उपभोग परिकल्पनाएं ( Consumption Hypotheses)
अथवा
व्यय-आचरण के सामान्य सिद्धांत
प्रश्न- व्यय आचरण के सामान्य सिद्धान्तों की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिये ग
→ उपभोग फलन के जीवन चक्र परिकल्पना, स्थायी आय, सापेक्षिक आय एवं प्रत्यक्ष आय की व्याख्या करे?
उत्तर-
केन्स
ने उपभोग
के निर्धारण के लिए आय
के निरपेक्ष आकार को महत्त्व दिया था जों उपभोग के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के आधार
पर यह बताया था कि आय
बढने
पर उपभोग में भी वृद्धि होती है परन्तु उतनी नहीं जितनी कि आय में वृद्धि होती है। बाद
के अर्थशास्त्रियों ने उपभोग के सम्बंध में व्यय आचरण के सामान्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया ।
यद्यपि इन सिद्धांतों में
उपभोक्ता के व्यय
के आचरण की व्याख्या विभिन्न रूपों में की गई हैं, फिर भी इनमें कुछ सामान्य
विशेषताएँ पायी जाती
है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है:
(1)
प्रत्येक सिद्धांत में उपभोग एवं आय के बीच सम्बंध की व्याख्या की गई है।
(2)
प्रत्येक सिद्धांत में व्यष्टिगत
एवं समष्टिगत सम्बंधों दोनों पर विचार किया गया है: तथा
(3)
प्रत्येक सिद्धांत का प्रयोग शुरू में उपभोक्ता के व्यक्तिगत आचरण की व्याख्या करने के
लिए किया गया और बाद में उपभोक्ताओं के कुल आचरण के सम्बंध में लागू किया गया।
व्यय आचरण के सामान्य सिद्धांत
निम्नलिखित है-
(1)
निरपेक्ष आय परिकल्पना
:- निरपेक्ष
आय परिकल्पना की सर्वप्रथम स्पष्ट व्याख्या प्रो० केन्स ने इन शब्दों मे की ----
"मनुष्य नियमतः तथा औसतन अपनी आय में वृद्धि के साथ अपने उपभोग में वृद्धि
करते है लेकिन उतनी नहीं जितनी की उनकी आय में वृद्धि होती है।"
केन्स की यह मान्यता कि आय में वृद्धि के साथ- साथ औसत तथा सीमांत उपभोग प्रवृत्ति में कमी तथा बचत
प्रवृत्ति में औसत वृद्धि होती है, व्यावहारिक अनुभव द्वारा सत्य सिद्ध नहीं हुई है। अमेरिकी
अर्थशास्त्री कुजनेंट्स ने अपने अध्ययन में देखा कि 1869-1938 की अवधि में अमेरिका में
राष्ट्रीय आय में वृद्धि के बावजूद
औसत उपभोग- वृद्धि में कमी नहीं हुई और न ही औसत बचत प्रवृत्ति में वृद्धि हुई। इस दीर्घ अवधि में औसत उपभोग प्रवृत्ति 0.9
प्रतिशत पर स्थिर रही और इसलिए सीमांत उपभोग प्रवृत्ति भी इसी के समान स्थिर थी।
केन्स
की उपभोग-क्रिया
को बीजीय रूप में इस प्रकार लिखा जा सकता है
C
= a + bY
जहाँ
a स्वायत्त उपमांग को
व्यक्त करता है जोकि आग के साथ परिवर्तित नहीं होता है। स्थिर व से अभिप्राय यह है
कि आय शून्य होने पर भी कुछ उपभोग रहता ही है जोकि पहले से की गयी बचत अथवा अन्य देशों
से लिये गये ऋणों के द्वारा सम्भव होता
है। b सीमांत उपभोग प्रवृत्ति
∆C/∆Y को
व्यक्त करता है। केन्स का उपभोग फलन यह दिखाता है कि आय बढ़ने पर औसत उपभोग प्रवृत्ति
(C/Y)
कम होती है।
