प्रश्न - सार्वजनिक ऋण के शास्त्रीय दृष्टिकोण की व्याख्या करें ?
सार्वजनिक ऋण की आन्तरिक और बाह्य सीमाओ का वर्णन करें ? सार्वजनिक ऋण प्राप्त
करने के साधनों तथा उसके भुगतान के विभिन्न तरीकों का वर्णन करे?
उत्तर- केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय सरकारे अपनी धन संबंधी
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण लेती है। इस प्रकार ऋण सरकार देश तथा विदेश दोनों
से ही प्राप्त करती है। सरकार द्वारा अपने देश या विदेशों से जो ऋण लिये जाते है
वहीं सार्वजनिक ऋण कहलाते है। Findlay Shirras,
के अनुसार "सार्वजनिक ऋण वह ऋण होता है जिसके भुगतान के लिए सरकार अपने देश
के नागरिको अथवा दूसरे देश के नागरिकों के प्रति जिम्मेदार होती है"।
जबकि कुछ लोगों का यह मानना है कि सार्वजनिक ऋण सार्वजनिक आय का एक नियमित
स्त्रोत है किंतु यह मानना गलत होगा क्योंकि सार्वजनिक ऋण तथा सार्वजनिक आय की
प्रकृति भिन्न होती है। किंतु फिर भी वर्तमान में सार्वजनिक ऋण सार्वजनिक आय का एक
विशेष श्रोत बन गया है। तथा आधुनिक वित्त व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग।
क्योक्ति वर्तमान समय में सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में हुई व्यय वृद्धि तथा अनेक
प्रकार के कार्य सम्पादित करने के लिए साधनों की व्यवस्था इत्यादि में होने वाले
खर्च की भरपाई केवल कर से प्राप्त रकम से संभव नहीं हो पाने पर सरकार को ऋण की
सहायता लेनी पड़ती है। Dalton ने इस संबंध में कहा है कि "सार्वजनिक अधिकारियों की
आय का एक साधन या सार्वजनिक आय प्राप्त करने का एक तरीका सार्वजनिक ऋण भी है"।
प्राचीन अर्थशास्त्रियों के लिए सार्वजनिक ऋण का विशेष
महत्त्व नही था। प्रो. वेस्टबल ने लिखा है "जिस
प्रकार कोई, व्यक्ति सदा ऋण की सहायता से अपना कार्य नही चला सकता उसी प्रकार
सरकार भी सदा ऐसे साधनों की सहायता से अपना काम नहीं चला सकती है। प्राचीन
अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना था कि सार्वजनिक व्यय या किसी भी प्रकार के अपव्यय
पर एक विशेष कारण सार्वजनिक ऋण ही है। प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक ऋण को
पूर्णतः अनुत्पादक माना था तथा यह भी कहा था कि सार्वजनिक ऋण कभी भी सरकारी आय का
हिस्सा नही हो सकता है, क्योंकि इस ऋण से प्राप्त रकम को एक निश्चित समयावधि के बाद
वापस करना होता है और यही कारण भी है कि सरकारी अल्पावधि आय के साधन के रुप में
ही सार्वजनिक ऋण प्राचीन काल में अधिक प्रचलित था। उनका यह मानना था कि सरकार की
आय में केवल उसी आय को सम्मिलित किया जाना चाहिए जो सदैव ही सरकार के उपयोग में
रहें तथा जिसे सरकार को लौटना नहीं पड़े और यही कारण होगा कि एडम स्मिथ ने सार्वजनिक ऋण को परिभाषित
करते हुए कहा था कि "सार्वजनिक
ऋण से व्यर्थ के व्यय, व्यर्थ के युद्ध जैसी और भी कई बुरी आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ
उत्पन्न होती है।
हालांकि 18वीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों का सार्वजनिक ऋण
में गहरा विश्वास था क्योकि 18वी शताब्दी के अर्थशास्त्री आर्थिक क्रियाकलापों में
राज्य की भूमिका का विश्वास करते थे तथा साथ ही यह भी मानते थे कि सार्वजनिक ऋण 'Mercantalist Doctrine' अर्थात्
व्यापारियों के व्यापार सिद्धांत का ही एक हिस्सा है। लेकिन 19वी शताब्दी तथा 20वी
शताब्दी के आरम्भिक अर्थशास्त्री ऐसा नही मानते थे जिसका प्रमुख कारण आर्थिक
क्रियाकलापों में राज्य की भागीदारी के प्रति उनका अविश्वास था। सार्वजनिक व्यय
उनके कथानुसार पूर्णतः अपव्यय था। उनका यह भी मानना था कि निजी साहसियों की सफलता
में अथवा व्यक्तिक आर्थिक क्रियाकलापों में राज्य का कोई हस्तक्षेप नही होता है
तथा "Laissez Faire" के पक्ष में दिऐ सभी तर्क भी इसी तथ्य पर आधारित थे
कि यदि निजी लाभ में वृद्धि होती है तो सामाजिक या सार्वजनिक कल्याण मे भी निरन्तर
वृद्धि होगी।
इस संबंध में J. B. Say ने कहा भी है कि "एक
व्यक्तिगत ऋणकर्ता या ऋणी तथा सरकार के ऋण लेने में बहुत अंतर है क्योंकि
सामान्यतः दुसरा, ऋण इसलिए लेता है जिससे कि वह निरर्थक उपभोग तथा व्यय की पूर्ति
कर सके"।
अतः यह स्पष्ट है कि ऐसा सोच वाले सामाजिक- राजनीतिक-आर्थिक
व्यवस्था मे लोक वित्त का कोई विशेष महत्त्व नहीं हो सकता था। इसके अतिरिक्त अधिक
मात्रा में प्राप्त आय अथवा राजस्व भी किसी छोटे सरकारी कार्य को पूरा करने के लिए आवश्यक बताए गए तथा साथ ही साथ
