता : प्राथमिक समंक अनुसन्धानकर्ता या उसके प्रतिनिधि द्वारा संकलित किये जाते हैं जबकि द्वितीयक समंक अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा पूर्व में संकलित एवं प्रकाशित होते हैं।
3. योजना : प्राथमिक समंक नये सिरे से स्वत: योजना बनाकर एकत्र किये जाते हैं जबकि द्वितीयक समंक पहले से उपलब्ध होते हैं अर्थात् किसी प्रकाशन, प्रतिवेदन या अभिलेखों में उपलब्ध समंक द्वितीयक समंक होते हैं।
4. उद्देश्य : प्राथमिक समंक अनुसन्धान के उद्देश्य के सदैव अनुकूल होते हैं जबकि द्वितीयक समंक को एकत्रित करके उद्देश्य के अनुकूल बनाना पड़ता है।
5. समय एवं धन शक्ति : प्राथमिक समंकों के संकलन में अधिक समय, धन, एवं शक्ति लगती है जबकि द्वितीयक समंकों के संग्रहण में समय एवं धन की बचत होती है।
6. उपलब्धता : प्राथमिक समंकों का संकलन अनुसन्धान क्षेत्र की सांख्यिकी इकाइयों से किया जाता है जबकि द्वितीयक समंक अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा पूर्व संकलित होते हैं।
प्राथमिक समंकों को एकत्रित करने की विधियाँ : प्राथमिक समंकों के संग्रहण की निम्नलिखित रीतियाँ हैं
A. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान रीति : यह रीति ऐसे अनुसन्धानों के लिए उपयुक्त है जिनका क्षेत्र सीमित या स्थानीय प्रकृति का होता था जिनमें समंकों की मौलिकता, और शुद्धता एवं गोपनीयता को अधिक महत्त्व दिया रीति में स्वयं अनुसन्धानकर्ता अनुसन्धान वाले क्षेत्र में जाकर सूचना देने वाले व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करता है तथा निरीक्षण एवं अनुभव के आधार पर आँकड़े एकत्र करता है। सीमित क्षेत्र में आय-व्यय, मजदूरों के रहन-सहन की स्थिति, शिक्षित बेरोजगारी आदि से सम्बन्धित अनुसन्धान अक्सर इस रीति से किये जाते हैं।
B. अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान रीति : इस रीति के अन्तर्गत समस्या से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों से सूचना प्राप्त नहीं की जाती अपितु तृतीय पक्ष वाले उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों या साथियों से मौखिक पूछताछ कर समंक एकत्रित किये जाते हैं। ये समंक स्थिति से अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित होते हैं। जिन व्यक्तियों से सूचना प्राप्त करनी है उनसे प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं किया जाता। यह रीति जब प्रयोग की जाती है जब अनुसन्धान क्षेत्र अधिक व्यापक होता है तब इसंरीति का प्रयोग किस जाता है।
C. स्थानीय लोगों एवं संवाददाताओं से सूचना प्राप्त करना : इस रीति से स्थानीय व्यक्ति या विशेष संवाददाता अनुसन्धानकर्ता द्वारा नियुक्त कर दिये जाते हैं जो समय-समय पर अपने अनुभव के आधार पर अनुमानत सूचना भेजते हैं।
D. सूचकों द्वारा प्रश्नावलियाँ भरवाकर सूचना प्राप्ति रीति : इस विधि में अनुसन्धानकर्ता जाँच से सम्बन्धित प्रश्नों की सूची या प्रश्नावली तैयार करता है। प्रश्नावली छपवाकर डाक द्वारा उन व्यक्तियों के पास भेजता है। जिनसे सूचनाएँ प्राप्त करनी हो। इसके साथ एक अनुरोध पत्र भी भेजता है। जिसमें निश्चित तिथि तक इसे भेजने तथा इसकी गोपनीयता बनाये रखने का अनुरोध होता है।
E. प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरना : इस विधि में भी जाँच से सम्बन्धित प्रश्नों की एक अनुसूची तैयार की जाती है तथा प्रगणकों को दे दी जाती है। प्रगणक सूचना देने वालों से आवश्यक प्रश्न पूछकर उत्तर अनुसूची में लिखते हैं। प्रगणक इस कार्य में प्रशिक्षित होते हैं तथा वे क्षेत्रीय भाषा से भी परिचित होते हैं। यह रीति वहाँ उपयुक्त है जहाँ पर पर्याप्त श्रम शक्ति एवं धन उपलब्ध हो।
प्रश्न 2. द्वितीयक समंकों से आप क्या समझते हैं? द्वितीयक समंकों के विभिन्न स्रोतों को समझाइए।
उत्तर: द्वितीयक समंकों से आशय-द्वितीयक समंक वे होते हैं जो पहले से ही अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा संकलित व प्रकाशित किये जा चुके हैं। अनुसन्धानकर्ता अपने उद्देश्य के लिए उनका प्रयोग मात्र करता है। प्राथमिक समंक ही बाद वाले अनुसन्धान के लिए द्वितीयक समंक कहलाते हैं। द्वितीयक समंक प्रकाशित हो सकते हैं या अप्रकाशित हो सकते हैं। ग्रेगरी और वार्ड के अनुसार “द्वितीयक समंक वे होते हैं जिसका संकलन मौलिक रूप से किसी विशेष अनुसन्धान के लिए। किया गया हो, किन्तु उन्हें दोबारा किसी अन्य अनुसन्धान में प्रयुक्त किया गया है। द्वितीयक समंकों के स्रोतों को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
