प्रश्न - मुद्रास्फीति की परिभाषा दीजिए ? मुद्रास्फीति के क्या कारण है? इसका अर्थव्यवस्था के विभिन्न वर्गों पर प्रभावों
का वर्णन करें। इसे कैसे नियंत्रित किया
जाता है।
☞ "मुद्रास्फीति अन्यायपूर्ण है" इस कथन की व्याख्या करें तथा
इसके नियंत्रण के विभिन्न तरीकों को बताएँ?
उत्तर -
मुद्रा-स्फीति से आशय (MEANING OF INFLATION)
विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा स्फीति की अलग-अलग परिभाषाएँ
दी हैं जिन पर हम यहाँ विचार करेंगे। किन्तु इतना स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि
मुद्रा-प्रसार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कीमतों में वृद्धि होती है और मुद्रा का
मूल्य घटता है। अन्य शब्दों में यह एक ऐसी स्थिति है जब अधिक मुद्रा की मात्रा कम वस्तुओं
का पीछा करती है।
1. क्राउथर (Crowther)- "मुद्रा स्फीति यह अवस्था है जिसमें मुद्रा का मूल्य
गिरता है और वस्तुओं के मूल्य बढ़ते है।"
आलोचना- इस परिभाषा के अनुसार सामान्य कीमत स्तर में होने वाली प्रत्येक वृद्धि मुद्रा
स्फीति है किन्तु (i) यह मान लेना कठिन है कि जब भी वस्तु-मूल्यों में वृद्धि हो, तब
ही मुद्रा स्फीति की स्थिति होती है क्योंकि वस्तु-मूल्यों में वृद्धि के अनेक प्राकृतिक
एवं आर्थिक कारण हो सकते हैं। राजनीतिक अशान्ति के कारण भी तत्काल मूल्य बढ़ने लगते
हैं और कभी-कभी सट्टे वालों की क्रिया से मूल्यों में आकस्मिक वृद्धि हो जाती है। यह
वृद्धि मुद्रा स्फीति के कारण नहीं होती और फिर कीमत में होने वाली प्रत्येक वृद्धि
अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक नहीं होती जैसे कि मन्दीकाल में कीमतों में क्रमशः होने
वाली वृद्धि अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी होती है।
2. पीगू (Pigou) - मुद्रा-स्फीति वह स्थिति है "जबकि आय उपार्जन की
क्रिया के अनुपात में मौलिक आय अधिक तेजी से बढ़ती है।"
आलोचना - इसका अर्थ यह है कि यदि समाज के पास कार्यशील मुद्रा तेजी से बढ़ रही हो और
उत्पादन के बढ़ने की गति उतनी तेज नहीं हो, तो मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो
जायेगी। प्रो. पीगू ने अपनी मुद्रा-स्फीति की परिभाषा को उत्पत्ति के साधनों के साथ
जोड़ दिया है तथा यह स्पष्ट किया है कि मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होने पर यदि उतने
ही अनुपात में उत्पादन क्रियाएँ बढ़ती हैं तो सन्तुलन की स्थिति बनी रहती है। किन्तु
यदि इस स्थिति के बाद भी मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है तो उत्पत्ति के साधनों
के पूर्ण रोजगार के बिन्दु के बाद यह मुद्रा की वृद्धि, मुद्रा-स्फीति को जन्म देती
है।
उत्पादक क्रियाओं को दृष्टि में रखते हुए, पीगू की परिभाषा
के अनुसार, मुद्रा स्फीति की निम्न पाँच अवस्थाएँ हो सकती हैं-
(i) जब मौद्रिक आय उत्पादन की तुलना में अधिक तेजी से बढ़
रही हो,
(ii) मौद्रिक आय में वृद्धि हो किन्तु उत्पादन स्थिर रहे,
(iii) मौद्रिक आय स्थिर रहे किन्तु उत्पादन घट जाए एवं
(iv) मौद्रिक आय एवं उत्पादन दोनों में कमी हो किन्तु उत्पादन
ज्यादा तेजी से घटे।
3. ग्रेगरी (Gregory) - "क्रय-शक्ति की मात्रा में असाधारण वृद्धि ही मुद्रा
स्फीति है।" इसी प्रकार हाट्रे की मान्यता है कि 'अत्यधिक मुद्रा निर्गमन' ही
मुद्रा-स्फीति है।
आलोचना - मुद्रा की मात्रा में असाधारण वृद्धि (Extra ordinary increase) से क्या तात्पर्य
है, 'अत्यधिक मुद्रा' का क्या अर्थ है, यह दोनों ही धारणाएँ मुद्रा की मात्रा में सापेक्षिक
या तुलनात्मक वृद्धि की कल्पना करती हैं।
4.
पॉल इंजिग (Paul Einzig) ने सभी पुरानी परिभाषाओं को अधूरा
तथा अनुपयुक्त बतलाते हुए लिखा है कि- "मुद्रा-स्फीति क्रय-शक्ति की विस्तारशील
प्रवृत्ति है जो मूल्य-स्तर में वृद्धि करने या स्वयं उसके प्रभाव से बढ़ने की प्रवृत्ति
रखती है।"।
आलोचना-
इस परिभाषा के अनुसार मुद्रा या साख की मात्रा मूल्य-स्तर को प्रभावित करती है और उससे
प्रभावित भी होती है। यह एक विलक्षण सत्य है कि मुद्रा में वृद्धि के कारण वस्तु मूल्यों
में वृद्धि होती है और वस्तु मूल्यों में वृद्धि के कारण मुद्रा की मात्रा में वृद्धि
होती है।
5.
वेब्स्टर शब्दकोश (Webster's Dictionary) में मुद्रा स्फीति
की जो परिभाषा दी गई है वह सरलतम प्रतीत होती है। इसके अनुसार-मुद्रा स्फीति वह अवस्था
है जब "वस्तुओं की उपलब्ध मात्रा की तुलना में मुद्रा तथा साख की मात्रा में अधिक
वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप मूल्य स्तर में निरन्तर तथा महत्वपूर्ण वृद्धि होती
है।"
बेब्स्टर
की परिभाषा को और सरल शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुद्रा स्फीति वह स्थिति
है जिसमें वस्तुओं की मात्रा की तुलना में मुद्रा तथा साख का प्रसार आवश्यकता से अधिक
हो जाता है और वस्तु-मूल्यों में निरन्तर वृद्धि होती रहती है।
मुद्रा-स्फीति की जाँच
प्रो.
केन्स ने यह स्पष्ट किया है कि मुद्रा की मात्रा में वृद्धि से उत्पत्ति के साधनों
का प्रयोग किया जाता है और जब तक ऐसे समस्त साधनों का पूर्ण प्रयोग नहीं हो जाता, मुद्रा
स्फीति की स्थिति नहीं आती। यदि साधनों के पूर्ण रोजगार के बाद भी, मुद्रा की मात्रा
में वृद्धि की जाती है तो इससे मुद्रा स्फीति की स्थिति पैदा हो जाती है क्योंकि कीमतें
बढ़ने लगती हैं। इसलिए प्रो. केन्स ने कहा है कि "वास्तविक मुद्रा स्फीति पूर्ण
रोजगार के बिन्दु के बाद ही पैदा होती है।"
केन्स का स्फीतिक-अन्तर सम्बन्धी सिद्धान्त (Keynes' Concept of Inflationary Gap)
प्रोफेसर
केन्स की यह मान्यता रही है कि यदि मुद्रा की मात्रा में वृद्धि की जाय तो समाज की
आय में वृद्धि होती है। इससे समाज में वस्तुओं की माँग बढ़ती है। फलतः नये-नये कारखाने
स्थापित किये जाते हैं जिनमें लोगों को रोजगार मिलता है। इस प्रकार उनकी यह मान्यता
है कि जब तक समाज में पूर्ण रोजगार की स्थिति न आ जाए अर्थात् प्रत्येक इच्छुक एवं
समर्थ व्यक्ति को काम न मिल जाए तब तक मुद्रा की मात्रा में वृद्धि के दो प्रभाव होंगे-पहला
प्रभाव यह होगा कि प्रभावी माँग बढ़ने से उत्पादन में वृद्धि हो जाएगी। दूसरा प्रभाव
यह होगा कि मुद्रा में वृद्धि के कारण मूल्य बढ़ेंगे। केन्स इस स्थिति को अर्द्ध-स्फीति
(Semi-Inflation) कहते हैं। इस स्थिति में मुद्रा की मात्रा में वृद्धि के साथ मजदूरी
में आनुपातिक वृद्धि नहीं हो पाती क्योंकि जो व्यक्ति बेरोजगार हैं वह कम मजदूरी पर
भी काम करने को तैयार हो जाते हैं
सरकार
जब नई मुद्रा चलन में डाल देती है तो उसका एक भाग तो प्रायः सरकार ही कर के रूप में
वापस कर लेती है। मुद्रा का कुछ भाग लोगों की जेबों या तिजोरियों में जाकर निष्क्रिय
हो जाता है। अतः शेष भाग वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि करने में सहायक होता है। उदाहरणः,
किसी देश में कुल राष्ट्रीय उत्पाद की मात्रा ₹ 2,000 करोड़ है। इसमें से ₹500 करोड़
सरकार करों के रूप वसूल में कर लेती है। अब जनता के उपयोग के लिए ₹ 1,500 करोड़ का
माल बच जाता है। यदि जनता की आय भी ₹ 1,500 करोड़ हो, तो मूल्य स्तर में कोई वृद्धि
होने की सम्भावना नहीं होगी, किन्तु यदि सरकार ₹ 500 करोड़ की नई मुद्रा चलन में डाल
दे और उसमें से ₹ 100 करोड़ तो नये करों के रूप में वापस ले ले और ₹ 50 करोड़ जनता
द्वारा नकद रूप में व्यक्तिगत उपभोग के लिए संग्रह कर लिए जाएं तो कुल ₹350 करोड़ की
रकम (500-100-50) अतिरिक्त रहेगी जिसके लिए नये माल का उत्पादन नहीं हुआ है। केन्स
ने इस रकम को ही स्फीतिक-अन्तर (Inflationary gap) कहा है क्योंकि इस रकम के कारण ही
वस्तु मूल्यों में वृद्धि होती है। प्रस्तुत उदाहरण में जनता के पास उपयोग के लिए कुल रकम 1,500 + 350 अर्थात्
₹ 1,850 करोड़ है जबकि उपलब्ध माल की मात्रा केवल ₹ 1,500 करोड़ के तुल्य है। इस अन्तर
के कारण ही वस्तुओं के मूल्य बढ़ेंगे और पहले जो माल ₹ 1,500 में बिकता वह₹ 1,850 में
बिकेगा। इसलिए इसे स्फीतिक अन्तर कहा गया है। इस अन्तर को कम करने से स्फीति का वस्तु
मूल्यों पर प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह अन्तर कम करने के लिए दो कार्य किये जा सकते हैं-
(1) करों की मात्रा में वृद्धि की जा सकती है, तथा (2) उत्पादन में वृद्धि की जा सकती
है।
मुद्रा-स्फीति के प्रकार (TYPES OF INFLATION)
मुद्रा स्फीति के अनेक प्रकार हैं जिनमें से मुख्य का विवेचन
नीचे किया जा रहा है-
1. चलन स्फीति (Currency Inflation)- जब देश में मुद्रा की मात्रा बढ़
जाने से स्फीति उत्पन्न होती है, तो इसे चलन स्फीति कहते हैं। चलन स्फीति प्रायः केन्द्रीय
बैंक द्वारा अधिक कागजी मुद्रा चलन में डालने से उत्पन्न होती है। इस प्रकार की स्फीति
का प्रभाव वस्तुओं के मूल्यों पर तत्काल पड़ता है।
2. साख स्फीति (Credit Inflation)- जब देश के व्यापारिक बैंक तीव्र गति
से रकम उधार देने लगते हैं। तो वस्तुओं की माँग में बहुत अधिक वृद्धि होती है। इसके
प्रभाव से भी मूल्यों में वृद्धि होने लगती है। साख स्फीति प्रायः ब्याज की दर कम करने
या ऋण नीति में उदारता बरतने के कारण होती है।