यह मान्यता भी जड़ करती चली गयी की कम खर्च का अर्थ है कम कर दान तथा वस्तुत: यह मान्यता
लोक वित्त की धारणा England के अर्थशास्त्री Gladstone और America
के अर्थशास्त्री Jafferson के लोक वित्त संबंधी नीति अर्थिक विचार थे।
David Hume ने भी सार्वजनिक ऋण के विपक्ष में तर्क देते हुए कहा था कि "कोई
भी देश यदि एक बार ऋण लेना शुरू कर दे तो वह तब तक उसे रोक नहीं सकता जब तक की वह
दिवालिया या कंगाल न हो जाए "।
Adam Smith ने भी यह माना कि यदि एक बार सरकार ऋण लेना शुरु
कर देती है तो उसके राजनीतिक शक्तियों में और भी तीव्रता वृद्धि तथा मजबूती आ जाती
है क्योकि तब उसे अपने विभिन्न विभागों से प्राप्त होने वाली कर राशि पर निर्भर
करना आवश्यक नहीं रह जाता है। इसके अतिरिक्त Ricardo जैसे अर्थशास्त्री ने भी
सार्वजनिक ऋण को परिभाषित करते हुए कहा है कि "यह एक सर्वाधिक भयानक चोट है
जिसे किसी देश को क्षति हानी का चोट पहुंचाने के लिए आविष्कृत किया गया है"
इस प्रकार David Hume, Adam Smith तथा Ricardo के सार्वजनिक
ऋण संबंधि विचारों में काफी समानताएं थी । उनका यह विचार था कि सार्वजनिक ऋण बेकार
है इसी तथ्य पर आधारित था कि सार्वजनिक व्यय भी अनुत्पादक, महत्व विहिन तथा बेकार
है। हलाँकि उसी काल के कुछ आर्थिक विचारक जैसे Malthus, Mill, Sidgwick
तथा Cairnes सार्वजनिक ऋण के संबंध में कुछ उदारवादी दृष्टिकोण
रखते हैं। उनके विचारों की उदारवादिता उनके कथनो से ही स्पष्ट हो जाती है। जब Malthus ने लिखा
है कि "वस्तुगत ऋण उतना भयानक नहीं होता जितना इसे माना गया है,
क्योंकि कुछ लोग जो राष्ट्र के इस ऋण के ब्याज पर जीवन व्यापन करते हैं, जैसे
राजनीतिज्ञ, सैनिक, नावीक..... वे सभी अपनी हर संभाव्यता तक वितरण तथा माँग में
सहयोग करते हैं..... वे साबीत करते हैं कि प्रभावी उपभोग, जो कि उत्पादन को
प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है......
अतः एक बार लिया गया ऋण भयानक नहीं हो सकता है।"
हलांकि सार्वजनिक ऋण के Classical theory
का विकास व्यवहारिक रूप में 19वीं शताब्दी के अंतिम दशको में ही हो गया था। H.C.
Adams तथा C.F. Bastable जिन्हे शास्त्रीय विचारधारा का प्रतिनिधि माना गया, ने सार्वजनिक ऋण
संबंधी इस धारणा को की, सार्वजनिक ऋण को
पीढ़ी दर पीढ़ी Shift
नहीं किया जा सकता है को गलत साबित किया है। C.F.Bastable
ने यह स्पष्ट
कहा है कि कर लेने की अपेक्षा ऋण लेने की प्रक्रिया को अधिक दूर तक आगे बढ़ाया जा सकता है तथा सार्वजनिक ऋण
और निजी या व्यक्तिगत ऋण के बीच कोई विशेष अन्तर नहीं है और
साथ ही आंतरिक सार्वजनिक ऋण या बाध्य
सार्वजनिक ऋण में ऐसा कोई विशेष अंतर स्पष्ट होता है। ऋण
और कर के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए Bastable ने लिखा
है कि "एक कर्ज स्वैच्छिक
होता है जो देने वालों की
इच्छा से दिया जाता है जबकि कर देने और न देने वालों दोनों से वसूला जाता है जिससे की वर्तमान
के मूल्य पर देश का भविष्य सुधारा जा सके"।
इसके अतिरिक्त सार्वजनिक ऋण
और सामाजिक ऋण के बीच की समानता को व्यक्त करते
हुए C.F.Batable ने लिखा
है कि "सभी
आवश्यक बिन्दुओं के अनुसार
सार्वजनिक और व्यक्तिगत ऋण के समानताओं के अनुसार दोनो ही सही है तथा
किसी को अनदेखा नहीं किया जा सकता। किसी भी देश के अर्थव्यवस्था की स्थापति बिन्दु और सार्वजनिक ऋण का महत्व दोनों ही मिलकर
सार्वजनिक ऋण के मूल सिद्धांतो को उलझा देते हैं फिर भी
हमें कर्ज की इस प्रक्रीया को उसी लेन
देन के सिद्धांत के अनुसार लागू करना होता है"।
यद्यपि इतने
अर्थशास्त्री प्राचीन काल में सार्वजनिक ऋण की धारणा के
खिलाफ थे फिर भी उनके विपक्षी धारणा को न तो विशेष ठोस
और महत्त्वपूर्ण कोई आधार मिला और न ही कभी भी उनके यह धारणा स्थापित हो पाई।
क्योंकि उनकी वो शास्त्रिय धारणा कभी भी एकमत नहीं हो सकी।
आन्तरिक तथा बाह्य भार
ऋण लेने के तथ्यों के
आधार पर वस्तुतः इन्हें दो भागो में विभक्त किया जा सकता है-
(1) आन्तरिक ऋण (2)
बाह्य ऋण
आन्तरिक ऋण वे ऋण है जिसे सरकार देश के अन्दर से अर्थात्
देश के नागरिको, उद्योगों तथा उद्योगीयो, जनता को प्रतिभूतियाँ बेचकर, गैर बैंकिंग संस्थाएँ
जैसे बीमा कम्पनीयां, प्रन्यास,आवासी बचत बैंक
इत्यादि से प्राप्त करती है।
किंतु कई बार जब आन्तरिक ऋणों से सरकार को प्रर्याप्त ऋण
