मिल्टन फ्रिडमैन का मुद्रा परिमाण सिद्धांत ( M. Friedman Quantity Theory of Money)

मिल्टन फ्रिडमैन का मुद्रा परिमाण सिद्धांत ( M. Friedman Quantity Theory of Money)

मिल्टन फ्रिडमैन का मुद्रा परिमाण सिद्धांत ( M. Friedman Quantity Theory of Money)

प्रश्न- मिल्टन फ्रिडमैन के मुद्रा-परिमाण सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। यह प्रतिष्ठित परिमाण सिद्धांत से किन बातों में भिन्न है?

→ मुद्रा-परिमाण सिद्धांत की शिकागो व्याख्या का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए ?

उत्तर- 1976 ई० में अर्थशास्त्र में नोवेल पुरस्कार विजेता शिकागो के अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन ने वर्त्तमान समय में मुद्रा के परिमाण सिद्धांत को एक नये रुप में प्रस्तुत कर इसे पुनः स्थापित करने तथा लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया है। प्रो. फ्रीडमैन की व्याख्या इस धारणा पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था में मुद्रा का अत्यधिक महत्व है और मुद्रा की राशि की उपेक्षा कर हम अल्पकालीन परिवर्तनों का सही विश्लेषण नहीं कर सकते। 1956 ई. में अपने द्वारा सम्पादित "Studies in the Quantity Theory of Money" में "The Quantity Theory of Money: A Restatement" नामक अपना लेख प्रस्तुत कर मिल्टन फ्रीडमैन ने मुद्रा के परिमाण सिद्धांत की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। चूंकि प्रो. फ्रीडमैन शिकागों के अर्थशास्त्री है, अतः उनके सिद्धांत को परिमाण सिद्धांत का शिकागो स्वरूप भी कहते हैं। इसे आधुनिक परिमाण सिद्धांत के नाम से भी पुकारा जाता है।

प्रो. फ्रीडमैन के अनुसार, "मुद्रा का परिमाण सिद्धांत प्रथमतः मुद्रा की मांग का सिद्धांत है। यह न तो उत्पादन का सिद्धांत है और न मौद्रिक आय अथवा मूल्य-तल का ही है।

इस प्रकार फ्रीडमैन ने अपनी व्याख्या में मुद्रा की मांग को अत्याधिक, महत्त्व प्रदान किया है। उनके अनुसार मुद्रा समाज में धन इकट्ठा करने का एक साधन है। मुद्रा की माँग का सिद्धांत पूंजी या विनियोग के सिद्धांत का एक अंग है, क्योंकि इसमें पूँजी बाजार के दो प्रमुख तत्त्वों-पूँजी की पूर्ति तथा पूँजी की मांग का समन्वय किया गया है। इसीलिए कहा जाता है कि "केन्स की General Theory.... के बाद फ्रीडमैन द्वारा पूँजी सिद्धांत के मूलभूत सिद्धांतों का मौद्रिक सिद्धांत में प्रयोग किया जाना मौद्रिक सिद्धांत के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रगति है"

प्रो. फ्रीडमैन के अनुसार परिमाण सिद्धांत व्यावहारिक है तथा इसकी सत्यता इसी बात से स्पष्ट होती है कि मुद्रा की मात्रा एवं मूल्य तल में घनिष्ट पारस्परिक सम्बंध पाया जाता है। उनका विचार है कि लोगों द्वारा की जानेवाली मुद्रा की मांग मूल्य तल के अनुपात में परिवर्तित होती है तथा लोगों की मुद्रा रखने की प्रवृत्ति आय में वृद्धि या कमी की अपेक्षा अधिक अनुपात में परिवर्तित होती है।

वास्तव में प्रो. फ्रीडमैन के सिद्धांत का सबसे बड़ा योगदान इस बात को लेकर है कि उन्होंने चलन गति में परिवर्तन को परिमाण सिद्धांत के अनुरूप माना । फिशर के समान फ्रीडमैन चलन गति को स्थिर नहीं मानते वरन् उसे एक कार्यात्मक सम्बंध मानते हैं जिसमे मुद्रा की मांग अनेक तत्त्वों जैसे व्याज की दर, आय, धन तथा मूल्य तल में संभावित परिवर्तन का कार्य है अथवा इन तत्त्वों पर निर्भर करती है।