A. प्रकाशित स्रोत : सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाएँ विभिन्न विषयों पर समंकों को समय-समय पर संकलन कराती रहती हैं तथा उन्हें प्रकाशित करती रहती हैं। इन प्रकाशित समंकों को दूसरे लोग अपने अनुसन्धान के लिए प्रयोग कर लेते हैं। प्रकाशित समंकों के स्रोत निम्नलिखित हैं
1. अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन : विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय सरकारें एवं संस्थाएँ समय-समय पर विभिन्न विषयों से सम्बन्धित सूचनाएँ प्रकाशित करती रहती हैं। जैसे-अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि।।
2. सरकारी प्रकाशन : केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों के विभिन्न मन्त्रालय व विभाग तथा स्थानीय सरकारे समय-समय पर विभिन्न विषयों से सम्बन्धित आँकड़े प्रकाशित करती रहती है। ये समंक काफी विश्वसनीय एवं महत्त्वपूर्ण होते हैं जैसे-रिजर्व बैंक का बुलेटिन, उद्योगों का वार्षिक सर्वे।
3. अर्द्ध सरकारी प्रकाशन : विभिन्न अर्द्धसरकारी संस्थाएँ; जैसे-नगरपालिका, जिला परिषद्, पंचायत आदि भी समय-समय पर आँकड़े प्रकाशित करती है।
4. समितियों एवं आयोगों का प्रतिवेदन : सरकार द्वारा गठित विभिन्न समितियों एवं आयोगों द्वारा भी अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किये जाते हैं। तथा उनको प्रकाशित कराया जाता है।
5. व्यापारिक संघों के प्रकाशन : बडे-बडे व्यापारिक संघ भी अपने अनुसन्धान तथा सांख्यिकी विभागों द्वारा संकलित आँकड़ों को प्रकाशित करते रहते हैं; जैसे-टाटा, बिरला, रिलायन्स, यूनिलीवर।
6. अनुसन्धान संस्थाओं के प्रकाशन : विभिन्न विश्वविद्यालय तथा अनुसन्धान संस्थान भी अपने शोध परिणामों को प्रकाशित करते हैं; जैसे—भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, भारतीय मानक संस्थान आदि।
7. पत्र-पत्रिकाएँ : समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ भी द्वितीयक समंकों के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं इनके द्वारा विभिन्न विषयों पर समय-समय पर उपयोगी आँकड़े प्रकाशित किये जाते हैं। इकोनोमिक टाइम्स, विजिनेस स्टेण्डर्ड, योजना, उद्योग-व्यापार पत्रिका आदि महत्त्वपूर्ण समंक प्रकाशित करते रहते हैं।
(2) अप्रकाशित स्रोत : विश्वविद्यालय, निजी संस्थाएँ तथा व्यक्तिगत अनुसन्धानकर्ता अपने उद्देश्यों के लिए समंकों का संकलन करते हैं, लेकिन कुछ कारणवश वे उनका प्रकाशन नहीं करा पाते हैं। इन अप्रकाशित तथ्यों को भी द्वितीयक समंकों के रूप में अपने अनुसन्धान के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है।
प्रश्न 3. प्राथमिक समंकों के एकत्र करने की विभिन्न रीतियों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिये?
उत्तर: प्राथमिक समंकों के एकत्र करने की रीतियो की आलोचनात्मक व्याख्या :
1. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान रीति : इस रीति में आँकड़ों की शुद्धता होने, विश्वसनीय सूचना प्राप्त होने, सजातीयता होने तथा लोचशील का गुण विद्यमान होने पर भी इस विधि में पर्याप्त दोष भी है जैसे-अनुसन्धानकर्ता व्यक्तिगत पक्षपात कर सकता है जिससे परिणाम प्रभावित हो सकते हैं। अधिक अपव्यय तथा सीमित क्षेत्र में कार्य करने के कारण पक्षपातपूर्ण निष्कर्ष भी प्राप्त हो सकते हैं।
2. अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान रीति : इस रीति में अनुसन्धानकर्ता प्रत्यक्ष रूप से नहीं मिल सकता है। सूचना अप्रत्यक्ष रीति से प्राप्त की जाती है, जिन साक्षियों से सूचना प्राप्त की जाती है वे लापरवाही भी कर सकते हैं। जिससे आँकड़े विश्वसनीय नहीं हो सकते हैं।
3. स्थानीय लोगों एवं संवाददाताओं से सूचना प्राप्त करना : इस विधि में सूचना अनुभव द्वारा भेजी जाती है यदि किसी अनुसन्धानकर्ता के अनुभव में कमी हो या नया अनुसन्धानकर्ता हो तो सही आँकड़े प्राप्त नहीं होते हैं। इस विधि में अनेक अशुद्धियाँ होती है।
4. सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरवाकर सूचना प्राप्ति रीति : इस रीति में यदि सूचक शिक्षित नहीं है तो वह प्रश्नावली को सही नहीं भरवा सकता है। अप्रत्यक्ष एवं अपूर्ण सूचना के भय के साथ पक्षपात पूर्ण शुद्धता व लापरवाही बरतने का भय भी रहता है।
