मूल्यवर्धन कर (Value Added Tax-VAT)

मूल्यवर्धन कर (Value Added Tax-VAT)

मूल्यवर्धन कर (Value Added Tax-VAT)

मूल्यवर्धन कर (Value Added Tax-VAT)

अर्थ

मूल्यवर्धन कर एक ऐसा उत्पादन कर है, जो सदैव बाजार मूल्य के 'उत्पादन' पर लगाया जाता है. और इस कारण एक विचाराधीन वस्तु की बाजार मूल्य में वृद्धि पर ही आरोपा एवं आंका जाता है।

मूल्यवर्धन कर 'वस्तुपरक' (specific) न होकर सदैव मूल्यपरक (ad valorem) होता है।

चूँकि मूल्यवर्धन आंकने की कई विधियाँ हैं अतः उनके तद्नुरूप मूल्यवर्धन कर के भी कई प्रकार हैं।

प्रशासनिक सुविधा के लिए किसी विचाराधीन वस्तु/सेवा पर मूल्यवर्धन कर एक अथवा एक से अधिक चरणों में वसूला जा सकता है। ऐसी व्यवस्था में प्रत्येक चरण की कर देयता केवल उसी चरण में होने वाली मूल्यवृद्धि पर तय की जाती है।

परिणामस्वरूप इसकी वसूली के चरण जितने भी हों, इसका कुल कराधार तथा इसकी कुल कर-देयता के अनुमानों में अन्तर नहीं पड़ता।

केवल बाजार-मूल्य में वृद्धि पर आरोपित होने के कारण स्वभोग (self-consumption) के लिए उत्पादित 'मूल्य' अथवा 'उपयोगिता' कर-मुक्त रहते हैं।

प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से एक उत्तम मूल्यवर्धन कर-प्रणाली वह है जिसमें यह कर सभी वस्तुओं और सेवाओं पर और एक ही दर से आरोपा जाए। परंतु अनेक कारणों से यथार्थ में इस प्रकार की मूल्यवर्धन कर-प्रणाली की प्राप्ति नहीं हो पाती।

एक बड़े कुटुम्ब का सदस्य (Member of a Large Family)

मूल्यवर्धन कर की विशेषताएँ उत्पादन और बिक्री करों की विशेषताओं का एक सम्मिश्रण होती हैं-

मूल्यवर्धन कर की प्रकृति एक वस्तुपरक कर की न होकर सदैव एक मूल्यपरक कर की होती है। एक विचाराधीन वस्तु पर देय मूल्यवर्धन कर उसके अंतिम क्रेता के पास पहुँचने तक के उत्पादित सकल बाजार मूल्य पर आंका जाता है। केवल वसूली की सुविधा के लिए इसे एक अथवा एक से अधिक उत्पादन/विक्री के चरणों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक चरण में कर देयता उसी चरण में उत्पादित 'मूल्य' (मूल्यवर्धन) पर निर्धारित की जाती है।

इसके विपरीत बिक्री कर की परिशुद्ध मात्रा इसकी दर के अतिरिक्त इसके वस्तुपरक अथवा मूल्यपरक होने पर भी निर्भर करती है।

यदि बिक्री कर बिक्री के एक ही चरण पर वसूला जा रहा हो (If it is a single point tax) तो इसकी परिशुद्ध देय राशि इसकी वसूली के चरण के साथ-साथ परिवर्तित होती जाती है। सामान्यतः बिक्री के अधिक चरणों से निकल चुकी वस्तु पर देय बिक्री कर बढ़ जाता है। बिक्री कर के मूल्यपरक होने पर बढ़ोतरी की यह प्रवृत्ति और भी सक्षम हो जाती है।

यदि बिक्री कर मूल्यपरक होने के साथ-साथ बहुचरणीय (multi-point) भी हो, तो इसमें करारोपित वस्तु पर प्रत्येक बिक्री के साथ ब्याज-दर-ब्याज रूपी वृद्धि होने लगती है जिससे अर्थव्यवस्था का ढाँचा कई प्रकार से विकृत होने लगता है।

