पाठ के साथ
प्रश्न 1. बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या
असर पड़ता है?
उत्तर : बाजार का जादू चढ़ने पर व्यक्ति अधिक से अधिक वस्तु खरीदना चाहता है। तब वह सोचता है कि बाजार में बहुत कुछ है और उसके पास कम चीजें हैं। वह लालच में आकर गैर-जरूरी चीजों को भी खरीद लेता है। परन्तु जब बाजार का जादू उतर जाता है, तो उसे वे वस्तुएँ अर्थात् अपने द्वारा खरीदी गई वस्तुएँ अनावश्यक, निरर्थक एवं आराम में खलल डालने वाली लगती हैं।
प्रश्न 2. बाजार में भगतजी के व्यक्तित्व का कौनसा सशक्त पहलू उभर
कर आता है? क्या आपकी नजर में उनका आचरण समाज में शान्ति स्थापित करने में मददगार
हो सकता है?
उत्तर
: भगतजी बाजार में आँखें खोलकर चलते हैं, लेकिन बाजार की चमक-दमक देखकर वे
भौंचक्के नहीं होते। उन पर बाजार का जादू नहीं चलता, कोई असमंजस नहीं होता। वे
वहाँ सन्तुलित रहकर सब कुछ देखते रहते हैं, परन्तु उनके मन में कोई अप्रीति या
प्रीति का भाव नहीं आता है। वे खुली आँख, सन्तुष्ट मन और प्रसन्न हृदय से चौक
बाजार में चले जाते हैं। उन्हें काला नमक और जीरा खरीदना है। इसलिए वे पंसारी की
दुकान जाकर जरूरी सामान खरीद कर लौट आते हैं। इस तरह बाजार के प्रति उनका
व्यक्तित्व निर्लिप्त दिखाया गया है।
तजी
का ऐसा आचरण निश्चय ही समाज में शान्ति स्थापित करने में सहायक हो सकता है। समाज
में अधिक-से-अधिक सामान जोड़ने की भावना, दिखावे की प्रतिस्पर्धा से अशान्ति
उत्पन्न होती है। इसमें फिजूलखर्ची और महँगाई भी बढ़ती है। इच्छाओं का दमन न होने
से असन्तोष पनपता है, घृणा-द्वेष बढ़ता है। भगतजी के समान आचरण से समाज में शान्ति
स्थापित हो सकती है।
प्रश्न 3. 'बाजारूपन' से क्या तात्पर्य है?
किस प्रकार के व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाजार की सार्थकता किसमें
है?
उत्तर
: 'बाजारूपन'
का आशय है - ऊपरी चमक-दमक और कोरा दिखावा अर्थात् व्यवहार का सस्तापन, जिसके लिए व्यक्ति
किसी भी स्तर पर उतर आता है। इसी तरह व्यापारी बेकार की चीजों को आकर्षक बनाकर ग्राहकों
को ठगने लगते हैं, तो वहाँ बाजारूपन आ जाता है। ग्राहक भी जब क्रय-शक्ति के गर्व में
अपने पैसे से गैर-जरूरी चीजों को भी खरीद कर विनाशक शैतानी-शक्ति को बढ़ावा देते हैं,
तो वहाँ भी बाजारूपन बढ़ता है। इस प्रवृत्ति से न हम बाजार से लाभ उठा पाते हैं और
न बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं।
जो
लोग बाजार की चकाचौंध में न आकर अपनी आवश्यकता की ही वस्तुएँ खरीदते हैं, इसी
प्रकार दुकानदार भी ग्राहकों को उचित मूल्य पर आवश्यकतानुसार चीजें बेचते हैं,
उन्हें लोभ-लालच में रखकर ठगते नहीं हैं, इसमें भी बाजार की सार्थकता है।
प्रश्न 4. बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता;
वह देखता है सिर्फ उसकी क्रय-शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता
की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर
: बाजार का काम है-वस्तुओं का विक्रय करना। बाजार को तो ग्राहक चाहिए। उसे इस बात
से कोई. मतलब नहीं है कि वह ग्राहक कौन है, किस जाति या धर्म का है, पुरुष या
स्त्री है। वह तो सभी को ग्राहक के रूप में देखता है तथा उसकी क्रय-शक्ति से ही
मतलब रखता है। जो व्यक्ति चीजें खरीदने की शक्ति नहीं रखता है, बाजार के लिए वह
ग्राहक निरर्थक है।
इस
रूप में देखा जाए तो हम लेखक के इस मत से सहमत हैं कि बाजार जाति, धर्म, लिंग आदि
का भेद मिटाकर सामाजिक समता की भी रचना करता है। परन्तु हम एक बात से पूरे सहमत
नहीं हैं, क्योंकि क्रय-शक्ति न रखने वाला व्यक्ति स्वयं को दूसरों से हीन समझता
है तथा उसमें कुछ निराशा का भाव आ जाता है। बाजार में अमीर और गरीब ग्राहकों में
भेदभाव बढ़ता है, समता की हानि होती है तथा असन्तुष्टि तथा असंतोष का भाव उत्पन्न
होता है।
प्रश्न 5. आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें
(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।
(ख) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आयी।
उत्तर
: 'पैसा
पावर है' यह कथन आज के युग में सत्य प्रतीत होता है। पैसे में काफी शक्ति है और वह
व्यक्ति की अनेक कामनाओं की पूर्ति करने का साधन है। समाज में पैसे की शक्ति के उदाहरण
आये दिन देखे जाते हैं।
(क)
जिनके पास काफी पैसा है, उनके बच्चे कीमती मोटर-कारों में स्कूल जाते हैं, अधिकाधिक
फीस देकर प्रसिद्ध पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और डोनेशन के बल पर डाक्टर-इंजीनियर
बन जाते हैं। लेकिन गरीबों के बच्चे फटेहाल, पैदल ही चलकर टाट-पट्टी से मोहताज साधारण
स्कूलों में मुश्किल से पढ़ पाते हैं। इससे पैसे की शक्ति का परिचय सहज में मिल जाता
है। असमानता का स्तर इस तरह बढ़ते ही जाता है।
(ख)
जयपुर शहर के एक प्रसिद्ध व्यवसायी एवं धन्नासेठ के जवान बेटे को कैंसर हो गया। उसके
उपचार में पानी की तरह पैसा खर्च किया गया और बड़े-बड़े डाक्टरों से महँगा इलाज करवाया
गया, परन्तु वह नहीं बचाया जा सका। इस तरह उसकी जीवन-रक्षा में पैसे की शक्ति काम नहीं
आयी।
पाठ के आसपास
प्रश्न 1. 'बाजार दर्शन' पाठ में बाजार जाने
या न जाने के सन्दर्भ में मन की कई स्थितियों का जिक्र आया है। आप इन स्थितियों से
जुड़े अपने अनुभवों का वर्णन कीजिए
(क) मन खाली हो।
उत्तर
: मन खाली हो-मैं बाजार की चौंधियाती सजावट को देखकर अटक जाता हूँ और अनावश्यक चीजों
की चमक से आकृष्ट होकर उन्हें खरीद लाता हूँ। उदाहरण के लिए मैं एक बार रिमोट से उड़ने
वाला एक खिलौना जहाज खरीद लाया। वह घर पर एक दिन चला भी, परन्तु दूसरे दिन वह खराब
हो गया। इस तरह उसे खरीदने में पैसा व्यर्थ ही खर्च कर डाला।
(ख) मन खाली न हो
उत्तर
: मन खाली न हो-मन खाली न होने से व्यक्ति बाजार की चकाचौंध से आकृष्ट नहीं होता है
तथा फिजूल की चीजें भी नहीं खरीदता है। जैसे मैं प्रतिदिन केवल सब्जी खरीदने जाता हूँ
और केवल सब्जियाँ खरीद कर ही लौट आता हूँ। मैं बाजार की अन्य चीजों को देखता तक नहीं।
(ग) मन बन्द हो
उत्तर
: मन बन्द हो-जब मन बन्द हो, तो कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती है। जैसे मिठाई का मधुर
स्वाद अरुचिकर लगता है, बाजार की सजावट एवं रोशनी फीकी लगती है, कोई भी वस्तु आकर्षक
नहीं लगती है। तब वह व्यक्ति बाजार से तुरन्त लौट आता है।
(घ) मन में नकार हो।
उत्तर
: मन में नकार हो-मन में नकारात्मक भाव रखने से बाजार पूरी तरह छल-कपट वाला लगता है।
उदाहरण के लिए मावे की मिठाई में नकली मावे का मिश्रण लगता है, आईसक्रीम सेक्रीन मिली
लगती है, फैशन के कपड़े बेढंगे लगते हैं और सारे व्यापारी ठग लगते हैं।
प्रश्न 2. 'बाजार दर्शन' पाठ में किस प्रकार
के ग्राहकों की बात हुई है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते/मानती हैं?
उत्तर
: 'बाजार
दर्शन' पाठ में मुख्य रूप से निम्न चार प्रकार के ग्राहकों का उल्लेख हुआ है -
1.
संयमी और बुद्धिमान ग्राहक,
2.
आवश्यकतानुसार खरीदने वाले ग्राहक,
3.
बाजारूपन बढ़ाने वाले ग्राहक,
4.
पर्चेजिंग पावर का प्रदर्शन करने वाले ग्राहक।
वैसे
कोई भी व्यक्ति सदा एक ही प्रकार का ग्राहक नहीं रहता है। समय और आवश्यकता के
अनुसार ग्राहकों में परिवर्तन आ जाता है। मैं अपने आपको आवश्यकतानुसार वस्तुएँ
खरीदने वाला ग्राहक मानता हूँ। मैं उसी वस्तु को खरीदना पसन्द करता हूँ, जिसकी
जरूरत हो। गैर-जरूरी एवं फालतू चीजों को खरीदना मैं फिजूलखर्ची मानता हूँ और इसी
बात का सदा ध्यान रखता हूँ।
प्रश्न 3. आप बाजार की भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति से अवश्य
परिचित होंगे। मॉल की संस्कृति और सामान्य बाजार और हाट की संस्कृति में आप क्या
अन्तर पाते हैं? पर्चेजिंग पावर आपको किस तरह के बाजार में नजर आती है?
उत्तर
: हम बाजार की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों से अच्छी तरह परिचित हैं। मॉल की संस्कृति
चकाचौंध और दिखावे की होती है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के टैग के नाम पर वहाँ पर दो
सौ रुपये की चीज पाँच सौ में मिलती है। फिर भी पर्चेजिंग पावर वाले लोग बड़ी शान से
वहाँ आकर चीजें खरीद लाते हैं। वस्तुतः मॉलं में उच्च वर्ग के लोग अपनी जरूरतों के
मुताबिक नहीं, क्रय-शक्ति के हिसाब से खरीददारी करते हैं।
सामान्य
हाट-बाजार में वस्तुएँ वाजिब मूल्य पर मिलती हैं। वहाँ सामान्य लोग ग्राहक होते
हैं और पर्चेजिंग पावर का दुरुपयोग नहीं होता है। वे अपनी जेब का ध्यान रख कर उचित
मोल-भाव करके जरूरी वस्तुएँ खरीदते हैं।
प्रश्न 4. लेखक ने पाठ में संकेत किया है कि कभी-कभी बाजार में
आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? तर्क
सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर
: हम लेखक के इस मत से सहमत हैं। बाजार की शक्तियाँ अर्थात् मांग अधिक और पूर्ति
कम होने से व्यापारी मूल्य-वृद्धि कर देते हैं। इस तरह माँग अधिक होने से दुकानदार
शोषण और लूट पर उतर आते हैं। उदाहरण के लिए बाजार में चीनी, प्याज एवं दालों के
दाम आसमान छू रहे हैं, फिर भी कम मिल रहे हैं। इसका मूल कारण लोगों की आवश्यकता या
माँग की अधिकता है। जो शोषण का ही रूप है।
प्रश्न 5. 'स्त्री माया न जोड़े' यहाँ 'माया'
शब्द किस ओर संकेत कर रहा है? स्त्रियों द्वारा माया जोड़ना प्रकृति-प्रदत्त नहीं,
बल्कि परिस्थितिवश है। वे कौनसी परिस्थितियाँ होंगी जो स्त्री को माया जोड़ने के लिए
विवश कर देती हैं?
