Class XI Psychology (T2) Answers Key 2022

Class XI Psychology (T2) Answers Key 2022

 

Section - A

खण्ड क

( अति लघु उत्तरीय प्रश्न )

किन्हीं पाँच प्रश्नों के उत्तर दें।

1. कौशल सीखना क्या है ?

उत्तर: कौशल सीखना कला है, कौशल विकास से ही मानव अपने जीवन को संवार सकता है, क्योंकि जब व्यक्ति किसी कार्य विशेष में पूर्ण रूप से दक्ष हो जाता है तो उसका ये कौशल उसे रोजगार प्राप्ति का मार्ग सुगम बनाता है। वह जीवन में सफलता पाने के अधिक नजदीक हो जाता है। इसलिये कौशल सीखना एक कला है, इसमें जरा भी संशय नहीं है।

2. निरीक्षणात्मक सीखना क्या है ?

उत्तर: निरीक्षण विधि का उपयोग छोटे बच्चों और शिशुओं की समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है। बाल मनोविज्ञान के समस्याओं के अध्ययन में इस विधि का सर्वप्रथम उपयोग जर्मनी में हुआ। अमेरिका में वाटसन ने इस विधि का उपयोग बालकों के प्राथमिक संवेगो के अध्ययन में किया।

3. भूलना किसे कहते हैं ?

उत्तर: विस्मरण या भूलना वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें स्मरण या सीखने की प्रक्रिया के अन्तर्गत बने सम्बन्ध क्षीण हो जाते हैं।

4. दीर्घकालीन स्मरण किसे कहते हैं ?

उत्तर: दीर्घकालिक स्मृति एक प्रकार की स्मृति है जो लम्बे समय तक स्मृति को सहेजे रखती है। यदि आप कुछ वर्षो या महीनों की कोई भी स्मृति याद रखते हैं या कोई बड़ी जानकारी तो वह सभी दीर्घकालिक स्मृति में आती है। यह लम्बे समय तक अनगिनत जानकारी याद रख सकती है।

5. निर्णय करना क्या है ?

उत्तर: निर्णयन (डिसिजन मेकिंग) का शाब्दिक अर्थ अन्तिम परिणाम तक पहुँचने से लगाया जाता है , जबकि व्यावहारिक दृष्टिकोण से इसका आशय निष्कर्ष पर पहुँचने से है। डॉ॰ जे .सी. ग्लोवर के अनुसार, चुने हुए विकल्पों में से किसी एक के सम्बन्ध में निर्णय करना ही निर्णयन है।

6. चिन्तन क्या है ?

उत्तर: चिन्तन एक उच्च ज्ञानात्मक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा ज्ञान संगठित होता है। इस मानसिक प्रक्रिया में स्मृति, कल्पना आदि मानसिक प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। मानवीय जीवन समस्याओं से भरा हुआ है।

7. नकारात्मक संवेग क्या है ?

उत्तर: इस प्रकार के संवेग को दुखकर या कष्टकर संवेग भी कहते हैं । इन्हें दुःखदायी या कष्टदायक अनुभूति होती है।

उदाहरण के लिए क्रोध, चिन्ता, घृणा, ईष्या, भय आदि ।

Section - B खण्ड-ख

( लघु उत्तरीय प्रश्न )

किन्हीं पाँच प्रश्नों के उत्तर दें।

8. सीखने की विशेषताओं को लिखें।

उत्तर: सीखने की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -

1. सीखना लगातार चलने वाली प्रक्रिया है: सीखना एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। यह कभी समाप्त नहीं‌होती। गर्भावस्था से प्रारम्भ होकर यह मृत्यु तक चलती रहती है, यद्यपि कुछ अवस्थाओं में इसकी गति कम अथवा अधिक हो सकती है।

2. सीखना व्यवहार में परिवर्तन है: विद्वानों ने परिवर्तन की प्रक्रिया को मानव के व्यवहार में परिवर्तन के रूप को स्वीकार किया है। मानव समाज के अन्य व्यक्तियों एवं परिस्थितियों के सम्पर्क में आता है तथा उनसे प्रभावित होता है जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन आने प्रारम्भ हो जाते हैं। यही परिवर्तन उसके सीखने की प्रक्रिया है।

3. सीखना अनुकूलन है: व्यक्ति का अपने सामाजिक वातावरण से अनुकूलन करना सीखना है। व्यक्ति को समाज में रहते हुए वातावरण से अनुकूलन करना होता है। व्यक्ति की सीखने की शक्ति जितनी अधिक होती है उतनी ही तीव्रता से वह परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करता है। सीखने के पश्चात् ही उसमें परिस्थितियों से अनुकूलन करने की क्षमता आती है। अत: विद्वान मानते हैं कि सीखना ही अनुकूलन है।

4. सीख सार्वभौमिक है: सीखना एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। यह केवल व्यक्तियों में ही नहीं बल्कि सभी जीव जन्तुओं एवं प्राणियों में भी होती है। सीखने का कोई निश्चित स्थान व अवस्था नहीं होती है बल्कि मानव प्रत्येक स्थान, जैसे परिवार, विद्यालय, पड़ोस, रेलवे स्टेशन, बाजार आदि सभी जगह सीखता है। अत: यह एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है।