दूसरी ओर कुजनेट्स का उपभोग- फलन इस प्रकार है
C = bY
चित्र में स्वायत्त उपभोग (a) न होने के कारण उपभोग रेखा मूल बिन्दु से ही आरम्भ हो जाती
है। दीर्घकाल में APC स्थिर रहती है तथा 0.9 के
बराबर उपभोग प्रवृत्ति केन्स द्वारा अनुमानित आकार से काफी अधिक है। कुछ अर्थशास्त्रियों
का विचार है कि केन्स की व्याख्या अल्पकालीन है जबकि कुजनेट्स ने दीर्घकालीन उपभोग
क्रिया की व्याख्या की है। अल्पकाल में जब आय
में परिवर्तन होते है तो MPC < APC, परन्तु दीर्घकाल में जब आय में वृद्धि की प्रवृत्ति
रहती है तो MPC = APC I
(2) सापेक्ष आय परिकल्पना :- इस
सिद्धान्त का प्रवर्तन सर्वप्रथम डॉरोथी ब्रैंडी तथा रोज फ्रीडमैन ने किया था। सापेक्ष आय परिकल्पना के अनुसार बचत की दर आय के स्तर पर नहीं, वरन् आय की श्रेणी
अथवा पैमाने में व्यक्ति की सापक्षिक स्थिति पर निर्भर करती है।
अमेरिकी अर्थशास्त्री ड्यूसेनबेरी ने 1949 में अपनी पुस्तक "Income, saving and the theory of consumer Behaviour " में बताया कि
उपभोग का निर्धारण निरपेक्ष
आय के बजाय किसी व्यक्ति की सापेक्ष आय द्वारा होता है। केन्स ने उपभोग के निर्धारण में चालू आय को आधार
माना था, जबकि ड्यूसेनबेरी ने पहले के आय स्तर को महत्त्वपूर्ण
माना है।
ड्यूसेनबेरी के अनुसार किसी समय विशेष में उपभोग मुख्यतः वर्तमान आय द्वारा प्रभावित नहीं होता, वरन् लोग अपनी आय की सापेक्ष स्थिति के अनुसार व्यय करते हैं। समय में परिवर्तन के साथ लोगों के व्यय की संरचना में तभी परिवर्तन होता है जब उनकी सापेक्षित स्थिति में परिवर्तन होता है। वास्तव में ड्यूसनबरी का सिद्धांत इस मनोवैज्ञानिक समर्थन पर आधारित है कि समाज में लोग अपने पड़ोसियों का अनुसरण करना चाहते है और बराबर एक बेहतर जीवन स्तर को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते है। इसे उन्होंने प्रदर्शन-प्रभाव कहा है। अतः जब लोग एक बार किसी नये एवं उच्चतर जीवन स्तर को प्राप्त कर लेते है तो आय में कमी होने पर भी वे उससे नीचे जाना नहीं चाहते। इसे रैचेट प्रभाव" कहा गया है। आय में कमी हो जाने पर भी लोग अपना उपभोग उसी ऊँचे स्तर पर बनाये रखना चाहते है जो कि उन्होंने पहले प्राप्त कर लिया था। इसे रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं।
चित्र में OL कुल आय की रेखा है तथा CLR दीर्घकालीन उपभोग
क्रिया को व्यक्त करती है। व्यथ योग्य आय के Y1 स्तर
पर उपभोग व्यय Y1C1
के बराबर है। यदि आय स्तर गिरकर Yo हो जाता है
तो ऐसी स्थिति में उपभोग स्तर गिरकर YoCo के
बजाय YoC'o होगा। बचत में कमी करके लोग अब भी उपभोग के पूर्व स्तर के
निकट बने रहने का प्रयास करेंगे C'o बिन्दु CSR रेखा पर है जोकि अल्पकालीन उपभोग स्तर की रेखा है।
रैचेट प्रभात यह बताता है कि दीर्घकाल में APC स्थिर रहती
है तथा MPC के बराबर होती है। जबकि अल्पकाल में MPC < APC होता है। आय
