कविता के साथ
प्रश्न 1. कविता के किन उपमानों को देखकर यह कहा जा सकता है कि 'उषा'
कविता गाँव की सुबह का गतिशील शब्द-चित्र है?
उत्तर : प्रस्तुत कविता में प्रात:कालीन धुंधले-नीले आकाश को राख से
लीपा हुआ चौका बताया गया है। फिर उसे लाल केसर से धुली हुई बहुत काली सिल और स्लेट
पर लाल खड़िया चाक के समान बताया गया है। लीपा हुआ चौका अर्थात् रसोईघर, काली सिल अर्थात्
मिर्च-मसाला पीसने का सिलबट्टा तथा स्लेट आदि उपमान गाँव के परिवेश से लिये गये हैं।
नगरों में इस तरह की चीजें नहीं दिखाई देती हैं। 'किसी की गौर झिलमिल
देह' का उपमान भी ग्रामीण परिवेश से सम्बन्धित है। इस तरह इस कविता में गाँव की सुबह
का गतिशील शब्द-चित्र उपस्थित किया गया है।
प्रश्न 2. भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
नयी कविता में कोष्ठक, विराम-चिह्नों और पंक्तियों के बीच का स्थान
भी कविता को अर्थ देता है। उपर्युक्त पंक्तियों में कोष्ठक से क्या विशेष अर्थ पैदा
हुआ है? समझाइए।
उत्तर : यह कविता प्रयोगवादी शैली की रचना है। इसमें भाषा-शिल्प के
स्तर पर हर नये प्रयोग से अर्थ की अभिव्यक्ति की जाती है। लेखन में कोष्ठक आशय का सूचक
एवं अतिरिक्त ज्ञान का बोधक होता है। विराम-चिह्न से वाक्यार्थ की पूर्ति होती है।
नयी कविता में कोष्ठकों का प्रयोग तो पर्याप्त दिखाई देता है, परन्तु विराम-चिह्न लुप्त
रहते हैं।
कोष्ठक में अंकित पंक्तियों के अर्थ को मुख्य वाक्यार्थ का भावाभिव्यंजक
माना जाता है। उदाहरण के लिए 'अभी गीला पड़ा है' कथन से नीले आकाश रूपी चौके की नमी
एवं ताजगी की व्यंजना हुई है। लीपा हुआ चौका कथन से ताजगी तो व्यक्त हो रही है, परन्तु
कोष्ठकांकित वाक्य . से उसकी नमी का बोध हुआ है। जिसे अभी-अभी लीपा गया है।
अपनी रचना
❖ अपने परिवेश के उपमानों का प्रयोग करते हुए सूर्योदय और सूर्यास्त
का शब्दचित्र खींचिए।
उत्तर : उषाकाल होने पर आकाश में लाल-लाल किरणों को बिखेरता हुआ सूर्य
ऐसा लगता है कि लाल-भूरा मिट्टी का घडा काले-नीले आकाश रूपी तालाब से बाहर आ गया है।
उसे लाल चनर पहन। उसे लाल चूनर पहनी हुई प्रकृति रूपी नारी अपने सिर पर उठा रही है,
परन्तु सूर्य के पूर्ण उदित होते ही वह अब अदृश्य हो गई है। सन्ध्याकाल होने पर सूर्य
श्वेत-पीत-लाल आभा अपनाकर अस्त होता है। ऐसा लगता है कि दिन-भर चलने से थका हुआ सूर्य
विश्राम के लिए पश्चिमांचल में जा रहा है अथवा सूर्य अपनी सहचरी छाया के साथ सन्ध्या-नायिका
से मिलने जा रहा है।
आपसदारी
❖ सूर्योदय का वर्णन लगभग सभी बड़े कवियों ने किया है। प्रसाद की कविता
'बीती विभावरी जागरी' और अज्ञेय की 'बावरा अहेरी' की पंक्तियाँ आगे दी जा रही हैं।
'उषा' कविता के समानान्तर इन कविताओं को पढ़ते हुए नीचे दिए गए बिन्दुओं पर तीनों कविताओं
का विश्लेषण कीजिए और यह भी बताइए कि कौनसी कविता आपको ज्यादा अच्छी लगी और क्यों?
