20. भारत के महत्त्वपूर्ण वन्य जीव (Important Wildlife Fauna of India)

20. भारत के महत्त्वपूर्ण वन्य जीव (Important Wildlife Fauna of India)

20. भारत के महत्त्वपूर्ण वन्य जीव (Important Wildlife Fauna of India)

भारत के महत्त्वपूर्ण वन्य जीव (Important Wildlife Fauna of India)

प्रश्न : भारत के महत्त्वपूर्ण वन्य जीवों का संक्षिप्त वर्णन करें।

अथवा

भारत के महत्त्वपूर्ण वन्य जीव कौन-कौन से हैं? वे किन-किन क्षेत्रों में पाये जाते हैं?

अथवा

महत्त्वपूर्ण वन्य जीव से आप क्या समझते हैं? भारत के महत्त्वपूर्ण जीवों की स्थिति पर उनके पाये जानेवाले क्षेत्रवार स्थलों पर प्रकाश डालें।

उत्तर : महत्त्वपूर्ण वन्य जीव वन्य जीव का सामान्य अर्थ वनों में पाये जानेवाले में पाले जीव हैं। इन जीवों में पशु पक्षी और पादप सभी सम्मिलित हैं। जो पशु या पक्षी घरों में जाते हैं अथवा जिन फसलों (पादप/वनस्पतियों) की खेती बासस्थलों के समीप की जाती है, उन्हें 'बन्य जीवों' में नहीं गिना जाता। टी. एन. खोशू की परिभाषा से यह बात स्पष्ट है। वे लिखते हैं- "बन्य जीव का अर्थ वनों में पाये जानेवाले सभी पशु और पादप है। इसमें घरेलू एवं पालतू पशुओं तथा कृषि कर्म द्वारा उगाये जानेवाले पौधों को शामिल नहीं किया जाता क्योंकि ये प्राकृतिक नहीं, मानवीय प्रयत्नों के परिणाम होते हैं।" व्यवहारतः बनों में, वास करनेवाले पशु एवं पक्षी बन जीव कहलाते हैं। संप्रति महत्त्वपूर्ण वन्यजीव का अभिप्राय वैसे वन्य जीवों से हैं, जो मुश्किल से बचे हुए हैं। प्राकृतिक आपदाओं, अन्य अनेक कारणों एवं मानवीय हस्तक्षेपों के कारण बन्यजीवों के वास-स्थल उजड़ते चले गये हैं। फलतः उनमें से अनेक वन्यजीवों की प्रमुख प्रजातियाँ विलुप्त हो गयी हैं और बची-खुची प्रजातियों के भी बिलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। अतः विश्व की सरकारें बची-खुची जीब प्रजातियों को बचाने और संरक्षित रखने के गहन प्रयासों से जुटी हुई हैं।

भारत की जैव-विविधता :

जैव विविधता की दृष्टि से भारत अत्यन्त सम्पन्न देश है। भारत विश्व में विशाल जैव विविधता वाले प्रमाणित देशों में से एक है। यहाँ 47000 पौधों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं। विश्व के पादपों के प्रतिशत की दृष्टि से भारतीय पादपों की प्रजातियों का 11% है। भारत में 89,451 प्रकार के जीवधारी पाये जाते हैं। प्रतिशत की दृष्टि से विश्व के जीवधारियों का 6.4% जीवधारी भारत के हैं।

पादों के अन्तर्गत आवृतजीबी पादपों की 17,500 प्रजातियाँ, अनावृत्त बीजों की 64 पूर्णोद्भिद की 1,022 हरितोद्भिद की 2,843, शैवालों की 12,480 प्रजातियाँ भारत में पायी जाती हैं।

इसी प्रकार प्राणी प्रजातियों के अन्तर्गत मोलस्क की 5,000, कोटों की 68,389 मछलियों की 2,546, उभयचरों की 209, सरीसृपों की 456, पक्षियों की 1,232 तथा स्तनधारियों की 390 प्रजातियाँ भारत में पायी जाती हैं। भारत में चौपाया पशुओं की 27, भेड़ों की 40, बकरियों की 20, ऊँटों की 8, घोड़ों की 6, गधों की 2 और मुर्गियों की 18 से अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

भारत में पुष्पी पौधों की लगभग 4,950 प्रजातियाँ स्थानिक (Endemic) हैं जो विश्व में कहीं नहीं पायी जातीं। भारत में पाये जाने वाले पुष्पी पौधे विश्व के पुष्पी पौधों के 30% है।

भारत के समुद्रतट के समुद्री पारितंत्र के 2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में मोलस्क, मत्स्य, कच्छप केकड़ों तथा प्लॅकटोन की विशाल जैव-सम्पदा फैली पड़ी है।

इस देश में 500 प्रकार के स्तनपायी, 1330 प्रकार के पक्षी, 235 प्रकार के सर्प, 150 प्रकार की छिपकली, 30 प्रकार के कछुए, 3 प्रकार के मगर, 142 प्रकार के उभयचारी, 109 प्रकार के मीठे जल की मछलियाँ, 107 प्रकार की विषैली या खारे पानी की मछलियाँ एवं लगभग 30,000 प्रकार के कीट-पतंग पाये जाते हैं।

आज भी भारत में 350 प्रकार के स्तनपायी, 120 प्रकार के पक्षी, 20,000 से भी अधिक प्रकार के कीड़े-मकोड़े, 750 प्रकार के सरीसृप पाये जाते हैं। इनमें से अनेक प्रजातियाँ विलुप्तों की श्रेणी में आ गयी हैं।

भारत के जैव भौगोलिक क्षेत्र :

भारत के जैब भौगोलिक क्षेत्र को निम्नलिखित दस वर्गों में बाँटा गया है-हिमालयोत्तर, हिमालय, मरुस्थल अर्द्धशुष्क, पश्चिमी घाट, दक्षिणी प्रायद्वीप, गंगा का मैदान, तटवर्ती क्षेत्र, पूर्वोत्तर एवं द्वीपीय क्षेत्र।

भारत विविधतापूर्ण जलवायु वाला देश है। जलवायु की विविधता एवं विभिन्नता के कारण यहाँ की वनस्पतियों, उद्भिदों और पादपों की प्रजातियों में भी विभिन्नता पायी जाती है। जलवायु एवं प्राकृतिक बनस्पतियों की विभिन्नता के कारण यहाँ के वन्य जीवों के वितरण में भी विभिन्नता पायी जाती है। भारत में वन्य जीवों की क्षेत्रवार विद्यमानता और निम्नलिखित जानकारी अनेक दृष्टि से उपयोगी-