फ्रीडमैन के सिद्धांत की प्रमुख बाते या तत्त्व

(1) प्रो. फ्रीडमैन के अनुसार परिमाण सिद्धांतवादी निम्नलिखित तीन बातों में विश्वास रखते हैं-

(a) मुद्रा की मांग काफी स्थिर रहती है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उत्पादन की मात्रा अथवा चलन गति के सम्बंध में मुद्रा की वास्तविक मात्रा एक निश्चित अवधि में अपरिवर्तित रहती है। मौद्रिक आय तथा कीमतों के निर्धारण में मुद्रा की मांग महत्त्वपूर्ण कार्य करती है।

(b) मुद्रा की पूर्ति को प्रभावित करने वाले तत्त्व मुद्रा की मांग को प्रभावित करने वाले तत्त्वों से स्वतंत्र होते हैं।

(c) व्याज दर विशुद्ध मौद्रिक विषय न होकर वस्तुगत अथवा वास्तविक होती है, क्योंकि इसका निर्धारण मितव्ययिता तथा उत्पादकता की शक्तियों पर निर्भर करता है। यदि यह मान लिया जाय कि व्याज दर का निर्धारण मुद्रा बाजार में होता है तो इसमे किये जाने वाले परिवर्तन वास्तविक आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित नहीं कर पायेंगे।

(2) मिल्टन फ्रिड‌मैन ने मुद्रा-परिमाण सिद्धांत का पुनर्वितरण देते हुए कहा है कि परिमाण सिद्धांत मुख्यतया मुद्रा की माँग का सिद्धांत है। यह उत्पादन अथवा मौद्रिक आय अथवा कीमत स्तर का सिद्धांत नहीं है।

(3) फ्रीडमैन के अनुसार, मुद्रा की मांग सम्पत्ति के रूप में होती है और सम्पत्ति रखने के विभिन्न तरीकों में मुद्रा के रूप में संपत्ति रखना भी एक तरीका है।

(4) किसी उद्योग अथवा उत्पादकों के लिए मुद्रा एक पूँजीगत वस्तु है जिससे उत्पादक सेवाओं को प्राप्त कर उत्पादन को संभव बनाया जाता है तथा उसमें वृद्धि की जाती है, इसलिए मुद्रा की मांग के सिद्धांत को पूंजी के सिद्धांत का एक अंग कहा जाता है।

(5) वास्तविक आय को भी मुद्रा की मांग का प्रमुख निर्धारक तत्त्व माना गया है। ऐसा इसलिए है कि वास्तविक आय में होने वाले परिवर्तन व्यवसाय तथा लेन-देन के आकार को प्रभावित करते है। साथ ही, वास्तविक आय के परिवर्तन लोगों के जीवन स्तर में भी परिवर्तन लाते हैं। वास्तविक आय में परिवर्तन होने पर वास्तविक नकद कोषों की माँग में भी परिवर्तन होता है।

फ्रिडमैन के विचार मे, वास्तविक आय में परिवर्तन होने पर मुद्रा की माँग में अनुपात से अधिक परिवर्तन होता है। इस प्रकार, मुद्रा की मांग की आय लोच इकाई से अधिक होती है। यदि मुद्रा की मांग को M के रूप में व्यक्त किया जाय और वास्तविक आय को Y के रुप मे तो `\frac{\Delta M}{\Delta Y}>1` होगा।

(6) धन का संचय करने वाली इकाइ‌यों के द्वारा की जाने वाली मुद्रा की मांग तीन बातो पर निर्भर करती है

(a) विभिन्न प्रकार की परिसम्पत्तियों के रूप में संचय किये जाने वाले धन का आकार

(b) विभिन्न परिसम्पत्तियों की सापेक्ष कीमत तथा उनसे प्राप्त होने वाली आय तथा

(c) धन का संचय करने वालो की रुचि एवं पसन्दगी।

नकद कोष रखने की लागत की माप दो प्रकार से की जा सकती है-

(a) वैकल्पिक परिसम्पत्तियो (बॉण्ड, शेयर आदि) पर अर्जित की जाने वाली व्याज दर तथा

(b) कीमत स्तर में परिवर्तन की सम्भावित दर।

व्याज-दर या सम्भावित कीमत स्तर में वृद्धि नकद कोषों की माँग में कमी उत्पन्न करती है। इसके विपरीत, व्याज दर या कीमत स्तर में वृद्धि नकद कोष रखने की लागत को कम करती है जिससे तरलता पसन्दगी में वृद्धि होती है। इस प्रकार, मुद्रा की मांग तथा नकद कोष रखने की लागत मे विपरीत सम्बंध होता है।