राशि प्राप्त नहीं होती है तो वह विदेशों से कर्ज लेती है जिसे बाह्य ऋण कहा जाता
है। बाह्य श्रोतों के अन्तर्गत मुख्यतया विदेशी सरकारों, विदेशी नीजि कम्पनीयां
तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं जैसे अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक,अन्तर्राष्ट्रीय
वित्त निगम, विदेशी दान, विदेशी विनियोगकर्ता, अन्तर्राष्ट्रीय विकास परिषद्
इत्यादि प्रमुख है।
इस संबंध में Dalton का मानना है कि "कोई
ऋण आंतरिक है यदि वह उन व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा दिया जाता है जो
सार्वजनिक अधिकारी द्वारा नियंत्रित क्षेत्र में रहते है। इसके विपरीत बाह्य ऋण वह
ऋण है जो उन व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा दिया जाता है जो उस नियंत्रण क्षेत्र
से बाहर है" तथा इसी संबंध में C. F. Bastable ने माना कि "एक
पूर्णतः वित्तीय दृष्टिकोण से ऋण लेने के सभी साधन पूर्णतः व्यर्थ होते हैं किन्तु
किसी भी परिस्थिति में ये करदाता के लिए शीघ्र आराम का तथा उसके भविष्य के कोषों का
साधन है।
आंतरिक ऋणों के भुगतान की समस्या कुछ विशेष नहीं होती है क्योंकि उनका भुगतान देशी मुद्रा
के अनुसार करना होता है जबकि विदेशी ऋणों
का भुगतान विदेशी मुद्रा के अनुसार करना होता है फलस्वरूप विदेशी मुद्रा के मूल्य
में आने वाले प्रत्येक सापेक्ष या निरपेक्ष अंतर का प्रभाव ऋण की राशि पर भी पड़ता
है। इसके अतिरिक्त बाह्य ऋणों की अदायगी के क्रम में दबाव भी संभव है। आन्तरिक
ऋणों पर दिये जाने वाले व्याज की राशि के भुगतान की राशि देश के नागरिको के पास
अर्थात् देश में ही रह जाती है। जबकि विदेशी ऋण के व्याज की राशि विदेशों को
भुगतान की जाती है। इसके अतिरिक्त आन्तरिक ऋण और बाह्य ऋण में और भी कई प्रमुख
अंतर है जैसे
(i) आन्तरिक ऋण इच्छित तथा अनइच्छित दोनो प्रकार का हो सकता
है जबकि बाह्य ऋण केवल इच्छित ही होता है।
(ii) आन्तरिक ऋण अस्थाई घाटा अथवा अल्पकालिन विकास वित्त की
पूर्ति के लिए लिया जाता है जबकि बाह्य ऋण विकास कार्यों अथवा भुगतान असंतुलन को
दूर करने के लिये लिया जाता है।
(iii) आन्तरिक ऋणों से देश की अर्थव्यवस्था पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता
है जबकि बाह्य ऋण से देश की
अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव संभव
है।
(iv) आन्तरिक ऋण अल्पकालिन व्यय पूर्ति हेतु लिये जाते है जबकि
बाह्य ऋण दीर्घकालीन व्यय
पूर्ति के लिए जाते है।
आन्तरिक ऋणों के भार :- आन्तरिक ऋणों से देश का धन देश के भीतर ही रहता है। इस प्रकार
आन्तरिक ऋण प्राप्त करने से देश के अन्दर के धन का ही पुनर्वितरण होता चला
जाता है इसलिए इन ऋणों का कोई प्रत्यक्ष मौद्रिक भार नही होता है और यही कारण है कि
ऐसा कहा गया है कि "वस्तुत:
आन्तरिक ऋण कोई
ऋण ही नहीं है"।
जहाँ तक वास्तविक भार का प्रश्न है यह इस बात पर निर्भर है कि
ऋणों का उपयोग किस प्रकार से किया जा रहा है तथा उन्हे कहाँ से प्राप्त किया जा रहा
है? यदि ऋणों से आय की असमानता बढ़ती है तो समझना चाहिए कि वास्तविक भार
बढ़ रहा है। इसके अतिरिक्त यदि सरकार धनी व्यक्तियों
से ऋण लेती है तथा उसके भुगतान के लिए निर्धन व्यक्ति वर्ग पर कर
लगाती है तो इससे वास्तविक कर भार बहुत अधिक बढ़ेगा। इसके विपरीत यदि निर्धनों से ऋण लिया
जाए और ऋण राशि के भुगतान के लिए धनीको पर कर लगाए जाएँ तो ऋण के
वास्तविक भार में कमी होगी।
इस प्रकार ऋणो का उपयोग उत्पादक कार्यों में होने से उनके
वास्तविक भार में कमी आती है तथा अनुत्पादक कार्यों में होने से वास्तविक भार में वृद्धि
होती है। कारण स्पष्ट है कि उत्पादक कार्यों से लोगों के आय में वृद्धि होती है, रोजगार
के नये-नये अवसर बनते है और इसके फलस्वरूप वास्तविक भार में कमी आती है। इसके विपरीत
यदि ऋण राशि का उपयोग अनुत्पादक कार्य में होता है तो इससे आय, उत्पादन
और रोजगार में वृद्धि नही होती है और फलस्वरूप वास्तविक कर भार और अधिक बढ़ जाता है।
यहाँ एक व्यवहारिक बात देखने में आती है कि धन सक्रिय हाथों से निष्क्रिय हाथों में
चला जाता है, क्योंकि सरकार को वृद्ध व्यक्तियो से ऋण मिल
पाता है जिसका करभार नवयुवको पर पड़ता है। इस प्रकार धन का प्रवाह नवयुवको से वृद्ध की ओर होने लगता है जो विनियोग की दृष्टि से
उपयुक्त नही समझा जाता है। इस प्रकार एक ओर उत्पादन हतोत्साहित होता है तो दूसरी
