प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)
Class - 12
इतिहास (History)
अध्याय - 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत मुगल दरबार (लगभग सोलहवीं और सत्रहवीं सदी)
बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Question)
1. भारत में मुगल साम्राज्य का संस्थापक किसे माना जाता है?
A. बाबर
B. हुमायूं
C. औरंगजेब
D. जहांगीर
2. बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच प्रथम पानीपत का युद्ध कब लड़ा गया था?
A. 1526
B. 1527
C. 1528
D. 1529
3. रज्मनामा के नाम से किस ग्रंथ का फारसी अनुवाद किया गया?
A. गीता
B. उपनिषद
C. रामायण
D. महाभारत
4. अकबर ने दीन-ए-इलाही नामक धर्म कब चलाया था?
A. 1590
B. 1581
C. 1570
D. 1575
5. बाबर ने अपनी आत्मकथा बाबरनामा (तुजुक ए बाबरी) की रचना मूल रूप से किस भाषा
में किया था?
A. फारसी
B. अरबी
C. तुर्की
D. उर्दू
6. भारत का अंतिम मुगल सम्राट कौन था?
A. औरंगजेब
B. बहादुर शाह जफर
C. फर्रुखसियर
D. मोहम्मद शाह
7. किस मुगल शासक ने हिंदुओं पर से जजिया कर हटाया था?
A. बाबर
B. हुमायूं
C. अकबर
D. औरंगजेब
8. स्थापत्य कला का सर्वाधिक विकास किसके समय में हुआ था?
A. बाबर
B. अकबर
C. शाहजहां
D. जहांगीर
9. मुगलकालीन चित्रकला किसके काल में चरमोत्कर्ष पर पहुंची थी?
A. अकबर
B. हुमायूं
C. जहांगीर
D. शाहजहां
10. हुमायूँनामा की रचना किसने की थी?
A. अबुल फजल
B. गुलबदन बेगम
C. हुमायूं
D. अब्दुल लतीफ
11. अकबर ने तीर्थ यात्रा कर को कब समाप्त किया था?
A. 1562
B. 1563
C. 1564
D. 1565
12. 1576 ई० में हल्दीघाटी का युद्ध किसके बीच लड़ा गया था?
A. बाबर एवं
इब्राहिम लोदी के बीच
B. बैरम खां एवं
हेमू के बीच
C. अकबर एवं महाराणा प्रताप के बीच
D. हुमायूं एवं
शेरशाह के बीच
13. अकबरनामा तीन जिल्दो में विभाजित है, तीसरी जिल्द को किस नाम से जाना जाता है?
A. बाबरनामा
B. बादशाहनामा
C. आईन-ए-अकबरी
D. हुमायूंनामा
14. बादशाहनामा की रचना किसने की थी?
A. गुलबदन बेगम
B. अब्दुल हमीद लाहौरी
C. अबुल फजल
D. अब्दुल लतीफ
15. एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल का स्थापना कब और किसने किया था?
A. सर विलियम जॉन्स 1784
B. हेनरी बेवरिज 1791
C. चार्ल्स मेटकफ 1785
D. इनमें से कोई
नहीं
16. अकबरनामा का अंग्रेजी अनुवाद किसने किया था?
A. सर विलियम
जॉन्स
B. हेनरी बेवरिज
C. चार्ल्स मेटकफ
D. जेम्स प्रिंसेप
अति लघु उत्तरीय प्रश्न:-
1. मुगल शब्द की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ?
उत्तर -
मुगल शब्द की उत्पत्ति मंगोल शब्द से हुई है मुगलों ने स्वयं इस विशेषण का प्रयोग
नहीं किया क्योंकि पितृ पक्ष से वे तैमूर के वंशज थे, और तैमूरी
कहलाते थे। तथा मातृ पक्ष से बाबर चंगेज खान से संबंधित था। 16 वीं सदी के
यूरोपीय इतिहासकारों ने बाबर और उसके परिवार के लिए मुगल शब्द का प्रयोग किया।
2. अकबर ने किस भाषा को राज दरबार की मुख्य भाषा बनाया और क्यों?
उत्तर-
अकबर ने फ़ारसी को राज दरबार की मुख्य भाषा बनाया था। इसके लिए अकबर को संभवत:
ईरान के साथ सांस्कृतिक और बौद्धिक संपर्कों,
मुगल दरबार में पद पाने के इच्छुक ईरानी तथा मध्य एशियाई प्रवासियों ने बादशाह
को इस भाषा को अपनाए जाने के लिए प्रेरित किया होगा ।
3. दो संस्कृत ग्रंथों के नाम बताओ जिनका मुगलकाल में फ़ारसी में अनुवाद हुआ।
उत्तर-
रामायण तथा महाभारत। फारसी अनुवाद होने के पश्चात महाभारत का नाम रज्मनामा रखा
गया।
4. सुलेखन की 'नस्तलिक' शैली क्या थी?