(7) प्रो. फ्रीडमैन के अनुसार सम्पत्ति अथवा धन को निम्नलिखित पाँच रूपों में रखा जा सकता है (a) मुद्रा (M) के रूप में (b) बॉण्डस् (B) के रूप में (c) शेयर या इक्विटीज (E) के रूप में (d) भौतिक गैर- मानवीय वस्तुओ (G) के रूप में  तथा (e) मानवीय पूजा (H) के रूप में। अतः धन या

W = M + B + E + G + H होगा।

धन इकट्ठा करने वाला हर व्यक्ति या संस्था प्राप्त धन से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए धन को विभिन्न रूपों में इस प्रकार प्रतिस्थापित या वितरित करता है ताकि वह अधिकतम लाभ के बिन्दु तक पहुँच जाय।

(8) मुद्रा के रूप में धन रखने से व्याज के रूप में आय प्राप्त होती है। इसी प्रकार मुद्रा के अतिरिक्त अन्य चार रूपों में भी धन एकत्रित करने से आय प्राप्त होती है। अतः ब्याज की दर, धन की राशि तथा आय के प्रवाह के बीच के सम्बंध को प्रकट करती है जिसे हम निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त कर सकते है

`w=\frac Yr`

जहां W = कुल धन, Y = कुल आय, r = ब्याज की दर

(9) मुद्रा की माँग का निर्धारण मुख्यतः पाँच निर्धारक तत्त्वों द्वारा होता है (1) मूल्य तल (2) वास्तविक आ तथा उत्पान का स्तर (3) कुल धन राशि जिसे जनता विभिन्न रूपों में रखती है (4) ब्याज की र तथा (5) सामान्य मूल्य स्तर में वृद्धि की दर

फ्रिडमैन का माँग फलन

फ्रिडमैन ने मुद्रा की माँग का सम्बंध धन तथा धन को विभिन्न रुपों में रखने से प्राप्त संभावित आय के प्रवाह से स्थापित किया है तथा विभिन्न समीकरणों के माध्यम से मुद्रा की मांग-प्रक्रिया का विश्लेषण किया है जो मूल्य तल, बॉण्डो तथा शेयरों की आय, मूल्य त में परिवर्तन की दर, आ, गैर-मानव सम्पत्ति का मानव सम्पत्ति के अनुपात आदि पर निर्भर करती है।

(a) मुद्रा- मुद्रा का प्रतिल हमे मुख्यतः वस्तुओ के रूप में प्राप्त होता है लेकिन बैंकों में जमा के रूप में रखी गई मुद्रा से ब्याज के रूप में मुद्रा भी प्राप्त होती है। मुद्रा का वास्तविक प्रतिफल मुद्रा की किसी इकाई द्वारा प्राप्त होने वाली वस्तुओं या सामान्य मूल्य तल पर निर्भर करता है जिसे हम P कह सकते है। यदि मूल्य तल में कमी होती है तो मुद्रा का मूल्य बढ़ जाता है। P केवल मुद्रा के वास्तविक प्रतिफल को ही प्रभावित नहीं करता वरन् प्रत्येक प्रकार के धन के वास्तविक प्रतिफल को प्रभावित करता है।