1. हिमालय का तराई क्षेत्र (Himalayan Foothills Region): हिमालय के तराई क्षेत्र का विस्तार कैलास मानसरोवर से लेकर शिवालिक की पर्वतश्रेणियों तक है। हिमालय की तराई के प्रमुख वन्य जीव हाथी, सांभर, बारहसिंहा, चीतल, गैंडा, जंगली भैंसा, शेर, तेंदुआ, जंगली कुत्ता (Wild Dog), सियार, सूअर, भालू, रीछ (Himalayan Bear), आसामी खरगोश (Hisped Hare), सुनहरे लंगूर, घड़ियाल, मगर एवं अजगर आदि हैं।

2. पश्चिमी हिमालय का ऊँचाईवाला क्षेत्र (High Altitudes Western Himalayan) : इस क्षेत्र का फैलाव कश्मीर से लेकर पश्चिमी लद्दाख एवं कुमाऊँ तक है। इस क्षेत्र में जंगली तिब्बती गधा, याक, जंगली बकरी प्रजाति के ताहर, भरल (Blue Sheep), हंगुल (Kashmirian Stag), कस्तूरी मृग (Musk Deer), उड़न गिलहरी (Bully Squirreal), बर्फानी तेंदुआ (Snow Leopard), भेड़िया, लोमड़ी, रोछ, गिद्ध, गोल्डन ईगल और बाज आदि प्रमुख वन्य पशु हैं।

3. पूर्वी हिमालय क्षेत्र : इस क्षेत्र में शंकुधारी वनों की प्रमुखता है। हिमालय के इस क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा बर्फाच्छादन कम है। इस क्षेत्र में गोरल (Goral), जंगली या अरना भैंसा (Wild Buffalo), हाथी, जंगली सूअर, साही (Perenpine), गौर (Gour), लाल पाण्डा, भीमकाय गिलहरी आदि प्रमुख है।

4. दक्षिण भारत तथा गंगाघाटी क्षेत्र (South India Ganga Valley): यह हरा-भरा इलाका बनों से परिपूर्ण है। वनों की सघनता के साथ-साथ कंटीला झाड़ीयुक्त भाग भी इसी क्षेत्र में पड़ता है। जैव-विविधता की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यन्त समृद्ध है। उनकी संख्या भी बहुत अधिक है। इस क्षेत्र के बनजीवों में प्रमुख हाथी, गौर, सूअर, सांभर चीतल, पारा, बारहसिंहा, कीकर, काला हिरण, चिंकारा, नीलगाय, शेर, तेंदुआ, बिल्ली, गीदड़, भालू, घड़ियाल, मगर, मगरमच्छ तथा पक्षियों में गोडावन और सफेद सारस प्रमुख हैं।

5. भारतीय मरुस्थल, थार रेगिस्तान (Indian Desert, Thar-Desert): भारत का यह क्षेत्र सामान्यतः रेगिस्तानी क्षेत्र है। इसी क्षेत्र में रण के कच्छ का दलदली क्षेत्र एवं सौराष्ट्र का दलदली क्षेत्र भी सम्मिलित कर लिया गया है। इस रेगिस्तानी इलाके में जंगली गधा, काला हिरण, चिंकारा, नीलगाय, तेंदुआ, भेड़िया, रेगिस्तानी गीदड़, बिल्ली, खरगोश, रेगिस्तानी लोमड़ी, गोह, बामनौ, तिलोर, मोर, हॉक (Tiny Eagle) आदि हैं।

6. उष्ण प्रदेशीय सदाबराह वन अथवा इण्डो मलायन उपखण्ड (Tropical Forest or Indo-Malayan Region) घनी वर्षा वाली असम, जयन्ती तथा खासी पर्वत श्रेणियाँ, पश्चिमी घाट तथा नीलगिरी पर्वत इसमें सम्मिलित हैं। फलतः इस क्षेत्र में साल और लम्बे वृक्षों की प्रचुरता है। यहाँ नीलगिरी ताहर, नीलगिरी मारदेन, उदबिलाव, सुनहरे लंगूर, असमी बन्दर, नागाहिल बन्दर, पुच्छविहीन बंदर (Stump failed Macon), अनेक प्रकार की बिल्लियाँ, चमगादड़, उड़न गिलहरी गिलहरी आदि की बहुतायत तायत है। अण्डमान निकोबार द्वीप समूहों में अण्डमानी सूअर, केकड़ा भक्षी बन्दर, डाल्फिन, किलर व्हेल, अण्डमानी धनेश (Narcodum Hornbill), निकोबारी कबूतर, मगरमच्छ, जलीय गोह (Water Lizard), हरी छिपकली, साँप (Coral Snake), समुद्री साँप, निकोबारी अजगर तथा हरा कछुआ आदि पाये जाते हैं।

संकटापन्न वन्य जीव

प्रश्न : वन्य जीवों की संकटापन्नता क्या है? संकटापन्न वन्य जीवों के विषय में संक्षेप में लिखें।

उत्तर : अन्तरर्राष्ट्रीय प्राकृतिक एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (The International Union of Conservation of Nature and Natural Resources): IUCN ने 'लालपुस्त आँकड़ा (Red Data Book) प्रकाशित किया है। इस पुस्तक या आँकड़ा आधारित सूची में संकटग्रस्त एवं संकटापन्न होकर विलोपन की नाजुक स्थिति में पहुँच रही पादप एवं पशुओं की प्रजातियों का विवरण प्रकाशित क्रिया है। समय-समय पर सर्वेक्षणों के आधार पर इस आँकड़ें में संशोधन कर विश्व की लोकप्रिय भाषाओं में संशोधित सूची प्रकाशित की जाती है। इस सूची में वन्य जीवों के पूर्णतः विलुप्त, नष्ट एवं संकटग्रस्त होने की स्थितियों का विवरण दिया गया है। इस विवरण को प्रस्तुत करने का अभिप्राय यह है कि बची-खुची महत्त्वपूर्ण दुर्लभ एवं स्थानिक वन्य जीवों को शीघ्रातिशीघ्र संरक्षित करने के उपाय किये जायें। अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक एवं प्राकृतिक संरक्षण संघ ने संकटापन्न वन्य जीवों एवं पादपों को श्रेणीबद्ध किया है। वे श्रेणियाँ निम्नलिखित हैं-

- प्रजातियों का वर्तमान एवं अतीतकालीन वितरण;

- कालान्तर में प्रजातियों की संख्या में ह्रास;

- प्रजातियों के आवासस्थल की पर्याप्तता एवं गुणवत्ता एवं

- प्रजातियों का जीवविज्ञानीय एवं सम्भाव्य मूल्य।

उपर्युक्त आधार पर निम्नलिखित श्रेणियाँ बनायी गयी हैं-

1. संकटापन्न प्रजातियाँ (E) इस सूची में उन वन्यजीवों एवं पादपों को सूचीबद्ध किया गया है जिनपर विलोपन का आसन्न संकट मंडरा रहा है। यदि ऐसे संकटापन्न जीवों अथवा प्रजातियों को बचाने के उपाय शीघ्र नहीं किये गये और वे इसी तरह लगातार संकट से घिरे रहे तो निकट भविष्य में उनके पूर्णतः विलुप्त हो जाने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे वन्य जीव और प्रजातियाँ वे हैं जिनकी संख्या घटते-घटते विलोपन के अति निकट पहुँच गयी हैं। इस श्रेणी में वे बन्यजीव एवं प्रजाति भी सम्मिलित किये गये हैं जिनके बासस्थल को निर्ममतापूर्वक उजाड़ दिया गया है। फलस्वरूप वे विलोपन के कगार पर पहुँच चुके हैं।