उत्तर-
नस्तलिक अकबर की मनपसंद लेखन शैली थी। यह एक ऐसी तरल शैली थी जिसे लंबे सपाट
प्रभावी ढंग से लिखा जाता था। इसे लिखने के लिए सरकंडे की 5 से 10 मिलीमीटर की
नोक वाली एक कलम तथा स्याही का प्रयोग किया जाता था। सामान्यतः कलम की नोक के बीच
एक छोटा-सा चीरा लगा दिया जाता था,
ताकि वह स्याही को आसानी से सोख ले।
5. अकबर द्वारा अपनाए गए सुलह-ए-कुल की नीति से क्या समझते हैं?
उत्तर-
अकबर ने अपने विशाल साम्राज्य में एकता एवं शांति स्थापित करने के लिए सुलह-ए-कुल
की नीति अपनाई थी। अकबर ने अपने सभी अधिकारियों को प्रशासन में सुलह ए कुल की नीति
अपनाने का निर्देश दिए थे और साम्राज्य के सभी संप्रदाय के लोगों के साथ आपसी
भाईचारे एवं प्रेम भाव का व्यवहार करने का आदेश दिया था ।
6. सबसे महान मुग़ल सम्राट किसे माना जाता है?
उत्तर-
जलालुद्दीन अकबर (1556-1605)
को सबसे महान् मुगल शासक माना जाता है क्योंकि उसने न केवल साम्राज्य का
विस्तार किया बल्कि उसे सुदृढ़ और समृद्ध भी बनाया। उन्होंने अपने साम्राज्य की
सीमाओं का विस्तार हिंदुकुश पर्वत तक करने में सफल रहा।
7. भारत में मुग़ल राजवंश का अंत किस प्रकार हुआ?
उत्तर-
1707 में
औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल शासन की केंद्रीय शक्ति कम हो गई। अतः विशाल मुग़ल
साम्राज्य के स्थान पर कई क्षेत्रीय शक्तियाँ उभर आईं। लेकिन फिर भी सांकेतिक रूप
से मुग़ल शासक की प्रतिष्ठा बनी रही। 1857
में इस वंश के अंतिम शासक बहादुरशाह जफर द्वितीय को अंग्रेजों ने उखाड़ फेंका।
इस प्रकार मुग़ल वंश का अंत हो गया।
8. मनसबदारी प्रथा से क्या समझते हैं?
उत्तर-
मनसबदारी फारसी भाषा के मनसब शब्द से बना है जिसका अर्थ पद या ओहदा होता है। जिस
व्यक्ति को सम्राट द्वारा यह पद दिया जाता था उसे मनसबदार कहा जाता था। इस प्रथा
को मुगल सम्राट अकबर ने अपने शासन व्यवस्था को सुदृढ़ प्रदान करने हेतु लागू किया
था।
लघु उत्तरीय प्रश्न:-
1. मुगल दरबार में पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
मुग़ल दरबार में पांडुलिपि की रचना का मुख्य केंद्र शाही किताबखाना था। यह दरअसल एक लिपिघर था, जहाँ बादशाह की
पांडुलिपियों का संग्रह रखा जाता था तथा नई पांडुलिपियों की रचना की जाती थी ।
पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले लोग शामिल होते थे-
कागज
बनाने वाले, पांडुलिपि
के पन्ने तैयार करने वाले,
पाठ की नकल करने के लिए सुलेखक,
पृष्ठों को चमकाने के लिए कोफ़्तगार,
पाठ के दृश्यों को चिंत्रित करने के लिए चित्रकार, चित्रकारों की
पाठ से दृश्यों को चित्रित करने के लिए और जिल्दसाजों की प्रत्येक पन्नों को
इकठ्ठा कर उसे अलंकृत आवरण में बैठाने के लिए आवश्यकता होती थी। तैयार पांडुलिपि
को एक बहुमूल्य वस्तु, बौद्धिक
संपदा, और
सौंदर्य के कार्य के रूप में देखा जाता था। वास्तव में ये आकर्षक पांडुलिपियाँ
अपने संरक्षक मुग़ल बादशाह की शक्ति को दर्शाती थी।
2. मुग़ल दरबार से जुड़े दैनिक कर्म और विशेष उत्सवों के दिनों ने किस तरह से
बादशाह की सत्ता / शक्ति को प्रतिपादित किया होगा?