उत्तर
: स्त्री को घर-गृहस्थी चलानी होती है, उसे घर की सुविधाओं एवं जरूरतों का ध्यान
रखना पड़ता है। 'माया' शब्द से धन-सम्पत्ति तथा सांसारिक आकर्षण की ओर संकेत हुआ
है। घर-गृहस्थी की जरूरतों की पूर्ति को लेकर पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ कुछ
अधिक ही सचेष्ट रहती हैं। माया जोड़ना या साधन-सुविधाओं का विस्तार करना प्रत्येक
व्यक्ति चाहता है, यह प्रकृति-प्रदत्त गुण है, परन्तु कभी-कभी परिस्थितिवश भी ऐसा
करना पड़ता है।
जैसे
स्त्रियाँ स्वयं को सुन्दर, सजी-धजी एवं सम्पन्न दिखाने की इच्छा रखती हैं। इस
कारण वे क्रीम-पाउडर आदि प्रसाधन सामग्री, घर का सजावटी सामान तथा नये कपड़े आदि
के साथ आभूषणों की खरीद करती हैं। इस तरह की प्रवृत्तियों के कारण वे माया को
जोड़ने में विवश हो जाती हैं।
आपसदारी
प्रश्न 1. 'जरूरत-भर जीरा वहाँ से ले लिया
कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है'-भगतजी की इस सन्तुष्ट
निस्पृहता की कबीर की इस सूक्ति से तुलना कीजिए-
चाह गई चिंता गई मनुआँ बेपरवाह
जाके कछु न चाहिए सोइ सहंसाह।
- कबीर
उत्तर
: भगतजी बाजार के आकर्षण से एकदम मुक्त रहते हैं, वे निर्लोभ एवं निस्पृह रहते
हैं। इस कारण वे बाजार से उतना ही सामान खरीदते हैं, जितनी उनकी आवश्यकता है। कबीर
का यह दोहा भी यही व्यक्त करता है कि चाह मिट जाने से, किसी तरह का लगाव न रखने से
व्यक्ति निश्चिन्त और सन्तुष्ट रहता है।
प्रश्न 2. विजयदान देथा की कहानी 'दुविधा' (जिस पर 'पहेली' फिल्म
बनी है) के अंश को पढ़ कर आप देखेंगे कि भगतजी की सन्तुष्ट जीवन-दृष्टि की तरह ही
गड़रिए की जीवन-दृष्टि है, इससे आपके भीतर क्या भाव जगते हैं?
गड़रिया बगैर कहे ही उसके दिल की बात समझ गया, पर अंगूठी कबूल नहीं
की। काली दाढ़ी के बीच पीले दाँतों की हँसी हँसते हुए बोला-'मैं कोई राजा नहीं हूँ
जो न्याय की कीमत वसूल करूँ। मैंने तो अटका काम निकाल दिया। और यह अंगूठी मेरे किस
काम की। न यह अंगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह गँवार
हैं। घास तो खाती हैं, पर सोना सूंघती तक नहीं। बेकार की वस्तुएँ तुम अमीरों को ही
शोभा देती हैं।' - विजयदान देथा
उत्तर
: विद्यार्थी विजयदान देथा की यह कहानी पढ़ें और 'पहेली' फिल्म देखें। गड़रिए की
जीवन-दृष्टि से हमारे हृदय में यह भाव जागता है कि आवश्यकताओं को सीमित रखने से ही
जीवन में सुख-शान्ति मिलती है। अतः लोभ लालच के आकर्षण में कभी नहीं आना चाहिए।
प्रश्न 3. बाजार पर आधारित लेख 'नकली सामान पर नकेल जरूरी' का अंश
पढ़िए और नीचे दिए गए बिन्दुओं पर कक्षा में चर्चा कीजिए।
(क)
नकली सामान के खिलाफ जागरूकता के लिए आप क्या कर सकते हैं?
(ख)
उपभोक्ताओं के हित को मद्देनजर रखते हुए सामान बनाने वाली कम्पनियों के क्या नैतिक
दायित्व
(ग)
ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे छिपी मानसिकता को उजागर कीजिए।
नकली
सामान पर नकेल जरूरी
अपना
क्रेता वर्ग बढ़ाने की होड़ में एफएमसीजी यानी तेजी से बिकने वाले उपभोक्ता उत्पाद
बनाने वाली कम्पनियाँ गाँव के बाजारों में नकली सामान भी उतार रही हैं। कई उत्पाद
ऐसे होते हैं जिन पर न तो है और न ही उस तारीख का जिक्र होता है जिससे पता चले कि
अमक सामान के इस्तेमाल की अवधि समाप्त हो चकी है। आउटडेटेड या पुराना पड़ चुका
सामान भी गाँव-देहात के बाजारों में खप रहा है। ऐसा उपभोक्ता मामलों के जानकारों
का मानना है। नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिडेसल कमीशन के सदस्य की मानें तो
जागरूकता अभियान में तेजी लाए बगैर इस गोरखधंधे पर लगाम कसना नामुमकिन है।
.उपभोक्ता
मामलों की जानकार पुष्पा गिरि माँजी का कहना है, "इसमें दो राय नहीं कि गाँव-देहात
के बाजारों में नकली सामान बिक रहा है। महानगरीय उपभोक्ताओं को अपने शिकंजे में कसकर
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, खासकर ज्यादा उत्पाद बेचने वाली कम्पनियाँ, गाँव का रुख कर
चुकी हैं। वे गाँव वालों की अज्ञानता और उनके बीच जागरूकता के अभाव का पूरा फायदा उठा
रही हैं। उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए कानून जरूर हैं लेकिन कितने लोग इनका
सहारा लेते हैं यह बताने की जरूरत नहीं। गुणवत्ता के मामले में जब शहरी उपभोक्ता ही
उतने सचेत नहीं हो पाए हैं तो गाँव वालों से कितनी उम्मीद की जा सकती है।"
इस
बारे में नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल कमीशन के सदस्य जस्टिस एस.एन. कपूर
का कहना है, "टीवी ने दूर-दराज के गाँवों तक में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को
पहुँचा दिया है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ विज्ञापन पर तो बेतहाशा पैसा खर्च करती हैं
लेकिन उपभोक्ताओं में जागरूकता को लेकर वे चवन्नी खर्च करने को तैयार नहीं हैं।
नकली सामान के खिलाफ जागरूकता पैदा करने में स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी मिलकर
ठोस काम कर सकते हैं। ऐसा कि कोई प्रशासक भी न कर पाए।"
बेशक,
इस कड़वे सच को स्वीकार कर लेना चाहिए कि गुणवत्ता के प्रति जागरूकता के लिहाज से
शहरी समाज भी कोई ज्यादा सचेत नहीं है। यह खुली हुई बात है कि किसी बड़े ब्रांड का
लोकल संस्करण शहर या महानगर का मध्य या निम्न मध्य वर्गीय उपभोक्ता भी खुशी-खुशी
खरीदता है। यहाँ जागरूकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि वह ऐसा सोच-समझकर और
अपनी जेब की हैसियत को जानकर ही कर रहा है। फिर गाँववाला उपभोक्ता ऐसा क्यों न
करे। पर फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यदि समाज में कोई गलत काम हो रहा है तो उसे
रोकने के जतन न किए जाएँ। यानी नकली सामान के इस गोरखधंधे पर विराम लगाने के लिए जो
कदम या अभियान शुरू करने की जरूरत है वह तत्काल हो।
-
हिन्दुस्तान, 6 अगस्त 2006, साभार
उत्तर
:
(क)
वर्तमान में दूरदर्शन पर तथा मीडिया द्वारा 'जागो ग्राहक' का प्रसारण हो रहा है। सरकार
द्वारा उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए न्याय व्यवस्था कर रखी है। हम सभी लोगों को नकली
सामान के खिलाफ सावधान कर सकते हैं। कोई भी नकली सामान न तो खरीदे और न बेचे, इस हेतु
जन-जागरण कर सकते हैं।
(ख)
उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखकर सामान बनाने वाली कम्पनियों का यह दायित्व है
कि वे घटिया एवं नकली सामान नहीं बेचें। पुराने पड़े माल को या समयावधि समाप्त हुए
माल को नया बनाकर बाजार में न भेजें। माल उचित मूल्य पर तथा उच्च कोटि का तैयार करना
कम्पनियों का नैतिक दायित्व बनता है।
(ग)
ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे यह मानसिकता रहती है कि उसे अच्छी गुणवत्ता वाली
माना जाता है। ब्रांडेड वस्तु महँगी भी होती है, परन्तु क्रय-शक्ति रखने वाले लोग उन्हें
खरीदना अपनी शान समझते हैं। यह उनकी दिखावे की प्रवृत्ति होती है।
प्रश्न 4. प्रेमचन्द की कहानी 'ईदगाह' के हामिद और उसके दोस्तों का
बाजार से क्या सम्बन्ध बनता है? विचार करें।
उत्तर
: 'ईदगाह'
कहानी में हामिद के दोस्त खिलौने एवं मिठाइयाँ खरीदते हैं। वे बाजार के आकर्षण में
आकर कम उपयोगी सामान खरीद लेते हैं। वे भरी जेब खाली मन वाले ग्राहकों की श्रेणी में
आते हैं। हामिद अपनी दादी के कष्ट का ध्यान रखकर चिमटा खरीदता है। वह खाली जेब भरे
मन वाले ग्राहक की तरह बाजार के आकर्षण में न आकर नितान्त उपयोगी चीज खरीद कर अपनी
समझदारी दिखाता है।
विज्ञापन की दुनिया
प्रश्न 1. आपने समाचारपत्रों, टी.वी. आदि पर अनेक प्रकार के
विज्ञापन देखे होंगे जिनमें ग्राहकों को हर तरीके से लुभाने का प्रयास किया जाता
है। नीचे लिखे बिन्दुओं के सन्दर्भ में किसी एक विज्ञापन की समीक्षा कीजिए और यह
भी लिखिए कि आपको विज्ञापन की किस बात ने सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया -
1. विज्ञापन में सम्मिलित चित्र और विषय-वस्तु
2. विज्ञापन में आए पात्र व उनका औचित्य
3. विज्ञापन की भाषा।
उत्तर
:
1.
दूरदर्शन एवं समाचारपत्रों में टूथ ब्रश एवं टूथ पाउडर के अनेक कम्पनियों के विज्ञापन
आते हैं, उन्हें देखिए।
2.
ऐसे विज्ञापनों में जो डॉक्टर दिखाया जाता है, वह असली नहीं होता है, जो चमकदार दाँत
एवं मसूड़े दिखाये जाते हैं, वे भी किसी स्वस्थ आदमी के न होकर नकली होते हैं।
3.
विज्ञापन की भाषा प्रभावपूर्ण होती है। स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ न करें, मुँह को स्वच्छ-सुगन्धित
रखें, दाँतों से सड़न भगायें इत्यादि वाक्यों से विज्ञापन की भाषा रोचक बनायी जाती
है।
प्रश्न 2. अपने सामान की बिक्री को बढ़ाने के लिए आज किन-किन
तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है? उदाहरण सहित उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए। आप
स्वयं किस तकनीक या तौर-तरीके का प्रयोग करना चाहेंगे जिससे बिक्री भी अच्छी हो और
उपभोक्ता गुमराह भी न हो।
उत्तर
: उत्पादक एवं व्यापारी अपना सामान बेचने के लिए अनेक तरीकों का प्रयोग करते हैं।
जैसे -
अपने
एजेंट रखना, जो घर-घर जाकर सामान दिखाकर प्रचार करें।
दूरदर्शन
एवं समाचार-पत्रों में विज्ञापन देना।
पोस्टर
चिपकाना या पैम्फलेट छपवाकर वितरित करना।
दामों
की कटौती की घोषणा कर सेल लगाना।
माल
का मूल्य किस्तों में लेना या एक्सचेंज की सुविधा देना।
उपभोक्ता
को आकृष्ट करने के सभी तरीके अच्छे हैं, किन्तु हम ऐसा तरीका अपनाना चाहेंगे कि उपभोक्ता
गुमराह . न हो, उसके साथ धोखाधड़ी न हो और उसका शोषण भी न हो। इसलिए हम सही या
वाजिब मूल्य रखने एवं सामान प्रचार करेंगे और इस बात पर पूरी ईमानदारी दिखायेंगे।
भाषा की बात
प्रश्न 1. विभिन्न परिस्थितियों में भाषा का प्रयोग भी अपना रूप
बदलता रहता है कभी औपचारिक रूप में आती है तो कभी अनौपचारिक रूप में। पाठ में से
दोनों प्रकार के तीन-तीन उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर
: औपचारिक वाक्य -
1.