में वृद्धि का क्रम पुनः आरम्भ होने पर, अल्पकालीन उपभोग रेखा दीर्घकालीन रेखा के
साथ मिल जायेगी और Y1 आय स्तर C1 उपभोग का स्तर प्राप्त कर लिया जायेगा।
प्रो० ड्यूसनबरी ने उपभोग प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले
तत्वों के सम्बंध में दो विचार प्रकट किये हैं जिन्हें ड्यूसनबरी परिकल्पना कहते
हैं। ये निम्नलिखित है:
(a) उनके अनुसार किसी व्यक्ति का उपभोग-व्यय केवल उसके
वर्तमान आय द्वारा ही नहीं, वरन् उसके द्वारा भूतकाल में प्राप्त किये गये जीवत
स्तर के द्वारा भी निर्धारित होता है। पहले की अपेक्षा आय में कमी होने पर उपभोग
व्यय में कमी तो होती है लेकिन आय में कमी के बराबर नही, क्योंकि नयी परिस्थितियों
में लोग अपने उपभोग में कमी करने में अपने को असमर्थ पाते है। इस प्रकार की
प्रवृत्ति को "दाँतेदार पहिया प्रभाव "कहते है। इसका मतलब यह है कि जिस
प्रकार दाँतेदार पहिया केवल आगे की ओर एक ही दिशा में घूम सकता है और विपरीत दिशा
में नहीं जा सकता। इसी प्रकार आय में कमी होने पर भी अर्थव्यवस्था की उपभोग व्यय
पहले के स्तरों पर नहीं गिर सकता। इस सम्बंध में ड्यूसनबरी ने प्रदर्शन प्रभाव का
जिक्र किया है जिसके अनुसार निम्न आय वर्ग के लोग उच्च आय वर्ग के लोगों का अनुकरण
करते है लेकिन जैसे ही वे उच्च आय वर्ग के लोगों द्वारा उपभोग की जाने वाली
वस्तुओं का उपभोग करने लगते है वैसे ही उच्च आय वर्ग के लोग उन वस्तुओं को छोड़ और
भी अच्छी वस्तुओं की खोज में लग जाते है। इससे उपभोग में वृद्धि होती है तथा बचत
की प्रवृत्ति कमजोर पड़ जाती है।
(b)
दूसरा विचार कुल उपभोग-आय अनुपात (C/Y) के चक्रीय उथल पुथल की व्याख्या करता है। ड्यूसनबरी के
अनुसार व्यययोग्य आय में वृद्धि होने पर कुल उपभोग आय अनुपात (C/Y) मे
कोई परिवर्तन नहीं होता, लेकिन व्यय योग्य आय में कमी होने पर इस अनुपात में
वृद्धि होती है, क्योंकि उपभोग का स्तर पीछे की ओर नहीं जा सकता। यहाँ तक कि मन्दी
की अवस्था में भी ऐसा नहीं होता।
ड्यूसनबरी का सिद्धांत पहले की उपभोग प्रक्रिया के
सिद्धान्तों की तुलना में एक प्रगतिशील कदम है, लेकिन इस सिद्धांत की कुछ सीमाएँ
है जिनमें निम्ननिखित प्रमुख है:-
(i) यह सिद्धांत बतलाता है कि उपभोग एवं आय सर्वदा एक ही दिशा
में परिवर्तित होते हैं, लेकिन कभी-कभी उपभोग में वृद्धि होने पर आय में थोडी कमी
भी हो जाती है।
(ii) इस सिद्धांत के अनुसार उपभोग में आय वृद्धि के आकार के
अनुपात में वृद्धि होती है, लेकिन ऐसा भी देखा गया है कि उपभोग में अनुपात से कम
वृद्धि होने पर भी आय में भारी वृद्धि हो जाती है।
(iii) इस सिद्धान्त के अनुसार उपभोक्ता का आचरण पीछे की ओर
नहीं मुड़ता, लेकिन वास्तव में समय के साथ यह धीरे-धीरे पीछे की ओर मुड़ता है।
लेकिन बाद में दिये गये उपभोग प्रक्रिया के सिद्धान्तों में
इन कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया गया।
