7.पारिस्थितिक तंत्र की संरचना और उसके कार्य (Structure and Function of an Ecosystem)

7.पारिस्थितिक तंत्र की संरचना और उसके कार्य (Structure and Function of an Ecosystem)

7.पारिस्थितिक तंत्र की संरचना और उसके कार्य (Structure and Function of an Ecosystem)

7.पारिस्थितिक तंत्र की संरचना और उसके कार्य (Structure and Function of an Ecosystem)

प्रश्न: पारिस्थितिकी तंत्र क्या है? पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना और कार्य (पद्धति) का उल्लेख कीजिये।

पारिस्थितिकी तंत्र के संगठन या संरचना को समझाइये।

उत्तर : पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना और उसके कार्य, उसके दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। ये दोनों मिलकर ही पारिस्थितिकी तंत्र की तंत्रात्मक व्यवस्था को उजागर करते हैं।

पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना का अभिप्राय जैविक समूहों का संयोजन है जिसके अन्तर्गत जीवों की प्रजातियाँ, उसकी संख्या, जैव-भार (बायोमास) जीवन का इतिहास और स्थानिक वितरण आदि भी शामिल है। पारिस्थितिकी तंत्र का मतलब अजैविकों के मात्रात्मक वितरण, जल, मृदा (soil), तथा पोषण पदार्थों के संयोजन से भी है। पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना में अस्तित्व की दशाओं के क्षेत्र अर्थात ताप, प्रकाश, आर्द्रता, वायु तथा तरंग क्रियाएँ आदि भी निहित है।

पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों के निम्नलिखित अभिप्राय हैं-

1. जैविक ऊर्जा प्रवाह की दर अर्थात् समुदाय विशेष की उत्पादन एवं श्वसन-दर (respiration rate)।

2. खनिज या पोषक तत्त्वों (minerals or nutrients) का चक्र, एवं

3. पारिस्थितिकी तंत्र का जैविक अथवा पारिस्थितिक नियमन है जैसे नाइट्रोजन को स्थिर करने वाली बैक्ट्रिया एवं जीवों का पर्यावरण द्वारा नियमन जैसे फोटोपिरीयोडिज्म (photoperiodism) प्रकाश-आवधिकता, इत्यादि।

पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना और कार्य को विस्तारपूर्वक समझने की आवश्यकता है।

प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र के दो महत्त्वपूर्ण अवयव होते हैं-

अजैविक (aboitic) एवं जैविक (biotic)

अजैविक अवयव : अजैविक अवयव का अर्थ पारिस्थितिकी तंत्र में विद्यमान अप्राणी जगत है। भौतिक या जलबायविक पारिस्थितियों के मुख्य घटक मृदा (soil), ताप, प्रकाश एवं जल हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के अजैविक अवयव का एक प्रमुख घटक रासायनिक पदार्थ हैं। ये रासायनिक पदार्थ दो रूपों में उपलब्ध हैं-कार्बनिक और अकार्बनिक। अकार्बनिक पदार्थों में प्रकृति में काल-विशेष में विद्यमान खनिज पदार्थों का यथा C, H, N, K, P और S आदि का चक्र है। कार्बनिक पदार्थों में कार्बोहाइड्रेट्स, लिपिड, प्रोटीन और ह्युमस प्रमुख हैं ये जैवभार या पर्यावरण में विद्यमान होते हैं।

अजैविक संघटकों के तीन महत्त्वपूर्ण अवयव हैं

(i) स्थलमण्डलीय संघटक (ii) जलमण्डल (iii) वायुमण्डल।

(i) स्थलमण्डलीय संघटक (Lithosphere): भूगर्भ विज्ञान की शब्दावली में स्थलमण्डल पृथ्वी की ऊपरी पर्पटी (पपड़ी) है, जिस पर महादेश और सागर के तल अवस्थित हैं। महादेशीय क्षेत्र में इसकी औसत मोटाई 40 कि. मी. है और सागर में इसकी अधिकतम मोटाई 10 से 12 किमी है। पृथ्वी की पर्पटी पृथ्वी के आयतन का 1% है और इसकी मात्रा का 0.4% है। तकनीकी दृष्टि से स्थलमण्डल में भूमि की मात्रा और सागर की सतह दोनों शामिल है लेकिन सामान्यतः भू-पर्पटी से पृथ्वी की सतह का ही अर्थ ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार स्थलमण्डल पृथ्वी की सतह का 3/10वाँ अंश है।