3. लागत प्रोत्साहित स्फीति (Cost-induced or Cost-Inflation)- कभी-कभी वस्तुओं की उत्पादन
लागत बढ़ जाती है जिससे उन वस्तुओं को खरीदने के लिए सरकार को अधिक धन खर्च करना पड़ता
है। अनेक बार देखा गया है कि सरकार को बहुत-सी योजनाओं पर पूर्व-निर्धारित से अधिक
रकम खर्च करनी पड़ती है जिसका परिणाम मुद्रा-स्फीति होता है।
4. माँग प्रोत्साहित स्फीति (Demand-pull Inflation)- जिन
देशों में जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती है वहाँ वस्तुओं तथा सेवाओं की माँग अत्यधिक
तीव्रता से बढ़ती है। इससे मूल्यों में वृद्धि होती है और स्फीति का प्रभाव स्पष्ट
दिखलाई पड़ता है क्योंकि मुद्रा की सक्रियता या गति बहुत तीव्र हो जाती है। इस सक्रियता
के फलस्वरूप देश में अधिक मुद्रा चलन में डालनी पड़ती है और मूल्य बढ़ते चले जाते हैं।
5. उत्पादन-जनित स्फीति (Production-based Inflation)- कभी-कभी मानसून असफल होने,
सूखा पड़ने, अन्य किसी कारण से फसल नष्ट होने, अथवा हड़ताल, आदि के कारण उत्पादन में
कमी आ जाती है। इसके प्रभाव से भी मूल्यों में वृद्धि होती है और स्फीति की स्थिति
दिखलाई देने लगती है।
6. हीनार्थ-प्रोत्साहित स्फीति (Deficit induced Inflation) - आधुनिक प्रजातन्त्रवादी सरकारें
प्रायः आर्थिक विकास के लिए बड़ी-बड़ी रकमें खर्च करती हैं। इतनी बड़ी रकमों को करों
द्वारा या कभी-कभी ऋणों द्वारा पूरा करना भी सम्भव नहीं होता, अतः घाटे के बजट बनाए
जाते हैं। जिनमें आय कम और खर्च अधिक दिखलाया जाता है। इस घाटे की पूर्ति नये नोट छापकर
की जाती है। पॉल इंजिग ने इस प्रकार की स्फीति को बजटीय स्फीति (Budgetary
inflation) कहा है। यह घाटे की पूर्ति के कारण उत्पन्न होती है, अतः इसे हीनार्थ-प्रोत्साहित
स्फीति भी कहा जाता है।
7. पूर्ण स्फीति तथा आंशिक स्फीति (Full Inflation and Partial Inflation)- प्रो. पीगू ने
स्फीति के दो भेद किए हैं- पूर्ण स्फीति तथा आंशिक स्फीति। उनके अनुसार पूर्ण रोजगार
की अवस्था के पूर्व यदि अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा बढ़ाई जाती है तो इसके कारण
कीमत स्तर में जो वृद्धि होती है उसे आंशिक स्फीति या मुद्रा प्रसार कहते हैं। किन्तु
पूर्ण रोजगार के बाद भी यदि मुद्रा की मात्रा बढ़ाई जाती है तो मुद्रा-प्रसार बढ़ने
लगता है क्योंकि यह मुद्रा की अतिरिक्त मात्रा कीमतों को बढ़ाने में प्रयुक्त होती
है। इसे पूर्ण स्फीति कहते हैं।
8. अधि-विनियोग स्फीति (Over-investment Inflation)- जब किसी देश में साहसियों
द्वारा तीव्र गति से पूँजी विनियोग आरम्भ हो जाता है तो अकस्मात स्फीति की स्थिति पैदा
होती है क्योंकि जब पूँजी के बदले मशीनें, मकान या कच्चा माल खरीदा जाता है तो नकद
रकम चलन में बढ़ती है। यदि पूँजी विनियोग ऐसी योजनाओं में किया जाय जिनमें उत्पादन
शीघ्र होता है, तो स्फीति का वातावरण बहुत थोड़े समय रहता है क्योंकि अतिरिक्त मुद्रा
को अतिरिक्त उत्पादन समायोजित कर लेता है। किन्तु देर में फल देने वाली योजनाओं में
धन विनियोग करने से स्फीति को अधिक प्रोत्साहन मिलता है।
9.
अवमूल्यन-जनित स्फीति (Inflation through
Devaluation)- जिन देशों में मुद्रा का अवमूल्यन किया जाता है उनमें प्रायः माल के
निर्यात की मात्रा बढ़ जाती है, अतः उस देश में जनता के लिए प्रायः कम माल उपलब्ध होता
है। इसके फलस्वरूप वस्तु-मूल्यों में वृद्धि आरम्भ हो जाती है।
10.
लाभ स्फीति (Profit Inflation) - युद्धकाल में प्रायः ऐसा
होता है कि उत्पादित या निर्मित माल के मूल्य बढ़ जाते हैं जबकि कच्चे माल के मूल्यों
में उतनी वृद्धि नहीं होती। अतः पूँजीपतियों को अप्रत्याशित लाभ होते हैं। इन लाभों
का तत्काल नये क्षेत्रों में विनियोग भी नहीं हो सकता क्योंकि मशीनें आदि मिलना कठिन
रहता है। अतः पूँजीपतियों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग अधिक किया जाता है जिसके
फलस्वरूप मूल्यों में वृद्धि होने लगती है। यही स्फीति का कारण बन जाता है।
11.
खुली तथा दबी हुई मुद्रा स्फीति (Open and
Suppressed Inflation)- यदि समाज की बढ़ती हुई आय के उपयोग पर कोई नियन्त्रण नहीं लगाए
जाएँ तो यह खुली मुद्रा स्फीति कहलाती है। किन्तु, यदि उपभोग की मात्रा पर नियन्त्रण
लगा दिया जाय तो यह दबी हुई मुद्रा स्फीति कहलाती है। सरकार प्रायः महँगाई के समय में
मूल्य नियन्त्रण तथा राशन व्यवस्था द्वारा खुली स्फीति को नियन्त्रित करने का प्रयत्न
करती है।
निष्कर्ष-मुद्रा-स्फीति
के विभिन्न रूपों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मुद्रा स्फीति के अधिकांश
रूप सरकारी नीतियों से उत्पन्न होते हैं। कुछ रूप प्राकृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक तत्वों
के कारण प्रकट होते हैं। इन सभी तत्वों को नियन्त्रित रखने से स्फीति के कष्टदायक प्रभाव
को कम किया जा सकता है।
मुद्रा-स्फीति की तीव्रता (GALLOPING OF INFLATION)
तीव्रता
की दृष्टि से मुद्रा स्फीति की तीन स्थितियाँ या चरण हो सकते हैं-
1.
रेंगती हुई या साधारण स्फीति (Creeping Inflation)- अर्थशास्त्रियों
द्वारा यह मान लिया गया है कि यदि मुद्रा की मात्रा में 2 प्रतिशत या उससे कम वार्षिक
की वृद्धि हो, तो इसे रेंगता हुआ मुद्रा प्रसार कहेंगे। इस गति से होने वाली मुद्रा
स्फीति को साधारण अथवा स्वाभाविक माना जाता है जिससे किसी प्रकार की हानि होने की सम्भावना
नहीं है। किन्तु यह स्पष्ट है कि यही अवस्था चलती रही तो 25 वर्षों में कीमतें 50 प्रतिशत
बढ़ जाती हैं।
2.
चलता हुआ प्रसार (Moving or Walking Inflation) - यदि साधारण
मुद्रा-प्रसार पर नियन्त्रण नहीं रखा जाता तो यह चलते हुए मुद्रा-प्रसार में परिवर्तित
हो जाता है जिसमें तेजगति से कीमतें बढ़ने लगती हैं। इसमें कीमतों की वृद्धि लगभग
5 प्रतिशत होती है। इस प्रकार की मुद्रा स्फीति में आर्थिक स्थिति धीरे-धीरे सामान्य
जनता के लिए कष्टदायक होने लगती है और जनता ऐसा महसूस करने लगती है मानो उसकी जेब कोई
अदृश्य जेबकतरा काट रहा है।
3.
भागती हुई स्फीति (Runway Inflation) - यदि चलते हुए मुद्रा-प्रसार
पर भी नियन्त्रण नहीं लगाया जाता तो यह भागते हुए मुद्रा-प्रसार में परिवर्तित हो जाता
है जिसमें और अधिक तेजी से कीमतें बढ़ने लगती हैं अर्थात् इस अवस्था में कीमतों की
वृद्धि लगभग 10 प्रतिशत होती है।
4.
तीव्रगामी या सरपट दौड़ती हुई स्फीति
(Galloping or Hyper Inflation) - जब मुद्रा-स्फीति की वार्षिक दर 15 प्रतिशत अथवा
उससे अधिक हो जाए तो उसे सरपट या तीव्रगामी मुद्रा स्फीति कहते हैं। इस प्रकार की मुद्रा-स्फीति
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को कुछ समय के भीतर ही डांवाडोल कर देती है क्योंकि प्रतिदिन,
प्रति सप्ताह मुद्रा स्फीति होती है। वस्तुओं के मूल्यों में प्रतिदिन ही नहीं, कभी-कभी
प्रति घण्टे वृद्धि होती है। इसका परिणाम यह होता है कि देश की मुद्रा एवं मूल्य व्यवस्था
छिन्न-भिन्न होने लगती है, जनता का मुद्रा पर से विश्वास हटने लगता है और सर्वत्र अशान्ति
एवं असन्तोष (discountent) का वातावरण छा जाता है।
रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
उपरोक्त
विवेचन के आधार पर चारों प्रकार की स्फीति को रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता
है। रेखाचित्र में OX अक्ष
पर वर्ष तथा OY अक्ष पर कीमत वृद्धि का प्रतिशत दिखाया गया है। OA रेंगती हुई स्फीति
है जहाँ 10 वर्ष में कीमत 20 प्रतिशत बढ़ी है। OB चलती हुई स्फीति है जहाँ 8 वर्षों
में कीमत 40 प्रतिशत बढ़ी है। OC भागती हुई स्फीति है जहाँ 6 वर्षों में कीमत 60 प्रतिशत
बढ़ी है। OD सरपट दौड़ती स्फीति है जहाँ 4 वर्षों में कीमतों में 70 प्रतिशत वृद्धि
हुई है।
माँग-प्रेरित मुद्रा स्फीति (DEMAND PULL INFLATION)
माँग प्रेरित मुद्रा स्फीति तब उत्पन्न होती है जब बढ़ती
माँग के कारण कीमत स्तर में वृद्धि का दबाव होता है। अर्थ व्यवस्था में मुद्रा पूर्ति
की वृद्धि अथवा उपभोक्ता की बढ़ती उपभोग प्रवृत्ति के कारण माँग प्रेरित मुद्रा स्फीति
उत्पन्न होती है।
शैपिरो (Shapiro) के अनुसार, "माँग प्रेरित मुद्रा स्फीति में कीमत इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि वर्तमान कीमतों पर वस्तुओं तथा सेवाओं की माँग उपलब्ध पूर्ति की तुलना में बढ़ जाती है।"
चित्र
2 में पूर्ति वक्र SSC बिन्दु तक लोचदार है जो यह दर्शाता है कि C बिन्दु तक माँग बढ़ने
पर उत्पादन में वृद्धि होती है किन्तु C बिन्दु के बाद पूर्ति वक्र पूर्णतः बेलोच है
जिसके कारण माँग बढ़ने पर उत्पादन OM3 स्तर पर स्थिर बना रहता है। अतः माँग
बढ़ने पर उत्पादन में कोई वृद्धि न होकर केवल कीमतों में वृद्धि होती है।
लागत वृद्धि स्फीति (COST PUSH INFLATION)
लागत वृद्धि स्फीति तब उत्पन्न होती है जब उत्पत्ति साधनों की बढ़ती कीमतों के कारण उत्पादन लागत बढ़ती है और परिणामस्वरूप कीमत स्तर में वृद्धि होती है।
चित्र 16.3 पूर्ति वक्र R बिन्दु के बाद पूर्ण बेलोच हो गया है जो
पूर्ण रोजगार की स्थिति को दर्शाता है। पूर्ति वक्र S₁S को बिन्दु A पर काट रहा है।
अतः अर्थव्यवस्था में OM उत्पादन होगा तथा कीमत स्तर OP होगा।
लागत बढ़ने पर पूर्ति वक्र S₂S हो जाता है जो DD वक्र को
