बौमॉल, टॉबिन का मुद्रा की मांग दृष्टिकोण (Baumol, Tobin's money demand approach)

बौमॉल, टॉबिन का मुद्रा की मांग दृष्टिकोण (Baumol, Tobin's money demand approach)

बौमॉल, टॉबिन का मुद्रा की मांग दृष्टिकोण (Baumol, Tobin's money demand approach)

प्रश्न- भुगतानों के लिए मुद्रा की मांग से सम्बंधित बौमॉल के दृष्टिकोण की व्याख्या कीजिए ? मुद्रा की मांग से सम्बंधित टोबिन के पत्राधान दृष्टिकोण की व्याख्या कीजिए ?

उत्तर- नवम्बर 1952 में डब्लू, जे. बौमॉल ने The Transactions Demand for cash"An Inventory Theoretic Approach", Quarterly Journal of Economics में भुगतानों के लिए मुद्रा की माँग की वस्तु-सूची नियंत्रण व्याख्या प्रस्तुत की है। जिस प्रकार व्यापारी अपने पास वस्तुओ का भण्डार रखते हैं, उसी प्रकार व्यक्तियो द्वारा अपने पास मुद्रा का भण्डार रखा जाता है ताकि भुगतानों में सुविधा हो।

भण्डारण की लागत को ध्यान में रखकर एक उप‌युक्त आकार का निर्धारण होता है। मुद्रा का भण्डारण करने पर व्यक्तियो द्वार ब्याज से प्राप्त होने वाली आ का परित्याग करना पड़ता है जो कि उन्हें बचत खातों, मियादी जमाराशियो अथवा बॉण्डों आदि पर प्राप्त होती है। ब्याज का परित्याग मुद्रा की भुगतानों के लिए मांग की लागत है। इस प्रकार बौमॉल के अनुसार भुगतानों के लिए मुद्रा की मांग ब्याज दरों के प्रभाव से स्वतंत्र नहीं होती है। बौमॉल के अनुसार, ब्याज आज का परित्याग भुगतानों के लिए नकद मुद्रा रखने की अवसर लागत है।

विनिमय-माध्यम के रूप में मुद्रा की मांग आय की प्राप्ति तथा भुगतानों के लिए किये गये व्यय के बीच की अवधि के लिए की जाती है। माँग का आकार इस बात पर निर्भर करता है कि व्यय का आकार कितना है और यह भविष्य में किस प्रकार किया जायेगा। साथ ही, यह भी महत्त्वपूर्ण है कि वित्तीय अस्तियों को नकद मुद्रा में बदलने की लागत कितनी होगी।

मुद्रा से अभिप्राय करेन्सी तथा मांग जमाराशियों से है जोखिम रहित तथा सुरक्षित है, परन्तु इन पर ब्याज नहीं मिलती। दूसरी ओर बॉण्डो पर ब्याज मिलती है, परन्तु ये जोखिमपूर्ण होते है क्योंकि इनमें निवेश करने पर पूँजी ह्मस भी हो सकता है। बौमॉल के अनुसार, बैंकों के बचत खाते जोखिम से पूर्णतया मुक्त होते है तथा इन पर कुछ ब्याज भी मिलती है। इन पर प्राप्त होने वाली ब्याज दर में वृद्धि होने पर लोग इन खातों में अधिक मुद्रा रखने लगेंगे।

बौमॉल ने एक ऐसे व्यक्ति की भुगतानों के लिए मुद्रा की माँग की व्याख्या की है जिसे एक निश्चित समयावधि, मान लिया एक महीने के लिए आय प्राप्त होती है और वह इसे एक स्थिर दर पर प्रतिदिन व्यय करता है। मान लीजिए कि इस व्यक्ति को प्रति महीने के पहले दिन 15,000 रूपये का वेतन चैक के द्वारा मिलता है। वह इसके बदले में नकदी लेकर प्रतिदिन व्यय करता रहता है और महीने के अन्त में उसके पास कुछ नहीं बचता। ऐसी स्थिती में उसके पास भुगतानो के लिए औसत मुद्रा शेष  `\frac{15000}2=7500` रु. होगा। महीने के 15 दिन उसके पास 7500 रु. से अधिक तथा 15 दिन 7,500 रु से कम मुद्रा शेष रहेगा।