• यदि विचाराधीन वस्तु पर उत्पादन कर अथवा अन्य प्रकार के कर अदा किए जा चुके हों तौ इनसे भी इसपर बिक्री कर की देय राशि बढ़ जाती है जबकि मूल्यवर्धन कर-देयता में इस बात से अंतर नहीं पड़ता।

इसी प्रकार यदि उत्पादन शुल्क मूल्यपरक और बहुचरणीय हो उससे भी ब्याज-दर-ब्याज की स्थिति उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ, एक कार के उत्पादन में रंग, टायर, बैटरी तथा अन्य कई आगतें (inputs) प्रयुक्त होती हैं। यदि इन आगतों पर उत्पादन शुल्क देय हो तो कार की पूर्ति-कीमत के बढ़ने से इस पर देय उत्पादन शुल्क भी बढ़ जाता है। इस प्रकार की संचित कर-देयता (cumulative tax) से अर्थव्यवस्था का कई प्रकार से अहित होता है।

व्याख्या (Elaboration)

व्यावहारिकता के दृष्टिकोण से वस्तु के सकल मूल्य पर कर-देयता निर्धारित करने के पश्चात् उसमें से पहले के चरणों में अदा किए गए मूल्यवर्धन कर की राशियों को घटा दिया जाता है। इस प्रकार उत्पादन के हर चरण में उत्पादन मूल्य में हुई केवल निवल वृद्धि पर ही मूल्यवर्धन कर की देय राशि निर्धारित की जाती है। इस विधि से यह भी सुनिश्चित हो जाता है कि किसी विचाराधीन वस्तु पर कई चरणों में लगाए गए मूल्यवर्धन कर का जोड़ तथा उस वस्तु पर केवल अंतिम विक्री के चरण में लगाए गए कर के बराबर रहेगा। अंतर केवल इतना रहता है कि इसकी वसूली एकमुश्त के स्थान पर कई किस्तों में की जाती है। दोनों विधियों द्वारा निर्धारित कुल कर देयता की समानता का कारण यह है कि उत्पादन के विभिन्न चरणों में हुई निवल मूल्य वृद्धियों का जोड़ उस वस्तु की सकल उत्पादन प्रक्रिया में होने वाली निवल मूल्य वृद्धि के बराबर होती है।

इस समय भारत में वस्तुओं पर बिक्री कर लगाने के अधिकार केवल राज्यों को है। केन्द्रीय बिक्री कर की वसूलियाँ भी राज्यों में वितरित की जाती हैं और इस कर को चरणबद्ध ढंग से हटाया भी जा रहा है। इसके विपरीत उत्पादन कर की अधिकतर मदें केन्द्र के लिए आरक्षित हैं। सेवा कर केवल केन्द्र लगाता है और इसे प्रत्येक केन्द्रीय बजट में न केवल नई सेवाओं पर लगाया जा रहा है प्रत्युत इसकी दरों आदि में भी संशोधन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त पूरे देश में समस्त उत्पादन और बिक्री करों को मूल्यवर्धन कर-प्रणाली का रूप दिया जा रहा है। केन्द्र के लगभग सभी उत्पादन शुल्कों और राज्यों के बिक्री करों को मूल्यवर्धन कर प्रणाली में परिवर्तित किया जा चुका है, तथा केन्द्रीय बिक्री कर को वर्ष 2010 तक हटा लेने का लक्ष्य है ताकि अंततः सेवा-कर सहित समस्त परोक्ष करों को एक देशव्यापी व्यापक वस्तु-सेवा कर (a comprehensive TSG or tax on goods and services) में परिवर्तित कर दिया जाए।

चार प्रकार (Four Kinds of VAT)

मूल्यवर्धन कर कई प्रकार का हो सकता है। इसमें भी दरों को भिन्त्रता तथा कर छूट के अवसर रहते हैं। इसके वर्गीकरण में निम्नलिखित तथ्यों पर विचार करने की आवश्यकता होती है-

(i) उत्पादन के लिए खरीदे गए पूँजी-आगत (purchases of capital inputs):

(ii) पूँजी का मूल्य ह्रास (depreciation of capital);