उत्तर-
मुगल दरबार से जुड़े दैनिक कार्यों तथा विशेष उत्सवों का मुख्य केंद्र बिंदु
बादशाह ही होता था अतः प्रत्येक कार्य तथा उत्सव बादशाह की शक्ति तथा सत्ता को ही
प्रतिपादित करता था। इसे इस तरह से समझा जा सकता है-
1. राजदरबार में अनुशासन-
दरबार में सभी दरबारियों का स्थान बादशाह द्वारा ही निर्धारित किया जाता था। दरबार
में किसी की हैसियत इस बात से निर्धारित होती थी कि वह शासक के कितना पास और दूर
बैठा है। जब बादशाह सिंहासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं और
जाने की अनुमति नहीं होती थी। न ही कोई बादशाह की अनुमति के बिना दरबार से बाहर जा
सकता था दरबार के नियमों का उल्लंघन करने वालों को तुरंत दंडित किया जाता था।
2. अभिवादन करने
के तरीके- शासक को किए गए अभिवादन का तरीका व्यक्ति के दर्जे को
दर्शाता था। अधिक झुककर अभिवादन करने वाले व्यक्ति का दर्जा अधिक ऊँचा माना जाता
था। आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन
तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जमींबोसी (जमीन चूमना) के तरीके अपनाए गए।
3. झरोखा दर्शन- यह
प्रथा अकबर ने आरंभ की थी। इसके अनुसार बादशाह अपने दिन का आरंभ सूर्योदय के समय
कुछ व्यक्तिगत धार्मिक प्रार्थनाओं सैं करता था। इसके बाद वह पूर्व की ओर मुँह किए
एक छोटे छज्जे अर्थात् झरोखे में आता था। इसके नीचे लोगों की भीड़ बादशाह की एक
झलक पाने के लिए इंतज़ार कर रही होती थी इसे झरोखा दर्शन कहते थे। इसका उद्देश्य
शाही सत्ता के प्रति जन विश्वास को बढ़ावा देना था।।
4. विशिष्ट अवसर
पर दरबार का माहौल-सिंहासनारोहण की वर्षगाँठ, ईद,
शब-ए- बारात तथा होली जैसे विशिष्ट अवसरों पर दरबार का वातावरण जीवंत हो उठता
था। इसके अतिरिक्त मुग़ल शासक वर्ष में तीन मुख्य त्योहार मनाया करते थे-
सूर्यवर्ष और चंद्रवर्ष के अनुसार शासक का जन्मदिन तथा वसंतागमन पर फ़ॉरसी नववर्ष
नौरोज़ जन्मदिन पर शासक को विभिन्न वस्तुओं से तोला जाता था तथा बाद में ये
वस्तुएँ दान में बाँट दी जाती थीं।
3. मुग़ल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का
मूल्यांकन कीजिए?
उत्तर-
मुगल परिवार में बादशाह की पत्नियाँ और उपलब्धियाँ उसके नजदीकी तथा दूर के
रिश्तेदार महिला सेविकाएँ तथा गुलाम होते थे। शासक वर्गों में बहुविवाह प्रथा
व्यापक रूप से प्रचलित थी।
मुगल
परिवार में शाही परिवारों से आने वाली स्त्रियों (बेगमों) तथा अन्य स्त्रियों
(अगहा) जो कुलीन परिवारों में से नहीं थीं,
में अंतर रखा जाता था। दहेज (मेहर) के रूप में (पर्याप्त नकदी और बहुमूल्य
वस्तुएँ लाने वाली बेगमों को अपने पतियों से स्वाभाविक रूप से अगहाओं की तुलना में
अधिक ऊँचा दर्जा और सम्मान दिया जाता था। राजतंत्र से जुड़ी महिलाओं में
उपपत्नियों (अगाचा) की स्थिति सबसे निम्न थी। इन्हें नकद मासिक भत्ता तथा अपने-
अपने दर्जे के अनुसार उपहार मिलते थे।
वंश
आधारित पारिवारिक ढाँचा पूरी तरह स्थायी नहीं था। यदि पति की इच्छा हो और उसके पास
पहले से ही चार पत्नियाँ न हों तो अगहा और अगाचा भी बेगम की स्थिति पा सकती थीं।
ऐसी स्त्रियों को प्रेम तथा मातृत्व विधिवत् रूप से विवाहित पनियों के दर्जे तक
पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।
गुलाम-
पत्नियों के अतिरिक्त मुग़ल परिवार में अनेक महिला तथा पुरुष गुलाम होते थे। वे
साधारण से साधारण कार्यों से लेकर कौशल,
निपुणता तथा बुद्धिमत्ता के कार्य करते थे गुलाम हिजड़े (ख्वाजासर) परिवार के
अंदर और बाहर के जीवन में रक्षक,
नौकर और व्यापार में दिलचस्पी लेने वाली महिलाओं के एजेंट होते थे। नूरजहां के
बाद मुगल परिवार में अनेक महिला तथा पुरुष मुगल रानियो और राजकुमारियों ने
महत्वपूर्ण वित्तीय स्रोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया । शाहजहां की पुत्रियों
जहांआरा और रौशन आरा हुमायूं की बहन गुलबदन बेगम आदि का नाम महत्वपूर्ण है।
4. मुगल प्रांतीय प्रशासन के मुख्य अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। केंद्र किस तरह
से प्रातों पर नियंत्रण रखता था?