(3) जीवन चक्र परिकल्पना :- मोडीगिल्यानी तथा एण्डों ने 1963 में बताया कि किसी अवधि में
उपभोग उस अवधि में चालू आय के बजाय जीवनकाल की सम्भावित आय से सम्बन्धित होता है। इसी
परिकल्पना को जीवन चक्र सिद्धांत कहा गया है।
यह माना गया है कि व्यक्ति द्वारा उपभोग-व्यय का निर्धारण उसके जीवनकाल में प्राप्त की जाने वाली सम्भावित आय के आधार पर किया जाता है। अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में वह अपनी आय से अधिक उपभोग पर व्यय करता है और इसके लिए वह ऋण लेता है अथवा अपने माता- पिता से प्राप्त धन का व्यय करता है। अपने जीवन के सक्रिय काल में जब वह काम करता है तो आय से कम उपभोग करके बचत करता है। इस बचत का वह परिसम्पत्तियों में विनियोग करता है ताकि इस संचित धन को वह भविष्य में उपभोग पर व्यय कर सके। बाद में अवकाश के वर्षों में वह अधिव्यय करता है। आय से अधिक व्यय करके वह अपने उपभोग स्तर में कमी नहीं आने देता, बल्कि कुछ सुधार ही करता है। इसे रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं-
चित्र में CC' उपभोग की रेखा है और YY' आय
रेखा है। यदि कोई व्यक्ति 15 वर्ष की आयु से कार्य करने लगता है तो 25
वर्ष की आयु तक उसकी आय से उपभोग अधिक रहता है और वह अधिव्यय करता है। 25 से 65
वर्ष की आयु तक उसकी आय उपभोग व्यय से अधिक रहती है और वह बचत करता हैं। 65 वर्ष
के बाद उसकी आय उपभोग से कम रहती है और वह अधिव्यय करता है। कुल मिलाकर उसके
द्वारा की गयी AHB के बराबर बचत उसके अधिव्यय (CYA + BC'Y') के बराबर होती
है और इस प्रकार उसके जीवन के अन्त में बचत शून्य रह जाती है।
जीवन-चक्र परिकल्पना के आधार पर उपभोग व्यवहार को निम्न
सूत्र के रूप में व्यक्त किया जा सकता है-
C1=b1YLt++b2YeL+b3W1
जहाँ C1 उपभोग व्यय जोकि
t अवधि में किया जाता है, YLt चालू अवधि में t उपार्जित आय है, YeL
जीवन में भविष्य के वर्षों में प्राप्त की जाने वाली सम्भावित आय की वार्षिक औसत है,
W1 वर्तमान में उपलब्ध धन अथवा परिसम्पत्तियों की मात्रा है। b1 चालू आय में से
सीमांत उपभोग- प्रवृत्ति, b2 जीवन अवधि की सम्भावित आय
में से सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति, तथा b3 धन में से सीमांत उपभोग प्रवृत्ति
को दर्शाती है।
उपर्युक्त सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि उपभोग केवल वर्तमान
आय पर ही निर्भर नहीं करता, बल्कि भविष्य के वर्षों की सम्भावित
आय तथा उपलब्ध धन की मात्रा पर भी निर्भर करता है। मान्यता यह है कि जीवन के सक्रिय
वर्षों में आय स्थायी रूप से बढ़ती रहेगी और इससे उपभोग भी बढ़ेगा। अमेरिका में उपभोग
क्रिया का अध्ययन करते समय मोडीगिल्यानी तथा एण्डो ने यह मान्यता अपनायी कि भविष्य की
सम्भावित आय चालू आय का एक गुणज है। यदि b चालू आय का गुणज माना जाय तो YeL = bYLt । इस मान्यता