(iii) उत्पादन के लिए खरीदे गए पूँजी-भिन्न आगत (purchses of non-capital inputs);

(iv) पूँजी का मूल्य;

(v) लाभ-आय (जिसमें ब्याज आय तथा लगान आय आदि शामिल हैं) (profit income, including rent and interest incomes)

इन मदों के प्रयोग से प्रो० कार्ल शूप (Dr. Carl S. Shoup) ने मूल्यवर्धन कर के आधार को नियत करने हेतु चार विधियाँ गिनवाई हैं, जिनके तदनुरूप मूल्यवर्धन कर के चार प्रकार बनते हैं।

(क) उत्पादन मूल्यवर्धन कर (Production VAT)

मूल्यवर्धन कर के इस प्रकार में किसी विचाराधीन फर्म की कर देयता का अनुमान लगाने के लिए उसके उत्पादन के सकल मूल्य को उसकै बिक्री मूल्य के बराबर मानते हुए, उसमें से फर्म द्वारा क्रय किए गए पूँजी-भिन्न आगतों के मूल्य को घटा दिया जाता है। ध्यानयोग्य है कि फर्म द्वारा क्रय किए गए अन्य सभी आगतों के मूल्य को तथा पूँजी के मूल्य ह्रास को भी उत्पादन के बिक्री मूल्य से नहीं घटाया जाता। इस प्रकार फर्म द्वारा उत्पादित मूल्यवर्धन के अनुमान में पूँजी आगतों द्वारा प्रदत्त मूल्य शामिल रहता है चाहे वे पूँजी आगत अन्य फर्मों से ही क्यों न खरीदे गए हों। सामान्य शब्दों में कहें तो मूल्यवर्धन कर के इस प्रकार में फर्म का कराधार (उत्पादन का कुल मूल्य -पूँजी-भिन्न आगतों का मूल्य) (Value of Output - Value of Non-capital Inputs) के बराबर होता है। यदि समस्त अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से देखा जाए तो इसका सामूहिक कराधार-

(i) यदि विदेश से निवल आय (net income from abroad) को शामिल न करें, तो सकल देशीय उत्पाद (GDP) के बराबर, तथा

(ii) यदि विदेश से निवल आय को शामिल करें तो सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) के बराबर होता है।

मूल्यवर्धन कर के इस प्रकार की मुख्य त्रुटि यह है कि इससे पूँजी का प्रयोग, तथा इस कारण तकनीकी विकास, हतोत्साहित होते हैं।

(ख) उपभोग मूल्यवर्धन कर (Consumption VAT)

मूल्यवर्धन कर के इस प्रकार में फर्म के उत्पादन के कुल मूल्य में से इसके क्रय किए गए सभी पूँजी तथा पूँजी-भिन्न (Value of Output - Value of // Inputs) आगतों का मूल्य घटाकर करयोग्य कराधार का अनुमान लगाया जाता है। इस विधि में पूरी अर्थव्यवस्था के लिए कराधार की मात्रा उसके सकल उपभोग-व्यय के बराबर होती है. जिन निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

विदेशी व्यापार आदि को अनदेखा करते हुए. अर्थव्यवस्था का सकल कराधार मजदूरी आय (W) + लाभ आय (P) + पूँजी का मूल्य ह्रास (D) और निवेश (I) ......(1)

 (यहाँ पर लाभ आय में ब्याज आय, लगान आय आदि शामिल हैं।)

परन्तु राष्ट्रीय आय को निम्नलिखित घटकों में भी बाँटा जा सकता है, अर्थात्

राष्ट्रीय आय उपभोग (C) + निवेश (I) ...(2)

इसी प्रकार सकल राष्ट्रीय आय मजदूरी आय (W)+ लाभ आय (P) + पूँजी का हृस (D) ...(3)

समीकरण संख्या (2) तथा (3) से

W+P+D=C+I

अर्थात् W+P+D-I=C  ...(4)

अर्थात् GNP-I = सकल राष्ट्रीय आय - निवेश = C = उपभोग ...(5)