2. नाजुक प्रजातियाँ (V): 'V' सूची में उन प्रजातियों को सूचीबद्ध किया गया है जो संकटग्रस्त हो चुके हैं और यदि इसी तरह की स्थिति बनी रही तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी पर से इनका नामोनिशाने मिट जायेगा। इस सूची में वैसी प्रजातियाँ सम्मिलित हैं जिनकी संख्या गम्भीर रूप से कम हो गयी है। इसके बावजूद उनकी सुरक्षा और संरक्षण की चाकचौबंद व्यवस्था अब तक नहीं हो पायी है। यद्यपि ये जीव अब भी पर्याप्त संख्या में बचे हुए हैं लेकिन ये अपने सम्पूर्ण वासस्थलों में चारों ओर से संकटों से घिरे हुए हैं।

3. दुर्लभ या विरल प्रजातियाँ (R): दुर्लभ या बिरल प्रजातियाँ वे हैं जो विश्व में संख्या में बहुत कम हैं। वितरण की दृष्टि से सामान्यतः दुर्लभ प्रजातियाँ स्थानिक प्रकृति की होती हैं अर्थात् ये किसी क्षेत्र विशेष में ही रहने के आदी होते हैं। ये किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में छिट-पुट ढंग से बहुत कम संख्या में रहते हैं। इस स्थल पर यह उल्लेखनीय है कि दुर्लभ या विरल प्रजातियाँ एकदम से संकटापन्न हैं अथवा विलोपन की सीमा पर पहुँच गयी हैं। उदाहरण के लिए हृपिंग सारस (Whooping Crane) बहुत ही दुर्लभ प्रजाति है। इनकी विरलता ही इनके निकट भविष्य में विलुप्त हो जाने के खतरे की ओर संकेत करती है। यद्यपि दुर्लभ प्रजातियाँ सम्प्रति संकटापन्न नहीं हैं और न ही वे नाजुक स्थिति में पहुँची हुई हैं किन्तु इनका भविष्य निश्चित रूप से जोखिम से भरा हुआ है।

4. जोखिम में पड़ी प्रजातियाँ (T): 'जोखिम में पड़ी प्रजातियों' पद का प्रयोग उपर्युक्त तीन श्रेणियों में से किसी भी श्रेणी के प्राणी या प्रजाति के लिए होता है। जोखिम में पड़ी प्रजातियों की संख्या में उल्लेखनीय रूप से ह्रास आया है। सम्भव है कि निकट भविष्य में स्थान-विशेष से ये पूर्णतः सदा सर्वदा के लिए विलुप्त हो जायें।

वर्ष 2000 ई. में की लाल सूची में 11,096 प्रजातियाँ (5,485 जन्तु एवं 5,611 पादप संकटग्रस्त रूप से सूचीबद्ध हैं। उनमें से 1,939 क्रांतिक संकटग्रस्त (925) जन्तु एवं 1,014 पादप) के रूप में सूचीबद्ध हैं।

कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित लाल सूची के अनुसार विश्व में 1672 प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं। 34,266 पादप प्रजातियों में से 15,780 प्रजातियाँ संकटग्रस्त घोषित की जा चुकी हैं। लगभग 20,000 से लेकर 25,000 तक के संवहन पादप संकट में पड़े हुए हैं। लेकिन यह आँकड़ा बहुत प्रामाणिक नहीं है क्योंकि विश्व के कई ऐसे दुर्गम स्थल हैं, जहाँ की प्रजातियों की सही स्थिति का पता अब तक नहीं चल पाया है। फिर भी यह आँकड़ा वन्य जीवों और पादपों के प्रति गम्भीर चिन्ता को रेखांकित करती है। हमें इन्हें संरक्षित रखने का शीघ्र उपाय करना चाहिए अन्यथा यदि ये विलुप्त हो गये तो हमारे पर्यावरण के संतुलन को गम्भीर रूप से भयानक धक्का लगेगा।

भारत के संकटापन्न जीव

प्रश्न : भारत में संकटापन्न वन्य जीवों और पादपों की स्थिति क्या है? अपने देश में इनके संकटग्रस्त होने के क्या कारण है?

उत्तर : लाल सूची (अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ द्वारा तैयार) के अनुसार संकटग्रस्त स्तनधारी जीवों की दृष्टि से विश्व में भारत का दूसरा स्थान है जबकि सर्वाधिक पक्षियों की संकटग्रस्तता की दृष्टि भारत का छठा स्थान है। लाल सूची के अनुसार संकटग्रस्त पशुओं में से पशुओं की अठारह प्रजातियाँ गहरे संकट में पड़ी हुई हैं। 54 पशु प्रजातियाँ संकटापन्न हैं। 143 प्रजातियों का अस्तित्व जोखिम का सामना कर रहा है। दस ऐसी प्रजातियाँ हैं जो संकटापन्न तो हैं परन्तु उनके अस्तित्व के विलोपन के संकट की स्थिति अभी उत्पन्न नहीं हुई है। 99 प्रजातियाँ कम जोखिम में हैं। पादपों में लगभग 44 पादप गहरे संकट में पड़े हुए हैं, 113 संकटग्रस्त हैं एवं 87 नाजुक स्थिति का सामना कर रहे हैं। यह आँकड़ा अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक एवं प्राकृतिक संसाधन संघ द्वारा सन् 2000 ई. में तैयार किया गया था।

भारत में वन्य जीवों एवं पादपों के संकटग्रस्त होने के अनेक कारण हैं। इनमें से सबसे प्रमुख कारण अतीत के राजाओं और रईसों का वन्य जीवों के प्रति क्रूर व्यवहार रहा है। राजाओं और रईसों ने मात्र अपने व्यसन और बहादुरी के प्रदर्शन के के लिए वन्यजीवों का बेतहाशा संहार किया। इसका दूसरा कारण भारत की बढ़ती जनसंख्या का दबाव रहा। जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गयी, मनुष्य ने अपने आवास के लिए जंगलों को काटा, जलाया या साफ किया। यह क्रम अतीत से लेकर आज तक जारी है। फलस्वरूप वन्य प्राणियों और पादपों के प्राकृतिक आश्रय उजड़ गये। आश्रय के उजड़ जाने से वन्य जीव बहुत बड़ी संख्या में या तो मर गये या फिर दूसरी जगह आश्रय की खोज में पलायन कर गये। इस क्रम में कई स्थानिक पादपों एवं वन्य जन्तुओं का शोचनीय स्थिति तक विनाश हो गया। वन्य जीवों और पादयों की संख्या में ह्रास या विनाश का एक कारण खाद्य-श्रृंखला में असंतुलन बना। इस असंतुलन का कारण पालतू या घरेलू पशु बने। इनके द्वारा बनों की अति चराई के कारण यह भयावह स्थिति उत्पन्न हुई। वन्य जीवों के लिए पीने योग्य स्वच्छ पानी का भी अभाव होता गया। पानी की कमी ने भी उनके विनाश में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

