19. जैव विविधता (Biodiversity) की परिभाषा एवं सामान्य संकल्पना (Definition and General Concept of Biodiversity)

19. जैव विविधता (Biodiversity) की परिभाषा एवं सामान्य संकल्पना (Definition and General Concept of Biodiversity)

19. जैव विविधता (Biodiversity) की परिभाषा एवं सामान्य संकल्पना (Definition and General Concept of Biodiversity)

19. जैव विविधता (Biodiversity)

जैव विविधता की परिभाषा एवं सामान्य संकल्पना]

(Definition and General Concept of Biodiversity)

प्रश्न : जैव विविधता से आप क्या समझते हैं? जैव विविधता की सामान्य संकल्पना को स्पष्ट करते हुए तत्सम्बन्धी प्रमुख परिभाषाओं का उल्लेख करें।

अथवा

प्रश्न : 'जैव विविधता' जीव विज्ञानीय विविधता से किस प्रकार भिन्न है? सर्वमान्य परिभाषाओं के सन्दर्भ में जैव विविधता को परिभाषित करें।

उत्तर : जैव विविधता एक नया पारिभाषिक शब्द है। यह पारिभाषिक शब्द 'जीवविज्ञानीय विविधता' (Biological Diversity) पद का संक्षिप्त रूप है। 1980 ई. के आस-पास 'जीवविज्ञानीय विविधता' जैसे पारिभाषिक पद का प्रचलन था। 'जीव विज्ञानीय विविधता' से 'स्थान विशेष' में विद्यमान (उपलब्ध) प्रजातियों (species) की संख्या का अर्थ लगाया जाता था। आगे चलकर 'जीव विविधता' पद का प्रचलन बढ़ा। इस पारिभाषिक शब्द को इसके अध्ययन विषय की व्यापकता को समाहित करने की दृष्टि से गढ़ा गया था।

सम्प्रति 'जैव विविधता' से अर्थ जीवों की सम्पूर्ण प्रजातियों, जीवों के प्राकृतिक वास-स्थल, उनके वास-स्थलों के विनाश और उनके उपयोग, जैविक संसाधन का प्रबंधन, उसके संरक्षण की तत्काल आवश्यकता आदि से लगाया जाता है। यह शब्द अस्तित्व में आने के साथ ही लोकप्रिय और व्यापक बन गया। इस शब्द को सर्वाधिक महत्त्व और प्रचार-संचार माध्यमों द्वारा 1992 ई. के रियो डि जेनेरियो में सम्पन्न 'पृथ्वी सम्मेलन' के मध्य प्राप्त हुआ।

सरल शब्दों में जैव विविधता का अर्थ पृथ्वी के असंख्य विविधतापूर्ण प्राणीजगत या जीव हैं। जैत्र विविधता में जीवन का हर प्रकार शामिल है। एक कोशकीय जीव प्रोटोजोआ एवं बैक्टेरिया से लेकर जटिल संरचना वाले बहुकोशकीय जीव, यथा पौधे, पक्षी, मछली और स्तनधारी जीव तक जैव विविधता के अन्तर्गत आ जाते हैं। पृथ्वी पर की समस्त वनस्पतियों और प्राणियों की एक ही संज्ञा 'जैव विविधता' है। 'विश्व संसाधन के संस्थान' ने जैव विविधता को इन शब्दों में पारिभाषित किया है-

'जैव विविधता का अर्थ विश्व के जीवों का बहुविध प्रकार है जिसमें उनके अनुवांशिकों (genes) की विविधता एवं उनका समूहीकरण भी निहित है। विश्व की जीवीय सम्पदा, जिस पर मानव जीवन टिका हुआ है और जिस पर उसकी सम्पन्नता निर्भर है, को ही जैव विविधता कहा जाता है।' इस पारिभाषिक शब्द का अन्तःसम्बन्ध अनुवांशिकी (genes) प्रजाति और पारिस्थितिकी तंत्र से भी है। जीन प्रजातियों की संघटक है और जीवों की प्रजातियाँ पारिस्थितिकी तंत्र की संघटक हैं। इस विविधता में किसी प्रकार के किसी स्तर पर उलटफेर का अर्थ दसरे में परिवर्तन होगा। अतः जीवों की प्रजातियाँ ही जैव-विविधता की अवधारणा का केन्द्र हैं।

'पृथ्वी सम्मेलन' में जैव विविधता को इस प्रकार परिभाषित किया गया था-"जीय विज्ञानीय विविधता सभी प्रकार के प्राणियों की विभिन्नता को कहा जाता है। स्थलीय, सामुद्रिक एवं अन्य जलीय पारिस्थितिकी तंत्र एवं पारिस्थितिकी संकुल के ये प्राणी उसके अभिन्न अंग होते हैं। जैव विविधता में प्रजातियों के भीतर पायी जानेवाली विविधताएँ एवं पारिस्थितिकी तंत्र की विविधता भी शामिल है।" (Piological diversity is the variability among living organism from all sources including inter alia, terristrial, marine and other aquatic ecosystem and the ecological complexes of which they are a part; this includes diversity within species and of eco system.)

जैव विविधता व्यापक अवधारणायुक्त पारिभाषिक शब्द (पद) है। अतः इसका सम्यक् अध्ययन इसके विविध स्तरों की जाँच-परख के आधार पर ही किया जा सकता है। जैव-विविधता का अध्ययन तीन स्तरों पर श्रेणीबद्ध करके किया जाता है-

1. अनुवांशिक विविधता (Genetic Diversity)

2. प्रजातीय विविधता (Species Diversity)

3. पारिस्थितिकीय विविधता (Ecological Diversity)

जैव विविधता के सन्दर्भ में यह तथ्य उल्लेखनीय है कि समरूपता या विविधता जीव-बिज्ञानीय संगठन में अणु से लेकर पारिस्थितिकी तंत्र के सभी स्तरों पर स्पष्टतः दिखायी देता है और इस विविधता का प्रत्येक स्तर पर विभिन्न प्रकार का क्रियात्मक महत्त्व होता है। व्यावहारिक रूप से सर्वाधिक ध्यान 'प्रजातीय विविधता' पर दिया जाता है। प्रजातीय विविधता विशिष्ट स्थान में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के जीवों की संख्याओं की ओर संकेत करती है। साथ-ही-साथ स्थान-भेद के कारण प्रजातीय विविधताओं में किस प्रकार अन्तर आ जाता है और यहाँ तक कि एक स्थान में मौसम में अन्तर आने से प्रजातीय विविधता में भी अन्तर आने से प्रजातीय विविधता में भी अन्तर आ जाता है, इन सब तथ्यों की ओर 'प्रजातीय विविधता' इंगित करती है। 'अनुवांशिकी विविधता' सामान्यतः पड़नेवाला पहलू है। 'अनुवांशिकीय विविधता' प्रजाति विशेष के बीच 'समूह निर्माण' की विविधता की संकेतक है। अनुवांशिकीय विविधता प्रजातियों की आबादी को पर्यावरणिक परिवर्तनों से अनुकूलित होने में मदद पहुँचाती है। पारिस्थितिकीय विविधता का अभिप्राय यह है समान क्षेत्रों में प्रजातियों के समूहों का एक साथ रहना और भौतिक पर्यावरण में विलक्षण रूप से एक-दूसरे को प्रभावित करना। विशेष पारिस्थितिकी में जीव एक-दूसरे को अधिकाधिक प्रभावित करते हैं। कभी-कभी 'भू-दृश्यात्मक वैविध्य' पद का व्यवहार विस्तृत क्षेत्रीय वैशिष्ट्यों को दर्शाने के लिए किया जाता है। 'भू-दृश्य विविधता' का अभिप्राय एक क्षेत्र से परे दूसरे क्षेत्र के विभिन्न आकारों वाले पारिस्थितिकी तंत्र और उनके बीच का सम्पर्क होता है।

अनुवाशिकीय, प्रजातीय, पारिस्थितिकीय एवं भू-दृश्यात्मक विविधता

प्रश्न : अनुवांशिकीय, प्रजातीय, पारिस्थितिकीय एवं भू-दृश्यात्मक विविधताओं से आप क्या समझते हैं? इन पर संक्षिप्ततः प्रकाश डालें।

उत्तर : अनुवांशिकीय विविधता (Genetic Diversity): पशु अथवा वनस्पति की प्रजातियों का हर सदस्य अनुवांशिकीय (गुणसूत्रों) की बनावट की दृष्टि से एक-दूसरे से भिन्न होता है। जीनों की बहुत बड़ी संख्या की संहिति होती है। यही संहिति प्रत्येक सदस्य को विशिष्ट गुण प्रदान करता है। उदाहरण के लिए हर आदमी दूसरे आदमी से बहुत भिन्न होता है। अनुवांशिकीय विविधता प्रजातियों के स्वस्थ प्रजनन की दर में कमी आती है तो अनुनांशिकीय बनावट की असमानता में भी कमी आयेगी और अन्तः प्रजनन होगा। इसके कारण अनुवांशिकीय विसंगति बढ़ेगी और प्रजाति विशेष विलुप्त हो जायेगी। वन्य जीवों में 'जीन पुल' का निर्माण करते हैं इसी जीन पुल के कारण हजारों हजार वर्ष के बीच हमारी फसलों और पालतू पशुओं का विकास हुआ है। इस प्राकृतिक वरदान का उपयोग नथी किस्म की अधिक उत्पादन क्षम प्रजातियों के विकास के लिए किया जा रहा है। इस विधि से विकसित फसलों में रोग-प्रतिरोध की अधिक क्षमता होती है। इस विधि से उच्चकोटि की नस्लों के घरेलू पशुओं का भी विकास किया जा रहा है। आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी द्वारा विशिष्ट प्रकार की औषधियाँ एवं औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा है।

प्रजातीय विविधता (Species Diversity) किसी क्षेत्रविशेष में वनस्पतियों और पशुओं की विभिन्न प्रजातियों की विद्यमानता को 'प्रजातीय विविधता' कहते हैं। पृथ्वी पर पाये जानेवाले विविध प्राणियों की प्रजातियों को प्रजातीय विविधता कहा जाता है। विषाणु, बैक्टेरिया, कवक और शैवाल जैसे एककोशकीय सूक्ष्म जीवाणुओं से लेकर बहुकोशकीय वनस्पतियाँ एवं पशु तक प्रजातीय विविधता के उदाहरण हैं। इस प्रकार किसी पारिस्थितिकी तंत्र की प्रजातीय समृद्धि को 'प्रजातीय विविधता' कहते हैं।

जीवित प्राणियों के वर्गीकरण की आधुनिक प्रणाली का महत्त्वपूर्ण आधार प्रजातीय विविधता है। पृथ्वी पर प्रजातियों की संख्या बहुत बड़ी है। पृथ्वी पर इनकी कुल कितनी संख्या है, इसके बारे में कोई भी कुछ निश्चित रूप से नहीं कह सकता। अभी तक जितनी प्रजातियों का पता चला है, वह पृथ्वी पर विद्यमान प्रजातियों का पता नगध्यांश ही है। इसका कारण यह है कि उष्णकटिबंधीय सघन वर्षा वनों और गहरे महासागरों में बहुत-सी प्रजातियों के बारे में अभी तक कुछ भी पता नहीं चल पाया है। अब तक की ज्ञात प्रजातियों को पाँच वर्गों-पशु, वनस्पति, कवक, शैवाल एवं बैक्टेरिया (प्रोकारीयोट्स) में बाँटा गया है।

प्रजातीय विविधता का अर्थ केवल उनकी गणनाओं तक सीमित नहीं है। प्रजातियों की संख्यात्मक गणना जीवविज्ञानीय विविधता के वर्णन के लिए पर्याप्त नहीं है। जैव की प्रजातीय विविधता का अभिप्राय यह है कि अब तक जितनी प्रजातियों का पता चल पाया है, गणना में उनकी संख्या को शामिल करते हुए, नयी प्रजातियों के पता चलने पर उनकी संख्या को भी गणना में समाहित करना। किसी समुदाय में प्रत्येक प्रजाति की संख्या समान हो सकती है लेकिन अन्य प्रजातियों में विविधता हो सकती है। दूसरी तरफ एक समुदाय की एक प्रजाति में कम विविधता देखी जा सकती है। एक-दूसरे से भिन्न प्रजातियाँ विविधता को बढ़ा सकती हैं जबकि समान प्रजाति में ऐसी विविधता बहुत कम होगी।

