कृषि का वाणिज्यीकरण Commercialisation of agriculture

कृषि का वाणिज्यीकरण Commercialisation of agriculture

कृषि का वाणिज्यीकरण Commercialisation of agriculture

कृषि का वाणिज्यीकरण Commercialisation of agriculture

प्रश्न :- कृषि के वाणिज्यीकरण से आप क्या समझते है? भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण के कारणों तथा प्रभावो की व्याख्या करे?

कृषि एवं उद्योग के बीच व्यापार की चर्चा करें?

उत्तर :- "कृषि के वाणिज्यीकरण से अर्थ है कि कृषि उत्पादन को बेचने के लिए पैदा करना न कि परिवार के उपभोग के लिए।" भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रारम्भ से ही यह विशेषता रही है कि कृषि उसका मूल तत्त्व है। इसमे भी कृषि इसलिए की जाती थी जिससे कि उससे उत्पादित वस्तुओं को प्राप्त कर वर्ष भर पेट भर सके। इसके लिए कृषि उत्पादन को वर्ष भर के लिए सुरक्षित रखा जाता था।

लेकिन 1850 के बाद से इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आया जो आज तक चालू है। इस परिवर्तन के लिए ब्रिटिश शासन की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण की नीति जानबूझ कर ब्रिटिश शासन ने अपनाई। उन‌के द्वारा इसको अपनाने का एक कारण था वह था-ब्रिटेन मे औद्योगीकरण। ब्रिटेन में औद्योगीकरण अठारहवी शताब्दी के मध्य में पूरा हो चुका था। ब्रिटेन में इन उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी। इस कच्चे माल में विशेष रूप से रुई, कपास, जूट, गन्ना, व मूंगफली की उन्हें आवश्यकता थी। इसके लिए उन्होंने भारतीय किसानों को इन वस्तुओं को उगाने व उन्हें ब्रिटेन को बेचने के लिए कई प्रकार के प्रलोभन दिए। इसके लिए भारतीय किसानो को उनकी उप का अच्छा मूल्य दिया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय किसान वाणिज्यिक फसलों को उगाने लगे व खाने के लिए अनाज मण्डियो से रीदने लगे। बाद में इसके भंयकर परिणाम सामने आने लगे -अकाल के रूप में जो भारत के आर्थिक इतिहास में अमर हो गए।

भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण के मुख्यतया तीन कारण थे। पहना ब्रिटेन में औद्योगीकरण का होना व ब्रिटिश शासन द्वारा कच्चा माल निर्यात करने के लिए भारतीय किसानों को प्रेरित करना। दूसरा राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर भू- कर बढाना जिसके भुगतान के लिए किसानों द्वारा वाणिज्यिक फसले पैदा करना व तीसरा जमींदारों द्वारा लगान बढ़ा देना।

लेकिन भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दो और कारणों से मिला

(i) भारत में रेल की शुरुआत 1853 में हो जाने से माल को बन्दरगाहों तक पहुंचाना आसान हो गया तथा

(ii) रेल के माध्यम से अनेक व्यापारिक केन्द्र एक दूसरे से जुड़ गए। इसमें सबसे पहले पंजाब से गेहूं, बंगाल से जूट व बम्बई से कपास बन्दरगाहों पर निर्यात के लिए पहुंचाना आसान हो गया। इसके विपरीत ब्रिटिश माल को देश के अन्दर पहुंचाना भी आसान हो गया।

भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण

भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण के प्रमुख कारण निम्नलिखित है

(1) लगान का नकद भुगतान :- ब्रिटिश सरकार ने स्थायी बन्दोबस्त बिल पारित कर नई मालगुजारी की नीति तय की जिसके अन्तर्गत किसान की मालगुजारी नकद में तय होती थी तथा उसका भुगतान भी सरकार को नकदी में ही करना पड़ता था। इससे किसान को अपनी उपज को बाजार में बेचने के लिए बाध्य होना पड़ता था।

(2) नकदी फसलो का ऊँचा मूल्य:- ब्रिटेन को भारत से कच्चा माल चाहिए था जिससे कि उसके उद्योग वहाँ चल सके। अतः यहाँ ब्रिटेन को निर्यात करने के लिए नकदी फसलो की मांग अधिक थी जिससे उनके मूल्यों में वृद्धि हो गई। इस प्रकार किसान को नकदी फसलों का मूल्य खाद्यान्न फसलों की तुलना में अधिक मिलता था। इससे वे नकदी फसलों का उत्पादन अधिक करने लगे।

(3) ब्रिटिश सरकार की नीति :- ब्रिटेन की यह रीति थी कि भारत को नकदी फसलों के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जाए जिससे कि उसे अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल मिल सके। यह नीति पटसन, चाय, कपास, गन्ना तिलहन आदि के सम्बन्ध में अपनाई गई थी।

(4) परिवहन व संचार साधनों का विकास :- रेलवे व परिवहन के अन्य साधनों तथा संचार के साधनों का विकास होने से यह सम्भव हो गया कि भारत के कोने-कोने से कृषि उत्पादनो को एकत्रित किया जा सके। इससे गाँव व शहरो में सम्बन्ध स्थापित हो गए। इस प्रकार परिवहन व संचार के विकास ने कृषि के वाणिज्यीकरण को बढ़ावा दिया ।