ओर आय की असमानता भी बढ़ती है। परिणामस्वरुप आन्तरिक ऋणों का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप
में पड़ जाता है।
युद्ध आदि के संचालन के लिए, लिये गये ऋणों का भार भी
व्यक्तियों को ही वहन करना पड़ता है। युद्ध के समय मूल्यों मे वृद्धि तथा वस्तुओं
के अभाव से व्यक्तियों का जीवन स्तर प्रभावित हो जाता है। युद्ध की समाप्ति के बाद
बेरोजगारी बढ़ती है। यद्यपि वस्तुओं के मूल्यों में कमी होती है तथापी मुद्रा की
कमी के कारण इसका प्रभाव भी लोगों पर विपरीत पड़ता है और इस प्रकार वास्तविक भार
में वृद्धि हो जाती है।
बाह्य ऋणों का भार
जिस प्रकार आन्तरिक ऋणों का भार देश के नागरिकों को वहन
करना पड़ता है ठीक उसी प्रकार से बाह्य ऋणों का भार भी देश के नागरिकों को ही वहन
करना पड़ता है। ऐसे ऋणों का मौद्रिक भार धन की उस राशि से मापा जाता है जो ऋणी देश
ब्याज और मूलधन के रूप में विदेशी ऋणदाता को देता है। प्रत्यक्ष वास्तविक भार उस
हानि से मापा जा सकता है जो ऋण देश में से उतना धन निकल जाने से वहां के नागरिको
को सहन करना होगा। यदि ऐसे ऋणों को चुकाने के लिए धनी वर्ग पर कर लगाया जाता है तो
कर भार कम होगा। इसके विपरीत यदि निर्धनों से कर वसूल के ऋण एवं ऋण के ब्याज की
राशि का भुगतान किया जाता है तो वास्तविक कर भार बहुत अधिक होगा। यह एक मान्यता है
कि बाह्य ऋणों का वास्तविक भार बहुत अधिक बड़ी मात्रा मे नही पड़ता है क्योकि
बाह्य ऋणों की सहायता से बड़े पैमाने पर देश में आर्थिक विकास किया जाता है। जिससे
देश में उत्पादन एवं रोजगार की वृद्धि होती है और चूंकि प्रतिव्यक्ति आय बढ़ती है
इसलिए लोगों की कर देय क्षमता भी बढ़ती है। फलतः देश के नागरिको को मिलने वाली
राशि से ही या मिलने वाले लाभांश से ही थोड़ी-थोड़ी राशि का सुगमतापूर्वक संग्रह
करके ऋणों का भुगतान आसानी से किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में वास्तविक भार अधिक
नहीं होता है।
यदि बाह्य ऋणों का उपयोग अनुत्पादक कार्यों के लिए होता है
तो यह कहा जा सकता है कि इससे रोजगार एवं उत्पादन मे वृद्धि नहीं होगी। करदेय
क्षमता भी नहीं बढ़ेगी और ऐसी स्थिति में वास्तविक भार बढ़ेगा।
बाह्य ऋणों के पक्ष में तर्क
आन्तरिक ऋणों की अपेक्षा बाह्य ऋणों की समस्या विकट कही जाती है फिर भी बाह्य ऋणों के पक्ष में बहुत सारे तर्क दिये
गये है।
(1) युद्ध का संचालन :- सार्वजनिक ऋणों के महत्व का अध्ययन करते समय हमने
इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि आन्तरिक साधनों की सहायता से युद्ध का संचालन संभव
नही क्योंकि देश में उस समय साधनों का आभाव, मूल्य
वृद्धि आदि के कारणों से लोगों की स्थिति ठीक नहीं रहती है। युद्ध काल में चूंकि बचते हतोत्साहित होती है
अतः सरकार के लिए बाह्य ऋणों की सहायता आवश्यक हो जाती है। संसार का कोई भी देश ऐसा नही है जिसने युद्ध
के संचालन के लिए विदेशों से ऋण न लिया हो। द्वितीय विश्वयुद्ध में इंग्लैंड, जर्मनी, आदि अनेक देशों ने विदेशी ऋण ले कर युद्ध
का संचालन किया था।
(2) संकटकालीन स्थिति का सामना करने
में :- युद्ध के अतिरिक्त अन्य संकटकालीन परिस्थितियों जैसे प्राकृतिक प्रकोपो-भूकम्प, बाढ़, सूखा तथा तूफान आदि के कारण भी देश
मे आपार जनधन की हानि होती है। देश में इस क्षति की पूर्ति के लिए साधनों का आभाव हो
जाता है। लोगों में इतनी सामर्थ्य नही रह जाती कि वे स्वयं अपना विकास कर सके।
(3) आर्थिक विकास :- अल्पविकसित देशों के समक्ष आर्थिक
विकास की समस्या सर्वाधिक गंभीर होता है। इन देशों में कृषि की प्रधानता जनसंख्या की
अधिकता, बचत एवं पूँजी की कमी, अशिक्षा, बिमारी एवं परम्परागत व्यापार के कारण साधनों
की कमी रहती है। साधनो के आभाव में देश अपने बलबूते पर अपना आर्थिक विकास नही कर पाते। इसलिए बिना बाह्य ऋणों की सहायता के इन देशो का आर्थिक
विकास संभव नही है। क्योंकि कई देशों में धन के अतिरिक्त वैज्ञानिक यंत्र तथा नए तकनीक भी
आयात करने पड़ते है। ऐसी स्थिति में न चाहते हुए भी विदेशी ऋण लेना आवश्यक हो जाता है।
(4) विदेशी विनिमय की समस्या के सामाधान के लिए :- विदेशी विनिमय के लिए भी बाह्य ऋणों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिस
देश में निर्यात की अपेक्षा आयात अधिक होते है। वह देश भी आयातो का भुगतान करने के
लिए ऋणो की सहायता लेता है।