समीकरण (5) से यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्थव्यवस्था का सकल कराधार इसके उपभोग-व्यय के बराबर होता है। अतः मूल्यवर्धन कर के इस प्रकार को 'उपभोग मूल्यवर्धन कर' की संज्ञा दी जाती है। अधिकतर यूरोपीय देशों में मूल्यवर्धन कर के इसी प्रकार को अपनाया गया है। इसका एक कारण यह है कि इसमें कराधार का अनुमान लगाने में सुगमता रहती है तथा फर्मे पूँजी ह्रास को न्यूनतम रखने के प्रयत्न में पुरानी मशीनों का यथोचित काल तक प्रयोग करती हैं।

प्रो० विनफ्रे (Prof. Winfrey) के कथनानुसार यह कराधार सीधे (बिक्री मूल्य - पूँजी तथा अन्य आगतें) के बराबर होता है।

(ग) आय मूल्यवर्धन कर (Income VAT)

मूल्यवर्धन कर के इस प्रकार में फर्म के उत्पादन मूल्य में से उसके द्वारा खरीदे गए सभी पूँजी भित्र आगतों का मूल्य तथा पूँजी का मूल्य-ह्रास घटाया जाता है (Value of Output-Non-Capital Inputs - Depreciation of Capital); विदेशी व्यापार आदि को अनदेखा करने पर मूल्यवर्धन कर के इस प्रकार में सकल अर्थव्यवस्था का कराधार उसके निवल राष्ट्रीय उत्पाद (NNP) के बराबर होता है। कर का यह प्रकार सबसे जटिल परंतु सबसे अधिक तर्कसंगत है।

(घ) मजदूरी मूल्यवर्धन कर (Wages VAT)

मूल्यवर्धन कर के इस प्रकार में फर्म द्वारा खरीदे गए आगतों के मूल्य के साथ-साथ पूँजी का ह्रास मूल्य तथा इससे अर्जित आय (लाभ तथा ब्याज आदि) भी इसके उत्पादन मूल्य से घटा दिए जाते हैं। अतः इस प्रमापन में कराधार केवल मजदूरी आय के बराबर ही रह जाता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल्यवर्धन के उपर्युक्त चारों प्रकारों में मुख्य भेद पूँजी और लाभआय से संबद्ध है, जिसका सारांश निम्नलिखित है-

(i) उत्पादन प्रकारः फर्म के सकल उत्पादन में से पूरे पूँजी निवेश को घटा दिया जाता है।

(ii) उपभोग प्रकारः फर्म के सकल उत्पादन में से पूरे पूँजी निवेश को घटा दिया जाता है।

(iii) आय प्रकारः आगतों के मूल्य में स्थिर पूँजी की खरीददारी को नहीं जोड़ा जाता।

(iv) मज्जदूरी प्रकारः आगतों के मूल्य में पूँजी से अर्जित आय को भी जोड़ दिया जाता है।

मूल्यवर्धन कर के लाभ (Merits of VAT)