बिन्दु B पर काट रहा है। यहाँ लागत बढ़ने से उत्पादन घटकर OM1 हो जाता है
तथा कीमत बढ़कर OP₁ हो जाती है। इसी प्रकार SS पूर्ति वक्र के साथ उत्पादन घटकर
OM₂ हो जाता है तथा कीमत बढ़कर OP₂ हो जाती है।
माँग आधिक्य को आधार बनाकर जे. एम. केन्स ने मुद्रा स्फीति
को रोजगार की स्थिति से सम्बन्धित किया है।
केन्स के अनुसार, "पूर्ण
रोजगार के बिन्दु पर पहुँचने से पहले यदि मुद्रा की मात्रा का प्रसार होता है तो
उसका एक अंश तो रोजगार का विस्तार करेगा और दूसरा अंश उत्पादन लागत में वृद्धि
करके कीमतों को बढ़ाएगा।"
केन्स के अनुसार, पूर्ण रोजगार स्तर से पूर्व की अवस्था अर्द्ध-स्फीति (Semi-inflation) की अवस्था है। पूर्ण रोजगार स्तर के बाद यदि मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है तब यह मुद्रा वृद्धि केवल कीमतों को बढ़ाएगी। केन्स ने इस दशा को पूर्ण स्फीति (Full inflation) कहा है।
चित्र 4 में OX रेखा मुद्रा की
मात्रा को बताती है जबकि OY रेखा रोजगार तथा कीमत को दर्शाती है। P पूर्ण रोजगार
बिन्दु है। P विन्दु से पूर्व की स्थिति AP अर्द्ध स्फीति की दशा है जबकि P बिन्दु
के बाद की स्थिति पूर्ण स्फीति की दशा उपस्थित होती है।
मुद्रा-स्फीति के कारण (CAUSES OF INFLATION)
किसी देश में मुद्रा-स्फीति को
प्रभावित करने वाले कारणों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- (अ) सरकारी नीति से
उत्पन्न स्फीति, (ब) अन्य कारण। इन दोनों वर्गों के कारणों पर अलग-अलग विचार करना
अधिक उपयुक्त होगा।
(अ) सरकारी नीति (Policy of Government)
मुद्रा-स्फीति का मुख्य कारण सरकार
की आर्थिक नीति होती है। इस नीति में प्रायः मुद्रा की मात्रा को प्रभावित करने
वाली बातें निम्नलिखित हो सकती हैं-
1. हीनार्थ प्रबन्धन (Deficit Financing) - युद्धकाल
में या नियोजन युग में प्रायः सरकार का व्यय बहुत अधिक बढ़ जाता है, उसकी पूर्ति
कर लगाकर या ऋण लेकर नहीं की जा सकती। अतः सरकार के बजट में घाटा रहता है। जिसे आवश्यक मात्रा में नोट छापकर पूरा किया
जाता है। इसे आर्थिक भाषा में हीनार्थ प्रबन्धन (Deficit Financing) कहा जाता है और
इसके परिणामस्वरूप बाजार में नोटों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है जिससे मुद्रा स्फीति
की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
2. युद्धजनित आर्थिक दबाव (War-created Economic Pressures)
- युद्धकालीन आर्थिक दबाव प्रायः सभी देशों में मुद्रा-स्फीति का कारण रहा है परन्तु
हारने वाले देशों में स्फीति अत्यधिक हुई है क्योंकि एक तो हारने वाले देशों में उत्पादन
का सारा ढाँचा अत्यधिक बिगड़ जाता है दूसरे, उन्हें जीतने वाले देशों को हर्जाने के
रूप में बहुत राशि चुकानी पड़ती है। इनके अतिरिक्त बर्बादी अपेक्षाकृत अधिक होने से
उन देशों में उद्योग तथा व्यवसाय की पुनर्स्थापना करने में अत्यधिक धन व्यय करना पड़ता
है। इन सबका सामूहिक परिणाम मुद्रा-स्फीति के रूप में प्रकट होता है।
3. विकासजनित दबाव (Development-created Strains) - वर्तमान
काल में प्रायः सभी अविकसित देशों में मुद्रा स्फीति का वातावरण है क्योंकि योजनाबद्ध
विकास के लिए बहुत बड़ी धनराशि खर्च की जाती है जिसकी पूर्ति मुद्रा की मात्रा में
वृद्धि द्वारा की जाती है। मुद्रा की मात्रा में वृद्धि द्वारा उत्पन्न स्फीति, चलन
स्फीति (Currency inflation) कहलाती है।
4. व्यापार नीति (Commercial Policy) - सरकार यदि विदेशों
से आने वाले माल पर निरन्तर प्रतिबन्ध लगाए रखती है तो देश के उद्योगों को स्पर्द्धा
से छूट मिल जाती है। इस प्रकार निरन्तर संरक्षण की छाया में पलने वाले उद्योग शिथिल
एवं निष्क्रिय हो जाते हैं और उनमें उत्पन्न वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होती जाती
है जो देश में मुद्रा-स्फीति का कारण बन जाती है।
5. उद्योग नीति (Industrial Policy)- अनेक देशों में
नए उद्योगों की स्थापना पर सरकार का कड़ा नियन्त्रण रहता है। प्रत्येक नई औद्योगिक
इकाई की स्थापना के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य होता है जिसके परिणामस्वरूप नई औद्योगिक
इकाइयों की स्थापना धीरे-धीरे होती है। अतः उत्पादन का क्रम बहुत ढीला और गतिहीन रहता
है। माल का उत्पादन कम रहने से देश में मुद्रा स्फीति की प्रवृत्तियाँ बलशाली हो जाती
हैं।
6. सरकार की कर नीति (Taxation Policy) - सरकार जब निर्मित
माल पर उत्पादन कर लगाती चली जाती है या आय-कर में निरन्तर वृद्धि करती चली जाती है
तो एक ओर तो साहसी वृत्ति, निरुत्साहित होती है और दूसरी ओर वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें
बढ़ने लगती हैं। इससे भी मुद्रा स्फीति को प्रोत्साहन मिलता है।
7. प्रशासन में शिथिलता (Loose Administration)- यदि सरकारी
प्रशासन शिथिल हो जाए तो जनता की संग्रह प्रवृत्ति, घूसखोरी, जमाखोरी तथा अधिकाधिक
लाभ कमाने की आदतों को प्रोत्साहन मिलने लगता है। इसलिए जमाखोरी के फलस्वरूप बाजार
में माल की कृत्रिम कमी हो जाती है और स्फीति का वातावरण बनने लगता है।
(ब) अन्य कारण (Other Causes)
सरकारी नीति के अतिरिक्त मुद्रा स्फीति
को निम्न अन्य कारण भी प्रोत्साहित करते हैं-
1. उत्पादन में शिथिलता (Slackness in production)- जब किसी
देश के उत्पादन में बहुत धीरे वृद्धि हो अथवा उत्पादन में गिरावट आ जाय और मुद्रा की
मात्रा उतनी ही रहे तो मुद्रा स्फीति हो जाती है। उत्पादन में शिथिलता के निम्नलिखित
कारण हो सकते हैं-
(i) किसी देश में सूखा पड़ने या बाढ़
आने से फसल नष्ट हो जाती है इससे उद्योगों को कच्चा माल मिलने में कठिनाई होती है।
(ii) औद्योगिक क्षेत्र में हड़ताल या
तालाबन्दी से भी उत्पादन में गिरावट आती है।
(iii) कुछ उद्योगों में मशीनें पुरानी होने से उत्पत्ति ह्रास
नियम लागू हो जाता है और उत्पादन कम हो जाता है।
2. लागत में वृद्धि (Increase in costs) - यह स्फीति वस्तु मूल्यों की वृद्धि के
कारण होती है। (Coat puch inflation) कहते हैं। इसे पृथक् रूप से समझाया गया है।
3. माँग में वृद्धि (Increase in demand)- वस्तुओं की माँग में अत्यधिक वृद्धि होने
से भी मुद्रा प्रसार की स्थिति उत्पन्न होती है। वस्तुओं की माँग में अत्यधिक वृद्धि
युद्धकाल में होती है। जिन देशों में जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती है उनमें भी प्रायः
वस्तुओं की माँग तेजी से बढ़ती है और इस प्रकार जो मुद्रा-स्फीति होती है उसे माँग-वृद्धि
स्फीति (Demand-pull inflation) कहते हैं।
4. बैंकों की क्रियाएँ (Banking Activities) - जिन देशों में बैंकिंग व्यवस्था का
समुचित विकास हो जाता है उनमें व्यापारिक बैंक न केवल सभी प्रकार के व्यवसाय अथवा उद्योगों
के लिए धन की व्यवस्था करते हैं बल्कि स्कूटर, मोटरकार, धुलाई मशीन, रेफ्रीजरेटर, आदि
उपभोक्ता सामान खरीदने के लिए उपभोक्ता-ऋण या उपभोक्ता साख (Consumer's Credit) की
व्यवस्था करते हैं जिससे साख की मात्रा में वृद्धि होने लगती है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति
बैंकों द्वारा दी गई सुविधाओं का अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए उत्सुक रहता है। इस प्रकार
साख की मात्रा में वृद्धि होने से साख प्रसार (Credit Inflation) की स्थिति उत्पन्न
हो जाती है।
मुद्रा-स्फीति के प्रभाव (EFFECTS OF INFLATION)
मुद्रा-स्फीति विभिन्न वर्गों को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित
करती है। इससे कुछ समय तक आर्थिक प्रगति को बल तथा रोजगार व्यवस्था को प्रोत्साहन मिलता
है परन्तु इसकी निरन्तर वृद्धि आर्थिक विकास की गति को शिथिल कर देती है। वास्तव में,
मुद्रा स्फीति का समाज के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता
है जिसका विवेचन इस प्रकार है-
आर्थिक प्रभाव (Economics Effects)
1. सामान्य जनता को कष्ट (Disadvantage to General Public) - मुद्रा स्फीति वस्तुओं
तथा सेवाओं के मूल्य में वृद्धि कर देती है जिससे सामान्य जनता को उपभोग के सब साधन
महँगे मिलते हैं। बढ़ते हुए मूल्यों से सामान्य जनता में न केवल असन्तोष उत्पन्न होता
है बल्कि उन्हें सरकार की नीतियों पर प्रायः अविश्वास होने लगता है। यह स्थिति किसी
भी प्रजातान्त्रिक सरकार के लिए सुखद नहीं हो सकती।
2. उत्पादक वर्ग (Producer Class)- मुद्रा स्फीति से उत्पादक वर्ग को लाभ होता
है क्योंकि कीमतों में वृद्धि के कारण इनके लाभ की मात्रा बढ़ जाती है। इसके प्रमुख
कारण इस प्रकार हैं- पहला कारण तो यह है कि मुद्रा-स्फीति के कारण लोगों के हाथ में
क्रय-शक्ति की मात्रा बढ़ जाती है जिससे वस्तुओं की पूर्ति की अपेक्षा उनकी माँग अधिक
होती है अतः कीमतों में वृद्धि होने लगती है। दूसरे, यद्यपि मुद्रा स्फीति के समय लागतों
में वृद्धि होती है किन्तु यह वृद्धि उस अनुपात में नहीं होती जिस अनुपात में कीमतें
बढ़ती हैं अतः उत्पादकों को लाभ होता है। तीसरे, मुद्रा-प्रसार की स्थिति में कीमतों
की तुलना में मजदूरी में उसी मात्रा में वृद्धि नहीं होती। तात्पर्य यह है कि मजदूरी,
कीमतों की तुलना में पीछे रहती है। इसके फलस्वरूप उत्पादकों को लाभ होता है। उत्पादक
