भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास का इतिहास (HISTORY OF THE DEVELOPMENT OF INDIAN BANKING SYSTEM)

भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास का इतिहास (HISTORY OF THE DEVELOPMENT OF INDIAN BANKING SYSTEM)

भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास का इतिहास  (HISTORY OF THE DEVELOPMENT OF INDIAN BANKING SYSTEM)

प्रश्न :- भारत में स्वतन्त्रता के पूर्व वाणिज्यिक बैंकों के विकास को बतलाइए।

☞ भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् वाणिज्यिक बैंकों के विकास को बतलाइए।

वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के विरुद्ध क्या तर्क दिए गये थे ?

भारतीय बैंकिंग प्रणाली का इतिहास (HISTORY OF INDIAN BANKING SYSTEM)

भारतीय बैंकिंग प्रणाली का वर्तमान काफी आकर्षक एवं सुविधाजनक है, किन्तु इसका इतिहास काफी संघर्षपूर्ण रहा है। इसके विकास के इतिहास को निम्नांकित अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है-

(1) प्रथम अवस्था (First Stage) सन् 1806 तक - भारत में अंग्रेजों के हुकूमत से पूर्व तक मुस्लिम शासन था। मुस्लिम शासनकाल में बैंकिंग का कार्य प्रायः महाजनों एवं साहूकारों द्वारा सम्पन्न होता था। उन दिनों बैंकिंग का कोई विशेष विकास नहीं हुआ था। 17वीं शताब्दी में भारत पर ब्रिटिश शासन कायम हो गया। इस शासनकाल में ब्रिटिश बैंकिंग प्रणाली का चलन आरम्भ हो गया। इससे महाजनों एवं साहूकारों को काफी आघात हुआ। इसका बड़ा कारण यह था कि महाजन और साहूकार अंग्रेजी भाषा के जानकार नहीं थे। इसके अतिरिक्त दोनों बैंकिंग प्रणाली में भिन्नता थी। महाजन और साहूकार ब्रिटिश बैंकिंग प्रणाली से परिचित भी नहीं थे, जिसकी वजह से वे अपनी प्रणाली को उसके अनुरूप नहीं कर पा रहे थे। 18वीं सदी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुम्बई और कोलकाता में कुछ एजेन्सी गृहों की स्थापना की थी, जिसका वित्त पोषण ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा किया जाता था। इन एजेन्सी गृहों द्वारा बैंकिंग का काम हुआ करता था। इसके मुख्य कार्य निम्नलिखित थे-

(i) जनता से जमा स्वीकार करना,

(ii) कागजी मुद्रा का निर्गमन करना,

(iii) कृषि उपज की बिक्री के लिए ऋण देना, तथा

(iv) ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सैनिक आवश्यकताओं के लिए राशि उधार देना।

ब्रिटिश बैंकिंग प्रणाली पर आधारित भारत का प्रथम बैंक एलेक्जेण्डर एण्ड कम्पनी द्वारा विदेशी पूँजी के सहयोग से 'बैंक ऑफ हिन्दुस्तान' के नाम से सन् 1770 में कोलकाता में स्थापित किया गया था। किन्तु यह बैंक सफल नहीं हो सका। इस प्रकार सन् 1806 के मई तक भारत में भारत का कोई बैंक नहीं था।

(2) दूसरी अवस्था (Second Stage) सन् 1806 से 1860 तक सन् 1813 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वाणिज्य अधिकार समाप्त हो गये थे। इसके परिणामस्वरूप उसके द्वारा स्थापित एजेन्सी गृहों का पतन होना भी प्रारम्भ हो गया था। इसके बाद देश में निजी अंशधारियों द्वारा बैंकों की स्थापना की जाने लगी। 2 जून, 1806 में बैंक ऑफ कलकत्ता की स्थापना की गयी, जिसे 2 जनवरी, 1809 में नाम बदलकर बैंक ऑफ बंगाल कर दिया गया। फिर 15 अप्रैल, 1840 में बैंक ऑफ बॉम्बे तथा 1 जुलाई, 1843 में बैंक ऑफ मद्रास स्थापित हुए। यद्यपि ये तीनों बैंक निजी अंशधारियों के बैंक थे, तथापि इन तीनों बैंकों की अंश पूँजी में सरकार का भी कुछ हिस्सा था। अतः इन तीनों को सरकारी बैंकर के सभी अधिकार प्राप्त थे। किन्तु 1862 के बाद भारत सरकार ने इन बैंकों से नोट जारी करने का अधिकार वापस ले लिया। सरकारी कामकाज के बढ़ते स्वरूप के कारण आगे चलकर सन् 1921 में इन तीनों बैंकों को मिलाकर इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की गयी।

