मानव जनसंख्या की सामान्य संकल्पना (General Concept of Human Population)
प्रश्न : जनसंख्या की सामान्य संकल्पना को
स्पष्ट करें।
अथवा
'जनसंख्या' से आप क्या समझते हैं? 'जनसंख्या'
का अभिप्राय स्पष्ट करें।
अथवा
'जनसंख्या' का क्या अर्थ है? बताइये।
उत्तर : 'जनसंख्या' के दो अर्थ हैं। व्यापक अर्थ में जनसंख्या
में सभी प्रकार के जीव-जन्तु, प्राणी और प्राकृतिक वनस्पति शामिल हैं। इसका अभिप्राय
यह है कि एक सुनिश्चित स्थान और सुनिश्चित समय में इनकी एक सुनिश्चित संख्या होती है।
भले उनकी सटीक गणना सम्भव न हो पाये। जीव-जन्तुओं, प्राणी एवं प्राकृतिक वनस्पतियों
की संख्या पारिस्थितिकी चक्र द्वारा संचालित प्रभावित और नियंत्रित होती है किन्तु
जनसंख्या का यह व्यापक अर्थ यहाँ अभीष्ट नहीं है। यहाँ जनसंख्या का संकुचित अर्थ ही
अभीष्ट है। संकुचित अर्थ में जगधंख्या का अभिप्राय 'मानवीय जनसंख्या' (Human
Population) से है। मनुष्य की जनसंख्या अपने क्रियाकलापों द्वारा पर्यावरण और पारिस्थितिकी
तंत्र को प्रभावित कर उसमें अनेक प्रकार के अवरोध उत्पन्न करती है।
किसी जगह और किस परिस्थिति में जनसंख्या की क्या स्थिति होगी,
यह इस बात पर निर्भर है कि जनसंख्या के निवास के लिए उस स्थान की परिस्थिति कैसी है
अर्थात् जनसंख्या का आबासन एवं वृद्धि पर्यावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
हिमाच्छादित ध्रुब प्रदेशों में मनुष्यों के रहने नोग्य परिस्थितियों का पूर्णतः अभाव
है। फलतः वहाँ मनुष्य बस ही नहीं पाये। ऐसे क्षेत्रों में प्राथमिक तौर पर आर्कटिक
तथा उच्च पर्वतीय क्षेत्रों का नाम लिया जाता है। इसी प्रकार टुण्ड्रा एवं विषुवतीय
क्षेत्र की परिस्थितियाँ भी मानवीय निवास के बिल्कुल अनुकूल नहीं हैं। अतः इन क्षेरों
में मानवीय निवास बहुत ही विरल है। शुष्क क्षेत्रों में भी मनुष्यों का रहना बहुत कठिन
होता है। इसलिएं इन क्षेत्रों में भी मानव आबादी बिल्कुल न्यून है। लेकिन इसके पूर्णतः
विपरीत परिस्थितियाँ समतल मैदानी क्षेत्रों की हैं। इन क्षेत्रों की परिस्थितियाँ शत-प्रतिशत
मानव-निवास के अनुकूल हैं। फलतः वे क्षेत्र अतिशय घनी आबादी वाले क्षेत्र हैं। मैदानी
क्षेत्रों को मनुष्यों ने वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान तथा प्रगतियों के माध्यम से अपने
निवास के और अधिक अनुकूल बना लिया है। अतः इन क्षेत्रों की आबादी में और तीव्र गति
से विस्तार होता जा रहा है। बढ़ती आबाती के बीच सबसे भयावह परिस्थितियाँ इस प्रकार
की पैदा हुई हैं कि मनुष्य ने विकास के लालच में प्रकृति और पर्यावरण से अनावश्यक रूप
से छेड़छाड़ किया है। इस छेड़छाड़ के कारण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल
और भयानक दुष्प्रभाव पड़ा है। इसके कारण मानव जीवन के समक्ष अनेक प्रकार की भीषण एवं
जटिल समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।
भारत में जनगणना के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : भारत में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जनगणना का प्रारम्भ
1922 ई. में हुआ। इस जनगणना के लिए सामाजिक विकास को आधार बनाया गया। 1933 ई. में भारत
के तत्कालीन 'स्वास्थ्य आयुक्त' ने सरकार को सूचित किया कि भारत में बड़ी तेजी के साथ
जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। इसी सूचना के आधार पर 1936 एवं 1938 ई. में भारत में
जनसंख्या सम्बन्धी सम्मेलनों का आयोजन हुआ। सरकारी स्तर पर जनसंख्या सम्बन्धी समस्याओं
का अध्ययन करने के लिए 1938 ई. में एक 'राष्ट्रीय योजना समिति' गठित की गयी। 1944 ई.