मूल्यवर्धन कर के कई लाभ गिनवाए जाते हैं, जिनके कारण इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। सरकारें तो इसे एक उत्तम कर-प्रणाली का अंग मानती हैं, व्यावसायिक वर्ग भी इसके पक्ष में हैं। इस कर की सर्वप्रथम परिकल्पना जर्मनी के एक अर्थशास्त्री ने की थी। यह कर सर्वप्रथम फ्रांस देश में 1954 में अपनाया गया तथा वर्तमान स्थिति यह है कि इसे भारत सहित विश्व के अनेक देश अपना चुके हैं। भारत में इसको सुविधाजनक चरणों में अपनाए जाने की सिफारिश 1978 में 'झा परोक्ष कर जाँच समिति' (The Indirect Taxation Enquiry Committee, Jha Committee) ने परोक्ष करों पर अपनी रिपोर्ट में की थी। इस समिति ने उस समय की प्रचलित उत्पादन शुल्क-प्रणाली के दोषों को देखते हुए यह सुझाव दिया था कि उत्पादन शुल्क मूल्यवर्धन आधार पर लगाया जाना चाहिए। व्यावहारिक सुविधा के लिए इसने सिफारिश की कि इस नई प्रणाली को कुछ मुख्य निर्माण उद्योगों से प्रारंभ किया जाए. तथा अनुभवानुसार इसका क्षेत्र विस्तृत किया जाए। समिति ने इस आंशिक मूल्यवर्धन उत्पादन कर-प्रणाली को MANVAT की संज्ञा दी। भारत सरकार ने इस सुझाव को कुछ संशोधनों के उपरांत अपनाया तथा इस कारण इसे MODVAT का नाम दिया। कालांतर में उत्पादन शुल्क की इस पद्धति का न केवल विस्तार हुआ, प्रत्युत MODVAT के शब्द को क्रिया के रूप में भी प्रयोग किया जाने लगा। अर्थात् अब MODVAT शब्द का अर्थ एक ऐसी उत्पादन शुल्क-प्रणाली लिया जाता है जिसमें किसी विचाराधीन वस्तु के उत्पादन मूल्य पर देय उत्पादन शुल्क निर्धारित करते समय उस वस्तु में प्रयुक्त आगतों पर पहले से अदा किया गया उत्पादन शुल्क घटा दिया जाता हो। ध्यानयोग्य तथ्य यह भी है कि भारत सरकार ने अपने वर्ष 2000-01 के बजट में केन्द्रीय उत्पादन शुल्क-प्रणाली का नाम बदलकर CENVAT (अर्थात् केन्द्रीय मूल्यवर्धन कर) रख दिया था। इस व्यवस्था में कुछ उपवादों को छोड़कर सभी मूल्यवर्धन शुल्क MODVATABLE हैं; और अब विचाराधीन वस्तु में प्रयुक्त सेवाओं पर अदा किया उत्पादन शुल्क भी modvatable हैं।

1. प्रशासनिक सुविधा (Administrative Convenience)- मूल्यवर्धन कर प्रशासनिक दृष्टिकोण से अति सुविधाजनक है। इसमें कर की चोरी रोकने का काम सुगम हो जाता है, क्योंकि विभित्र फर्मों के लेखों का आपसी मिलान किया जा सकता है।

2. करदाताओं का सहयोग (Cooperation by Taxpayers)- मूल्यवर्धन कर में प्रत्येक उत्पादक यह चाहता है कि उसे कच्चा माल आदि बेचने वाले, अपने चरण का कर अदा कर चुके हों, क्योंकि इस अदायगी का प्रमाण प्रस्तुत करने पर ही उसकी अपनी कर देयता में कमी हो सकती है। इससे कर की चोरी घटती है।

3. समप्रभाविता (Neutrality)- मूल्यवर्धन कर की सभी वस्तुओं के लिए एक समान दर अपनाने से अर्थव्यवस्था कई प्रकार के उन विकारों से बचती है जो सामान्य स्थितियों में करारोपण से उपजते हैं।

सभी वस्तुओं और सेवाओं की तुलनात्मक लाभदायिता पूर्ववत् बनी रहती है। इस कारण देश के उत्त्पादन साधनों के प्रयुक्ति ढाँचे में कोई अंतर नहीं पड़ता, तथा न ही इससे उत्पादन तथा उपभोग डाँचे प्रभावित होते हैं।

फर्म की औसत कर-देयता उत्पादन के पैमाने पर निर्भर नहीं करती। इसका आधार केवल वस्तु का उत्पादन मूल्य होता है। अतः उत्पादक, उत्पादन के उस पैमाने को चुनता है जिस पर (माँग पर ध्यान रखते हुए) वस्तु की औसत लागत न्यूनतम संभव हो। इस प्रकार मूल्यवर्धन कर अर्थव्यवस्था के साधनों के इष्टतम प्रयोग में सहायता देता है।

कोई फर्म किसी वस्तु के उत्पादन के विभिन्न चरणों को अपने पास केन्द्रित करके अपनी कर-देयता में कमी नहीं कर सकती तथा न ही सरकार के कुल राजस्व में इससे कोई अंतर पड़ता है।