5. प्रगणको द्वारा अनुसूचियाँ भरना : यह रीति अधिक खर्चीली है इसमें प्रशिक्षण तथा सम्पर्क करने में देरी की समस्या बनी रहती है। इसमें प्रगणक की सूचना प्रदाता द्वारा गलत सूचना भी दी जा सकती है। जिससे अनुसूचियाँ गलत भर सकती है।
प्रश्न 4. सांख्यिकीय अनुसन्धान की रीतियों का वर्णन कीजिये।
उत्तर: कोई भी सांख्यिकीय अनुसन्धान समग्र के बारे में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है। वह जानकारी दो प्रकार से प्राप्त की जा सकती हैं जिसे सांख्यिकी अनुसन्धान की रीतियाँ कहते हैं। ये रीतियाँ दो प्रकार की होती है–संगणना रीति एवं प्रतिदर्श रीति।
1. संगणना रीति (Census Method) : जब समग्र की समस्त इकाइयों एवं अवयवों से अनुसन्धानकर्ता जानकारी प्राप्त करता है तो उसे संगणना रीति कहते हैं। इसके अन्तर्गत समग्र की प्रत्येक इकाई की जानकारी प्राप्त की जाती है। जनगणना, संगणना रीति का ही एक उदाहरण है। जनगणना के अन्तर्गत प्रत्येक घर तथा प्रत्येक व्यक्ति के बारे में जानकारी एकत्रित की जाती है। यह जानकारी विस्तृत होती है। इस रीति के परिणाम शुद्ध एवं विश्वसनीय होते हैं। यह रीति खर्चीली है। इसमें श्रम एवं समय अधिक लगता है।
2. प्रतिदर्श रीति (Sample Method) : इसके अन्तर्गत समग्र में से कुछ इकाइयों का चयन किया जाता है एवं चयनित इकाइयों के अध्ययन के द्वारा निष्कर्ष निकाले जाते हैं। जीवन में घर का सामान जैसे गेहूं, चावल आदि खरीदते समय बोरी के कुछ गेहूँ या चावल देखकर खरीदने का निर्णय लेते हैं अर्थात सभी की नहीं देखते। इस रीति में समय एवं धन की बचत होती है। इस रीति में अत्यन्त सावधानी रखने की आवश्यकता है अन्यथा निष्कर्ष गलत निकलने की सम्भावना रहती है।
प्रतिदर्श या निदर्शन रीति तीन सिद्धान्तों पर आधारित है इन्हें प्रतिदर्श नियम कहते हैं। प्रमुख तीन नियम है—प्रायिकता सिद्धान्त, सांख्यिकी नियमित्ता नियम, महांक जड़ता नियम आदि।
प्रश्न 5. द्वितीयक समंकों के प्रमुख स्रोत बताइए। इनका प्रयोग करते समय क्या सावधानियाँ रखनी चाहिए?
उत्तर : द्वितीयक समंकों के प्रमुख स्रोत द्वितीयक समंकों के स्रोतों को दो भागों में बाँटा जा सकता है :
(क) प्रकाशित स्रोत : सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाएँ विभिन्न विषयों पर समंकों का समय-समय पर संकलन करती हैं तथा उन्हें प्रकाशित करती रहती हैं। इन प्रकाशित समंकों को दूसरे लोग अपने अनुसन्धान के लिए प्रयोग कर लेते हैं। प्रकाशित समंकों के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं :
1. अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन : विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय सरकारें व संस्थाएँ समय-समय पर विभिन्न विषयों से सम्बन्धित सूचनाएँ प्रकाशित करती रहती हैं; जैसे-अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा संयुक्त राष्ट्र संघ आदि द्वारा प्रकाशित प्रतिवेदन।
2. सरकारी प्रकाशन : केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों के विभिन्न मन्त्रालय एवं विभाग तथा स्थानीय सरकारें समय-समय पर विभिन्न विषयों से सम्बन्धित आँकड़े प्रकाशित करती रहती हैं। ये समंक काफी विश्वसनीय एवं महत्त्वपूर्ण होते हैं; जैसे-रिजर्व बैंक का बुलेटिन, उद्योगों को वार्षिक सर्वे, भारतीय व्यापार जर्नल, पंचवर्षीय योजनाएँ तथा भारतीय कृषि समंक आदि।
3. अर्द्ध-सरकारी प्रकाशन : विभिन्न अर्द्ध-सरकारी संस्थाएँ; जैसे-नगरपालिका, जिला परिषद्, पंचायत आदि भी समय-समय पर आँकड़े प्रकाशित करती हैं। ये आँकड़े मुख्यत: स्वास्थ्य शिक्षा तथा जन्म-मरण से सम्बन्धित होते हैं।
4. समितियों व आयोगों के प्रतिवेदन : सरकार द्वारा गठित समितियों एवं आयोग द्वारा भी अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किये जाते हैं तथा उनको प्रकाशित कराया जाता है। इनके द्वारा प्रकाशित आँकड़े भी महत्त्वपूर्ण होते हैं। इनके प्रमुख उदाहरण हैं-विभिन्न वित्त आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, एकाधिकार आयोग, योजना आयोग आदि।
5. व्यापारिक संघों के प्रकाशन : बड़े-बड़े व्यापारिक संघ भी अपने अनुसन्धान तथा सांख्यिकी विभागों द्वारा संकलित आँकड़ो को प्रकाशित करते रहते हैं; जैसे-टाटा, बिरला, रिलायन्स यूनिलीवर, भारतीय वाणिज्य उद्योग संघ आदि।