के आधार पर समाज के लिए कुल उपभोग क्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया
जा सकता है।
C1 = (b1+b2) YLt
+ b3W1
जीवन चक्र परिकल्पना से यह पता चलता है कि समाज
के अलग-अलग वगों में उपभोग तथा आय के बीच सम्बंध आनुपातिक नहीं है। जीवन के सक्रिय
वर्षों में आय स्तर ऊंचा होने पर लोग आय का कम भाग
उपभोग पर व्यय करते हैं, अर्थात् APC नीची रहती है। दूसरी ओर कार्यकाल
के प्रारम्भिक वर्षों में तथा अवकाश के वर्षों में औसत उपभोग प्रवृत्ति ऊँची रहती है।
जीवन चक्र सिद्धांत ने उपभोग क्रिया
की पहेली का हल जानने में सहायता की है, परन्तु यह त्रुटियों से रहित नहीं है। गार्डनर
एक्ले के अनुसार यह अव्यावहारिक दिखायी पडता है कि लोग पहले से ही अपनी आयु
तथा भविष्य में प्राप्त होने वाली आय, ऋण तथा धन प्राप्त करने आदि के अनुमान लगा सकते
है। अन्य अर्थशास्त्रियो के अनुसार, यदि यह मान भी लिया जाय कि भविष्य में आय का अनुमान
लगाया जा सकता है तो भी दीर्घकाल में व्यय करने के लिए ऋण प्राप्त करने की सम्भावनाओं
का अनुमान लगाना सम्भव नहीं है। उपभोग व्यय का आकार तरलता अवरोधों से प्रभावित हो सकता है। इस कारण से भविष्य
की आय की अपेक्षा वर्तमान आय ही अधिक सार्थक आधार है।
(4) स्थायी आय परिकल्पना :- 1957 में प्रो. मिल्टन फ्रीडमैन ने
अपनी पुस्तक 'A Theory of consumption function में सर्वप्रथम स्थायी आय परिकल्पना
का उल्लेख किया। स्थायी आय परिकल्पना के अनुसार परिवार आगे आने वाले वर्षों में अपनी
आय का अनुमान पहले ही से लगा लेते है और इन मोटे अनुमानों के अनुसार अपने उपभोग व्यय
तथा बचत का समायोजन करते हैं।
फ्रिडमैन के
अनुसार स्थायी
उपभोग स्थायी आय का एक भाग अथवा अनुपात है।
CP= KYP, जहाँ CP स्थायी उपभोग है, YP
स्थायी आय
है तथा K स्थायी आय का अनुपात
है जोकि उपभोग पर व्यय किया
जाता है। स्थायी उपभोग
स्थायी आय का एक अंश है, परन्तु यह स्थायी आय के स्तर पर निर्भर नही करता
है। इसका निर्धारण उन तत्त्वों पर निर्भर करता है जिनके आधार पर उपभोक्ता यह निर्णय
करता है कि वह चालू उपभोग पर व्यय करें अथवा परिसम्पत्तियों का संग्रह
करे। स्थायी आय का वह अनुपात जोकि उपभोग किया जाता है, निम्नलिखित तत्त्वों से प्रभावित
होता है।
(1)
ब्याज दर अधिक होने पर बचत अधिक की जायेंगी तथा उपभोग व्यय कम होगा। ब्याज दर में
कमी होने पर उपभोग में वृद्धि होगी।
(2)
श्रम से आय तथा भौतिक परिसम्पत्तियों से प्राप्त आय का सापेक्ष आकार भी
उपभोग व्यय को प्रभावित करता
है। किसी व्यक्ति के पास जितना अधिक,
धन अथवा परिसम्पत्तियाँ होगी उतनी ही उसकी उपभोग प्रवृत्ति अधिक होगी।
(3)
तत्काल उपभोग करने अथवा
परिसम्पत्तियों और धन के संग्रह में वृद्धि करने की इच्छा
भी उपभोग पर आय के अनुपात को प्रभावित करती है।
इस
प्रकार
CP
= K (i,w,u) YP