• उपमान • शब्दचयन • परिवेश
बीती विभावरी जाग री! -
अंबर पनघट में डुबो रही -
तारा-घट ऊषा नागरी।
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई -
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिए,
अलकों में मलयज बंद किए -
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे विहाग री।
-जयशंकर प्रसाद
भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथ :
छोटी-छोटी चिड़ियाँ, मँझोले परेवे, बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले डौल के बेडौल
उड़ने जहाज,
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल धुस्सों वाली उपयोग-सुंदरी
बेपनाह काया को :
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुएँ को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलानेवाली कल की उदंड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को हरा देंगी।
- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
उत्तर :
1. उपमान, शब्द-चयन एवं परिवेश-चित्रण की दृष्टि से जयशंकर प्रसाद की
कविता सबसे अच्छी लगी। इसमें शब्द-चित्र, बिम्ब-विधान के साथ अलंकृति, कोमलता एवं गेयता
का पूरा ध्यान रखा गया है।
2. अज्ञेय की कविता में यद्यपि नये उपमान हैं, शब्द-चयन भी ठीक है,
परन्तु परिवेश का रम्य-चित्रण प्रसाद की तरह नहीं हुआ है। शब्द-चित्र एवं बिम्ब-प्रतीक
आदि की अधिकता से इसका भाव-सम्प्रेषण कुछ धीमा पड़ गया है तथा अर्थ-बोध भी कठिन शब्दों
के चयन से अपनी सरलता व सहजता खो रहा है।
3. 'उषा' कविता में शमशेर सिंह ने मानवीकरण एवं नये उपमानों को अपनाया
है, तथापि इसका शब्द-चयन एवं भाव-सौन्दर्य प्रसाद की कविता के समक्ष कमजोर है। किन्तु
ग्रामीण परिवेश में उदित सूर्य व उषा का सौन्दर्य वर्णन अतीव सजीवता लिये हुए है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. "स्लेट पर या लाल खड़िया चाक मल दी हो किसी ने।''उषा'
कविता की इन पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : भोर होने पर अँधेरे से ढके आकाश मानो स्लेट हो और उस पर सूर्य
की लाल-लाल किरणें मानो लाल खड़िया चाक से खूब सारी रेखाएँ खींची गई हों। भोर का ऐसा
आकाशीय दृश्य अतीव सुन्दर लगता है।
प्रश्न 2. 'स्लेट पर या लाल खड़िया चाक मल दी हो किसी ने', 'उषा' कविता
की उपर्यक्त पंक्ति बाल-मनोविज्ञान पर प्रकाश डालती है। कैसे? समझाइए।
उत्तर : ग्रामीण क्षेत्रों के बालक स्लेट पर खड़िया चाक से लिखते हैं।
स्लेट पर वे कभी-कभी लाल खड़िया चाक की रेखाएँ खींच देते हैं और ऐसा करके वे अति प्रसन्न
होते हैं। उक्त पंक्ति से इसी बाल-मनोविज्ञान पर प्रकाश डाला गया है।
प्रश्न 3. "शमशेर बहादुर सिंह की कविता 'उषा' नवीन बिम्बों और
उपमानों का जीवन्त दस्तावेज है।" स्पष्ट करें।
उत्तर : कवि शमशेर ने 'उषा' कविता में प्रात:कालीन धुंधले-नीले आकाश
के लिए राख से नीला हुआ चौका, काली सिल और स्लेट पर लाल खड़िया से मलना आदि नवीन उपमान
दिये हैं। इसी प्रकार 'नील जल में झिलमिलाती गौर देह' से सुन्दर बिम्ब-योजना उपस्थित
की है।
प्रश्न 4. 'उषा' कविता में भोर का प्राकृतिक-सौन्दर्य-चित्रण किस प्रकार
किया गया है?