उत्तर-
मुगल सम्राटों की प्रांतीय शासन व्यवस्था का स्वरूप केंद्रीय शासन व्यवस्था के
स्वरूप के समान ही था। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से साम्राज्य का विभाजन
प्रांतों अथवा सूबों मैं कर दिया गया था प्रत्येक सूबा कई सरकारों में बांटा हुआ
था प्रांतीय शासन व्यवस्था के प्रमुख अभिलक्षणों को इस प्रकार समझा जा सकता है-
1. सूबेदार
सूबेदार प्रांत का सर्वोच्च अधिकारी था। सूबे के सभी अधिकारी उसके अधीन होते थे।
2. दीवान -
दीवान प्रांत का प्रमुख वित्तीय अधिकारी था। प्रान्तीय खजाने की देखभाल करना, प्रांत की
आय-व्यय का हिसाब रखना,
दीवानी मुकद्दमों का फैसला करना,
राजस्व विभाग के कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल करना आदि दीवान के
महत्त्वपूर्ण कार्य थे।
3. बख्शी-
बख्शी प्रांतीय सैन्य विभाग का प्रमुख अधिकारी था। प्रांत में सैनिकों की भर्ती
करना तथा उनमें अनुशासन बनाए रखना उसके प्रमुख कार्य थे।
4. कोतवाल-
प्रांत की राजधानी तथा महत्त्वपूर्ण नगरों की आंतरिक सुरक्षा, शांति एवं
सुव्यवस्था तथा स्वास्थ्य और सफाई का प्रबंध कोतवाल द्वारा किया जाता था।
5. सदर
और काज़ी - प्रांत में सदर और काजी का पद सामान्यतः एक ही व्यक्ति
को दिया जाता था। सदर के रूप में वह प्रजा के नैतिक चरित्र की देखभाल करता था और
काजी के रूप में वह प्रांत का मुख्य न्यायाधीश था।
6. शासन के
प्रत्येक विभाग के पास लिपिकों का एक बड़ा सहायक समूह, लेखाकार, लेखा परीक्षा, संदेशवाहक और
अन्य कर्मचारी होते थे जो तकनीकी रूप से दक्ष अधिकारी थे ये लिखित आदेश व वृत्तांत
तैयार करते थे।
मुगल
सम्राटों ने प्रांतों पर केन्द्र का नियंत्रण बनाए रखने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण
कदम उठाए थे
1. सम्राट स्वयं
प्रांतीय प्रशासन में पर्याप्त रुचि लेता था।
2. प्रांत
के प्रमुख अधिकारी सुबेदार की नियुक्ति स्वयं सम्राट के द्वारा की जाती थीं और वह
सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी होता था।
3. प्रशासनिक
कार्यकुशलता को बनाए रखने तथा सूबेदार की शक्तियों में असीमित वृद्धि को रोकने के
उद्देश्य से प्रायः तीन या पाँच वर्षों के बाद सूबेदार का एक प्रांत से दूसरे
प्रांत में तबादला कर दिया
जाता था।
4. प्रांतों
में कुशल गुप्तचर व्यवस्था की स्थापना की गई थी। परिणामस्वरूप प्रान्तीय प्रशासन
से सम्बन्धित सभी सूचनाएँ सम्राट को मिलती रहती थीं।
5. सम्राट
द्वारा समय-समय पर स्वयं प्रांतों का भ्रमण किया जाता था।
5. इतिवृत्त से आप क्या समझते हैं? इनका मुख्य उद्देश्य क्या था ?