यदि ध्यान से देखा जाय तो उपरोक्त स्थिति उस व्यक्ति के लिए अनुकूल नहीं है। पूरी रकम निकालने के बजाय यदि 7,500 रुपये ही निकाले जाते तो शेष रकम पर बचत खाते में प्रति माह 15 दिनों की ब्याज प्राप्त हो सकती थी। ऐसी स्थिति में औसत मुद्रा शेष `\frac{7500}2` = 3,750 रुपये होगा। इसी प्रकार यदि वह व्यक्ति 5,000 रुपये ही निकालता है और शेष 1,000 रुपये बचत खाते में जमा करता है तो वह महीने के 11 वें तथा 21वें दिन 5,000 रुपये निकालेगा और प्रति दिन 500 रुपये व्यय करेगा। इस स्थिति में उसका औसत मुद्रा शेष `\frac{5000}2` = 2,500 रुपये होगा।

हमे देखना यह है कि इस व्यक्ति के लिए सबसे अनुकूल निर्णय क्या है। पूरी रकम एक साथ न निकालने पर ब्याज तो मिलती है, परन्तु बार-बार रूपया निकालने की लागत भी होती है। बॉण्डों को बेचने पर दलालो की कमीशन देनी पड़ती है। बचत खाते से रुपये निकालने पर भी बैंक में बार-बार जाना पड़ता है किराया भाड़ा लगता है, समय देना तो पड़ता है तथा असुविधा भी होती है। इस प्रकार, यह लागत स्पष्ट तथा अस्पष्ट दोनों प्रकार की होती है। अनुकूल मुद्रा शेष के निर्धाण के लिए इसकी लागत कम होना आवश्यक है।

प्राप्त होने वाली आय को यदि Y के रूप में व्यक्त किया जाय, प्रत्येक बार बैंक से निकाली गयी राशि को C के द्वारा, जितनी बार व्यक्ति बैंक से मुद्रा लेने जाता है T द्वारा तथा दलाल को दी गयी कमीशन आदि के रूप में लागत b द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। ऊपर दिये गये पहले उदाहरण मे T का आकार 1 दूसरे में 2 तथा तीसरे में 3 है। मुद्रा शेष रखने पर ब्याज के रूप में आय के परित्याग की राशि (r) का अनुमान ब्याज र के आधार पर लगाया जा सकता है। यदि ब्याज - दर 5% मान ली जाय तथा निकाली गयी मुद्रा में से आधा मुद्रा शेष `\frac C2` होने पर पहली स्थिति में ब्याज को हानि `\frac{rc}2=\frac5{100}\times\frac{15000}2`= 375 रू. होगी

दूसरी स्थिति में, `\frac{rc}2=\frac5{100}\times\frac{7500}2`= 187.50 रू. तथा

तिसरी स्थिति में 

`\frac{rc}2=\frac5{100}\times\frac{5000}2`= 125 रू. होगी।

दलाली तथा ब्याज आय के परित्याग के रूप में नकद शेष के भण्डारण की लागत `bT+\frac{rc}2` है। चूंकि `T=\frac Yc`

इसलिए कुल लागत `=\frac Ycb+\frac{rc}2`

बौमॉल के अनुसार, मुद्रा निकालने की औसत रकम की न्यूनतम लागत दलाल को दी गयी कमीशन के दो गुना के वर्गमूल को व्यक्ति की आय से गुणा करके ब्याज दर से भाग देने पर ज्ञात की जा सकती है। इस प्रकार 

`C=\sqrt{\frac{2bY}r}` 

इसको वर्गमूल नियम कहा जाता है। इससे यह पता चलता है कि दलाल की कमीशन अधिक होने पर मुद्रा-शेष बढ़ते हैं। दूसरी ओर ब्याज दर ऊँची होने पर भुगतानों के लिए मुद्रा शेष कम होते है तथा बचत खातों में जमाराशियाँ बढ़ती है।