वन्य जीवों के विनाश का एक अतिमहत्त्वपूर्ण कारण अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में उनके चर्म, सींग एवं अन्य अवयवों की तस्करी भी है। औषधि निर्माता कम्पनियों ने अनुसंधान कार्यों के लिए वन्य जीवों के व्यापार को बढ़वा दिया। उनकी माँग पर बिरल पादपों का भी सफाया होता गया। वन्य पशुओं को मनुष्य जिह्वा के लोभ में भी हत्या करता आया है। वह बहुत से पशुओं का मांस खाता है। मनुष्य के स्वार्थ ने वन्य जीवों को बहुत बड़ी हानि पहुँचायी है।

वनों की असुरक्षित स्थितियों के कारण भी वन जीवों और पादों का विनाश हुआ। वनों की सुरक्षा के प्रति सरकार और प्रशासन को जितना गम्भीर और उद्यमशील होना चाहिए था, उतना वे नहीं रहे। फलस्वरूप बनों से वन्य जीवों की तस्करी होती रही। प्रतिबंधित वनों में भी-तस्करों एवं ग्रामीण जनों का अवैध प्रवेश होता रहा। वे पादपों और वन्य जीवों के विनाश में लगे रहे। प्रशासन ने बनों में अगलगी की घटना को रोकने का भी प्रभावशाली उपाय नहीं किया। कीटनाशी रसायनों के छिड़काव के कारण अनेक लाभकारी कीट-पतंग सदा के लिए समाप्त हो गये। जलचरों का विनाश भी बड़े पैमाने पर मानवीय हस्तक्षेपों और स्वार्थों के कारण हुआ है।

उपसंहार : भारत जैव विविधता की दृष्टि से एक सम्पन्न राष्ट्र है। अभी भी यहाँ अनेक दुर्लभ, विरल, स्थानिक और विशिष्ट जीव-जंतु और पादप अवशिष्ट हैं। देश की सरकारों के साथ-साथ प्रत्येक नागरिकों का यह पवित्र कर्त्तव्य है कि वह इनकी सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए अपने सर्वस्व अर्पण की भावना से कार्य करे क्योंकि इन्हीं के बचने से हमारा पर्यावरण बचेगा और पर्यावरण बचेगा, तभी हमारा अस्तित्व भी बना रह सकेगा।

लाल आँकड़ा पुस्तक (Red Data Book)

प्रश्न: लाल आँकड़ा पुस्तक क्या है? इस पुस्तक में भारत के किन-किन बन जीवों को संकटग्रस्त माना गया है? लाल आँकड़ा पुस्तक की क्या उपयोगिता है?

उत्तर : लाल आँकड़ा पुस्तक (Red Data Book) विश्व में कुछ ऐसी घटनाएँ घर्टी जिसने लोगों को चौंकाया। इन घटनाओं के प्रति पर्यावरणविदों की चिन्ता काफी गम्भीर थी।। यह घटना थी वन्य जीवों और पादपों की शनैः शनैः समाप्ति। सर्वप्रथम इनकी संख्या घटती गयी और एक समय ऐसा आया कि इनमें से अनेक महत्त्वपूर्ण, दुर्लभ, विरल, लाभकारी, स्थानिक और पर्यावरण के संतुलन की दृष्टि से अनन्य महत्त्ववाले जीव और पादप सदा के लिए नष्ट या विलुप्त हो गये। इनके पीछे अनेक कारण रहे। आबादी का विस्तार और बन विनाश, व्यसन और शौक के लिए पशु-पक्षियों का बेखटके शिकार, क्षुधा और स्वाद की तृप्ति के लिए पशु-पक्षियों के मांस का उपयोग, सजावट, प्रसाधन एवं औषधि के लिए जीवित, मृत पशुओं के चमड़े एवं उनके अन्य अवयवों का फलता-फूलता वाणिज्य-व्यापार, वन्य-प्राणियों के घटते और उजड़ते वास-स्थल एवं स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता के अभाव के कारण बन्य प्राणियों और पादपों के अस्तित्व संकट में पड़ गये। बची-खुची प्रजातियों की सुरक्षा और संरक्षण की ओर पर्यावरणविदों का ध्यान गया। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था की पहल पर 'अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ' ने विश्व के संकटग्रस्त वन्य जीवों एवं पादपों की सूची प्रकाशित की है। इस सूची के प्रकाशन का उद्देश्य संकटग्रस्त जीवों और पादपों की ओर विश्व सरकारों और नागरिकों का ध्यान आकृष्ट करना था ताकि वे इनकी सुरक्षा के सुनिश्चित और ठोस प्रयास कर सकें। इसी सूची को 'लाल आँकड़ा पुस्तक' कहा गया। इस पुस्तक में सभी प्रकार के वन्य जीवों सम्बन्धी जानकारियाँ प्रस्तुत की गयी हैं। इस पुस्तक में संकटग्रस्त जीवों को निम्न प्रकारेण श्रेणीबद्ध किया गया है-

1. विलुप्त (Extinct): वैसी प्रजाति जिनके अन्तिम सदस्य की समाप्ति या मृत्यु के विषय में कोई शंका शेष नहीं रह गयी।

2. वन्य रूप में विलुप्त (Extinct in the Wild) प्रजाति के सभी सदस्यों का किसी निश्चित वास-स्थल से पूर्णरूप से समाप्ति।

3. गम्भीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered): जब प्रजाति के सभी सदस्य किसी गम्भीर जोखिम की वजह से विशेष वास-स्थल में शीघ्र ही विलुप्ति के कगार पर पहुँच गये हों।

4. नष्टप्राय (Endangered): प्रजाति के सदस्य किसी जोखिम के कारण भविष्य में लुप्त होने की स्थिति में पहुँच गये हों।

5. नाजुक (Vulnerable) स्थिति में जब प्रजाति के भविष्य में समाप्त हो जाने की गम्भीर आशंका हो।

6. न्यूनतम जोखिम (Lower Risk): प्रजाति जो समाप्तप्राय प्रतीत हो रहे हों।

7. अपूर्ण जानकारी (Deficient Data): किसी प्रजाति के लुप्त होने के बारे में अध्ययन सामग्रियाँ पूरी की पूरी उपलब्ध नहीं हो अर्थात् अपूर्ण जानकारी के कारण जिनके बारे में सही सूचना एकत्र नहीं की जा सकी हो।

