नोट - निर्गमन के सिद्धांत (Principles of Note Issue)

नोट - निर्गमन के सिद्धांत (Principles of Note Issue)

नोट - निर्गमन के सिद्धांत (Principles of Note Issue)

नोट - निर्गमन के सिद्धांत (Principles of Note Issue)

प्रश्न :- मुद्रा तथा बैंका कोष के निर्धारण की यांत्रिक (तकनीकी) और व्यवहारिक सिद्धांत की व्याख्या करे

→ नोट निर्गमन के विभिन्न सिद्धान्तों का विवरण दीजिये। भारत में नोट निर्गमन की कौन-सी प्रणाली लागू की है।

उत्तर:- केन्द्रीय बैंकिंग-संस्था के विकास के पूर्व नोट जारी करने का कार्य या तो राज्य द्वारा होता था अथवा व्यापारिक बैंकों द्वारा। राज्य भली प्रकार नोट जारी करने का काम ठीक से नहीं कर पाता था । व्यावसायिक बैंक नोट छाप सकते थे, पर यह प्रणाली दोषपूर्ण थी।

व्यावसायिक बैंकों द्वारा नोट जारी किये जाने की व्यवस्था में निम्नलिखित दोष थे-

(1) बैंक अपने साख के आधार पर नोट जारी करते थे। इन बैंकों की साख सीमित थे, इस कारण नोटो को जारी करने की क्षमता भी सीमित थी।

(2) विभिन्न व्यावसायिक बैंक नोट जारी करते थे और उनके नोटों में भिन्नता रहती थी। इस कारण मुद्रा व्यवस्था उचित रूप मे नही हो पाती थी।

(3) व्यावसायिक बैंकों को देश की मौद्रिक आवश्यकता का सही अनुमान नहीं हो पाता था, इस कारण नोटो का निर्गमन ठीक प्रकार से नहीं हो सकता था। कभी अधिक मात्रा में नोटो का प्रचलन हो जाता था और कभी कम मात्रा में। इससे भी मुद्रा में स्थिरता नहीं रहती थी और मूल्य स्तर में भी परिवर्तन होता रहता था।

व्यावसायिक बैंक जनता द्वारा मांग होने पर नोटो को द्रव्य मे नहीं बदल पाते थे। इससे जनता को बैंकों में विश्वास नहीं रहता था।

इन दोषों के कारण मुद्रा तथा मूल्यों में अव्यवस्था रहती थी। इन दोषों को दूर करने के लिए केन्द्रीय बैंक को ही नोट निर्गमन का सम्पूर्ण अधिकार दे दिया गया। इससे व्यवस्था में सुधार हुआ और मुद्रा चलन में भी सुधार हुआ।

केन्द्रीय बैंक को नोट निर्गमन का एकाधिकार प्रदान करने से निम्नलिखित लाभ प्राप्त हुए है -

(1) मुद्रा प्रणाली में अनुरूपता :- केन्द्रीय बैंक को नोट प्रचलन का एकाधिकार प्रदान कर देने से मुद्राप्रणाली में अनुरूपता आ गयी है। इससे देश की मुद्रा प्रणाली में समानता रहती है। भिन्न प्रकार के नोटो का चलन नहीं हो पाता और यह देश की आर्थिक व्यवस्था के लिए अच्छा है।

(2) मुद्रा प्रणाली मे लोच :- जब व्यावसायिक बैंकों द्वारा नोट जारी किये जाते थे, तो देश की आवश्यकता और नोटों की मात्रा में कोई उचित पारस्परिक सम्बंध नहीं रहता था। नोट चलन की कोई उचित नीति भी काम मे नही लायी जाती थी। पर जब केन्द्रीय बैंक को यह अधिकार प्राप्त हुआ है, तो केन्द्रीय बैंक देश की और व्यापार की आवशकता को ध्यान में रखकर मुद्रा की पूर्ति को घटा-बढ़ा सकता है। इससे मुद्राप्रणाली में लोच आ जाती है।

(3) साख पर नियंत्रण :- व्यावसायिक बैंक साख का सृजन करते है। साख का प्रभाव मूल्य स्तर और देश की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। इस कारण साख-नियंत्रण की समस्या महत्त्वपूर्ण है। केन्द्रीय बैंक को नोट जारी करने का अधिकार प्राप्त है, इस कारण वह साख पर नियंत्रण भी उचित रूप में कर सकता है। केन्द्रीय बैंक देश की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए साख का प्रसार या संकुचन करता है।