वर्ग के समान, व्यापारियों को भी मुद्रा स्फीति से लाभ होता है।
प्रो. कुरिहारा के शब्दों में, "मुद्रा स्फीति, व्यवसाय
एवं उद्यम को बहुत प्रोत्साहित करती है तथा उद्यमी चाहे वह उत्पादक हो अथवा व्यवसायी,
बढ़ती हुई कीमतों से लाभ प्राप्त करता है।"
3. उपभोक्ता वर्ग (Consumer Class)- प्रत्येक वर्ग चाहे वह उद्यमी हो या कर्मचारी
अथवा विनियोगी, उपभोक्ता होता है। उपभोक्ता को हम दो वर्गों में बाँट सकते हैं, एक
तो निश्चित आय प्राप्त करने वाला और दूसरा परिवर्तनशील आय वाला। निश्चित आय वाले उपभोक्ताओं
को स्फीति के समय काफी कष्ट होता है क्योंकि वस्तुओं के मूल्य में भारी वृद्धि होने
से इन्हें वस्तुओं के उपभोग को कम करना पड़ता है तथा कुछ वस्तुओं का उपभोग स्थगित करना
पड़ता है। जिन उपभोक्ताओं की आय परिवर्तनशील रहती है, स्फीति काल में उनकी आय बढ़ जाती
है। किन्तु यदि समग्र दृष्टि से देखा जाय तो उपभोक्ताओं को भी कुछ हानि होती है क्योंकि
इनकी आय उस गति से नहीं बढ़ती जिस गति से कीमतें बढ़ती हैं।
4. श्रमिक वर्ग (Working Class)- मुद्रा-स्फीति की व्यवस्था श्रमिकों के लिए
प्रायः लाभदायक होती है क्योंकि एक तो उद्योगों का अधिक विस्तार होने से श्रमिकों के
परिवार के सभी व्यक्तियों को यथोचित रोजगार मिल जाता है जिससे श्रमिक परिवार की कुल
आय में महत्वपूर्ण वृद्धि हो जाती है। दूसरे, महँगाई का प्रभाव दृष्टिगोचर होने पर
प्रायः श्रमिक अधिक वेतन और महँगाई भत्ते अथवा बोनस की माँग करने लगते हैं। इस दृष्टि से मुद्रा-स्फीति की
स्थिति श्रमिकों के लिए साधारणतया लाभदायक होती है। परन्तु महँगाई के निरन्तर बढ़ने
पर उनकी मजदूरी की दर पिछड़ जाती है जिससे श्रमिकों की वास्तविक आय कम हो जाती है।
5. निश्चित आय वाला वर्ग अथवा वेतनभोगी
वर्ग (Fixed Income Class)- मूल्यों में वृद्धि हो जाने पर अध्यापक, दफ्तरों के क्लर्क,
पेन्शन प्राप्त करने वाले वृद्ध, निर्धन वर्ग के लोग तथा विधवा स्त्रियाँ जो निश्चित
आमदनी से जीवन-निर्वाह करते हैं, बहुत संकटजनक स्थिति में पड़ जाते हैं क्योंकि उनको
मिलने वाली निश्चित मौद्रिक आय अब पहले जितना सामान अथवा सुविधाएँ प्राप्त नहीं करा
सकती। उनकी आय में प्रायः सामान्य वृद्धि होती है जिससे विशेष सहायता नहीं मिलती। दूसरी
ओर धनी वर्ग अधिक धनी होता जाता है और समाज में आर्थिक विषमता बढ़ जाती है। प्रो. कैमरर
के अनुसार, "मुद्रा-प्रसार के दिनों में यह (निश्चित आय वाला) वर्ग अपने आपको
गम्भीर स्थिति में पाता है। आय की तुलना में रहन-सहन का व्यय बहुत बढ़ जाता है, समस्त
बचतें समाप्त हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में मध्यम वर्ग पर निराशा एवं असफलता के बादल
छा जाते हैं।"
6. सरकार (Government) - मुद्रा स्फीति काल
में सरकार का खर्च बढ़ जाता है क्योंकि कर्मचारियों को वेतन भी अधिक देने पड़ते हैं
और निर्माण कार्यों पर व्यय भी वस्तु-मूल्यों में वृद्धि हो जाने से बढ़ जाता है, अतः
सरकार को अपनी आय बढ़ाने के लिए पुराने करों में वृद्धि करती पड़ती है और नये कर लगाने
पड़ते हैं। इन करों का बोझ उद्योगपति तथा व्यापारी तो सहन कर सकते हैं परन्तु जो अप्रत्यक्ष
कर लगाए जाते हैं उनका भार सहन करने में मध्यम वर्ग के लोगों को बहुत कठिनाई होती है।
7. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर कुप्रभाव (Bad Effects on International
Trade) - मुद्रा-स्फीति के कारण वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि हो जाती है जिससे देश
के निर्यात व्यापार में कमी और आयात-व्यापार में वृद्धि हो जाती है और व्यापार सन्तुलन
विपक्ष में हो जाता है। परिणामस्वरूप, न केवल राष्ट्रीय उद्योगों को हानि होती है बल्कि
कुछ उद्योगों के बन्द होने से लोग बेरोजगार हो जाते हैं और देश की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न
होने लगती है।
8. श्रणियों को लाभ तथा ऋणदाताओं को
हानि (Gain to Debtors, Loss to Creditors)- मुद्रा-स्फीति की अवस्था में मुद्रा का
मूल्य गिर जाने के कारण ऋणदाताओं को हानि होती है क्योंकि उन्होंने जिस समय ऋण दिया
था उस समय मुद्रा की क्रय-शक्ति अधिक थी। ऐसी स्थिति में ऋणियों के पास अधिक क्रय-शक्ति
आ जाने के कारण वह अपने ऋणों का आसानी से भुगतान कर सकते हैं। वास्तव में, ऋणी-वर्ग
के लिए मुद्रा-स्फीति एक वरदान के समान होती है।
9. विनियोक्ताओं को लाभ (Gain to Investors) - मुद्रा स्फीति
काल में प्रायः सभी अच्छी कम्पनियों के अंशों के मूल्य बढ़ जाते हैं क्योंकि इनकी लाभ
की दर में बहुत वृद्धि हो जाती है जिससे इनके अंशधारियों को ऊँचे दर पर लाभांश दिए
जाते हैं। कभी-कभी सरकार लाभांश की दरें (rate of dividend) सीमित कर देती है, ऐसी
स्थिति में विनियोक्ताओं को विशेष लाभ नहीं होता। परन्तु लाभांश नियन्त्रण न होने पर
वह काफी लाभ प्राप्त कर लेते हैं।
सामाजिक तथा अन्य प्रभाव (Social and Other Effects)
उपर्युक्त प्रभावों के अतिरिक्त मुद्रा
स्फीति देश के सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव डालती है, इनमें से मुख्य निम्नांकित
हैं-
1. अनैतिकता में वृद्धि (Rise in Immorality)- मुद्रा स्फीति
काल में प्रायः व्यापारी लोग चोर-बाजारी करने लगते हैं, सट्टा फाटका बहुत बढ़ जाता
है और आवश्यकता की वस्तुओं में मिलावट आदि करने जैसे सामाजिक अपराधों में वृद्धि हो
जाती है। इस सबका प्रभाव यह होता है कि यदि स्फीति कुछ काल तक चलती रहे तो मध्यम वर्ग
का अन्त हो जाता है क्योंकि महँगाई के दबाव-स्वरूप इस वर्ग को अपना जीवन-स्तर गिराना
पड़ता है। अतः समाज में उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग दो श्रेणियाँ रह जाती हैं। प्रो.
गालब्रेथ के अनुसार, "सतत रूप में मुद्रा वाले स्वतन्त्र बाजार में शिक्षक, उपदेशक
या पुलिस का कार्य करने की अपेक्षा सट्टेबाजी या वेश्यावृत्ति का कार्य मौद्रिक दृष्टि
से अधिक लाभदायक है।"
2. आर्थिक विषमता में वृद्धि (Income in Economic Disparity)- मुद्रा-स्फीति
के युग में प्रायः आय तथा लाभ में वृद्धि का अधिकांश भाग धनिक वर्ग को मिलता है जिसके
परिणामस्वरूप धनिक वर्ग पहले से अधिक धनी होता चला जाता है। इसके विपरीत, निर्धन वर्ग
की पहले से अधिक निर्धन होने के कारण समाज में आर्थिक विषमता बढ़ती जाती है जिसके परिणामस्वरूप
समाज में असन्तोष बढ़ने लगता है।
3. राजनीतिक अशान्ति (Political Unrest)- मुद्रा स्फीति
के युग में प्रायः मिल-मालिकों तथा मजदूरों में तथा अन्य क्षेत्र के मालिकों तथा कर्मचारियों
में विरोध बढ़ता है क्योंकि बढ़ती हुई महँगाई की क्षतिपूर्ति के लिए महँगाई-भत्ते तथा
वेतन की माँग की जाती है। इस विरोध के फलस्वरूप देश में राजनीतिक वातावरण
अशान्त एवं
क्षुब्ध होने लगता है। हड़तालों तथा प्रदर्शनों के कारण देश में राजनीतिक अस्थिरता
की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
4. करों में वृद्धि (Increase in Taxation)- मौद्रिक स्फीति
काल में सरकार अतिरिक्त मुद्रा को चलन से कम करने अथवा जनता की अतिरिक्त आय को निष्क्रिय
करने की दृष्टि से करों में वृद्धि कर देती है। इससे भी व्यापारिक क्षेत्रों में सरकारी
नीति के विरोध का वातावरण उत्पन्न हो जाता है।
5. वस्तु संग्रह (Hoarding) - स्फीति काल में जनता
का धीरे-धीरे मुद्रा व्यवस्था से विश्वास उठने लगता है क्योंकि वस्तु मूल्यों में वृद्धि
होने के कारण मुद्रा के मूल्यों में कमी आती चली जाती है। अतः जनता सोना, चाँदी तथा
अन्य मूल्यवान वस्तुओं का संग्रह करने लगती है। धीरे-धीरे सभी वस्तुओं की जमाखोरी बढ़ते
लग जाती है।
6. बचतों पर बुरा प्रभाव (Bad Effect on Savings)- मुद्रा स्फीति
के कारण मुद्रा के मूल्य में जो कमी आती है उसके फलस्वरूप जनता में भविष्य के लिए धन
बचाने का उत्साह कम होता चला जाता है। क्योंकि वर्तमान में संग्रह की गई मुद्रा की
क्रय शक्ति भविष्य में कम होने की आशंका रहती है। अतः धन बचाने की अपेक्षा लोग अपनी
आय से सामान खरीदने लगते हैं।
7. रोजगार में वृद्धि (Increase in Employment)- मुद्रा
स्फीति काल में नये-नये उद्योग तथा व्यवसाय स्थापित होने से एक महत्वपूर्ण लाभ यह होता
है कि बेरोजगारी की मात्रा बहुत कम हो जाती है। अनेक देशों में प्रायः सभी काम करने
के इच्छुक एवं समर्थ व्यक्तियों को रोजगार मिल जाता है।
8. आय में वृद्धि (Increase in Income)- रोजगार की मात्रा
में वृद्धि तथा व्यावसायिक विकास के कारण जनता की कुल एवं प्रति व्यक्ति आय में भी
वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप जनता का जीवन-स्तर ऊँचा होता चला जाता है।
9. बैंकिंग विकास (Development of Banking)- स्फीति
काल में जनता की आय तथा व्यवसाय के लाभ में वृद्धि के कारण बैंकों की जमाओं में वृद्धि
होती है। व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धों को रकम उधार देने तथा नई जमाएँ प्राप्त करने के
लिए बैंक अपनी शाखाएँ दूर-दूर खोलने लगते हैं। इस प्रकार नये-नये क्षेत्रों में बैंकिंग
सुविधाओं का विकास होता चला जाता है। फलतः बैंकों की शाखाएँ, जमा रकम तथा ऋण राशि में
तीव्र गति से वृद्धि होती है।
10. सम्पन्नता एवं आर्थिक गतिशीलता (Prosperity and Economic