(b) बॉन्ड्स- बॉण्ड एक प्रकार का न है जिससे निरन्तर आय प्राप्त होती रहती है। बॉण्डो का वास्तविक प्रतिफल दो बातों पर निर्भर करता है। (1) बॉण्डों पर प्राप्त व्याज की दर तथा (2) समयानुसार बॉण्डो के मूल्य में परिवर्तन। यदि मूल्य में कोई परिवर्तन न हो तो एक डॉलर के बॉण्ड पर जो आय प्राप्त होगी उसे हम rb कह सकते है यानी rb बॉण्ड पर ब्याज की बाजार दर है। अतः `\frac1{rb}` उस बॉण्ड का मूल्य होगा जिससे एक डॉलर की वास्तविक आय होती है। लेकिन दि मूल्य में परिवर्तन हो तो बॉण्ड पर प्राप्त आ को rb की तरह आसानी से बाजार मूल्य के आधार पर प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि तब बॉण्ड के मूल्य में या तो वृद्धि होगी या कमी होगी। ऐसी अवस्था में यदि हम समय को t मान लें तो शून्य समय पर फलन को निम्न प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं:-

`rb-\frac1{rb}\frac{drb}{dt}` -----(1)

जिसमें, rb = बॉण्ड पर ब्याज की बाजार दर

`\frac1{rb}\frac{drb}{dt}` = ब्याज की दर में परिवर्तन के फलस्वरूप, पूँजीगत वृद्धि अथवा ह्मस में परिवर्तन की दर

उपर्युक्त समीकरण से प्राप्त रकम पहले वर्णित P के साथ एक डॉलर के धन को बॉण्ड के रूप में रखने से प्राप्त वास्तविक आय को व्यक्त करता है

(c) शेयर या इक्विटिज :- बॉण्ड की तरह शेयर पूँजी से भी निरन्तर आय प्राप्त होती है। अतः शेयर पूँजी धारणा करने वाले व्यक्ति को निम्नलिखित तीन प्रकार के मौद्रिक प्रतिफल प्राप्त होता है।

1. मूल्य में कोई परिवर्तन नहीं होने पर शेयर पूँजी से प्राप्त ब्याज की दर

2. मूल्य में परिवर्तन होने पर ब्याज की दर में होनेवाली वृद्धि या कमी तथा

3. समयानुसार शेयर पूँजी के मौद्रिक मूल्य में होनेवाला परिवर्तन जो या तो ब्याज में परिवर्तन से या मूल्य-तल में परिवर्तन से उत्पन्न हो सकता है।

अतः इससे सम्बन्धित समीकरण भी बॉण्ड से सम्बंधित समीकरण के समान है। इसे हम निम्न प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं।

`re+\frac1P\frac{dP}{dt}-\frac1{re}\frac{dre}{dt}`-----(2)

जिसमें re = शेयर पूँजी पर ब्याज की दर

`\frac1P\frac{dP}{dt}`= मौद्रिक प्रतिफल का भौतिक प्रतिफल की उस दर का निर्धारण करता है जो वस्तुओं के रूप में एक डॉलर रखने पर प्राप्त होता है।

`\frac1{re}\frac{dre}{dt}`= ब्याज की दर में परिवर्तन के फलस्वरूप पूँजी वृद्धि अथवा ह्मस में परिवर्तन की दर

उपर्युक्त समीकरण से प्राप्त रकम पहले वर्णित P के साथ एक डॉलर के धन को शेयर या इक्विटी के रूप में रखने से प्राप्त वास्तविक आय को व्यक्त करता है।

(d) भौतिक गैर मानवीय वस्तुएँ - भौतिक वस्तुओं का प्रतिपल मुद्रा के रूप में नहीं वरन्‌ वस्तुओं के रूप में प्राप्त होता है। यदि मूल्य तल P को हम भौतिक वस्तु‌ओं के मूल्य के सम्बंध मे लागू करे तो शून्य समय पर प्रति एक डॉलर की भौतिक वस्तुओं पर मौद्रिक प्रतिफल या आय का आकार निम्नलिखित होगा-

`\frac1P\frac{dP}{dt}`-----(3)

P के साथ यह एक डॉलर के धन को भौतिक वस्तुओं के रूप में रखने से प्राप्त वास्तविक आय को व्यक्त करता है।

(e) मानवीय पूँजी- मानवीय पूँजी प्रत्याशित अर्जित आय के प्रवाह का बट्टा किया हुआ मूल्य है।