लोग संयमी होते हैं।
2.
चूरन वाले भगतजी पर बाजार का जादू नहीं चल सकता।
3.
एक बार की बात
अनौपचारिक
वाक्य -
1.
उसकी महिमा का मैं कायल हूँ।
2.
बाजार है कि शैतान का जाल है।
3.
वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है।
प्रश्न 2. पाठ में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जहाँ लेखक अपनी बात कहता
है, कुछ वाक्य ऐसे हैं जहाँ वह पाठक वर्ग को सम्बोधित करता है। सीधे तौर पर पाठक
को सम्बोधित करने वाले पाँच वाक्यों को छाँटिए और सोचिए कि ऐसे सम्बोधन पाठक से
रचना पढ़वा लेने में मददगार होते हैं।
उत्तर
:
(क)
लेकिन ठहरिए। इस सिलसिले में एक भी महत्त्व का तत्त्व है, जिसे नहीं भूलना चहाइए।
(ख)
कहीं आप भूल न कर बैठिएगा।
(ग)
यह समझिएगा कि लेख के किसी भी मान्य पाठक से उस चूरन वाले को श्रेष्ठ बताने की मैं
हिम्मत कर सकता हूँ।
(घ)
पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए।
(ङ)
यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं।
ऐसे
संबोधन पाठकों में रोचकता बनाए रखते हैं। पाठकों को लगता है कि लेखक प्रत्यक्ष रूप
में न होते हुए भी उनके साथ जुड़ा हुआ है। उन्हें लेख रोचक लगता है और वे आगे
पढ़ने के लिए विवश हो जाते हैं।
प्रश्न 3. नीचे दिए गए वाक्यों को पढ़िए -
(क) पैसा पावर है।
(ख) पैसे की उस पर्चेजिंग पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है।
(ग) मित्र ने सामने मनीबैग फैला दिया।
(घ) पेशगी ऑर्डर कोई नहीं लेते।
ऊपर दिए गए इन वाक्यों की संरचना तो हिन्दी भाषा की है लेकिन
वाक्यों में एकाध शब्द अंग्रेजी भाषा के आए हैं। इस तरह के प्रयोग को कोड मिक्सिंग
कहते हैं। एक भाषा के शब्दों के साथ दूसरी भाषा के शब्दों का मेलजोल! अब तक आपने
जो पाठ पढ़े उसमें से ऐसे कोई पाँच उदाहरण चुनकर लिखिए। यह भी बताइए कि आगत शब्दों
की जगह उनके हिन्दी पर्यायों का ही प्रयोग किया जाए तो सम्प्रेषणीयता पर क्या
प्रभाव पड़ता है।
उत्तर
: पाँच उदाहरण -
1.
मित्र बाजार गये थे कोई मामूली चीज लेने, पर लौटे तो एकदम बहुत-से बण्डल उनके पास थे।
2.
राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं।
3.
सफ़िया फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में बैठी थी।
4.
वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात् पैसे की गरमी या एनर्जी।
5.
परन्तु इस उदारता के डाइनामाइट ने क्षणभर में उन्हें उड़ा दिया।
ऊपर
दिये गये वाक्यों की रचना हिन्दी भाषा की है। इनमें प्रयुक्त अंग्रेजी एवं उर्दू
शब्दों के हिन्दी पर्याय मिल जाते हैं, परन्तु वाक्य में अभिव्यक्ति की सहजता,
प्रखरता एवं सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से इस तरह के भाषागत मिश्रित प्रयोग उचित
रहते हैं।
प्रश्न 4. नीचे दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश पर ध्यान देते हुए
उन्हें पढ़िए -
(क) निर्बल ही धन की ओर झुकता है।
(ख) लोग संयमी भी होते हैं।
(ग) सभी कुछ तो लेने को जी होता था।
ऊपर दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश 'ही', 'भी', 'तो' निपात हैं जो
अर्थ पर बल देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। वाक्य में इनके होने-न-होने और
स्थान क्रम बदल देने से वाक्य के अर्थ पर प्रभाव पड़ता है, जैसे
मुझे भी किताब चाहिए। (मुझे महत्त्वपूर्ण है।) मुझे किताब भी
चाहिए।(किताब महत्त्वपूर्ण है।)
आप निपात (ही, भी, तो) का प्रयोग करते हुए तीन-तीन वाक्य बनाइए।
साथ ही ऐसे दो वाक्यों का भी निर्माण कीजिए जिसमें ये तीनों निपात एक साथ आते हों।
उत्तर
:
ही-1. राम ही यह काम करेगा।
2.
लड़कियाँ ही समझदार होती हैं।
3.
स्वयं को ही मूर्ख मत मानो।
भी
- 1. वह कल भी आयेगा।
2.
रामू को भी काम करना पड़ेगा।
3.
विद्यार्थी भी काफी चतुर हैं।
तो
- 1. पुस्तक तो उठाओ।
2.
चलो तो सही।
3.
पर उसने तो अनर्थ कर दिया।
तीनों
का एक-साथ प्रयोग
1.
वह तो जा ही रहा था, पर वे भी उसके साथ चल पड़े।
2.
आम जनता ही नहीं नेता भी कर्तव्यपालन करें तो देश की प्रगति होगी। चर्चा करें
प्रश्न 1. पर्चेजिंग पावर से क्या अभिप्राय है?
बाजार की चकाचौंध से दूर पर्चेजिंग पावर का सकारात्मक उपयोग किस
प्रकार किया जा सकता है? आपकी मदद के लिए संकेत दिया जा रहा है -
(क) सामाजिक विकास के कार्यों में।
(ख) ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में..।
उत्तर
: पर्चेजिंग पावर से अभिप्राय है- क्रय-शक्ति, अर्थात् इच्छित वस्तुओं की खरीद
पाने की क्षमता।
(क)
पर्चेजिंग पावर का सकारात्मक उपयोग करने के लिए उन वस्तुओं का अधिकाधिक क्रय करना चाहिए,
जिनसे सामाजिक विकास के कार्यों को बढ़ावा मिले।
(ख)
ग्रामीण क्षेत्रों में लघु-कुटीर उद्योगों के द्वारा उत्पादित वस्तुओं को अधिकाधिक
खरीदने से उनकी आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ होगी। ग्रामीण हाट-बाजारों में उचित मूल्य की
वस्तुएँ खरीदने से पर्चेजिंग पावर का सदुपयोग भी हो जायेगा।
बहुविकल्पीय प्रश्न
1. बाजार के
जादू की तुलना किससे की गई है ?
(अ) धनाकर्षण से
(ब) चुंबक के
आकर्षण से
(स) मन के आकर्षण से
(द) इनमें से कोई नहीं
2. लेखक के मित्र
बाजार में क्या लेने गए थे ?
(अ) एक मामूली
चीज
(ब) बहुत-सा घर का सामान
(स) फर्नीचर
(द) इनमें से कोई नहीं
3. किसके कारण
भगत जी का मन बाजार के आकर्षण से विचलित नहीं होता ?
(अ) चूरन बेचने में व्यस्त
रहने से
(ब) पैसों का अभाव होने के
कारण
(स) निश्चित
प्रतीति के बल के कारण
(द) इनमें से कोई नहीं
4. बाजारवाद
को किससे बढ़ावा मिलता है?
(अ) मन के भरे होने से
(ब) जेब के खालीपन से
(स) मन के खालीपन
से
(द) धन अधिक होने से
5. लेखक के अनुसार,
बाजार कब जाना चाहिए ?
(अ) जब मन खाली
न हो
(ब) जब मन खाली हो
(स) जब पैसे ज्यादा हों
(द) जब पैसे ज्यादा न हों
6. आदिकाल से
सामान खरीदने के विषय में किसकी प्रमुखता प्रमाणित है ?
(अ) पति की
(ब) पत्नी की
(स) पति-पत्नी दोनों की
(द) धन की
7. लेखक के अनुसार
कपट के बाजार हैं-
(अ) मानवता के लिए सहायक
(ब) मानवता को बढ़ावा देने
वाले
(स) मानवता के
लिए विडंबना
(द) इनमें से कोई नहीं
8. जहाँ सद्भाव
का ह्रास हो, ऐसे बाजार को लेखक ने किसका बाजार बनाया है ?
(अ) कपट का बाजार
(ब) सद्भाव का बाजार
(स) निष्कपट बाजार
(द) हानिरहित बाजार
9. लेखक के अनुसार,
शून्य होने का अधिकार केवल किसका है?
(अ) प्रत्येक मनुष्य का
(ब) संतोषी व्यक्ति का
(स) परमात्मा
का
(द) प्रत्येक जीव का
10. पैसे की
व्यंग्य शक्ति किसके सामने नहीं चलती ?
(अ) आत्मिक शक्ति के सामने
(ब) धार्मिक शक्ति के सामने
(स) नैतिक शक्ति के सामने
(द) उपरोक्त
सभी
11. 'बाजार दर्शन'
पाठ के लेखक कौन हैं ?
(अ) जैनेंद्र
कुमार
(ब) रामवृक्ष बेनीपुरी
(स) रामचंद्र शुक्ल
(द) महादेवी वर्मा
12. लेखक के
अनुसार, किस हालत में बाजार के जादू का असर खूब होता है ?
(अ) जब जेब भरी
हो और मन खाली हो
(ब) जब जेब और मन दोनों खाली
हों
(स) जब जेब खाली भी न हो और
मन भरा हुआ हो
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं
13. लोग भगत
जी का चूरन लेने को क्यों उत्सुक रहते हैं ?
(अ) उनका चूरन उन्हें अच्छा
लगता है।
(ब) वे उनसे
सद्भावना रखते हैं
(स) वे बालकों को मुफ्त में
चूरन देते हैं
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं
14. लेखक के
अनुसार ज्यादातर लोग सामान किसके कारण खरीदते हैं?
(अ) जरूरत के कारण
(ब) अपनी पत्नी के कारण
(स) पर्चेजिंग
पावर के कारण
(द) इनमें से कोई नहीं
15. 'सद्भाव
के ह्रास' की परिणति क्या है?
(अ) ग्राहक द्वारा पैसे की
शक्ति दिखाना
(ब) ग्राहक द्वारा अधिक सामान
खरीदना
(स) दुकानदार द्वारा निरर्थक
वस्तुएँ बेचना
(द) उपरोक्त
सभी
16. बाजार मनुष्य
को कैसे बेकार बना देता है ?
(अ) असंतोष से घायल करके
(ब) तृष्णा से घायल करके
(स) ईर्ष्या से घायल करके
(द) उपरोक्त
सभी
17. ' बाजार
दर्शन' से लेखक का क्या आशय है ?
(अ) बाजार के बारे में विवरण
(ब) बाजार की ओर लोगों का आकर्षण
(स) बाजार की सार्थकता
(द) उपरोक्त
सभी
18. लेखक के
अनुसार, ठाठ देकर मन को बंद करके रखना क्या है?
(अ) बुद्धिमता
(ब) मूर्खता
(स) चेतनता
(द) इनमें से कोई नहीं
19. बाजार में
खड़े होकर व्यक्ति को क्या लगता है?
(अ) यहाँ कितना परिमित है और
मेरे पास कितना अतुलित
(ब) यहाँ कितना
अतुलित है और मेरे पास कितना कम
(स) (अ) और (ब) दोनों
(द) इनमें से कोई नहीं
20. 'बाजार दर्शन'
पाठ में किस सद्भाव के ह्यस' की बात की गई है ?
(अ) दुकानदार के सद्भाव की
(ब) ग्राहक के सद्भाव की
(स) (अ) और
(ब) दोनों
(द) इनमें से कोई नहीं
21. लेखक के
अनुसार कपट वाले बाजार का पोषण करने वाला शास्त्र कैसा होता है?
(अ) सरासर औंधा
(ब) मायावीशास्त्र
(स) अनीति शास्त्र
(द) ये सभी
22. लेखक ने
चूरन वाले को किसकी संज्ञा दी है ?