6. अनुसन्धान संस्थाओं के प्रकाशन : विभिन्न विश्वविद्यालय तथा अनुसन्धान संस्थान भी अपने शोध परिणामों को प्रकाशित करते रहते हैं; जैसे- भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, भारतीय मानक संस्थानं, नेशनल काउन्सिल ऑफ एप्लाइड एकॉनोमिक रिसर्च (NCAER) आदि।
7. पत्र-पत्रिकाएँ : समाचार-पत्रे व पत्रिकाएँ भी द्वितीयक समंकों के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनके द्वारा विभिन्न विषयों पर समय-समय पर उपयोगी आँकड़े प्रकाशित किये जाते हैं। इकॉनोमिक टाइम्स, बिजिनेस स्टेण्डर्ड, योजना, उद्योग-व्यापार पत्रिका, कॉमर्स, केपीटल, इण्डस्ट्रियल टाइम्स आदि महत्त्वपूर्ण समंक प्रकाशित करते रहते हैं।
8. व्यक्तिगत अनुसन्धानमकर्ताओं के प्रकाशन : कुछ व्यक्तिगत शोधकर्ता भी अपने विषय से सम्बन्धित समंकों को संकलित करके प्रकाशित करा देते हैं।
(ख) अप्रकाशित स्रोत : विश्वविद्यालय, निजी संस्थाएँ तथा व्यक्तिगत अनुसन्धानकर्ता अपने उद्देश्यों के लिए समंकों का संकलन कराते हैं, लेकिन किन्हीं कारणों वश वे उनका प्रकाशन नहीं कर पाते हैं। इन अप्रकाशित तथ्यों को भी द्वितीयक समंकों के रूप में अपने अनुसन्धान के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है।
द्वितीयक समंकों के प्रयोग में सावधानियाँ : द्वितीयक समंकों का प्रयोग करते समय बहुत सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि द्वितीयक समंक अनेक त्रुटियों से पूर्ण हो सकते हैं। बिना सोचे-समझे तथा आलोचनात्मक विश्लेषण किये हुए उनका प्रयोग खतरे से खाली नहीं होता है।” बाउले ने ठीक कहा है, “प्रकाशित समंकों को बिना अर्थ व सीमाएँ जाने जैसो का तैसा स्वीकार लेना खतरे से खाली नहीं और यह सर्वथा आवश्यक है कि उन तक की आलोचना कर ली जाये जो उन पर आधारित किये जा सकते हों।”
इससे स्पष्ट है कि द्वितीयक समंकों को खूब सोच-विचार कर ही प्रयोग में लाना चाहिए। इनका प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है :
1. पिछले अनुसन्धान का उद्देश्य व क्षेत्र : सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि पूर्व में समंकों को किस उद्देश्य से संकलित किया गया था। उनका प्रयोग करने में कोई बुराई नहीं होगी, यदि उनको संकलित करने के उद्देश्य व हमारे उद्देश्य में समानता हो। यदि उनका उद्देश्य व क्षेत्र हमारे उद्देश्य व क्षेत्र से मेल नहीं खाता है, तो उनका प्रयोग करना उचित नहीं होगा।
2. पूर्व अनुसन्धानकर्ता की योग्यता : यह भी देखना चाहिए कि पूर्व अनुसन्धानकर्ता की योग्यता, ईमानदारी व निष्पक्षता और अनुभव पर भरोसा किया जा सकता है या नहीं। यदि ये सब विश्वास करने योग्य हैं, तो उसके द्वारा संकलित आँकड़ों पर भी विश्वास किया जा सकता है।
3. संकलन विधि : यह भी देखना आवश्यक है कि प्राथमिक समंकों को संकलित करते समय कौन-सी विधि का प्रयोग किया गया था। जिस विधि को अपनाया गया था वह विश्वसनीय है या नहीं। इस बात पर विचार करने के बाद ही उन समंकों को अपने अनुसन्धान के लिए प्रयोग करने के विषय पर निर्णय लेना चाहिए।
4. इकाई की परिभाषा : पूर्व संकलित समंकों का प्रयोग करने से पहले यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि पूर्व अनुसन्धान में प्रयुक्त इकाइयों का अर्थ वर्तमान अनुसन्धान में प्रयुक्त इकाइयों के अर्थ के समान है। यदि दोनों में अन्तर है, तो उनका प्रयोग करना उपयुक्त नहीं होगा।
5. शुद्धता का स्तर : द्वितीयक समंकों का प्रयोग करते समय इस बात पर भी विचार कर लेना चाहिए कि प्रकाशित समंकों के संकलन में परिशुद्धता का सतर क्या रखा गया था। यदि उन समंकों में परिशुद्धता का उच्च स्तर रखा गया था, तो उनका प्रयोग किया जा सकता है। यदि उनके संकलन में परिशुद्धता का स्तर सामान्य या निम्न था, तो उनका प्रयोग करने से बचना ही उपयुक्त होगा।
6. जाँच का समय : यह भी देखना आवश्यक है कि प्राथमिक अनुसन्धान का समय क्या था? यदि वह जॉच संकट काल या असाधारणकाल में की गई थी, तो सामान्य काल के अनुसन्धान में उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
7. समंकों की पर्याप्तता : अनुसन्धानकर्ता को द्वितीयक समंकों का प्रयोग करते समय यह भी देख लेना चाहिए कि वे अनुसन्धान के लिए पर्याप्त हैं या नहीं। अपर्याप्त व थोड़े समंकों के आधार पर की गई जाँच भी अधूरी ही मानी जाती है।