में 'स्वास्थ्य सर्वेक्षण एवं विकास समिति' ने भी भारत में जनसंख्या सम्बन्धी समस्याओं
की ओर शासकों एवं आम लोगों का ध्यान आकर्षित किया। स्वातंत्र्योत्तर काल में 1952 ई.
में जनसंख्या सम्बन्धी कार्यों को राज्य सरकारों का अनिवार्य दायित्व मान लिया गया।
इसी मान्यता के आधार पर 1953 ई. में भारत सरकार ने परिवार नियोजन अनुसंधान एवं कार्यक्रम
समिति का गठन किया। तत्पश्चात भारत सरकार ने जनसंख्या सम्बन्धी अध्ययन के लिए अनेक
संसाधनों की स्थापना की। आजादी के बाद भारत सरकार ने जनसंख्या सम्बन्धी समस्याओं के
बहुआयामी अध्ययन के लिए पृथक से 'जनगणना विभाग' (Census Department) की स्थापना की।
भारत में जनसंख्या वृद्धि (Population Growth in India)
प्रश्न: भारत में जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति
पर प्रकाश डालें।
अथवा
भारत में जनसंख्या वृद्धि की स्थिति को स्पष्ट
करें।
अथवा
विगत सौ वर्षों में भारत में जनसंख्या वृद्धि
की गति की समीक्षा करें।
उत्तर : भारत में जनसंख्या वृद्धि की गति और प्रवृत्ति के
सम्यक् अध्ययन के लिए विगत सौ वर्षों की जनसंख्या में वृद्धि और मृत्यु के आँकड़ों
का तुलनात्मक अध्ययन अधिक उपयुक्त होगा। अतः तत्सम्बन्धी आँकड़ों की सारणी प्रस्तुत
की जा रही है-
भारत में जनसंख्या की वृद्धि (1901-2001) [Growth of
Population in India (1901-2001)]
वर्ष |
भारत की जनसंख्या (करोड़ में) |
दशक में परिवर्तन (वृद्धि अथवा ह्रास) |
1901 |
23.83 |
-- |
1911 |
25.20 |
+
5.75 |
1921 |
25.13 |
-
0.31 |
1931 |
27.89 |
+
11.00 |
1941 |
31.86 |
+
14.22 |
1951 |
36.10 |
+
13.31 |
1961 |
43.92 |
+
21.51 |
1971 |
54.81 |
+
24.80 |
1981 |
68.38 |
+
24.80 |
1991 |
84.68 |
+
23.86 |
2001 |
100.027 |
+
21.34 |
भारत
में जनसंख्या की जन्म एवं मृत्यु दर : प्रति दशक
[Birth
Rate and Death Rate in India for Decade (1901-2001)]
सन्
1901 ई. से 2001 ई. तक)
वर्ष
दशक |
जन्म
दर |
मृत्यु
दर |
प्राकृतिक
वृद्धि दर |
1901-1910 |
49.2 |
42.6 |
7.4 |
1911-1920 |
48.1 |
47.2 |
1.1 |
1921-1930 |
46.4 |
36.3 |
9.9 |
1931-1940 |
45.2 |
31.2 |
14.0 |
1941-1950 |
39.9 |
27.4 |
12.5 |
1951-1960 |
41.7 |
22.8 |
18.9 |
1961-1970 |
41.2 |
19.0 |
21.2 |
1971-1980 |
37.2 |
15.0 |
22.2 |
1981-1985 |
35.2 |
12.2 |
23.0 |
1986-1991 |
30.9 |
10.9 |
20.2 |
1991-2001 |
26.0 |
8.0 |
21.34 |
उपर्युक्त दोनों आँकड़ों का स्रोत जनगणना प्रतिवेदन 2001
है और भारत की जनगणना है।
1901 ई. के जनगणना के आँकड़ों के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या
23.83 करोड़ हो गयी। यह संख्या 1911 ई. में बढ़कर 25.20 करोड़ हो गयी। इस प्रकार एक
दशक के अन्तराल में भारत की जनसंख्या में 5.75 प्रतिशत की वृद्धि लक्षित की गयी। दूसरी
तरफ इस दशक में जन्म-दर 49.25 थी जबकि मृत्तु दर 42.6% थी। इस प्रकार प्राकृतिक विकास-दर
7.4% की ही रही। इस प्राथमिक जनगणना के आँकड़ों से स्पष्ट है कि 1901 ई. से 1910 ई.