(अ) किसी भी मान्य पाठक से
श्रेष्ठ
(ब) अपदार्थ प्राणी
(स) अडिग व संतोषी व्यक्ति
(द) उपरोक्त
सभी
23. बाजार की
चकाचौंध किन व्यक्तियों को आकर्षित नहीं करती ?
(अ) जिनका एक
निश्चित लक्ष्य होता है
(ब) जिनकी आवश्यकताएँ कम होती
हैं।
(स) जिनका मन रिक्त होता है
(द) इनमें से कोई नहीं
24. 'बाजार दर्शन'
पाठ में लेखक ने किसे स्पष्ट किया है?
(अ) बाजारवाद को
(ब) उपभोक्तावाद को
(स) बाजार की सार्थकता को
(द) उपरोक्त
सभी
25. पैसे की
व्यंग्य - शक्ति क्या कर सकती है?
(अ) सर्गों के प्रति कृतज्ञ
(ब) सगों के
प्रति कृतघ्न
(स) अकिंचन बना सकती है
(द) इनमें से कोई नहीं
26. पैसे की
व्यंग्य शक्ति किस शक्ति के आगे चूर-चूर हो जाती है?
(अ) नैतिक सबलता
(ब) धार्मिक विश्वास
(स) अध्यात्मिकता
(द) ये सभी
27. मोटर गाड़ी
से वंचित होना लेखक को क्या प्रतीत होता है ?
(अ) प्रतिष्ठा
(ब) विडंबना
(स) आकर्षण
(द) निर्धनता
28. लेखक के
अनुसार, बाजार के जादू की क्या मर्यादा है ?
(अ) वह केवल
उन लोगों पर असर करता है, जिनके मन खाली होते हैं
(ब) वह केवल उन लोगों पर असर
करता है, जो वस्तु खरीदने आते हैं।
(स) वह केवल अमीर लोगों पर
असर करता है
(द) वह केवल गरीब लोगों पर
असर करता है
29. भगत जी सदैव
किस नियम पर डटे रहते थे ?
(अ) कम चूरन बेचना
(ब) बाजार का मोल-भाव न करना
(स) छः आने से
अधिक का चूरन न बेचना
(द) बच्चों को कम कीमत पर चूरन
बेचना
30. बाजार लोगों
को आमंत्रित क्यों करता है ?
(अ) नया सामान खरीदने के लिए
(ब) ग्राहकों
को लूटने के लिए
(स) नए उत्पाद से अवगत कराने
के लिए
(द) अपना स्वरूप दिखाने के
लिए
31. ‘मैं तुम्हारे
लिए हूँ’ पंक्ति में 'मैं' शब्द किसके लिए प्रयोग हुआ है ?
(अ) लेखक के लिए
(ब) ग्राहक के लिए
(स) उत्पादक के लिए
(द) बाजार के
लिए
32. मूक आमंत्रण
कौन-सा कार्य करता है?
(अ) शांति बनाए रखने का
(ब) ग्राहक में
चाह जगाने का
(स) बिना कारण बोलने का
(द) अपनी विशिष्ट पहचान बनाने
का
33. संयमी व्यक्ति
पैसे के प्रयोग की आवश्यकता क्यों नहीं समझते हैं ?
(अ) पैसे जोड़ने
पर मन गर्व से भरा रहने के कारण
(ब) पैसे की आवश्यकता न समझ
पाने के कारण
(स) पैसे को फिजूल सामान समझने
के कारण
(द) पैसे की पावर का सही उपयोग
करने के कारण
34. फिजूल सामान
को फिजूल कौन समझते हैं ?
(अ) बुद्धिहीन
(ब) संयमी
(स) क्रूर
(द) अमानवीय
35. 'पैसा बहाने
से क्या अभिप्राय है?
(अ) फिजूलखर्ची
करना
(ब) पैसे को पानी में फेंकना
(स) पैसे को महत्व देना
(द) पैसे को सब कुछ समझना
36. लेखक के
अनुसार वह कौन-सी शक्ति है, जो अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है?
(अ) बल की शक्ति
(ब) बौद्धिक शक्ति
(स) पैसे की
व्यंग्य शक्ति
(द) मोटर साइकिल की शक्ति
37. लेखक के
अनुसार धूल उड़ाती हुई मोटर गाड़ी हृदय पर क्या छोड़ जाती है ?
(अ) व्यंग्य
लीक
(ब) धूल
(स) अहंकार
(द) अपनत्व
38. चूरन बेचने
वाले का स्वभाव कैसा था ?
(अ) संतोषी
(ब) स्वार्थी
(स) गंभीर
(द) अहंकारी
39. चूरन शीघ्र
बिक जाने का क्या कारण था ?
(अ) चूरन बेचने वाले की जान
पहचान
(ब) चूरन की
गुणवत्ता
(स) चूरन के मूल्य का कम होना
(द) चूरन की माँग
40. बाजार का
जादू उतरने पर क्या पता चलता है ?
(अ) आकर्षक चीजें उपयोगी होती
हैं।
(ब) आकर्षित
करने वाली चीजें हमारे जीवन में महत्व नहीं रखती हैं
(स) आकर्षित करने वाली चीजें
स्वाभिमान को बचाती हैं।
(द) आकर्षण ही व्यक्ति को जीना
सिखाता है
41. लेखक के
अनुसार, व्यक्ति को बाजार की चकाचौंध के बीच खड़े होकर क्या अनुभव होने लगता है ?
(अ) उसके पास पर्याप्त सामान
है
(ब) उसे और सामान
खरीदने की आवश्यकता है।
(स) उसे बाजार से निकल जाना
चाहिए
(द) उसे अधिक सामान नहीं खरीदना
है
42. 'अजी आओ
भी' पंक्ति से कौन-सा भाव स्पष्ट हो रहा है?
(अ) विनय का
(ब) आदेश का
(स) आकर्षण का
(द) अलगाव का
43. पैसे को
जोड़कर गर्व का अनुभव कौन करते हैं?
(अ) बुद्धि व
संयम से काम लेने वाले व्यक्ति
(ब) मन की इच्छा पूरी करने
वाले व्यक्ति
(स) स्वार्थ से परिपूर्ण व्यक्ति
(द) लाचार और बेबस व्यक्ति
44. पैसे की
पावर का रस किसमें है?
(अ) विक्रय शक्ति में
(ब) पर्चेजिंग
पावर में
(स) संयमित व्यक्ति में
(द) गर्व से भरे व्यक्ति में
45. 'बाजार दर्शन'
किस विधा की रचना है ?
(अ) यात्रा-वृत्तांत
(ब) आत्मकथा
(स) जीवनी
(द) निबंध
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. लेखक ने बाजार से ढेर-सा सामान खरीद कर लाने तथा खाली
हाथ लौटने वाले दोनों मित्रों के चिन्तन में क्या अन्तर बताया है?
उत्तर
: दोनों मित्रों के चिन्तन में कुछ अन्तर है। पहला मित्र थोड़ा-सा सामान लेने गया,
परन्तु बाजार से ढेर सारा सामान खरीद लाया। उसकी जेब भरी हुई और मन खाली था। दूसरा
मित्र बाजार से खाली आया। उसका मन दुविधाग्रस्त था। उसे बाजार की वस्तुओं ने
ललचाया, परन्तु सभी कुछ लेने के चक्कर में कुछ भी नहीं ले सका। दोनों ही
दुविधाग्रस्त थे।
प्रश्न 2. 'बाजार दर्शन' निबन्ध के आधार
पर 'बाजार के जादू' को स्पष्ट करते हुए इससे बचने के उपाय लिखिए।
उत्तर
:'बाजार
के जादू' का आशय बाजार में सुसज्जित अनेक चीजों के प्रति आकर्षण होना और उन्हें खरीदने
के लिए लालायित रहना है। बाजार के जादू से बचने के लिए उपयोगी और निश्चित चीज ही खरीदनी
चाहिए तथा व्यर्थ की लालसा और दिखावे की प्रवृत्ति से मुक्त रहना चाहिए।
प्रश्न 3. "जो लोग बाजार से लाभ नहीं
उठा सकते और न ही बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं, वे लोग बाजार का बाज़ारूपन ही बढ़ाते
हैं।" कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: जो लोग पर्चेजिंग पावर या क्रय-शक्ति के गर्व में बाजार से अनावश्यक वस्तुओं को
खरीद लाते हैं, वे बाजार को विनाशक व्यंग्य-शक्ति देते हैं। ऐसे लोगों की वजह से
बाजार में छल-कपट, मूल्य वृद्धि आदि प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं। इससे बाजार को सच्चा
लाभ नहीं होता है, उसमें सद्भाव की कमी और लूट-खसोट आदि की वृद्धि होती है।
प्रश्न 4. "वे लोग बाजार का बाजारूपन
बढ़ाते हैं"- 'बाजार-दर्शन' अध्याय के आधार पर बताइये कि 'वे लोग' किसके लिए कहा
गया है और वे बाजारूपन कैसे बढ़ाते हैं?
उत्तर
: 'वे
लोग' का आशय है - क्रय-शक्ति से सम्पन्न व्यक्ति। इस तरह के लोग अपनी क्रय-शक्ति से
अनावश्यक वस्तुओं की भी खरीददारी करते हैं। इस कारण बाजारवाद, छल-कपट, मनमाना मूल्य
लेना आदि प्रवृत्तियों को बल मिलता है। अतः असीमित पर्चेजिंग पावर रखने वाले लोग बाजार
का बाजारूपन बढ़ाते हैं।
प्रश्न 5. "बाजार में एक जादू है।"
लेखक के अनुसार बाजार का जादू किस पर नहीं चलता है? बताइये।
उत्तर
: जिन लोगों की क्रय-शक्ति होने पर भी मन भरा हुआ हो, अर्थात् उसमें किसी चीज को
लेने का निश्चित. .. लक्ष्य हो, उपयोगी सामान खरीदने की जरूरत हो और अन्य कोई
लालसा न हो, ऐसे लोगों पर बाजार का जादू नहीं चलता है।
प्रश्न 6. "बाजार जाओ तो खाली मन न
हो।" इससे लेखक का क्या आशय है?
उत्तर
: इसका आशय यह है कि मन में अमुक चीज लेने का लक्ष्य हो, मन उसी चीज तक सीमित हो
तथा बाजार में फैली हुई नाना चीजों के प्रति कोई आकर्षण न हो। आवश्यकता की चीजें
खरीदना, बाजार के आकर्षण से बचना और क्रय-शक्ति का दुरुपयोग न करना-इसी में बाजार
की असली उपयोगिता है।
प्रश्न 7. "ऐसे बाजार मानवता के लिए
विडम्बना हैं।" लेखक ने ऐसा क्यों कहा है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: लेखक बताता है कि. जिसमें लोग आवश्यकता से अधिक सब कुछ खरीदने का दम्भ भरते हैं,
अपनी पर्चेजिंग पावर से बाजार को पैसे की विनाशक शक्ति देते हैं, ऐसे बाजार में
छल-कपट, लूट-खसोट और मनमाना व्यवहार बढ़ता है। लेखक ने ऐसे बाजार को मानवता के लिए
विडम्बना बताया है।
प्रश्न 8. "मन खाली नहीं रहना चाहिए।"
इससे लेखक क्या कहना चाहता है? 'बाजार-दर्शन' में इसका क्या प्रभाव रहता है?
उत्तर
: इससे लेखक कहना चाहता है कि बाजार जाते समय मन में किसी निश्चित वस्तु को खरीदने
का लक्ष्य रखना चाहिए। प्रायः देखा जाता है कि बाजार की चकाचौंध में पड़कर लोग
व्यर्थ की वस्तुएँ भी खरीद लेते हैं। अतः मन भरा होने से बाजार के दोषों से बचा जा
सकता है और धन का दुरुपयोग भी नहीं होता है।
प्रश्न 9. चूरन वाले भगतजी पर बाजार का जादू क्यों नहीं चलता था?