(3) तीसरी अवस्था (Third Stage) सन् 1860 से 1913 तक सन् 1860 में भारत में संयुक्त पूँजी अधिनियम पारित किया गया। सरकार द्वारा पारित इस अधिनियम के अनुसार सीमित दायित्व के सिद्धान्त पर बैंकों का गठन किया जा सकता था। इस कानून ने भारतीय बैंकों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसके फलस्वरूप भारत में संयुक्त पूँजी वाले अनेक बैंक स्थापित होने लगे। जैसे- सन् 1865 में इलाहाबाद बैंक, सन् 1881 में एलाइन्स बैंक ऑफ शिमला और अवध कॉमर्शियल बैंक, 1894 में पंजाब नेशनल बैंक, 1901 में पीपुल्स बैंक ऑफ इण्डिया। इनमें पंजाब नेशनल बैंक पहला वह बैंक है जो पूर्ण रूप से भारतीय द्वारा संचालित था। इन बैंकों ने स्थापना के बाद भी बहुत प्रगति नहीं दिखायी। सन् 1900 तक भारत में बैंकिंग की गति काफी मन्द थी। किन्तु उसके बाद इसमें तेजी आने लगी। सन् 1906 के बाद देश में बैंकों का काफी विस्तार होने लगा। उस समय तक देश में स्वदेशी आन्दोलन जन्म ले चुका था। भारतीयों के द्वारा विदेशी बैंकों का बहिष्कार होने लगा और भारत के व्यापारियों द्वारा भारतीय बैंकों के साथ कारोबार होने लगा। इससे भारतीय बैंकों में नयी जान आ गई। इस अवधि में देश में अनेक छोटे-बड़े बैंक स्थापित होने लगे, जिनमें 1906 में बैंक ऑफ इण्डिया, 1908 में बैंक ऑफ बड़ौदा, 1911 में सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया, 1913 में बैंक ऑफ मैसूर, बड़े बैंक के रूप में स्थापित हुए।

(4) चौथी अवस्था (Fourth Stage) सन् 1913 से 1939 तक भारतीय बैंकिंग की इस अवस्था को बैंकिंग इतिहास का संकटकाल माना जाता है। बैंकिंग क्षेत्र में सुधार आरम्भ ही हुआ था कि प्रथम विश्वयुद्ध 1914-18 के काल में भारत के बैंकों का विकास अवरुद्ध हो गया। स्वदेशी आन्दोलन के कारण देश में अनेक बैंक स्थापित तो अवश्य हो गये थे लेकिन उनमें कई कमजोर बैंक भी थे, जो बैंकिंग सिद्धान्तों का सही तरीके से पालन नहीं कर पाते थे, फलतः ग्राहकों का अविश्वास बढ़ने लगा। धीरे-धीरे कई बैंक फेल होते गये।

इसके अलावा, देश में केन्द्रीय बैंक के अभाव के कारण बैंकों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण का अभाव था। कई बैंक अपनी चुकता पूँजी को वास्तविक से अधिक दिखाकर ग्राहकों को गुमराह करते थे। उस समय देश में मुद्रा बाजार का भी विकास नहीं हुआ था, जिसके कारण बैंकों में आपसी तालमेल भी नहीं था। आर्थिक संकट के समय इन बैंकों को कहीं से सहायता नहीं मिल सकती थी।

किन्तु ऐसा समय बहुत दिनों तक नहीं रहा। कुछ अच्छे बैंकों ने अपने कार्यों से पुनः जनविश्वास प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे देश में बैंकिंग वातावरण तेज हो गया। सन् 1917 में उद्योगों को वित्तीय सहायता देने के उद्देश्य से टाटा औद्योगिक बैंक की स्थापना की गयी। फिर सन् 1921 में तीनों प्रेसीडेन्सी बैंकों (बैंक ऑफ बंगाल, बैंक ऑफ बॉम्बे, बैंक ऑफ मद्रास) को मिलाकर इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की गयी, जिसे 1955 में राष्ट्रीयकरण करके इसका नाम स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया कर दिया गया।

इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना के बाद देश में बैंकिंग कार्य में कुछ सुधार तो अवश्य हुआ था, किन्तु उसमें और अधिक सुधार की आवश्यकता थी। सन् 1925 में भारत सरकार ने अपने सुझावों और प्रस्तावों के बाद देश में पृथक् केन्द्रीय बैंक की स्थापना पर अपना विचार देने के लिए हिल्टन यंग कमीशन को नियुक्त किया। कमीशन ने देश में केन्द्रीय बैंक के रूप में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना का सुझाव दिया था। भारत सरकार ने इस सुझाव का स्वागत करते हुए इसे जनवरी, 1927 में तत्कालीन विधानसभा में 'गोल्ड स्टैण्डर्ड एण्ड रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया' विधेयक पेश किया। किन्तु कुछ मतभेदों के कारण यह बिल पास नहीं हो सका। फिर सन् 1929 में केन्द्रीय जाँच समिति ने पुनः रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की जोरदार सिफारिश की, जिसके आधार पर 8 सितम्बर, 1933 को भारतीय विधानसभा में एक और विधेयक रखा गया, जो 22 दिसम्बर, 1933 को पारित हो गया। फिर इसे 16 फरवरी, 1934 को 'काउंसिल ऑफ स्टेट्स' द्वारा पारित कर दिया गया। 16 मार्च, 1934 को गवर्नर जनरल की मंजूरी मिल जाने के बाद रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट 1934 पारित हो गया और 1 अप्रैल, 1935 से इसने विधिवत् अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया।

(5) पाँचवीं अवस्था (Fifth Stage) सन् 1939 से 1946 तक बैंकिंग विकास के क्षेत्र में यह अवधि भारतीय बैंकों के लिए स्वर्णिम अवधि थी। इस समय तक देश में बैंकिंग का अच्छा माहौल तैयार हो चुका था। देश में बैंकों का विस्तार होने लगा था। मुद्रा स्फीति के प्रभाव के कारण लोगों के पास धन की अधिकता हो गयी थी, जिसके परिणामस्वरूप बैंकों के निक्षेप (Deposits) बढ़ने लगे थे। देश में औद्योगिक माहौल बनने के कारण ऋण की माँग भी बढ़ने लगी थी। इस प्रकार निक्षेप और ऋण दोनों बढ़ने से बैंकिंग व्यवस्था में सन्तुलन कायम था। कई बैंकों ने अपनी शाखाओं का विस्तार किया तो कई नये बैंक भी इस अवधि में स्थापित हुए।

वैसे यह अवधि द्वितीय विश्वयुद्ध की अवधि का था। प्रारम्भिक काल में तो द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रभाव बैंकों पर अवश्य पड़ा। लोग अपने जमा धन को बैंकों से निकालने लगे, लेकिन धीरे-धीरे स्थिति में सुधार हो गया। किन्तु एक कमी यह थी कि बैंकों का असन्तुलित विकास हुआ। बैंकों की स्थापना विशेष रूप से नगरों में की गयी। इसके अलावा जिस क्षेत्र में पहले से बैंक थे वहीं अन्य बैंक भी स्थापित होने लगे। परिणामस्वरूप बैंकों के बीच अनावश्यक प्रतियोगिता होने लगी। इस अवधि में बैंकों के निवेश नीति में भी कुछ आधारभूत परिवर्तन हुए थे। युद्ध के पूर्व तक भारत के अनुसूचित बैंक अपने निवेश योग्य धन का 54 प्रतिशत धन सरकारी प्रतिभूतियों में लगाया करते थे, परन्तु युद्धकाल में इसे बढ़ाकर 61 प्रतिशत कर दिया गया था। इसी प्रकार युद्ध से पूर्व वे अपने निक्षेपों का 11 प्रतिशत नकद-कोष में रखा करते थे, परन्तयुद्धकाल में इसे बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया गया था।