के बीच के एक दशक में मृत्यु दर सर्वाधिक थी। इस दशक में जन्म एवं मृत्यु दर एक हजार
पर 40 से बहुत ऊपर थी। इस दशक में उच्च मृत्यु दर का मुख्य कारण महामारी, दुर्भिक्ष
और खाद्यान्नों की कमी आदि था। इस आँकड़े से यह भी स्पष्ट है कि जन्म-दर और मृत्यु-दर
ने परस्पर एक दूसरे को संतुलित बनाये रखा था। 1921 ई. में भारत की जनसंख्या 25.13 करोड़
थी। 1911 ई. से लेकर 1920 ई. के बीच जनसंख्या में मोटे तौर पर 0.31% के ह्रास को लक्ष्य
किया गया जबकि इस दशक के बीच जन्म-दर 48% और मृत्यु दर 47.2% रही अर्थात् प्राकृतिक
वृद्धि मात्र 1.1% ही रही। अतः जनगणना की दृष्टि से 1921 ई. एक महत्त्वपूर्ण समय (आधार
वर्ष) है। यह काल जनसांख्यिकी विभाजक की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस वर्ष के बाद
लगातार धीमी गति से ही सही जनसंख्या में वृद्धि होती रही।
1921 ई. से लेकर 1951 ई. के बीच भारत की जनसंख्या 25.13 करोड़
से बढ़कर 36.10 करोड़ हो गयी। अर्थात् 30 वर्षों के अन्तराल में भारत की जनसंख्या
10.97 (लगभग 11 करोड़) बढ़ गयी। 1921-30 ई. के बीच जन्म दर 46.4% और मृत्यु दर
36.3% थी और 1931 से 1940 ई. के बीच यह दरें क्रमशः 45.2 तथा 31.2 प्रतिशत थीं।
1940 ई. से 1950 ई. के बीच जन्म-दर 39.9% तथा मृत्यु दर 27.4% रही। इस प्रकार 30 वर्षों
की प्राकृतिक वृद्धि दर 12.5% लक्षित हो गयी। प्राकृतिक वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी का
मुख्य कारण महामारियों, अकालों आदि से होने वाली अस्वाभाविक मृत्युओं पर नियंत्रण पा
लिया जाना था। इस अवधि में शासन ने वितरण तंत्र को सुदृढ़ बनाया था। कृषिक्षेत्र में
काफी सुधार लाया गया था। इससे सरकार को खाद्यान्नों की कमी समस्या पर काबू पाकर उनसे
होने वाली मौतों पर नियंत्रण पाने में सफलता मिली। लोगों की आर्थिक तंगी भी दूर होने
लगी थी जिससे प्राकृतिक वृद्धि दर में वृद्धि का आना स्वाभाविक कहा जा सकता है।
1951 ई. की जनगणना का आँकड़ा जनसांख्यिकी इतिहास में महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत
की जनसांख्यिकी के लिए यह दूसरा महत्त्वपूर्ण जनसांख्यिकी विभाजक काल है। 1951 ई. के
बाद की जनगणनाओं पर दृष्टिपात करने पर यह साफ झलकता है कि इसके बाद भारत की जनसंख्या
में अप्रत्याशीत रूप से वृद्धि होती रही। जन्म दर बढ़ती गयी। मृत्यु दर घटती गयी और
प्राकृतिक वृद्धि दर में भी बढ़ोत्तरी होती रही।
1951 ई. में मृत्यु दर 1901 और 1910 ई. के दशक की अपेक्षा
42.6% से घटकर 27.4% हो गयी अर्थात् मृत्यु दर में लगभग 15.2% की गिरावट आयी। यह जनसंख्या
की वृद्धि की दृष्टि से कोई मामूली परिवर्तन नहीं है। जहाँ एक ओर मृत्यु दर घटी, वहाँ
जन्म-दर में कोई उल्लेखनीय ह्रास नहीं हुआ। यही कारण है जनसंख्या विशेषज्ञों ने
1951-1980 ई. के काल को भारत की 'जनसंख्या का विस्फोट' काल कहा है और यह सच भी है कि
इन तीस वर्षों के भीतर भारत की जनसंख्या में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई। इस दरम्यान
भारत की जनसंख्या 36.10 करोड़ से बढ़कर 22.2% तक पहुँच गयी।
जनसंख्या विशेषज्ञो ने भारत की जनसंख्या में वृद्धि एवं ह्रास
के कालों को चार खण्डों में विभाजित किया है। प्रथम चरण को उन्होंने 'स्थिर जनसंख्या
काल' कहा है। दूसरे चरण को 'धीमी गति से जनसंख्या में सतत वृद्धि का काल' कहा जाता
है। तीसरे चरण को 'विस्फोटक गति से बढ़ने वाली जनसंख्या काल' कहा है और चौथे चरण को
'जनसंख्या वृद्धि दर में ह्रास का प्रारम्भिक काल' कहा है।
भारत में नगरीकरण का जनसंख्यावृद्धि पर प्रभाव
प्रश्न: भारत में नगरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति
का जनसंख्यावृद्धि पर क्या प्रभाव पड़ा है?