उत्तर
: भगतजी का चूरन प्रसिद्ध था और हाथों-हाथ बिक जाता था। वे एक दिन में छह आने से
अधिक नहीं कमाते थे और इतनी कमाई होते ही बाकी चूरन बच्चों में मुफ्त बाँट देते
थे। वे बाजार से काला नमक और जीरा खरीदने जाते, तो सीधे पंसारी के पास जाकर खरीद
लाते थे। उन पर चौक बाजार का न कोई आकर्षण रहता था और न कोई लालच। बाजार की
चकाचौंध से मुक्त रहने से ही उन पर उसका जादू नहीं चलता था।
प्रश्न 10. लेखक ने किस अर्थशास्त्र को मायावी तथा अनीतिशास्त्र
कहा है?
उत्तर
: धन एवं व्यवसाय में उचित सन्तुलन रखने और विक्रय-लाभ आदि में मानवीय दृष्टिकोण
रखने से अर्थशास्त्र को उपयोगी माना जाता है, परन्तु जब बाजार का लक्ष्य
अधिक-से-अधिक लाभार्जन करने, तरह-तरह के विज्ञापन एवं प्रदर्शन द्वारा ग्राहकों को
गुमराह करने और छलने का हो जाता है, तब उस अर्थशास्त्र को मायावी और अनीतिशास्त्र
कहा है।
प्रश्न 11. पर्चेजिंग-पावर का रस किन दो रूपों में प्राप्त होता
है? 'बाजार दर्शन' पाठ के आधार पर बताइए।
उत्तर
: पर्चेजिंग-पावर का रस -
1.
तरह-तरह की चीजें खरीदने, मकान, कार आदि सुख-विलास की चीजें खरीदने में प्राप्त होता
है।
2.
कुछ लोग ऐसी चीजें खरीद लेते हैं, जिनकी उन्हें जरूरत नहीं रहती है, परन्तु बाजार पर
अपना रौब जमाने के लिए अथवा स्वयं को सम्पन्न बताने के लिए काफी कुछ खरीद लाते हैं
और पर्चेजिंग-पावर के कारण गर्व एवं आनन्द का अनुभव करते हैं।
प्रश्न 12. "शून्य होने का अधिकार
बस परमात्मा का है।" लेखक ने ऐसा किस उद्देश्य से कहा है?
उत्तर
: लेखक ने ऐसा मनुष्य और परमात्मा में अन्तर बताने के लिए कहा है। परमात्मा सनातन
भाव से सम्पूर्ण है, इसमें कोई इच्छा शेष नहीं है, जबकि मनुष्य अपूर्ण है। उसके मन
में इच्छाओं का उठना स्वाभाविक है। मनुष्य का मन बन्द नहीं रह सकता, यदि उसका मन
बन्द हो जायेगा, तो वह शून्य हो जायेगा। मनुष्य के द्वारा सभी इच्छाओं का निरोध
कदापि सम्भव नहीं है।
प्रश्न 13. मन को बन्द रखने या वश में रखने के सम्बन्ध में लेखक ने
क्या विचार व्यक्त किये हैं?
उत्तर
: इस सम्बन्ध में लेखक का विचार है कि मन को बन्द रखने पर वह शून्य हो जायेगा। उस
दशा में उसका सोचना, चिन्तन करना, इच्छा-पूर्ति की लालसा करना आदि सब बन्द हो
जायेगा। ऐसा करना हठयोग कहलाता है और इससे मन जड़ हो जायेगा। मनुष्य के लिए इस तरह
का आचरण न तो ठीक है और न सम्भव ही है। वैसे भी इससे मनुष्य के सांसारिक प्रयोजन
सिद्ध नहीं होते हैं।
प्रश्न 14. पैसे की व्यंग्य-शक्ति को लेखक ने क्या बताया है?
'बाजार-दर्शन' अध्याय के अनुसार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: लेखक ने पैसे की व्यंग्य-शक्ति को दारुण तथा मन में दुर्भावना बढ़ाने वाली बताया
है। पैसे की अधिकता से व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगता है और स्वार्थी बन
जाता है। पैसे के अभाव में व्यक्ति सोचता है कि मैं मोटरवालों के, धनपतियों और
वैभवशालियों के घर में क्यों पैदा नहीं हुआ। इस तरह पैसे की व्यंग्य-शक्ति व्यक्ति
में ईर्ष्या-द्वेष एवं हीन-भावना बढ़ाती है। इस तरह दोनों ही परिस्थितियों में
पैसे की व्यंग्य शक्ति मनुष्य के लिए अहितकर होती है।
प्रश्न 15. 'बाजार दर्शन' निबन्ध का
प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: 'बाजार
दर्शन' निबन्ध में लेखक ने आधुनिक काल के बाजारवाद और उपभोक्तावाद का चिन्तन कर इसके
मूल तत्त्व को समझाने का प्रयास किया है। इसका प्रतिपाद्य यह है कि ब्यक्ति को बाजार
के आकर्षण से बचना चाहिए, अपनी पर्चेजिंग पावर का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए तथा मन
में आवश्यकताओं का निश्चय करके ही बाजार जाना चाहिए। तभी उसे बाजार का लाभ मिलेगा।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. 'बाजार में एक जादू है' इस कथन
में 'बाजार दर्शन' पाठ के आधार पर लेखक के विचार व्यक्त . कीजिए।
उत्तर
: 'बाजार
एक जादू है' यह कथन इस बात को बताता है कि बाजार में एक सम्मोहन है, आकर्षण है जो ग्राहकों
को अपनी ओर खींचता है तथा उसे किसी न किसी भाँति फाँस कर उसके पैसे खर्च करवा ही देता
है। बाजार में सजी वस्तुएँ अपने आकर्षण से उसे खरीदने को मजबूर कर ही देती हैं। यह
जादू उन लोगों पर ज्यादा प्रभाव डालता है, जिनका मन खाली हो अर्थात् जिन्हें अपनी जरूरतों
का पता नहीं होता और जेब भरी होती है।
उन्हें
बाजार में जो अच्छा लगता है उसे वे खरीद लेते हैं ये जाने बिना कि उन्हें उनकी
कितनी जरूरत है। इस जादू के उतरने पर उन्हें पता चलता है कि ज्यादा चीजें सुख नहीं
देतीं बल्कि उसमें बाधा डालती हैं, जैसे-लेखक के मित्र मामूली चीज लेने गए थे और
अनेक सामानों से भरे बण्डल ले आये। यह बाजार का जादू ही था जिसने उनकी जेब खाली
करवा दी।
प्रश्न 2. 'बाजार-दर्शन' पाठ में चित्रित
भगतजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए। .
उत्तर
: चूरन वाले भगत जी बाजार के आकर्षण से दूर तथा भरे मन वाले व्यक्ति हैं। जिनके मन
में तुष्टता का अर्थात् प्रसन्नता का भाव निहित है। वे अपना लक्ष्य व उद्देश्य
सदैव साथ लेकर चलते हैं। वे बाजार-चौक की भव्यता एवं सजावट से मोहित नहीं होते
हैं। कोई असमंजस नहीं होता है। उनके मन में बाजार के प्रति कोई अप्रीति का भाव
नहीं है। वे बाज़ारूपन की प्रवृत्ति से सदैव दूर रहते हैं इसलिए ग्राहक और
विक्रेता का कपटीपन उनके हृदय में प्रवेश भी नहीं पा सकता है।
वे
सदैव छः आने का चूरन बेचते और बच जाने पर बच्चों में मुफ्त बाँट देते हैं। अनेक
फैन्सी स्टोर के सामने से गुजरते वक्त भी उनका मन नहीं ललचाता। उनका कार्य पंसारी
की दुकान से होता जहाँ से वह जीरा व काला नमक खरीद कर वापस आ जाते। वे खुली आँख,
संतुष्ट मन व प्रसन्नचित्त हृदय वाले व्यक्ति हैं। वे जरूरत-भर को अपना सामान खरीद
बाजार को कृतार्थता प्रदान करते हैं।
प्रश्न 3. बाजार के जादू से बचने का सीधा-सरल उपाय लेखक जैनेन्द्र
कुमार ने कौनसा बताया है? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
लेखक जैनेन्द्र कुमार के अनुसार बाजार के जादू से किस प्रकार बचा
जा सकता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
: पाठ 'बाजार-दर्शन' में लेखक ने बताया है कि बाजार के जादू की जकड़ से बचने का
सीधा उपाय है कि जब भी बाजार जाओ तब मन खाली मत रखो, मन का खाली होना अर्थात्
उद्देश्य या लक्ष्य से भटकना है। बिना आवश्यकता, बिना जरूरत बाजार जाना व्यर्थ है।
जिस प्रकार गर्मियों में लू से बचने के लिए पानी पीकर जाना अर्थात् पेट का भरा
होना लू से बचाता है उसी प्रकार मन का रिक्त होना मन को उलझाता है तथा निरर्थक
खरीदारी को प्रोत्साहित करता है। इसलिए लेखक ने मन को लक्ष्य से भरा, सन्तष्टि व
प्रसन्नता से भरा होने पर जोर दिया है। इन सबके भरे होने से मन पर बाजार का जादू
निष्क्रिय है, बेकार-व्यर्थ है।
प्रश्न 4. पैसे की व्यंग्य शक्ति' से लेखक का क्या अभिप्राय है और
यह किस प्रकार प्रभावित करती है?
उत्तर
: 'पैसे
की व्यंग्य शक्ति' मन से खाली अर्थात् मन से कमजोर व्यक्ति पर अपना प्रभाव डालती है।
लेखक ने एक उदाहरण द्वारा बताया है कि जैसे कोई पैदल चल रहा है और उसके पास से धूल
उड़ाती मोटर पैदल चलते व्यक्ति को अपनी शक्ति बताती है। यही व्यंग्य शक्ति है कि पैदल
चलते व्यक्ति के मन में हीनता के भाव उत्पन्न होते हैं। वह सोचने को विवश हो जाता है
कि उसने अमीर के घर जन्म क्यों नहीं लिया? पैसे की शक्ति अपने सगों के प्रति कृतघ्न
बना देती है।
उसे
उसका जीवन विडम्बना से पूर्ण बताती है कि तुम मुझसे वंचित हो और तुम इसीलिए दुःखी
व परेशान हो। यह पैसे की व्यंग्य शक्ति मन से कमजोर व्यक्ति को ही विचलित करती है
'भगतजी' जैसे व्यक्तियों को नहीं, जिनके मन में बल है, शक्ति है, जो पैसे के तीखे
व्यंग्य के आगे अजेय ही नहीं रहता वरन् उस व्यंग्य की क्रूरता को पिघला भी देता
है।
प्रश्न 5. बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता,
वह देखता है सिर्फ उसकी क्रय शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता
की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर
: बाजार का कार्य है-वस्तुओं का विक्रय करना। बाजार को अपनी वस्तुओं को बेचने को
ग्राहक की जरूरत है। उसे किसी के लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र से कोई मतलब नहीं
है। उसे सिर्फ क्रय-शक्ति को देखना है। इस मत से देखा जाये तो लेखक का कथन सत्य है
कि बाजार का यह व्यवहार सामाजिक समता की रचना करता है।
लेकिन
इसमें भी क्रेता की सम दृष्टि साबित होती है, विक्रेता की नहीं। क्योंकि
क्रय-शक्ति से हीन व्यक्ति स्वयं को औरों के समक्ष कमजोर व दुर्बल समझता है। हीनता
की भावना उसकी गरीबी का मजाक उड़ाती-सी प्रतीत होती है इसलिए यह बात सिर्फ एक ही
पक्ष पर लागू होती है। दूसरे पक्ष को इस अन्तर की वेदना व असमानता सदैव भोगनी
पड़ती है।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1. जैनेन्द्र कुमार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय
संक्षेप में दीजिए।
उत्तर
: लेखक जैनेन्द्र कुमार का जन्म 1905 ई. में अलीगढ़ में हुआ था। बचपन में पिता का
देहान्त होने पर मामा द्वारा लालन-पालन हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा हस्तिनापुर के
गुरुकुल तथा उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हुई। इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ
परख, अनाम, स्वामी, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, जयवर्द्धन, मुक्तिबोध (उपन्यास);
संग्रह वातायन, एक रात, दो चिड़िया, फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाजेब
(कहानी-संग्रह); प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और
प्रेय, सोच-विचार (निबनध संग्रह) आदि हैं। इन्होंने अपने उपन्यासों एवं कहानियों
के माध्यम से एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कथा-धारा की शुरुआत की। साहित्य रचना के दौरान
इन्हें पद्मविभूषण, भारत-भारती तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इनका देहान्त
सन् 1990 में हुआ था।
बाजार दर्शन (सारांश)
लेखक
परिचय - हिन्दी में प्रेमचन्द के बाद सबसे
महत्त्वपूर्ण कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित जैनेन्द्रकुमार का जन्म सन् 1905 ई.