5. सीखने की प्रक्रिया उद्देश्यपूर्ण: सीखने की प्रक्रिया उद्देश्यपूर्ण एवं कोई न कोई प्रयोजन लिए हुए होती है। किसी उद्देश्य अथवा प्रयोजन से प्रेरित होकर ही बालक सीखने की ओर अग्रसर होता है।

6. सीखना ज्ञान का संचय: सीखने से बालक के ज्ञान में वृद्धि होती है इसलिए कहा जाता है कि सीखना ज्ञान का संचय है। ज्ञान का संचय कर बालक अपने बौद्धिक एवं संवेगात्मक व्यवहार पर नियन्त्रण करना सीखता है और जो कार्य उसके लिए पहले कठिन था वह सीखने के बाद सरल हो जाता है।

7. सीखना सक्रिय होता है: सीखने की प्रक्रिया एक सक्रिय प्रक्रिया है। निर्जीव प्रक्रिया नहीं। सीखने के लिए बालक का सक्रिय होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि वह सक्रिय होकर सीखने की प्रक्रिया में भाग नहीं लेता तो वह सीख नहीं पाता है।

9. अल्पकालीन स्मरण की विशेषताओं को लिखें।

उत्तर: अल्पकालिक स्मृति के संबंध में जो अध्ययन किये गये, उनके आधार पर इसकी निम्न मुख्य विशेषताओं की जानकारी प्राप्त हुई, जिनका विवरण निम्नलिखित हैं-

1. अति अल्प सत्ति काल : अल्पकालिक स्मृति में सत्ताकाल (Duration) अति अल्प होता हैं। यह स्मृति बहुत ही कम अवधि के लिये होती हैं। अधिकांशतः मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह स्मृति केवल कुछ ही सेकण्ड के लिये होती है और फिर समाप्त हो जाती हैं।

2. सीमित स्मृति विस्तार: अल्पकालिक स्मृति में सीमित स्मृति विस्तार होता हैं। चैपलिन के अनुसार, अल्पकालिक स्मृति का स्मृति विस्तार 5 से लेकर 9 एकांश तक होता हैं।

3. रिहर्सल का अभाव : अल्पकालिक स्मृति में सूचनाओं के आदान-प्रदान की प्रक्रिया इतनी तीव्र गति से होती हैं कि रिहर्सल असंभव हो जाता हैं अतः अल्पकालिक स्मृति में रिहर्सल का अभाव होता हैं।

4. विघटन की संभावना : अल्पकालिक स्मृति में विघटन की संभावाना अधिक होती हैं क्योंकि इस प्रकार की स्मृति में सूचनायें सरलता से भंग हो जाती हैं।

5. अकूटबद्ध सूचनायें : अल्पकालिक स्मृति की सूचनायें अकूटबद्ध (Uncoded) होती हैं। जब संवेदी सूचनायें अल्पकालिक स्मृति के अंदर आती हैं तो वे असम्बद्ध तथा अकूटबद्ध होती हैं तथा वे वहाँ अधिक समय तक न रूकते हुये कुछ ही सेकण्ड बाद या तो बाहर निकल कर समाप्त हो जाती हैं या दीर्घकालिक स्मृति में चली जाती हैं।

6. धारणा में द्रुत ह्रास : अल्पकालिक स्मृति के विस्मरण की गति अपेक्षाकृत तीव्र होती हैं क्योंकि इनमें संचयन तथा कूट संकेतन की प्रक्रियाएँ सन्निहित नहीं होती हैं। पेटरसन एवं पेटरसन (1959) के प्रयोग से इस कथन को समर्थन मिलता हैं।

7. प्रयासों के बीच अन्तराल : यह भी पाया गया है कि यदि प्रयासों के बीच अन्तराल दीर्घ हो तो अल्पकालिक स्मृति अधिक प्राप्त होती हैं। इससे स्मृति चिन्हों को संगठित होने का अवसर मिलता है और धारणा-प्रतिशत बढ़ता हैं।

8. अवरोध का प्रभाव : अल्पकालिक स्मृति पर अग्रोन्मुख एवं पृष्ठोन्मुख अवरोध का भी प्रभाव पड़ता हैं। मरडाॅक (1961) ने इसी आधार पर पिटरसन एवं पिटरसन (1959) के प्रयोग पर आपत्ति की थी। अण्डरवुड (1962) के भी अध्ययन से इसकी पुष्टि होती हैं।

9. अल्पकालिक स्मृति में अभ्यास से वृद्धि : अल्पकालिक स्मृति की मात्रा में अभ्यास के अवसर बढ़ने से वृद्धि होती हैं। इसमें प्रत्यक्ष अभ्यास एवं अव्यक्त अभ्यास (Mental rehearsal) दोनों सहायक माने गये हैं। पिटरसन एवं पिटरसन के प्रारंभिक प्रयोग, एबिंगहास (1913), पोस्पमैन (1962) तथा हेयलर (1962), के परिणाम इसकी पुष्टि करते हैं।

10. सीखने की पूर्ण अथवा अंश-विधि किसे कहते हैं ?

उत्तर: जब व्यक्ति पूरे कार्य को एक साथ करके सीखता है तो उसे पूर्ण विधि कहते हैं और जब वह पूरे कार्य को कई खण्डों/अंशों में बाँटकर प्रत्येक अंश को एक-दूसरे के बाद सीखता है तो उसे अंश विधि कहा जाता है।

11. पृष्ठोन्मुख प्रावरोध क्या है ?