4. कीमतों में चक्रीय वृद्धि का अंत (Absence of Cascading Effect on Prices) - मूल्यवर्धन कर लागतों और कीमतों में चक्रीय वृद्धि (cascading price increase) लाने का कारण नहीं बनता। सामान्य प्रकार के बिक्री तथा उत्पादन करों में पहले से अदा किए गए करों पर भी कर लग जाता है, परन्तु मूल्यवर्धन कर में ऐसा नहीं होता। कीमतों में वृद्धि की शक्तियाँ क्षीण होने पर देश के अंदर वितरणीय असमानताओं के बढ़ने की गति भी घटती है।

5. निर्यात (Exports)- मूल्यवर्धन कर को अपनाने से निर्यात को प्रभावी ढंग से प्रोत्साहित करने में सहायता मिलती है। देश के अंदर लागत और कीमतों में चक्रीय वृद्धि की प्रक्रिया रोके जाने से हमारी निर्यात वस्तुओं की विदेशी मंडियों में स्पर्धा-शक्ति बढ़ जाती है। साथ ही निर्यात वस्तुओं पर अदा किए गए करों को लौटाने (तथा इस प्रकार उनकी स्पर्धा-शक्ति में और बढ़ोतरी करने) का कार्य मूल्यवर्धन कर के होने पर आसान हो जाता है। देश में कीमतों की वृद्धि के थम जाने से निर्यात प्रोत्साहित और आयात हतोत्साहित होते हैं तथा इन सब बातों के परिणामस्वरूप भुगतान संतुलन को नकारात्मक होने से बचाया जा सकता है। यह भी स्मरणीय है कि निर्यात वस्तुओं पर अन्य प्रकार के परोक्ष करों का अनुमान लगाना और उन्हें लौटाना आसान नहीं होता।

6. कार्य-कुशलता को प्रोत्साहन (Incentive for Efficiency) - मूल्यवर्धन कर कार्यकुशलता को प्रोत्साहित करता है। इसका कारण यह है कि यह कर केवल लाभ-आय अथवा उत्पादन लागत तक सीमित न रहकर सकल उत्पादन मूल्य पर देय है। घाटे पर चल रही फर्मों को भी यह कर अदा करना पड़ता है। अतः प्रत्येक फर्म की यह चेष्टा रहती है कि बाज़ार में अपनी स्पर्धा-शक्ति में वृद्धि करने तथा अधिक लाभ आय अर्जित करने हेतु अपनी कार्य-कुशलता में बढ़ोतरी करे।

7. नीति प्रयोग (Policy Tool)- संभव है कि सरकार अपनी आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों के अनुसरण में यह कर सभी वस्तुओं पर एक ही दर से न लगाए, तथा/अथवा कुछ वस्तुओं को कर-मुक्त रखे। ऐसा करने से मूल्यवर्धन कर का रूप आकार जटिल हो जाता है, परंतु इसके अन्य कई हितकर गुण फिर भी बने रहते हैं।

5. व्यय-कर (Expenditure Tax)

अर्थ

व्यय-कर का मुख्य स्वरूप वैयक्तिक उपभोग व्यय कर (a tax on personal consumption expenditure) का है, जिसमें कभी-कभार होने वाले मोटे व्ययों (जैसे कि शादी-ब्याह जैसी सामाजिक गतिविधियों, तथा मकान आदि के क्रय पर किए गए व्यय) की मदों को शामिल न किए जाने की संभावना रहती है। सामान्यतः वैयक्तिक उपभोग-व्यय कर में मदवार विवरण पर ध्यान न देते हुए करदाता की कर देयता उसके 'सकल' व्यय पर निर्धारित की जाती है।

व्यय-कर व्यावसायिक इकाइयों पर भी आरोपा जा सकता है। परंतु ऐसा बहुधा कम होता है। वैयक्तिक व्यय-कर की भांति इसमें भी कुछ व्यय मदों को कर-मुक्त रखा जा सकता है, जैसे कि मोटे पूँजी व्यय (उदाहरणार्थ भवनों तथा मशीनों आदि का खरीदा जाना), श्रम-मजदूरी तथा श्रम-कल्याण की मदें आदि।