8. अमूल्यांकित (Not evaluated): प्रजाति एवं उसके लुप्त होने के बारे में किसी भी प्रकार की अध्ययन सामग्री का अभाव।

'लाल आँकड़ा पुस्तक' का पाँच बार प्रकाशन अद्यतन जानकारियों के साथ हो चुका है। इस पुस्तक का प्रथम प्रकाशन 1 जनवरी 1972 ई. में हुआ था।

इस पुस्तक में भारत के संकटग्रस्त जीवों का विवरण इस प्रकार दिया गया है-शेर, चीता, बाघ, श्वेत तेन्दुआ, गैंडा, स्लोलोरिस, जंगली भैंसा, गांगेय डाल्फिन, लाल पाण्डा, मालाबार सिवेट, कस्तूरी हिरण, संगाई हिरण, बारहसिंगा, कश्मीरी हिरण, सिंहनुमा पूंछवाला बन्दर, नीलगिरी लंगूर, लघुपूंछ बन्दर, बबून, गुनोन, चिम्पैंजी, औरंग, ऊथन, बनमानुष, कछुआ, पैगोलिन, सुनहरी सूअर, जंगली गधा, पिगमी सूअर, चित्तीदार लिनसैग, सुनहरी बिल्ली, भूरी बिल्ली, इडोंग, सोन चिड़िया, जर्डन घोड़ा, पहाड़ी बटेर, गुलाबी बत्तख, श्वेतपुच्छ बत्तख, टेगोपान, मगरमच्छ, घड़ियाल, जलीय छिपकली, अजगर, भूरा बारहसिंगा, चौसिंगा हिरण, दलदली हिरण, मास्क हिरण एवं नीलगिरी हिरण।

लाल पुस्तक आँकड़ा में लुप्त या लुप्त प्रजातियों की सूची लाल पृष्ठों पर मुद्रित है। लाल पृष्ठों पर सूची को मुद्रित करने का उद्देश्य यह संकेत करता है कि इनके संरक्षण का सम्यक उपाय किया जाय।

संख्या में कम बचे और दुर्लभ प्रजातियों का विवण सफेद पृष्ठों पर मुद्रित है जो यह संकेत देता है कि इनके बचाव का समय रहते उपाय नहीं किया गया तो ये शीघ्र समाप्त हो जायेंगे।

जिन प्रजातियों की संख्या में तीव्रता के साथ ह्रास हो रहा है और वे क्रमशः विलुप्त होती जा रही हैं, उनकी जानकारी पीले रंग के पृष्ठों पर मुद्रित है।

कुछ प्राणी ऐसे हैं जिनके बारे में पूर्ण विवरण उपलब्ध नहीं है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि उनकी संख्या भी तीव्रता के साथ घट रही है। ऐसी प्रजातियों की सूची पूरे पूर्वी पर छपी हुई है। कुछ ऐसी प्रजातियों के विवरण हरे पृष्ठों पर छपे हैं जिन्हें लुप्त होने से बचा लिया गया है।

राष्ट्रीय स्तर पर भी 'लाल आँकड़ा पुस्तक' तैयार किया गया है। इस पुस्तक में नये विवरणों को प्रविष्ट करने का भी प्रावधान है। 'लाल आँकड़ा पुस्तक' एक ऐसा प्रयास है जो दुर्लभ और अल्पसंख्यक वन्य जीव, पौधे तथा वनस्पतियों की रक्षा के लिए लोगों को कृतसंकल्प बनाता है।

वन जीव संरक्षण (Wild Life Conservation)

प्रश्न : वन जीव संरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा किये गये प्रयासों का वर्णन करें।

अथवा

वन जीवन संरक्षण से सम्बन्धित अधिनियमों के बारें में जानकारी प्रस्तुत करें।

उत्तर : वन जीव संरक्षण का प्रश्न वन जीवों के विनाश, विलोपन एवं संख्यात्मक ह्रास के साथ जुड़ा हुआ है। वन जीवों की विलुप्ति के अनुपात को तय करने के लिए एक मानाक बनाया गया है। इस मानक के अनुसार यदि किसी क्षेत्र से वन जीवों के वास-स्थल को 70 प्रतिशत तक कम कर दिया जाय तो उस क्षेत्र में रहनेवाले जीवों की लगभग 50% प्रजातियाँ विलोपन या समाप्ति के कगार पर पहुँच जायेंगी। यदि यह क्रम चलता रहा तो पच्चीस वर्षों के अन्तराल में पृथ्वी पर से सभी प्रजातियाँ विलुप्त हो जायेंगी।

वन्य जीवों का विलोपन एक प्राकृतिक क्रम एवं घटना है किन्तु यदि असनय इनका अस्तित्व समाप्त होने लगे तो निश्चय ही यह चिन्ता की बात है। वन जीवों के असमय विलोपन से पर्यावरण में भयानक असंतुलन उत्पन्न हुआ है। बनर्जीवों के विलोपन की स्थिति के लिए कई कारण उत्तरदायी हैं। पर्यावरण में अवांछनीय परिवर्तन, मानवीय हस्तक्षेपों, वन्य जीवों के प्राकृतिक वास-स्थलों का विनाश, वनों का निर्मम विदोहन, अति पशुचारण तथा आबादी और उद्योगों का भयावह विस्तार आदि ने मिलकर वन्य जीवों के अस्तित्व के समक्ष संकट खड़ा कर दिया।

ध्यान देने की बात यह है कि वन्य जीवों के विलोपन का भयंकर प्रतिकूल असर पर्यावरण के संतुलन पर पड़ता है। अतः यह आवश्यक है कि पादप एवं प्राणी जगत में कोई भी हस्तक्षेप सोच-समझकर किया जाना चाहिए। वन्य प्राणियों की सर्वाधिक उपयोगिता इस दृष्टि से है कि उनकी गतिविधियों से प्राकृतिक वनों के पनपने और उगने में महत्त्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है।

भारत और भारतीय उपमहाद्वीप जैव विविधता की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। विश्व में पायी जानेवाली विभिन्न प्रजातियों का 40% केवल भारत में विद्यमान है। भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ ऐसे बिरल और दुर्लभ वन्य प्राणी पाये जाते हैं जो विश्व के किसी अन्य हिस्से में नहीं पाये जाते। उदाहरण के लिए नीलगाय, कृष्ण मृग, मणिपुरी मृग, कश्मीरी महामृग, अनूप मृग, एकसिंधीय गैंडा, वन शुकर आदि के नाम गिनाये जा सकते हैं। पर्यावरण संतुलन में इन बन्य जीवों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