केन्स ने भुगतानों के लिए मुद्रा की माँग को आय स्तर पर आश्रित माना था तथा इसे ब्याज दर से सम्बंधित नहीं किया था। बौमॉल तथा टॉबिन ने यह बताया है कि भुगतानो के लिए मुद्रा की माँग ब्याज दर से प्रभावित होती है। ब्याज दर ऊँची होने पर भुगतानो के लिए नकद मुद्रा की माँग कम होती है। इसीलिए भुगतानों के लिए मुद्रा की मांग वक्र नीचे की ओर गिरती हुई होती है। जिसे चित्र से स्पष्ट कर सकते हैं:-

बौमॉल, टॉबिन का मुद्रा की मांग दृष्टिकोण (Baumol, Tobin's money demand approach)

वर्गमूल नियम यह बताता है कि भुगतानों के लिए मुद्रा की माँग आय (Y) में होने वाले परिवर्तन के साथ प्रत्यक्षूप से सम्बंधित होती है। अतः एक दी हुई ब्याज दर पर आय का स्तर ऊँचा होने पर भुगतानो के लिए मुद्रा की माँग अधिक होगी। चित्र में भुगतानों के लिए मुद्रा की माँग (Md) की तीन रेखाएँ आय के तीन विभिन्न स्तरों पर दिखायी गयी है। वर्गमूल निगम से पता चलता है कि भुगतानों के लिए अनुकूल मुद्रा शेष में आय में वृद्धि से कम अनु‌पात में वृद्धि होती है। इस प्रकार, मुद्रा बाजार में मुद्रा की मांग को दी हुई मुद्रा-पूर्ति की वृद्धि से सन्तुलित करने के लिए, अन्य बाते समान रहने पर, आय में अधिक वृद्धि की आवश्यकता होती है।

बौमॉल तथा टोबिन की व्याख्या में भुगतानो के लिए मुद्रा की माँग व्याज दर तथा आय स्तर दोनों का फलन है। अत: Md = ƒ (r,Y) जहाँ, Md भुगतानों के लिए मुद्रा की मांग r ब्याज दर तथा Y य-स्तर का सूचक है। ऐसा मान लेने पर यह स्वीकार करना होगा कि आर्थिक स्थिरता के लिए मौद्रिक नीति का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

टॉबिन का पत्राधान दृष्टिकोण

अमेरिकी अर्थशास्त्री जेम्स टॉबिन ने अपनी पुस्तक "Liquidity Preference as Behaviour Towards Risk, Review of Economic studies" जो 1958 में प्रकाशित हुई में व्याख्या की है कि लोगों का विवेकपूर्ण व्यवहार यह है कि वे परिसम्पत्तियों के पत्राधान में नकदी तथा बॉण्ड दोनों ही रखें। लोग अपने पास अधिक न रखना चाहते हैं, परन्तु उन्हें निर्णय यह करना होता है कि इसे किस रूप में रखे। वित्तीय परिसम्पत्तियों का वह अनुपात जो मुद्रा के रूप मे रखा जाता है उस पर ब्याज नहीं मिलती है जबकि बॉण्ड रखने पर ब्याज की प्राप्ति होती है। कुछ अस्तियाँ अन्य की तुलना में अधिक जोखिमपूर्ण होती है। टोबिन के अनुसार, लोग अपने पत्राधान में इस प्रकार की विविधता लाते है कि सुरक्षित तथा जोखिमपूर्ण अस्तियों का एक सन्तुलित सम्मिश्रण प्राप्त हो सके।