में अलीगढ़ में हुआ। इन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा हस्तिनापुर से तथा उच्च शिक्षा
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। गाँधीजी के आह्वान पर अध्ययन छोड़कर
असहयोग आन्दोलन में सक्रिय हुए। आजीविका के लिए जैनेन्द्रजी ने स्वतन्त्र-लेखन को
अपनाया तथा अनेक पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। 'साहित्य अकादमी' एवं 'भारत-भारती'
पुरस्कार तथा 'पद्मभूषण' सम्मान प्राप्त किया। ये गाँधीवादी चिन्तन-दृष्टि से
प्रभावित रहे।
भारतीय
दर्शन के प्रखर चिन्तक एवं मनोविज्ञान के पारखी जैनेन्द्र ने अपनी कहानियों एवं
उपन्यासों में भी मनोवैज्ञानिक चेतना का प्रवर्तन किया है। इनका निधन सन् 1990 ई.
में हुआ। . जैनेन्द्रकुमार की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं - 'सुनीता', 'परख',
'अनाम स्वामी', 'त्याग-पत्र', 'कल्याणी', 'जयवर्द्धन' 'मक्तिबोध' आदि (उपन्यास):
'वातायन'. 'एक रात'. 'दो चिडिया', 'फाँसी' 'नीलम देश की राजकन्या' तथा 'पाजेब'
(कहानी-संग्रह) तथा प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का
श्रेय और प्रेय', 'सोच-विचार', 'समय और हम' (निबन्ध-संग्रह)। इनकी 'तत्सत्',
'पाजेब', 'अपना-अपना भाग्य' आदि कहानियों को कालजयी रचना माना जाता है।
पाठ-सार
- 'बाजार दर्शन' शीर्षक निबन्ध में जैनेन्द्र कुमार ने बाजार के सदुपयोग और दुरुपयोग
के साथ उसके प्रभाव का विश्लेषण किया है। इसका सार इस प्रकार है
1.
मित्र द्वारा सामान खरीदना - एक बार लेखक के एक मित्र बाजार में मामूली
चीज खरीदने गये, परन्तु लौटे तो साथ में बहुत से बण्डल ले आए। पूछने पर उन्होंने बताया
कि यह सब पत्नी खरीद लायी। लेखक बताता है कि सभी पुरुष इस मामले में पत्नी की ओट लेते
हैं। वस्तुतः 'पैसा पावर' है और बाजार में प्रत्येक सामान इसी पावर से खरीदा जाता है।
2.
बाजार का आकर्षण - लोग बाजार की सजावट, व्यापारियों के आग्रह
आदि के कारण फालतू सामान भी खरीद लाते हैं। बाजार में सजे सामान का आकर्षण उसे खरीदने
का आमन्त्रण देता है और ग्राहक अनावश्यक सामान भी खरीद लाता है। भले ही बाद में उसे
पछताना क्यों न पड़े।
3.
अन्य मित्र का प्रसंग - लेखक एक अन्य मित्र का उदाहरण देता है। वे
बाजार गये, परन्तु शाम को खाली हाथ घर लौटे। उनकी समझ में नहीं आया कि क्या लें। लेने
का मन तो करता था परन्तु अपनी चाह का पता नहीं रहा। वस्तुतः चाह की पूर्ति करने में
परिणाम अच्छा नहीं रहता है।
4.
बाजार का जादू - बाजार में एक जादू है और यह जादू आँख के लिए
आकर्षण का काम करता है, परन्तु उस जादू की भी एक मर्यादा है। जब जेब भरी हो और मन खाली
हो, तो ऐसी दशा में यह जादू खूब चलता है। जादू रोकने का उपाय यह है कि मन खाली नहीं
होना चाहिए। मन में सब चीजें खरीदने का विचार आता है, परन्तु जाद उतरते ही पता चलता
है कि ये चीजें आराम के स्थान पर आलस्य बढ़ायेंगी। इससे अभिमान भी बढ़ता है और संसार
की जकड़ भी बढ़ती है।
5.
खाली और बन्द मन का अन्तर - बन्द मन का अर्थ है - शून्य हो जाना।
शून्य होने का अधिकार केवल परमात्मा का है। मनुष्य तो अपूर्ण है, इससे उसका मन इच्छाओं
से शून्य नहीं हो सकता, उसका मन बन्द नहीं रह सकता। खाली मन में इच्छाओं का फैलाव रहता
है तथा इच्छाओं का विरोध तो लोभ को जीतना है। मन को बलात् बन्द करना हठयोग है। अतः
मन को बलात् रोकने या मन की बात न सुनने की अपेक्षा हमें उसकी बात सुननी चाहिए, उसे
मनमाने की छूट नहीं देनी चाहिए। इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए।
6.
भगतजी का उदाहरण - लेखक पड़ोस में रहने वाले एक भगतजी का उदाहरण
देता है। वे चूरन बेचते हैं। वे इस काम में प्रतिदिन छः आने से ज्यादा नहीं कमाते।
उनका चूरन बहुत प्रसिद्ध है। वे खुद काफी लोकप्रिय हैं। वे चूरन न तो व्यापारियों को
बेचते हैं, न पेशगी आर्डर लेते हैं। नियत समय पर पेटी लेकर चूरन बेचने आते हैं और छः
आने की कमाई होते ही बाकी चूरन बच्चों को मुफ्त बाँट देते हैं। इस तरह भगतजी पर बाजार
का जादू नहीं चलता है।
7.
पैसे की व्यंग्य-शक्ति - लेखक बताता है कि पैसे की व्यंग्य-शक्ति कठिन
होती है। मैं पैदल चलने लगा, तो पास ही से धूल उड़ाती हुई एक मोटर गुजर गई। ऐसा लगा
कि वह मुझ पर यह व्यंग्य करके निकल गई कि तुमने मोटर वाले माँ-बाप के घर जन्म क्यों
नहीं लिया? यह व्यंग्य-शक्ति अपने सगों के प्रति भी कृतघ्न बना डालती है। परन्तु उस
चूरन वाले भगतजी के सामने यह व्यंग्य-शक्ति पानी-पानी हो जाती है।
भगतजी
चौक बाजार में जाते हैं, आँखें खुली रखते हैं। वे किसी फैंसी स्टोर पर नहीं रुकते,
सीधे पंसारी की दुकान पर जाकर दो-चार काम की चीजें लेते हैं और चुपचाप लौट आते
हैं। उनके लिए चौक बाजार की सत्ता तभी तक है, जब तक वहाँ काला नमक और जीरा मिलता
है। उसके बाद तो चाँदनी चौक का आकर्षण उनके लिए व्यर्थ हो जाता है।
8.
बाजार की सार्थकता - लेखक बताता है कि वही मनुष्य बाजार को सार्थकता
देता है, जो जानता है कि वह क्या चाहता है। जो अपनी पर्चेजिंग पावर के गर्व में रहते
हैं, वे बाजार को व्यंग्य की शक्ति अर्थात् विनाशक शैतानी शक्ति ही देते हैं। वे लोग
बाजारूपन अर्थात् कपट बढ़ाते हैं तथा सद्भाव घटाते हैं। ऐसे बाजार मानवता के लिए विडम्बना
हैं और ऐसे बाजार का पोषण करने वाला अर्थशास्त्र सरासर औंधा, मायावी और अनीति-शास्त्र
है।
सप्रसंग महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ
1.
पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे
को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं।
पैसे की उस 'पर्चेजिंग पावर' के प्रयोग में ही पावर का रस है।
कठिन-शब्दार्थ
:
पावर
= शक्ति।
माल-टाल
= सामान।
खाक
= धूल-मिट्टी, बेकार, व्यर्थ।
माल-असबाब
= ढेरों सामान।
पर्चेजिंग
पावर = क्रय शक्ति।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने पैसे की शक्ति के विषय में बताया है।
व्याख्या
- लेखक कहते हैं कि पैसा शक्ति है अर्थात्
जिसके पास खूब पैसा है वह शक्तिशाली है, पैसा पास होने से सब-कुछ खरीदा जा सकता
है। पैसे की शक्ति को अपने आस-पास ढेरों सामान रख कर दिखाया जा सकता है। अगर कोई
ऐसा नहीं करता है तो उसका पैसा-शक्ति सब व्यर्थ, बेकार है। पैसे को देखने के लिए
बैंक के हिसाब-किताब देखने की जरूरत नहीं पड़ती है। उसके पास के ऐशो-आराम, सामानों
की भीड़, रहन-सहन सभी उसकी शक्ति का परिचय स्वयं ही दे देते हैं।
अगर
कोई नहीं भी देखना चाहे तब भी जिसके पास सब कुछ अधिक मात्रा में मौजूद है उसकी
पैसे की शक्ति बिना देखे भी सबको दिख जाती है। असल बात तो यह है कि क्रय शक्ति का
महत्त्व ही पैसे की शक्ति से है। अगर पैसा है और क्रय शक्ति नहीं तो फिर यह सब
व्यर्थ, बेकार, निरर्थक है।
विशेष
:
1.
लेखक ने व्यंग्य की दृष्टि से पैसे और क्रय शक्ति पर विचार व्यक्त किए हैं।
2.
'पर्चेजिंग पावर में ही पावर का आनन्द है' विशिष्ट अर्थ को व्यक्त करता है।
3.
भाषा सरल-सहज व हिन्दी-अंग्रेजी मिश्रित है।
2.
लोग संयमी भी होते हैं। ये फिजूल सामान को फिजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं
और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते
हैं। वे पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा की उन्हें
दरकार नहीं है। बस खुद पैसे से जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।
कठिन-शब्दार्थ
:
संयमी
= इन्द्रियों को वश में रखने वाले।
दरकार
= जरूरत, आवश्यकता।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने उन लोगों के विषय में बताया है जो पैसे की ताकत को समझ कर
जोड़ते जाते हैं।
व्याख्या
- लेखक ने दो तरह के व्यक्ति बताए हैं, एक
जो दिखावे की प्रवृत्ति से पैसे को व्यर्थ में खर्च करते हैं। दूसरे संयम व धैर्य रख
कर पैसा खर्च नहीं करते हैं। वे बेकार और व्यर्थ के सामान से अपना घर नहीं भरते
हैं। वे बिना जरूरत पैसा नहीं बहाते क्योंकि वे बुद्धिमान होते हैं।
वे
अपनी बुद्धि और संयम से पैसा इकट्ठा करते जाते हैं। वे पैसे की ताकत को समझते हैं
इसलिए जोड़ते जाना उनकी प्रवृत्ति में शामिल हो जाता है। उन्हें अपने पैसे की
शक्ति की परीक्षा लेने की कोई जरूरत नहीं होती है। पैसे की शक्ति से सभी परिचित
हैं फिर उसे खर्च कर उसकी शक्ति परखने की क्या : आवश्यकता है? वे व्यक्ति इसी बात
से प्रसन्न हैं, अभिमानित हैं कि उनके पास पैसा है, पैसे की ताकत है और यह ताकत
उनके मन को गर्व से, अभिमान से और फुला देती है।
विशेष
:
1.
लेखक ने उन बुद्धिमान व्यक्तियों के बारे में बताया है जो बुद्धि और संयम से पैसा जोड़
उसकी ताकत को समझते हैं।
2.
भाषा शैली व्यंजनापूर्ण एवं सारगर्भित है।
3.
बाजार आमन्त्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप
और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज़
है। अजी आओ भी। इस आमन्त्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता
है। लेकिन ऊँचे बाजार का आमन्त्रण मूक . होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव।
चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए,
और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह!