(5) पुनर्निमाण :- विनाशकारी घटनाओं के घटने के कारणों से देश के समक्ष पुनर्निमाण की समस्या उत्पन्न हो जाती है क्योंकि इस क्षति की पूर्ति के लिए बहुत बड़े पैमाने पर व्यय करना पड़ता है। जैसे युद्ध के समय होने वाले विनाशो से अर्थव्यवस्था की रीढ़ ही टूट जाती है। ऐसी स्थिति में बाह्य ऋणों को ही उपयुक्त ठहराया जा सकता है।
बाह्य ऋण की सीमाएं
(1) आर्थिक नीति :- ऋणदाता देश ऋणी देश की आर्थिक नीति को देखता है कि उसकी
मुद्रा का मूल्य निरन्तर परिवर्तनशील तो नहीं है अर्थात् देश की मुद्रा व्यवस्था
कैसी है? सरकार की मुद्रा एवं बैंक नीतियाँ क्या है? ब्याज की दर कितनी है? आप एवं
व्यय की स्थिति कैसी है? आर्थिक विकास की क्या संभावनाएं है? ऋण लेने का क्या
उद्देश्य है? ऋण विकास कार्य के लिए है या नही? इत्यादि ।
(2) राजनैतिक स्थिरता :- जिस देश में राजनैतिक स्थिरता होती है तो ऋणदाता देश उस
देश को आसानी से ऋण दे सकता है। अगर देश में राजनैतिक स्थिरता नहीं है तो उसे ऋण
मिलना संभव नहीं हो पाता है।
(3) धन का पलायन :- बाह्य ऋणों के विपक्ष में यह कहा जाता है कि इससे देश से विदेशों को
लागातार ब्याज के रूप में धन जाता ही रहता है। यदि विदेशी ऋणों की जगह स्वदेशी ऋण
लिया गया हो तो धन के विदेशी समागम को रोका जा सकता है।
(4) दासता को जन्म देने वाला :- बाह्य कारणों के कारण ऋणी राष्ट्र सदा राजनीतिक एवं
आर्थिक दृष्टि से दबा रहता है। ऐसा कहा भी जाता है कि विदेशी ऋण से मुक्ति पाना
निर्धन राष्ट्र के लिए असंभव है।
(5) मितव्ययीता में कमी :- बाह्य ऋणों की राशि पर्याप्त होती है इसलिए यह माना
जाता है कि सरकार इस राशि का उपयोग सोच समझ कर नहीं करती है। प्रायः इससे अपव्यय
होता रहता है।
आन्तरिक ऋणों के पक्ष में तर्क
आन्तरिक ऋणों के पक्ष में निम्न तर्क दिये जाते है अथवा इन
ऋणों के निम्न लाभ है।
(1) राष्ट्र की सुरक्षा :- आन्तरिक ऋणों की सहायता से सरकार कुछ अल्पकालीन
प्राकृतिक आपदाओं से देश की सुरक्षा करती है। इसके अतिरिक्त युद्ध संबंधी
क्रियाकलापों के लिए भी आन्तरिक ऋण आवश्यक हो जाता है।
(2) पूँजी का उत्पादक विनियोग :- आन्तरिक ऋण देश की पूंजी को अधिक उत्पादक बनाते हैं। इनसे देश की आय में वृद्धि
होती है। जिससे लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठता है। अल्पविकसित देशों में इनका बड़े पैमाने
पर प्रयोग होता है।
(3) आर्थिक विकास की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए :- विभिन्न देशों मे और विशेषकर अल्पविकसित देशों में आन्तरिक ऋण
की सहायता से आर्थिक विकास की योजनाओं को क्रियान्वीत किया जाता है। इसके अतिरिक्त
निर्धन एवं पीछडे देशों में प्राकृतिक साधनों के विकास का एकमात्र साधन आन्तरिक ऋण ही
है क्योंकि इन देशो में सरकार की बचत बहुत कम होती है।
(4) उपभोग के स्तर में वृद्धि :- कभी-कभी देश के अन्तर्गत कुछ उपयोग की वस्तुएं अधिक मूल्य
पर मिलती है जो जनसाधारण के पहुंच से बाहर होती है। ऐसी स्थिति में सरकार आन्तरिक ऋण
ले कर, उन वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा कर कम मूल्य पर जनता को वस्तुएं उपलब्ध कराती है।
इससे लोगों के उपभोग के स्तर में वृद्धि होती है।
आन्तरिक ऋण की सीमाएँ
किसी भी देश में राज्य असीमित मात्रा में ऋण प्राप्त
नहीं कर सकता है, इसके लिए निम्न कारण दिए गये है।
(1) आर्थिक नीति - सरकार के द्वारा अपनायी गयी नीति यदि विकासवादी है तो जनता
उस नीति पर विश्वास करेगी और इससे अधिक से अधिक ऋण प्राप्त किये जा सकते है। अगर सरकार
की नीति पर जनता को विश्वास नहीं है तो ऋणों को प्राप्त करना कठिन हो
जाता है।
(2) राष्ट्रीय आय तथा व्यय - लोक ऋण, जनता की बचत करने की शक्ति पर निर्भर करते है। बचत करने की
शक्ति इस पर निर्भर करती है कि देश की राष्ट्रीय आय कितनी है तथा देश की जनता का जीवन
स्तर कैसा है? यदि जनता की बचत करने के शक्ति सीमित है तो सरकार को कम ऋण प्राप्त
होगें।
(3) ऋण की राशि - सरकार ने कितने ऋण ले रखे है तथा
कितने ऋणों का भुगतान कर चुकी है अगर भुगतान अधिक मात्रा में हो चुके
होते है तो सरकार ऋण आसानी से प्राप्त कर सकती है लेकिन यदि सरकार ऋण का
भुगतान नहीं कर पाती है तो नये ऋणों
की प्राप्ति नहीं होगी क्योंकि
सरकार का भार पहले से ही अधिक होता है।
(4) अकुशल प्रशासन - अकुशल प्रशासन में सरकार की कोई भी नीति कार्यान्वित नहीं
हो पाती है तो इन ऋणों
को प्राप्त करना कठिन होता है।
(5) व्यवसायिक एवं बैंकिंग उन्नति- यदि देश में उधोग, व्यापार तथा बैंकिग व्यवस्था
ठीक है तो सरकार ऋण आसानी से प्राप्त कर सकती है अन्यथा नहीं।