भारत में वन्यजीवों के संरक्षण प्रयासों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : वन जीवों की सुरक्षा के लिए भारत में बने कानून का प्रथम प्रमाण 1873 ई. का मिलता है। भारत की ब्रिटिश सरकार ने 1879 ई. में 'मद्रास वन्य हस्ति सुरक्षा अधिनियम' (Madras Wild Elephant Protection Act) बनाया था। किन्तु कारगर सरकारी प्रयासों और प्रशासन के ध्यान की कमी के कारण इस कानून के अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ सके। भारत में सर्वप्रथम 1927 ई. में 'बनों की सुरक्षा, वैज्ञानिक प्रबन्धन, विदोहन एवं वन्य जीवों के हितार्थ 'भारतीय वन अधिनियम' के रूप में एक विस्तृत कानून देश के अन्तर्गत लागू हुआ। इस कानून में वन्य जीव सम्बन्धी अपराधों के नियंत्रण हेतु आर्थिक और शारीरिक दण्ड की व्यवस्था की गयी थी।

भारत सरकार ने इस दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाते हुए 'इण्डियन बोर्ड फॉर बाइल्ड लाइफ' की स्थापना की। 1956 ई. में स्वतंत्र भारत की सरकार ने भारतीय वन अधिनियम बनाया। इस अधिनियम में वन एवं वन्य जीवों दोनों की सुरक्षा का प्रावधान था किन्तु इस कानून की सबसे बड़ी कमी यह थी कि वन विभाग के सुरक्षा कर्मचारियों के लिए शख का कोई प्रावधान नहीं था। फलतः शस्त्रविहीन वन कर्मचारी राइफलधारी वन सम्पदा तस्करों और अपराधियों से निपटने में विफल रहते थे। तत्पश्चात् 'वन्य जीव परिरक्षण संगठन' की स्थापना पृथक् रूप से वन विभाग के अन्तर्गत की गयी। बन सुरक्षाकर्मियों को शस्त्रों से लैस किया गया। उन्हें वाहन भी प्रदान किये गये। इन उपायों से वनों एवं वन्य जीवों के संरक्षण को बल मिला। बन एवं वन्य जीव सम्बन्धी अपराधों पर बड़ी सीमा तक नियंत्रण पाया जा सका। फिर भी वन्य जीवों की अधिकांश प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं। अतः सरकार ने वन एवं वन्य जीवों को सुरक्षा हेतु कठोर प्रावधान किया एवं इस कानून के प्रावधानों के अनुरूप वन्य जीवों के वास-स्थलों की सुरक्षा हेतु व्यापक प्रबन्ध किया गया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारत सरकार ने 'वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972' प्रारित किया जिसमें वन्य जीवों के प्रति अपराध करनेवालों को सात वर्ष तक का कारावास का दण्ड देने का प्रावधान किया गया। कारावास के साथ-साथ इस कानून में अर्थदण्ड का भी विधान किया गया। 1972 ई. के अधिनियम का मूलभूत उद्देश्य लगभग 50 प्रजातियों, 43 पक्षी प्रजातियों, अनेक सरीसृप एवं कीड़ों (कानून की अनुसूची में अनुबद्ध) के आखेट को प्रतिबंधित करना था। वन्य जीवों के वास एवं प्रवास स्थलों की सुरक्षा हेतु व्यापक प्रबन्ध करने के लिए राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव विहार बनाने के कार्यक्रम शुरू किये गये। 1972 ई. के इस अधिनियम में 2 अक्टबूर 1991 ई. में दो बार संशोधन किया गया। इन संशोधनों के माध्यम से इस कानून को और भी कठोर बना दिया गया। फलतः इस अधिनियम के परिणाम आशा से अधिक उत्कृष्ट रहे। इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना हुई और इसके सरकारी तंत्र की भी स्थापना हुई। इससे वन्य जीवों के संरक्षण के लिए उनके वास स्थलों के रूप में राष्ट्रीय उद्यानों, वन्य जीव विहार एवं अभयारण्यों की स्थापना को अतिरिक्त शक्ति प्राप्त हुई।

इस अधिनियम की धारा 6 के अनुसार राज्य सरकारें एवं केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों में 'वन्य जीव परिषद्' की स्थापना का उपबंध किया गया। इस परिषद् का उद्देश्य अभयारण्यों के लिए क्षेत्रों का चयन करना, वन्य जीवों और निर्दिष्ट पौधों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए नौतियों का निर्धारण करना और वन्य जीवों की सुरक्षा एवं संरक्षण के कानूनों को आदिवासियों एवं अन्य वनवासियों की आवश्यकताओं के अनुरूप सुसंगत बनाना था। 'भारतीय वन्य जीव परिषद्' ने वन्य प्रजातियों को तुरंत संरक्षण प्रदान करने का सुझाव दिया। इस सुझाब के अनुसार वन्य जीवों के संरक्षण के उपायों को दो भागों में विभक्त किया गया है-राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्य जीव विहार। इस संरक्षण का उद्देश्य पशुओं एवं पक्षियों को हर प्रकार की सुरक्षा प्रदान करना है। राष्ट्रीय उद्यानों की सुरक्षा से पर्यावरण को स्वयं सुरक्षा प्राप्त हो जाती है। वन्य जीवों की सुरक्षा के क्रम में 'बाघ परियोजना' तैयार की गयी। बाधों को सुरक्षित रखने की कारगर योजना बनायी गयी। इस परियोजना से बाघों की संख्या बढ़ गयी। इस समय भारत में 54 राष्ट्रीय वन्य उद्यान हैं। इनमें से बन्य अभयारण्य नगरीय क्षेत्रों में तथ्य 160 वन्य जीव संरक्षितियाँ देश के शेष भागों में केन्द्रित है।

'वन्य जीव परिषद्' के बाद भारत सरकार ने मनु 'मानव एवं जैब मण्डल परियोजना' की रूपरेखा तैयार की है। इस परियोजना के अनुसार सम्पूर्ण देश में 'पर स्थाने (ex-situ) जैव मण्डल सुरक्षित क्षेत्र' स्थापित एवं विकसित करने की योजना है।

वन्य जीव संरक्षणार्थ उपाय (Measures for Wildlife Conservation)

प्रश्न: वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कौन-कौन से उपाय किये जा सकते हैं?