उत्तर: धारण अन्तराल में जब व्यक्ति किसी ने पाठ को सीखता है तो इसका प्रभाव मौलिक विषय के स्मृति चिह्न कमजोर पड़ जाते हैं और उनका विस्मरण हो जाता हैं, अतः बाद के सीखने द्वारा सीखें गए मौलिक विषय के धारण में उत्पन्न अवरोधक प्रभाव को पृष्ठोन्मुख अवरोध कहा जाता हैं!

अंडरउड ने पृष्ठोन्मुख अवरोध को इस प्रकार परिभाषित किया है-

"मौलिक सीखना तथा उसकी धारण की जांच के बीच में हुए दूसरे प्रकार की सीखना से मौलिक विषय की धारणा में उत्पन्न कमी को पृष्ठोन्मुख अवरोध कहा जाता हैं!"

12. भूलना (विस्मरण) के स्वरूप को लिखें।

उत्तर: विस्मृति या विस्मरण के दो स्वरूप हैं-

(अ) सैद्धान्तिक स्वरूप : बाधा, दमन और अनभ्यास के सिद्धान्त।

(ब) सामान्य स्वरूप : समय का प्रभाव, रुचि का अभाव, विषय की मात्रा इत्यादि। हम इन कारणों का क्रमबद्ध वर्णन नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं--

1. बाधा का सिद्धान्त : इस सिद्धान्त के अनुसार यदि हम एक पाठ को याद करने के बाद दूसरा पाठ याद करने लगते हैं तो हमारे मस्तिष्क में पहले पाठ के स्मृति चिन्हों (Memory Traces) में बाधा पड़ती है। फलस्वरूप वे निर्वल होते चले जाते हैं और हम पहले पाठ को भूल जाते हैं।

2. दमन का सिद्धान्त : इस सिद्धान्त के अनुसार हम दुःखद और अपमानजनक घटनाओं को याद नहीं रखना चाहते हैं अतः हम उनका दमन करते हैं। परिणामतः वे हमारे अचेतन मन में चली जाती है और हम उनको भूल जाते हैं ।

3. अनभ्यास का सिद्धान्त : थार्नडाइक एवं एविंगहॉस (Thorndike | and Ebbbinghaus) ने विस्मृति का कारण अभ्यास का अभाव बताया है। यदि हम सीखी हुई बात का बार-बार अभ्यास नहीं करते हैं, तो हम उसको भूल जाते हैं।

4. समय का प्रभाव : हैरिस (Harris) के अनुसार, सीखी हुई बात पर समय का प्रभाव पड़ता है। अधिक समय पहले सीखी हुई बात अधिक, और कम समय पहले सीखी हुए बात कम भूलती है।

5. रुचि, ध्यान व इच्छा का अभाव : जिस कार्य को हम जितनी कम रुचि, ध्यान और इच्छा से सीखते हैं, उतनी ही जल्दी हम उसको भूलते हैं। स्टाउट के अनुसार,"  जिन बातों के प्रति हमारा ध्यान रहता है, उन्हें हम स्मरण रखते हैं।"

6. विषय का स्वरूप : हमें सरल, सार्थक और लाभप्रद बातें बहुत समय तक स्मरण रहती हैं। इसके विपरीत, हम कठिन, निरर्थक और हानिप्रद बातों को शीघ्र ही भूल जाते हैं। मर्सेल (Mursell) के अनुसार," निरर्थक विषय की तुलना में सार्थक विषय का विस्मरण बहुत धीरे-धीरे होता है।"

7. विषय की मात्रा : विस्मरण, विषय की मात्रा के कारण भी होता है। हम छोटे विषय को देर में, लम्बे विषय को जल्दी भूलते हैं।

13. निर्णय में सन्निहित अवस्थाओं (चरणों) को लिखें।

उत्तर: निर्णय प्रक्रिया के विभिन्न चरण

1. समस्या को पहचानना, समझना और स्वीकारना- निर्णय प्रक्रिया का पहला चरण समस्या को पहचानना, समझना तथा स्वीकार करना है। इसका दूसरा अर्थ यह हुआ कि समस्या और समस्याहीनता की स्थिति में अन्तर करना। प्रशासन में यह एक बड़ी दुविधा होती है कि किसे समस्या माना जाय और किसे सामान्यता। समस्या को पहचानना और स्वीकार करना अपने आप में अनेक प्रश्नों को जन्म देता है, जैसे-(i) यह समस्या लगती है अथवा है? (2) क्या समस्या स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है अथवा अन्य समस्याओं से उलझी हुई है? (3) क्या समस्या को देखते समय निर्णयकर्ता अपनी समस्याएँ तो उसमें नहीं डाल रहा है? (4) क्या समस्या को देखते समय इस बात का ध्यान रखा गया है कि संगठन के किस स्तर पर समस्या को देखा अथवा समझा जाना चाहिए?