Dynamicism)- मुद्रा-स्फीति के युग में नये-नये कारखाने और धन्धे आरम्भ होते रहते हैं
जिनमें नये-नये व्यक्तियों को रोजगार मिलता रहता है। जनता की आय में वृद्धि होती है
तथा व्यवसाय में अधिक लाभ प्राप्त होते हैं। इन सबके परिणामस्वरूप अर्थतन्त्र में एक
विलक्षण स्फूर्ति एवं उत्साह का वातावरण बनता है जिसे गतिशीलता एवं समृद्धि का द्योतक
कहा जा सकता है।
भारत में मुद्रा स्फीति का मापन (MEASURMENT OF INFLATION IN INDIA)
भारत में वर्ष 2014 से मुद्रा स्फीति
के आकलन का आधार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) है। मुद्रा-स्फीति का मापन निम्न विधियों
द्वारा किया जाता है।
थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) (WPI)
थोक मूल्य सूचकांक की गणना साप्ताहिक
आधार पर की जाती है। थोक मूल्य संचकांक, वस्तुओं के खुद्रा विक्रय से पूर्व उनके मूल्य
में होने वाले परिवर्तनों का मापन करने वाली सूची है।
थोक मूल्य सूचकांक का आधार वर्ष संशोधित
होकर अब 2011-12 हो गया है जो पहले 2004-05 था। संशोधित सूची में WPI को तीन मुख्य
समूह में विभाजित किया गया है वो इस प्रकार है- प्राथमिक वस्तु
(117) ईंधन
और ऊर्जा (16) और निर्मित उत्पाद 564)।
मुख्य परिवर्तन इस प्रकार हैं-
• WPI में मदों की संख्या 676 से
697 कर दी गई है, जिसमें 199 नयी मदें जोड़ी गर्मी और 146 पुरानी हटायी गई हैं।
• नई WPI की सूची ज्यादा प्रदर्शक है
क्योंकि इसमें उदरणों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है।
• नई सूची में, राजकोषीय नीति पर प्रभाव
को कम करने के लिए, जो मूल्य उपयोग होते हैं उनमें अप्रत्यक्ष कर को नहीं शामिल किया
जाता है।
थोक मूल्य सूचकांक (WPI) के प्रमुख
घटक-थोक मूल्य सूचकांक में सामान्य आधार पर तीन घटक सम्मिलित हैं जो कि निम्न प्रकार
हैं-
(i) निर्मित वस्तुएँ 64.2%
(ii) प्राथमिक 22.6%
(iii) ईंधन एवं बिजली 13.1%
भारतीय रिजर्व बैंक ने उर्जित पटेल
समिति की सिफारिशों के आधार पर देश में मुद्रा स्फीति के मापन के लिए थोक मूल्य सूचकांक
के बजाय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) का उपयोग करने का निर्णय लिया है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumr Price Index) (CPI)
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक घरेलू उपभोग
की वस्तुओं और सेवाओं के सामान्य मूल्य स्तर के साथ होने वाले परिवर्तन का मापन करता
है। CPI का व्यापक रूप से मुद्रास्फीति के एक व्यापक संकेतक के रूप में, सरकार और केन्द्रीय
बैंक के द्वारा मुद्रास्फीति का आकलन और मूल्य स्थिरता की निगरानी, और राष्ट्रीय खातों
में अपस्फीतिकारक के रूप में उपयोग होता है। WPI की तरह CPI का कोई एक आकलन नहीं होता
है। भारत में CPI की चार सूचियाँ जारी की जाती हैं। जो इस प्रकार हैं- औद्योगिक श्रमिक
(CPI-IW) पेशेवर (CPI- UNME), कृषि श्रमिक (CPI-AL) ग्रामीण श्रमिक (CPI-RL)।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) एक ऐसी
माप होता है जो यातायात, खाद्य एवं औषधीय जैसी उपभोक्ता वस्तुओं एवं सेवाओं के एक टोकरी
की कीमतों के भारित औसत की जाँच करता । है। इसकी गणना वस्तुओं के पूर्वनिर्धारित बास्केट
के प्रत्येक मद के लिए कीमत बदलावों और उनकी औसत निकालने के लिए की जाती है। उपभोक्ता
मूल्य सूचकांक (CPI) में बदलावों का उपयोग जीने की लागत के साथ जुड़े कीमत परिवर्तनों
का आकलन करने के लिए किया जाता है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) मुद्रास्फीति
या अपस्फीति अवधियों और इसी के द्वारा सरकार की आर्थिक नीति की दक्षता की पहचान करने
के लिए सबसे ज्यादा उपभोग में लाया जाने वाला आँकड़ा है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) की गणना उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) वस्तुओं
और सेवाओं के एक व्यापक वर्ग का भारित औसत मूल्य है। मदों का संग्रह जिसे अधिकतर उपभोक्ता
मूल्य सूचकांक के वस्तुओं की 'बास्केट' के नाम से संदर्भित किया जाता है, उन पारम्परिक
उत्पादों और सेवाओं का नाम है जिसकी उपभोक्ता खरीद करता है। गतवर्षों से जब इन उत्पादों
की कीमतें मुद्रास्फीति के कारण बढ़ती हैं तो यह क्रमिक वृद्धि बढ़ते उपभोक्ता मूल्य
सूचकांक में प्रतिबिंबित होती है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले कुछ समय के दौरान वस्तुओं
और सेवाओं के बास्केट के लिए उपभोक्ता द्वारा भुगतान किये गये मूल्यों में औसत परिवर्तन
की माप करता है, जिसे महँगाई दर या मुद्रास्फीति कहते हैं।
जीडीपी अपस्फीतिकारक (GDP
Deflator) यह मुद्रास्फीति मापने का अत्यंत उपयुक्त तरीका है, क्योंकि इसमें किसी अर्थव्यवस्था
के किसी वर्ष में उत्पादित सभी वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों में परिवर्तन को लिया
जाता है। जब सकल घरेलू उत्पाद की गणना बाजार कीमतों अर्थात् प्रचलित मूल्यों पर की
जाती है तो इसे बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद अर्थात् 'मौद्रिक जीडीपी' कहते हैं और जब सकल घरेलू उत्पपाद की गणना
आधार वर्ष के मूल्यों पर की जाती है तो इसे स्थिर मूल्यों पर जीडीपी अर्थात् 'वास्तविक
जीडीपी' कहते हैं। जब हम किसी आधार वर्ष के स्थिर मूल्यों पर जीडीपी की गणना करते हैं
तो सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ने वाला स्फीति प्रभाव समाप्त हो जाता है। मौद्रिक जीडीपी
में वृद्धि तथा वास्तविक जीडीपी की वृद्धि का अंतर ही जीडीपी की कीमत में वृद्धि है
और इसे ही 'जीडीपी डिफ्लेटर' कहते हैं। यह चालू मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद तथा स्थिर
मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात है।
यदि जीडीपी का मान 1 हो तो इसका अर्थ है कि कीमत स्तर में कोई
परिवर्तन नहीं हुआ है, जबकि जीडीपी डिफ्लेटर का मान 2 हो तो दोगुने की वृद्धि और 4
हो तो कीमत स्तर में 4 गुनी वृद्धि प्रदर्शित होगी। जीडीपी डिफ्लेटर जीडीपी अनुमानों
के साथ केवल तिमाही आधार पर उपलब्ध है, जबकि सीपीआई और डब्ल्यूपीआई डेटा हर महीने जारी
किया जाता है।
मुद्रा-स्फीति और आर्थिक विकास (INFLATION AND ECONOMIC GROWTH)
पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)
मुद्रा-स्फीति से आर्थिक विकास को बल मिलता है, इसके पक्ष में
निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं-
1. विनियोगों में वृद्धि (Increase in Investments) - मुद्रास्फीति काल में जनता को
अधिक पूँजी विनियोग करने का अवसर मिलता है जिससे नए-नए उद्योगों की स्थापना होती है,
व्यवसाय की उन्नति होती है तथा रोजगार में वृद्धि होती है।
2. वस्तुओं की माँग में वृद्धि (Increase in demand for commodities) - मुद्रा-स्फीति काल
में जनता की आय बढ़ जाती है जिससे वह अधिक वस्तुओं की माँग करने लगती है। इसके फलस्वरूप
भी उत्पादन में वृद्धि करने का प्रोत्साहन मिलता है।
3. पूँजी का आयात (Import of Capital)- कहा जाता है कि मुद्रा स्फीति काल में
अधिक लाभ होने के कारण विदेशी पूँजी का देश में आयात होने लगता है जिससे आर्थिक विकास
को बल मिलता है।
4. राष्ट्रीय प्रयत्नों को प्रोत्साहन- मुद्रा स्फीति द्वारा विकास के पक्ष में एक दलील यह दी जा
सकती है कि जिन देशों के पास पर्याप्त प्राकृतिक साधन हैं उन्हें अपना विकास अपने स्वयं
के साधनों से ही करना चाहिए और विदेशों से कम से कम सहायता लेनी चाहिए क्योंकि विदेशी
सहायता के साथ कुछ आर्थिक अथवा राजनीतिक शर्तें अथवा दबाव जुड़े हुए हो सकते हैं। अतः
मुद्रा स्फीति अपने साधनों द्वारा आर्थिक विकास करने में सहायक होती है।
विपक्ष में तर्क (Against Arguments)
1. विनियोगों को सदैव प्रोत्साहन नहीं (Investments are not always encouraged)- मुद्रा-स्फीति के
सम्बन्ध में यह धारणा भी सही नहीं है इससे विनियोजन को प्रोत्साहन मिलता है। इसके विपरीत
निरन्तर बढ़ते हुए मूल्यों के कारण नई मशीनों तथा योजनाओं में पूँजी विनियोजन (जो सन्तुलित
विकास के लिए आवश्यक है) निरुत्साहित होता है क्योंकि इसका प्रतिफल मिलने में अधिक
समय लगता है और पूँजी के अपकर्ष अथवा ह्रास का भय बना रहता है।
2. निर्यात में कमी और भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल होना (Fall in exports and Adverse Balance of Payments)- मुद्रा
स्फीति का आर्थिक प्रगति पर सबसे बुरा प्रभाव यह पड़ता है कि देश के निर्यात कम हो
जाते हैं और मुद्रा की विनिमय दर गिरने लगती हैं।
3. आर्थिक संकट और नियन्त्रण (Economic Crisis and Controls) - उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त
मुद्रा-स्फीति का अन्तिम परिणाम या तो आर्थिक संकट होता है या देश की सारी अर्थव्यवस्था
पर नियन्त्रणों का इतना गम्भीर बोझ लादना पड़ता है कि आर्थिक स्वतन्त्रता लगभग समाप्त
हो जाती है। देश में घूसखोरी, चोर-बाजारी तथा कृत्रिम अभाव का गम्भीर वातावरण उत्पन्न
हो जाता है। यह कहना उचित होगा कि सन्तुलित आर्थिक विकास के लिए मुद्रा स्फीति का सहारा
कुछ समय के लिए लिया जा सकता है, अधिक समय के लिए ऐसा करना भारी भूल होगी।
मुद्रा-स्फीति कैसे रोकी जाय ? (HOW TO CHECK INFLATION?)