कठिन-शब्दार्थ
:
हरज
= नुकसान।
मूक
= निःशब्द, शब्दरहित।
परिमित
= रेखाबद्ध, सीमाबद्ध, कम, सीमित।
अतुलित
= असीमित, अत्यधिक जिसकी तुलना न की जा सके।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने बाजार की आकर्षित करने वाली प्रवृत्ति को बताया है।
व्याख्या
- लेखक बताते हैं कि बाजार तो आमन्त्रित ही
करता है अर्थात् अपने लुभावने अंदाज से बुलाता ही है। कहता है कि लूटो, मुझे और
लूटो। सब कुछ भूल कर मुझे देखो मेरा रूप, मेरा आकर्षण सब तुम्हारे लिए है। कुछ
नहीं खरीदना है तो भी देखने में क्या नुकसान है, आओ और देखो। बाजार के इस तरह के
आमंत्रण में आग्रह नहीं, आकर्षण है।
आग्रह
कर-करके बुलाने में हम स्वयं नहीं जाते हैं लेकिन जो मूक रह कर, शब्दविहीन इशारों
से बुलाता है वह होता है रंगीन बाजार, उसे देखने की लालसा जगती है। लालसा का अर्थ
अभाव का होना है। और यही अभाव व्यक्ति को बाजार के आकर्षण में बाँध देता है।
इन्हीं आकर्षण के बीच खड़े होकर, विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को देख कर आदमी को
हीनता घेर लेती है।
उसे
लगने लगता है कि उसके पास कुछ नहीं है, उसे और चाहिए, और चाहिए। मेरे पास कितना कम
है और इस बाजार में कितना कुछ अधिक है, अथाह है। ओह ! और यही ओह! उसे अधिक खरीदने
को विवश करती है, ललचाती है, निरर्थकता को बढ़ावा देती है।
विशेष
:
1.
लेखक ने बाजार की लुभावनी, आकर्षित करने वाली प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है।
2.
भाषा खड़ी बोली हिन्दी तथा उर्दू मिश्रित है।
4.
बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे
चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो,
और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो
भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमन्त्रण उस तक पहुँच
जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। लेखक ने इसमें मन . खाली होने की स्थिति में खरीदारी अधिक होती है जैसी
स्थिति पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या
- लेखक कहते हैं कि बाजार की चकाचौंध व सजावट में एक किस्म का. जादू फैला होता है।
वह जादू रास्ते दिलो-दिमाग में चढ़ जाता है। वह रूप का, उसके आकर्षण का जादू है।
जिस प्रकार चुंबक लोहे को अपनी तरफ खींचता है उसी प्रकार बाजार का जादू ग्राहक को
अपनी ओर खींचता है। लेकिन इस जादू की मर्यादा है, सम्मान है। यह दो स्थितियों में
काम करता है।
अगर
ग्राहक की जेब भरी हुई है और उसका मन खाली है; खाली से तात्पर्य उसके मन में कोई
इच्छा नहीं है, क्या लेना है क्या नहीं लेना है? वह बस बिना उद्देश्य बाजार घूमने
निकला है। ऐसी स्थिति में बाजार का प्रभाव उस पर बहुत अधिक होता है और वह बिना
जरूरत, बिना सोचे-समझे अपनी जेब हल्की करने में लगा रहता है।
अगर
जेब खाली है और मन भी खाली है तो भी बाजार का जादू व्यक्ति पर कुछ असर डालता है।
मन का खाली होना ही बाजार के लुभावने निमन्त्रण को व्यक्ति तक पहुँचाता है और इस
पर अगर जेब में खूब पैसे हों तो फिर मन किसी की भी बात नहीं मानता। अर्थात् बाजार
के जादू के प्रभाव में बहुत-कुछ बिना जरूरत, निरुद्देश्य खरीदारी कर ही लेता है।
विशेष
:
1.
लेखक ने 'मन का खाली होना' कारण पर यथोचित प्रकाश डाला है।
2.
खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है; भाषा सरल, सहज व व्यंजनापूर्ण है।
5.
पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो खाली मन
न हो। मन खाली हो, तब बाजार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए।
पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाजार भी फैला-का-फैला
ही रह जाएंगा। तब वह घाव बिल्कुल हीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनन्द ही देगा। तब बाजार
तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाजार की असली कृतार्थता
है आवश्यकता के समय काम आना।
कठिन-शब्दार्थ
:
कृतार्थ
= उपकार।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा
लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया गया है। लेखक ने इसमें बाजार के जादू के असर
से बचने का उपाय बताया है।
व्याख्या
- लेखक बताते हैं कि बाजार का जादू ग्राहक को आकर्षण में बाँध कर खरीदारी करवाता
है। इस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा और सरल उपाय यह है कि बाजार जाना हो तो मन
को खाली मत रखो। आशय है कि बाजार उसी स्थिति में जाओ जब सच में आपको कुछ जरूरत का
सामान खरीदना हो।
अगर
आपको बिना जरूरत, बिना उद्देश्य जाना पड़े तो आप जाओ ही मत। कहते हैं कि अगर
गर्मियों के दिनों में भरी दोपहर में लू में निकलना पड़े तो पानी पीकर जाना चाहिए
अगर आपके भीतर पानी होगा तो लू आप पर कोई असर नहीं कर पायेगी। उसी प्रकार अगर आपका
मन लक्ष्य से, उद्देश्य से भरा होगा तो बाजार का जादू फैला का फैला रह जाएगा, वह
आपको कोई घाव, जख्म नहीं देगा अर्थात् आपकी निरर्थक खरीदारी नहीं करवाएगा बल्कि उस
समय बाजार का जादू, उसकी सुन्दरता दिखाएगा।
जो
आपको खुशी ही देगी। उस समय बाजार भी आपका उपकार मानेगा, क्योंकि उस समय आप भी
बाजार को उसके होने का सच्चा लाभ उसे दोगे। बाजार की असली उपयोगिता है कि वह सबको
उसकी आवश्यकता के समय काम आए। फिजूलखर्ची की होड़ में सभी सामान खरीद कर रख लेते
हैं और जरूरत पड़ने पर सामान की कमी बहुत सारी समस्याएँ उत्पन्न कर देती है।
विशेष
:
1.
लेखक ने उद्देश्य एवं जरूरतानुसार खरीदारी करने पर बल दिया है।
2.
भाषा खड़ी बोली हिन्दी है तथा सरलता व सहजता युक्त है।
6.
लोभ का यह जीतना नहीं है कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ
की ही जीत है और आदमी की हार ! आँख फोड़ डाली, तब लोभनीय के दर्शन से बचे तो क्या हुआ?
ऐसे क्या लोभ मिट जायेगा? और कौन कहता है कि आँख फूटने पर रूप दीखना बन्द हो जायेगा?
क्या आँख बन्द करके ही हम सपने नहीं लेते हैं? और वे सपने क्या चैन-भंग नहीं करते हैं?
इससे उनको बन्द कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं।
कठिन-शब्दार्थ
:
नकार
= नकारात्मकता का भाव।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने मानवीय वृत्ति लोभ के स्वरूप पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या
- लेखक कहते हैं कि लोभ मानवीय वृत्ति है। अन्य गुणों व अवगुणों की तरह यह भी
मनुष्य के स्वभाव का एक अंग है। बाजार में उपस्थित वस्तुओं के प्रति लोभ का प्रभाव
स्वाभाविक क्रिया है। लोभ को जीतने के लिए यह सही नहीं है कि जहाँ लोभ का निवास
होता है यानि मनुष्य के मन में, वहाँ नकारा भाव हो।
नहीं,
मुझे लोभ नहीं करना, इस तरह का विचार लोभ की जीत को ही बताता है और आदमी की हार
को। अगर हम किसी चीज को नहीं देखना चाहते तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपनी आँख
फोड़ लें। आँख फोड़ने से क्या लोभयुक्त वस्तु के दर्शन नहीं हो सकते? ऐसे क्या
हमारे मन से लोभ खत्म हो जाएगा? लेखक कहता है कि क्या आँखें बंद करके हम सपने नहीं
लेते हैं और वे सपने भी हमारा सुख-चैन खत्म नहीं करते हैं? इससे क्या हम सपने
देखना बंद कर सकते हैं?
लेखक
का कहना है कि इस तरह सपने देखना बंद करना या लोभ को खत्म करना यह सारी कोशिश तब
तक व्यर्थ है, बेकार है, जब तक मनुष्य मन की आँखें बंद नहीं करे। मन की आँखें
नियन्त्रण में रखना अर्थात् मन को लोभमुक्त रखना ही मनुष्य की जीत है वरना सारी
कोशिशें बेकार-व्यर्थ हैं।
विशेष
:
1.
लेखक ने मन पर लगाम रखना जैसी उक्ति को सिद्ध किया है।
2.
भाषा खड़ी बोली हिन्दी सरल-सहज व व्यंजनापूर्ण है।
7.
वह अकारथ है यह तो हठवाला योग है। शायद हठ-ही-हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले
ही हो जाए और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह
व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद होता है। इसलिए उसका रोम-रोम मूंदकर बन्द
तो मन को करना नहीं चाहिए।
कठिन-शब्दार्थ
:
अकारथ
= बिना कार्य के।
कृश
= दुबला, क्षीण।
विराट्
= भव्य, लम्बा-चौड़ा।
क्षुद्र
= छोटा, सिकुड़ा।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने मनुष्य इन्द्रियों के व्यवहार पर विचार व्यक्त किये हैं।
व्याख्या
- लेखक कहता है कि आँख को बंद करने से मन का लोभ खत्म नहीं होता है। अगर व्यक्ति
यह सोचता है कि आँख को बंद कर उस वस्तु को नहीं देखेगा तो लोभ मन में प्रवेश नहीं
करेगा। तो क्या फिर हम जो आँखें मूंद कर स्वप्न देखते हैं उससे कुछ दिखाई नहीं
देता या लोभ नहीं जागता? आँखें बंद करके लोभ न होना, यह अकारथ है अर्थात् बेकार
है। लोभ को खत्म करना, हठयोग है। लेकिन आँखें बंद करना हठ ही हठ है इसमें योग नहीं
है।
हठयोग
करने से मन भले ही क्षीण हो जाए, कमजोर हो जाये, जैसे पीला पड़ जाएँ या फिर किसी
विद्वान के कमजोर ज्ञान की तरह हो जाए, वह मुक्त नहीं हो सकता। मन को मारने पर ही
ऐसी स्थिति होती है। अन्दर ही अन्दर वह कमजोर, अशक्त व पीला पड़ जाता है अर्थात्
बीमार हो जाता है। इसका परिणाम उसकी सोच-दृष्टि व्यापक, अनन्त की जगह सिकुड़ी हुई
तथा विराट की जगह क्षुद्र (छोटी) हो जाती है।
क्योंकि
उसने लोभ पर विजय प्राप्त नहीं की, उसने लोभ को मारा-दबाया हैं। वह उससे मुक्त
नहीं है बल्कि उसकी इच्छा से दबा हुआ है। अगर लोभ को, तृष्णा को, इच्छा को खत्म ही
करना है तो फिर मन में से उसे निकालना होगा। मन के रोम-रोम को बंद करके इन लालसाओं
को दूर करना होगा और इनके स्थान पर तुष्ट प्रवृत्ति अर्थात् संतोष का भाव एवं खुशी
भरनी होगी। तभी व्यक्ति इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है।
विशेष
:
1.
लेखक ने मन को मुक्त करने तथा संतोषी भाव धारण करने का उपाय बताया है।
2.
भाषा हिन्दी-संस्कृत युक्त है। व्याख्यात्मक शैली एवं गाम्भीर्य युक्त शब्द-योजना है।
8.
आप पाठकों की विद्वान श्रेणी का सदस्य होकर भी मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ
कि उस अपदार्थ प्राणी को वह प्राप्त है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस
पर बाजार का जादू वार नहीं कर पाता। माल बिछा रहता है, और उसका मन अडिग रहता है। पैसा
उससे आगे होकर भीख तक माँगता है कि मुझे लो। लेकिन उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती।
वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के
आगे क्या पैसे की व्यंग्य-शक्ति कुछ भी चलती होगी?