8. समंक संकलन के स्रोत : इस बात को भी भली-भाँति देख लेना चाहिए कि द्वितीयक समंकों को प्रारम्भिक रूप में किस प्रकार प्राप्त किया गया था। जिन स्रोतों से प्राप्त किये गए थे, वे विश्वसनीय हैं या नहीं।।
9. सजातीयता : प्रकाशित समंकों में सजातीयता है या नहीं, यह भी देख लेना चाहिए। यदि उनमें सजातीयता नहीं होगी, तो वे उपयोगी नहीं होंगे।
10. परीक्षात्मक जाँच : वर्तमान अनुसन्धानकर्ता को प्रकाशित समंकों की परीक्षात्मक जाँच अवश्य कर लेनी चाहिए। ताकि उनकी शुद्धता एवं विश्वसनीयता का अनुमान लगाया जा सके।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रकाशित या द्वितीयक समंकों का प्रयोग बिना गहन जाँच पड़ताल के कभी नहीं करना चाहिए अन्यथा निकाले गए परिणाम भ्रमात्मक हो सकते हैं।
प्रश्न 6. संगणना अनुसन्धान का आशय स्पष्ट कीजिये तथा इसके गुण-दोष बताइए।
उत्तर: संगणना अनुसन्धान का आशय-जब किसी समस्या से सम्बन्धित सम्पूर्ण समूह की प्रत्येक इकाई से आवश्यक सांख्यिकीय तथ्य सम्मिलित किये जाते हैं, तो इसे संगणना अनुसन्धान कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी शिक्षण संस्थान के 500 विद्यार्थियों में से प्रत्येक विद्यार्थी की मासिक आय के आँकड़े एकत्र किये जाएं, तो इसे संगणना अनुसन्धान कहेंगे। भारत की जनगणना संगणना अनुसन्धान का उदाहरण है।
संगणना अनुसन्धान की उपयुक्तता :
अनुसन्धान की यह विधि अग्र स्थितियों में उपयुक्त रहती है :
1. जब प्रत्येक इकाई का गहन अध्ययन आवश्यक हो,
2. उच्च स्तर की परिशुद्धता अपेक्षित हो,
3. अनुसन्धान का क्षेत्र सीमित हो, तथा
4. अनुसन्धानकर्ता के पास आर्थिक साधन पर्याप्त हो।
संगणना अनुसन्धान के गुण :
1. उच्च स्तर की शुद्धता : इस विधि द्वारा संकलित समंक विश्वसनीय व शुद्ध होते हैं। इस कारण इस विधि के द्वारा किये गए अनुसन्धान में भी उच्च स्तर की शुद्धता देखी जाती है।
2. अधिक विश्वसनीयता : इस विधि में समग्र की सभी इकाइयों से सूचनाएँ एकत्रित की जाती हैं, इसलिए प्राप्त समंक ज्यादा विश्वसनीय होते हैं।
3. विस्तृत सूचना : इस रीति में क्योंकि समग्र की प्रत्येक इकाई से प्रत्यक्ष सम्पर्क किया जाता है। अतः उनके बारे में अधिक-से-अधिक जानकारियाँ जुटाना सम्भव हो जाता है। उदाहरण के लिए, जनगणना में केवल देश के कुल पुरुष व स्त्रियों की संख्या ही ज्ञात नहीं की जाती है, बल्कि देशवासियों की आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य स्थिति, शैक्षिक स्थिति, वैवाहिक स्थिति आदि अनेक बातों के बारे में तथ्य इकट्ठे किये जाते हैं।
4. इकाइयों की भिन्नता में उपयुक्तता : इस अनुसन्धान क्षेत्र में इकाइयाँ एक-दूसरे से बहुत भिन्न हों तथा जहाँ प्रतिदर्श प्रणाली का प्रयोग करना सम्भव न हो, वहाँ यह प्रणाली उपयुक्त रहती है।
संगणना अनुसन्धान के दोष :
1. अधिक खर्चीली : इस पद्धति में समय, धन व श्रम बहुत अधिक व्यय होता है। इस विधि के द्वारा किये गए अनुसन्धान के परिणाम भी काफी देरी से मिल पाते हैं। इस कारण इसका प्रयोग ज्यादातर सरकारें ही करती है।
2. प्रशिक्षित प्रगणकों के अभाव में असम्भव : यदि प्रगणक प्रशिक्षित न हों, तो इस पद्धति के द्वारा सन्तोषजनक परिणाम प्राप्त नहीं किये जा सकते हैं।
3. कुछ परिस्थितियों में असम्भव : जब अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत एवं जटिल होता है तथा अनुसन्धान की सभी इकाइयों से सम्पर्क करना सम्भव नहीं होता, तो इस प्रणाली का प्रयोग किया जाना असम्भव होता है।
प्रश्न 7. प्रतिदर्श अनुसन्धान का आशय स्पष्ट कीजिये तथा इसके गुण-दोष बताइए।
उत्तर: प्रतिदर्श अनुसन्धान का आशय-इस विधि में अनुसन्धान क्षेत्र की सभी इकाइयों का अध्ययन नहीं किया जाता है, बल्कि समग्र में से कुछ प्रतिनिधि इकाइयाँ बिना पक्षपात के चुन ली जाती हैं। इन चुनी गई इकाइयों का अध्ययन करके निकाले गए निष्कर्ष समग्र पर लागू किये जाते हैं। समग्र में से छाँटी गई इकाइयों को प्रतिदर्श कहते हैं। प्रतिदर्श समग्र का एक सूक्ष्म चित्र होता है। उदाहरण के लिए, यदि हमे किसी शहर के 10 हजार परिवारों की औसत आय ज्ञात करनी है और इसके लिए हम 10 हजार परिवारों में से 1000 प्रतिनिधि परिवार चुनकर उनसे आय के आँकड़े इकट्ठे करें तथा उनसे प्राप्त आय के आँकड़ों के आधार पर 10 हजार परिवारों की औसत आय की गणना करें, तो यह अनुसन्धान प्रतिदर्श अनुसन्धान कहलाएगा।