प्रजातियों की विविधता प्राकृतिक पारिस्थितिकी एवं कृषि तंत्र में बहुत अधिक दिखायी पड़ती है। कुछ प्रजातियाँ वैविध्य की दृष्टि से अधिक समृद्ध होती हैं। उष्णकटिबंधीय वन प्रजातीय विविधता की दृष्टि से बहुत अधिक समृद्ध होते हैं यद्यपि ये एक स्थल में केन्द्रित नहीं होकर, व्यापक क्षेत्र में फैले हुए होते हैं। किन्तु इस तरह की विविधता वन विभाग द्वारा लगाये गये वनों में अपेक्षाकृत बहुत ही कम होती है। प्राकृतिक बनों से फल, ईंधन की लकड़ियाँ, चारा, रेशे, गोंद, रेजिन (Resin) एवं औषधियाँ प्राप्त होती हैं। यह विविधता स्थानीय लोगों की जीविका का भी मुख्य आधार होती है। इसी पर स्थानीय लोग निर्भर होते हैं। किन्तु मनुष्यों द्वारा लगाये गये वनों या कृत्रिम वनों अथवा इमारती लकड़ियों के वनों में अन्य उपभोग्य उपयोगी वस्तुओं का अभाव होता है। प्राकृतिक वन दीर्घकालिक लाभ की दृष्टि से कृत्रिम अथवा इमारती लकड़ियों के वनों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध होते हैं। आधुनिक सघन कृषि के पारिस्थितिकी तंत्र में वह वैविध्य नहीं मिलता जो पशुचारण-कृषि-काल की पारम्परिक खेती में मिलता था। इस युग में बहुफसली कृषि का प्रचलन था।

संरक्षण विज्ञानियों ने अब तक 1.8 मिलियन प्रजातियों की पहचान कर उन्हें वर्गीकृत किया है। लेकिन प्रजातियों की संख्या पृथ्वी पर विद्यमान कुल संख्या का एक बहुत छोटा-सा भाग है। अनेक पुष्पी पौधों और कीटों की पहचान अभी भी की जा रही है। प्रजातीय विविधता की दृष्टि से सम्पन्न क्षेत्रों को विविधाता का समृद्ध या संवेदनशील क्षेत्र (Hot Spots of Diversity) कहा जाता है। भारत उन पंद्रह देशों में से एक है जो आपवादिक रूप से जैव-विविधता को दृष्टि से आत्यन्त समृद्ध एवं संवेदनशील है।

पारिस्थितिकीय विविधता पृथ्वी पर बहुत बड़ी संख्या में विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र पाये जाते हैं। प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न आवास आधारित परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध विशिष्ट पूरक प्रजातियाँ निवसित होती हैं। पारिस्थितिकी तंत्र की विविधता एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र, राजनीतिक अस्तित्व वाले देश, राज्य या तालुका से सम्बद्ध होती है। विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र के अन्तर्गत वन, तृणभूमि, मरुभूमि, पर्वत एवं जलीय पारिस्थितिकी तंत्र, यथा-नदी, झील एवं सागर आते हैं। प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र में मानव निर्मित कृषि भूमि और चरागाह भी होते हैं।

किसी पारिस्थितिकी तंत्र को प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक तभी कहा जाता है, जब वह प्रकृति द्वारा निर्मित अवस्था में ज्यों का त्यों रहता है और उसमें किसी प्रकार का मानवीय हस्तक्षेप नहीं हुआ रहता है। प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में मानवीय हस्तक्षेप और छेड़‌छाड़ का परिणाम ही उसका कृषि अथवा नगर-आवासन के लिए उपयोग है। वनस्थलियों में पारिस्थितिकी तंत्र का सर्वाधिक प्राकृतिक रूप सुरक्षित होता है। प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का जब सीमाहीन उपयोग या दुरुपयोग होता है तब उसकी उत्पादकता में ह्रास घटित होता है और इस प्रकार वह पारिस्थितिकी तंत्र निम्नकोटि का हो जाता है।

भूदृश्यात्मक विविधता : भूदृश्यात्मक विविधता अनेक प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र के आकार एवं वितरण का संकेतक है। भूदृश्यात्मक विविधताएँ एक-दूसरे को विशिष्ट भूमि की सतह के आर-पार कैसे प्रभावित करती हैं, इसका परिज्ञान भूदृश्यात्मक विविधता से होता है।

जैव विविधता का महत्त्व (Importance of Biodiversity)

प्रश्न : जैव-विविधता के महत्त्व का निरूपण करें।

उत्तर: कभी-कभी हल्के-फुल्के ढंग से यह प्रश्न किया जाता है कि 'हमलोग जैव विविधता की चिन्ता क्यों करें?' इस हल्के-फुल्के प्रश्न का उत्तर अत्यन्त गम्भीर हैं-" (वन की) वनस्पतियों, पशु एवं सूक्ष्म जीवाणुओं ने मनुष्य के लिए उस समय से महत्त्वपूर्ण पदार्थों का उत्पादन सम्भव बनाया जिस समय से उसने धरती पर पाँव रखकर चलना सीखा। मनुष्य जो भी खाता-पीता है, वह सम्पूर्ण खाद्य एवं पेय सामग्री पारिस्थितिकी तंत्र की ही देन है और विभिन्न प्रकार के जीव इसी पारिस्थितिकी तंत्र के अभिन्न अंग हैं। भविष्य में भी मानव-समाज को अपने उपयोग और उपभोग की सामग्री इनसे ही मिलती रहेगी। यह भविष्य में भी अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए इसी पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर रहेगा।"

मनुष्य विविध प्रकार के जीवों पर निर्भर है। विविध प्रकार की जैविक प्रजातियों को पारिस्थितिकी तंत्र का ही आश्रय प्राप्त है। मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति जैव-विविधता से ही प्राप्त होती है। जैव विविधता पारिस्थितिकी तंत्र के आधार और अवलम्ब पर टिका हुआ है। विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ, पशु एवं सूक्ष्म जीव 'पारिस्थितिकी तंत्र की महत्त्वपूर्ण एवं अपरिहार्य सेवा' करते हैं। मृदा निर्माण, पोषण तत्त्वों का चक्रण, सौर ऊर्जा अवशोषण, भू-जैव-रासायनिक प्रबंधन, जलचक्र अपशिष्ट निस्तार, वायु एवं जल-शुद्धीकरण, वायुमण्डल की रासायनिक संरचना का रखरखाव तथा विश्व की जलवायु में जैव विविधता महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पारिस्थितिकी तंत्र की जीवीय विविधता (यथा-झील, वन, वन्य जीव अभयारण्य, वनस्पतियाँ इत्यादि) वनभोज, शिविर निवास, मत्स्य आखेट, वन्यजीवों की जीवन प्रणालियों और क्रीड़ाओं का अवलोकन, समुद्रतट के दर्शन अवलोकन एवं विविध प्रकार के बाह्य मनोरंजन का साधन भी उपलब्ध कराती है। विश्व की बहुत-सी संस्कृतियों में धार्मिक विश्वासों के चलते पर्वतों, नदियों, सरोवरों एवं अनेक प्रकार की स्थलाकृतियों की पूजा की जाती है।

जैव विविधता का केवल वर्तमानकालिक महत्त्व ही नहीं होता अपितु इसका महत्त्व भविष्य की दृष्टि से भी है। किसी विशिष्ट प्रजाति की जब तक पहचान की जाती है, तब तक अभी तक अनेक महत्त्वपूर्ण प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी होती हैं। जितनी प्रजातियों की पहचान अभी की जा चुकी है, इससे अधिक प्रजातियों के अस्तित्व के प्रति विश्वास जताया गया है। कौन जानता है कि विलुप्त होती प्रजातियों के साथ मूल्यवान खाद्य संसाधन, औषधि एवं वाणिज्यिक महत्त्व के उत्पाद भी विलुप्त हो गये हों।

यद्यपि वर्त्तमान समय में जैव विविधता के पारिस्थितिकी तंत्रीय महत्त्व को अधिक गम्भीरता के साथ समझा जा चुका है तथापि यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है कि कौन-कौन-सी विशिष्ट प्रजातियाँ पारिस्थितिकी तंत्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण या मूल्यवान हैं अथवा वे इसलिए महत्त्वपूर्ण लगते हैं क्योंकि अभी तक पारिस्थितिकी तंत्र और जीवों के बीच के जटिल सम्बन्धों को ठीक से समझा नहीं जा सका है। जो जीव प्रत्यक्षतः हमें बहुत ही नगण्य एवं महत्त्वहीन लगते हैं, उनके विलोप का दुष्प्रभाव पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ते देखकर हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं। वन्य प्रजातियाँ अक्सर महत्त्वपूर्ण लाभ पहुँचाती हैं किन्तु उनकी सेवा का महत्त्व अनपहचाना रह जाता है। जीवों की प्रजातियाँ रोग फैलानेवाले जीवाणुओं और कीटों का दमन-शमन कर हमारा बहुत बड़ा उपकार करती हैं। सामान्यतः यह माना जाता है कि मेढक अपने पेट भरने के लिए कीट-पतंगों को खाता है। लेकिन यह बात एक आंशिक सत्य भर है। सच तो यह है कि मेढक फसलों को हानि पहुँचानेवाले अनेक कीटों को खाकर, फसलों की व्यापक क्षति को रोकता है। इसी तरह वह मलेरिया फैलानेवाले मच्छरों के अंडों को खाकर उसके व्यापक प्रसार पर अंकुश लगाता है। इस तथ्य का उद्घाटन तब हुआ था जब भारत और पाकिस्तान में मेढकों की घटती संख्या के कारणों का पता लगाने के लिए इसका अध्ययन एवं सर्वेक्षण किया गया।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर जैव विविधता का संरक्षण आधुनिक विश्व की प्राथमिकता बन गया है। लेकिन यह लक्ष्य जब अन्य लक्ष्यों से टकराता है तो यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जैव विविधता का संरक्षण किस सीमा तक और किस मूल्य पर करना उवित है? उदाहरण के लिए आर्थिक विकास के साथ इस लक्ष्य का विकट द्वन्द्व बराबर सामने आता है। ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर गम्भीरतापूर्वक सोच-विचार कर ही ढूँढ़ना उपयुक्त होगा।

जैव विविधता का मूल्य (Value of Biodiversity)

प्रश्न : जैव विविधता के मूल्यों का निरूपण करें।

उत्तर : जैव विविधता का महत्त्व और मूल्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जैव विविधता के मूल्य के निर्धारण में पर्यावरणीय अर्थशास्त्र मदद करता है। पर्यावरणीय अर्थशास्त्र (या पारिस्थितिकी अर्थशास्त्र) जीवों की प्रजातियों, समुदायों और पारिस्थितिकी के आर्थिक मूल्यों के विवेचन की पद्धति पर प्रकाश डालता है। जैव विविधता के मूल्य का आकलन संसाधनों के बाजार मूल्य, प्राकृतिक वास-स्थल में निहित अनुपयोगिता (unutilised) संसाधन और संसाधनों के भविष्यगत मूल्यों के आधार पर किया जाता है। एशिया के 'गौर' (Gaur) का मूल्य उसकी वर्तमान संख्या के अनुरूप मांस की उपलब्धता के आधार पर आँका गया है लेकिन इसका दूसरा मूल्य प्रकृति की रमणीयता के दर्शनार्थ की गयी यात्राएँ भी हैं। इसका मूल्य इस आधार पर भी आँका जायेगा कि ये भविष्य में कितने 'गौरों' को जन्म देने में सक्षम होंगे।

जैव विविधता के मूल्य को दो प्रकार की विधियों से आँका जाता है- (i) प्रत्यक्ष मूल्य और (ii) अप्रत्यक्ष मूल्य।

(1) प्रत्यक्ष मूल्य : प्रत्यक्ष मूल्य का अर्थ जीवों का उपभोग मूल्य है। कुछ लोग प्रकृति के सामान्य उत्पादों का संग्रह करते हैं। इन संग्रहीत उत्पादनों का आयात और निर्यात भी होता है। अतः प्रत्यक्ष मूल्य को दो उपवर्गों में बाँटा गया है-(i) उपभोग-उपयोग मूल्य और (ii) उत्पादन-उपयोग मूल्य।

(i) उपभोग-उपयोग मूल्य ईंधन हेतु संग्रहीत लकड़ियाँ स्थानीय स्तर घर उपयोग में ले आयी जाती हैं। अतः राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में इसका मूल्य अनआँका ही रह जाता है।