मुद्रा-स्फीति को रोकने के लिए निम्न
प्रकार के उपायों का सहारा लिया जा सकता है।
(I) मौद्रिक उपाय,
(II) राजकोषीय
उपाय, (III) अन्य उपाय।
(I) मौद्रिक उपाय
इसमें निम्न तत्वों को शामिल किया जाता
है-
1. मुद्रा निकालने सम्बन्धी नियमों
को कठोर बनाना मुद्रा स्फीति की मात्रा कम करने के लिए सरकार के लिए यह आवश्यक है कि मुद्रा
निकालने सम्बन्धी नियमों को कड़ा करे ताकि केन्द्रीय बैंक को अतिरिक्त मुद्रा निकालने
में अधिक कठिनाई हो। इसके लिए नोटों के पीछे रखे जाने वाले स्वर्ण अथवा विदेशी-विनिमय
के कोषों की मात्रा में वृद्धि कर दी जाती है और यदि पहले से कोई कोष नहीं रखे जा रहे
हों तो कोष रखने की व्यवस्था आरम्भ की जाती है।
2. पुरानी मुद्रा वापस लेकर नई मुद्रा
देना मुद्रास्फीति बहुत भयंकर होने की दशा में साधारण उपचार उपयोगी नहीं हो सकते, अतः
पुरानी सब मुद्राएँ समाप्त कर उनके बदले में नयी मुद्राएँ दे दी जाती हैं। ऐसा करने
में प्रायः
पुरानी बहुत-सी मुद्राओं को एक नई मुद्रा में परिवर्तित किया जाता है।
3. साख-स्फीति को कम करना (Reducing credit inflation)- मुद्रा
स्फीति को कम करने के लिए साख-स्फीति को कम करना आवश्यक है। इसके लिए केन्द्रीय बैंक
द्वारा बैंक दर बढ़ाकर, प्रतिभूतियाँ बेचकर तथा बैंकों से अधिक कोष माँगकर, साख कम
की जा सकती है। केन्द्रीय बैंक को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे साख लेना अधिक महँगा
हो जाय।
(II) राजकोषीय उपाय (Fiscal Measures)
इसके अन्तर्गत निम्न उपायों को शामिल
किया जाता है-
1. बजट में सन्तुलन-सरकार को मुद्रा स्फीति के समय घाटे
के बजट की नीति नहीं अपनानी चाहिए क्योंकि यदि बजट घाटे का है तो उसकी पूर्ति करने
के लिए सरकार को अतिरिक्त मुद्रा का निर्गमन करना पड़ेगा जो मुद्रा-स्फीति को अधिक
भयावह बना देगा। अतः बजट को सन्तुलित रखा जाना चाहिए।
2. ऋण-प्राप्ति (Obtaining Loans) - मुद्रा स्फीति
कम करने के लिए सरकार को ऋणपत्र (debentures) बेचने चाहिए और जनता को यह पत्र खरीदने
के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इनामी बॉण्ड अथवा बचत-पत्र भी ऐसी राशियों में
निर्गमित करने चाहिए जिन्हें सब वर्गों के व्यक्ति खरीद सकें। यह ऋणपत्र अधिकतर अल्पकालीन
होने चाहिए ताकि जनता को उन्हें खरीदने में कोई संकोच न हो।
3. सार्वजनिक व्यय पर नियन्त्रण-मुद्रा स्फीति के समय सरकार को अपने
व्यय में कमी कर देनी चाहिए जिससे अतिरिक्त मुद्रा लोगों के हाथों में न पहुँच सके।
विशेष रूप से अनुत्पादक व्यय को तो रोक ही देना चाहिए क्योंकि इससे उत्पादन में वृद्धि
नहीं होती तथा कीमतें बढ़ने लगती हैं।
4. बचतों को प्रोत्साहन-यदि जनता के पास उपलब्ध क्रय-शक्ति
को लगातार व्यय किया जाये तो निश्चित ही कीमतें बढ़ने लगती हैं अतः सरकार को बैंकों
एवं डाकघरों के माध्यम से ऐसी नीतियाँ कार्यान्वित करनी चाहिए जिससे लोग बचत करने के
लिए प्रोत्साहित हों। इसके लिए आकर्षक ब्याज की दर भी अपनानी चाहिए।
5. मजदूरी बन्धन (Freezing of wages) - मुद्रा स्फीति
पर रोक लगाने के लिए प्रायः मजदूरी को बन्धित करने की नीति अपनाई जाती है जिसके अनुसार
मजदूर और मालिक मिलकर यह समझौता कर लेते हैं कि आगामी 5 या 10 वर्ष तक मजदूरी में कोई
वृद्धि नहीं की जायगी। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् जर्मनी ने अपने आर्थिक विकास के
लिए मजदूरी बन्धन की नीति अपनाई।
6. उत्पादन वृद्धि (Increasing Production)- उत्पादन
की मात्रा में वृद्धि से भी मुद्रा स्फीति का प्रभाव कम हो जाता है क्योंकि वस्तुओं
की पूर्ति पहले से बढ़ जाती है। अतः सरकार द्वारा ऐसे उद्योगों के वास्ते लाइसेंस दिए
जाने चाहिए जिनमें कम पूँजी लगानी पड़े और शीघ्र उत्पादन द्वारा उपभोक्ताओं की अधिक
से अधिक आवश्यकताएँ पूरी कर सकें।
7. मूल्य-नियन्त्रण (Price Control) - स्फीति कम करने के लिए वस्तु-मूल्यों पर
भी कड़े नियन्त्रण लगाने चाहिए और उपभोक्ताओं को कम माल खरीदने के लिए प्रोत्साहित
करना चाहिए।
(III) अन्य उपाय (Other Measures)
1. मूल्य नियन्त्रण एवं राशन व्यवस्था लागू करना (Adoption of Price Control and Rationing) - मुद्रा-स्फीति
के कारण वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों में जो वृद्धि होती है उसका प्रभाव कम करने
के लिए सरकार प्रायः मूल्य नियन्त्रण तथा राशन व्यवस्था लागू करती है। इससे लोगों को
कुछ वस्तुएँ सस्ती तो मिलती हैं परन्तु उनकी मात्रा बहुत कम होती है।
2. निश्चित आय वाले वर्ग को महँगाई-भत्ता देना (Provision of Dearness Allowance to Fixed Income Class)-
मुद्रा स्फीति का सबसे बुरा प्रभाव निश्चित आय वाले वर्ग पर पड़ता है क्योंकि मूल्य
बढ़ जाने से उनकी वास्तविक आय कम हो जाती है। इसकी पूर्ति करने के लिए इस वर्ग के लोगों
को महँगाई-भत्ता देने की व्यवस्था की जाती है परन्तु महँगाई-भत्ता केवल आंशिक सहायता
होती है क्योंकि यह मूल्य-वृद्धि की तुलना में बहुत कम होता है।
(IV) मूल्यों में सहायता (Subsidy in respect of Prices)
कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिन्हें विदेशों से आयात करना पड़ता
है अथवा जिनके मूल्य अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों द्वारा निर्धारित होते हैं। कभी-कभी सरकार
इनमें से कोई वस्तु (जैसे- अनाज) जनता को सस्ते मूल्य पर देना चाहती है तो लागत मूल्य
और विक्रय मूल्य में जो अन्तर होता है वह घाटा स्वयं सरकार सहन कर लेती है। उदाहरणः,
यदि बर्मा से आयात किए गए चावल का भाव ₹200 क्वि. हो और सरकार बंगाल की जनता को ₹
180 क्वि. के भाव चावल देना चाहे तो वह ₹20 क्वि. का घाटा सहन कर लेती है।
मुद्रा-स्फीति के प्रभाव को कम करने के वास्ते किए गए यह सब
यत्न केवल अल्पकालीन तथा अस्थाई सहायता मात्र हैं, मुद्रा-स्फीति के भीषण रोग का इलाज
नहीं।
निष्कर्ष-उपर्युक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि विकासशील
तथा नियोजित अर्थव्यवस्था के प्रारम्भिक युग में मुद्रा-स्फीति की हल्की मात्रा लाभ पहुँचाने
वाली होती है क्योंकि वह उत्पादन, रोजगार, आय तथा सरकारी विकास योजनाओं को गतिशीलता
प्रदान करती है। किन्तु मुद्रा स्फीति का प्रयोग दवा की भाँति ही करना उचित है। जब
वह भोजन की भाँति प्रयुक्त होना आरम्भ हो जाता है तभी सामाजिक एवं आर्थिक दोष उत्पन्न
होने आरम्भ हो जाते हैं। मुद्रा स्फीति को अफीम की भाँति समझा जाना चाहिए जिसका प्रयोग
औषधि के रूप में किया जाय तो लाभदायक होता है किन्तु आदत पड़ने पर वह कार्यक्षमता एवं
शरीर का विनाश कर देती है।
मुद्रा-संकुचन या मुद्रा-विस्फीति (DEFLATION)
मुद्रा-संकुचन से आशय (Meaning of Deflation)
मुद्रा-स्फीति की सर्वथा विपरीत अवस्था को संकुचन या विस्फीति
कहते हैं। यह भी मुद्रा स्फीति के समान एक आर्थिक रोग है। क्राउथर (Crowther) के अनुसार,
"मुद्रा-संकुचन वह स्थिति है, जिसमें मुद्रा का मूल्य बढ़ता है और वस्तुओं का
मूल्य घटता है।"। यह परिभाषा अस्पष्ट और दोषपूर्ण है, क्योंकि इससे मूल्यों में
होने वाली प्रत्येक गिरावट मुद्रा-संकुचन प्रतीत होती है जबकि कुछ गिरावटें (जैसे मुद्रा-स्फीति
के पश्चात् कीमतों में गिरावट) ऐसी हैं जिन्हें मुद्रा-संकुचन या मुद्रा विस्फीति नहीं
कहा जा सकता, वरन् मुद्रा अपस्फीति (disinflation) कहा जाएगा। कुछ लेखकों ने मुद्रा-संकुचन
को मुद्रा की माँग और पूर्ति (अर्थात् उत्पादन और मौद्रिक आय) से सम्बन्धित किया है।
प्रोफेसर पीगू के अनुसार, "मुद्रा-स्फीति वह स्थिति है जबकि वस्तुओं और सेवाओं
की मात्रा मौद्रिक आय की तुलना में तीव्र गति से बढ़ती है और वस्तुओं तथा सेवाओं के
मूल्य में निरन्तर गिरावट आती चली जाती है।" इस प्रकार मुद्रा स्फीति के दो प्रमुख
लक्षण हैं- (i) उत्पादन में वृद्धि मुद्रा की मात्रा से अधिक होती है, तथा (ii) मूल्यों
में गिरावट आती रहती है।
वास्तव में, मुद्रा-संकुचन भी मूल रूप
में सरकारी नीति के कारण ही होता है। जब देश का भुगतान सन्तुलन निरन्तर पक्ष में हो
और विदेशों से स्वर्ण अथवा पूँजी का निरन्तर आयात होने पर भी न तो मुद्रा की मात्रा
में वृद्धि में वृद्धि हो और न ही वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होने दी जाय तो 'मुद्रा-विस्फीति'
की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कभी-कभी वस्तुओं का उत्पादन बढ़ता रहता है किन्तु माँग
में शिथिलता रहती है तो भी मुद्रा-संकुचन की स्थिति बन जाती है।
मुद्रा-संकुचन का अनुमान किस प्रकार
लगाया जाय (How should the deflation be tested?)- अब यह प्रश्न उठता है कि किस दशा
में यह माना जाय कि देश में मुद्रा-संकुचन की स्थिति है। यह स्थिति निम्नलिखित में
से कोई भी हो सकती है-
1. जब उत्पादन में वृद्धि हो रही है
और मौद्रिक आय गिर जाती है।
2. जब उत्पादन में वृद्धि हो रही है
और मौद्रिक आय स्थिर है।
3. जब उत्पादन स्थिर है और मौद्रिक
आय गिर रही है।
4. जब उत्पादन और मौद्रिक आय दोनों
में वृद्धि हो रही है किन्तु उत्पादन के बढ़ने की गति तीव्र है।
5. जब उत्पादन और मौद्रिक आय दोनों
में कमी आ रही है किन्तु मौद्रिक आय में कमी आने की गति तीव्र
है।
6. जब सम्पूर्ण माल तथा सेवाओं की पूर्ति
माँग से अधिक हो जाय।
मुद्रा-विस्फीति के कारण (CAUSES OF DEFLATION)
मुद्रा-विस्फीति निम्नलिखित कारणों
से उत्पन्न होती है-
1. मुद्रा की मात्रा में कमी- यदि सरकार अपरिवर्तनशील नोटों एवं
प्रादिष्ट मुद्रा का प्रचलन कुछ अंशों में बन्द कर देती है तथा उसके स्थान पर नए नोट
जारी नहीं करती तो देश में मुद्रा-संकुचन की स्थिति पैदा हो जाती है। यदि मुद्रा की
मात्रा स्थिर भी रहे लेकिन वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा में वृद्धि हो जाय तो भी मुद्रा-संकुचन
की दशा उत्पन्न हो जाती है।
2. बैंक दर में वृद्धि-यदि देश का केन्द्रीय बैंक, बैंक दर
में वृद्धि कर देता है तो उसका अनुसरण करते हुए अन्य व्यापारिक बैंक भी दर बढ़ा देते
हैं। इसके फलस्वरूप देश में साख की मात्रा कम हो जाती है जिससे कीमतें गिरने लगती हैं।
इसके परिणामस्वरूप देश में मुद्रा-संकुचन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
