स्फीतिक अन्तर (Inflationary Gap)

स्फीतिक अन्तर (Inflationary Gap)

स्फीतिक अन्तर (Inflationary Gap)

प्रश्न- स्फीति अंतर से प क्या समझते हैं? क्या यह आलोचना से मुक्त है? नियंत्रण के उपाय बताऐ।

उत्तर- मुद्रा स्फीति की व्याख्या में लार्ड केन्स ने स्फीतिक - अंतर की धारणा का प्रतिपादन 1940 में प्रकाशित अपनी पुस्तिका 'How to pay for the war' में किया। स्फीतिक अंतर का विचार उ स्थिती को निरूपित करता है जिसमें मुद्रा स्फीति के पूर्व की कीमतों पर आ का ह भाग जिसे व्यय रने की संभावना होती है, उपलब्ध उत्पादन अथवा पूर्ति की मात्रा के मौद्रिक मूल्य से अधिक होता है। के. के. कुरिहारा ने अपने पुस्तक Monetary theory and policy में लिखा है "सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए स्फीति जनक अन्तर का मतलब है आधार मूल्यों पर उपलब्ध उत्पादन की मात्रा से प्रत्याशित व्यय का अधिक होना "।

स्फीति का अंतर समाज की संभावित प्रभावपूर्ण माँग तथा स्थिर कीमतों पर उपलब्ध उत्पादन की मात्रा के बीच अंतर को व्यक्त करता है। इस प्रकार

शुद्ध व्यय योग्य आय = कुल मौद्रिक य- (कर+बचत)

जब समाज द्वारा संभावित अथवा नियोजित व्यय की मात्रा कुल उपलब्ध उत्पादन के मूल्य से अधिक होती है तो स्फीति अंतर उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार।

स्फीतिक अन्तराल = nYd - cYp

जहाँ, nYd = शुद्ध व्यय योग्य आय

cYp = उपलब्ध उत्पादन

उपर्युक्त सूत्रों से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में कुल व्यय योग्य आय एवं उत्पादन की उपलब्ध मात्रा की अंतर ही स्फीतिजनक अन्तराल कहलाता है।

किसी अर्थव्यवस्था में स्फीतिजनक अंतराल तब आरम्भ होता है जब सरकारी व्यय और निजी विनियोग में अत्याधिक वृद्धि के कारण लोगो की आय बढ़ जाती है। ऐसी स्थिती प्रायः युद्धकालीन अवधि में अधिक देखने को मिलता है। अब चूंकि इस अवस्था में अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार की स्थिति में होता है इसलिए उत्पादन में वृद्धि सम्भव नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप आय अधिक और उत्पादन कम व स्थिर रहती है जिससे स्फीतिजनअन्तराल उत्पन्न हो जाता है अतः स्फीतिजनक अन्तराल अर्थव्यवस्था की अतिरिक्त मांग का परिणाम है।

प्रो. केन्स ने इंगलैंड के लिए मोटा-मोटी आंकडों का व्यवहार करते हुए स्फीति जनक अन्तर की व्याख्या की है। जिसे एक तालिका द्वारा अधिक स्पष्ट किया जा सकता है

स्फीतिक अन्तर (Inflationary Gap)

चूंकि शुद्ध व्यय योग्य आय(nYd) = 3900

उपलब्ध उत्पादन (cYp) = 3250

इसलिए  स्फीति अन्तराल = nYd - cYp = 3900 - 3250 = 650

प्रो. के. के. कुरिहारा ने अपनी पुस्तक "Monetary Theory and Public Policy" में उपभोग विनियोग पर आधारित चित्रों द्वारा स्फीति अन्तर की व्याख्या की है और अपनी दूसरी पुस्तक "Introduction to Keynesian Dynamics" मेचत विनियोग पर आधारित चित्रों के माध्यम से स्फीति अन्तर की व्याख्या की है।