2. समस्या के इतिहास को पहचानना- प्रथम चरण का दूसरा उपचरण समस्या के इतिहास को पहचानना है। ऐसी कितनी ही समस्याएँ होती हैं जो पूर्व निर्णयों और निष्कर्षों से जन्म लेती हैं। समस्या का इतिहास स्थितियों से पूर्ण अनुभव तथा स्थिति का निरन्तर विकास एवं बदली हुई स्थिति को समझने में सहायता करता है। यह सच है कि ऐतिहासिक ज्ञान किसी भी प्रशासनिक समस्या की नवीनता एवं अद्भुतता का परिचय नहीं देता किन्तु समस्या के इतिहास से परिचित निर्णयकर्त्ता एक विशेष लाभदायक स्थिति में रहता है, जहाँ से वह पुरानी और नयी स्थितियों की तुलना द्वारा समस्या की गम्भीरता, जटिलता एवं अन्तः निर्भरताओं को सरलता से समझ सकता है।

3. समस्या से उत्पन्न स्थिति का सर्वेक्षण करना- यह सर्वेक्षण निर्णयकर्ता को इस दृष्टि से सहायता देता है कि वह यह समझ सके कि स्थिति किस प्रकार की है। समस्या स्पष्ट रूप से क्या चेतावनी देती है? समस्या में कौन-कौन सी नयी और अद्भुत बातें हैं? समस्या का संगठनात्मक प्रभाव किन-किन बातों पर और कितना गहरा होगा ? इत्यादि ।

4. समस्या की भावी दिशाओं तथा नये क्षितिजों का अन्वेषण- प्रथम चरण का चतुर्थ उपचरण समस्या की भावी दिशाओं तथा नये क्षितिजों का अन्वेषण है। ऐसा करते समय निर्णयकर्त्ता स्थिति का विश्लेषण करने का प्रयास करता है और उसमें स्वयं सक्रिय भाग लेने लगता है। कल्पित तथ्यों और मूल्यों की अपनी तस्वीर से बस यह पहचानने का प्रयास करता है कि संगठन के उद्देश्य इस निर्णय के कितने उत्प्रेरक हैं अथवा रहेंगे। कौन-कौन सी क्रिया प्रतिक्रियाएँ बिन्दुओं को जन्म देंगी? क्या निर्णय आगे की निर्णय प्रक्रिया को गम्भीर मोड़ दे सकेगा? निर्णय की अनुपालना किस स्तर पर होगी और कौन-कौन से व्यक्ति अमुक निर्णय से किस सीमा तक प्रभावित होंगे?

5. तथ्यों का मूल्यांकन- दूसरे चरण का द्वितीय उपचरण तथ्यों का मूल्यांकन करना है। एक तथ्य, तथ्य होता है। यह कथन इसलिए सही नहीं है कि देखने वालों की मानसिक दृष्टि विकल्पों को एक ही प्रकार से नहीं देखती। तथ्यों का मूल्यांकन करते समय किसी भी निर्णयकर्त्ता के लिए यह आवश्यक है कि तथ्य संग्रह की सारी विशेष सतर्कताएँ बरतने के बाद वह अपने तथ्यों को निम्न प्रश्नों के सन्दर्भ में देखे और जाँचें।

6. निर्णय प्रक्रिया का तीसरा और अन्तिम चरण है, विकल्पों का चयन -यद्यपि प्रत्येक संगठन और प्रत्येक निर्णयकर्त्ता के साथ इस चयन की कसौटी में कुछ-न-कुछ परिवर्तन होना अनिवार्य है, किन्तु प्रशासन के सामान्य सिद्धान्तों के आधार पर यह सम्भव है कि चयन का एक मापक यन्त्र निश्चित किया जा सकता है।

14. अभिप्रेरणा की परिभाषा दें और इसके स्वरूप को लिखें।

उत्तर: अभिप्रेरणा अंग्रेजी शब्द Motivation (मोटिवेशन) का हिंदी पर्याय है। जिसका अर्थ प्रोत्साहन होता है। Motivation लैटिन भाषा के Motum (मोटम) शब्द से बना है। जिसका अर्थ है Motion (गति)। अतः कार्य को गति प्रदान करना ही अभिप्रेरणा है। यही अभिप्रेरणा का अर्थ है।

गुड के शब्दों में अभिप्रेरणा की परिभाषा “प्रेरणा कार्य को आरम्भ करने, जारी रखने और नियमित करने की प्रक्रिया है।”

अभिप्रेरणा का स्वरूप-

1. यह क्रियाएं लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्राणी को प्रेरित करती है।

2. अभिप्रेरणा जन्मजात नहीं होती।

3. अभिप्रेरणा एक बाहय कारक है जो व्यक्ति में आंतरिक भावना पैदा करती है।

4. अभिप्रेरणा व्यक्ति को लक्ष्य की तरफ निर्देशित करते हैं।

5. अभिप्रेरणा के मौलिक अभिप्रेरणा संप्रत्यय

1 आवश्यकता 2 प्रणोद 3 प्रोत्साहन

अभिप्रेरणा चक्र : आवश्यकता➡ अंतरनोद➡ संज्ञान ➡लक्ष्य निर्देशित व्यवहार ➡लक्ष्य की प्राप्ति ➡अंतरनाेद में कमी

Section - C खण्ड -

( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )

किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दें।

15. सीखने को प्रभावित करने वाले कारकों की व्याख्या करें।

उत्तर: ऐसे अनेक कारक या दशाएँ हैं, जो सीखने की प्रक्रिया में सहायक या बाधक सिद्ध होती हैं । इनका उल्लेख करते हुए सिम्पसन ने लिखा है“अन्य दशाओं के साथ-साथ सीखने की कुछ दशाएँ है-उत्तम स्वास्थ्य, रहने की अच्छी आदतें, शारीरिक दोषों से मुक्ति, अध्ययन की अच्छी आदतें, संवेगात्मक सन्तुलन, मानसिक योग्यता, कार्य सम्बन्धी परिपक्वता, वांछनीय दृष्टिकोण और रुचियां, उत्तम सामाजिक अनुकूलन, रूढ़िबद्धता और अन्धविश्यास से मुक्ति।” हम इनमें से कुछ महत्वपूर्ण कारकों पर प्रकाश डाल रहे हैं, यथा

1. विषय-सामग्री का स्वरूप : सीखने की क्रिया पर सीखी जाने वाली विषय-सामग्री का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। कठिन और अर्थहीन सामग्री की अपेक्षा सरल और अर्थपूर्ण सामग्री अधिक शीघ्रता और सरलता से सीख ली जाती है। इसी प्रकार, अनियोजित सामग्री की तुलना में "सरल से कठिन की ओर सिद्धान्त पर नियोजित सामग्री सीखने की क्रिया को सरलता प्रदान करती है।”

2. बालकों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य: जो छत्र, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होते हैं, वे सीखने में रुचि लेते हैं और शीघ्र सीखते हैं। इसके विपरीत, शारीरिक या मानसिक रोगों से पीड़ित छात्र सीखने में किसी प्रकार की रुचि नहीं लेते हैं। फलतः वे किसी बात को बहुत देर में और कम सीख पाते हैं।

3. परिपक्वता : शारीरिक और मानसिक परिपक्वता वाले छात्र नये पाठ को सीखने के लिए सदैव तत्पर और उत्सुक रहते हैं। अत: वे सीखने में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं करते हैं। यदि छात्रों में शारीरिक और मानसिक परिपक्वता नहीं होती है, तो सीखने में उनके समय और शक्ति का नाश होता है। कोलसनिक के अनुसार- "परिपक्वता और सीखना पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं हैं, वरन् एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप में सम्बद्ध और एक-दूसरे पर निर्भर है।”

4. सीखने का समय व थकान : सीखने का समय सीखने की क्रिया को प्रभावित करता है, उदाहरणार्थ, जब छात्र विद्यालय आते हैं, तब उनमें स्फूर्ति होती है। अत: उनको सीखने में सुगमता होती है। जैसे-जैसे शिक्षण के घण्टे बीतते जाते हैं, वैसे-वैसे उनकी स्फूर्ति में शिथिलता आती जाती है और वे थकान का अनुभव करने लगते हैं। परिणामत: उनकी सीखने की क्रिया मन्द हो जाती है।

5. सीखने की इच्छा : यदि छात्रों में किसी बात को सीखने की इच्छा होती है, तो वे प्रतिकूल परिस्थरितियों में भी उसे सीख लेते हैं। अतः अध्यापक का यह प्रमुख कर्तव्य है कि वह छात्रों की इच्छा शक्ति को दुढ़ बनाये । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे उनकी रुचि और जिज्ञासा को जाग्रत करना चाहिए।

6. प्रेरणा : सीखने की प्रक्रिया में प्रेरको का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रेरक, बालकों को नयी बातें सीखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अत: अध्यापक चाहता है कि उसके छात्र नये पाठ को सीखें, तो प्रशंसा, प्रोत्साहन, प्रतिद्वन्द्विता आदि विधियों का प्रयोग करके उनको प्रेरित करें। स्टीफेन्स के विचारानुसार "शिक्षक के पास जितने भी साधन उपलब्ध हैं, उनमें प्रेरणा सम्भवत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।”

7. अध्यापक व सीखने की प्रक्रिया : सीखने की प्रक्रिया में पथ-प्रदर्शक के रूप में शिक्षक का स्थान अति महत्वपूर्ण है। उसके कार्यों और विचारों, व्यवहार या व्यक्तित्व, ज्ञान और शिक्षण विधि का छात्रों के सीखने पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इन बातों में शिक्षक का स्तर जितना ऊँचा होता है, सीखने की प्रक्रिया उतनी ही तीव्र और सरल होती है।

8. सीखने का उचित वातावरण: सीखने की क्रिया पर न केवल कक्षा के अन्दर के, वरन् बाहर के वातावरण का भी प्रभाव पड़ेता है। कक्षा के बाहर का वातावरण शान्त होना चाहिए। निरन्तर शोर गुल से छात्रों का ध्यान सीखने की क्रिया से हट जाता है। यदि कक्षा के अन्दर छात्रों को बैठाने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, और यदि उसमें वायु और प्रकाश की कमी है, तो छात्र थोड़ी ही देर में थकान का अनुभव करने लगते हैं। परिणामतः उनकी सीखने में रुचि सभाप्त हो जाती है। कक्षा का मनोवैज्ञानिक वातावरण भी सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। यदि छात्रों में एक-दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति की भावना है, तो सीखने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहयोग मिलता है।