लेकिन पर्यावरण विज्ञान की दृष्टि से पृथ्वी की पर्पटी (या मिट्टी) का कुछ फुट ही महत्त्व रखता है। स्थलमण्डल के इसी भाग में कार्बनिक पदार्थ निहित हैं और यही भाग जैविक गतिविधियों में सहायता पहुँचाते हैं। स्थलमण्डल मनुष्य एवं पशुओं के लिए खाद्यान्नों का उत्पादन करता है तथा सूक्ष्म जीवाणुओं (micro organism) के द्वारा कार्बनिक अपशिष्टों का अपघटन भी इसके अन्तर्गत सम्पन्न होता है। स्थलमण्डल का पारिस्थितिकी तंत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्थलमण्डल के कारण ही पादप एवं जीव-जन्तुओं पर विभिन्न कारकों के प्रभाव पड़ते हैं।

(ii) जलमण्डल (Hydrosphere): जलमण्डल में सागर, नदियाँ, झरने, जलधारा, हिमनदियाँ, झील, जलाशय और ध्रुव प्रदेश का हिमाच्छादन सम्मिलित है। जलमण्डल में भूमिगत जल की भी गणना होती है। यह भूमिगत जल पृथ्वी की सतह पर के जल के रिसने से पृथ्वी की निचली सतह में जमा होता रहता है। पृथ्वी का लगभग 70.8% अंश जल से घिरा हुआ है। मुख्यतः जल का यह घेरा समुद्रों के रूप में विद्यमान है। एक अनुमान के अनुसार जलमण्डल में लगभग 1360 अरब घन किलोमीटर जल है। इस जल भंडार का 97% अंश समुद्री जल के रूप में है। समुद्री जल सर्वाधिक लवणीय होने के कारण यह जल मनुष्य के लिए उपभोग के योग्य नहीं है। लगभग दो प्रतिशत जल हिमनदियों एवं ध्रुवप्रदेश के हिमाच्छ्गदनों के भीतर दबा पड़ा है। शेष 1% से भी जल का कम अंश मनुष्य के उपभोग के लिए स्वच्छ जल के रूप में पृथ्वी पर उपलब्ध है। इसी जल का उपयोग अन्य कागों के लिए भी किया जाता है। मनुष्य यह जल नदियों, झरनों, झीलों, जलाशयों एवं भूमिगत स्रोतों से प्राप्त करता है।

जल पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। बिना जल के धरती पर जीवन सम्भव नहीं है। इसीलिए कहा जाता है कि जल ही जीवन है। जल सभी प्रकार के जीवों और पादपों के लिए आवश्यक है। जल के माध्यम से ही पारिस्थितिकी के विभिन्न घटकों में पोषक तत्त्व पहुँचता है। इन पोषक तत्त्वों के संचरण में जल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जल ही जैवमण्डल में भू-जैव रसायनों (geo-bio-chemical cycles) चक्रों को भी सम्पादित करता है।

(iii) वायुमण्डल (Atmosphere): वायुमण्डल विभिन्न प्रकार के गैसों के मिश्रण से बना हुआ है। वायुमण्डल में वाष्प एवं धूलकण भी मौजूद होते हैं। वायुमण्डल सम्पूर्ण पृथ्वी को आच्छादित किये हुए है। वायुमण्डल पृथ्वी पर हजारों किलीमीटर तक फैला हुआ है। वायुमण्डल में चुम्बकीय क्षेत्र भी है और पृथ्वी के निकट आयनित कण भी हैं। विशुद्ध वायु रंगहीन (colourless), स्वादहीन (tasteless), गंघहीन (odourless) होता है। वायु को केवल उसकी गति के कारण ही महसूस किया जाता है। वायु संचरणशील, प्रसरणीय पूर्व सम्पीड्य है। वायुमंडल बाह्य अंतरिक्ष से आनेवाली अनेक प्रकार की अंतरिक्ष किरणों और सूर्य से आनेवाली अधिकांश वैद्युतचुम्बकीय विकिरणों को भी अवशोषित कर लेता है। सूर्य से पृथ्वी की ओर आनेवाली पराबैंगनी (ultraviolet) किरणों को वायुमण्डल की ओजोन (ozon) परत रोक लेती है। इस प्रकार पराबैंगनी किरणों के दुष्प्रभाव से पृथ्वी बच जाती है। वायुमण्डल पृथ्वी पर उसके गुरुत्वाकर्षण बल के कारण बँधा हुआ है। पृथ्वी पर वायुमण्डल की विद्यमानता का यह एक प्रमुख कारण है। चन्द्रमा में पृथ्वी की अपेक्षा बहुत कम गुरुत्वाकर्षण बल है, इसलिए उसमें वायुमण्डल को टिकाकर रखने की क्षमता नहीं हैं।