इस पद्धति के प्रयोग को आधार यह है कि समग्र में से ली गई प्रतिनिधि इकाइयों में सामान्य रूप से वही विशेषता पाई जाती हैं जो पूरे समग्र में होती हैं। अत: प्रत्येक इकाई का अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं होती है। उदाहरण के लिए, अनाज मण्डी में गेहूं की किस्म को जानने के लिए पूरी ढेरी को उलटने-पलटने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि उसमें से एक मुट्ठी गेहूं लेकर उसकी किस्म का अनुमान लगा लिया जाता है।
प्रतिदर्श प्रणाली का महत्त्व : वर्तमान समय में प्रतिदर्श प्रणाली सांख्यिकीय अनुसन्धान की बहुत महत्त्वपूर्ण व लोकप्रिय प्रणाली हो गई है। अनुसन्धान के अनेक क्षेत्रों में इसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है। इस रीति के महत्त्व को बताते हुए प्रसिद्ध सांख्यिक नेडेकॉर (Snedecar) ने लिखा है, “केवल कुछ पौण्ड कोयले की जाँच के आधार पर एक गाड़ी कोयला स्वीकृत यो अस्वीकृत कर दिया जाता है। इसी तरह चिकित्सक अपने मरीज के खून की बूंदों की जाँच के आधार पर उसके रक्त के विषय में निष्कर्ष निकाल लेता है।
प्रतिदर्श प्रणाली के गुण :
1. कम खर्चीली : यह रीति कम खर्चीली है। इसके प्रयोग से धन, समय वे श्रम तीनों की बचत होती है।
2. गहन अनुसन्धान सम्भव : इस रीति के प्रयोग से गहन अनुसन्धान किया जा सकता है।
3. अधिक वैज्ञानिक : यह विधि ज्यादा वैज्ञानिक है, क्योंकि आँकड़ों की अन्य प्रतिदर्शों द्वारा जाँच की जा सकती है।
4. गलती की पहचान : इस विधि में केवल सीमान्त पदों का अध्ययन किया जाता है। इस कारण गलती की पहचान करना आसान होता है।
5. निष्कर्ष विश्वसनीय : इस विधि के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष पूर्णतः विश्वसनीय एवं शुद्ध होते हैं।
6. उपयुक्तता: कुछ विशेष दशाओं में; जैसे-समय की कमी, धन का अभाव आदि निदर्शन या प्रतिदर्श रीति ही ज्यादा उपयुक्त रहती है।
प्रतिदर्श प्रणाली के दोष :
1. उचित प्रतिदर्श के चयन में कठिनाई : सांख्यिकी अनुसन्धान से सही निष्कर्ष निकालने के लिए यह आवश्यक है। कि प्रतिदर्श ऐसा हो जिसमें समग्र की सभी विशेषताएँ आ जायें। व्यवहार में ऐसा प्रतिदर्श लेना सरल नहीं होता है।
2. पक्षपातपूर्ण : इस विधि में पक्षपातपूर्ण व्यवहार की बहुत सम्भावना रहती है। अनुसन्धानकर्ता प्रतिदर्श के रूप में ऐसी इकाइयों को चुन सकता है जो उसे पसन्द हो।
3. भ्रमात्मक निष्कर्ष : यदि प्रतिदर्श के चयन में थोड़ी भी लापरवाही हो जाती है, तो निष्कर्ष दोषपूर्ण हो सकते हैं।
4. सरलता का अभाव : यह रीति उतनी सरल नहीं होती है जितनी कि देखने में लगती है। यदि अनुसन्धानकर्ता को प्रतिदर्श चयन की पूरी तकनीक का ज्ञान न हो, तो उसके द्वारा लिए गए प्रतिदर्श के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष भी शुद्ध एवं विश्वसनीय नहीं होंगे।
5. विजातीय एवं अस्थिर समग्र में अनुपयुक्त : विजातीय एवं अस्थिर समग्र में प्रतिदर्श विधि उपयुक्त नहीं समझी जाती है, क्योंकि इकाइयों के स्वरूप व गुण में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। इस कारण प्रतिदर्श समग्र का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पाता है।
प्रश्न 8. प्रतिदर्श चयन की विभिन्न रीतियों को उनके गुण-दोषों के साथ वर्णन कीजिये।
उत्तर: प्रतिदर्श चयन की रीतियाँ-प्रतिदर्श की विभिन्न रीतियाँ निम्नलिखित हैं :
1. दैव प्रतिदर्श (Random sampling)
2. सविचार प्रतिदर्श (Purposive
sampling)
3. स्तरित प्रतिदर्श (Stratified sampling)
(1) दैव प्रतिदर्श : प्रतिदर्श लेने की यह सबसे अच्छी विधि मानी जाती है, क्योंकि इसमें प्रतिदर्श अनुसन्धानकर्ता के पक्षपातपूर्ण व्यवहार से प्रभावित नहीं होता है। इस विधि के अन्तर्गत समग्र की प्रत्येक इकाई के प्रतिदर्श के रूप में चुने जाने के वसर रहते हैं। इसका कारण यह है कि इस विधि में इकाइयों का चयन आकस्मिक ढंग से होता है। अनुसन्धानकर्ता अपनी इच्छा के अनुसार इकाइयों को नहीं छाँटता है, बल्कि यह कार्य दैव आधार पर किया जाता है। अतः इस विधि में समग्र की प्रत्येक इकाई के न्यादर्श या प्रतिदर्श में चुने जाने की सम्भावना रहती है। प्रो. एफ. येट्स के शब्दों में, “समग्र की प्रत्येक इकाई के प्रतिदर्श में शामिल होने का समान अवसर होता है।”
दैव प्रतिदर्श विधि से प्रतिदर्श चुनने के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित रीतियों का प्रयोग किया जाता है :
1. लॉटरी रीति
2. ढोल घुमाकर