अर्थात स्थायी उपभोग के रुप में स्थायी आय का अनुपात व्याज की दर (i) मानवीय तथा अमानवीय
धन के बीच अनुपात (w) तथा परिसम्पत्तियों के आकार में वृद्धि की इच्छा (u) पर निर्भर करता है।
जब अल्पकालीन आय स्थायी आय से भिन्न होती है तों उपभोक्ता इस अन्तर से बचत अथवा अधिव्यय करता है। इस प्रकार, नियोजित अथवा स्थायी बचत मापी गयी बचत से भिन्न होती है तथा अल्पकालिक उपभोग में परिवर्तन स्थायी उपभोग तथा मापे गये उपभोग में अन्तर उत्पन्न करते है। इसलिए बचत तथा उपभोग के वार्षिक ऑकडे उपभोक्ता के व्यवहार का सही चित्र प्रस्तुत नहीं करते हैं।
चित्र में CLR रेखा दीर्घकालीन उपभोग क्रिया दर्शाती है। औसत उपभोग
प्रवृत्ति स्थिर है तथा सीमांत उपभोग प्रवृत्ति के बराबर है। CSR तथा C'SR अल्पकालीन उपभोग
क्रिया की रेखाएं है। इनकी आकृति यह बताती है कि अल्पकालीन सीमांत उपभोग प्रवृत्ति
दीर्घकालीन सीमांत उपभोग प्रवृत्ति से कम है। ऐसा इसलिए है कि यह निश्चित नहीं है
कि आय की वृद्धि दीर्घकाल में भी बनी रहेगी जिससे व्यक्तियों द्वारा उपभोग व्यय का
चालू आय के साथ समायोजन नहीं हो पाता है।
चित्र में Y1
चालू तथा स्थायी आय दोनों को ही व्यक्त करता है। Eo उपभो
स्तर Y1 का अनुपात है। आय Y2 पर
बढ़ जाने पर उपभोग का निर्धारण अल्पकालीन उपभोग की रेखा पर E1 पर
होगा। आय में वृद्धि के साथ APC में कमी होती है। यदि Y2 के स्तर पर आय में वृद्धि अगली अवधि में भी बनी रहती है तो
C'SR उपभोग क्रिया की रेखा होगी। उपभोग बढकर E2 हो
जायेंगा जोकि दीर्घकालीन उपभोग क्रिया की रेखा CLR पर स्थित है। इस
प्रकार, अल्पकाल में आय बढ़ने पर APC में कमी होती है। परन्तु जब आय की वृद्धि
स्थायी होती है तो उपभोग को स्थायी आय के साथ समायोजित कर लिया जाता है।
आलोचना
लेकिन इस सिद्धांत की आलोचना भी निम्नलिखित आधारों पर की गई
है
(i) यह सिद्धांत उपभोक्ता के अनुमान एवं दीर्घकालीन योजना पर
अत्यधिक जोर देता है, जबकि वास्तविकता यह है कि उपभोक्ता के आचरण में प्रायः
परिवर्तन होता रहता है।
(ii) इस
सिद्धांत में स्थायी आय स्तर में उपभोक्ता व्यय के अनुपात की स्थायी माना गया है
(जिसे K कहते हैं), लेकिन आलोचको का मत है कि K तथा आय के स्तर के
बीच इस प्रकार की स्वतन्त्रता नहीं होती।
(iii) आलोचकों ने इस सिद्धांत में वर्णित क्षणिक उपभोग तथा
क्षणिक आय के सम्बंध को भी सही नहीं माना है। क्षणिक आय में से सीमांत उपभोग की
प्रवृति को शून्य मान लेना गलत है, क्योंकि निम्न आय वर्ग के लोग वर्तमान व्यय को
पूरा करने के लिए तथा आय में अस्थायी कमी होने पर अबचत से बचने के लिये अपनी क्षणिक
अथवा अप्रत्याशित आय में से खर्च करते ही है।
निष्कर्ष:-
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद यह कहा जा सकता है कि यह सिद्धांत उपभोक्ता के आचरण की व्याख्या करने में वास्तविकता के बहुत ही करीब है।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)