(4) मु‌‌द्रा प्रणाली में जनता का विश्वास :- केन्द्रीय बैंक को नोट छापने का एकाधिकार प्राप्त है और केन्द्रीय बैंक में जनता का अधिक विश्वास रहता है इस कारण मुद्रा (नोटो) के प्रति भी जनता का विश्वास बढ़ जाता है।

(5) राज्य को लाभ :- नोट जारी करना एक लाभदायक व्यवसाय है। इससे लाभ प्राप्त होता है। विचारधारा यह है कि नोट जारी करने से जो लाभ प्राप्त हो, उस पर सरकार का अधिकार होना चाहिए। जब केन्द्रीय बैंक को नोट जारी करने का एकाधिकार प्राप्त होता है, तो नोट निर्गमन से जो लाभ प्राप्त होता है, वह सरकार को ही प्राप्त होता है।

(6) मुद्रा के मोल में स्थिरता :- जब केन्द्रीय बैंक को नोट छापने का एकाधिकार प्राप्त होता है, तो मुद्रा के आन्तरिक और बाह्म मूल्यों में स्थिरता रह सकती है। ऐसा इस कारण सम्भव है, क्योकि केन्द्रीय बैंक आवश्यकतानुसार नोट जारी करता है और साख पर भी नियंत्रण रखता है। इसके परिणामस्वरूप विदेशी विनिमय दर में भी बहुत अधिक परिवर्तन नहीं होता और व्यापार में भी इस कारण लाभ प्राप्त होता है।

नोट-निर्गमन का काम बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है और इसी कारण यह कार्य केन्द्रीय बैंक को सौंप दिया गया है। आज विश्व के लगभग सभी देशो में केन्द्रीय बैंक की स्थापना हो चुकी है और नोट छापने का अधिकार भी केन्द्रीय बैंकों को दे दिया गया है। सबसे पहले सन् 1844 ई. में बैंक ऑफ़ इंगलैण्ड को नोट छापने का अधिकार दिया गया था। भारत का केन्द्रीय बैंक रिजर्व बैंक ऑफ़ इण्डिया है और इसे ही नोट छापने का एकाधिकार प्राप्त है।

नोट निर्गमित करने के सिद्धांत (Principles of Note Issue)

नोट निर्गमित करने के मुख्य सिद्धांत इस प्रकार हैं-

1) मुद्रा सिद्धांत (Currency Principle) - प्रथम सिद्धांत मुद्रा सिद्धांत है जो नोटों को स्वर्ण में पूर्ण परिवर्तन को संदर्भित करता है। मुद्रा सिद्धांत के अनुसार केंद्रीय बैंक द्वारा निर्गमित किए जाने वाले नोटों की संख्या निर्धारित करने में स्वर्ण संचय सहयोग करता है। पत्र मुद्रा धातुमुद्रा का बेहतर विकल्प है। स्वर्ण आरक्षित कोष मुद्रा के निर्गमन में सहायता प्रदान करता है। यदि सोने का भंडार पत्रमुद्रा से कम है तो सामान्य जनता इन नोटों पर विश्वास नहीं करेगी। नोट के निर्गमन को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और देश में सोने की आवक और जावक के अनुसार निर्गमित की गई मुद्रा की संख्या में वृद्धि या कमी होनी चाहिए। इस सिद्धांत की एक विशेषता यह है कि इससे पत्र मुद्रा की उचित नियंत्रण एवं निगरानी संभव है। इसके अतिरिक्त इस सिद्धांत के अनुसार अधिक मुद्रा निर्गमित करने में कोई हानि नहीं है। मुद्रा का निर्गमन स्वर्ण आरक्षित कोष की उपलब्धता के अनुसार किया जाता है।