उत्तर : 'उषा' कविता. में भोर के प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए नवीन उपमानों,
बिम्बों तथा नये प्रतीकों का प्रयोग किया गया है। इसमें प्रात:कालीन आकाश को राख से
लीपा हुआ चौका, लाल केसर से धुली काली सिल बताया गया है। इसमें प्रकृति का शब्द-चित्र
सजीव अभिव्यक्त हुआ है।
प्रश्न 5. 'राख से लीपा हुआ चौका'-कवि ने ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर : भोर के समय आकाश में कुछ भूरा-धुंधला अंधेरा फैला रहता है,
उसमें नीलापन कम और कालापन अधिक रहता है। उसमें ओसकणों की नमी भी रहती है। इस कारण
उसे राख से लिपे हुए गीले चौके के समान बताया है जो कि ग्रामीण परिवेश में सुबह अंधेरे
में ही रसोई को लीपा जाता है।
प्रश्न 6. "जादू टूटता है इस उषा का अब सूर्योदय हो रहा है।"
'उषा' कविता की प्रस्तुत पंक्ति में 'जादू टूटता है' का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : भोर होते ही आकाश में कुछ-कुछ लालिमा फैलने लगती है, फिर नीले
आकाश में सूर्य का गौर झिलमिलाता तेज प्रकाश से युक्त शरीर या बिम्ब चमकने लगता है।
इससे उषा का प्राकृतिक सौन्दर्य समाप्त हो जाता है और ऐसा लगता है कि अब उसका जादू
टूट गया है।
प्रश्न 7. काली सिल और स्लेट का उपमान देकर कवि क्या बताना चाहता है?
उत्तर : भोर के काले-नीले आकाश पर सूर्य की लाल किरणें पड़ने से पूर्व
जो प्राकृतिक शोभा दिखाई देती है, 'उसकी अतीव सुन्दरता बताने के लिए कवि ने इस तरह
का उपमान दिया है, अर्थात् कवि इससे भोर की प्राकृतिक सुन्दरता बताना चाहता है।
प्रश्न 8. 'उषा' कविता के शिल्प-सौन्दर्य की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर : 'उषा' कविता में बिम्बधर्मी प्रयोग करते हुए सूर्योदय से ठीक
पहले के पल-पल परिवर्तित परिवेश का शब्द-चित्र उपस्थित किया गया है। इसमें नवीन उपमानों,
बिम्बों और नये प्रतीकों के द्वारा शिल्प-सौन्दर्य को निखारा - गया है।
प्रश्न 9. 'उषा' शीर्षक कविता से कवि ने क्या व्यंजना की है?
उत्तर : 'उषा' कविता से कवि ने यह व्यंजना की है कि सूर्य के तेज प्रकाश
के समान जीवन में गतिशीलता एवं जीवन्तता रखना आवश्यक है। सूर्योदय से आत्मोन्नति एवं
प्रगति का सन्देश अपनाना चाहिए कि हर काली-नीली निराशा के पश्चात् प्रकाशयुक्त आशा
का उदय होता है।
प्रश्न 10. 'नील जल में झिलमिलाती गौर देह के द्वारा किस दृश्य का चित्रण
हुआ है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : कवि ने इस दृश्य-निरूपण के द्वारा सूर्योदय का चित्रण किया
है। उसे लक्ष्यकर कवि कहता है कि आकाश रूपी नीले जलाशय में सूर्य की प्रकाशित किरणें
बिम्ब गोरी देह वाली नायिका के समान झिलमिला रही हैं।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. 'उषा' कविता में व्यक्त केन्द्रीय भाव को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : 'उषा' शमशेर बहादुर सिंह द्वारा लिखित कविता है, जो कि प्रकृति
के सुन्दर दृश्य का वर्णन करती है। इस कविता में कवि ने नए बिम्ब, नए प्रतीक, नए उपमानों
का प्रयोग किया है। कविता 'उषा' में सूर्योदय से ठीक पहले के परिवर्तित होते दृश्य
को नवीन उपमानों से सजाया है। सूर्य उदित होता है उससे पहले आकाश नीले रंग के शंख की
तरह दिखाई पड़ता है तो कभी राख से लीपे चौके की तरह लगता है। जो प्रात:कालीन नमी के
कारण अभी तक गीला है।
कभी कवि को सूर्य उदय से पहले आकाश काली सिल की भाँति लगता है तथा उदित
सूर्य की लालिमा, काली स्लेट पर लाल चॉक से खींची रेखाएँ प्रतीत होती हैं। उस समय आकाश
नीले जलाशय समान सुंदर मनोरम प्रतीत होता है, जिसमें सूर्य की किरणें गौर वर्ण की नायिका