इन कारणों या दशाओं के वर्णन से यह स्पष्ट है कि सीखना तभी प्रभावशाली हो सकता है जबकि ये दशाएँ अनुकूल हों। अनुकूल होने की परिस्थितियों में सीखने की क्रिया सबलएवं प्रभावयुक्त हो जाती है।

16. भूलने के कारणों को लिखें।

उत्तर: भूलने के कारण निम्नलिखित हैं -

1. विषय का निरर्थक- जो विषय सामग्री निरर्थक होती है। उसका सम्बन्ध पूर्व अनुभवों से स्थापित नहीं हो पाता। निरर्थक विषयों का उपयोग हमारे दैनिक जीवन में किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं करता।

2. समय का प्रभाव- समय के साथ विस्मृति की मात्रा बढत़ी चली जाती है। बड़े लोग कई बार यह कहते सुने जाते है कि उनकी स्मरण शक्ति क्षीण होती चली जाती है। हैरिस का विचार है कि किसी समय से सीखे गये अनुभव कालान्तर में परीक्षण करने पर विस्मृत जान पड़ते है।

3. बाधक क्रिया और उसका प्रभाव- इस मत के अनुसार नवीन अनुभव प्राचीन संस्कारों के प्रत्यास्मरण में बाधा पहुँचाते है। इसका कारण बताते हुए कहा गया है कि विस्मृति एक सक्रिय मानसिक क्रिया है अनुभवों में बाधा पहुँचाने से अनुभवों की विस्मृति हो जाती है।

4. दमन:-मनोविश्लेषण- वादियों के अनुसार विस्मरण का मुख्य कारण दुखद अनुभव है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह सुखद अनुभवों का स्मरण करता है और दुखद अनुभवों का विस्मरण करने का प्रयत्न करता है। यह क्रिया दमन कहलाती है।

5. अभ्यास की न्यूनता -भनिडाइक ने विस्मरण का कारण अभ्यास का अभाव बताया है। बार-बार किया गया अभ्यास स्मरण में सहायक होता है। अभ्यास के अभाव में विस्मरण को प्रश्रम मिलता है।

6. संवेगो की उत्तेजना- सवेंगात्मक स्थिति में व्यक्ति भूल जाता है सामान्तया गुस्से से व्यक्ति की आंगिक चेष्टा प्रबल हो जाती है और वह जो कुछ कहना चाहता है, उसके विपरीत और कहना आरम्भ कर देता है।

7. मानसिक आघात-कभी-कभी मानसिक आघात के कारण स्मृति पूर्णरूपेण ही समाप्त हो जाती है। उस समय तक अर्जित अनुभवों का समापन हो जाता है। साथ ही यदि मस्तिष्क में चोट कम लगती है तो विस्मरण का प्रभाव पड़ता है।

8. मादक द्रव्य - मादक द्रव्य का सेवन करने वाले व्यक्तियों की स्मरण शक्ति क्षीण हो जाती है।

9. अधिगम की विधियाँ :- अध्यापक यदि शिक्षण विधियों का प्रयोग छात्रों के स्तरानुकूल नहीं करता है तो विस्मरण को बढावा मिलता है।

10. क्रमहीनता :-यदि काईे अधिगम सामग्री निश्चित क्रम के अनुसार नहीं स्मरण की जाती तो उसकी विस्मृति के अवसर बढ़ जाते है।

17. भाषा किसे कहते हैं ? भाषा के जीवन में क्या उपयोग हैं ?

उत्तर: मानव जिसकी सहायता से अपने भावों एवं विचारों को व्यक्त करता है, वही भाषा है।

डाॅ. बाबूराम सक्सेना के अनुसार: भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और एक ऐसी शक्ति है, जो मनुष्य के विचारों अनुभवों और संदर्भों को व्यक्त करती है, इसके साथ उन्होंने यह भी कहा है- कि जिन ध्वनि चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है। उनकी समष्टि को ही भाषा कहते हैं।

भाषा का उपयोग मुख्य रूप से निम्न कार्यों के लिये किया जाता है-

1. सूचनाओं, समाचार और जानकारी के आदान-प्रदान के लिए - भाषा समाज एवं समुदाय के सदस्यों को जोड़कर सामूहिक शक्ति प्रदान करती है, समुदाय के सदस्यों को एकजुट रखने, सूचनाएं और जानकारी आदान-प्रदान करने में भाषा अहम भूमिका निभाती है।

2. भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति तथा संप्रेषण के लिए - भाषा दो प्रकार से कार्य करती है वास्तव में भाषा के रूप में मनुष्य के पास वह शक्ति है, जो अपने समुदाय के दूसरे सदस्यों के मस्तिष्क की घटनाओं को अच्छी तरह से व्यक्त कर सकता है। भाषा के माध्यम से वह अपने व्यवहारों एवं विचारों को अभिव्यक्त कर सकता है।

3. निर्देशों के आदान-प्रदान के लिए -  भाषा के माध्यम से वह निर्देशों का आदान-प्रदान कर सकता है।