टोबिन के विचार में लोगों का व्यवहार जोखिमसे बचना होता है। इस प्रकार, एक दी हुई ब्याज पर लोग अधिक के बजाय कम जोखिम लेना चाहते है। व्याज की वृद्धि ही उन्हें अधिक जोखिम के लिए प्रेरित करती हैं। केन्स द्वारा प्रस्तुत की गयी व्याख्या में व्याज की भविष्य में सम्भावित दरों के आधार पर लोग अपना सम्पूर्ण धन मुद्रा के रूप में रखते है अथवा बॉण्डों के रूप में टॉबिन का मानना है कि लोग भविष्य में व्याज दरो के लिए निश्चित नहीं है। कोई भी व्यक्ति यदि अपने पत्राधान में बॉण्डों जैसी जोखिमपूर्ण अस्तियां अधिक अनुपात में रखता है जो उसे अधिक औसत आय प्राप्त हो सकती है परन्तु साथ ही उसका जोखिम भी बढ़ जाता है। जोखिम से बचने की प्रवृत्ति उसे अपना सम्पूर्ण धन जोखिमपूर्ण बॉण्डों में लगाने से रोकती है। दूसरी ओर, यदि वह अपना धन जोखिम रहित मुद्रा में रखता है तो उसका जोखिम तो शून्य होगा परन्तु उसे इससे ब्याज के रूप में प्राप्ति भी शून्य रहेगी। अतः लोग सामान्यतः मुद्रा बॉण्ड तथा शेयरो का एक मिश्रित पत्राधान रखते है जिससे जोखिम तथा व्याज की प्राप्ति को सन्तु‌लित किया जा सके।

जोखिम से बचने वाला किस प्रकार विविधता लाने वाला है। इसे रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं।

बौमॉल, टॉबिन का मुद्रा की मांग दृष्टिकोण (Baumol, Tobin's money demand approach)

चित्र में जोखिम शून्य होने पर प्रतिफल भी शून्य है। जैसे-जैसे जोखिमपूर्ण अस्तियों का अनुपात बढ़ता जाता है, जोखिम के साथ-साथ प्रतिफल में भी वृद्धि होती है। जोखिमपूर्ण अस्तियों पर ब्याज दर i% होने पर OA1 के बराबर निवेश के अवसर उपलब्ध होते हैं। जोखिमपूर्ण अस्तियों का अनुपात बढ़ने पर जोखिम तथा प्रतिफल में वृद्धि होती है, इसलिए OA1 रेखा ऊपर की ओर उठती हुई है। ब्याज दर अधिक। (i2) होने पर नयी रेखा OA2 है। पहली स्थिति में D1 तथा दूसरी स्थिती हमें D सन्तुलन की स्थिति को व्यक्त करते है। जोखिम के नीचे निरपेक्ष स्तर पर जोखिम में 1 प्रतिशत वृद्धि होने पर प्रतिफल में 1 प्रतिशत से कम वृद्धि होने पर भी व्यक्ति उसी तटस्थता वक्र पर बना रहेगा।

जोखिम के ऊंचे स्तर पर जोखिम में 1 प्रतिशत की वृद्धि होने पर प्रतिफल में 1 प्रतिशत से अधिक वृद्धि आवश्यक होंगी। इसीलिए वह पत्राधान में विविधता लाता है। व्याज दर में वृद्धि का प्रतिस्थापन प्रभाव होता है जिससे व्यक्ति अधिक जोखिम उठाने के लिए तैयार होता है। आय प्रभाव के अन्तर्गत व्यक्ति अधिक सुरक्षा चाहता है जिससे जोखिम में कमी होती है। उपर्युक्त रेखाचित्र में यह मान्यता अपनायी गयी है कि प्रतिस्थापन प्रभाव अधिक महत्त्वपूर्ण है। जोखिमपूर्ण अस्तियों का अनुपात रेखाचित्र के नीचे के भाग में OB से देखा जा सकता है।

उपर्युक्त्त व्याख्या के अन्तर्गत ब्याज दर ऊँची होने पर नकद मुद्रा अथवा तरलता की मांग कम होगी और लोग अपने न का अधिक भाग बॉण्डों में लगाना चाहेगे। इसके विपरीत व्याज-पर नीची होने पर तरल मुद्रा की मांग अधिक होगी तथा बॉण्डों में कम मुद्रा लगायी जायेगी। इससे हमे सट्टे के उद्देश्य से की गयी मुद्रा की माँग का सैद्धान्तिक आधार मिलता है। इसे चित्र से स्पष्ट किया जा सकता है :