समान तैरती प्रतीत होती हैं। शनैः शनैः सूर्योदय हो जाता है और उषा का जादू तेज प्रकाश
के साथ खत्म हो जाता है। कवि ने इसके माध्यम से गाँव के जीवंत परिवेश का वर्णन किया
है। जहाँ काली सिल, राख से लीपा चौका, स्लेट पर लाल रेखाएँ हैं, जहाँ रंग हैं, गति
है और भविष्य का उजाला है, साथ ही हर कालिमा को चीर कर आने वाली 'उषा' है, का विशेष
वर्णन किया है।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1. कवि शमशेर बहादुर सिंह के कृतित्व एवं व्यक्तित्व का परिचय
दीजिए।
उत्तर : शमशेर बहादुर सिंह आधुनिक हिन्दी कविता के प्रगतिशील कवि हैं।
ये हिन्दी और उर्दू के विद्वान हैं। इनका जन्म 13 जनवरी, सन् 1911 को देहरादून (उत्तराखंड)
में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा देहरादून से तथा उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय
से हुई। उकील बन्धुओं से चित्रकारी में प्रशिक्षण प्राप्त किया।
कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, चुका भी हूँ मैं नहीं (काव्य-संग्रह),
दोआब (निबंध संग्रह), प्लाट का मोर्चा (कहानी संग्रह) आदि रचनाएँ हैं। सन् 1977 में
'चुका भी हूँ मैं नहीं' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा कवि विचारों के स्तर पर
प्रगतिशील और शिल्प के स्तर पर प्रयोगधर्मी कवि सम्मान प्राप्त हुआ। शमशेर की पहचान
एक बिम्बधर्मी कवि के रूप में है। उनकी मूल चिंता माध्यम का उपयोग करते हुए भी बंधन
से परे जाने की है।
उषा
शमशेर बहादुर सिंह
कवि परिचय - शमशेर बहादुरसिंह का जन्म
सन् 1911 ई. में देहरादून में हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा देहरादून में हई तथा इलाहाबाद
से बी.ए. उत्तीर्ण कर ये उकील बन्धुओं से चित्रकला का प्रशिक्षण लेने दिल्ली में उनके
विद्यालय में प्रविष्ट हुए। फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. किया और 'रूपाभ' पत्रिका
में सहायक सम्पादक बने। तत्पश्चात् 'कहानी.', 'नयी कहानी', 'कम्यून', 'माया', 'नया
पथ' आदि अनेक पत्रिकाओं के सम्पादन में सहयोग किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में यू.जी.सी.की योजना के अन्तर्गत 'उर्दू-हिन्दी
कोश' का सम्पादन किया। सन् तक विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचन्द सृजनपीठ
के अध्यक्ष रहे। उन्होंने सन् 1932-33 में लिखना प्रारम्भ किया। इनकी प्रारम्भिक रचनाएँ
'सरस्वती' एवं 'रूपाभ' में प्रकाशित हुईं। इन्हें 'दूसरा सप्तक' का प्रमुख कवि माना
जाता है। सन् 1993 में इनका दिल्ली में निधन हुआ।
शमशेर बहादुर सिंह पर मार्क्सवादी और प्रयोगवादी दोनों प्रभाव देखने
को मिलते हैं। प्रेम, सौन्दर्य, वर्ग-चेतना के साथ जीवन-मूल्यों को इन्होंने विशेष
महत्त्व दिया है। इनकी प्रकाशित रचनाएँ हैं - 'कुछ कविताएँ', 'कुछ और कविताएँ', 'चुका
भी हूँ नहीं मैं', 'इतने पास अपने', 'बात बोलेगी', 'काल तुझसे होड़ है मेरी' आदि। इन्हें
साहित्य अकादमी पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार और कबीर सम्मान आदि पुरस्कारों से सम्मानित
किया गया।
कविता-परिचय - पाठ्यपुस्तक में शमशेर
की 'उषा' कविता समाविष्ट है। इस कविता में सूर्योदय से कुछ क्षण पहले के प्राकृतिक
सौन्दर्य और परिवेश का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया है। इसमें कवि ने बिम्बों के माध्यम
से प्रकृति की गति को शब्दों में बाँधने का अनोखा प्रयास किया है। भोर होने से पहले
आकाश का रंग बदलने लगता है, उसमें नमी एक लीपे हुए चौके की तरह साकार हो जाती है। कुछ
देर बाद सूर्य की लालिमा फैलने लगती है, जिससे आकाश से लेकर धरती तक का परिवेश परिवर्तित