(f) अन्त में माँग प्रक्रिया में धन को शामिल किया जाना चाहिए जिसमे मानवीय धन भी सम्मिलित हो । चूंकि धन की प्रत्यक्ष गणना नहीं की जा सकती, अतः फ्रीडमैन ने इसके लिए अप्रत्यक्ष गणना का सहारा लिया है अर्थात
`w=\frac Yr` इसके अतिरिक्त उपयोगिता एवं रुचि तथा वरीयता को निर्धारित करने वाले तत्त्वों को U के नाम से पुकारते है

इस प्रकार समीकरण (1), (2) और (3) से

`M=ƒ\left[P,rb-\frac1{rb}\frac{drb}{dt},re+\frac1P\frac{dP}{dt}-\frac1{re}\frac{dre}{dt},\frac1P\frac{dP}{dt};w;\frac Yr;u\right]`--(4)

इसी समीकरण में M मुद्रा की कुल माँग का द्योतक है।

प्रो. फ्रीडमैन ने समीकरण (4) को और भी सरल बना दिया है। चूंकि बॉण्ड तथा शेयर पूँजी से सम्बंधित ब्याज की दर में परिवर्तन के फलस्वरूप प्रत्याशित पूँजीगत लाभ या हानि की गणना करना कठिन है, अतः उन्होने मांग प्रक्रिया से इन पदों को निकाल दिया है। अतः समीकरण (4) को निम्न रूप में दिया जा सकता है-

`M=ƒ\left[P,rb,re,\frac1P\frac{dP}{dt};w;Y;u\right]`---(5)

जहां,

M = मुद्रा की कुल माँग

P = सामान्य कीमत स्तर । यह एक ऐसा चर है जो प्रत्येक परिसम्पत्ति की वास्तविक उपज को प्रभावित करता है।

Y = कुल आय प्रवाह

`\frac1P\frac{dP}{dt}`= वास्तविक परिसम्पत्तियों के प्रति मौद्रिक इकाई मौद्रिक मूल्य में वृद्धि (ह्मस), जो P के साथ मिलकर इन परिसम्पत्तियों के वास्तविक प्रतिफल की दर को व्यक्त करता है

rb = बॉण्डों पर बाजार की ब्याज दर

re = शेयर पर बाजार की ब्याज दर

w = अमानवीय धन का मानवीय धन से अनुपात । इसका सम्बंध धन और आय के अनुपान से होता है।

u = उपयोगिता, रूचियों को प्रभावित करने वाले तत्व।

फ्रीडमैन के अनुसार माँग समीकरण को मौद्रिक तत्वों से स्वतंत्र मान लेना चाहिये। इसके अनुसार समीकरण (5) मे P तथा Y समरूपी है, अतः

`M=ƒ\left[\lambda P,rb,re,\frac1P\frac{dP}{dt};\;w;\lambda Y;u\right]`---(6)

अब यदि  `\lambda=\frac1P` हो तो समीकरण (6) को निम्न प्रकार से भी लिखा जा सकता है -
`\frac MP=ƒ\;\left[rb,re,\frac1P\frac{dP}{dt};w\frac YP;u\right]` --(7)
उपरोक्त समीकरण वास्तविक कोषों की मांग को वास्तविक चरों के फलन के रूप में व्यक्त करता है जिसका मौद्रिक मूल्यों से प्रायः कोई सम्बंध नहीं है। अतः यदि `\lambda=\frac1Y` हो तो समीकरण (7) को इस प्रकार भी लिखा जा सकता है -
`\frac MY=ƒ\;\left[rb,re,\frac1P\frac{dP}{dt};w\frac PY;u\right]`

`=\frac1{V\left(rb,re,\frac1P\frac{dP}{dt};w\frac YP;u\right)}`--(8)
अथवा `Y=V\left(rb,re,\frac1P\frac{dP}{dt};w;\frac YP;u\right)M`-----(9)

इस समीकरण में V य की चलन गति है, अतः इस रूप में यह समीकरण परिमाण सिद्धांत के समीकरण के समान है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुद्रा की कुल मांग तथा कुल उत्पादन में आनुपातिक सम्बंध है।