3. आँख बन्द करके चयन
4. निश्चित क्रमे की व्यवस्थित रीति
5. दैव संख्याओं की तालिकाओं के चयन से।
गुण :
1. इस विधि में पक्षपात की सम्भावना नहीं रहती है।
2. इस विधि में धन, समय एवं श्रम की बचत होती है।
3. यह विधि सांख्यिकीय नियमितता नियम व महांक जड़ता नियम पर आधारित है। इस कारण चुने गए प्रतिदर्श में समग्र के सभी गुण पाये जाते हैं।
4. यह एक सरल विधि है।
5. इस रीति द्वारा प्राप्त प्रतिदर्श की जाँच दूसरे प्रतिदर्शों से की जा सकती है।
दोष :
1. यदि कुछ खास इकाइयों को उनके महत्त्व के कारण प्रतिदर्श में शामिल करना हो, तो यह विधि उपयुक्त नहीं रहती है।
2. यदि समग्र का आकार छोटा हो या उसमें विषमता ज्यादा हो, तो इस विधि के द्वारा लिए गए प्रतिदर्श समग्र का पूरी तरह प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते हैं।
3. यह विधि तभी उपयुक्त रहती है जबकि समग्र की सभी इकाइयाँ स्वतन्त्र हों।
(2) सविचार प्रतिदर्श : इस विधि में अनुसन्धानकर्ता समग्र में से अपनी इच्छानुसार प्रतिदर्श के रूप में ऐसी इकाइयों को चुन लेता है जो उसकी राय में समग्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रतिदर्श में किन इकाइयों को सम्मिलित किया जाए, यह पूर्णत: अनुसन्धानकर्ता की इच्छा पर निर्भर करता है। इस विधि का प्रयोग तभी करना चाहिए जबकि प्रतिदर्श में कुछ विशेष इकाइयों को शामिल करना आवश्यक हो। दैव प्रतिदर्श विधि में ऐसी इकाइयाँ चुनने से छूट भी सकती हैं। उदाहरण के लिए, यदि हमें कपड़ा उद्योग के सम्बन्ध में सर्वेक्षण करना है, तो रेमण्ड कम्पनी तथा रिलायन्स कम्पनी का अध्ययन आवश्यक है। दैव निदर्शन विधि अपनाने पर ये कम्पनियाँ जाँच से छूट सकती हैं।
गुण :
1. यह विधि अत्यन्त सरल है।
2. यह विधि बहुत कम खर्चीली है।
3. जब विशेष इकाइयों को प्रतिदर्श में शामिल करना आवश्यक हो, तो यह विधि उपयुक्त रहती है।
4. इस विधि में प्रतिदर्श के लिए यदि पहले से ही प्रमाप निश्चित कर लिया जाएँ, तो प्रतिदर्श का चयन सही हो जाता है।
दोष :
1. अनुसन्धानकर्ता के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण का प्रभाव पड़ता है।
2. यह वैज्ञानिक विधि नहीं है।
3. कई बार इस विधि में भ्रामक निष्कर्ष निकल जाते हैं।
4. इस विधि के द्वारा लिए गए प्रतिदर्श की सत्यता की कोई गारण्टी नहीं होती है।
(3) स्तरित प्रतिदर्श : इस रीति के अन्तर्गत सबसे पहले समग्र को विभिन्न विशिष्टताओं के आधार पर अनेक भागों में विभाजित कर लिया जाता है। इसके बाद प्रत्येक भाग से दैव प्रतिदर्श के आधार पर प्रतिदर्श का चयन किया जाता है। इस प्रकार यह रीति सविचार प्रतिदर्श रीति एवं दैव प्रतिदर्श रीति का मिला-जुला रूप है। उदाहरण के लिए, यदि किसी विद्यालय में 400 विद्यार्थी हैं, उनमें से 40 विद्यार्थियों को बौद्धिक स्तर का अध्ययन करने के लिए चुनना, तो पहले 400 विद्यार्थियों को प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी तथा असफल के आधार पर चार वर्गों में बाँट लिया जायेगा। यदि प्रथम में 100, द्वितीय श्रेणी में 150, तृतीय श्रेणी में 100 तथा फेल 50 विद्यार्थी हैं, तो 40 विद्यार्थी चुनने के लिये प्रत्येक वर्ग से 10% विद्यार्थियों का चुनाव कर लेंगे। इस प्रकार प्रत्येक श्रेणी से क्रमशः 10, 15, 10, 5 विद्यार्थियों का चुनाव किया जाएगा।
गुण :
1. यह रीति विषमता एवं विभिन्नता वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
2. इस रीति में सविचार प्रतिदर्श एवं दैव प्रतिदर्श दोनों रीतियों के लाभ प्राप्त होते हैं।
3. प्रतिदर्श समग्र का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं।
दोष :
1. जटिल पद्धति है।
2. इसमें अशुद्धता की सम्भावना रहती है।
3. अधिक ज्ञान की आवश्यकता होती है।
4. यदि किसी कारणवश वर्गों के निर्माण में त्रुटि हो जाये, तो निकाले गए निष्कर्ष भी दोषपूर्ण हो जाते हैं।
प्रश्न 9. प्रश्नावली किसे कहते हैं? प्रश्नावली व अनुसूची में क्या अंन्तर है? एक प्रश्नावली बनाते समय किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
> एक अच्छी प्रश्नावली के गुणों का वर्णन कीजिये।
उत्तर: प्रश्नावली से आशय : सांख्यिकीय अनुसन्धान के लिए चुने गए विषय से सम्बन्धित प्रश्नों की सूची को प्रश्नावली कहते हैं। प्रश्नावली डाक द्वारा सूचकों के पास भेजी जाती है जिनके द्वारा स्वयं प्रश्नों के उत्तर दिये जाते हैं। प्रश्नावली एवं अनुसूची दोनों में ही अनेकों प्रश्न दिये होते हैं मुख्य अन्तर यह है कि प्रश्नावली के प्रश्नों के उत्तर सूचक को स्वयं देने होते हैं, जबकि अनुसूची के प्रश्नों के उत्तर प्रगणक सूचकों से पूछकर भरते हैं।