2) बैंकिंग सिद्धान्त (Banking Principle)- दूसरा सिद्धांत बैंकिंग सिद्धान्त है जो व्यापार और वाणिज्य की आवश्यकता के आधार पर मुद्रा की आपूर्ति में लोच की व्याख्या करता है। बैंकिंग सिद्धान्तों के अनुसार कानून द्वारा पत्र मुद्रा का समर्थन करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। निर्गमित किए गए नोट पूर्णत; बैंक एवं व्यापार के निर्णय और आवश्यकता पर आधारित होते हैं। बैंक अपने लाभ के अनुसार नोटों की पर्याप्त आपूर्ति बनाए रखते हैं। इस सिद्धांत के अन्तर्गत नकद भुगतान के लिए अतिरिक्त धनराशि नियमित रूप से दी जानी चाहिए और यदि नोट के निर्गमन में अधिशेष है, तो सोने के भंडार और मुद्रा की आपूर्ति का उचित अनुपात बनाए रखा जाना चाहिए। इस प्रणाली में अतिरिक्त निर्गमन का जोखिम शामिल होता है जिसके कारण प्रणाली पर सामान्य जनता विश्वास नहीं करती है। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दोनों सिद्धांत नोट के निर्गमन के लिए अप्रभावी हैं। पहले सिद्धांत में लोच शामिल नहीं है, जबकि दूसरे सिद्धांत में सुरक्षा शामिल नहीं है। वर्तमान समय में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नोट निर्गमित करने के लिए सोने या चाँदी को एक निश्चित अनुपात में आरक्षित रखा गया है।

भारत में नोट निर्गमन की विधियाँ (Methods of Note Issue in India)

बैंकिंग सिद्धान्त के अन्तर्गत नोट निर्गमन की विधियाँ निम्नलिखित है-

नोट - निर्गमन के सिद्धांत (Principles of Note Issue)

निश्चित विश्वासाश्रित विधि (Fixed Fiduciary Method)

निश्चित विश्वासाश्रित विधि सर्वप्रथम इसे इंग्लैण्ड में सन् 1844 में अपनाया गया था। इसके पश्चात् भारत ने इसे सन् 1860 में अपनाया था। इसके अतिरिक्त इस प्रणाली का विस्तार जापान तथा नार्वे तक किया गया। इस प्रकार की प्रणाली के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक को सरकारी प्रतिभूतियों के आधार पर मुद्रा की निश्चित राशि निर्गमित करने का अधिकार प्राप्त है। इस प्रकार मुद्रा को सरकारी प्रतिभूतियों का समर्थन प्राप्त है तथा मुद्रा निर्गमित करने की केन्द्रीय बैंक की शक्ति सीमा को विश्वासाश्रित सीमा कहा जाता है। एक बार विश्वासाश्रित सीमा पार कर लेने के पश्चात् केन्द्रीय बैंक को 100 प्रतिशत स्वर्ण कोष के साथ वापस करना पड़ता है। उद्योग तथा व्यापार के विस्तार जैसे कई कारकों के लिए समय-समय पर विश्वासाश्रित सीमा बढ़ाने की आवश्यकता होती है।

निश्चित विश्वासाश्रित विधि के लाभ निम्नलिखित है-

1) सुरक्षा (Safety)- यह विधि निर्गमित किए गए नोटों को सुरक्षा प्रदान करती है।

2) स्थिरता (Stability)- यह विधि मुद्रा के मूल्य को स्थिरता प्रदान करने के साथ-साथ आर्थिक स्थिरता भी प्रदान करती है जो आन्तरिक मूल्यों तथा विनिमय दर को विनियमित करने में सहायक होती है।

3) लोचदार प्रणाली (Elastic System)- इस प्रकार की प्रणाली में मुद्रा की पूर्ति लोचदार होती है, अर्थात् मुद्रा की पूर्ति को स्थिति के अनुसार प्रबन्धित किया जा सकता है।

4) मुद्रास्फीति का नियंत्रण (Check on Inflation)-इस तरह की व्यवस्था से महँगाई को नियन्त्रित करने में सहायता मिल सकती है।

निश्चित विश्वासाश्रित निर्गमन पद्धति की मुख्य दोष निम्नलिखित हैं-

1) उच्च विश्वासाश्रित सीमा (High Fiduciary Limit)- यदि विश्वासाश्रित सीमा निरन्तर परिवर्तित होती है तो मुद्रा से लोगों को विश्वास कम हो सकता है।