उत्तर-
इतिवृत्त मुख्य रूप से मुगल काल में लिखे गये दस्तावेज थे। ये दस्तावेज प्रमुख रूप
से मुगल बादशाहों द्वारा लिखवाये जाते थे।
मुगल
बादशाहों द्वारा तैयार कराए गए इतिवृत्त साम्राज्य और उसके दरबार के अध्ययन के
महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
इतिवृत्तों
की रचना के मुख्य उद्देश्य-
1. शासक
की भावी पीढ़ी को शासन की सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाना।
2. मुगल
शासकों के विरोधियों को चेतावनी देना तथा यह बताना कि विद्रोह का परिणाम असफलता
है। इतिवृत्तों के लेखक मुख्यतः दरबारी होते थे इतिवृत्तों के मुख्य विषय थे
शासनकाल की घटनाएँ, शासक का
परिवार, दरबार
तथा अभिजात्यवर्ग, युद्ध
आदि ।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न:-
1. उदाहरण सहित मुगल इतिहास के विशिष्ट अभिलक्षणों पर चर्चा कीजिए।
उत्तरः-
मुगल सम्राटों की धारणा थी कि परम शक्ति द्वारा उनका कार्य विशाल एवं जातीय जनता
पर शासन करने के लिए किया गया था। मुगल सम्राटों ने अपने भव्यता एवं शालीनता के
लेखन कार्य को अपने दरबारी इतिहासकारों को सौपा। जिन्होंने यह कार्य विद्वतापूर्वक
संपन्न किया। और उन्होंने बादशाह या सम्राट के काल में घटित होने वाली घटनाओं का
लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है।
मुगल
इतिवृत्तों या इतिहासों के प्रमुख लक्षण:
1. मुगल इतिवृतों
के लेखक दरबारी इतिहासकार थे।
उन्होंने मुगल शासकों के संरक्षण में इतिवृत्तों की रचना की। अतः स्वाभाविक
रूप से शासक पर केंद्रित घटनाएँ,
शासक का परिवार, दरबार
और अभिजात वर्ग के लोग,
युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ उनके द्वारा लिखे जाने वाले इतिहास के
केन्द्रीय विषय थे अकबर,
शाहजहाँ और औरंगजेब की जीवन कथाओं पर आधारित इतिवृतों में अकबरनामा, शाहजहाँनामा और
आलमगीरनामा जैसे शीर्षक इस तथ्य के प्रतीक हैं कि इनके लेखकों की दृष्टि में
बादशाह का इतिहास ही साम्राज्य व दरबार का इतिहास था।
2. इतिवृत्त हमें
मुगल राज्य संस्थाओं के विषय में तथ्यात्मक सूचनाएँ प्रदान करते हैं तथा उन आशयों
का भी परिचय देते हैं, जिन्हें
मुगल शासक अपने साम्राज्य में लागू करना चाहते थे।
3. मुगल
इतिवृत्तों का एक महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों
के सामने एक मजबूत और समृद्धराज्य की छवि को प्रस्तुत करना था।
4. इतिवृतों का एक
अन्य अभिलक्षण मुगल शासन का विरोध करने वाले लोगों को यह स्पष्ट रूप से बता देना
था कि साम्राज्य की शक्ति के सामने उनके सभी विरोधों का असफल हो जाना सुनिश्चित
था।
5. मुगल
इतिवृत्तों का एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण भावी पीढ़ियों को शासन का विवरण
उपलब्ध करवाना था
6. मुगल
इतिवृत्तों का एक प्रमुख अभिलक्षण उनकी रचना फारसी भाषा में किया जाना था। मुगलकाल
में सभी दरबारी इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखे गए थे। उल्लेखनीय है कि मुगल चगताई
मूल के थे। अतः उनकी मातृभाषा तुर्की थी,
किन्तु अकबर ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए फारसी को राजदरबार की भाषा बनाया
प्रारंभ में फारसी राजा,
शाही परिवार और दरबार के विशिष्ट सदस्यों की ही भाषा थी। किंतु शीघ्र ही यह
सभी स्तरों पर प्रशासन की भाषा बन गई। अतः लेखाकार, लिपिक तथा अन्य अधिकारी भी इस भाषा का ज्ञान प्राप्त करने
लगे। फारसी भाषा में अनेक स्थानीय मुहावरों का प्रवेश हो जाने से इसका भारतीयकरण
होने लगा। फ़ारसी और हिन्दवी के पारस्परिक सम्पर्क से एक नई भाषा का जन्म हुआ, जिसे हम 'उर्दू' के नाम से
जानते हैं।
7. मुगल
इतिवृत्तों का एक अन्य अभिलक्षण उनके रंगीन चित्र हैं। मुगल पांडुलिपियों की रचना
में अनेक चित्रकारों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। एक मुगल शासक के शासनकाल में
घटित होने वाली घटनाओं का विवरण देने वाले ऐतिहासिक ग्रंथों में लिखित पाठ के
साथ-साथ उन घटनाओं को चित्रों के माध्यम से दृश्य रूप में भी व्यक्त किया जाता था।
हमें याद रखना चाहिए कि चित्रों का अंकन केवल किसी पुस्तक के सौंदर्य में वृद्धि
करने वाली सामग्री के रूप मैं ही नहीं किया जाता था। वास्तव में, चित्रांकन ऐसे
विचारों के संप्रेषण का भी एक शक्तिशाली माध्यम माना जाता था, जिन्हें लिखित
माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता था। उदाहरण के लिए राजा और राजा की शक्ति के
विषय में जिन बातों को लेखबद्ध नहीं किया जा सकता था, उन्हें चित्रों
के माध्यम से व्यक्त किया जाता था !
2. मुग़ल अभिजात वर्ग के विशिष्ट अभिलक्षण क्या थे? बादशाह के साथ उनके
संबंध किस तरह बने?