उत्तर : पर्यावरण सम्बन्धी इस समय का सर्वाधिक ज्वलंत प्रश्न 'जैव विविधता का संरक्षण' है। विश्व की जीवविज्ञानीय सम्पत्ति को अनेक कारणों से आधात और खतरा पहुँचा है। लोगों की प्राकृतिक संसाधनों की जरूरतों की पूर्ति की अनवरता को बनाये रखकर जैव विवधता की सुरक्षा एवं विकास वर्तमान विश्व, राष्ट्रों, सरकारी अभिकरणों एवं नागरिकों के लिए एक चुनौतीपूर्ण प्रश्न है। यह चुनौती स्थानीय स्तर से लेकर विश्व-स्तर तक की है। यदि इस समस्या का निदान शीघ्र ही ढूँढ नहीं लिया गया तो भावी, पीढ़ी जैव विविधता के संसाधनों की दृष्टि से पूर्णतः कंगाल हो जायेगी और यह पीढ़ी अपनी जरूरतों के अनुरूप उत्पादन नहीं कर पायेगी।

संरक्षण की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है-'संरक्षण का अर्थ जैव मण्डल (Biosphere) के मानवीय उपयोग का कुशल एवं टिकाऊ प्रबंधन' है। इस प्रबंधन का उद्देश्य एक ओर वर्तमान पीढ़ी को जैव-मण्डल के टिकाऊ लाभ पहुँचाने के साथ-साथ भावी पीढ़ी की जरूरतों की पूर्ति का भी ध्यान रखना है। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के तीन विशिष्ट उद्देश्य हैं-

1. अनिवार्य पारिस्थितिकी तंत्र एवं जीवन-पोषण प्रणाली को बनाये रखना,

2. पृथ्वी पर विद्यमान जीों में निहित अनुवांशिक पदार्थों एवं उनकी विविधता को सुरक्षित रखना।

3. प्रजातियों एवं पारिस्थितिकी तंत्र के टिकाऊ उपयोग को सुनिश्चित करना ताकि वह लाखों-लाख ग्रामीण जनों की जरूरत को पूरा कर सके तथा उससे विश्व भर के उद्योगों को भी अवलम्ब प्राप्त हो सके।

वन्य जीव संरक्षण प्रयास मुख्यतः प्राणी प्रजातियों, पौधों एवं पशुओं को सुरक्षित वास-स्थलों में सुरक्षित रखने पर केन्द्रित है। ऐसे वास-स्थल जैविक उद्यान, चिड़ियाखाना, अभयारण्य, राष्ट्रीय उद्यान एवं जैव-मण्डल रिजर्व हो सकते हैं। सुरक्षित बास-स्थलों में बन्य जीवों के संरक्षण के लिए दो आधारभूत उपागम हैं-'स्व स्थाने संरक्षण' (In-situ conservation) एवं 'पर स्थाने संरक्षण' (Ex-situ conservation)।

स्वस्थाने संरक्षण (In-Situ Conservation) का अर्थ है-प्राकृतिक अधवा कृत्रिम (मानव निर्मित) पारिस्थितिकी तंत्र में प्रजातियों का संरक्षण। इस प्रकार का संरक्षण केवल वन्य प्राणियों एवं वनस्पतियों को ही प्रदान किया जाता है। इसमें घरेलू पशु और पौधे शामिल नहीं हैं। स्व स्थाने संरक्षण में 'संरक्षित क्षेत्र' की व्यापक प्रणाली होती है जिसमें पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग को वन्य जीवों के लिए बिल्कुल पृथक् छोड़ दिया जाता है। इस उपाय में बल या तो सम्पूर्ण क्षेत्र को बचाने पर दिया जाता है अथवा किसी संकटापन्न प्रजाति को बचाने दिया जाता है। संरक्षित क्षेत्रों के कई वर्ग हैं और उन सबके विभिन्न उद्देश्य हैं। इनमें राष्ट्रीय उद्यान अभयारण्य एवं जैव मण्डल रिजर्व सम्मिलित हैं।

राष्ट्रीय उद्यान : राष्ट्रीय उद्यान पूर्णतः प्रतिबंधित और सुरक्षित क्षेत्र होता है जिसमें वन्य जीवों के जीवन की बेहतरी के उपाय किये जाते हैं। राष्ट्रीय उद्योगों में वन-रोपण चराई एवं खेती करने की पूर्णतः मनाही होती है। राष्ट्रीय उद्यानों में निजी स्वामित्व की अनुमति प्रदान नहीं की जाती। राष्ट्रीय उद्यानों में किसी विशिष्ट बन पशु, यथा-सिंह, बाघ, गैंडा इत्यादि को सुरक्षा प्रदान किया जाता है। राष्ट्रीय उद्यान की क्षेत्र सीमाएँ कानून द्वारा तय की जाती हैं। जिन क्षेत्रों में बहुत बड़ी संख्या में पशु उपलब्ध हैं उस सीमा में किसी प्रकार के जैविक हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जाती।

अभयारण्य : अभयारण्य विशिष्ट प्रजातियों के लिए होते हैं, जैसे विशाल भारतीय तिलोर और घटपर्णी (Pitcher Plant) के अभयारण्य। अभयारण्यों की सीमाएँ अल्लंघनीय नहीं होती। अभयारण्यों में इमारती लकड़ियों को काटने लघु वनोपजों के संग्रह एवं निजी स्वामित्व को अनुमति दी जाती है किन्तु यह ध्यान रखा जाता है कि वे पशुओं के कल्याण को किसी प्रकार का आघात न पहुँचा पायें।

जैव मण्डल रिजर्व : जैव मण्डल रिजर्व में भूमि के बहुउद्देश्यीय उपयोग की अनुमति दी जाती है। जैव-मण्डल रिजर्व किसी खास जीव प्रजाति के लिए आरक्षित नहीं होता अपितु वह सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के लिए आरक्षित होता है। यह रिजर्व सम्पूर्ण जीवों के लिए होता है। जैव मण्डलीय क्षेत्रों में आदिवासियों, बनवासियों एवं पारम्परिक जीवन जीनेवालों के साथ-साथ घरेलू पौधों एवं पशु अनुवांशिकों को भी सुरक्षा प्रदान किया जाता है। इस प्रकार जैवमण्डल पारिस्थितिकी तंत्रोन्मुख होता है। इसकी सीमाएँ भी कानून द्वारा निर्धारित की जाती हैं। इसमें किसी प्रकार के जीवीय हस्तक्षेप की अनुमति नहीं होती।

स्वस्थाने संरक्षण जैव विविधता की सुरक्षा का सर्वोत्तम उपाय है। बहुत बड़ी संख्या में जहाँ जीव पाये जाते हैं और जो क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से संवेदनशील माने जाते हैं, स्वस्थाने संरक्षण के अन्तर्गत उन्हें ही संरक्षण प्रदान किया जाता है किन्तु जीवों को विकास का अबसर भी दिया जाता है। अन्यथा मानव निर्मित (पारिस्थितिकी तंत्र) वास-स्थल (चिड़ियाघर, मछलीघर इत्यादि) अनुवांशिक श्रृंखला को स्थिर बनाकर अन्त में उसे समाप्त कर देने के कारण बन जायेंगे।