(ii) उत्पादन-उपयोग मूल्य : कुछ वस्तुओं का संग्रह वनों से किया जाता है और व्यापारिक बाजारों में बेच दिया जाता है। इनकी बिक्री राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दोनों प्रकार के बाजारों में होती है।

(2) अप्रत्यक्ष मूल्य: जैव विविधता के ऐसे संसाधन जिनका दोहन मनुष्य नहीं कर सकता, न ही वह उसके प्राकृतिक संसाधन को नष्ट कर सकता है। ऐसे संसाधनों द्वारा दुनिया को अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होता है। ऐसे लाभों में गृदा-निर्माण, पोषण-चक्र, अपशिष्ट निस्तार, नायु एवं जल शुद्धीकरण, शिक्षा, मनोरंजन, मनुष्य के लिए भविष्यगत विकल्प आदि के रूप में पारिस्थितिकी लाभों की गणना होती है। इस लाभ को भी दो उपवर्गों में बाँटा गया है- (i) अनोपभोगीय उपयोग मूल्य और (ii) सौंदर्यात्मक सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य।

(i) अनोपभोगीय उपयोग मूल्य मृदा निर्माण और उसका संरक्षण, नियमन, अपशिष्ट निस्तार, जल एवं वायु शुद्धीकरण, पर्यटन, चिकित्सकीय अनुसंधान आदि जैव विविधता का अनोपभोगीय मूल्य है।

(ii) सौंदर्यात्मक सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य जैव विविधता पृथ्वी पर अनेक प्रकार के सौंदर्यात्मक और सांस्कृतिक लाभ पहुँचाती है। इससे हमारे जीवन की गुणवत्ता बढ़ती है। वह हमारे अस्तित्व के लिए अत्यधिक मोहक, सुंदर और प्रेरक आयाम प्रस्तुत करती है।

जैव विविधता में अतुलनीय प्राकृतिक सौंदर्य का महत्त्व छिपा हुआ होता है। अनेक प्रकार के पक्षी, स्तनपायी जीव, सामुद्रिक पशु, पुष्पी पौधों आदि का महत्त्व प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से अनन्य है। लाखों-लाख लोग पदयात्राओं, शिविर-निवास, पिकनिक, मत्स्य आखेट, वन्य जीवों के अवलोकन और प्रकृति आधारित अनेक गतिविधियों द्वारा आनंद लाभ करते हैं। इन गतिविधियों के द्वारा मनुष्य शारीरिक शक्ति एवं स्फूर्ति अर्जित करता है जिससे उसे जीने की असीम ऊर्जा प्राप्त होती है। प्रकृति की निकटता मानसिक एवं भावनात्मक संतुष्टि के साथ स्फूर्ति भो प्रदान करती है। विश्व की बहुत-सी संस्कृतियाँ प्रकृति-धर्म और अध्यात्म से जुड़ी हुई हैं। विशेष प्रकार के वृक्ष, पशु या भू-दृश्यों (भूखण्डों) से लोगों की नाना प्रकार की भावनाएँ जुड़ी हुई होती हैं।

मानव सभ्यता के इतिहास में आरम्भ से ही मनुष्य ने जैव विविधता के महत्त्व पर अपने अस्तित्व की रक्षा के निमित्त बल दिया। हजारों हजार वर्ष पुरानी कलाकृतियों और चित्रकारियों में प्राकृतिक सुन्दर दृश्य अंकित हैं। प्रस्तर युग से ही मनुष्य ने पाषाणों पर प्रकृति के दृश्यों को अंकित कर अपनी मौलिक सौन्दर्यात्मक चेतना का परिचय दिया था। इन चित्रकारियों से ही प्रकृति ने मानव-जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया था। पौराणिक युग से लेकर आधुनिक युग तक, महाकाव्यों से लेकर अद्यतन उपन्यासों तक में प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन होता आया है। फिल्मों और टी. वी. में भी प्रकृति का सौंदयांकन और उसका फिल्मांकन महत्त्वपूर्ण अंग है। यह तो सर्वविदित तथ्य है कि प्रकृति का महत्त्व निर्विवाद है। वर्तमान समय में लोग पर्यटन पर अच्छा खासा खर्च करते हैं। पर्यटन का उद्देश्य दूसरी सध्यता और संस्कृति को जानने को से लेकर वनों, प्रवाल भित्तियों, द्वीपों एवं प्रकृति के अन्यमीक स्थानी देखकर आनंदित और आह्लादित होना भी हैं। पर्यटन बहुत अच्छा उद्योग है और इसके माध्यम से आर्थिक विकास में भी मदद मिलती है लेकिन इस बात पर ध्यान देना परमावश्यता है कि पर्यटा, म्थल प्रदूषित नहीं होने पाएँ।

आज भी विशेष प्रकार के पशु और पौधों की सांस्कृतिक भावनाओं से अनुप्राणित होकर देखा जाता है। भारतवर्ष में आज भी सिंह और मोर के प्रति भारतीयों में विशेष लगाव हैं। सी कारण हमने सिंह को राष्ट्रीय पशु एवं मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर रखा है। हम यह भी जानते हैं कि इनका जीवन खतरे में पड़ा हुआ है परन्तु इनके संरक्षण का राष्ट्रीय प्रयास भी किया जा रहा है।

(iii) चयनात्मक मूल्य (Option Value): विभिन्न प्रकार की जैविक प्रजातियों का बहुत बड़ा आर्थिक मूल्य है। इन से आज का मनुष्य तो लाभान्वित ही ही रहा है, इनसे मनुष्य को भविष्य में भी लाभ पहुँचने की सुनिश्चित सम्भावना है। बहुत-से पौधों और वनस्पतियों का उपयोग खाद्य सामग्री के रूप में होता है। ये प्रजातियाँ वर्तमान में उपयोग में आनेवाली खाद्य वस्तुओं से कई गुना अधिक श्रेष्ठ हैं। दक्षिण अफ्रीका में पायी जानेवाली एक प्रकार की बनस्पति जैविक प्रजातियों का इस तरह का उपयोग होता है। इनसे बहुत अधिक अर्थ-लाभहोता है। यह लाभ जैव विविधता के चयन मूल्य का एक आदर्श उदाहरण है।

(iv) अस्तित्वपरक मूल्य (Existence Value): सम्प्रति वन्य जीवों की सुरक्षा पर बहुत अधिक बल दिया जा रहा है। वन्य जीवों का मूल्य उनके चित्र खींचने तक ही सीमित नहीं रह गया है। लोगों का कहना है कि प्रकृति में किसी जीव की विद्यमानता या उसका होना ही उसके महत्त्व और मूल्य के लिए पर्याप्त है। प्रकृति में उनका अस्तित्व मात्र ही उनके संरक्षित और सुरक्षित रखने की आवश्यकता के लिए पर्याप्त आधार प्रस्तुत करता है। वन्य जीवों के जीने के इस अधिकार (अस्तित्व रक्षा के अधिकार) को यू. एन. एसेम्बली, वर्ल्ड चार्टर फॉर नेचर, 1982 ई. में भी शामिल किया गया है।

(v) नीतिपरक मूल्य (Ethic Value): जैव-विविधता के संरक्षण के नैतिक आधार को इसलिए न्यायसंगत कहा जाता है क्योंकि पशु-पंक्षियों को भी मनुष्य की तरह ही जीने का (नैतिक) आधार है। उनके जीने का यह हक हमारे जरूरतों से परे है। इसलिए हमारा कर्त्तव्य और नैतिक दायित्व है कि पृथ्वी के सभी जीवों को यथासम्भव सीमा तक हम बचायें और उन्हें संरक्षित रखने का उपाय करें।

जीवों की रक्षा और जीव-दया की भावना हमारी संस्कृति और समाज में संस्कृति के उदय काल से ही गहराई के साथ जड़ जमाये हुई हैं लेकिन जो लोग जैव विविधता के व्यापारिक मूल्यों के पक्षधर हैं, वे इस नैतिक मूल्यों को कोई महत्त्व नहीं देते। पशु और पक्षियों के रोओं, सागवान और हाथी-दाँत के बाजारों का बहिष्कार जैव-विविधता के नैतिक मूल्यों का न्यायसंगत उदाहरण है।

जैव विविधता का महत्त्व और उपयोगिता

प्रश्न : जैव विविधता की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसके उपयोग और महत्त्व पर प्रकाश डालें।

अथवा

जैव विविधता हमारे लिए किस दृष्टि से उपयोगी है? इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करें।

अथवा

जैव विविधता के महत्त्व का मूल्यांकन उसके मानव-उपभोग और उपयोग की दृष्टि से करें।

उत्तर : पृथ्वी के सभी प्रकार के जीव और बनस्पतियाँ भनुष्य के लिए क्यों उपयोगी है, इस प्रश्न का उत्तर देना थोड़ा कठिन है। जो लोग बनजीवों, अन्य जीवों और वनस्पतियों की सुरक्षा और संरक्षण के प्रश्न को नैतिक मूल्यों से जोड़कर देखते हैं और वे यह कहते हैं कि जीवों और वनस्पतियों को पृथ्वी पर हमारे तरह ही जीने और रहने का अधिकार है। उनका अस्तित्व मात्र ही हमसे अपनी रक्षा की माँग करता है। तो इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। किन्तु इसी के साथ ही दूसरा उलझा हुआ प्रश्न जुड़ा हुआ है कि तब मनुष्य क्या खाकर जियेगा? मनुष्य ही क्यों पशु भी तो अपने आहार के लिए अन्य पशुओं, जीवों और वनस्पतियों पर निर्भर हैं। जिस भारतवर्ष में बुद्ध और महावीर की अहिंसा और जीवदया का उद्घोष गूँजा उस देश में आर्ष बाणी उद्घोषित कर चुकी थी बहुत पहले ही 'जीवों जीवस्य भोजनं'। इस कथन को आज की 'आहार श्रृंखला' की अवधारणा से जोड़कर देखना गलत नहीं होगा। इन सबसे परे और सबसे बड़ा प्रश्न पर्यावरण की सुरक्षा का है। सभी जीव और वनस्पतियाँ पर्यावरण से सुसम्बद्ध ही नहीं अन्तग्रथित भी हैं। यदि मनुष्य के अतिशय उपभोग और दोहन की प्रवृत्ति से यह पर्यावरण नष्ट हो गया तो इसका अस्तित्व बच पाना असम्भव हो जायेगा। इन प्रश्नों को ध्यान में रखकर ही जैव विविधता के उपयोग और महत्त्व पर विचार करना समीचीन होगा।

जैव विविधता के निम्नलिखित उपयोग, मूल्य और महत्त्व हैं-

1. इमारती लकड़ियों का उपयोग

2. मत्स्य-उद्योग (खाद्य सामग्री के रूप में मछली का उपयोग)

3. खाद्य उद्योग (खाद्य सामग्रियों का उपयोग)

4. औषधि उद्योग (वनस्पतियों और जीवों से प्राप्त औषधियों का उपयोग)

5. गुणसूत्रीय या अनुवांशिक दृष्टि से जैव विविधता का उपयोगात्मक महत्त्व

6. पर्यटन उद्योग की दृष्टि से जैव विविधता का उपयोगात्मक महत्त्व

7. निर्धन ग्रामवासियों के लिए जैव विविधता का महत्त्व

8. प्रदूषण नियंत्रण की दृष्टि से जैव विविधता का उपयोगात्मक महत्त्व।

1. इमारती लकड़ियों के उपयोग की दृष्टि से जैव विविधता का महत्त्व : इमारती लकड़ियों (timber wood) का उपयोग भवनों के निर्माण कार्य में बहुविध रूप में होता है। लकड़ियों से खूबसूरत उपस्कर (furniture) बनाये जाते हैं। भवन-निर्माण एवं उपस्कर-निर्माण में काम आनेवाली लकड़ियाँ बहुत कीमती होती हैं। अतः इनका राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय बाजार में बहुत ऊँचा मूल्य होता है। ऊँची कीमत पर इनकी माँग हमेशा बनी रहती है। इसलिए इमारती लकड़ियाँ (timber) राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय बाजारों में आर्थिक दृष्टि से बहुत अधिक लाभप्रद माने जाते हैं। अर्थव्यवस्था में इसके व्यापार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर लकड़ियों का आयात एवं निर्यात बहुत बड़े पैमाने पर होता है। बाजारों में व्यापार के लिए लकड़ियाँ वनों से प्राप्त की जाती हैं। लकड़ियों का व्यापार बहुत से विकासशील देशों की आर्थिक रीढ़ है। मलेशिया, पपुआ न्यू गिनिया एवं इण्डोनेशिया विश्व के सबसे बड़े लकड़ी के निर्यातक देश हैं। ये देश मजबूत और टिकाऊ लकड़ियों के सबसे बड़े व्यापारी हैं। यहाँ के प्राकृतिक जंगलों से सागौन और माहोगनी जैसी कीमती लकड़ी प्राप्त होती है। लेकिन जिन देर्शी का महत्त्व कीमती लकड़ियों की दृष्टि से है, विशेषकर ऊष्णकटिबंधीय देश जो लकड़ी प्राप्ति के मूल स्त्रोत हैं, वहाँ अच्छी लकड़ियों की कमी होती जा रही है। इस कमी का कारण लकड़ियों की अंधाधुंध कटाई, वनों के उचित रख-रखाव का अभाव एवं वासस्थलीय क्षति है।