होने लगता है।
फिर सूर्योदय होने से उषा का सारा सौन्दर्य तिरोहित हो जाता है तथा
भविष्य की उजास फैल जाती है। इस तरह दिन की शुरुआत होती है, जिसमें रंग, गति तथा प्रकाश
के साथ नये एहसास का प्रसार होने लगता है। इस प्रकार उषा काल का सारा सौन्दर्य गतिशील
एवं मनोरम बन जाता है।
सप्रसंग व्याख्याएँ
उषा
प्रात नभ था बहत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से
कि जैसे धुल गई हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने।
कठिन-शब्दार्थ :
नभ = आकाश।
चौका = रसोई बनाने का लिपा-पुता स्थान।
सिल = मसाला पीसने का पत्थर।
प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि शमशेर
बहादुर सिंह की कविता 'उषा' से लिया गया है। इसमें कवि ने प्रात:कालीन प्रकृति का वर्णन
किया है। जब उषा (सुबह) का आगमन होता है, तब आकाश की विभिन्न छटाएँ अत्यन्त मनोहर प्रतीत
होती हैं।
व्याख्या - प्रात:कालीन वातावरण का
चित्रण करते हुए कवि कहता है कि प्रात:काल होते ही आकाश का रंग नीले शंख के समान गहरा
नीला हो गया, अर्थात् शंख की तरह नीला, निर्मल एवं मनोरम बन गया। फिर भोर हुई तो आकाश
में हल्की-सी लाली बिखर गई तथा आसमान के वातावरण में कुछ नमी भी दिखाई देने लगी।
कवि कहता है कि उस समय आकाश ऐसा लग रहा था कि मानो राख से लीपा हआ चौका
हो जो अभी-अभी लीपने से कछ गीला हो। आशय यह है कि भोर का दृश्य कुछ काले और लाल रंग
के मिश्रण से अतीव मनोरम लंगने लगा। तब कुछ क्षणों के बाद ऐसा लगने लगा कि आकाश काली
सिल हो और उसे अभी-अभी केसर से धो दिया हो अथवा किसी ने काली-नीली स्लेट पर लाल रंग
की खड़िया चाक मल दी हो।
अर्थात् भोर होने पर अँधेरे से ढकी आकाश काली सिल तथा स्लेट के समान
लगने लगा और उस पर सूर्य की लालिमा लाल केसर एवं लाल खड़िया चाक के समान प्रतीत होने
लगी। इससे प्रात:काल का आकाशीय परिवेश अतीव सुरम्य-आकर्षक बन गया।
विशेष :
1. कवि ने 'भोर' का चित्रण सरल, सुबोध एवं लघु आकार में किया है।
2. भाषा तत्सम-तद्भव एवं अंग्रेजी-हिन्दी मिश्रित है।
3. उपमा, उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग प्रस्तुत हुआ है।
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और ............
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।
कठिन-शब्दार्थ :
गौर = गोरा।
देह = शरीर।
झिलमिल = चमकता हुआ।
प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश कवि शमशेर
बहादुर सिंह की कविता 'उषा' से लिया गया है। सूर्योदय से पहले पल-पल बदलता प्रकृति
का सुन्दर रूप वर्णन किया गया है।
व्याख्या - कवि सर्योदय से पहले आकाश
में पल-पल परिवर्तित होते हुए सुरम्य वातावरण का चित्रण करते हुए बताता है कि प्रातः
जब नीले वर्ण के आकाश में सूर्य की चमकती हुई श्वेत आभा दिखाई देने लगती है, तो ऐसा
लगता है जैसे नीले जल में किसी सुन्दरी की गोरी देह झिलमिल कर रही हो, अर्थात् प्रातःकालीन
नमी एवं मन्द हवा के कारण सूर्य की किरणें हिलती हुई नायिका के समान लगती हैं, सूर्य
का श्वेत बिम्ब भी हिलता-सा प्रतीत होता है।
कुछ क्षण बाद जब सूर्य उदित होता है, तब उषा काल के पल-पल बदलते रंगों
का अथवा प्राकृतिक परिवेश का चमत्कारी सौन्दर्य समाप्त हो जाता है, अर्थात् सूर्योदय
होते ही उषा काल का रंगीन सुरम्य वातावरण चमत्कारी जादू की तरह समाप्त हो जाता है और
चारों तरफ सूर्य का तेज प्रकाश फैल जाता है।
विशेष :
1. कवि ने उषाकाल के दौरान सूर्य की लाल, पीली व श्वेत आभा का सुन्दर
वर्णन किया है।
2. भाषा भावानुरूप सरल व सुबोध है। उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग हुआ है।