उत्तरः-
मुग़ल राज्य का महत्त्वपूर्ण स्तम्भ अधिकारियों का दल था जिसे
इतिहासकारों ने सामूहिक रूप से अभिजात वर्ग की संज्ञा से परिभाषित किया है। अभिजात
वर्ग में भर्ती विभिन्न नृजातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी। इससे यह सुनिश्चित
हो जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा न हो कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे सके।
मुगलों के अधिकारी वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया जाता था जो वफ़ादारी
से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे।
साम्राज्य
के आरंभिक चरण से ही तुरानी और ईरानी अभिजात अकबर की शाही सेवा में उपस्थित थे।
इनमें से कुछ हुमायूँ के साथ भारत चले आए थे। कुछ अन्य बाद में मुगल दरबार में आए
थे।
1560 से आगे भारतीय
मूल के दो शासकीय समूहों- राजपूतों व भारतीय मुसलमानों (शेखजादाओं) ने शाही सेवा
में प्रवेश किया। इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपूत मुखिया आंबेर
का राजा भारमल कछवाहा था। जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ था।
शिक्षा
और लेखाशास्त्र की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्नत किया
जाता था। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल का है जो खत्री जाति
का था। जहाँगीर के शासन में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए। जहाँगीर की राजनीतिक
रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहाँ (1645)
ईरानी थी औरंगजेब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया।
फिर भी
शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे अच्छी- खासी संख्या में थे। अभिजात वर्ग के
सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति,
धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक जरिया थी । सेवा में आने का
इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के जरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज
प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान
किया जाता था। मीरबख्शी (उच्चतम वेतन दाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएँ ओर खड़ा
होता था तथा नियुक्ति और पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था, जबकि उसका
कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश
तैयार करता था।
केंद्र
में दो अन्य महत्वपूर्ण मंत्री थे दीवान ए आला (वित्त मंत्री) और सद्र उस सुदूर
(मदद ए मास अथवा अनुदान विभाग का मंत्री और स्थानीय न्यायाधीशों अथवा काजियों की
नियुक्ति का प्रभारी) यह तीन मंत्री कभी-कभी इकट्ठे एक सलाहकार निकाय के रूप में
काम करते थे लेकिन यह एक दूसरे से स्वतंत्र होते थे। अकबर ने इन तथा अन्य
सलाहकारों के साथ मिलकर साम्राज्य की प्रशासनिक राजकोषीय और मौद्रिक संस्थाओं को
आकार प्रदान किया।
दरबार
में नियुक्त (तैनात ए रकाब अभिजातों का एक ऐसा समूह था जिसे किसी भी प्रान्त या
सैन्य अभियान में प्रतिनियुक्त किया जा सकता था। वह शासक और उसके घराने की सुरक्षा
भी करता था।
3. राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्वों की पहचान कीजिए।
उत्तर-
राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले मुख्य तत्व को निम्नलिखित रूपों से समझा
जा सकता है:-
1. राजा
दैवीय शक्ति का प्रतीक- दरबारी इतिहासकारों ने कई साक्ष्यों द्वारा यह सिद्ध करने
का प्रयास किया कि मुगल राजाओं को सीधे ईश्वर से शक्ति प्राप्त हुई थी। उनके
द्वारा वर्णित दंतकथाओं में से एक कथा मंगोल रानी अलानकुआ की है। वह अपने शिविर में
आराम करते समय सूर्य की एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी। उसकी संतान पर इसी दैवीय
प्रकाश का प्रभाव था। यह प्रकाश पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा। अबुल फ़ज़ल
ने ईश्वरीय प्रकाश को ग्रहण करने वाली चीजों में मुग़ल राजत्व को सबसे ऊँचा स्थान
दिया। इस विषय में वह प्रसिद्ध ईरानी- सूफ़ी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी के विचारों से