(6) छठी अवस्था (Sixth Stage) 1947 से अब तक देश की आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान के रूप में देश के विभाजन का बुरा प्रभाव भारतीय बैंकों को भी झेलना पड़ा। खासकर पंजाब और बंगाल के विभाजन के फलस्वरूप वहाँ के बैंकों को भी शरणार्थी की भाँति भारत में शरण लेनी पड़ी थी। इसके परिणामस्वरूप अनेक बैंक फेल हो चुके थे। चूँकि उस समय तक देश में केन्द्रीय बैंक के रूप में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना हो चुकी थी, इसलिए बैंकों की रक्षा करना रिजर्व बैंक की जिम्मेदारी हो गयी थी। अपनी जिम्मेदारी के तहत रिजर्व बैंक ने एक नयी योजना चालू की। इस योजना के अनुसार अनुसूचित बैंकों को स्वीकृत प्रतिभूतियों के आधार पर रिजर्व बैंक से ऋण लेने की सुविधा प्रदान की गयी। साथ ही शरणार्थी बैंकों के पुनर्वास की भी व्यवस्था की गयी।

भारत सरकार ने रिजर्व बैंक को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए 1 जनवरी, 1949 को उसका राष्ट्रीयकरण कर दिया तथा इसी वर्ष बैंकिंग कम्पनी अधिनियम पारित किया गया। सन् 1955 में इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण करके उसका नाम स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया कर दिया गया जिसने 1 जुलाई, 1955 से विधिवत् अपना काम शुरू कर दिया। इस समय तक बैंकों की स्थिति काफी अच्छी होने लगी थी, किन्तु तब तक अनेक बैंक फेल भी हो चुके थे। केवल 1947 से 1951 के पाँच वर्षों की अवधि में 242 बैंक फेल हो चुके थे।

सन् 1949 में पारित 'बैंकिंग कम्पनी अधिनियम, 1949' का सन् 1962 में संशोधन करके उसका नाम 'बैंकिंग नियमन अधिनियम' (Banking Regulation Act) कर दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार बैंकों को कई नियमों एवं उपनियमों के साथ जोड़ दिया गया।

इसके पूर्व, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया (सहायक) बैंक अधिनियम, 1959 के तहत् आठ बैंकों के नाम के आगे 'स्टेट' शब्द लगाकर स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया का सहायक बैंक बनाया गया। फिर 1 जनवरी, 1963 को इनमें से दो बैंक स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एवं स्टेट बैंक ऑफ जयपुर को मिलाकर स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एवं जयपुर कर दिया गया। इस विलय के बाद स्टेट बैंक के सहायक बैंकों की संख्या 7 रह गयी। किन्तु स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र का भी स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया में विलय हो गया। पुनः स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर का स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया में विलय कर देने से स्टेट बैंक के सहायक बैंकों की संख्या 5 रह गयी थी। किन्तु 1 अप्रैल, 2017 को स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के पाँच सहयोगी बैंक और भारतीय महिला बैंक का स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया में विलय हो गया। जिन पाँच सहयोगी बैंकों का विलय हुआ वे थे-स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एवं जयपुर, स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद तथा स्टेट बैंक ऑफ पटियाला।

वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण (NATIONALISATION OF COMMERCIAL BANKS)

19 जुलाई, 1969 को देश के 14 ऐसे बड़े वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक अध्यादेश के अन्तर्गत कर लिया गया जिनकी जमा राशि 50 करोड़ से अधिक थी। ये बैंक थे

(1) सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया,

(2) बैंक ऑफ इण्डिया,

(3) पंजाब नेशनल बैंक,

(4) केनरा बैंक,

(5) यूनाइटेड कॉमर्शियल बैंक,

(6) सिंडीकेट बैंक,

(7) बैंक ऑफ बड़ौदा,

(8) यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया,

(9) यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया,

(10) देना बैंक,

(11) इलाहाबाद बैंक,

(12) इण्डियन बैंक,

(13) इण्डियन ओवरसीज बैंक और

(14) बैंक ऑफ महाराष्ट्र।

15 अप्रैल, 1980 को पुनः 6 उन निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिनकी जमा राशि 200 करोड़ से अधिक थी। ये बैंक थे-

(1) आन्ध्रा बैंक,

(2) पंजाब एण्ड सिंध बैंक,

(3) न्यू बैंक ऑफ इण्डिया,

(4) विजया बैंक,

(5) कॉर्पोरेशन बैंक,

(6) ओरिएण्टल बैंक ऑफ कॉमर्स ।

इस प्रकार वर्ष 1980 में स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया और इसके सहायक बैंकों को छोड़कर देश में राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या 20 हो गयी। किन्तु 4 सितम्बर, 1993 को सरकार ने न्यू बैंक ऑफ इण्डिया का पंजाब नेशनल बैंक में विलय कर दिया। इससे राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या 20 से घटकर 19 रह गयी। पुनः आई.डी.बी.आई. बैंक को सार्वजनिक बैंकों की सूची में शामिल कर देने से इसकी संख्या 20 हो गयी।

राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य (OBJECTIVES OF NATIONALISATION)

देश में वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया है, वे निम्नलिखित हैं-

(1) जनता से विश्वास के साथ बचतों को इकट्ठा करना तथा उनका उपयोग देश के विकास में प्राथमिकताओं के साथ करना।

(2) देश के सभी भागों में बैंक की शाखाओं का विस्तार कर अधिक-से-अधिक लोगों को बैंकिंग सेवाओं से जोड़ना।

(3) सट्टे तथा गैर-उत्पादक उद्देश्यों के लिए बैंक ऋण के उपयोग पर नियन्त्रण लगाना।

(4) बैंक कर्मचारियों को पर्याप्त प्रशिक्षण और उचित शर्तों पर सेवा प्रदान करना।

(5) उद्योग एवं व्यापार क्षेत्र को वैधानिक ऋण आवश्यकताओं को पूरा करना।

(6) बैंकिंग क्षेत्र से चन्द व्यक्तियों के स्वामित्व को समाप्त करना।

(7) अर्थव्यवस्था के विकास की गति को तेज करना।

(8) कृषि, लघु उद्योग तथा निर्यात व्यापार के लिए साख की व्यवस्था करना।

(9) बैंकिंग क्षेत्र में पारदर्शिता लाना।

(10) समाज और बैंक की दूरी को समाप्त करना।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के विरुद्ध तर्क

भारत सरकार द्वारा देश के 14 बड़े बैंकों का प्रथम चरण में किया गया राष्ट्रीयकरण एक अच्छा कदम माना जाता है। इससे आम जनता में बैंकों के प्रति विश्वास बढ़ा है। परन्तु देश की एक बड़ी आबादी के द्वारा राष्ट्रीयकरण का विरोध किया गया। राष्ट्रीयकरण के विरोध में जो तर्क दिए गये, उनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-

(1) जल्दबाजी निर्णय (Hastle Decision) - आलोचकों का तर्क है कि सन् 1969 में 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय अचानक कर दिया गया। इससे सम्बन्धित जो विधेयक लोकसभा में पेश किया गया उसे काफी गम्भीरता से तैयार नहीं किया गया था, तभी तो उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद फिर से एक नया विधेयक पास करना पड़ा।

(2) राजनीतिक निर्णय (Political Decision) - ऐसा कहा जाता है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण जिस समय किया गया, उस समय देश में काँग्रेस की सरकार थी, और काँग्रेस पार्टी में दो गुट हो चुके थे। अतः ऐसा समझा जाता है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण आर्थिक निर्णय न होकर राजनीतिक निर्णय था।

(3) राजनेताओं का प्रभुत्व (Influence of Politicians) - यह अनुमान लगाया जाता था कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकिंग व्यवस्था में राजनेताओं का प्रभुत्व बढ़ेगा, जिसका परिणाम यह होगा कि बैंक की नीतियाँ सत्ताधारी पार्टी की इच्छानुसार बदलती रहेंगी। इसका कुप्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।

(4) मुद्रा स्फीति को बढ़ावा (Encouraged Inflation) - यह आरोप लगाया गया कि इससे मुद्रा स्फीति बढ़ेगी। बैंक के राष्ट्रीयकरण के बाद उनके संचालन व्यय में वृद्धि होगी, जिसकी पूर्ति के लिए वे ब्याज से अधिक आय प्राप्त करने के लिए महँगे ऋण उपलब्ध करायेंगे। इसके परिणामस्वरूप मुद्रा स्फीति को बढ़ावा मिलेगा।

(5) कार्यकुशलता में कमी (Decrease in Efficiency) - ऐसा अनुमान किया गया कि राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों में व्यापारिक भावना समाप्त हो जायेगी और अफसरशाही बढ़ेगी। इसके कारण ग्राहक सेवा में कमी आयेगी।

निष्कर्ष

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के विरोध में चाहे जितने भी तर्क दिए गये हों, किन्तु यह एक स्थापित सत्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो चुका है।

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