स्फीतिक अन्तर (Inflationary Gap)

उपर्युक्त रेखा चित्र में OY अक्ष पर उपभोग एवं निवेश को दिखलाया गया है और OX अक्ष पर आको 45° रेखा को शून्य बचत रेखा कहते हैं, क्योंकि यह रेखा यह बताती है की सम्पूर्ण आय को उपभोग पर खर्च कर दिया जाता है अर्थात् C=  Y है। C रेखा उपभोग रेखा है। C+I रेखा व्यय की मात्रा को बताती है जिसे उपभोग एवं विनियोग पर खर्च किया जाता है। चूँकि कुल आय उपभोग और विनियोग का योग होती है अतः C+I रेखा तथा C=Y रेखा के E° बिन्दु पर मिलने से OY° संतुलन आय प्राप्त होती है जिसे पूर्ण रोजगार की स्थिति में कुल उत्पादन का मूल्य भी कहा जा सकता है।

अब यदि उपभोक्ता सरकार एवं विनियोगकर्ता पहले से अधिक खर्च रते है तो C+I रेखा ऊपर की ओर उठ जायेगी। जिसे C'+I' रेखा द्वारा दिखाया गया है। यहाँ संतुलन बिन्दु E' होगा क्योंकि C'+I' रेखा C=Y रेखा को इसी बिन्दु पर काटती है। इससे आ में वृद्धि OY' हो जाऐगी। जबकि उपलब्ध राष्ट्रीय उत्पादन E°Y° है जो कि E'Y' से कम है,

इसलिए स्फीति जनक अन्तर = E'Y' - E°Y° होगा ।

प्रो. कुरिहारा के अनुसार "पूर्ण रोजगार की स्थिति में यदि इच्छित विनियोग, इच्छित बचत से अधिक हो जाय तो स्फीति-जनक अन्तर का सृजन होगा । बचत से विनियोग अधिक होने पर मौद्रिक आय में जो वृद्धि होगी उससे उत्पादन में वृद्धि न होकर मूल्यों में वृद्धि होगी और स्फीति जनक अन्तर प्रकट हो जाएगा। इसे चित्र द्वारा स्पष्ट किया गया है-

स्फीतिक अन्तर (Inflationary Gap)

चित्र में I तथा S के बीच के संतुलन द्वारा OY° वास्तविक आय अथवा उत्पादन का सृजन होता है। मान लिया कि विनियोग में वृद्धि होती है।

I' नयी विनियोग रेखा है। उपभोग प्रवृत्ति के स्थिर रहने के कारण बचत प्रवृत्ति भी स्थिर रहती है। विनियोग के बढ़ने के कारण आ ढ़कर Y' अवा E'Y' हो जाती है लेकिन कुल उत्पादन तो E°Y° ही रहता है। जि मात्रा में विनियोग के कारण य में वृद्धि होती है उसी मात्रा में मूल्यों में वृद्धि होती है। चित्र में तीर चिन्ह् द्वारा स्फीति अन्तर को दिखलाया गया है। स्फीति अन्तराल = E'Y' - E°Y° होगा

पूर्ण रोजगार की अवस्था में यदि विनियोग में किसी प्रकार की वृद्धि हो, लेकिन उपभोग प्रवृत्ति के ब़ने पर बचत पहले से कम हो जाय तो स्फीति अन्तर का सृजन होगा।

स्फीतिक अन्तर (Inflationary Gap)

S तथा I के बीच E° पर संतुलन होता है। OY° अथवा E°Y° आय एवं वास्तविक उत्पादन होगा। मान लिया कि बचत घटकर S' हो जाती है। इस अवस्था में विनियोग बचत से अधिक हो जाएगा। जितनी मात्रा विनियोग की अधिक होगी उतनी ही मूल्यों में वृद्धि होगी अर्थात् बचत एवं विनियोग का अन्तर ही स्फीति अन्तर होगा।

स्फीति अंतराल कैसे समाप्त किया जा सकता है ?