प्रभावित था जिन्होंने सर्वप्रथम यह विचार प्रस्तुत किया था। इस विचार के अनुसार
यह दैवीय प्रकाश राजा में संप्रेषित होता था जिसके फलस्वरूप राजा अपनी प्रजा का
आध्यात्मिक मार्गदर्शक बन जाता था । सत्रहवीं शताब्दी से मुग़ल कलाकारों ने
बादशाहों को प्रभामंडल के साथ चित्रित करना आरंभ कर दिया। ये प्रभामंडल ईश्वर के
प्रकाश के प्रतीक थे। इन प्रभामंडलों को कलाकारों ने ईसा तथा वर्जिन मैरी से लिया था।
2. सुलह-ए-कुलः
एकीकरण का एक स्रोत - मुग़ल इतिवृत्त मुगल साम्राज्य को हिंदुओं, जैनियों, पारसियों, मुसलमानों आदि
अनेक नृजातीय एवं धार्मिक समुदायों के समूह के रूप में प्रस्तुत करते हैं। बादशाह
शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में इन सभी समूहों से ऊपर होता था। वह इनके बीच
मध्यस्थता करता था और यह सुनिश्चित करता था कि राज्य में न्याय और शांति बनी रहे।
अबुल फ़ज़ल सुलह-ए-कुल (शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन का आधार बताता है।
सुलह-ए- कुल मैं यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी परंतु
इसकी एक शर्त यह थी कि वे राज्य सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे और आपस में नहीं
लड़ेंगे।
सुलह-ए-कुल
का आदर्श राज्य नीतियों के माध्यम से लागू किया गया। मुग़लों के अधीन अभिजात वर्ग
एक मिश्रित वर्ग था। इसमें ईरानी तुरानी,
अफ़गानी, राजपूत, दक्खनी सभी
शामिल थे। इन्हें दिए गए पद और पुरस्कार पूरी तरह से राजा के प्रति उनकी सेवा और
निष्ठा पर आधारित थे। इसके अतिरिक्त अकबर ने 1563 में तीर्थयात्रा कर तथा 1564 में जजिया को समाप्त कर दिया। क्योंकि ये दोनों कर धार्मिक
पक्षपात के प्रतीक थे। साम्राज्य के सभी अधिकारियों को प्रशासन में सुलह-ए-कुल के
नियम का अनुपालन करने के लिए निर्देश भी दिए गए। सभी मुग़ल बादशाहों ने विभिन्न
धर्मों के पूजा स्थलों के निर्माण तथा रख-रखाव के लिए अनुदान दिए । यहाँ तक कि
युद्ध के दौरान नष्ट किए मंदिरों की मरम्मत के लिए अनुदान जारी किए जाते थे।
3. सामाजिक अनुबंध
के रूप में तथा न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता- अबुल फ़ज़ल ने प्रभुसत्ता को एक
सामाजिक समझौते के रूप में प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार बादशाह अपनी प्रजा के
अस्तित्व की रक्षा करता है: जीवन (जन),
धन (माल), सम्मान
(नामस) और विश्वास (दीन)। इसके बदले में वह आज्ञापालन तथा संसाधनों में राज्य के
हिस्से की माँग करता है।
केवल
न्यायपूर्ण संप्रभु (सम्राट्) ही शक्ति और दैवीय मार्गदर्शन द्वारा इस अनुबंध का
सम्मान कर पाते थे। न्याय के विचार को मुग़ल राजतंत्र में सर्वोत्तम सद्गुण माना
गया। इस विचार को दृश्य रूप में देने के लिए निरूपण हेतु अनेक प्रतीकों की रचना की
गई। इन प्रतीकों में से कलाकारों का सबसे मनपसंद प्रतीक था- एक-दूसरे के साथ
चिपटकर शांतिपूर्वक बैठे हुए शेर और बकरी या गाय इसका उद्देश्य यह दिखाना था कि
मुग़ल राज्य में दुर्बल तथा सबल सभी प्रेमपूर्वक रह सकते हैं। बादशाहनामा के
दरबारी दृश्यों में ऐसे प्रतीक का अंकन बादशाह के सिंहासन के ठीक नीचे एक आले में
हुआ है।
4. अकबर की धार्मिक नीति का वर्णन करें।
उत्तर-
अकबर ने अपने साम्राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए धार्मिक सहिष्णुता की नीति
अपनायी। 1562 ई. में
अकबर ने युद्ध बन्दियों को दास बनाने की प्रथा पर रोक लगायी। 1563 ई. में अकबर ने
तीर्थ यात्रा कर को समाप्त किया। धार्मिक प्रश्नों पर वाद-विवाद करने के लिये अकबर
ने फतेहपुर सीकरी में 1575
ई. में इबादतखाना का निर्माण कराया। 1579
ई. में अकबर ने महजर की घोषणा की। इसके द्वारा किसी भी विवाद पर अकबर की राय
ही अन्तिम राय होगी।
अकबर
ने अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये विभिन्न धर्मों के विद्वानों से उनके धर्म की
जानकारी ली-
1. हिन्दू धर्म के
पुरुषोत्तम एवं देवी से हिन्दू धर्म की जानकारी प्राप्त की। हिन्दू धर्म से
प्रभावित होकर वह माथे पर तिलक लगाने लगा। उसने हिन्दू धर्म की पुस्तकों का अनुवाद
करवाया।
2. पारसी धर्म के