फ्रीडमैन के सिद्धांत की सबसे बड़ी विशेषता उनके द्वारा अपने समीकरण मे `\frac1P\frac{dP}{dt}`का सम्मिलित किया जाना है जिसका अर्थ होता है धन की एक इकाई (एक डॉलर) के मूल्य स्तर में प्रत्याशित परिवर्तन । केन्स तथा उनके समर्थको ने सम्पत्ति के मूल्यों पर मूल्यो में होने वाले इस प्रत्याशित परिवर्तन के प्रभावों पर ध्यान नहीं दिया था, लेकिन फ्रीडमैन ने अपने सिद्धांत में इसको महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। इसके अतिरिक्त केन्स की General Theory के बाद फ्रीड‌मैन द्वारा पूंजी सिद्धांत के मूलभूत सिद्धांतों यानी आय पूंजी का प्रतिफल है तथा पूंजी आय का वर्तमान मूल्य है, का मौद्रिक सिद्धांत के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रगति है। फ्रीडमैन के अनु‌सार मुद्रा की मांग, मुद्रा की पूर्ति से स्वतंत्र होती है लेकिन परंपरावादी अर्थशास्त्रियों के अनु‌सार मुद्रा की माँग उसकी पूर्ति पर निर्भर करती है।

किसी निश्चित समय पर मुद्रा की पूर्ति का निर्धारण देश में मौद्रिक अधिकार सत्ता द्वारा किया जाता है, इसलिए यह सीधी खड़ी वक्र रेखा के रूप में प्रदर्शित की जाती है।

मिल्टन फ्रिडमैन का मुद्रा परिमाण सिद्धांत ( M. Friedman Quantity Theory of Money)

चित्र में Md मुद्रा की मांग की रेखा है तथा MS1 मुद्रा की पूर्ति रेखा है। दोनों के बीच संतुलन E बिन्दु पर होता है। मौद्रिक संतुलन के बिन्दु पर Py मौद्रिक आय का सन्तुलन स्तर है। यदि मुद्रा की पूर्ति बढ़ाकर MS2 कर दी जाय तो Py मौद्रिक आय के स्तर पर मुद्रा की मांग की तुलना में मुद्रा की पूर्ति अधिक है। इससे लोग अतिरिक्त मुद्रा को खर्च करने के लिए प्रेरित होगे जिससे वस्तुओं तथा सेवाओं की माँग बढ़ेगी। यदि वास्तविक आय Y का स्तर स्थिर है तो अतिरिक्त व्यय से कीमतें बढ़ेगी जिससे मौद्रिक आय में भी वृद्धि होगी। मौद्रिक आ P'y स्तर पर मुद्रा रखने की मांग पुनः बढी हुई मुद्रा मूर्ति MS2 के बराबर हो जाऐगी। स्पष्ट है कि मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि का कुल माँग में वृद्धि के माध्यम से कीमतों तथा मौद्रिक आय पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

E संतुलन बिन्दु के नीचे मुद्रा की पूत्ति इसकी मांग से अधिक है। इससे कीमतों में वृद्धि होगी। वास्तविक आ स्थिर होने पर मौद्रिक आय ब़ने लगेगी। दूसरी ओर E बिन्दु से ऊपर मुद्रा की मांग इसकी पूर्ति से अधिक है। मुद्रा की कमी के कारण व्यय में कमी होगी जिससे कीमतें कम होगी और मौद्रिक आय गिरने लगेगी। अतः जहाँ माँग पूर्ति बराबर होगी वही संतुलन होगा।

मौद्रिक असन्तुलत की स्थिति के परिणामस्वरूप निवेश, रोजगार, आय व कीमत स्तर पर प्रभाव पड़ता है। परिवर्तन का क्रम तब तक चलता रहता है तब तक कि अर्थव्यवस्था में पुनः मौद्रिक सन्तुलन स्थापित नहीं हो जाता है।

मिल्टन फ्रिडमैन ने मुद्रा परिमाण सिद्धांत का पुनर्विवरण प्रस्तुत किया है। इसमें मुद्रा के प्रचलन वेग को तो स्थिर मान लिया गया है, परन्तु उत्पादन की मात्रा की स्थिरता को स्वीकार नहीं किया गया है। इस प्रकार MV = PY के रूप में मुद्रा की पूर्ति (MV) मुद्रा के रूप में राष्ट्रीय आय (Py) के बराबर होगी। कीमत स्तर को P तथा वास्तविक राष्ट्रीय आय अथवा उत्पादन को Y के द्वारा व्यक्त करने पर Py मौद्रिक आय होगी जिसका मुद्रा की पूर्ति से आनुपातिका सम्बंध है। उत्पादन में वृद्धि का अनु‌पात जितना अधिक होगा, मुद्रा की पूर्ति में परिवर्तन का कीमत स्तर पर प्रभाव उतना ही कम होगा।