भाषा का महत्व : भाषा मनुष्य को अन्य पशुओं से अलग करती है पशु केवल वर्तमान की घटना अथवा आवश्यकता की अभिव्यक्ति के लिए संप्रेषण का उपयोग करते हैं मनुष्य अपने वर्तमान की ही नहीं वरन्भू तकाल की घटना और भविष्य की संभावित घटनाओं का संप्रेषण भाषा के माध्यम से करते हैं। आज से हजारों वर्ष पहले पशुओं की अनेक प्रजातियों एवं मनुष्य ने समूह में रहना शुरू किया। भाषा मनुष्य को अन्य पशुओं से अलग करती है। भाषा समुदाय की परम्परा एवं संस्कृति की निरंतरता बनाये रखने का साधन है। अपने पूर्वजों की जीवनचर्या उनकी सामाजिक परम्पराओं आदि की जानकारी आज भी हमें मिलती है। भाषा ही चिंतन एवं मनन का माध्यम है।

18. उपार्जित या मनो-सामाजिक अभिप्रेरक का वर्णन करें।

उत्तर: कुछ अभिप्रेरणा ऐसे होते हैं जो व्यक्ति के समाज में रहने तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण के प्रभाव के कारण निर्मित होते हैं। इन अभिप्रेरकों को अर्जित अभिप्रेरक कहते हैं। इन अभिप्रेरकों को सीखे हुए अभिप्रेरक भी कहा जाता है क्योंकि इनकी उत्पत्ति व्यक्ति के समाजीकरण तथा शिक्षा ग्रहण करने से भी होती है। इस प्रकार अर्जित अभिप्रेरण, व्यक्ति में शिक्षा एवं वातावरण के माध्यम से उत्पन्न होती है तथा इसे द्वितीय प्रेरणा या मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणा भी कहते हैं।

मनो-सामाजिक अभिप्रेरक: मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामान्यतया वह जीवन पर्यन्त समाज में ही रहता है। समाज के सदस्य के रूप में उसे कुछ सामाजिक नियमों, रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं के अनुसार रहना एवं व्यवहार करना पड़ता है। इस प्रकार कुछ सामाजिक अभिप्रेरकों से अभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति सामाजिक व्यवहार करता हैं। कुछ मुख्य सामान्य सामाजिक अभिप्रेरणाएँ निम्नलिखित हैं-

1. सामूहिकता – मानव शिशु जन्म के समय असहाय होता है। वह माता-पिता तथा भाई-बहनों के साथ उन्हीं के आश्रय में बड़ा होता है। अतः शैशवावस्था से ही उसके सामूहिक ढंग से रहने तथा समूह के कार्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। मनुष्य की सभी आवश्यकताएँ समाज में रहकर ही पूरी होती है, इस कारण उसमें सामूहिकता का अभिप्रेरक कार्य करने लगता है। यह अभिप्रेरक जन्मजात न होकर व्यक्ति के समाज में रहने के कारण अर्जित होता है। अतः यह अर्जित अभिप्रेरक की श्रेणी में आता है। इसके कारण मनुष्य समुदाय या समूह में रहने तथा सामाजिक कार्यों को करने के लिए अभिप्रेरित होता है।

2. स्वाग्रह या आत्मगौरव- समाज में रहने के कारण व्यक्ति की यह अच्छा होती है कि दूसरे लोग उसका सम्मान करें। प्रारम्भ में बालक इसकी पूर्ति अपने क्रोधपूर्ण व्यवहार से करता है। विकास के साथ-साथ वह अन्य उपायों से आत्मसम्मान प्राप्त करने का प्रयास करता है। आत्म सम्मान की भावना उसे ऐसे कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है जिससे अन्य लोग उसका आदर करें। वह ऐसे समाज विरोधी कार्यों से बचने का भी प्रयास करता है। जिससे उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाती हो। किसी के द्वारा उसके आत्म गौरव को ठेस पहुँचाने पर यही भावना उसे विरोध करने के लिए भी अभिप्रेरित करती है। इस प्रकार मानव शिशु जैसे ही बड़ा होने लगता है वह आत्म सम्मान, आत्म गौरव या आत्म स्थापना रूपी अभिप्रेरणा अर्जित करता है तथा उसके कार्य एवं व्यवहार इस अभिप्रेरक से अभिप्रेरित होते हैं

3. प्रशंसा एवं निन्दा- प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रशंसा सुनना पसन्द करता है। किसी व्यक्ति के अच्छे एवं सामाजिक मान्यता प्राप्त कार्यों के लिए उसकी प्रशंसा होती है तथा बुरे कार्यों के लिए निन्दा या आलोचना की जाती है। इसलिए व्यक्ति प्रशंसा दिलाने वाले कार्यों को करने के लिए अधिक अभिप्रेरित होता है तथा निन्दित कार्यों से बचने का प्रयास करता है।

4. संग्रहशीलता – बच्चे में संग्रह की प्रवृत्ति बाल्यकाल से ही प्रारम्भ हो जाती है। वह अपनी पसन्द की वस्तुओं एवं खिलौनों आदि को इकट्ठा करता हैं। बड़ा होने पर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक संग्रह करता है। वह उपयोगी एवं बहुमूल्य वस्तुओं को संग्रह समाज में सम्मान पाने के लिए भी करता है। इस प्रकार मानव शिशु धीरे धीरे संग्रह की प्रवृत्ति अर्जित करना है।