दस्तूर मेहर जी राणा से पारसी धर्म की जानकारी ली। इससे प्रभावित होकर उसने सूर्य
की उपासना आरम्भ की। दरबार में हर समय अग्नि जलाने की आज्ञा दी।
3. अकबर
ने जैन धर्म की शिक्षा आचार्य शांतिचन्द एवं विजय सूरी से ली।
4. सिख
धर्म से प्रभावित होकर पंजाब का एक वर्ष का कर माफ कर दिया।
5. ईसाई
धर्म से प्रभावित होकर आगरा एवं लाहौर में गिरजाघर का निर्माण कराया।
इस
प्रकार सत्य की खोज करते-करते उन्होंने पाया कि सभी धर्मों में अच्छाइयाँ हैं मगर
कोई भी धर्म सम्पूर्ण नहीं है। अतः उसने 1581
ई में स्वयं का एक धर्म दीन-ए-इलाही चलाया। इस धर्म के द्वारा वह हिन्दू व
मुस्लिम धर्म को मिलाकर साम्राज्य में राजनीतिक एकता कायम करना चाहता था। उस धर्म
को स्वीकार करने वाला एकमात्र हिन्दू बीरबल था ।
1564 ई. में अकबर ने
जजिया कर बन्द कर दिया था। यह समस्त भारत की गैर-मुस्लिम जनता से वसूला जाता था।
अकबर
ने सुलह-ए-कुल की नीति अपनायी। इस नीति के द्वारा अकबर ने अपने साम्राज्य में
शांति एवं एकता स्थापित करने का प्रयास किया। अबुल फजल सुलह ए-कूल के आदर्श को
प्रबध शासन की आधारशिला मानता था। सभी अधिकारियों को प्रशासन में सुलह-ए-कुल की
नीति अपनाने के निर्देश दिये गये।
5. मुगल सम्राट अकबर को भारत का राष्ट्रीय शासक के रुप में वर्णन करें।
उत्तर-
अकबर को भारत का राष्ट्रीय सम्राट भी कहा जाता है। उसके शासनकाल में भारत में
राजनैतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक
एकता एवं सामंजस्य की स्थापना हुई तथा भारत एक राष्ट्र के रूप में उभरा।
अकबर
ने अपनी विजय उपलब्धियों द्वारा एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करके उसे प्रशासनिक
आधार भी प्रदान किया। उसने अपने संपूर्ण साम्राज्य में एक जैसी शासन प्रणाली
स्थापित की। उसकी प्रांतीय शासन व्यवस्था,
राजस्व व्यवस्था, भू
व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था
आदि सभी व्यवस्थाएँ संपूर्ण साम्राज्य में एक समान थीं। सैनिक तथा असैनिक सेवाओं
में सभी पद सबके लिए समान रूप से खुले थे। राजपूत राज्यों से समानता के आधार पर
वैवाहिक संबंध स्थापित करके अकबर ने वीर राजपूत जाति का सक्रिय सहयोग प्राप्त कर
लिया।
एक
राष्ट्रीय शासक के रूप में अकबर की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि देश में सामाजिक
एवं आर्थिक एकता की स्थापना थी। उसने अपनी समस्त प्रजा को बिना किसी भेदभाव के
समान नागरिकता एवं सुविधाएँ प्रदान कीं। राजस्व व्यवस्था अथवा भू- कर प्रणाली के
क्षेत्र में हिन्दू- मुसलमानों में कोई भेदभाव नहीं किया गया। व्यापार अथवा
व्यापारिक करों के क्षेत्र में भी धर्म अथवा जाति को आधार नहीं बनाया गया और न ही
न्याय अथवा दंड देने के समय हिन्दू-मुसलमान में कोई भेदभाव किया गया।
शाही दरबार
में होली, दीपावली, दशहरा, बसंत और नौरोज
जैसे त्योहारों को समान रुप से मनाकर अकबर ने सामाजिक एकता की पहचान दी। धार्मिक
एकता की स्थापना करने के लिए अकबर ने राजनीति को धर्म से पृथक् करके देश में
धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की। स्वयं मुसलमान होते हुए भी उसने प्रत्येक धर्म
के आदर्शों का पालन किया।
केवल
इतना ही नहीं, देश
में धार्मिक एकता का वातावरण उत्पन्न करने के लिए और अकबर ने 'दीन-ए-इलाही' नामक स्वयं का
एक संघ स्थापित किया, जिसमें
सभी धर्मों के सराहनीय तत्व समाहित थे। जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए
द्वार खुले थे।
हिन्दू-मुसलमानों
में परस्पर निकटता स्थापित करने के लिए उसने फ़ारसी को समस्त साम्राज्य की सरकारी
भाषा बना दिया। अकबर ने एक अनुवाद विभाग की स्थापना की, जिसके निरीक्षण
में हिंदुओं के अनेक धार्मिक,
साहित्यिक एवं ऐतिहासिक ग्रंथों का अनुवाद फ़ारसी भाषा में किया गया। सम्राट
अकबर के शासनकाल में स्थापत्यकला,
चित्रकला, संगीतकला
आदि के क्षेत्र में भी राष्ट्रीय विचारधाराओं एवं आदर्शों का समावेश हुआ।
निःसंदेह, सम्राट अकबर आजीवन भारत को एक संगठित राष्ट्र का रूप देने और देश में एकता तथा सद्भावना बनाए रखने के कार्यों में संलग्न रहा। अतः इस दृष्टि से वह भारत का महान राष्ट्रीय सम्राट था।