मुद्रा का मांग फलन आय पर आधारित होने के कारण अल्पकाल में स्थिर रहता है। यदि अर्थव्यवस्था में शिथिलता की स्थिति है तो मुद्रा की मांग तथा चलन गति स्थिर रहने पर, मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि उत्पादन अथवा राष्ट्रीय आय में वृद्धि लायेगी न कि कीमत स्तर में।

आलोचना

मिल्टन फ्रिडमैन के विचारों की प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित है।-

(1) फ्रिडमैन ने मुद्रा की विस्तृत परिभाषा देकर इसमें चलन तथा मांग जमाराशियों के अतिरिक्त काल जमाराशियों को भी जोड़ लिया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मुद्रा की मांग के निर्धारण में फ्रिडमैन ने ब्याज दरों को अधिक महत्त्व नहीं दिया है। परन्तु यदि मुद्रा का परम्परागत अर्थ ही लिया जाय तो ब्याज दरों का आशंकाओं , मौद्रिक साधनों की उपलब्धि तथा लागत पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।

(2) फ्रिडमैन को 'स्थायी आय' की धारणा धन से सम्बन्धित है। इससे अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न होते है तथा मुद्रा की मांग और आय, धन तथा ब्याज-दर के बीच परस्पर सम्बंध स्थापित करने में कठिनाई होती है।

(3) फ्रिड‌मैन ने यह माना है कि मुद्रा की मांग मे परिवर्तन आय में होने वाले परिवर्तनों के अनुपात से अधिक होते है। व्यावहारिक, अनुभव से यह तथ्य सिद्ध नहीं होता है। फ्रिडमैन द्वारा नकद कोषों की माँग को विलासिता की वस्तुओं की मांग के समान मान लेना भी सही नहीं है।

(5) फ्रिड‌मैन ने मौद्रिक स्टॉक, मौद्रिक आय तथा कीमतों के बीच धनात्मक सह-सम्बंध बताया है, परन्तु ऐसा तभी सम्भव होता है जबकि इनको प्रभावित करने वाले अन्य अनेक तत्त्वों को स्थिर मान लिया जाय। फिडमैन का विचार पूर्णतया सही नहीं है।

(6) फ्रिडमैन द्वारा दिये गये समीकरण धन का संचय करने वाले व्यक्ति से सम्बन्धित है। इन्हें सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर तभी लागू किया जा सकता है जब यह मान लिया जाय कि आय के वितरण में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, परन्तु व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं होता है।

(7) फ्रिडमैन की व्याख्या व्यापारियों की मुद्रा की मांग पर लागू नही होती है।

(8) आर्थिक स्थिरता एवं विकास के लिए फ्रिडमैन ने सुस्थिर मौद्रिक नीति का समर्थन किया है। एक प्रावैगिक अर्थव्यवस्था का प्रमुख लक्षण अनिश्चित है। इसी स्थिति में स्थिर दर पर मौद्रिक स्टॉक में वृद्धि प्राप्त करते रहना कैसे सम्भव हो सकता है? फ्रिडमैन के विचार में मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न होने पर सरकार द्वारा इसे नियंत्रित करने के उपाय नहीं करने चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में यह विचार तर्कसंगत नहीं है।

निष्कर्ष

फ्रिडमैन की व्याख्या में अनेक त्रुटियाँ है, परन्तु उसका गुण यह है कि इसमें यह बताने का प्रयास किया गया है कि केन्स तथा उसके समर्थकों द्वारा प्रस्तुत की गयी व्याख्या को पूर्णतया सही मानना उचित नहीं है। आर्थिक परिवर्तनों में मौद्रिक अस्थिरता का काफी प्रभाव होता है, इसलिए मौद्रिक सन्तुलन प्राप्त करना आवश्यक होता है।

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