(5) मुद्रा का प्रयोग :- किसान अपनी आवश्यकता के लिए साहू‌कार व महाजन आदि से उधार लेते थे जिसे उन्हें मुद्रा के चलन में आने के कारण मुद्रा में ही लौटाना पड़ता था।अतः मुद्रा में लौटाने के लिए फसल को नकद में बेचना पड़ता था। इससे भी कृषि का वाणिज्यीकरण हुआ।

(6) अमरीका का गृह युद्ध :- अमरीका में 1861 में गृह युद्ध हुआ, अतः ब्रिटेन को अमेरीका से कपास न मिल सकी, ब्रिटेन इस कपास का कपड़ा बनाता था। अतः ब्रिटिश सरकार ने भारत में कपास का अधिक उत्पादन करने का सुझाव दिया । इससे भी यहाँ कृषि का वाणिज्यीकरण हुआ।

कृषि के वाणिज्यकरण के प्रभाव

कृषि के वाणिज्यीकरण ने देश के आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में परिवर्तन ला दिया जिसका विवरण निम्न प्रकार है। इन्हीं बातों को कृषि के वाणिज्यीकरण के प्रभाव के रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है-

(1) आत्मनिर्भरता का ह्रास :- पहले किसान आत्मनिर्भर था। उसे किसी बाहरी सहारे की आवश्यकता नहीं थी, परन्तु कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण किसान की आत्मनिर्भरता में कमी आ गई और वह बाहरी शक्तियो पर निर्भर रहने लगा। इस प्रकार किसान का अतीत से नाता टूट गया।

(2) विशिष्टीकरण और स्थानीयकरण का विकास :- कृषि के वाणिज्यीकरण से किसानों में विशिष्टीकरण होने लगा अर्थात् वे कुछ विशिष्ट वस्तुओं के ही उत्पादन में अपना ध्यान केन्द्रित करने लगे, जैसे कपास, जूट, गन्ना, तिलहन आदि के उत्पादन में। साथ ही देश के कुछ स्थानो पर केवल कुछ ही वस्तुएं की जाने लगी जैसे पटसन बंगाल में। इससे स्थानीयकरण को बढ़ावा मिला।

(3) खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट :- वाणिज्यीकरण से परम्परागत खाधान्नों के उत्पादन के स्थान पर नकदी फसले किए जाने का परिणाम यह हुआ कि खाधान्नों के उत्पादन में गिरावट आ गई जिससे उनकी कमी होने लगी और अकाल पड़ने लगे। पशुधन कम होने लगा।

(4) साहू‌कारी का महत्व :- वाणिज्यीकरण ने साहूकारी के महत्त्व को बढ़ा दिया। किसानों को कृषि के कार्यों के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता होती थी जिसे साहूकार पूरा करते थे। इससे साहूकारी धन्धे का विकास हुआ।

(5) भारतीय उद्योगो का पतन :- कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण इंगलैण्ड को कच्चा माल मिलने लगा तथा वहाँ का पक्का माल भारत में आकर बिकने लगा। इससे भारत के अनेक उद्योगों का पतन होने लगा।

(6) गाँवो में विभिन्न वर्गों का ध्रुवीकरण :- वाणिज्यकरण से ग्राम समुदाय जमीदारो, भूस्वामियों, महाजनों, किसानों, भूमिहीन कृषकों, आदि में बंट गया। पहले गाँव मिल-जुलकर रहते थे, परन्तु अब वर्गों में खींचतान प्रारम्भ हो गई । लोगों में शोषण करने की प्रवृत्ति पैदा हो गई।

(7) उपविभाजन व अपखण्डन :- वाणिज्यीकरण ने उपविभाजन व अपखण्डन की समस्या पैदा कर दी। इसके कारण थे- ऋण चुकाने के लिए भूमि को बेचना या दस्तकारी समाप्त होने से पेट भरने के लिए अपना हिस्सा जमीन से माँगना। इन दोनों के फलस्वरूप भारत में खेत छोटे होते चले गए।

(8) भूमि का गैर किसानों के हाथ आ जाना :- जब किसान ऋणग्रस्त हो जाता था और उसके पास ऋण चुकाने के लिए धन नहीं होता था तो वह अपनी भूमि साहू‌कार के ऋण के बदले में बेच देता था।

इससे भूमि किसान से गैर किसानों पर पहुंच जाती थी। इसका दुष्परिणाम यह होता था कि कृषि उत्पादन में गिरावट आ जाती थी।

(9) राष्ट्रीय स्वरूप का उद्‌गम :- पहले गाँव देश के अन्य भागों से कटे रहते थे, परन्तु वाणिज्यीकरण के बाद गाँवों का सम्बंध शहरों से हो गया। वे राष्ट्रीय जीवन धारा के अंग बन गए। इस प्रकार राष्ट्रीय स्वरूप की शुरुआत हुई।

निष्कर्ष

वाणिज्यीकरण से कृषि की दशा बदल गई है। किसान की हालत शोचनीय हो गई और वह साहूकारों के चंगुल में फंस गया। इधर दस्तकारी का विनाश भी प्रारम्भ हो गया। इस प्रकार कृषि का वाणिज्यीकरण हितकर नहीं रहा।

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