स्फीति अंतराल को निम्न उपायों से समाप्त किया जा सकता है।

प्रथम, बचतों को इस तरह बढ़ाकर कि समस्त मांग घट जाय, स्फीति अन्तराल समाप्त किया जा सकता है। लेकिन यह अवस्फीतिकारी प्रवृत्तियां ला सकती है।

दूसरा हल यह है कि उपलब्ध उत्पादन का मूल्य बढ़ाकर उसे प्रयोज्य (disposable) आके बराबर कर दिया जाय। जब समस्त मांग बढ़ती है तो व्यवसायी उत्पादन बढ़ाने के लिए ज्यादा श्रमिक लगाता है। लेकिन वहां वर्तमान मुद्रा मजदूरी पर पूर्ण रोजगार होने के कारण, वे अपने साथ काम करने के लिए अधिक श्रमिकों को प्रेरित करने के लिए अधिक मुद्रा मजदूरी देते हैं। चूंकि वहां पहले से ही पूर्ण रोजगार होता है, इसलिए मुद्रा मजदूरियों में वृद्धि कीमतों में आनुपातिक वृद्धि लाती है।

तीसरा, अल्पकाल में उत्पादन को बढ़ाया नहीं जा सकता, क्योंकि साधन पहले से ही पूर्ण रोजगार के स्तर पर होते हैं।

चौथा, इसलिए स्फीति अन्तराल कराधान बढ़ाकर एवं व्यय को कम करके समाप्त किया जा सकता है। मौद्रिक नीति का भी प्रयोग मुद्रा कोष को घटाने के लिए किया जा सकता है। लेकिन केन्ज अर्थव्यवस्था के भीतर स्फीतिकारी दबावों को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक उपाय के पक्ष में नहीं थे।

आलोचनाएं

फ्रीडमैन' कूपमैन्ज, सलाण्ट तथा अन्य अर्थशास्त्रियों ने स्फीति अन्तराल धारणा की आलोचना की है।

1. स्फीति अन्तराल विषयक विश्लेषण इस मान्यता पर आधारित है कि पूर्ण रोजगार कीमतें ऊपर की ओर लचीली होती हैं। दूसरे शब्दों में, वे बाजार में वस्तुओं की अति मांग के प्रति संवेदनशील होती हैं। इसकी यह मान्यता भी है कि जब कीमतें बढ़ रही हों तो मुद्रा-मजदूरी निश्चल (sticky) होती है परन्तु GNP में लाभों का भाग बढ़ जाता है। इसलिए यह धारणा अति-मांग स्फीति से सम्बद्ध है जिसमें लाभ-स्फीति विद्यमान रहती है। इसके परिणामस्वरूप, मांग तथा लागत स्फीतियां मिश्रित हो गई हैं।

2. बैण्ट हैन्सन में केन्ज़ की इस बात के लिए आलोचना की है कि उसने स्फीति अन्तराल को केवल वस्तु बाजार तक सीमित कर दिया है और साधन बाजार के कार्यभाग की उपेक्षा की है। हैन्सन के मतानुसार, स्फीति अन्तराल वस्तु बाजार में और साधन बाजार में अति-मांग का परिणाम होता है।

3. स्फीति अन्तराल विश्लेषण स्थैतिक है परन्तु स्फीतिकारी घटनाएं गत्यात्मक होती हैं। केन्ज़ ने उन्हें गत्यात्मक बनाने के लिए स्वयं सुझाव दिया था कि आय की प्राप्तियों और व्ययों से संबंधित समय अंतर या पश्चताएं शामिल किए जाएं। कूपमैन्ज ने पश्चतायों (lags) तथा समय की प्रति इकाई कीमत वृद्धि की दर के बीच संबंधों का विकास किया है। उसने व्यय पश्चतायों एवं मजदूरी-समायोजन पश्चतायों की सहायता से दिखाया है कि स्फीति की गति थोड़ी हो जाती है अर्थात् स्फीति अन्तराल कम हो जाता है।