(6) राजनैतिक स्थिरता - यदि देश में शांति एवं सुरक्षा है तथा सरकार में बार-बार
कोई बदलाव नहीं है तो ऋण आसानी से मिल जाएंगे। यदि शांति व सुरक्षा
नही है तथा सरकार में भी बदलाव होता है तो ऋण प्राप्त करने में कठिनाई होती
है।
सार्वजनिक ऋण के साधन
(1) बाजार ऋण या कर्ज :- बाजार कर्ज, मुद्रा कर्ज के रूप में आन्तरिक ऋण का
एक मुख्य भाग है। ये ऋण प्राय कुछ विशेष समयावधि के लिए ही प्राप्त किये जा सकते हैं।
इन अर्द्धवार्षिक या निर्धारित तिथि
वाले ऋणों पर ब्याज
की एक निश्चित राशि का भुगतान भी आवश्यक होता है। इस तरह के ऋण प्रायः खुले बाजार में सरकार अपनी प्रतिभूतियों को बेचकर प्राप्त
करती है तथा यह सार्वजनिक व्यय के लिए सार्वजनिक ऋण प्राप्त
करने का एक मुख्य साधन बन गया है।
(2) बाजार ऋण देनदारी के
अनुसार :- वैसे
ऋण जिन्हें
सरकार प्राप्त करने के बाद स्वयं ही नये प्रतिभूतियों के बिकने के बाद अदा करती है उन्हे अदायगी के अनुसार
बाजार ऋण कहते है। यो तो ये ऋण तथा इन्हें
प्राप्त करने की शर्तें बाजार ऋण की तरह ही होती है फिर भी ये मुद्रा की उस मात्रा को दर्शाती
है जिसे पुनः निवेश किया गया है।
(3) 91 दिनों के कोषागार
विपत्र :- वैसे ऋण
जिन्हे कोषागार बिल द्वारा अल्पकाल या एक निश्चित समय के लिए 91 दिनों के लिए
प्राप्त किया जाता है उसे 91
दिनों के कोषागार विपत्र कहते
है। ये बिल ही सरकार के अल्पकालीन पूँजी के सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है, जिसके सहारे
सरकार अपने आय तथा व्यय के बीच के अन्तर को कम करती है तथा ये बैंक निवेश के
लिए एक सार्थक तत्व साबित हुई है। ये बिल भी दो प्रकार के है
(i) अल्पकालीन कोषागार विपत्र
(ii) जनता को बेचें गये कोषागार विपत्र
(4) अन्य विशेष प्रतिभूतियां :- कई बार कोई भी सरकार
अपने देश के केन्द्रीय बैंक की सहायता से अल्पकालीन ऋण की
व्यवस्था करती है। वह अपने केन्द्रिय बैंक के द्वारा कुछ विशेष प्रतिभूतियां बेचकर जो कि न तो ब्याज दर के साथ होती है न ही Negotiable होती है, ऋण प्राप्त
करती है। किन्तु ये ऋण 12 महीने से अधिक समय के लिए नहीं होते है।
(5) 364 दिनों वालो कोषागार विपत्र :- 364 दिनों वालो कोषागार विपत्र अल्पकाल में ही निवेश की सुविधा
प्रदान करती है। ऐसे बिलों में प्रायः बैंक या अन्य मौद्रिक संस्थाएं निवेश करती है।
ये बिल पुनः बट्टा कराने वाले नहीं होते हैं तथा इनकी निलामी होती है।
(6) क्षति पूर्ति एवं अन्य ऋण पत्र :- कई बार सरकार कुछ दीर्घकालीन पूंजी निवेश ऋण पत्र
को खुले बाजार में जारी करके भी ऋण प्राप्त करती है। इसके अतिरिक्त कुछ क्षति पूर्ति ऋण पत्र
की सहायता से भी ऋण प्राप्त करती है। प्रायः पूँजी निवेश ऋण प्रपत्रों की अवधि 7 वर्ष या उससे अधिक होती है।
(7) अन्तर्राष्ट्रीय
वित्तीय संस्थानों को दी गयी प्रतिभूतियाँ :- कई बार
जब कोई देश किसी मौद्रिक संस्था का सदस्य होता है तो उसी संस्था के किसी अन्य देश के
लिए प्रतिभूतियाँ जारी कर के भी ऋण का निर्माण किया जाता है।
(8) अग्रिम भुगतान के रूप में :- ये भी अल्पकालीन ऋण ही है। ये ऋण वस्तुत: मौद्रिक
संस्थाओ तथा राज्य
सरकारों या केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए दिये जाते है।
(9) 14 दिनों वाले कोषागार विपत्र :- इस प्रकार की प्रतिभूतियाँ प्रायः अर्द्धवार्षिक ऋण की तरह ही होती है बस इनकी
समयावधि बहुत कम होती है।
(10) सार्वजनिक कर्ज :- कई बार देश का केन्द्रीय बैंक देश के नागरिको द्वारा किये
गये छोटे बचतों के समझ प्रतिभूतियाँ जारी कर के भी ऋण प्राप्त
करता है। इसके अतिरिक्त नागरिकों के बचत और निवेश भी सार्वजनिक ऋण में
ही आते है।
(11) छोटी-मोटी
बचत योजनाएं :- छोटी बचत योजनाओं
का सार्वजनिक ऋण के रूप में विशेष महत्व है और विशेषकर विकासशील अथवा
मुद्रास्फिर्ति अर्थव्यवस्था में। यह सार्वजनिक या सरकारी कर्ज का सबसे सुरक्षित
तरीका है। यह नागरिकों की बचत से कर्ज प्राप्त करने का तरीका है जिसमें किसी
विकासशील अर्थतंत्र की स्थिति में उस देश के डाकघरों के बचत योजनाओ, बैंक बचत,
समयावधीक बचत, राष्ट्रीय बचत प्रमाण पत्रों, 6 वर्षीय
राष्ट्रीय बचत प्रमाण पत्रों इत्यादि का विशेष योगदान रहता है।
(12) भविष्य निधि सहयोग :- किसी
भी देश की सरकार के लिए सरकारी रूप से ऋण प्राप्त करने का सबसे आसान तरीका है उसके
कर्मचारियों के भविष्य निधी के बचतों से ऋण प्राप्त करना। इसके अन्तर्गत आने वाले