2. मत्स्य उद्योग (खाद्य सामग्री के रूप में मछली का उपयोग) मछली एवं मछली के अन्य उत्पाद खाद्य सामग्री का दूसरा महत्त्वपूर्ण वर्ग है। मछली, नदी, तालाब, बाबाड़ी महासागर और सानों द्वाप्त कीती है। मछलियों की लगभग 22.000 व्यापारिक आर्थिक महत्व है। इन दस प्रजातियों में दिल (Herrings), मादीन (Sadine) एवं एक्रोभाइस वर्ग की महलियों का ही सर्वोचक महत्व है। महती प्राप्ति का मुख्य स्रोत सागर या महासागर है। विश्व बाजार में मछलियों की माँग की पूर्ति इन दो मुख्य स्रोतों से होती है। इसमें नदी, तालाब आदि से प्राप्त होनेवाली मछलियों का योगदान बहुत ही कम है। महलिये की बढ़ती मांग की पूर्ति को पूरा करने के लिए मछलियों का कृत्रिम प्रजनन नदी-तालाबों के अतिरिक्त समुद्रों में भी कराया जाता है किन्तु कृत्रिम प्रजनन पद्धति से उत्पादित संकर (hybrid) मछलियों ने कई प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं। बलीय संसाधनों से मछली पकड़ने (दोहन) के काम में बिगत बार-पाँच दशकों में पाँच गुनी वृद्धि हुई है। इनमें से 80% मछलियाँ महासागरों से प्राप्त की जाती हैं। किन्तु फिर भी मत्स्य-उद्योग राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय बाजार की एक महत्वपूर्ण उद्योग है। इस ब्योग कसे होनेवाले लाभ बेहिसाब हैं। लेकिन विश्व के कई हिस्सों में अंधाधुंध मत्स्य-दोहन और सागर में मछलियों के कृत्रिम पालन (प्रजनन) से तटवर्ती क्षेत्रों के पर्यावरण को भयानक रूप से काति पहुंची है।

3. खाद्य सामग्री (खाद्य सामग्रियों का उपयोग) अन्नोत्पादक पौधों या वनस्पतियाँ, जैव विविधता के आधारभूत मूल्य के उदाहरण हैं। वनों के पौधों और वृक्षों से तरह-तरह के फल-फूल एवं अन्य खाद्य-सामग्रियाँ मिलती हैं। वृक्षों या पौधों से प्राप्त इन खाद्य सामग्रियों का सीधे उपयोग किया जाता है। वनों से उत्पाद प्राप्त करने का काम पूरे विश्व में चलता रहता है। लगभग दो लाख पचास हजार प्रकार के पुष्पी पौधों में से कुछ हजार प्रकार के पौधों का उत्पाद सीधे उपभोग का स्लोत माना जाता है। कुछ पौधों या वनस्पतियों के करते या कोंपलों को वन पशु सीधे-सीधे खाते हैं। मनुष्यों ने इनमें से बहुत से बनपशुओं को पालतू बना लिया है, जबकि बहुत से पशुओं का शिकार किया जाता है। पौधों और वनस्पतियों की लगभग 200 प्रजातियों की खेती की जाने लगी है। उन्हें घरों में उगाया जाने लगा है और उनका उपयोग आहार के रूप में होता है। इन 200 प्रजातियों में से लगभग 15 से 20 प्रजातियों का अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की दृष्टि से बहुत बड़ा आर्थिक महत्त्व है। लेकिन इनमें से कुछ ही प्रजातियाँ विश्व में खाद्योत्पादन में योगदान करती हैं। लेकिन स्थानीय विशेषकर उष्णकटिबंधीय देशों/क्षेत्रों में बहुत बड़ी संख्या में वन वृक्षों से फल एवं अन्य खाद्य सामग्री प्राप्त की जाती हैं। इण्डोनेशिया के ग्रामीण लगभग चार हजार किस्मों के स्थानीय (ग्राम्य) वृक्षों और पशु प्रजातियों का उपभोग खाद्य सामग्री के रूप में करते हैं। सुप्रसिद्ध उष्णकटिबंधीय पर्यावरणविद् एन. मेयर्स के एक आकलन के अनुसार मनुष्यों द्वारा खाद्य सामग्री के रूप में लगभग आठ हजार प्रकार की वनस्पतियों का उपयोग किया जाता है।

फसली पौधों के विकास का इतिहास 5,000 से 10,000 वर्ष पुराना है। लेकिन अन्नोत्पादक फसलों को स्थानीय बातावरण के अनुकूल बना लेने की परम्परा का इतिहास कुछ ही शताब्दी पुराना है। स्थानीयकृत वनस्पतियों के उत्पादन ने वनस्पतियों की विविधता में वृद्धि की है। अधिक अन्नोत्पादन के कारण इस प्रवृत्ति को आघात लगा है। इसका सबसे बुरा प्रभाव पौधों की प्रजातियों की अनुवांशिक (genetic) विशेषताओं पर पड़ा है। इसके कारण एकरूप फसलोत्पादन बाधित हुआ है। सघन गहन कृषि के प्रारम्भ के साथ ही अनेक प्रकार की बहुमूल्य स्थानीय वनस्पतियाँ पौधे प्रायः विलुप्त होते चले जा रहे हैं। जंगलों की सफाई अथवा उनको रमणीक एवं दर्शनीय (स्थान) बनाने के प्रयत्न के कारण भी वनस्पतियों की जैव विविधता पर संकट छा गया है। अत्यधिक पशु-चारण ने भी वनस्पतियों को बहुत अधिक क्षति पहुँचायी है। मनुष्य ने अपनी अनेक गतिविधियों के द्वारा बनों को प्रायः उजाड़ दिया है। फलस्वरूप वनस्पतियों के बहुमूल्य प्रकार विनष्ट एवं विलुप्त होते चले जा रहे हैं।

4. औषधि उद्योग (वनस्पतियों एवं जीवों से प्राप्त औषधियों का उपयोग): अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं और जीवों से महत्त्वपूर्ण उपयोगी औषधियाँ प्राप्त की जाती हैं। अनेक प्रकार के हृदय रोगों के उपचार में प्रयुक्त डिजिटलिस नामक औषधि एक नन्हें पुष्पी पौधे का वैज्ञानिक नाम पर्पल फाक्सगलोध' है। पेंसिलिन एक तरह के कवक से बनायी जाती है। इसी तरह अनेक प्रकार की दवाएँ पौधों, वनस्पतियों और जीवाणुओं से बनायी जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र आँकड़ा आकलन (UNDP) के अनुसार दवा निर्माता कम्पनियाँ औषधीय उपयोग के लिए प्रतिवर्ष 30 बिलियन डॉलर मूल्य की वनस्पतियाँ, पशु एवं सूक्ष्म जीवाणु का तीसरी दुनिया के देशों से आयात करती हैं।

वनस्पतियों और जीवों के औषधि निर्माण में इतने व्यापक उपयोग के बाद भी वर्तमान समय में असंख्य प्रकार के जीव और वनस्पतियाँ ऐसी हैं जो या तो अज्ञात हैं या फिर जिनके औषधीय गुणों का अभी तक परीक्षण नहीं हुआ है। प्रवाल भित्तियाँ एक ऐसी ही चीज है जिसका उपयोग दवा बनाने में किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि प्रवाल भित्ति बनानेवाले जीव अपनी सुरक्षा के लिए एक प्रकार के विष का उत्पादन करते हैं। सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि इस विष का व्यापक उपयोग भविष्य में दवा बनाने के लिए हो सकता है। अनेक प्रकार के भारतीय पौधों और वनस्पतियों का उपयोग इस देश में औषधियों के रूप में हजारों हजार वर्ष से होता आ रहा है। इनमें से तुलसी, नीम, करंज, कुसुम, महुआ, मूलाठी, गुडुमार, जेठी मघ, पीपल आदि का विशेष महत्त्व है।

5. अनुवांशिक दृष्टि से जैव विविधता का उपयोग एवं महत्त्व: जीवीय विविधता अनुवांशिक (genetic) संसाधन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। फसलों के संकर उत्पादन जोनों पर ही निर्भर है। पौधों की विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के जीनों का विशिष्ट प्रकार के पौधों या फसल में उपयोग करके उससे बेहतर परिणाम प्राप्त किया जा रहा है। संकर फसलों या पौधों में अनेक प्रकार के कीटों से बचाव का अन्तर्निहित गुण होता है। संकर पौधों से उत्पादन में कई गुना वृद्धि हो जाती है। लेकिन जौन परिवर्तन द्वारा संकर फसलों या पौधों का उत्पादन सोच समझकर किया जाना चाहिए। इनका उत्पादन भविष्य एवं पर्यावरण के गुण-दोष पर विचार कर किया जाना चाहिए। जीनों के रूप-भेद द्वारा अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन-प्राप्ति के हजारों उदाहरण उपलब्ध हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है-

(i) उत्तरप्रदेश में एक प्रकार के जंगली खरबूजों का उत्पादन होती है। इस खरबूज के जोन के उपयोग द्वारा कैलिफोर्निया में पैदा किये जानेवाले खरबूजे को एक प्रकार की क्षतिकारक फफूँदी से बचाया जा सका है।

(ii) इण्डोनेशिया में पायी जानेवाली कान्स घास (Saccharum Spantaneum) के उपयोग से ईख के पौधों को 'रेड-रौट' रोग से बचाने में सफलता मिली है।

(iii) उत्तरप्रदेश के जंगलों में पाये जानेवाले एक विशेष प्रकार के जंगली धान के जीन के उपयोग द्वारा लाखों लाख हेक्टेअर में लगे धान की फसल को ग्रासी स्टंट (Grossy Stunt) विषाणु से बचाया जा सकता है।

6. पर्यटन उद्योग की दृष्टि से जैव विविधता का उपयोगात्मक महत्त्व: पर्यटन उद्योग सुरक्षित क्षेत्रों के माध्यम से बनजीवों के दर्शन-अवलोकन पर आधारित है। पर्यटन उद्योग अनेक विकासशील देशों को बहुत बड़ा आर्थिक लाभ पहुँचा रहा है। पर्यटन उद्योग केन्या के लिए अन्तर्राष्ट्रीय आय का सबसे बड़ा साधन है। पर्यटन के आर्थिक और पारिस्थितिकी महत्त्व पर वर्त्तमान समय में अधिक ध्यान दिया जा रहा है। पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने से विभिन्न प्रकार के वनों, वनस्पतियों एवं वन्य जीवों में लोगों की अभिरुचि बढ़ी है।

7. निर्धन ग्रामवासियों के लिए जैव विविधता का महत्त्व : अविकसित देशों के लोग अभी भी जंगलों और बनजीवों पर ही अपनी खाद्य सामग्री के लिए निर्भर हैं। वन उन्हें भोजन, आश्रय, उपकरण, ईधन, वस्त्र और दवाएँ उपलब्ध कराता है। जैव विविधता में कोई भी वनवासियों या स्थानीय भविष्यगत कमी का जर्थ लोगों की गरीबी को और भी बढ़ाना होगा। झारखण्ड राज्य के आदिवासियों के जीवन को जंगलों की अवैध कटाई ने अत्यधिक विपन्न बना दिया है।