वायुमण्डल के बिना पृथ्वी पर जीवन असंभव है। वायुमण्डल ही ऑक्सीजन का स्रोत है। यही ऑक्सीजन जीवन के लिए अनिवार्य है। वायुमण्डल में ही कार्बन डायऑक्साइड है, जो प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक है। प्रकाश संश्लेषन द्वारा ही वनस्पति क्लोरोफिल की उपस्थिति में अपना भोजन (कार्बन) तैयार करता है, और वायुमण्डल में ऑक्सीजन उन्मुक्त कर देता है जो जीवों के लिए प्राणवायु है। वायुमण्डल के बिना बादल भी नहीं बन सकते। वायुमण्डल के बिना हवा और आँधी भी नहीं आ सकती। वायुमण्डल के नहीं होने का अर्थ पृथ्वी पर मौसम का और ऋतु-परिवर्तन का नहीं होना है। वायुमण्डल एक विशाल छतरी के रूप में भी काम करता है जो पृथ्वी को दिन में सूर्य के सम्पूर्ण प्रभाव से बचाता है और अत्यधिक ऊष्मा की क्षति को रोकता है। इस प्रकार वायुमण्डल पृथ्वी पर जीवों के रहने लायक तापक्रम को तापसंतुलन के माध्यम को बनाये रखता है।

जैविक अवयव (Biotic Component): पारिस्थितिकी तंत्र के जैविक अवयव में पृथ्वी पर के सभी जीव शामिल हैं। जीव-मण्डल जीवों की अनेक प्रजातियों (species) से मिलकर बना होता है। ये प्रजातियाँ पारिस्थितिकी तंत्र में एक दूसरे पर निर्भर होती हैं। जैविक अवयव पोषक संरचना का पर्याय है। इसी पोषक संरचना के कारण पोषक तत्त्वों या खाद्य-श्रृंखलाओं के परस्पर सम्बन्धों के आधार पर जीवों में भिन्नता की पहचान होती है। पारिस्थितिकी तंत्र के जैविक अवयव में निम्नलिखित शामिल हैं-

1. स्वपोषी अवयव (Autotrophic Component): इसके अन्तर्गत अपना पोषण स्वयं करने वाले जीवों की गणना होती है। एक स्वपोषी अवयव प्रकाश ऊर्जा की उपस्थिति में प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा सरल अकार्बनिक पदार्थों के उपयोग द्वारा जटिल कार्बनिक पदार्थ बनाते हैं। स्वयंपोषी जीवों में सरल कार्बनिक पदार्थों के संश्लेषण की क्षमता होती है। इसका अभिप्राय यह है कि स्वयंपोषी (autotrophic components) अकार्बनिक पदार्थों से अपने भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं। इसलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र का स्वपोषित अवयव या घटक कहा जाता है। स्वयंपोषी जीवों को उत्पादक भी कहा जाता है। स्वयंपोषी जीवों के उदाहरण शैवाल (algae), हरे पौधे (green plants), हैं। इनमें प्रकाश संश्लेपी (photosynthetic) बैक्टिरिया भी शामिल हैं। ये उत्पादक सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा ग्रहण करते हैं और अकार्बनिक पदार्थों से कार्बनिक पदार्थ बनाते हैं। कुछ सीमा तक गंधकीय आक्सीकरण (sulphar oxidation) और सूक्ष्म जीवाणु (chemosynthetic microbes) भी पारिस्थितिकी तंत्र में कार्बनिक पदार्थों के निर्माण में सहयोग करते हैं।

2. परपोषी अवयव (Hetrotrophic Component): पारिस्थितिकी तंत्र का परपोषी अवयव वह अवयव है जिसमें उपभोग, पुनर्व्यवस्था एवं जटिल कार्बनिक पदार्थों के अपघटन की प्रधानता होती है। परपोषी जैविक अवयव या घटक को उपभोक्ता भी कहा जाता है क्योंकि ये अपने भोजन और पोषण के लिए दूसरों पर निर्भर करते हैं। परपोषी जीवों का एक उदाहरण पशु है। ये स्वयंपोषी जीवों द्वारा निर्मित कार्बनिक पदार्थों का भक्षण करते हैं। परपोषियों के दो प्रमुख भेद हैं (क) मैक्रो उपभोक्ता और (ख) मृतोपजीवी उपभोक्ता।