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने भगतजी के व्यक्तित्व का वर्णन किया है।
व्याख्या
- लेखक बताते हैं कि आप जैसे पाठकों की विद्वान श्रेणी का सदस्य मैं भी हूँ और मैं
यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूँ कि उस हाड़-मांस के बने व्यक्ति को ईश्वर की तरफ
से जो मिला है वह हम में से बहुत कम लोगों को मिला हआ है। कहने का आशय है कि जो
शारीरिक संरचना ईश्वर ने भगतजी को दी है वह हम सभी को भी प्राप्त है। लेकिन उसकी
मन की शक्ति पर उनका नियन्त्रण है। बाजार का जादू उन पर अपना हमला नहीं कर पाता
है।
बाजार
में चारों तरफ सामान बिछा रहता है किन्तु उनका मन विचलित नहीं होता, वे अपने
उद्देश्य से नहीं भटकते हैं। पैसा आगे होकर उनसे भीख माँगता है कि मुझे ले लो,
लेकिन उनका लक्ष्य है कि दिन में सिर्फ छः आने पैसे कमाने हैं और वे उतना ही कमाते
हैं बाकी बचा चूरन मुफ्त में बच्चों को बाँट देते हैं। उनके मन में पैसे के प्रति
मोह, माया, दया कुछ नहीं है।
वह
स्वभाव का कठोर व्यक्ति पैसे को रोता हुआ ही छोड़कर आगे चल देता है। ऐसे व्यक्ति
के समक्ष पैसे की व्यंग्य शक्ति अर्थात् कि मैं ही सब कुछ हूँ, कहाँ चल पाती है?
भगतजी जैसे व्यक्ति के उदाहरण द्वारा स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का दृढ़ निश्चय
उसे किसी भी प्रकार के लोभ, मोह व आकर्षण में नहीं बाँध सकता है।
विशेष
:
1.
लेखक ने मन के उच्च भावों की दृढ़ता पर विचार व्यक्त किये हैं जो कि सारगर्भित है।
2.
भाषा खड़ी बोली हिन्दी तथा संस्कृत मिश्रित है। सरल-सहज शैली व्यंजनापूर्ण है।
9.
वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं; आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते
हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अन्तर देखू और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द
से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा
है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा
बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की
चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है।
कठिन-शब्दार्थ
:
अपर
= ऊपर, उच्च।
स्पिरिचुअल
= आत्मिक।
सरोकार
= मतलब।
तृष्णा
= लालसा, इच्छा।
स्पृहा
= इच्छा, कामना।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। लेखक ने इसमें भगतजी के व्यक्तित्व का वर्णन किया है।
व्याख्या
- लेखक कहते हैं कि भंगतजी में कुछ उच्च प्रकार के तत्त्व हैं, भाव हैं। लोग उनके
इस भाव को आत्मिक, धार्मिक तथा नैतिक कहते हैं। उनकी भाव-वृत्ति अन्यों से अलग है
इसलिए लोग उसे अन्य कई नाम भी देते हैं। लेखक कहते हैं कि लोगों की तरह मुझमें वह
योग्यता नहीं है कि मैं शब्दों का अन्तर देखू, समझें और फिर उसको स्पष्ट करूँ।
मुझे शब्दों के खेल से कोई लेना-देना नहीं है।
मैं
विद्वान नहीं हूँ कि शब्दों पर अटकूँ कि भगतजी के भाव किस प्रकार के हैं? लेकिन
मैं इतना कह सकता हूँ कि जहाँ इच्छा, लालसा, कामना है, जहाँ वस्तुओं को इकट्ठा
करके रखने की लाचारी है वहाँ उस तरह का बल उनमें नहीं है। अगर उस बल को ही सच्चा
बल माना जाता है जहाँ पैसे की शक्ति काम करती है तो कहना होगा कि इकट्ठा करने की
इच्छा और सम्पत्ति की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है।
जो
अर्थ-चाह में झुक जाये, वह निर्बल ही होता है। मनुष्य के उच्च भावों को जीतना
व्यक्ति की निर्बलता को ही प्रमाणित करना है। और इस प्रकार का कार्य मनुष्य पर धन
की जीत है। ऐसी स्थिति में मनुष्य का आत्मिक बल उसके लोभ, स्पृहा जैसी वृत्ति के
नीचे दब जाता है।
विशेष
:
1.
लेखक ने मानवीय वृत्ति के प्रकारों पर विशेष प्रभाव डाला है। लोभ, स्पृहा मनुष्य को
निर्बल ही बनाती है जैसे उच्च विचार प्रकट हुए हैं।
2.
भाषा सरल-सहज, खड़ी बोली हिन्दी है व व्यंजनापूर्ण है।
10.
भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा है। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन
में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता है। विद्रोह
नहीं, प्रसन्नता ही भीतर है, क्योंकि कोई रिक्त भीतर नहीं है। देखता हूँ कि खुली आँख,
तुष्ट और मग्न, वह चौक बाजार में से चलते चले जाते हैं।
राह
में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं
रुकते।रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ दो-चार अपने काम
की चीज़ ली, और चले आते हैं। बाजार से हठपूर्वक विमुखता उनमें नहीं है लेकिन अगर
उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चौक-बाजार की सत्ता उनके लिए तभी तक है,
तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है।
कठिन-शब्दार्थ
:
अप्रीति
= प्रेमरहित।
तुष्ट
= प्रसन्न।
मग्न
= खुश।
विमुखता
= मुँह मोड़ना।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने भगत जी की भाव-प्रवृत्ति एवं लक्ष्य पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या
- लेखक ने बताया है कि भगतजी जब बाजार जाते हैं तब बाजार का चौक तरह-तरह के
सामानों से भरा रहता था। ऐसा नहीं था कि भगतजी के मन में उन चीजों से कोई स्नेह
नहीं था। हो सकता है कि उस समूचे सामान के प्रति उनके मन में आशीर्वाद भी हो कि
जिन्हें जरूरत हो इनकी, ये उन तक पहुँचे। कुल मिलाकर भगतजी के मन में सामान के
प्रति विद्रोह, घृणा की भावना तो नहीं ही थी। हाँ प्रसन्नता जरूर थी।
क्योंकि
उनका मन खाली नहीं था, उनका मन संतुष्ट और खुश है तभी वह आँखें खुली रख कर बाजार
से निकलते थे। रास्ते में उनके सामने अनेक फैन्सी स्टोर, मॉल सभी कुछ आते थे लेकिन
वे खड़े ही रह जाते थे। भगतजी उन किसी भी दुकान पर नहीं रुकते थे। वे केवल पंसारी
की दुकान पर रुकते थे। वहाँ से अपनी जरूरत का सामान खरीदते और चले आते थे। ऐसा
नहीं था कि बाजार से विमुखता का कारण उनकी कोई जिद है उन्हें तो सिर्फ जीरा और
काला नमक चाहिए थे।
इसलिए
सारे चौक-बाजार का अस्तित्व उनके लिए तब तक ही उपयोगी था, जब तक उन्हें वहाँ जीरा
मिलता है। कहने का आशय यह है कि भगतजी का आग्रह बाजार से जीरा-नमक लेने तक ही था,
वे अपने उद्देश्य व लक्ष्य से भटकते नहीं थे। बाजार की पूरी सत्ता उनकी नजरों के
सामने होकर भी नहीं होने के बराबर थी।
विशेष
:
1.
लेखक ने भगतजी की तुष्ट वृत्ति एवं खुली आँख रखने के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है
कि इन्द्रियों पर जीत मनुष्य को कहीं नहीं भटका सकती है।
2.
भाषा सरल-सहज, खड़ी बोली हिन्दी एवं व्यंजनापूर्ण शैली का प्रयोग हुआ है।
11.
बाजार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं
जानते कि वे क्या चाहते हैं. अपनी 'पर्चेजिंग पावर' के गर्व में अपने पैसे से केवल
एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति व्यंग्य की शक्ति ही बाजार को देते हैं। न तो वे बाजार
से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन
बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव
की घटी।
कठिन-शब्दार्थ
:
सार्थकता
= सही अर्थ।
बढ़ती
का = प्रसार का, प्रभाव का।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने उन लोगों पर व्यंग्य किया है जो अर्थ का गलत उपयोग करके
बाजार में कपटीपन को बढ़ावा देते हैं और सद्भाव को घटाते हैं।
व्याख्या
- लेखक कहते हैं कि बाजार को सार्थकता अर्थात् सही मायने में सही अर्थ वही व्यक्ति
देता है जो यह जानता है कि वह क्या चाहता है? उसे क्या खरीदना है? किस प्रकार उसके
पैसे का सही उपयोग हो? जो व्यक्ति यह बात नहीं जानते हैं कि वे क्या-क्या चाहते
हैं? वे केवल अपनी क्रय शक्ति के अभिमान में अपने पैसे से केवल बाजार को एक
विनाशकारी शक्ति एवं शैतानी शक्ति तथा व्यंग्य शक्ति ही बाजार को देते हैं।
कहने
का आशय है कि अपने पैसे द्वारा बाजार में होड़ की प्रवृत्ति, पैसे का नाश की
प्रवृत्ति, दूसरों द्वारा व्यंग्य करने की शक्ति ही वह बाजार को दे जाते हैं। इसका
परिणाम यह होता है कि वे लोग बाजार में बाजारूपन अर्थात् व्यवहार का हल्कापन
बढ़ाते हैं। यह हल्कापन व्यवहार में कपट का बढ़ना, धोखा देना, कीमत से ज्यादा
मूल्य, घटिया सामान देना इस तरह की प्रवृत्ति अतिरिक्त पैसा ही बाजार को सिखाता
है।
इस
प्रकार कपट का बढ़ता प्रसार का अर्थ होता है सद्भावों में कमी आना। सद्भाव अर्थात्
अच्छे गुणों की कमी। इसकी कमी से समाज की संस्कृति का ह्रास होता है और इसका
प्रत्यक्ष कारण बाजार में बिना उद्देश्य पैसे की अनुचित क्रय शक्ति का दिखावा ही
है।
विशेष
:
1.
लेखक ने क्रय शक्ति के अनुचित प्रयोग के परिणामों पर प्रकाश डाला है।
2.
हिन्दी खड़ी बोली का प्रयोग एवं व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।
12.
इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद् और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते
हैं, और आपस में कोरे ग्राहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे
को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दीखता है और यह बाजार का,
बल्कि इतिहास का; सत्य माना जाता है। ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं
का आदान-प्रदान नहीं होता; बल्कि शोषण होने लगता है तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार
होता है।
कठिन-शब्दार्थ
:
हास
= नाश, गिरता स्तर।
सुहृद्
= सुहृदय, सज्जन।
कोरे
= केवल, मात्र।
घात
= चाल।
निष्कपट
= जिसमें कपट की भावना नहीं है।
प्रसंग
- प्रस्तुत गद्यांश जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित निबन्ध 'बाजार दर्शन' से लिया
गया है। इसमें लेखक ने अनुचित क्रय शक्ति के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई छल-वृत्ति
एवं कपट-वृत्ति के प्रभावों का वर्णन किया है।
व्याख्या
- लेखक बताते हैं कि कपट मन में आने से
व्यक्ति के सद्भावों का क्षय होता है। अर्थात् उसके गुण छल-कपट में परिवर्तित हो
जाते हैं। इस ह्रास या नांश पर आदमी आपस में भाई-भाई और अच्छे पड़ोसी नहीं रह जाते
हैं। वे केवल एक ग्राहक और विक्रेता की भूमिका ही निभाते हैं।
उनका
व्यवहार इस तरह का हो जाता है कि मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की कोशिश में लगे
हों। एक की हानि में दूसरे को स्वयं का लाभ दिखता है और यही प्रवृत्ति बाजार की
है। यही सत्य बाजार की असली नीति है। यह नीति इतिहास से सत्य का रूप लेकर चली आ
रही है।
इस
प्रवृत्ति के साथ बाजार में लोगों का उनकी आवश्यकताओं को लेकर आदान-प्रदान नहीं
होता बल्कि शोषण होता है। ग्राहक और विक्रेता दोनों एक-दूसरे का शोषण करने को
तत्पर होते हैं और ऐसी स्थिति में कपट सफल होता है और उनका शिकार कोई सज्जन
व्यक्ति ही बनता है। क्योंकि समाज में हर तरह के व्यक्ति मिलते हैं जो इन सब चालों
से दूर रहते हैं। व्यवस्था. उन्हें अपनी चपेट में ले ही लेती है।
विशेष
:
1.
लेखक ने समाज में व्याप्त कपट का चित्रण किया है जो बाजारवाद से पनप कर समाज के हर
क्षेत्र में फैल गया है।
2.
खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग एवं व्यंजनापूर्ण शैली की रचना हुई है।