2) अमितव्ययी (Uneconomical) - यह प्रणाली अमितव्ययी सिद्ध हो सकती है क्योंकि केन्द्रीय बैंक को स्वर्ण को आरक्षित करने की आवश्यकता होती है। चूँकि नोट निर्गमन के लिए 100 प्रतिशत स्वर्ण के भण्डार की आवश्यकता होती है, इसलिए अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रवाह का विस्तार करना कठिन हो सकता है।

आनुपातिक कोष विधि (Proportionate Reserve Method)

इस प्रकार की प्रणाली के अन्तर्गत, प्रवाहित मुद्रा के अनुपात में एक स्वर्ण कोष रखना पड़ता है। इसके अतिरिक्त शेष मात्रा को अन्य उपकरणों, जैसे सरकारी प्रतिभूतियाँ और व्यापारिक बिलों को रखना पड़ता है। नोट निर्गमन की ऐसी प्रणाली को सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका के फेडरल रिजर्व एक्ट, 1913 के प्रावधानों के अन्तर्गत, 40 प्रतिशत मुद्रा को स्वर्ण से समर्थित होना आवश्यक था, जबकि शेष मात्रा का सरकारी प्रतिभूतियों का समर्थन होता है।

इस प्रणाली के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

1) सरल (Simple)- आनुपातिक कोष प्रणाली समझने और लागू करने की एक सरल विधि है। यह मुद्रा पूर्ति को लोच भी प्रदान करती है।

2) लोच (Elasticity)- आनुपातिक निधि पद्धति में निश्चित विश्वासाश्रित पद्धति की तुलना में अधिक लोच पाया जाता है। उदाहरण के लिए आनुपातिक निधि पद्धति के अन्तर्गत, एक बैंक ₹40 के मूल्य के सोने के साथ ₹100 मूल्य की मुद्रा निर्गमित कर सकता है। जबकि निश्चित विश्वासाश्रित पद्धति के अन्तर्गत वह केवल ₹40 के मूल्य की मुद्रा निर्गमित कर सकती है।

3) सुरक्षा (Safety)- इस पद्धति के अन्तर्गत रखी जाने वाली निधि मुद्रा की अत्याधिक पूर्ति के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती है। यह सुविधा मुद्रास्फीति की परीक्षण करने में सहायता करती है।

आनुपातिक कोष विधि की हानियाँ निम्नलिखित हैं-

1) स्वर्ण अवरोध (Blockage of Gold)-इस पद्धति में सोने को कोष के रूप में रखने की आवश्यकता होती है ताकि धातु के उत्पादक उपयोग को रोका जा सके। 2) स्वर्ण निधि की मूल्य में गिरावट (Fall in Price of Gold Reserve)- यदि स्वर्ण निधि समाप्त हो जाती है तो संचलन में अधिक आनुपातिक मुद्रा प्रवाहित करने की आवश्यकता होती है। इससे अर्थव्यवस्था में अपस्फीति हो सकती है।

न्यूनतम कोष विधि (Minimum Reserve Method)

इस प्रणाली में मुद्रा निर्गमित करने के लिए स्वर्ण एवं विदेशी विनिमय प्रतिभूतियों को कोष के रूप में रखा जाता है। इस प्रकार के न्यूनतम कोष को प्रत्येक समय रखने की आवश्यकता होती है तथा यह केन्द्रीय बैंक को कितनी भी मात्रा में नोट निर्गमित करने की अनुमति प्रदान करता है। हालाँकि, ऐसी मुद्रा के पीछे सरकारी तथा वाणिज्यिक प्रतिभूतियाँ रखना पड़ता है। स्वर्ण कोष की कम आवश्यकताओं के कारण, यह प्रणाली अधिक लचीली होती है। यह बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के लिए अत्यधिक उपयुक्त है जहाँ मुद्रा की आवश्यकता अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

भारतीय रिजर्व बैंक ने इस प्रणाली को देश की पंचवर्षीय योजनाओं के साथ अपनाया था। भारतीय रिजर्व बैंक को 200 करोड़ रूपये का स्वर्ण तथा विदेशी मुद्रा की न्यूनतम कोष रखना पड़ता है। इसमें से 115 करोड़ रूपये का स्वर्ण रखना आवश्यक होता है तथा शेष विदेशी मुद्रा, विदेशी विनिमय विपत्र तथा अन्य विदेशी प्रतिभूतियों के रूप में होता है।