3. खुले बाजार की क्रियाएँ (Open Market Operations)- खुले बाजार
की क्रियाओं का आशय केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों को बेचने से है। जब
ये प्रतिभूतियाँ बेची जाती हैं तो चलन में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है। साथ ही
बैंकों में जमा राशि भी कम हो जाती है क्योंकि लोग जमा राशि बैंकों से निकालकर प्रतिभूतियों
का भुगतान करते हैं। इससे बैंकों की साख निर्माण शक्ति कम हो जाती है जिससे साख
मुद्रा का
संकुचन हो जाता है।
4. सरकार की कराधान प्रणाली- जब सरकार बड़ी मात्रा में कर लगाती
है तथा इस राशि को सार्वजनिक व्यय के माध्यम से व्यय नहीं करती तो देश में मुद्रा-संकुचन
की दशा उत्पन्न हो जाती है।
5. उत्पादन या पूर्ति में वृद्धि-यदि वस्तुओं की पूर्ति में निरन्तर
वृद्धि होती रहे और मुद्रा की मात्रा में उस अनुपात में वृद्धि न हो तो भी मुद्रा संकुचन
की स्थिति पैदा हो जाती है। वस्तुओं की पूर्ति में इसलिए भी वृद्धि हो जाती है। क्योंकि
या तो विदेशों से माल का आयात हो जाता है अथवा पुराने अनबिके स्टॉक बाजार में आ जाते
है।
मुद्रा-संकुचन का प्रभाव (CONSEQUENCES OF DEFALATION)
मुद्रा-संकुचन के
प्रभाव निम्नलिखित
हैं-
1. सामान्य जनता को लाभ-मुद्रा-संकुचन के कारण मूल्यों में
गिरावट आती है जिससे सामान्य जनता को लाभ होता है क्योंकि उसे सब वस्तुएँ सस्ती मिलने
लगती हैं।
2. उद्योग तथा व्यापार को धक्का-मुद्रा संकुचन से व्यापार तथा उद्योग
में मन्दी आती है जिससे व्यापारियों एवं उद्योगपतियों के पास माल के स्टॉक बढ़ जाते
हैं और हानि होने लगती है। मजदूरी की दरें कम न होने से वस्तुओं के लागत मूल्य ऊँचे
रहते हैं और भाव गिरने से माल बिकना कठिन हो जाता है। परिणामस्वरूप, अनेक व्यापारिक
एवं औद्योगिक संस्थाएँ बन्द हो जाती हैं जिससे देश की आर्थिक व्यवस्था को बहुत धक्का
लगता है।
3. कृषकों को हानि-कृषि पदार्थों के मूल्य अत्यधिक गिर
जाने के कारण किसानों को उत्पादन का मूल्य कम मिलता है जिसके फलस्वरूप उन्हें खेती
सम्बन्धी और निजी खर्च चलाने के लिए उधार लेना पड़ता है और वह ऋणग्रस्त हो जाते हैं।
4. श्रमिकों को हानि-मुद्रा-संकुचन की प्रारम्भिक स्थिति
में मूल्य गिरने से मजदूरों को लाभ होता है क्योंकि मजदूरी की दरें पहले वाले स्तर
पर बनी रहती हैं। परन्तु थोड़े समय बाद ही उद्योगपति मजदूरी घटाने लगते हैं, अनेक कारखानों
में छंटनी होने लगती है और सहस्त्रों मजदूर बेकार हो जाते हैं। इससे श्रमिकों की आर्थिक
स्थिति बिगड़ जाती है।
5. नौकरी-पेशा वर्ग को लाभ निश्चित आय वाले प्रायः सभी कर्मचारियों
को मुद्रा-संकुचन के प्रारम्भिक दिनों में लाभ रहता है क्योंकि उन्हें सभी वस्तुएँ
सस्ती मिलने लगती हैं। परन्तु धीरे-धीरे कुछ लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ता है
और अन्य को कम वेतन लेने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अतः यह लाभ, हानि में परिवर्तित
हो जाता है।
6. सरकार की आय घटना मुद्रा-संकुचन के प्रभावस्वरूप जनता की मौद्रिक
आय कम हो जाती है, और उनकी कर देने की शक्ति घट जाती है। फलतः सरकार को कर वसूली में
कठिनाई होती है। इससे सरकार की आय कम हो जाती है और सरकार का खर्च चलना मुश्किल हो
जाता है। सरकारी प्रतिभूतियों की कीमतें भी कम होने लगती हैं और सरकार को ऋण प्राप्त
करने में भी कठिनाई होती है।
7. विनियोजक वर्ग को हानि-मुद्रा-संकुचन के परिणामस्वरूप विभिन्न
प्रकार के अंश एवं प्रतिभूतियों के मूल्य गिरने लगते हैं जिससे व्यवसाय में धन लगाने
वाले व्यक्तियों को बहुत हानि होती है। अनेक विनियोजकों का दिवाला निकल जाता है।
8. बैंक-व्यवस्था को धक्का-मुद्रा-संकुचन काल में जनता के पास
मुद्रा की मात्रा बहुत कम रह जाती है। उसकी धन बचाने की शक्ति बहुत कम होती है, अतः
बैंकों में जमा रकम कम होने लगती है। कुछ लोग तो निर्वाह के लिए बैंकों से रकम निकालने
लगते हैं जिससे बैंकों की जमाएँ तेजी से गिरने लगती हैं। जिन बैंकों के तरल कोष कम
होते हैं वे बन्द हो जाते हैं और अनेक व्यक्तियों की पूँजी डूब जाती है।
मुद्रा-संकुचन से जो मन्दी का दौर आरम्भ
होता है उसके फलस्वरूप व्यापारियों द्वारा बैंकों से लिए गए ऋणों का भुगतान करना कठिन
हो जाता है और व्यापारियों के दिवाले के साथ-साथ अनेक बैंकों का भी दिवाला निकल जाता
है।
9. विदेशी व्यापार की समाप्ति-मुद्रा-संकुचन के फलस्वरूप कुछ समय
तो देश की वस्तुओं की माँग विदेशों में रहती है परन्तु मन्दी का प्रभाव धीरे-धीरे सर्वत्र
फैल जाता है और व्यापार में भी मन्दी आ जाती है। इससे विदेशी व्यापार प्रायः समाप्त
हो जाता है।
मुद्रा-स्फीति अन्यायपूर्ण है तथा मुद्रा-विस्फीति (मुद्रा-संकुचन) अनुपयुक्त
(INFLATION IS UNJUST AND DEFLATION INEXPEDIENT)
मुद्रा-स्फीति और विस्फीति के गुण-दोषों
पर विचार करने के पश्चात् यह जानना आवश्यक है कि इन दोनों में कौन-सी अवस्था अच्छी
तथा बुरी है।
मुद्रा-स्फीति का अन्यायपूर्ण होना (Inflation is Unjust)
यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय
तो पता चलेगा कि मुद्रा स्फीति अन्यायपूर्ण होती है, क्योंकि
1. इससे सामान्य जनता की क्रय-शक्ति
बहुत कम हो जाती है और उसे आवश्यकता की वस्तुएँ महँगे मूल्यों पर मिलती हैं। इतना ही नहीं,
अनेक वस्तुओं में अधिक लाभ के लालच में मिलावट होने लगती है।
2. मुद्रा-स्फीति से निश्चित आय वाले
वर्ग को बहुत हानि होती है। उनकी आय तो पहली जितनी रहती है, किन्तु वस्तुओं के मूल्य
बढ़ने से उनका नियमित खर्च चलना कठिन हो जाता है। इस प्रकार विधवाओं, पेंशन प्राप्त
करने वालों तथा वेतनभोगी वर्गों को बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
3. मुद्रा-स्फीति काल में ऋणदाता वर्ग को भी हानि होती है। उन्होंने
जिस समय रकम उधार दी थी, उस समय मुद्रा की जो क्रय-शक्ति थी वह अब नहीं रहती। अतः उन्हें
जो रकम मिलती है उसका आर्थिक महत्व कम होता है।
4. मुद्रा-स्फीति के युग में प्रायः अनेक प्रकार के अनैतिक अपराध
होने लगते हैं। चोरबाजारी, घूसखोरी, करों की चोरी तथा माल संग्रह करने की प्रवृत्तियाँ
बढ़ जाती हैं। इन सबसे सामान्य नागरिकों को बहुत कष्ट होता है। सरकारी प्रशासन पर भी
दबाव बढ़ जाता है और आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में अशान्ति एवं असन्तोष का वातावरण
उत्पन्न हो जाता है।
मुद्रा-संकुचन अनुपयुक्त (Deflation is Inexpedient)
मुद्रा-स्फीति अनेक दृष्टिकोणों से अन्यायपूर्ण होती है किन्तु
मुद्रा-विस्फीति अनावश्यक और अनुपयुक्त है। इसके निम्नलिखित कारण दिये जा सकते हैं-
1. उत्पादन में शिथिलता- मुद्रा विस्फीति के काल में वस्तुओं के मूल्य में गिरावट आने
लगती है जिससे उत्पादकों के लाभ कम हो जाते हैं। कुछ उत्पादकों को तो उत्पादन बन्द
करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इस प्रकार उत्पादन कम होने से देश की अर्थव्यवस्था
को हानि पहुँचती है।
2. बेरोजगारी-मुद्रा-विस्फीति का सबसे हानिकारक प्रभाव यह होता है कि कल-कारखाने बन्द होने
लगते हैं और अनेकानेक श्रमिक बेरोजगार हो जाते हैं। इससे समाज में व्यापक असन्तोष का
वातावरण बन जाता है।
3. भविष्य के प्रति निराशा-मुद्रा-स्फीति की तुलना में मुद्रा-संकुचन काल में अधिक निराशा
होती है। व्यापारी और उद्यमी इसलिए निराश हो जाते हैं क्योंकि कोई माल खरीदने वाला
नहीं होता। कृषक और श्रमिक वर्ग भी निराश हो जाते हैं क्योंकि कृषि उत्पादन की कीमतें
घटने लगती हैं और श्रमिक वर्ग बेरोजगारी के कारण अपनी न्यूनतम आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं कर पाते।
4. अति-उत्पादन और गरीबी का विरोधाभास मुद्रा-संकुचन काल में अर्थव्यवस्था में एक विचित्र विरोधाभास
दिखाई देता है। एक ओर गोदामों में बिना बिका माल पड़ा रहता है तथा दूसरी ओर लोगों के
पास वस्तुओं को खरीदने के लिए पैसा नहीं होता। वस्तुएँ तो सस्ती होती हैं पर लोगों
के पास क्रय-शक्ति का अभाव होता है जिससे वे अपनी अनिवार्य आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं
कर पाते।
5. संकुचन से समृद्धि की ओर जाना अधिक कठिन-संकुचन काल को इसलिए भी अनुपयुक्त कहा जाता है क्योंकि इस स्थिति
में गिरती हुई अर्थव्यवस्था को सम्भालना बहुत कठिन होता है तथा अनेक नियन्त्रण भी पतन
की स्थिति को नहीं रोक पाते। एक कारण यह भी है कि अवसाद की अवस्था समृद्धि से ज्यादा
लम्बी होती है। इस स्थिति पर वही कहावत लागू होती है कि गिरना आसान है पर गिरकर सम्भलना
मुश्किल है।
दोनों में मुद्रा-संकुचन अधिक कष्टदायक (Of the two deflation is the worse)
मुद्रा-स्फीति और मुद्रा-विस्फीति में एक बहुत बड़ा अन्तर यह
है कि मुद्रा स्फीति यदि वह साधारण गति से है तो-आर्थिक विकास के लिए सामान्यतः लाभकारी
होती है, उसमें उत्पादन को प्रोत्साहन मिलता है तथा अधिक व्यक्ति रोजगार पाने लगते
हैं। मुद्रा स्फीति की दर बढ़ जाने से कुछ वर्गों को अवश्य अत्यधिक कष्ट
होता है। किन्तु मुद्रा-विस्फीति काल
में तो वस्तुओं के मूल्य गिरने लगते हैं, उत्पादन कम होने लगता है, व्यापार तथा उद्योग
चौपट हो जाते हैं, बेरोजगारी फैल जाती है और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था निष्क्रिय एवं निर्जीव
हो जाती है।
संक्षेप में, जहाँ मुद्रा-स्फीति के कारण व्यापार, उद्योग, कृषि,
विनियोजन, बैंक-व्यवस्था तथा श्रमिक-वर्ग को लाभ होता है और देश की अर्थव्यवस्था प्रगति
की ओर अग्रसर होती जाती है वहाँ मुद्रा-संकुचन काल में व्यवसाय, उद्योग, कृषि, विनियोजन,
बैंक-व्यवसाय एवं विदेशी व्यापार में मन्दी आ जाती है। अनेक व्यक्ति बेरोजगार हो जाते
हैं और देश की अर्थव्यवस्था सर्वथा डांवाडोल हो जाती है। प्रोफेसर केन्स ने कहा है
कि "मुद्रा-स्फीति अन्यायपूर्ण है मुद्रा-संकुचन अनुपयुक्त इन दोनों में मुद्रा-संकुचन
अधिक बुरा है। इस कथन की सत्यता उपर्युक्त विवरण से सिद्ध हो जाती है।"
मुद्रा-संकुचन पर नियन्त्रण के उपाय (MEASURES TO CONTROL DEFLATION)
मुद्रा-संकुचन को नियन्त्रित करने के
लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाए जा सकते हैं-
(अ) सरकार द्वारा नीति सम्बन्धी उपाय
(Policy Measures by the Govt.)