5. आत्म समर्पण- सभी प्राणियों में पलायन की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। मानव में भी यह प्रकृति जन्मजात होती है किन्तु व्यक्ति अपने अनुभवों के द्वारा इससे मिलती-जुलती प्रवृत्ति को अर्जित भी करता है। किसी परिस्थिति विशेष में कमजोर पड़ने या कोई गलत कार्य करने पर व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है तथा आत्म समर्पण को अभिप्रेरित होता है। अतः आत्म समर्पण की अभिप्रेरणा अर्जित अभिप्रेरक द्वारा उत्पन्न होती है।

6. युद्ध प्रवृत्ति – यद्यपि व्यक्ति में युयुत्सा प्रवृत्ति जन्मजात होती है किन्तु समूह में रहने के कारण उसमें दूसरे समूह या संगठन से युद्ध की प्रवृत्ति भी विकसित हो जाती है। इस अभिप्रेरक में अभिप्रेरित होकर व्यक्ति लड़ाई-झगड़ा करते हैं। अन्य जन्मजात एवं सामाजिक अभिप्रेरकों के कारण भी यह अभिप्रेरक उत्पन्न हो जाता है।

19. नकारात्मक संवेग किसे कहते हैं ? ऐसे संवेगों के प्रबंधन के उपाय बतायें।

उत्तर: इस प्रकार के संवेग को दुखकर या कष्टकर संवेग भी कहते हैं। इन्हें दुःखदायी या कष्टदायक अनुभूति होती है। उदाहरण के लिए -क्रोध, चिन्ता, घृणा, ईष्या, भय आदि ।

प्रबंधन के उपाय:

1. उत्तेजना को घटाने का अभ्यास : जैसा कि हम जानते है, कि नकारात्मक संवेग व्यक्ति के शरीर तथा मन में कुंठा तथा उपद्रव पैदा करते हैं । जब प्राणी अत्यधिक क्रोधित होता है तो वह न सिर्फ चीखता-चिल्लाता है, बल्कि अधिक उग्र हो जाता है तथा उसकी आन्तरिक शारीरिक क्रियाएँ भी तेज हो जाती हैं- हृदय की धड़कन, नाडी की गति, साँस की गति, रक्तचाप, रक्त संचार के साथ ही मस्तिष्क की तन्त्रिकाएँ सभी उत्तेजित हो जाती हैं ।

प्राणी के चिन्तन तथा सोच-विचार में हलचल मच जाती है । इस स्थिति में सबसे पहले उसकी उत्तेजना (Excitation) को कम करने या नियन्त्राग में लाने की आवश्यकता होती है । शरीर में उत्पन्न तनाव तथा उत्तेजना को दूर करने हेतु बायोफीडबैक (Biofeedback) यन्त्र का सहारा लिया जाता है । इसकी मदद से प्राणी की पेशीय उत्तेजना (Muscular Excitation) को कम किया जा सकता है जिससे अन्य क्रियाओं की तीव्रता में भी वृद्धि नहीं होती है ।

2. शिथिलीकरण का अभ्यास : यह सत्य है, कि शरीर तथा मन में गहरा सम्बन्ध है । अत: मन की उत्तेजना शरीर को तथा शरीर की उत्तेजना मन को उद्वेलित करती है । अतएव शरीर के विविध अंगों के शिथिलीकरण का अभ्यास संवेगात्मक उत्तेजना को दूर करता है । जैकाँबसन (Jacobson) की पूर्ण शरीर के शिथिलीकरण की तकनीक इस सम्बन्ध में अत्यधिक उपयोग में है ।

3. संज्ञानात्मक पुनर्रचना : प्राय: भय तथा क्रोधजनित मुश्किलों का कारण व्यक्ति की गलत दिशा की सोच या चिन्तन होता है । किसी के लिए कोई प्राणी क्रोध या भय का अनुभव कर रहा है अगर उसके सकारात्मक रूप के विषय में बात की जाए तो व्यक्ति की सोच उसके विषय में बदलती है, तथा नकारात्मक संवेग में भी कमी आती है । जब कोई बच्चा या वयस्क यह सोचता है, कि उसे कोई प्यार नहीं करता तो वह असुरक्षा के नकारात्मक भाव से ग्रसित रहता है । किन्तु जब उदाहरणों और घटनाओं के द्वारा उसे समझाया जाता है कि उसके परिवार के लोग उसके प्रति चिन्ता करते हैं, तो उसके संज्ञान में परिवर्तन होता है तथा उसके अवसाद तथा अन्य नकारात्मक भाव दूर होते हैं ।

4. यौगिक विधियाँ : जिन व्यक्तियों में नकारात्मक संवेग विशेषकर तीव्र क्रोध तथा भय का भाव होता है, ऐसे व्यक्तियों के लिए कुछ चुनी हुई यौगिक विधियों के अभ्यास अधिक उपयोगी पाए गए हैं ।

Post a Comment

Hello Friends Please Post Kesi Lagi Jarur Bataye or Share Jurur Kare
Cookie Consent
We serve cookies on this site to analyze traffic, remember your preferences, and optimize your experience.
Oops!
It seems there is something wrong with your internet connection. Please connect to the internet and start browsing again.
AdBlock Detected!
We have detected that you are using adblocking plugin in your browser.
The revenue we earn by the advertisements is used to manage this website, we request you to whitelist our website in your adblocking plugin.
Site is Blocked
Sorry! This site is not available in your country.