8. प्रदूषण नियंत्रण की दृष्टि से जैव-विविधता का उपयोग एवं महत्त्व अनेक प्रकार के पौधे एवं सूक्ष्म जीवाणु मृदा, जल एवं वायु को अनेक प्रकार के विषैले प्रदूषण और प्रभाव से बचाते हैं। विभिन्न प्रकार की प्रजातियों की विशेषताएँ भी विभिन्न प्रकार की होती हैं। अतः जैव विविधता व्यापक रूप से प्रदूषण नियंत्रण में सहायक है। वनस्पतियाँ वायुमण्डल मे निहित कार्बन उ। यक्साइड और सल्फर डायक्साइड के प्रदूषण को बहुत बड़ी सीमा तक रोकने में मददगार साबित होती है। इसी तरह अनेक प्रकार के मृदा कवक (fungi) एवं बैक्टेरिया कार्बन मोनो ऑक्साइड को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

विश्वव्यापी जैव विविधता (Global Biodiversity)

प्रश्न : विश्वव्यापी जैव विविधता का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करें।

उत्तर: पृथ्वी पर जीवों की विभिन्न प्रजातियाँ नहीं पायी जाती। स्थान-भेद से जैव विविधता में अन्तर आ जाता है। भूवैज्ञानिक काल से लेकर वर्तमान समय तक प्रजातियों की समरूप समृद्धि एवं विविधता में उल्लेखनीय अन्तर आता गया है। यह अन्तर पृथ्वी के एक भाग से दूसरे भाग के बीच भी दिखायी पड़ता है। आधारभूत जीवों और प्रत्येक जीव के प्रकारों में सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक असाधारण अन्तर परिलक्षित किये गये हैं। जीवों के वर्तमान स्तरों को देखने से पता चलता है कि प्रजातियों की समृद्धि के अन्तर में एक श्रृंखलाबद्ध क्रम होता है। उदाहरण के लिए पृथ्वी के पर्यावरण की भिन्नता के अनुसार प्रजातियों की समृद्धि में निम्नलिखित अन्तर दिखायी देता है-

(1) उष्ण क्षेत्रों में ठंडे स्थानों की अपेक्षा अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

(2) आर्द्र क्षेत्रों में शुष्क क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

(3) विस्तृत क्षेत्रों में सीमित क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

(4) विभिन्न प्रकार की जलवायु एवं भू-आकृतिवाले क्षेत्रों में समरूप जलवायु एवं भू-आकृतिवाले क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

(5) अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों की अपेक्षा कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

(6) उच्च मौसम वाले क्षेत्रों की अपेक्षा निम्न मौसम वाले क्षेत्रों में अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

(7) निम्न अक्षांशीय उष्ण क्षेत्रों में अधिक वेलापवर्ती समुद्री प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

समशीतोष्ण क्षेत्र की अपेक्षा उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों प्रति इकाई क्षेत्र में सर्वत्र सर्वाधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं। इसी प्रकार ध्रुवीय क्षेत्रों की अपेक्षा समशीतोष्ण क्षेत्रों में अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं। आर्द्र उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्र प्रजातियों की समृद्धि की दृष्टि से अधिक सम्पन्न होते हैं। यद्यपि आर्द्र उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों का पृथ्वी पर कुल फैलाव सम्पूर्ण घरातलीय क्षेत्रों का मात्र 7% है तथापि विश्व की 90% प्रजातियाँ इसी सीमित क्षेत्र में पायी जाती हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रीय अज्ञात वनों के सूक्ष्म प्राणि-समूहों (विशेषकर कीटों) को छोड़ भी दिया जाय, तब भी निम्नलिखित प्राणि-समूहों की दृष्टि से ये क्षेत्र अधिक सम्पन्न हैं, यथा-

प्रवाल भित्ति क्षेत्र एवं दक्षिण अफ्रीका एवं पश्चिमी ऑस्ट्रेलियाई भूमध्यसागरीय अलवायविक क्षेत्र प्राणि-समूहों एवं पुष्पी पौधों की दृष्टि से अधिक सम्पन्न हैं।

जैव विविधता की दृष्टि से विश्व को कई क्षेत्रों में बाँटा गया है-

(1) पैलियोआर्कटिक क्षेत्र (पुराजीवीय आर्कटिक Palaearctic Region)

(2) इथोपीयन क्षेत्र

(3) भारतीय क्षेत्र

(4) ऑस्ट्रेलियन क्षेत्र

(5) नियोट्रौपिकल (नव उष्णकटिबंधीय क्षेत्र) (Neotropical Region)

(6) निआ आर्कटिक क्षेत्र (Neartic Region)

1. पुराजीवीय आर्कटिक क्षेत्र (Palacartic Region): यह क्षेत्र अफ्रीका के एटलस पर्वत का उत्तरी भाग, हिमाचल के उत्तर में स्थित प्रदेश, यूरोप और एशिया के विशेषकर चीन एवं जापान आदि का क्षेत्र पड़ता है। इन क्षेत्रों में बड़े पशु नहीं पाये जाते।

2. इथोपीयन क्षेत्र : इथोपीयन क्षेत्र के अन्तर्गत कर्क रेखा का सम्पूर्ण अफ्रीकाई क्षेत्र, मेडागास्कर द्वीप तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र, समूह सम्मिलित हैं। इस क्षेत्र में अत्यधिक उष्णकटिबंधीय क्षेत्र स्थित हैं।

3. भारतीय क्षेत्र : इस क्षेत्र में भारत के हिमालय के दक्षिणी भाग, श्रीलंका, मलाया, म्यांमार, दक्षिणी चीन, जावा, सुमात्रा, बोर्निया के क्षेत्र आते हैं। ये क्षेत्र अत्यधिक सघन वनवाले क्षेत्र हैं। भारतीय क्षेत्र की जैव विविधता उच्चकोटि की है।

4. ऑस्ट्रेलियाई क्षेत्र : यह पपुआ न्यू गिनिया एवं उसके निकट ऑस्ट्रेलिया के द्वीप टस्मानिया एवं प्रशांत महासागरीय द्वीपों से मिलकर बना है। यह क्षेत्र अंशतः उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र है।

5. नियोट्रॉपिकल क्षेत्र : नव उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र निश्चित रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्र हैं किन्तु इसका दक्षिणी भाग दक्षिणी शीतोष्ण भाग तक फैला हुआ है। यह क्षेत्र अत्यधिक सघन वनवाला प्रदेश है। अतः यहाँ जैव विविधता अधिक पायी जाती है।

6. निआर्कटिक क्षेत्र : इस क्षेत्र के अन्तर्गत सम्पूर्ण उत्तरी अमेरिका तथा ग्रीनलैण्ड का सम्पूर्ण भाग शामिल है। ग्रीनलैण्ड उत्तरी ध्रुवीय प्रदेश है। उत्तरी अमेरिका का पूर्वी भाग पतझड़ एवं मिश्रित बनों का प्रदेश है। इस क्षेत्र का मध्य भाग शाद्वल (घास) मैदानवाला क्षेत्र है।

जैव विविधता के संदर्भ में भारत का मूल्यांकन

प्रश्न : जैव विविधता का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए भारत का वृहत जैव विविधता वाले देश के रूप में महत्त्व निरूपित करें।

अथवा

भारत को जैव विविधता की दृष्टि से कितने क्षेत्रों में बाँटा गया है? इन क्षेत्रों की क्या विशेषताएँ हैं?

अथवा

जैव विविधता की सम्पन्नता की दृष्टि से भारत का क्या स्थान है? भारत के प्रमुख जैव विविधता से सम्पन्न क्षेत्रों का उनकी विशेषताओं सहित उल्लेख करें।

अथवा

जैव विविधता का अर्थ स्पष्ट करते हुए भारत की क्षेत्रवार जैव विवधता पर प्रकाश डालें।

अथवा

जैव विविधता और भारत की जैव विविधता के वृहत आयाम पर एक संक्षिप्त लेख लिखें।

उत्तर : जैव विविधता का अर्थ जैव विविधता का अर्थ इस सृष्टि अर्थात हमारी पृथ्वी पर के प्राणियों की विविधता है। इस पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ एककोशकीय यरल जीवों से हुआ किन्तु आज पृथ्वी पर अनेक जटिल संरचनावाले बहुकौशकीय जीव पाये जाते हैं। एककोशकीय कवक, प्रोटोजोआ और बैक्टेरिया से लेकर मनुष्यों की अनेक जातियों, प्रजातियाँ, वन-जीवों (पशु आदि) की असंख्य प्रजातियाँ, असंख्य प्रकार की वनस्पतियाँ पंछी एवं जलीय जीव-मछली, मगर, दरियाई घोड़ा, कछुआ, मेढक एवं अनेक प्रकार के कीट-पतंग आदि जैव विविधता के उदाहरण हैं। जैव विविधता का अर्थ ही वैश्विक जीवों की विविधता है। मनुष्य का जीवन एवं उसकी समस्त सभ्यता पूर्व संस्कृतिगत उपलब्धियों जैव विविधता पर ही टिकी हुई हैं। जैव विविधता पर ही मनुष्य की सम्पन्नता निर्भर है। जैव विविधता के संतुलन पर ही पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन निर्भर करता है। भोजन, वस्त्र, आवास, औषधि एवं सुख-सुविधा एवं सुख-सुविधा के सम्पूर्ण साधन जैव विविधता का आर्थिक, व्यापारिक, वाणिज्यिक मूल्यों से लेकर उसका धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं पर्यावरणिक मूल्य है।

जैव विविधता और भारतवर्ष

1. वैश्विक जैव विविधता और भारतीय जैव विविधता का अनुपात: जैव विविधता की दृष्टि से भारत अत्यन्त समृद्ध और सम्पन्न राष्ट्र है। जैव-विविधता के तीन मूलभूत महत्त्वपूर्ण आयाम हैं-अनुवांशिकी (genetic), प्रजातीय (species) एवं पारिस्थितिकी (eco-system)। इन तीनों महत्त्वपूर्ण आयामों की दृष्टि से भारत अत्यन्त वैभवशाली राष्ट्र है। भारत को धरोहर के रूप में जैव विविधता का अक्षय संसाधन और भंडार प्राप्त है। उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों में वास करनेवाले जीवों और वनस्पतियों से लेकर पर्वतीय (Alpine) वनस्पतियों की विविधता इस देश की विशेषता है। इस देश में शीतोष्ण वनों से लेकर तटीय आर्द्र भूमि तक पायी जाती है।

भारत विश्व के सभी जैव-भौगोलिक क्षेत्र के वैविध्य का प्रतिनिधित्व करता है। भारत का भू-क्षेत्र विश्व के भू-क्षेत्र का मात्र 2.04% ही है। लेकिन ज्ञान जैव विविधता की दृष्टि से इसमें भारत योगदान लगभग 8.22% है। भारत जैव विविधता की दृष्टि से विश्व के बारह (12) बड़े देशों में से एक है। विश्व के प्राणियों की प्रजातियों की दृष्टि से भारत में पायी जानेवाली प्रजातियों का तुलनात्मक अनुपात 7.31% है। वनस्पतियों की प्रजातियों की दृष्टि से यह प्रतिशत लगभग 10.88% है। वनस्पतीय वैविध्य की दृष्टि विश्व में भारत का दसवों एवं एशिया में चौथा स्थान है। स्तनपायी जीवों की प्रजातियों की दृष्टि से भी विश्व में भारत का दसवाँ स्थान है। उच्च कोटि के कशेरुकी (रौढ़दार: vertebrates) देशज प्रजातियों की दृष्टि से भारत का ग्यारहवाँ स्थान है। कृषि में योगदान करने वाली वनस्पतियों और पशुओं की प्रजाति की दृष्टि से भारत का स्थान सातवाँ है।

भारत की जैव विविधता की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ :

(i) जैव विविधता की दृष्टि से भारत के दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं पेलैयिआर्कटिक (Palaearctic) एवं भारत मलाया क्षेत्र। इसके तीन पारिस्थितिकी तंत्र (Biomes) हैं- उष्णकटिबंधीय आर्द्र बन, उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन एवं शुष्क तप्त मरुभूमि एवं अर्द्ध शुष्क मरुभूमि।

(ii) भारत के दस जैव भौगोलिक क्षेत्र हैं ट्रांस हिमालय, भारतीय मरुभूमि (रेगिस्तान), अर्धनिर्जल (Arid), पश्चिमी घाट, दक्षिण के प्रायद्वीप, गंगा के मैदान, उत्तर-पूर्व भारत, द्वीप एवं तटवर्ती क्षेत्र।