बौमॉल, टॉबिन का मुद्रा की मांग दृष्टिकोण (Baumol, Tobin's money demand approach)

चित्र में तरलता पसन्दगी वक्र नीचे की ओर गिरती हुई है जो कि यह दिखाती है कि बॉण्डों पर ब्याज दर गिरने से परिसम्पत्ति के रूप में नकद मुद्रा कोषों की मांग बढ़ती है। Md वक्र मुद्रा कोषों की मांग अथवा तरलता पसन्दगी की क्र रेखा है।

टाँबिन की व्याख्या केन्स के तरलता पसन्दगी सिद्धांत का एक सुधार है। केन्स का मानना था लोग अपना सम्पूर्ण धन मुद्रा मे रखते है अथवा बॉण्डों में। इसके विपरीत टाँबिन के अनुसार लोग विभिन्न, ब्याज दरों पर मुद्रा तथा बॉण्ड एक साथ अलग-अलग अनुपातो में रखते है। इससे एक सतत् तरलता पसन्दगी वक्र का निर्माण किया जा सकता है।

केन्स की यह मान्यता थी कि व्याज दरो में परिवर्तन केवल एक ही दिशा में होगा जबकि टॉबिन का मानना है कि लोग यह निश्चित रूप से नहीं जानते है कि व्याज दरों का परिवर्तन किस दिशा में होगा। टॉबिन ने विविध व्याज दरों पर विचार किया है।

टॉबिन की व्याख्या में तरलता पसन्दगी का निर्धारण लोगों के जोखिम के प्रति व्यवहार द्वारा होता है। अतः अस्तियों का चुनाव मुद्रा तथा बॉण्ड तक ही सीमित न रहकर अनेक विकल्पों पर लागू होता है।

टॉबिन की व्याख्या के आधार पर पत्राधान अधिशेष दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता मिली है।

पत्राधान अधि‌शेष दृष्टिकोण यह निश्चित करता है कि विभिन्न परिसम्पत्तियों की मांग का निर्धारण किस प्रकार होता है। अलग-अलग परिसम्पत्तियों की ब्याज दरे अलग-अलग होती है। व्याज दरो में परिवर्तन परिसम्पत्तियों की सरंचना अथवा पूर्ति में होने वाले परिवर्तनो का परिणाम होते हैं। ब्याज दरों में भिन्नता के कारण अलग अलग परिसम्पत्तियों में धन लगाने से आय भी अलग-अलग होती है। मुद्रा भी एक परिसम्पति है, इसलिए मुद्रा की माँग भी मुद्रा को व्याज दर के अनुसार घटती-बढ़ती है।

किसी भी एक परिसम्पत्ति की मांग एक ब्याज दर पर निर्भर न रहकर बहुल ब्याज दरों पर निर्भर करती है। यदि एक परिसम्पत्ति की पूर्ति में परिवर्तन होता है तो अनेक ब्याज दरों में परिवर्तन होगा। एक परिसम्पति की व्याज दर केवल उसकी पूर्ति पर ही निर्भर नही करती वरन् अन्य परिसम्पत्तियों की पूर्ति में परिवर्तनों के द्वारा भी प्रभावित होती है।

मुद्रा तथा अन्य परिसम्पत्तियों के परिवर्तन सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते है। मान लीजिए यदि केन्द्रीय बैंक वाणिज्य बैंकों के वैद्यानिक कोषानु‌पात में कमी करता है तो बैंको को अतिरिक्त साधन प्राप्त हो जाते है जिनका उपयोग अन्य ऋणों व निवेशों के लिए किया जा सकता है। इससे पहले का सन्तुलन बिगड़ जाता है। बैंक अपने अतिरिक्त साधनों का प्रयोग अधिक प्रतिभूतियाँ खरीदने में कर सकते हैं। प्रतिभूतियों की पूर्ति बढ़ने से उन पर ब्याज दर घटेगी जिससे इनकी मांग कम हो जायेंगी। प्रतिभूतियों की मांग में कमी होने पर अन्य स्थानापन्न परिसम्पत्तियों की मांग बढ़ेगी। जितने मूल्य की प्रतिभूतियाँ जनता द्वारा बैंकों को बेची जाती है उतने ही मूल्य की मुद्रा अथवा पूँजीगत परिसम्पत्तियां जनता अपने पास अधिक मात्रा में रखेगी। मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाने से लोग पूँजीगत वस्तुएँ खरीदेंगे इससे इनकी मांग और मूल्य में वृद्धि होगी। पूँजीगत वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो जाने से उनसे प्राप्त होने वाली आय में कमी होगी। इसका उनकी पूर्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। कुल मिलाकर पूँजीगत वस्तुओं की पूर्ति तथा उत्पादन को मात्रा में परिवर्तन होगा और अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी।