उत्तर : भारत की जनगणनाओं के आँकड़ों का नगरीय जनसंख्या एवं
ग्राम्यक्षेत्रीय जनसंख्या की तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन रोचक होगा। भारत में तेजी
के साथ नगरों का विकास और विस्तार हुआ है और इसके अपने कारण हैं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों
में विकास की गति बड़ी धीमी रही है। फलस्वरूप नगर और गाँवों के बीच की आबादी में बहुत
बड़ा अन्तर दिखायी देता है। जिस गति से शहरी आबादी बढ़ी है उस गति से गाँवों की आबादी
नहीं बढ़ी है।
जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि भारत की कुल जनसंख्या में
युवाओं की जनसंख्या का अनुपात बढ़ा है। जनगणनाओं के अनुसार देश की जनसंख्या का 36%
भाग 15 वर्ष की आयु वर्ग का है। इस प्रकार जनसंख्या निर्भरता अनुपात (Dependency
Ratio) बहुत अधिक है। देश में प्रजनन-वर्ग की जनसंख्या अनुपात में भी वृद्धि हो हो
रही है। इर। अनुपात में बढ़ोत्तरी का प्रमुख कारण उच्च जन्म दर तथा जन्म के समय बढ़
रही जीवन संभाव्यता के कारण है। अल्प आयु वर्ग में जनसंख्या के इतने बड़े अनुपात का
भारत जैसे देश पर विशिष्ट किस्म का प्रभाव पड़ा है। इसके बावजूद यह देश उच्च जन्म दर
को नियंत्रित करने के लिए संघर्षरत है। लेकिन आर्थिक एवं सामाजिक जीवन स्तर में सुधारों
की योजनाओं को तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या ने विफल कर दिया है।
गाँवों एवं नगरों की जनसंख्या की तुलना करने पर पता चलता
है कि दोनों क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में बहुत बड़ा अन्तर है। इसमें
संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि सन् 1921 ई. से देश की जनसंख्या में लगातार वृद्धि
होती गयी है तथापि इस वृद्धि की गति ग्रामीण क्षेत्रों में नगरों की अपेक्षा बहुत कम
है। 1971-81 ई. की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार नगरों में जनसंख्या वृद्धि की दर
46 प्रतिशत थी जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर मात्र 19 प्रतिशत ही थी। दूसरी तरफ
आज भी यह एक तथ्य है कि देश की अधिकांश आबादी गाँवों में निवास करती है। देश की कुल
जनसंख्या का 66% गाँवों में रहता है। मात्र 34% जनसंख्या ही शहरी क्षेत्रों में रहती
है। इस तरह देश के भू-संसाधनों पर ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या का बोझ अधिक है।
बेरोजगारी की चपेट में भारत के ग्रामीण जन अधिक हैं।
बेरोजगारी की मार से त्रस्त ग्रामीणों का पलायन निकटवर्ती
अनुमण्डलीय या मण्डलीय शहरों तथा बड़े औद्योगिक नगरों की ओर अधिक हुआ है। इस कारण शहरों
की जनसंख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। शहरों की बढ़ती जनसंख्या ने अनेक प्रकार
की समस्याएँ उत्पन्न की है। नगरों के संकुचित दायरों में आवासन की कमी के कारण गाँवों
से आये लोग शहरों के निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों के उपजाऊ कृषकीय भूमि का उपयोग बसने
के लिए करने लगे हैं। इस प्रकार के बेतरतीब बसे आवासीय क्षेत्रों में सामाजिक सुविधाओं
का बेहिसाब अभाव होता है। फलस्वरूप इन क्षेत्रों में प्रदूषण की समस्या विकट होती जा
रही है। बड़े नगरों के आसपास बसे ये आवासीय क्षेत्र मलिन बस्तियाँ कही जाती हैं, जिनकी
अपनी समस्याएँ हैं।
भारत में जनसंख्या विस्फोट (Population Explosion in India)