(iii) जैव विविधता की दृष्टि से भारत का विश्व में बारहवाँ स्थान है।

(iv) भारत कृषि फसलों की उत्पत्ति की दृष्टि से विश्व के बारह प्रमुख केन्द्रों में से एक है।

(v) जैव विविधता की दृष्टि से भारत के दो अतिमहत्त्वपूर्ण या संवेदनशील (Hot Spots) क्षेत्र हैं-पश्चिमो घाट और पूर्वी हिमालय क्षेत्र। इन क्षेत्रों में अठारह प्रकार की जैव विविधता पायी गयी है। यह आकलन मेयर्स के 1988 ई. के सर्वेक्षण पर आधारित है। मेयर्स के 2000 ई. में किये गये सर्वेक्षण के संशोधित आँकड़ों के अनुसार 25 प्रकार के अतिमहत्त्वपूर्ण संवेदनशील क्षेत्र हैं। इनमें से जो दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्र जोड़े गये हैं, वे पश्चिमी घाट, श्रीलंका एवं भारत-म्यांमार (वर्मा) क्षेत्र, (जिसमें पूर्वी हिमालय क्षेत्र भी सम्मिलित है।) है। इनमें आठ क्षेत्रों को अति संवेदनशील क्षेत्रों में भी विशिष्ट माना गया है।

(vi) भारतवर्ष में 26 प्रकार की देशज पुष्पी प्रजातियों की पहचान की जा चुकी है।

(vii) भारत में पाँच स्थान विश्व धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त हैं। बारह सुरक्षित जैव-मण्डल हैं तथा छः प्रकार की आर्द्र भूमियाँ हैं।

(viii) भारत में 88 सुरक्षित राष्ट्रीय उद्यान हैं। 490 अभयारण्य हैं। इन अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों का कुल क्षेत्रफल 1.53 लाख वर्ग किलोमीटर है।

(ix) भारत वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के दो-तिहाई (2/3) भौगोलिक क्षेत्रों में 89,317 प्रकार के प्राणियों की प्रजातियाँ विद्यमान हैं। भारत की वनस्पतीय प्रजातियों की कुल संख्या 45,364 है। जैविक प्रजातियाँ की दृष्टि से भारत का प्रतिशत लगभग 7.31 है।

(x) फसलीय जैव विविधता की दृष्टि से भारत एक सम्पन्न राष्ट्र है। भारत में 167 प्रकार की प्रजातियों की फसलें होती हैं। वनस्पतियों की प्रजातियाँ भी बहुत विशाल हैं। भारत में 30,000 से लेकर 50,000 किस्मों के चावल, मटर, हल्दी, अदरक, ईख और गूजबेरी (Gooseberry) का उत्पादन होता है। कृषि उत्पादन की दृष्टि से भारत का विश्व में सातवाँ स्थान है।

(xi) सागरीय जैव विविधता भारत के तटवर्ती क्षेत्रों की लम्बाई 7516.5 कि.मी. है इस सागरीय क्षेत्र में आर्थिक महत्त्व के क्षेत्र लगभग 202 मिलियन वर्ग कि.मी. हैं। भारत के इस सागरीय क्षेत्र का पारिस्थितिकी तंत्र की दृष्टि से अनन्य महत्त्व है। इस पारिस्थितिकी तंत्र के अन्तर्गत कछारी वनस्पति (Mangrooves) समुद्रतल (लैगून), एस्टीभैरी और प्रवाल भित्तियाँ हैं। जूप्लैंकटन (Zooplankton) की 16,000 प्रजातियाँ इस सागर क्षेत्र में पायी जाती हैं। इनका जैव-भार (Biomass) प्रति घन मीटर 0.1 से 37 मिलीमीटर है। नितलस्थ प्राणियों में मुख्यतः पोलीचोटा (62%), क्रस्टैसिया (20%), एवं मोलस्क (चूर्ण प्रखर-18%) हैं। इनका सम्मिलित जैव भार प्रति घन मीटर 12 ग्राम है।

भारत के महासागरों में 30 तरह के समुद्री शैवाल की प्रजातियाँ और 14 प्रकार की समुद्री घास की प्रजातियाँ पायी गयी हैं। लगभग 45 प्रकार की कछारी वनस्पतियों के पाये जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं। 342 प्रकार के प्रवालों की प्रजातियों की पहचान हुई है। इनमें 76 प्रकार की मूल प्रजातियाँ है। विश्व की लगभग 50% प्रवाल भित्तियाँ भारतवर्ष में ही पायी जाती हैं।

अनुमानतः भारत में 50 हजार प्रकार के पौधे और 80 हजार प्रकार के जीव-जंतु पाये गये हैं। पुष्पी पौधों के प्रकारों की अनुमानित संख्या 20 हजार है। कीट-पतंगों के प्रकारों की संख्या 67 हजार है। रीढ़विहीन जीवों के प्रकारों की संख्या 6,500 है। मोलस्कों के प्रकारों की संख्या एक हजार है। इस देश के जलस्त्रोतों में 1400 प्रकार की मछलियाँ पायी जाती हैं। 140 प्रकार के उभयचर जीव (Amphibians) तथा 340 किस्म के स्तनधारी जीव पाये जाते हैं। सरीसृपों (Reptiles) के प्रकारों की संख्या 420 तथा पक्षियों के प्रकारों की संख्या 1200 है।

भारत पुष्पी पौधों यथा ब्रायोकायटा और आर्किड प्रजातियों की दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न देश है। पशुओं और कीटों की बहुविविधता तो बहुज्ञात है ही।

जैव विविधताओं के विनष्ट और विलुप्त होने का खतरा

प्रश्न : जैव विविधता की संकटापन्नता से आप क्या समझते हैं? जैव विविधता को किन कारणों से खतरा पहुँच रहा है?

अथवा

वर्त्तमान समय में जैव विविधता के विनष्ट और विलुप्त होने का खतरा क्यों बढ़ गया है?

अथवा

निकट भविष्य में असंख्य दुर्लभ जीवों के समाप्त हो जाने का खतरा स्पष्ट दिखायी पड़ रहा है? इसके क्या कारण हैं?

अथवा

"प्रकृति के अतिशय दोहन और मनुष्य के लालच (स्वार्थ) के कारण विश्व की अनेक दुर्लभ प्रजातियों के निकट भविष्य में विलुप्त हो जाने का खतरा बढ़ गया है।" इस कथन की परीक्षा करें।

उत्तर : प्राणियों का अंत और विलोपन एक प्राकृतिक क्रम है। बहुत से प्राणियों की मृत्यु हो जाती है और उनकी जगह नये प्राणी ले लेते हैं। प्राणियों के अंत और नये प्राणियों के जीवन-धारण में विकासात्मक परिवर्तन का हाथ होता है। अवितरित पारिस्थितिक तंत्र में प्राणियों के विलोपन की दर प्रति दशक एक प्रजाति की है। किन्तु आबादियों एवं पारिस्थितिकी तंत्र पर मनुष्य के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण इस दर में अत्यधिक वृद्धि हुई है। फलस्वरूप प्राणियों की सैकड़ों प्रजातियों, उपजातियों एवं उनके अनेक प्रकार प्रतिवर्ष विलुप्त होते चले जा रहे हैं। यदि प्राणियों के विलुप्त होने की रफ्तार इसी प्रकार बनी रही तो पौधों, पशुओं एवं माइक्रोवेव्स के लाखों-लाख प्रकार आगामी कुछ ही दशकों में पूर्णतः समाप्त हो जायेंगे।

प्रजातियों के विलोपन के कारण प्राणी की प्रजातियों की विलुप्ति के कारणों को 'पंच जोखिम' समूहों में बाँटा गया है। ये पाँच जोखिम हैं-

(1) आबादी जोखिम

(2) पर्यावरणिक जोखिम

(3) प्राकृतिक विध्वंस

(4) अनुवांशिक जोखिम एवं

(5) मानवीय गतिविधियों के जोखिम ।

1. आबादी के जोखिम : प्राणियों की प्रजातियों की जन्म एवं मृत्यु दर में बेतरतीब अन्तर होने के कारण प्रजातियाँ की प्रचुरता में कमी आ सकती है और इस कमी के कारण वे प्रजातियाँ शनैः शनैः विलुप्त हो जा सकती हैं। इस प्रकार का जोखिम प्रजातियों के उस समूह को अधिक झेलना पड़ता है जिनकी एकल आबादी एक ही वास-स्थान में रहती है। इस प्रकार के संकटग्रस्त प्राणी का उदाहरण नीला व्हेल (Blue Whale) है। चूँकि ब्लू व्हेल महासागर के विस्तृत क्षेत्र में तैरता रहता है और यदि किसी वर्ष मादा ब्लू व्हेल को नर व्हेल नहीं मिल पाता तो उनकी प्रजनन दर खतरनाक रूप से कम हो जाती है।

2. पर्यावरणिक जोखिम पर्यावरणिक जोखिम का अर्थ पर्यावरण में मौतिक या जीव विज्ञानीय अन्तर का घटित होना है जिसमें परभक्षियों, शिकारियों, सहजीवियों या प्रतिस्पर्दी प्रजातियों के पारस्परिक संघर्ष भी शामिल हैं। वैसी प्रजातियाँ जो पूर्णतः विरल एवं अलग-थलग रहनेवाली होती हैं, ऐसी पर्यावरणिक स्थितियाँ उनकी विलुप्ति का कारण बन जा सकती हैं।

3. प्राकृतिक महाविध्वंस के जोखिम प्राकृतिक विर्ध्वस पर्यावरण में आकस्मिक भरिवर्तन लाता है। इस तरह के विध्वंसों में मनुष्य का कोई हाथ नहीं होता। आगलगी, आँधी, बाढ़, भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, महासागरीय धाराओं में परिवर्तन इत्यादि प्राकृतिक विध्वंस के उदाहरण हैं। जिन क्षेत्रों में ऐसी घटनाएँ घटेंगी, उन क्षेत्रों में अधिकाधिक प्राणी-प्रजातियों के खत्म हो जाने का जोखिम बढ़ जायेगा।

4. अनुवांशिक जोखिम किसी प्रजाति की सीमित संख्या में अनुवांशिक गुणों में परिवर्तन भी उसके समाप्त हो जाने का कारण बन जाता है। इसका कारण घटा हुआ अनुवांशिक अन्तर, अनुवांशिक निष्क्रियता या उत्परिवर्तन होता है। इन कारणों से प्रजातियाँ बहुत अधिक असुरक्षित हो जाती हैं। इस प्रकार के उत्परिवर्तन के कारण उनका स्वास्थ्य गिर जाता है और उनकी आबादी स्थिर हो जाती है। फलस्वरूप धीरे-धीरे ऐसी प्रजातियाँ विनाश और विलुप्ति के कगार पर पहुँच जाती हैं।

5. मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न जोखिम न केवल निकटभूत में अपितु बहुत लम्बे अरसे से मानवीय गतिविधियों के कारण अनेक दुर्लभ प्रजातियाँ विनष्ट हो गयीं। आखेट युग में अतिशय आखेट (शिकार) के कारण बहुत सी प्रजातियाँ पूरी तरह पृथ्वी पर से विलुप्त हो गयीं। आग के आविष्कार एवं विस्तृत भू-भाग में मानव आवासों के विस्तार, कृषि के विकास, सभ्यता के उत्कर्ष, द्रुतगति से निर्वनीकरण एवं अन्य आवासीय परिवर्तनों के कारण प्राणियों के विनाश और समाप्त हो जाने का खतरा निरन्तर बढ़ता चला गया। आवास के लिए नगे क्षेत्रों के विस्तार की प्रवृत्ति के कारण उन क्षेत्रों में रहनेवाले प्राणी और प्रजाति अन्यत्र जाने के लिए विवश होती गयी। फलस्वरूप वे क्षेत्र उन प्रजातियों/प्राणियों से विहीन हो गये। उद्योगों के फैलते जाल के कारण उनसे निकलनेवाले रसायनों, कीटनाशियों एवं अन्य बिषैले पदार्थों के पर्यावरण में उत्सर्जन के कारण पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता चला गया। पर्यावरण का प्रदूषण भी प्राणियों/प्रजातियों के समाप्त होने का कारण बन गया।

निष्कर्ष : इस प्रकार पृथ्वी पर से अनेक ज्ञात/अज्ञात दुर्लभ सामान्य एवं विशिष्ट प्राणियों और प्रजातियों के समाप्त होने का क्रम सृष्टि के आरम्भ से ही चला आ रहा है। प्राणियों और प्रजातियों के अन्तःसंघर्ष, आखेट, पर्यावरणिक जोखिम प्राकृतिक आपदाएँ और महाविध्वंस, अनुवांशिक उत्परिवर्तन एवं उनके जीवन और आवास में मनुष्य के बढ़ते हस्तक्षेप और छेड़छाड़ के कारण वर्त्तमान युग में प्राणियों/प्रजातियों (महत्त्वपूर्ण पेड़, पौधे, वनस्पतियाँ, कीट-पतंग, नाना प्रकार की मछलियाँ, विविध प्रकार के पशु-पक्षी तथा मृदा में रहनेवाले लाभकारी बैक्टेरिया इत्यादि) के विनाश और विलोपन के गम्भीर लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं।

जैव विविधतावाले महत्त्वपूर्ण संवेदनशील क्षेत्र (Hot Spots of Biodiversity)

प्रश्न : जैव विविधता के संवेदनशील क्षेत्र का क्या अर्थ है? जैव विविधता की दृष्टि से किन-किन क्षेत्रों को अत्यन्त संवेदनशील माना गया है?