परस्थाने संरक्षण 'परस्थाने संरक्षण' का अभिप्राय प्रजातियों का संरक्षण है। इसके अन्तर्गत अनुवांशिक विविधता के नमूनों को संरक्षित रखा जाता है। विशेषकर प्राणदि प्रजातियों के प्राकृतिक वास-स्थल से दूर, मनुष्य की निगरानी में उन संकटापन्न जीवों के संरक्षण पर 'पर स्थाने संरक्षण' के अन्तर्गत प्रश्रय प्रदान किया जाता है। बस्तुतः परस्थाने संरक्षण दूरस्थ संरक्षण है जिसमें एक तरह से मनुष्य की निगरानी के अधीन बन्य जीवों को बंदी बनाकर रखा जाता है। बंदी अवस्था में प्रजनन का लक्ष्य स्वस्थ एवं व्यवहार्य सीमा तक उनकी संख्या को बढ़ाना है। इसका एक उद्देश्य स्वस्थाने पहल की जरूरतों को भी पूरा करना है। यद्यपि स्वस्थाने संरक्षण जैव विविधता के दीर्घकालिक संरक्षण की दृष्टि से सर्वोत्तम उपाय है तथापि मनुष्य द्वारा घोर अशान्ति उत्पन्न किया जाने की आशंका से अत्यन्त सीमित संख्या वाले और अवशिष्ट प्रजातियों के संरक्षण के लिए यह उपाय व्यहार्य सिद्ध नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त प्राणी प्रजातियों में ह्रास आ सकता है और वे विलुप्त हो जा सकती हैं। इसके कारण अनुवांशिक निष्क्रियता, अन्तः प्रजनन, पर्यावरणिक एवं सांख्यिक परिवर्तन, वास-स्थल की गुणवत्ता में गिरावट, बाहरी (प्रवासी) प्रजातियों से प्रतिस्पर्द्धा, रोग एवं अति दोहन आदि की घटनाएँ घट सकती हैं। इन परिस्थितियों में यही उचित है कि किसी प्रजाति विशेष के सदस्यों को मानवीय देखभाल के अधीन कृत्रिम अवस्था में संरक्षित रखा जाय। प्रजाति संरक्षण के इस उपाय को ही दूरस्थ 'परस्थाने संरक्षण' कहा जाता है। परस्थाने संरक्षणात्मक उपाय के अन्तर्गत पशुओं की संकटापन्न प्रजातियों का संग्रह किया जाता है और चिड़ियाघरों/प्राणी उद्यानों एवं मछली अथवा जलजीवशालाओं में नियंत्रित रूप से प्रजनन कराया जाता है जबकि पौधों को प्रजातियों को जैविक उद्यानों, वनस्पति वाटिकाओं एवं बीन बैंकों में संरक्षित किया जाता है।

प्रश्न : भारत में वन्य जीवों के संरक्षण हेतु अब तक कौन-कौन से उपाय किये गये हैं? भारत में स्थापित्त राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करें।

उत्तर : वन्य प्राणी संरक्षण में वन्य संरक्षण अधिनियमों की भूमिका : वन्य प्राणी संरक्षण की दिशा में प्रथम पहल भारत में ब्रतानिया सरकार ने की थी। ब्रिटिश सरकार ने 1879 ई. में 'मद्रास बन हस्ति संरक्षण अधिनियम' बनाया था। परन्तु प्रशासन तंत्र की शिथिलता के कारण इस अधिनियम का अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आया। तत्पश्चात् 1927 ई. में सरकार ने दूसरा कानून बनाया। इस कानून का उद्देश्य वनों का वैज्ञानिक प्रबन्धन एवं त्रिदोहन तथा बनों एवं वन्य प्राणियों को सुरक्षा प्रदान करना था। इस कानून के प्रावधानों के उल्लंघन के लिए शारीरिक एवं आर्थिक दण्ड के पहली बार उपबंधित किया गया। स्वतंत्र भारत की सरकार ने 'इण्डियन बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ' की स्थापना की। 1956 ई. में एक अन्य अधिनियम बन एवं वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए बनाया गया। यद्यपि यह कानून व्यापक और विस्तृत था किन्तु शस्त्रविहीन वनकर्मियों के लिए शस्त्रधारी वन सम्पदा तस्करों, चोरों और अपराधियों का मुकाबला करना असम्भव था। आगे चलकर वन विभाग के नियंत्रणाधीन एक पृथक् संगठन 'वन्य जीव परिरक्षण संगठन' की स्थापना की गयी। बन सुरक्षाकर्मियों को शस्त्र और वाहन प्रदान किये गये। फलस्त्ररूप का सुरक्षाकर्मी बहुत बड़ी सीमा तक वनों एवं वनजीवों को बचाने में सफल रहे। इस कानून में वनों की सुरक्षा हेतु कठोर प्रावधान किया गया। वन्य जीवों के वास-स्थलों को विशेष सुरक्षा प्रदान किया गया। इस कानून को और भी प्रभावी बनाने के लिए 'वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1979' बनाया गया। इस कानून में वन एवं वन्य जीव संरक्षण अधिनियमों के उल्लंघनकर्ता के लिए अर्थदण्ड सहित सात वर्षों के कारावास का भी विधान किया गया था। 1972 ई. के अधिनियम में 1991 ई. तक दो बार संशोधन किये गये। इन संशोधनों का मुख्य उद्देश्य वनों एवं बन्य जीवों के संरक्षण के लिए विशेष उपाय करना था जिसमें राष्ट्रीय उद्यानों, जैविक उद्यानों, अभयारण्यों आदि की स्थापना भी सम्मिलित था।

1973 ई. में वाशिंगटन में 80 देशों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में एक 'आचार संहिता' बनायी गयी। इस आचार संहिता को 'कन्वेशन ऑन इण्टरनेशनल ट्रेड इण्डेजर्ड स्पीशीज ऑफ वाइल्ड फौना एवं फ्लोडा' का नाम दिया गया था। इस आचार संहिता में विहित किया गया था कि संकटग्रस्त जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों को बचाने की जिम्मेवारी सम्पूर्ण विश्व की है। वनों एवं वन्य जीवों की सुरक्षा हेतु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण प्रयास किये गये। इसी प्रयास के अन्तर्गत 'विश्व प्रकृति निधि' की स्थापना की गयी। 1969 ई. में अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature) नामक संस्था स्थापित की गयी। इसका एक महत्त्वपूर्ण काम 'रेड डाटा बुक' का समय-समय पर प्रकाशन और उसका संशोधन था। यह विश्व का सबसे नड़ा 'वन्य जीव संरक्षण समझौता' 'Convention on International Trade in Endangered a Spacies' है। वन जोवों के व्यापार सम्बन्धी गतिविधियों का अभिलेख "Trade Record Analysis of Flora and Fauna in Commerce' नामक संस्था रखता है। 1992 ई. में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक 'जैव विविधता' सन्धि हुई। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी वन एवं वन सम्पदा के संरक्षण, प्रबन्धन एवं विकास के लिए 'संयुक्त राष्ट्रसंघ बन मंच' साम्भक़ संरक्षण गठित की। 'पृथ्वी रक्षा कोष' की स्थापना की गयी। इस कोष से उन देशों को धन दिया जाता है जो पर्यावरण की दृष्टि से उचित प्रौद्योगिकी खरीदना चाहते हैं।


पर्यावरणीय अध्ययन(Environmental Studies)


















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