वस्तु-कर से भिन्नता (Distinction from Commodity Taxation) - एक प्रकार से उत्पादन शुल्क और बिक्री कर को (इन दोनों को मूल्यवर्धन कर के रूप में भी अपनाया जा सकता है) व्यय-करों कुटुम्ब के सदस्य समझा जा सकता है, क्योंकि उत्पादन प्रक्रियाओं के संपन्न हेतु मौद्रिक साधनों का व्यय आवश्यक रहता है। यह अपेक्षा भी की जाती है कि जब ग्राहक विभिन्न करारोपित वस्तुओं के क्रय पर व्यय करेंगे तो उनसे इन करों की भी वसूली कर ली जाएगी (अर्थात् इन करों का अंतिम आपतन भी उन्हें ही वहन करना पड़ेगा)। फिर भी वस्तु-कर और व्यय-कर बुनियादीतौर पर एक-दूसरे से भिन्न हैं जिसके दो मुख्य कारण हैं

वस्तु-कर-प्रणाली में सभी प्रकार के व्यय पर कर नहीं लगाया जाता। करदाता की करदेयता उसके वस्तुओं पर व्यय की सकल मात्रा पर नहीं, प्रत्युत चयनित व्यय मदों तथा उनके मूल्यों आदि पर निर्धारित की जाती है। व्यय की मदों में परिवर्तन आने पर कर देयता की राशि भी बदल जाती है। इसके अतिरिक्त कई मामलों में वस्तु-कर मूल्यपरक न होकर वस्तुपरक हो सकते हैं।

वस्तु-कर में कर का आपतन विक्रेताओं पर भी टिक सकता है। परंतु व्यय-कर का समस्त भार व्यय-कर्ताओं को ही वहन करना पड़ता है।

औचित्य (Rationale) व्यय-कर का बुनियादी औचित्य यह है कि इसमें समाज के उन सदस्यों को दंडित किया जाता है, जो अर्थव्यवस्था के संसाधन भंडार में कमी लाने वाली गतिविधियाँ अपनाते हैं। इसके विपरीत आय कर तथा उत्पादन कर में समाज के उन सदस्यों को दंडित किया जाता है, जो अर्थव्यवस्था के संसाधन भंडार में बढ़ोतरी हेतु कार्यरत होते हैं। इस बुनियादी तथ्य को ध्यान में रखते हुए श्री हॉब्स (Hobbes) ने लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व व्यय-कर को अपनाए जाने की सिफारिश की थी। प्रो० जे० एस० मिल के मतानुसार व्यय-कर अपने-आप में एक पूर्ण एवं समानता पर आधारित कर है, क्योंकि इसमें बचत कर-मुक्त रहती है। प्रो मार्शल ने भी इसे एक आदर्श कर की संज्ञा दी थी। व्यक्तिगत व्यय करदाता की कर देय क्षमता का एक मुख्य सूचकांक माना जाता है। अल्पविकसित देशों में व्यय कर को विशेष रूप से उपयोगी माना जाता है, क्योंकि इससे बचत और पूँजी निर्माण प्रोत्साहित होते हैं. विकास की दर बढ़ती है तथा गरीबी दूर करने में सहायता मिलती है। व्यय-कर के समर्थकों में कॉल्डर (Kaldor), रिचर्ड गुड (Richard Good) तथा राजा जे चैल्लैया (Raja J. Challiah) के नाम गिनवाए जा सकते हैं।

 Public finance (लोक वित्त)

लोक वित्त का अर्थ, परिभाषा, क्षेत्र, प्रकृति एवं महत्व

सार्वजनिक व्यय (PUBLIC EXPENDITURE)

सार्वजनिक व्यय - नियम तथा वर्गीकरण (PUBLIC EXPENDITURE - CANONS AND CLASSIFICATION) 

सार्वजनिक व्यय के प्रभाव (EFFECTS OF PUBLIC EXPENDITURE)

सार्वजनिक ऋण (Public Debt)

भारतीय सार्वजनिक ऋण (Public Debt in India)

राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)

शून्य आधारित बजट (Zero Based Budget)

संतुलित बजट गुणक (Balanced Budget Multiplier)

वाईजमन - पीकॉक सिद्धांत (Wisemar-peacock Hypothesis)

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