पत्राधान अधिशेष सिद्धांत केन्स के तरलता पसंदगी सिद्धांत से अनेक बातो में भिन्न है। जो निम्नलिखित है:-

(1) पत्राधान सिद्धांत के अनुसार ब्याज दरे तथा विभिन्न परिसम्पत्तियों की संरचना समस्त परिसम्पत्तियों की पूर्ति के द्वारा निर्धारित होती है। तरलता सिद्धांत की यह मान्यता है कि अर्थव्यवस्था में व्यापारिक क्रियाओ और मुद्रा की मात्रा में होने वाले परिवर्तन तरलता पसंदगी द्वारा ही प्रभावित होते है।

(2) पत्राधान सिद्धांत के अनुसार, परिसम्पत्तियों की संरचना में परिवर्तन होने से ब्याज दरो तथा पूँजीगत वस्तुओं की मांग में परिवर्तन होगा, किंतु मुद्रा की पूर्ति मे नही । तरलता पसंद‌गी सिद्धांत के अनुसार ब्याज दरो पूँजी की माँग तथा अन्य परिसम्पत्तियों में परिवर्तत मुद्रा की पूर्ति में परिवर्तनों का परिणाम होते हैं।

(3) पत्राधान सिद्धांत अलग-अलग परिसम्पत्तियों की अलग-अलग ब्याज दर मानता है। तरलता सिद्धांत में एक ही ब्याज दर को माना गया है।

(4) पत्राधान सिद्धांत के अनुसार मुद्रा भी अन्य परिसम्पत्तियों में से एक है अतः इसकी ब्याज दर भी अन्य परिसम्पत्तियों से प्राप्त होने वाले प्रतिफल की तरह निर्धारित होती है। तरलता सिद्धांत के अनुसार मुद्रा की पूर्ति में मुद्रा की मांग के अनुसार परिवर्तन होने से ब्याज दर और पूंजी की मांग में परिवर्तन होते है।

सकल परिसम्पत्तियों की तुलना में यदि पूँजी की पूर्ति कम हो जाती है, परन्तु यह कमी उसकी माँग से अधिक है तो पूँजीगत वस्तुओं की कीमते बढ़ेगी और उनका उत्पादन बढ़ेगा। इससे अर्थव्यवस्था में विस्तार होगा।

यदि बॉण्डों और पूँजी एक दूसरे के स्थाना‌पन्न है तथा मुद्रा इन दोनों की स्थानापन्न नहीं है तो ऐसी स्थिति में पूँजी की पूर्ति में वृद्धि होगी और पूँजीगत वस्तुओं की कीमतें गिरेगी जिससे उनका उत्पादन कम होगा और अर्थव्यवस्था की गति धीमी हो जायेगी।

स्पष्ट है कि पत्राधान सिद्धांत की व्याख्या में यह ज्ञात नहीं होता कि मुद्रा की पूर्ति और ब्याज दर में परिवर्तन का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव होगा। यह जानने के लिए पूँजी बाजार पर विचार करना होगा। पूँजी की मांग बढ़ने से अर्थव्यवस्था का विस्तार होता है और पूंजी की मांग घटने से संकुचनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न होगी। इस प्रकार मौद्रिक सिद्धांत तथा पूँजी सिद्धांत की समन्वय स्थापित होता है।

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