लेन-देन को दो वर्गो में वर्गीकृत किया गया है
(ⅰ) राज्य स्तरीय भविष्य निधीयों का सहयोग
(ⅱ) सार्वजनिक भविष्य निधियां।
(13) संरक्षित कोष तथा जमा :- इसके
अन्तर्गत वैसे जमा आते है जो आय कर जमा या विशेष जमा योजना या ब्याज सहीत अन्य
कोषो मे जमा किये गये है। कुछ अन्य ब्याज सहित संरक्षीत कोषों में रेलवे, डाकघर,
दूरभाष विभाग और तार विभागों जैसे विभाग भी आते है जो समय-समय पर अपने जमा राशि से
सरकार को ऋण देते हैं। इसके अतिरिक्त इसके अन्तर्गत कुछ Local funds और Civil deposits भी
आती है।
(14) बाह्य साधन :- बाह्य साधनों से ऋण प्राप्त करने के लिए कुछ बाह्य मौद्रिक संस्थाओं या
विदेशों से ऋण मांगना होता है। कुछ बाह्य मौद्रिक संस्थाएँ जैसे IMF, WB, IBRD,
IFC, IDA से ऋण प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त विदेशी विनियोगकर्ताओं तथा
विदेशी सरकारों द्वारा भी ऋण प्राप्त किया जा सकता है।
(15) शेयर :- कई बार सरकार
राष्ट्रीयकृत विभागों की शेयर को खुले बाजार में बेंच कर या उन पर विनिवेश करवा कर
भी ऋण प्राप्त करती है। इसके बदले में सरकार विनिवेश की मूलधन राशि पर ब्याज भी
देती है। सरकार जो ऋण प्राप्त
करती है उसका भुगतान भी किया जाता है। उन ऋणों के भुगतान के लिए सरकार
निम्न उपाय या तरीके अपनाती है।
(1) ऋण निषेध :- बहुत सी
सरकारे पुर्ववत् ऋणों का भुगतान करने से मना कर देती है और ऋण के भार से मुक्त
हो जाती है लेकिन इस प्रकार की नीति
किसी क्रांति के बाद ही कोई
सरकार लागू कर सकती है। ऋण चुकाने का यह तरीका निम्न तीन बातों से गलत है -
(a) इस विधि को अपनाने से सरकार जनता से दोबारा ऋण प्राप्त
नहीं कर सकती क्योंकि सरकार का जनता के प्रति विश्वास उठ जाता है।
(b) इस विधि से समाज के केवल एक ही वर्ग को हानी होती है जो
अनुचित है।
(c) यदि विदेशी ऋण का निषेध होता है तो
उसकी प्रतिक्रियाओं के परिणाम विनाशकारी भी सिद्ध हो सकते है।
(2) ऋण रुपान्तरण :- जब सरकार पर ऋण का भार अधिक बढ़ जाता है तो ऐसी स्थिति में ऋण के
रुपातंरण के द्वारा ऋण के भार को कम किया जा सकता है। इस विधि के अनुसार सरकार जो ऋण ऊँची
ब्याज दर पर लेती है उसकी ब्याज की दर में कमी की जाती है। इस प्रकार
ऊंची ब्याज की दर वाले ऋणों को सरकार कम ब्याज की
दर वाले ऋणों में परिवर्तित कर देती है। परिणामस्वरूप ऋणों का भार
कम हो जाता है।
व्युहलर के अनुसार "ऋण के
रुपांतरण से आशय ऊँची ब्याज दर वाले पुराने ऋण को नीची ब्याज दर
वाले ऋण मे बदलना है"। इस विधि की निम्न विशेषताएँ है -
(i) जब सरकार के पास ऋण भुगतान
के लिए धन की कमी होती है अथवा सरकार अल्पकालीन ऋणों में परिवर्तित करना चाहती हो।
(ⅱ) ऋण रुपान्तरण
उन ऋणों का हो
सकता है जिसमें यह शर्त होती है कि सरकार के
ऋण मात्रा में कोई परिवर्तन किये बगैर जब चाहे उसे अदा कर सकती है।
(ⅲ) ऋण रुपांतरण
ऋण भुगतान
की देय तिथी से पूर्व किया जाता है।
(iv) सामान्यता ऋण रुपांतरण का अधिकार ऋण द्वारा
प्राप्त मूलधन के साथ ले लिया जाता है।
(3) ऋण
परिशोध कोष :- पूर्व निश्चित
राशि प्रतिवर्ष के आधार पर एकत्रित कर ली जाती है और जिस वर्ष जितनी राशि एकत्रित
होती है उसका भुगतान उसी वर्ष में कर दिया जाता है। यह ऋण परिशोध कोष कहलाता है जो
कि ऋणों के भुगतान के लिए स्थापित किया जाता है। इस कोष में सरकार धन दो तरीको से
इकट्ठा करती है:-
(i) वार्षिक आय में से
(ii) नये
ऋण ले कर।
Dr. Dalton के अनुसार परिशोध कोष को दो भागों में बांटा जा सकता है
-
(ⅰ) निश्चित
कोष - निश्चित कोष वह
होता है जिसके अन्तर्गत सरकार अपनी वार्षिक आय में से कोई निश्चित रकम निकालकर कोष
में प्रति वर्ष जमा करवाती है।
(ⅱ) अनिश्चित
कोष - अनिश्चित
कोष के अन्तर्गत सरकार प्रतिवर्ष कोष में एक अनियमित और अनिश्चित रकम डालती रहती
है।
परिशोध कोष की स्थापना :- परिशोध कोष की स्थापना निम्न तीन आधारों पर की जाती है -
(i) ऋण के भुगतान की अवधि :- ऋण भुगतान करने की अवधि जितनी कम होती है आर्थिक दृष्टि
से वह उतना ही अच्छा माना जाता है।
(ii) विभिन्न
प्रकार के ऋणों की भुगतान व्यवस्था :- विभिन्न समयावधि में भुगतान किये जाने वाले विभिन्न प्रकार के ऋणों का
विवरण या उनके भुगतान के लिए कोष का प्रयोग किया जाता है। सभी ऋणों का भुगतान एक
साथ करना मुश्किल होता है अतः प्राथमिकता के आधार पर ऋण भुगतान किया जाता है।
(iii) परिशोध कोष के भुगतानो का विकास :- विभिन्न समय में भुगतान किये जाने वाले अलग-अलग प्रकार