4. होल्जमैन ने पूर्ण रोजगार स्थिति पर गुणक तकनीक को लागू करने के लिए केन्ज़ की आलोचना की है। उसके अनुसार, पूर्ण रोजगार और स्फीति की अवधियों में गुणक तकनीक पर्याप्त नहीं है। यह आय वितरण में परिवर्तनों को पृथक करता है। पूर्ण रोजगार की स्थिति में, राष्ट्रीय उत्पाद में एक वर्ग का हिस्सा केवल किसी दूसरे की कीमत पर ही बढ़ाया जा सकता है।

5. स्फीति अन्तराल की एक और कमी यह है कि वह इस तरह की प्रवाह धारणाओं से सम्बद्ध है जैस चाल आय, व्यय, उपभोग और बचत। वास्तव में, पूर्ण रोजगार स्तर पर कीमतों का बढ़ना केवल चालू वस्तुओं की कीमतों तक ही सीमित नहीं होता। फिर, क्योंकि प्रयोज्य आय चालू आय तथा करों का अन्तर होती है, इसलिए हो सकता है कि प्रयोज्य आय में पिछली अवधियों की आय से निष्क्रिय शेष भी सम्मिलित हों।

महत्व

इन आलोचनाओं के बावजूद, पूर्ण रोजगार स्तर पर बढ़ती कीमतों और स्फीति नियंत्रण के नीति उपायों की व्याख्या करने में स्फीति अन्तराल की धारणा बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई है।

1. स्फीति अंतराल की धारणा वस्तु मार्के से संबद्ध है। यह बताती है कि मुद्रा का स्फीति के साथ कोई विशेष संबंध नहीं है अर्थात् यह सुझाव नहीं देती कि मुद्रा पूर्ति में वृद्धि स्फीति अंतराल का कारण है, बल्कि व्यय के बढ़ने को स्फीति अंतराल का कारण बताती है।

2. यह धारणा बताती है कि जब एक बार पूर्ण रोजगार का स्तर आ जाता है तो बढ़े हुए व्यय द्वारा उत्पन्न अति मांग के कारण कीमतें बढ़ती हैं। परन्तु उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता क्योंकि अर्थ- व्यवस्था में सब संसाधन पूर्णरूप से रोजगार पर लगे हैं। इससे स्फीति आती है। व्यय जितना ही अधिक होगा, अन्तराल भी उतना ही बड़ा होगा और स्फीति की गति भी उतनी ही अधिक तेज होगी।

3. नीति उपाय के रूप में यह धारणा सुझाव देती है कि स्फीति को नियंत्रित करने के लिए समस्त मांग घटानी चाहिए। इसके लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि कर बढाकर बचत का बजट तैयार किया जाए। यह इस बात के भी पक्ष में है कि उपभोग व्यय घटाने के लिए बचतों को प्रोत्साहन दिया जाए। 'राष्ट्रीय आय, निवेश व्ययों तथा उपभोग व्ययों जैसे समूहों की शब्दावली में स्फीति अन्तराल का विश्लेषण स्पष्ट रूप से यह बताता है कि करों, सार्वजनिक व्ययों, बचत आन्दोलनों, साख नियंत्रण, मजदूरी समायोजन से संबंधित सार्वजनिक नीति को कौन निर्धारित करता है? संक्षेप में यह वे सब विचारणीय प्रति-स्फीति (anti-inflationary) उपाय बताता है जो उपभोग प्रवृत्ति, बचत प्रवृत्ति तथा निवेश प्रवृत्ति को प्रभावित करते हैं जो (प्रवृत्तियां) इकट्ठी मिलकर सामान्य कीमत-स्तर को निर्धारित करती हैं।

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