सरकार द्वारा विस्फीति से छुटकारा पाने
के लिए कई कार्य किए जा सकते हैं-
1. नये निर्माण कार्य (New public works)- सरकार सड़क, रेल,
नहर, आदि के निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर देती है। इससे अनेक व्यक्तियों को रोजगार
मिलता है और उनकी आय में वृद्धि होती है। फलतः जनता द्वारा वस्तुओं की माँग में वृद्धि
हो जाती है और विस्फीति का प्रभाव कम होने लगता है।
2. ऋणों की वापसी (Refund of loans)- सरकार अपने द्वारा
लिए गए ऋणों को भी लौटाने लगती है जिससे जनता तथा बैंकों के पास रकम की वृद्धि हो जाती
है। इस प्रकार समाज में नई मुद्रा चलन में आने से भी विस्फीति का प्रभाव कम होता है।
3. आर्थिक सहायता (Subsidy)- विस्फीति काल में सरकार
प्रायः नये उद्योगों की स्थापना के लिए पूँजी अथवा ऋण की सहायता देने लगती है ताकि
जनता को रोजगार मिले और आय में वृद्धि हो। इससे भी संकुचन का असर कम हो जाता है।
4. करों में छूट (Exemption from Taxes)- मुद्रा-संकुचन
का प्रभाव कम करने की दृष्टि से सरकार अनेक क्षेत्रों में करों की मात्रा कम कर देती
है ताकि जनता के पास उपयोग के लिए अधिक क्रय-शक्ति हो और वह अधिक वस्तुओं की माँग कर सके।
5. निर्यातों को प्रोत्साहन (Promotion of Exports)- विस्फीति
काल में अतिरिक्त वस्तुओं की मात्रा कम करने के लिए सरकार निर्यात सम्बर्द्धन के लिए
योजना बना सकती है। इसके अन्तर्गत निर्यातों पर सस्ते ऋण, आर्थिक सहायता, आदि देने
का प्रबन्ध किया जा सकता है। इससे अतिरिक्त माल विदेशों को चला
जाता है और
मूल्य स्तर सामान्य हो जाता है।
6. सरकार द्वारा माल की खरीद (Government Purchases)- माल का निर्यात
करने के अतिरिक्त सरकार द्वारा अतिरिक्त माल खरीदा जा
सकता है ताकि उसके मूल्यों में कमी न हो। वह माल दूसरे देशों को ऋणों के रूप में दिया
जा सकता है। अमरीका द्वारा पी. एल. 480 के विक्रय इसके उदाहरण हैं।
7. विदेशी पूँजी को प्रोत्साहन (Encouragement to foreign
capital) - सरकार द्वारा विदेशियों को पूँजी विनियोग में प्रोत्साहन देने से भी विस्फीति
का प्रभाव कम हो जाता है क्योंकि नई पूँजी बाजार में आने से संकुचन की स्थिति में सुधार
होना स्वाभाविक है।
(ब) मौद्रिक उपाय (Monetary Measures)
मुद्रा-संकुचन की स्थिति को ठीक करने
के लिए केन्द्रीय बैंक मुद्रा तथा साख नीति को उदार बना सकता है। इन नीतियों में निम्नलिखित
परिवर्तन किए जा सकते हैं-
1. अधिक मुद्रा निर्गमन (Issue of more money)- कभी-कभी बैंक
द्वारा अधिक मात्रा में मुद्रा निर्गमित की जाती है जिसका अर्थ यह है कि चलन में अधिक
मुद्रा आ जाती है तथा कीमत स्तर में क्रमशः वृद्धि होने लगती है।
2. साख नीति में उदारता (Liberal Cerdit Policy)- यदि केन्द्रीय
बैंक व्यापारिक बैंकों को कम ब्याज पर (बैंक दर घटाकर) उधार देने लग जायं अथवा उधार
देने की अन्य शर्तें नरम कर दें तो व्यापारिक बैंक अधिक रकम उधार लेने लगेंगे और सरल
शर्तों पर जनता को उधार देने लगेंगे। इससे अधिक मुद्रा चलन में आ
जाएगी और मुद्रा-संकुचन
की स्थिति में पर्याप्त सुधार होगा।
3. बैंकिंग विकास में आर्थिक सहायता (Financial aid for banking
development) - यदि केन्द्रीय बैंक, व्यापारिक बैंकों को शाखा विस्तार या ऋण के विस्तार
के लिए आर्थिक सहायता देने लगे तो भी देश में (साख या उधार) का तेजी से विस्तार होगा
और संकुचन की स्थिति का अन्त करने में सहायता मिलेगी।
मंदी अथवा निस्पन्द-स्फीति अथवा गतिहीनता के साथ स्फीति
(RECESSION OR STAGFLATION)
यह स्पष्ट किया जा चुका है कि मुद्रा-प्रसार
वर्तमान की सबसे बड़ी आर्थिक समस्या है। समूचे विश्व में मुद्रा-प्रसार को नियन्त्रित
करने वाले उपायों ने कुछ नई समस्याओं को जन्म दिया है जैसे आर्थिक जड़ता तथा बेरोजगारी
तथा इनका विशेष रूप से विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर काफी दुष्प्रभाव पड़ा है।
आज विश्व के अधिकांश औद्योगिक देश एक विचित्र स्थिति में फंसे हुए हैं जहाँ आर्थिक
जड़ता तथा मुद्रा स्फीति दोनों का सह-अस्तित्व बना हुआ है। अर्थशास्त्रियों ने इस स्थिति
को नई शब्दावली (Stagflation) का नाम दिया है। हिन्दी में इसे निस्पन्द स्फीति का नाम
दिया गया है।
Stagflation शब्द दो शब्दों
Staganation तथा Inflation से मिलकर बना है जो इस बात का प्रतीक है कि अर्थव्यवस्था
में एक ओर से कीमतें बढ़ रही हैं तथा दूसरी ओर आर्थिक विकास अवरुद्ध होकर अर्थव्यवस्था
में निष्क्रियता एवं जड़ता की स्थिति आ जाती है। इस स्थिति को ही आर्थिक गतिहीनता के
साथ मुद्रा-स्फीति की स्थिति कहते हैं। प्रो. सेमुअलसन के अनुसार, "मन्दी-स्फीति
एक नई बीमारी का नाम है। इसके अन्तर्गत वस्तुओं के मूल्यों तथा मजदूरी की दरों में
वृद्धि होती है किन्तु साथ ही साथ बेरोजगारी बढ़ती है और उत्पन्न किया हुआ माल बिकना
कठिन हो जाता है।" Stagflation शब्द भी मन्दी-स्फीति का प्रतीक है जो
Stationary और Inflation से मिलकर बना है जिसका अर्थ स्थैतिक स्थिति के साथ मुद्रा-प्रसार
की स्थिति है।
जहाँ सामान्य स्फीति में महँगाई तो
बढ़ती है किन्तु साथ ही रोजगार की मात्रा भी बढ़ती है, मन्दी-स्फीति में महँगाई के
साथ बेरोजगारी बढ़ती है और माल बेचने में कठिनाई भी होती है।
मन्दी स्फीति के कारण- इसके निम्नलिखित
कारण हैं-
(1) मुद्रा की मात्रा में तीव्र गति
से वृद्धि,
(2) धनी देशों के विदेशी व्यापार में
घाटा,
(3) मजदूरी की दरों में अप्रत्याशित
वृद्धि,
(4) प्राकृतिक कारण जैसे सूखा, बाढ़,
आदि,
(5) स्वर्ण के मूल्य में अप्रत्याशित
वृद्धि।
प्रो. सेमुअलसन के अनुसार, मन्दी स्फीति
का महत्वपूर्ण कारण यह है कि एशिया और अफ्रीका के देशों में निरन्तर सूखा पड़ने एवं
बाढ़ आने से अनाज का उत्पादन कम हुआ है और मूल्यों में वृद्धि हुई हैं इसी प्रकार तेल
और कोयले की कीमत में भी वृद्धि हुई है। साथ ही रोजगार और उत्पादन की स्थिति में सुधार
हुआ है। सेमुअलसन इसे व्यष्टि आर्थिक वस्तु-स्फीति (Micro-economic Commodity
Inflation) का नाम देते हैं।
मंदी अथवा निस्पन्द-स्फीति को कैसे नियन्त्रित किया जाय ?
(HOW TO CONTROL RECESSION OR STAGFLATION?)
उपरोक्त विवरण में यह स्पष्ट कर दिया
गया है कि निस्पन्द-स्फीति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए चिन्ता का विषय है क्योंकि
इसमें मूल्यों में वृद्धि के साथ बेरोजगारी भी फैलती है और देश में एक जड़ता की स्थिति
पैदा हो जाती है। अतः इसका नियन्त्रण बहुत आवश्यक है। सामान्य रूप से इस निस्पन्द-स्फीति
को दूर करने के लिए वही उपाय अपनाए जाने चाहिए जो मुद्रा स्फीति को नियन्त्रित करने
हेतु अपनाए जाते हैं किन्तु इस बात का विशेष ध्यान रखने की जरूरत है कि इन उपायों से
अर्थव्यवस्था में गतिशीलता पैदा हो तथा कीमतों पर भी नियन्त्रण हो। संक्षेप में इनका
विवेचन इस प्रकार है-
1. उत्पादन में वृद्धि-उत्पादन में ऐसी विधियों का प्रयोग
किया जाना चाहिए जिससे एक ओर उत्पादन में तो वृद्धि हो किन्तु उससे रोजगार पर कोई प्रतिकूल
प्रभाव न पड़े। अर्थात् बेरोजगारी की स्थिति में ऐसी पूँजी गहन तकनीक नहीं अपनाई जानी
चाहिए जिससे बेरोजगारी बढ़े।
2. आर्थिक विकास जनित समष्टि आर्थिक
नीति- अर्थव्यवस्था में ऐसी समष्टि आर्थिक नीति(Macro- economic Policy) अपनाई जानी
चाहिए जिससे द्रुत आर्थिक विकास हो एवं अर्थव्यवस्था की उत्पादक शक्ति में वृद्धि हो
जिससे अधिक वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन किया जा सके। ऐसे आर्थिक विकास से अर्थव्यवस्था
में जड़ता की स्थिति दूर होगी जिससे लोगों का जीवन स्तर ऊँचा हो तथा आर्थिक असमानता
समाप्त हो।
3. मुद्रा-स्फीति पर कठोर नियन्त्रण-आर्थिक विकास के उपायों के साथ यह भी आवश्यक है कि कीमतों के
बढ़ने पर कठोर नियन्त्रण रखा जाय। इसके लिए सरकार को एक उचित मौद्रिक नीति अपनानी चाहिए
तथा इसे सफल बनाने के लिए राजस्व नीति का भी सहारा लेना चाहिए।
4. भुगतान सन्तुलन बनाए रखना- विशेष रूप से अल्प विकसित देशों को भुगतान सन्तुलन पर कड़ी
नजर रखनी चाहिए क्योंकि प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन के कारण देश के उत्पादन पर प्रतिकूल
प्रभाव पड़ता है। इसके लिए आवश्यक है कि निर्यातों में वृद्धि के उपाय किए जावें तथा
आयातों पर नियन्त्रण लगाया जाय।
5. देश के साधनों का दोहन-उत्पादन वृद्धि के लिए आयातित साधनों पर निर्भर न रहकर देश
के ही साधनों का पूर्ण दोहन किया जाना चाहिए। इससे यह लाभ होगा कि आयातों पर भारी व्यय
नहीं करना पड़ेगा और देश के साधनों का सही उपयोग होगा। इस प्रकार देश में रोजगार की
मात्रा को भी बढ़ाया जा सकता है।
6. विनियोग की सही नीति-आर्थिक जड़ता की स्थिति विशेष रूप से विकासशील देशों में पाई
जाती है। जहाँ या तो विनियोग के लिए पर्याप्त पूँजी उपलब्ध नहीं होती अथवा विनियोग
का सही मापदण्ड नहीं अपनाया जाता। अतः यह आवश्यक है कि बचत के माध्यम से पूँजी का संग्रह
कर उसका विनियोग इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे शीघ्र प्रतिफल प्राप्त हो सके।
उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त जनसंख्या का नियन्त्रण, श्रमिकों का प्रशिक्षण, बैंकिंग संस्थाओं का विस्तार, आदि ऐसे उपाय हैं जिससे निस्पन्द स्फीति को रोका जा सके।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)