(क) मैक्रो उपभोक्ता (Macro Consumers): मैक्रो उपभोक्ता परपोषी जीव हैं। इनके तीन प्रमुख वर्ग हैं (1) शाकाहारी (herbivorous) (ii) मांसाहारी (carnivorous) एवं (iii) सर्वभक्षी (omnivorous) शाकाहारी को प्राथमिक उत्पादक (primary consumer) कहा जाता है। शाकाहारी सीधे-साधे पौधों या उनके अवशेषों को खाते हैं। अर्थात् इन्हें शाकाहारी जीव कहा जाता है। मांसाहारी द्वितीयक उपभोक्ता हैं जो दूसरे उपभोक्ताओं को खाते हैं अर्थात ये अशाकाहारी होते हैं, जैसे पशुओं में शेर, चीता इत्यादि। सर्वभक्षी वैसे उपभोक्ता हैं जो उत्पादकों के साथ-साथ प्राथमिक उपभोक्ताओं को भी खाते हैं अर्थात् ये शाकाहारी भी हैं और आमिषभोजी भी हैं, जैसे, मनुष्य

(ख) मृतोपजीवी (Saprotrophs): मृतोपजीवी सूक्ष्म उपभोक्ता हैं। ये मुख्यतः अपघटक (decomposer) के नाम से जाने जाते हैं, जैसे- बैक्टिरिया, कवक (fungi), एक्टीनोमीसाइट्स (actinomycetes) एवं फ्लैगलेट्स (flagellates)। मृतोपजीवी अपने भोजन एवं ऊर्जा प्राप्ति के लिए मृत या जीवित पौधों एवं पशुओं के यौगिक कार्बनिक पदार्थों का भक्षण करते हैं। ये अपघटित उत्पादों के कुछ अंशों का अबशोषण कर लेते हैं। इसके भक्षण के बाद ये अकार्बनिक (पोषकों) पदार्थों का पारिस्थितिकी तंत्र में उत्सर्जन करते हैं। इस तरह ये अकार्बनिक पदार्थों को उत्पादकों अर्थात् स्वपोषियों को सुलभ बनाते हैं।

पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य (Function of Ecosystem):

पारिस्थितिकी तंत्र का कार्यात्मक पहलू इस बात पर प्रकाश डालता है कि नैसर्गिक परिस्थितियों में पारिस्थितिकी किस प्रकार कार्य करती या संचालित होती है। कार्यात्मक दृष्टि से पारिस्थितिकी के अजैविक और जैविक अवयव प्रकृति में परस्पर इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि व्यावहारिक दृष्टि से उन्हें एक-दूसरे से पृथक करना पूर्णतः असम्भव है।

रासायनिक पदार्थ जिनमें जैविक समूह के आधारभूत तत्त्व प्रोटोप्लाज्मा भी शामिल है, का जैव-मण्डल में लगातार चक्र चलता रहता है। ये रासायनिक पदार्थ पर्यावरण से जीवों में आते हैं और पुनः पर्यावरण में ही लौट जाते हैं। इस चक्र को सामान्यतः पोषक (nutrient) चक्र कहा जाता है जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिए पदार्थ (खनिज) उपलब्ध कराते हैं। उत्पादक (स्वपोषी पादप या पौधे) शक्ति या ऊर्जा के विकिरण, को खनिजों (यथा C (कार्बन), H (हाइड्रोजन), N (नाइट्रोजन), O (ऑक्सीजन), P (फासफोरस), K (पोटाशियम), S (सल्फर) इत्यादि) को निर्धारित करते हैं। उत्पादक इन्हें मिट्टी और पर्यावरण से ग्रहण करते हैं। इस तरह वे कार्बनिक पदार्थ (कार्बोहाइड्रेट, वसा, लिपिड्स (lipids), प्रोटीन केन्द्रक, अम्ल इत्यादि) तैयार करते हैं। उत्पादकों द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा (खाद्य के रूप में) का प्रवाह मैक्रो उपभोक्ताओं और अपघटकों (decomposers) की ओर चलता रहता है।

साधारणतया ऊर्जा का प्रवाह गैर-चक्रीय रूप में अर्थात् एक दिशा में होता है। इनका प्रवाह सूर्य से अपघटकों की ओर उत्पादकों और वृहद उपभोक्ताओं अर्थात् परपोषियों के माध्यम से संचालित है। जबकि खनिज या पोषक तत्त्वों का चक्रीय प्रणाली के रूप में चक्र चलता रहता है। यह ध्यान देने की बात है कि खनिजों का चक्र विभिन्न प्रकार के जैव भू-रसायनों (bio geo chemical) पोषकों द्वारा पूरा होता है। ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है। ऊर्जा का प्रवाह न केवल एकदिशीय होता है अपितु विभिन्न तरह से ऊर्जा नष्ट भी हो जाती है। इस प्रकार खनिजों का भी क्षरण होता रहता है।

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