न्यूनतम कोष विधि के लाभ निम्नलिखित है-

1) लोचदार प्रणाली (Elastic System) - यह विधि नोट निर्गमन करने की अन्य विधियों से अधिक लोचदार है जो सरकार द्वारा मुद्रा की परिवर्तित आवश्यकताओं को पूरा करती है।

2) संशोधित करने योग्य (Can be Modified) - मुद्रा निर्माण की अधिकतम सीमा निश्चित नहीं होती है तथा इसे आवश्यकतानुसार संशोधित किया जा सकता है।

3) मितव्ययी (Economical)- यह प्रणाली मितव्ययी होता है क्योंकि न्यूनतम स्वर्णकोष की आवश्यकता होती है।

न्यूनतम कोष पद्धति के मुख्य हानियाँ निम्नलिखित है-

1) अर्थव्यवस्था में बाधा (Disturbance in the Economy) - यह प्रणाली बाजार में मुद्रा के अधिक निर्गमन से अर्थव्यवस्था में बाधा ला सकती है।

2) मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति (Inflationary Trends)- इस प्रणाली में मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति नजर आ सकती है क्योंकि केन्द्रीय बैंक मुद्रा की बहुत अधिक मात्रा निर्गमित कर सकता है।

3) घाटे की वित्त व्यवस्था (Deficit Financing)- इस प्रणाली से घाटे की वित्त व्यवस्था हो सकती है।

अधिकतम कोष विधि (Maximum Reserve Method)

इस पद्धति के अन्तर्गत, निर्गमन के लिए स्वर्ण कोष रखे बिना, केन्द्रीय बैंक एक निश्चित अधिकतम सीमा तक मुद्रा नोट निर्गमित करने के लिए अधिकृत होता है। हालाँकि अधिकतम सीमा के पश्चात् निर्गमित की गई मुद्रा को स्वर्ण कोष के रूप में रखा जाता है। केन्द्रीय बैंक को अधिकतम विधि सीमा को परिवर्तित करने तथा स्वर्ण कोष की मात्रा निर्धारित करने का अधिकार होता है। जिस अधिकतम सीमा तक मुद्रा बिना कोष के जारी की जाती है, उसकी समय-समय पर समीक्षा करनी चाहिए। इस प्रणाली की अन्य प्रणालियों से अलग विशेषता यह है कि इसके लिए सोने अथवा विदेशी मुद्रा के रूप में कोष की न्यूनतम सीमा की आवश्यकता नहीं होती है। यह विधान-मंडल की नीति है जिस पर मुद्रा की वृद्धि तथा कमी निर्भर करती है। यह प्रणाली अधिक लोच प्रदान करती है, क्योंकि इसमें स्वर्ण कोष को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता है।

समय-समय पर निर्गमन की समस्या तथा अधिकतम सीमा की समीक्षा करना वैधानिक आवश्यकता है। इस विधि की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें स्वर्ण अथवा विदेशी मुद्रा के न्यूनतम कोष की आवश्यकता नहीं होती है। सरकार की नीति मुद्रा नोटों के चलन का विस्तार तथा संकुचन कर सकती है। अतः यह पद्धति नोट निगर्मित करने की स्थिति में अधिक लोचदार होती है तथा पूर्ण रूप से स्वर्ण कोष पर निर्भर नहीं रहती है।

अधिकतम कोष पद्धति के लाभ निम्नलिखित हैं-

1) लोच (Elasticity)- यह विधि लोच प्रदान करती है, इस प्रकार यह प्रकृति में लचीली होती है।

2) अधिकतम सीमा में परिवर्तन (Changes in Maximum Limit)- इस पद्धति के अन्तर्गत कोई अधिकतम सीमा नहीं होती है तथा कभी-कभी अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के अनुसार समीक्षा की जा सकती है।

अधिकतम कोष विधि की हानियाँ निम्नलिखित हैं-

1) निचली सीमा का निर्धारण (Setting of Lower Limit) - यह सीमा बहुत निम्न स्तर पर निर्धारित की जाती है इसलिए व्यापार तथा उद्योग की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वर्ण कोष को न्यूनतम रखा जा सकता है।

2) मुद्रास्फीति में वृद्धि (Increase in Inflation)- इस पद्धति का मुख्य दोष मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि होना है यदि सरकार अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली अधिकतम सीमा बढ़ा देती है।

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