अथवा

जैव विविधता के संवेदनशील क्षेत्रों के बारे में बताइये।

उत्तर : पृथ्वी पर के जितने महत्त्वपूर्ण स्थान और क्षेत्र है, वे क्षेत्र उतने ही खतरों में पड़े हुए हैं। इन क्षेत्रों की मूल वनस्पतियों का मात्र दस प्रतिशत अंश ही वर्तमान समय में बचा हुआ रह गया है। इन्हीं क्षेत्रों को जैव विविधता की दृष्टि से अतिमहत्त्वपूर्ण एवं संवेदनशील क्षेत्र कहा गया है। इन क्षेत्रों को संवेदनशील (Hot Spots) क्षेत्र कहने का अभिप्राय य० है कि इनके संरक्षण के प्रति विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। ये संवेदनशील क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध एवं सम्पन्न हैं। इन क्षेत्रों के प्राणियों/प्रजातियों में स्थानीय विशेषताएँ विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। यहाँ के जीवों के विलुप्त या खत्म हो जाने का खतरा निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इन क्षेत्रों में रहनेवाले जीवों के वास-स्थल विनष्ट हो गये हैं या उजाड़ दिये गये हैं। विश्व स्तर पर जैव विविधता की क्षति की समस्या के समाधान के निमित्त इन क्षेत्रों की पारिस्थितिकी एव प्रजातियों के संरक्षण को विशेष लक्ष्य के केन्द्र में रखा गया है। संवेदनशील क्षेत्र सम्बन्धी रणनीतिक योजनाओं से जीवों के विलुप्त होने के संकट के समाधान में सहायता मिलेगी। इस तरह इन क्षेत्रों के जीवों और वनस्पतियों को विनष्ट या विलुप्त होने से बचाया जा सकता है।

हाल ही में नार्मन मेयर्स और उनके दल के सहयोगियों ने विश्व के पच्चीस संवेदनशील क्षेत्रों की एक अद्यतन सूची जारी की है। नार्मन मेयर्स के अनुसार जैव विविधता की दृष्टि से ये पच्चीस महत्त्वपूर्ण संवेदनशील क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

1. कैरिबीयन : कैरिबीयन क्षेत्र की जलवायु अत्यधिक अस्थिर या परिवर्तनशील प्रकृति की है। इस क्षेत्र के एक द्वीप की जलवायु दूसरे द्वीप की जलवायु से नितान्त भिन्न है। इन क्षेत्रों मैं सदाबहार झाड़ीवाली भूमि पायी जाती है। इनके बीच-बीच में सावना का प्रसार है। कुछ अत्यन्त शुष्क क्षेत्रों में काँटेदार झुरमुटों वाली वनस्पतियाँ पायी जाती हैं। ये क्षेत्र चौरस द्वीप के हैं। कुछ टापू तो बिल्कुल पर्वतीय वृत्तों से घिरे हुए है। इस क्षेत्र की जलवायु अधिक आर्द्र है। इस क्षेत्र की आर्द्र उष्णकटिबंधीय वनस्पतियों में मौसमी वन, लघु वनस्थली, दलदली वन क्षेत्र एवं पर्वतीय वन क्षेत्र पाये जाते हैं।

2 कैलिफोर्निया फ्लोरिडा क्षेत्र इस क्षेत्र की जलवायु भूमध्यसागरीय जलवायु के (Mediterranean) समतुल्य है। इस क्षेत्र में अत्यधिक उष्ण एवं सूखी गर्मी पड़ती है। शीत ऋतु आर्द्र होती है। इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी में विविधताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यहाँ सेजबुरूस, घास, काँटेदार नासपाती, झुरमुट, समुद्रतटीय सेज झाड़ियाँ, झाड़ीदार वन, चीड़ वन, पर्वतीय वन, नदी तटीय वन, मिश्रित सदाबहार वन, रेडवुड वन, तटीय बालू के टीले एवं लवणीय काई (mosses) भरी पड़ी हुई हैं। इस संवेदनशील क्षेत्र के पौधों में उच्चकोटि की विविधता एवं स्थानीय विशेषता पायी जाती है। इन संवेदनशील क्षेत्रों में विशाल कंगारू, चूहे, कैलिफोर्नियाई गिद्ध एवं मरुभूमि के सालमेण्डर पाये जाते हैं।

3. मेसो अमेरिका का दो समीपवर्ती जैव भौगोलिक क्षेत्र उत्तर अमेरिका का निआर्कटिक और दक्षिण एवं मध्य अमेरिका एवं कैरिबीयन का नियोट्रौपिकल है। यह क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से जीवों एवं वनस्पतियों का विलक्षण संगम है। इस क्षेत्र का मुख्य पारिस्थितिक तंत्र शुष्क वनों की पच्चीकारी का संकुल है। इस क्षेत्र में नितल भूमि के आर्द्र वन एवं पर्वतीय वन भी हैं। जहाँ-तहाँ दलदली और कछारी वनस्पतियाँ और जंगल भी पाये जाते हैं। प्रशांत महासागर के लम्बे तट पर चौड़े पत्तों और शंकुधारी वन भी ऊँचाइयों पर पाये जाते हैं। इस संवेदनशील क्षेत्र के बादलों से आच्छादित दक्षिणी खड़े ढाल पर प्राक् पर्वतीय एवं पर्वतीय कठोर लकड़ी के वन पाये जाते हैं। इन जंगलों में चीखनेवाला बन्दर, जागुआर और क्वर्टजाल्सों की बहुतायत है। इस क्षेत्र में लगभग 24,000 किस्म के पौधों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं। मेसो अमेरिका पंछियों की कुछ प्रजातियों के प्रवजन एवं मोनार्क तितलियों के शीतकालीन प्रवास का नाजुक गलियारा है।

4. ट्रौपिकल एण्डीज : ट्रौपिकल एण्डीज विश्व का सबसे सम्पन्न जैव विविधता वाला क्षेत्र है। ऊँची-नीची भूमि, हिमाच्छादित पर्वतीय चोटियाँ, खड़े ढाल, गहरे दर्रे (घाटियाँ) एवं एक-दूसरे से बिल्कुल अलग-थलग पड़ी घाटियों ने इस क्षेत्र में आश्चर्य चकित करनेवाली जैव विविधता और उनकी प्रजातियों के पनपने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। ऊँचाइयों पर तृणभूमि और झाड़ियों वाला पारिस्थितिक तंत्र व्याप्त है। इस पारिस्थितिकी तंत्र में पैरमो, गुच्छानुमा तृणों की प्रजातियाँ, घास, लाइकेन्स, काई और फर्न पाये जाते हैं। इस क्षेत्र में वनस्थली, शुष्क वन, कैक्टस और कँटीली झाड़ियों आदि की बहुतायत है।

5. चोको-डैरियन-पश्चिमी इक्वाडोर इस क्षेत्र में अनेक प्रकार के जीवों एवं वनस्पतियों का आश्रय है। इस इलाके में कछारी वनस्पति, बलुआही जमीन, तटवर्ती विस्तार, सर्वाधिक आई वर्षा वन आदि पाये जाते हैं। दक्षिण अमेरिका का एकमात्र अवशिष्ट शुष्क वन भी यहाँ है।

6. अटलांटिक वन क्षेत्र : दक्षिण अमेरिका के वर्षा वनों से बिल्कुल अलग-थलग होने के कारण अटलांटिक वनों में विलक्षण एवं मिश्रित प्रकार की विविध वनस्पतियों का विकास हुआ। इस संवेदनशील क्षेत्र के दो मुख्य पारिस्थितिक तंत्रीय क्षेत्र हैं। इन सभी क्षेत्रों में लगभग 20,000 किस्म के पौधों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें से 4% पौधे बिल्कुल स्थानीय प्रकृति के हैं। ये पौधे अन्यत्र नहीं पाये जाते। इस क्षेत्र में 29 प्रकार के सर्वाधिक संकटापन्न रीढदार जीवों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें से तीन प्रजातियाँ टैमरिन सिंह अलागोस कुरासो (Alagoas Currasow) प्रमुख हैं। जीबों की ये प्रजातियाँ विश्व से पूर्णतः विलुप्त हो चुकी हैं।

7. ब्राजील सेराडो : ब्राजील सेराडो बह अकेला संवेदनशील क्षेत्र है जिसमें विस्तृत सावाना जंगल एवं सावाना तथा शुष्क वन बहुत बड़े भूभाग में विस्तृत है। इस क्षेत्र में तरह-तरह की वनस्पतियाँ भी पायी जाती हैं जिनमें वृक्ष झाड़ियाँ, सावाना, तृणभूमि आदि हैं। इनके बीच में जहाँ-तहाँ वृक्ष और शुष्क सघन बनाच्छादित क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र के बन सूखे एवं आगलगी का सामना करने में सक्षम हैं।

8. मध्य चीली: मध्य चीली भूमध्यसागरीय जलवायुवाला क्षेत्र है। इस क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में लकड़ी वाले पौधों की प्रजातियाँ, वनस्पतियाँ एवं सघन वनीय बनस्पतियाँ पायी जाती हैं। मध्य चीली में रेगिस्तान क्षेत्र भी हैं। ऊँचाइयों पर पर्वतीय वन भी पाये जाते हैं। इस क्षेत्र में एण्डीयन बिल्ली, पहाड़ी विजकाचा (Mountain Vizcacha) एवं एण्डीयन गिद्ध भी पाये जाते हैं।

9. काकासस : तृणभूमि, अर्द्धमरुभूमि, चौड़ेपत्ते वाले वृक्षों के वन, पर्वतीय कोणधारी वृक्ष वन एवं झाड़ी जन इस क्षेत्र के प्रमुख पारिस्थितिकी तंत्र हैं। सावाना, दलदली वन, अर्द्धनिर्जल बनस्थल भी इस क्षेत्र की जैव विविधता की विशिष्टताएँ हैं। निकटवर्ती एशिया और यूरोप से दुगुना से अधिक जैव विविधता काकासस क्षेत्र की विशेषता है।

10. भूमध्यसागरीय बेसिन भूमध्यसागरीय बेसिन सुन्दर दर्शनीय प्राकृतिक दृश्योंवाला क्षेत्र है। विश्व के सर्वाधिक विस्तृत द्वीप समूहों में से एक द्वीप समूह क्षेत्र भूमध्यसागरीय बेसिन में पाया जाता है। इस क्षेत्र की जलवायु ठंडी, नम, शीत ऋतु एवं उष्ण शुष्क ग्रीष्म ऋतु वाली है। एक समय यह क्षेत्र पर्णपाती बनों से आच्छादित था किन्तु मानवीय हस्तक्षेपों और बसाहट के कारण यहाँ की बनस्पतियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इस समय यहाँ कठोर पत्ती वाली झाड़ियों की ही अधिक भरमार है।