प्रश्नावली व अनुसूची में अन्तर :
1. प्रश्नावली का प्रयोग विस्तृत क्षेत्र में किया जाता है जबकि अनुसूची का क्षेत्र सीमित होता है।
2. प्रश्नावली के प्रयोग के लिए सूचक का शिक्षित होना आवश्यक है जबकि अनुसूची के लिए यह आवश्यक नहीं है।
3. प्रश्नावली के प्रश्नों के उत्तर सूचक को लिखने होते हैं जबकि अनुसूची में ‘प्रगणकों द्वारा लिखे जाते हैं।
4. प्रश्नावली सूचको के पास डाक द्वारा भेजी जाती है जबकि अनुसूची को लेकर प्रगणकों को स्वयं सूचकों के पास जाना पड़ता है।
5. प्रश्नावली में धन व समय कम लगता है जबकि अनुसूची में ज्यादा लगता है।
6. प्रश्नावली में उत्तर सूचक को अपने विवेक से देने होते हैं। अनुसूची में प्रश्न समझने में प्रगणक की सहायता मिल जाती है।
एक अच्छी प्रश्नावली के गुण अथवा प्रश्नावली बनाते समय ध्यान देने योग्य बातें :
एक प्रश्नावली बनाते समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए जिससे वह एक अच्छी प्रश्नावली बन सके :
1. परिचय : अनुसन्धानकर्ता को प्रश्नावली के साथ अपना परिचय, अनुसन्धान का उद्देश्य स्पष्ट रूप से देना चाहिए तथा उसे यह भी आश्वासन देना चाहिए कि सूचकों द्वारा दी गई सूचनाएँ पूर्णतः गुप्त रखी जाएंगी।
2. प्रश्नों की कम संख्या : प्रश्नावली में प्रश्नों की संख्या कम रखनी चाहिए जिससे सूचना देने वाले आसानी से उत्तर दे सके। इसका आशय यह भी नहीं है कि प्रश्न इतने कम हो जाए कि अनुसन्धान का उद्देश्य ही पूरा न हो सके।
3. प्रश्न सरल व स्पष्ट : प्रश्न सरल तथा स्पष्ट होने चाहिए, जिससे सूचना देने वाला व्यक्ति उन्हें आसानी से समझ सके तथा प्रश्न का सही उत्तर दे सके। द्वि-अर्थी प्रश्न नहीं पूछने चाहिए।
4. प्रश्नों को उचित क्रम : प्रश्नावली में दिये जाने वाले प्रश्न उचित क्रम में होने चाहिए जिससे उत्तर देने में अनावश्यक देरी न हो।
5. संक्षिप्त उत्तर वाले प्रश्न : प्रश्न ऐसे होने चाहिए कि उनका उत्तर संक्षेप में दिया जाना सम्भव हो सके। यदि प्रश्न ऐसे हों जिनका उत्तर हाँ या नहीं में हो, तो बहुत अच्छा रहता है।
A. प्रश्नों की प्रकृति-प्रश्न निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं :
1. एक विकल्प वाले प्रश्न–जिनका उत्तर हाँ/नहीं या सही/गलत, स्त्री/पुरुष आदि में होता है।
2. बहु-विकल्पीय प्रश्न–ये प्रश्न बहु-विकल्पीय होते हैं, जिनके कई सम्भावित उत्तर हो सकते हैं। सम्भावित उत्तर प्रश्नावली में दिये होते हैं। सूचक उनमें से सही उत्तर पर निशान लगा देता है।
3. विशिष्ट प्रश्न-ये प्रश्न सूचक की विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए होते हैं। उदाहरण के लिए, आपकी आय क्या है? आपकी शैक्षिक योग्यता क्या है? आपके कितने लड़के-लड़कियाँ हैं आदि।।
4. खुले प्रश्न-ये ऐसे प्रश्न होते हैं जिनमें सूचक को किसी समस्या के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करने होते हैं; जैसे-आपके विचार में जातीय आधार पर जनगणना उचित है? आपके विचार में सांसदों एवं विधायकों को सांसद/विधायक निधि देना उचित है।
B. वर्जित प्रश्न : प्रश्नावली में ऐसे प्रश्न नहीं पूछने चाहिए जिनसे सूचक के आत्म-सम्मान, धार्मिक भावनाओं को ठेस । पहुँचे; जैसे-गुप्त बीमारी, पति-पत्नी सम्बन्ध। प्रश्न ऐसे भी नहीं होने चाहिए जिनसे सूचना देने वाले के मन में सन्देह, उत्तेजना या विरोध पैदा हो।
1. प्रश्न अनुसन्धान से सम्बन्धित : प्रश्नावली में पूछे जाने वाले प्रश्न पूर्णतः अनुसन्धान से सम्बन्धित होने चाहिए।
2. प्रश्नावली का गठन : प्रश्नावली का गठन भी उचित प्रकार किया जाना चाहिए, जिससे सूचक को उत्तर लिखने के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध हो।
3. सत्यता की जाँच : प्रश्नावली में ऐसे प्रश्न भी होने चाहिए जिनसे परस्पर उत्तरों की जाँच हो सके।
4. आवश्यक निर्देश : प्रश्नावली में दिये प्रश्नों का उत्तर देने के लिए प्रश्नावली के प्रारम्भ में या अन्त में आवश्यक निर्देश देने चाहिए जिससे सूचको को प्रश्नों के सही उत्तर देने में मदद मिले
5. योग्यतानुसार प्रश्न : प्रश्न सूचक की योग्यता के अनुसार होने चाहिए जिससे सूचक को प्रश्नों के उत्तर देने में कोई कठिनाई न हो।