के ऋणों का विवरण तैयार कर उसके क्रमानुसार भुगतान करने की परम्परा का विकास हुआ
है।
किंतु आधुनिक परिपाटी के अनुसार न तो किसी कोष की स्थापना
की जाती है और न ही संचय किया जाना आवश्यक है बल्कि उस राशि का उपयोग मुख्यतः उन
ऋणो के भुगतान में किया जाता है जो प्रतिवर्ष परिपक्व हो जाते है।
(4) बजट की बचत का उपयोग :- सरकार अपने बजट में कुछ आधिक्य उत्पन्न कर लेती है।
जिससे कि ऋणों का भुगतान किया जा सके। लेकिन वर्तमान सरकारे बजटों में इतनी बचत नहीं
कर पाती है अतः यह तथ्य एक सिद्धांत मात्र ही रह गया है।
(5) क्रमानुसार भुगतान :- इस विधि के अन्तर्गत ऋण का भुगतान क्रम के अनुसार किया
जाता है। इस रीति में सरकार जारी किए गये बाॅण्ड की परिपक्वता अवधि के अनुसार क्रम निश्चित कर देती है और
उसी के अनुसार प्रतिवर्ष भुगतान कर दिया जाता है।
(6) वार्षिक वृद्धि :- सरकार
अपने ऋण वार्षिक वृत्ति विधि से भी चुकाती है। इसमें मूलधन एवं ब्याज का प्रतिवर्ष
समान किश्तों में भुगतान किया जाता है। इस रीति में ऋण का भार प्रति वर्ष कम होता
चला जाता है और अन्तिम किस्त के साथ पूरे ऋण का भुगतान हो जाता है। यह रीति आमतौर
पर स्थाई एवं दीर्घकालीन ऋणों के लिए अपनायी जाती है। इस रीति का सबसे बड़ा लाभ यह
होता है कि सरकार का ऋण भार कम होता चला जाता है और सरकार की साख भी बनी रहती है।
(7) पूँजी कर :- पूँजी कर सरकार द्वारा ऋण भुगतान की सबसे श्रेठ विधि है। यह वह कर है जो
कि व्यक्तियों की सम्पत्ति पर लगाया जाता है। इसकी एक निश्चित सीमा कर दी जाती है
तथा उस सीमा से नीचे कर नही लगाया जाता है। इस कर का यह लाभ है कि ऋण का भुगतान
शीघ्रतम किया जा सकता है। किंतु पूँजी कर को कर अर्थशास्त्री एकमत नहीं है अतः इस
संबंध में दो प्रकार से तर्क दिये गये -
(A) पक्ष में तर्क
(1) ऋण शोधक में सरलता और शिघ्रता - इस विधि से ऋण प्रबन्ध की लागत में कमी की जा सकती है
क्योकि पूँजी करो से ऋणो का भुगतान शीघ्र और सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
(2) न्यायपूर्ण - यह कर न्यायपूर्ण है क्योकि यह कर धनी लोगो पर ही लगाया जाता है। इसके
विपरीत निर्धनों को छूट दे दी जाती है या बहुत कम कर लगाया जाता है।
(3) भावी करभार में कमी - चूँकि युद्धकाल में मूल्य स्तर ऊँचा होता है ऐसे समय में कर लगाने से जनता
पर कर भार कम पड़ता है। किंतु युद्ध के कुछ समय बाद जब मूल्य स्तर गीर जाता है तब
कर लगाने से करो एवं ऋणों का भार अधिक पड़ता है अतः भावी कर मे कमी के लिए यह कर
श्रेष्ठ है।
(4) असमानताओं में कमी - चूंकि यह कर धनियों पर लगाया जाता है अतः इससे आय की
विषमताओं में कमी आती है।
(5) सार्वजनिक आय का उचित प्रयोग - पूँजी से ऋणो का भुगतान हो जाने से सरकार अपनी नियमित आय
को समाज कल्याण के कार्यों पर अधिक खर्च कर सकती है।
(B) विपक्ष में तर्क
(1) उत्पादन पर बुरा प्रभाव - पूँजी कर लगाने से लोगों के कार्य करने एवं बचत की
क्षमता एवं इच्छा पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(2) अन्याय पूर्ण - ये
कर इस दृष्टि से न्यायसंगत नहीं है कि करो का भार उन व्यक्तियों पर भी पड़ता है
जिन्होंने सरकार को ऋण दिया होता है, क्योंकि ऋण धनी व्यक्ति ही अपनी बचत में से
दे सकते है।
(3) पूंजी का बहिर्गमन - सरकार देश के लोगों को पूँजी कर के रूप में जो रकम
इकट्ठा करती है उसका अधिकांश भाग विदेशी ऋणों के भुगतान में जाता है। इस प्रकार
देश से पूंजी का विदेशों में बहिर्गमन हो जाता है।
(4) प्रशासनिक कठिनाई - इस कर के लगाने से अनेक प्रशासनिक कठिनाईयों का सामना करना
पड़ता है। लोगों की सम्पत्ति का अनुमान लगाने में कठिनाई, कर संग्रह में अधिक
व्यय, कर वंचना आदि समस्याओं का समाधान सरकार को करना पड़ता है।
अतः पूंजी कर एक सरल और न्यायपूर्ण कर है लेकिन इससे सार्वजनिक
ऋण का भुगतान काफी सतर्कता से किया जाना चाहिए
निष्कर्ष
"अपनी सभी सीमाओं के साथ ही सही जिन्हें परिभाषित करना कठिन है पर जिन्हें उन सभी व्यर्थ के और बिना नाम के साधनों पर आधारित किया गया है जिसमे कि लोगों की लम्बे समय तक कार्य करने की इच्छा और दक्षता तथा क्षमता भी अंकीत है, जिससे कि वे युद्ध के सामानों के क्रय में कुछ योगदान दे सकें, को संभवतः आर्थिक रूप से अधिक शक्तिशाली होना चाहिए किसी भी अन्य कर योजना की अपेक्षा"।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)