11. मेडगास्कर एवं हिन्द महासागर द्वीप इन द्वीप समूहों में अनेक दुर्लभ (जो अन्यत्र नहीं पाये जाते) वैसी प्रजातियों के समूह पाये जाते हैं। मेडगास्कर में आश्चर्य में डाल देनेवाली पौधों की दस प्रजातियाँ, पंछियों के पाँच परिवार और नर बानरों के पाँच परिवार पाये जाते हैं। ये जीब इस धरती पर अन्यत्र कहीं नहीं पाये जाते। इस तरह इस अति संवेदनशील क्षेत्र के संरक्षण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। यद्यपि मेडगास्कर क्षेत्र के 90% से अधिक प्राक वन विनष्ट हो चुके हैं फिर भी शेष 59,000 किलोमीटर क्षेत्र की पारिस्थितिकी के 9.9% क्षेत्र अभी भी अपनी प्राकृतिक दशा में है।

12. पूर्व आर्क पर्वत एवं तटीय वन क्षेत्र यहाँ ऊँची भूमि एवं तटीय बनों वाला सघन पौधों की प्रजातियाँ सीमित भूक्षेत्र में पायी जाती हैं। इस क्षेत्र के पर्वत और वन लगभग 30 से 100 मिलियन वर्षों से एक दूसरे से अलग-थलग पड़े हुए हैं। यहाँ कुछ ऐसी प्रजातियाँ पायी जाती है, जो अन्यत्र कहीं भी नहीं पायी जाती हैं। यहाँ लाल बानर और उत्कृष्ट कोमल अफ्रीकाई बैंगनी बानरों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं। इसके इस क्षेत्र में सात प्रकार के अन्य दुर्लभ बानरों की प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं।

13. गिनीयन वन : इस क्षेत्र में वनों के दो समूह हैं। इन समूहों में अनेक खंड वन क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र में सावाना एवं अवश्रेणी के शुष्क वन टोगो एवं बेनिन में हैं।

14. केप फ्लोरिडा क्षेत्र विश्व के पाँच भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में से एक केप फ्लोरिडा क्षेत्र है। यहाँ सदाबहार अग्नि निर्भर झाड़ी वन हैं जिन्हें फाइबास (Fynbos) कहते हैं। इस क्षेत्र में घास के मैदान हैं तो बंजर भूमि भी हैं। इस क्षेत्र में वृक्ष आपवादिक रूप से ही उगते हैं। इस क्षेत्र में वृक्ष उन्हीं विशिष्ट क्षेत्रों में उगते हैं जो आग से सुरक्षित होते हैं। ऐसा केप फ्लोरिडा का दक्षिणी तट है। इस क्षेत्र में 3200 संवहन पौधों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें पौधों के छः परिबार और 5,682 प्रजातियाँ ऐसी हैं जो पृथ्वी पर और कहीं नहीं पायी जातीं। यहाँ घाटीदार मेढक, केप-सुगर-पंछी एवं अन्य छोटे-छोटे हिरणों की प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं।

15. सुकलैंट कारू : यह क्षेत्र सम्पूर्णतः अर्धनिर्जल क्षेत्र है। इस मरुभूमीय क्षेत्र में जाड़े में वर्षा होती है। यहाँ छोटी-छोटी (बौनी) झाड़ियों बाली भूमि हैं। विश्व की मरुभूमियों में पायी जानेवाली विलक्षण बनस्पतियों में से एक रसादर पत्ती बाली बनस्पति इस पूरे क्षेत्र में पायी जाती है। मौसमी और सालों भर उगनेबाला कंद भी यहाँ होता है। पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचे-ऊँचे घीकुँवर और झाड़ियाँ होती हैं।

16. दक्षिण-पश्चिम चीनी पर्वतीय क्षेत्र इस क्षेत्र में विविध प्रकार के पारिस्थितिक तंत्र पाये जाते हैं जिनमें पर्वत एवं घाटियों की बहुतायत है। इस क्षेत्र में चौड़े पत्तों एवं कोणधारी वृक्षों वाले जंगल हैं। बाँस-वन, सावाना, घास, शाद्वल, स्वच्छ जल आर्द्र भूमि एवं पर्वतीय झाड़ियों की भरमार है।

17. इण्डो-वर्मा : मूलतः यह क्षेत्र चौड़े पत्तेवाले वृक्षों के वनों से भरा हुआ था लेकिन आज इनके खण्डावशेष भर ही रह गये हैं। लेकिन इन खण्डावशेषों में ही पर्णपाती, सदाबहार, शुष्क सदाबहार एवं पर्वतीय बन पाये जाते हैं। बीच-बीच में झाड़ियों से भरी भूमि है। यहाँ बनस्थल हैं और छिटपुट रूप से बंजर वन मिलते हैं। स्वच्छ जल में रहनेबाले हरे कछुए यहाँ की जैव-विविधता की विशेषता है। आज भी यह क्षेत्र नित्य जीव विज्ञानीय खजानों का उ‌द्घाटन कर रहा है। हाल फिलहाल में यहाँ तीन नये प्रकार के स्तनधारी जीव पाये गये हैं।

18. पश्चिमी घाट एवं श्रीलंका पश्चिमी घाट पहाड़ दक्षिण भारत के अग्र सिरे से लेकर गुजरात के उत्तर तक फैला हुआ है। यह पर्वत श्रेणी देश के पश्चिमी तट के समानांतर प्रसृत है। इस पर्वत श्रेणी का प्रसार क्षेत्र लगभग 1,60,000 वर्ग किलोमीटर है। इस पर्वत श्रेणी के पश्चिमी ढाल के क्षेत्र में वर्ष भर में भारी वर्षा होती है लेकिन पूर्वी ढाल में पूर्णतः सूखा पड़ता है। श्रीलंका के दक्षिण-पश्चिम का आर्द्र उष्णकटिबंधीय क्षेत्र पश्चिमी घाट के समान ही है। इसका मुख्य कारण सहस्त्रों वर्षों के अंतराल में इनके बीच भूमीय सेतु कभी होना और कभी नहीं होना है।

इस क्षेत्र की प्रमुख वनस्पतियों में पर्णपाती एवं उष्णकटिबंधीय और पर्वतीय वन हैं। बीच-बीच में तृणभूमियाँ भी हैं। शुष्क क्षेत्रों में झाड़ीदार बन हैं। इस क्षेत्र में अनेक प्रकार के पौधे, सरीसृप एवं उभयचर पाये जाते हैं। इनमें से बहुत से पौधों और प्राणियों की प्रजातियाँ बिल्कुल स्थानीय प्रकृति की हैं। ये प्रजातियाँ अन्यत्र नहीं पायी जातीं। इस क्षेत्र में एशियाई हाथी, भारतीय चाघ और संकटापन्न सिंहनुमा पुच्छधारी लघुपुच्छ बानर पाये जाते हैं।

19. फीलीपीन्स : शताब्दियों पूर्व फीलीपीन्स निम्नभूमि वर्षा बनों से आच्छादित था। शेष सीमित भू-क्षेत्र में मौसमी वनों, मिश्रित वन, सावाना एवं मेघाच्छादित चीड़ों के वृक्षों से भरे वनों का विस्तार है। लेकिन अब केबल सात प्रतिशत मूल निम्नभूमि वन शेष हैं। अधिक ऊँचाइयों पर निम्न भूमि जंगलों की जगह पर्वतीय एवं कोई वन ले लेते हैं। इन नों में मुख्यतः छोटे-छोटे वृक्ष और वनस्पतियाँ होती हैं। इसके अतिरिक्त यह क्षेत्र अनेक प्रकार की अन्यत्र नहीं पायी जानेवाली दुर्लभ प्रजातियों का अन्तिम आंश्रय है। यह क्षेत्र समुद्रीय विविधता के लिए भी सुप्रसिद्ध है। विश्व में अब तक सात सौ प्रकार की प्रवाल भित्तियाँ पायी गयी है जिनमें से 500 किस्म की प्रवाल भित्तियाँ अकेले फीलीपीन्स में पायी जाती हैं। यहाँ के समुद्र में समुद्री घास, कोमल तल वाली वनस्पतियाँ एवं कछारी बनस्पतियाँ भी पायी जाती हैं। इस क्षेत्र के कुछ दुर्लभ प्राणियों में सेबु फुलचुही, सुनहरी कलगी वाली उड़न लोमड़ी, हबसी जंगली मेढक (Negros Forest Frog), फीलीपीनी कोयल एवं फीलीपीनी ईगल हैं।

20. सुण्डलैंड: सुडलैंडीय संवेदनशील क्षेत्र में अत्यधिक ऊँचाईवाले विविधतापूर्ण पारिस्थितिक तंत्र पाये जाते हैं। निम्नभूमि वर्षा वनों में द्विफलकीय मीनारनुमा (Towering dipterocarps) वृक्ष पाये जाते हैं। बलुई एवं पथरीली तटीय बन्दरगाहों के पास तटीय वन पाये जाते हैं जबकि दलदली तटों में कछारी बनों का विस्तार है। भीतरी क्षेत्रों में दलदली वन हैं। बुलई पत्थर बाली बंजर भूमि की पर्वत श्रेणियों में बंजर वन हैं। ऊँचाईयों पर पत्तन पर्वतीय वन हैं जिनमें सघन काई भी होती है। लाइकन, आर्किड एवं उप पर्वतीय वन भी हैं।

21. वालेसिया : वालेसिया में सर्वाधिक उष्मकटिबंधीय बन हैं। बीच-बीच में शुष्क वन छिटपुट रूप से फैले हुए हैं।

22. दक्षिण-पश्चिम ऑस्ट्रेलिया दक्षिण पश्चिम ऑस्ट्रेलिया की जलवायु भूमध्यसागरीय है। यहाँ जाड़े में वर्षा ज्यादा होती है। यहाँ की गर्मी शुष्क होती है। वन, बनस्थल, झाड़ीवाली भूमि एवं बंजर भूमि इस क्षेत्र में हैं लेकिन कहीं भी तृणभूमि नहीं है। इस क्षेत्र में पौधों और सरीसृप की अनेक दुर्लभ प्रजातियाँ पायी जाती हैं। ये प्रजातियाँ अन्यत्र नहीं होती। यूकलिप्टस प्रकार के वन हैं। बंजर भूमि में झाड़ियाँ पायी जाती हैं जिनमें से अनेक स्थानीय प्रकार की हैं। यहाँ दलदली मेढक, नमबैट, हनी पोसम एवं लाल कलगी वाला तोता पाया जाता है।

23. न्यूजीलैण्ड : छोटे से देश न्यूजीलैण्ड में बहुविध प्रकार के भूदृश्य अवस्थित है जिनमें ऊबड़-खाबड़ पर्वत चक्रीय पहाड़ियाँ एवं बंजर जलोढ मैदान प्रमुख हैं। इस देश की जलवायु में भी विविधता है जिसके कारण यहाँ की जैव विविधता में भी बहुत भिन्नता दिखायी पड़ती है। इस देश में शीतोष्ण वनों की अधिकता है। शेष भूमि में बलुआही भूमि, गुच्छ तृणभूमि एवं आर्द्र भूमि पायी जाती है।

24. न्यू कैलेडोनिया: यहाँ की वनस्पतियाँ बिल्कुल प्राकृतिक प्रकार की हैं। मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में सदाबहार वन हैं। शुष्क क्षेत्रों में जरठ बन हैं। दक्षिणी क्षेत्र में झाड़ी भूमि है। पश्चिमी तट में कछारी वनस्पति और सावाना हैं। यहाँ पौधों के पाँच स्थानीय परिवार पाये जाते हैं। विश्व की 24 अरौकारिया प्रकार के वृक्षों की प्रजातियों में 19 प्रजातियाँ अकेले न्यू कैलेडोनिया में हैं। ये 19 प्रजातियाँ विश्व के किसी अन्य हिस्से में नहीं पायी जातीं।

25. पोलीनेशिया एवं माइक्रोनेशिया: यहाँ कई प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र पाये जाते हैं। यहाँ बारह प्रमुख वनस्पतियों के पारिस्थितिकी तंत्र हैं। इसमें लड़ीदार वनस्पतियाँ, वर्षा वन, मेघाच्छादित बन, खुले वनस्थल, सावाना, झाड़ीभूमि, कछारी वनस्पति एवं तटीय वनभूमि हैं। इस क्षेत्र के 70% पक्षियों की प्रजातियाँ स्थानीय प्रकार के हैं। फीजी द्वीप में कॉलर बाले मधुशुक पाये जाते हैं। मधुशुक की प्रजातियाँ विश्व में और कहीं नहीं होती।

पर्यावरणीय अध्ययन(Environmental Studies)


















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