प्रश्न : जनसंख्या विस्फोट से आप क्या समझते
हैं? भारत में जनसंख्या विस्फोट के कारणों पर प्रकाश डालें।
अथवा
'जनसंख्या विस्फोट और जनाधिक्य'
(Explosion of Population and Over Population) के क्या अर्थ हैं? भारत में जनाधिक्य
की समस्या की वास्तविकता क्या है? जनसंख्या विस्फोट के कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर : जनसंख्या विस्फोट (Population Explosion) और जनाधिक्य
(Over Population) के अर्थ एवं अभिप्राय जनसंख्या विस्फोट का अर्थ जनाधिक्य अथवा जनसंख्या
सघनता कदापि नहीं है और न ही जनाधिक्य कोई बड़ी समस्या है। वास्तविक समस्या जनसंख्या
वृद्धि के साथ आर्थिक विकास का समुचित तालमेल बिठाने की है। जब आर्थिक विकास जनसंख्या
वृद्धि के अनुपात में नहीं हो पाता, तब कम जनसंख्या भी किसी देश के लिए समस्या बन जाती
है। भारत में जनसंख्या विस्फोट के संदर्भ में यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है किसी देश की
आदर्शतम जनसंख्या वह होती है जिससे देश के आर्थिक साधनों का समुचित उपयोग सम्भव हो,
जनसंख्या के इस प्रकार के उपयोग से प्रति व्यक्ति आय सीमा भी अधिकतम होती है। आय की
सीमा कम होने पर प्रतिकूल परिणाम सामने आता है। यह विचार कैनन का है।
भारत में जनाधिक्य के सम्बन्ध में परस्पर दो विरोधी मत प्रकट
किये गये हैं। एक पक्ष भारत की बढ़ती जनसंख्या को भय की दृष्टि से देखता है तो दूसरे
की दृष्टि में भारत में जनाधिक्य है ही नहीं। लेकिन जो भारत में बढ़ती जनसंख्या को
विकट समस्या के रूप में देखते हैं, उनके अनुसार जनसंख्या वृद्धि के निम्नलिखित परिणाम
और प्रभाव सामने आये हैं –
(1) बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण कृषि योग्य भूमि पर बोझ बहुत
अधिक बढ़ गया है। परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति उपलब्ध कृषि योग्य भूमि का क्षेत्र
0.33 हेक्टेयर से घटकर 0.25 हेक्टेयर भर रह गया है। इस अनुपात के और भी घटने की सम्भावना
है।
(2) जनसंख्या में वृद्धि के कारण खाद्यान्नों के उत्पादन
में असंतुलन उत्पन्न हुआ है। यह असंतुलन बढ़ता ही जा रहा है।
(3)
उद्योग-धंधों के समुचित विकास के अभाव में हमारे देश में कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता
बढ़ गयी है। भूमिहीन मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई है तथा बेकारी सबसे ज्यादा बढ़ी
है।
(4)
पुरुषों और स्त्रियों की प्रतिबंधक निरोधक उपायों को अपनाने में अरुचि के कारण भी जनसंख्या
में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है।
(5)
भारतीयों का जीवन-स्तर नीचे गिरा है। जीवन-स्तर की निम्नता को देखकर सहज ही अनुमान
लगाया जा सकता है कि भारत में जनाधिक्य है।
(6)
जिस दर में बेरोजगारी बढ़ी है उसे देखकर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भारत में जनाधिक्य
है।
डॉ.
हट्टन जैसे लोगों का विचार है कि भारत में जनाधिक्य नहीं है क्योंकि भारत 'की जनसंख्या
द्वारा अभी तक देश के संसाधनों का अतिक्रमण नहीं हुआ है। ऐसे विचारकों का यह भी कहना
है कि विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारत में जनसंख्या का घनत्व अपेक्षाकृत कम
है। भारत में जनसंख्या में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है। 1891-1991 ई. के सौ वर्षों
के अन्तराल में भारत की जनसंख्या 23 करोड़ 60 लाख से बढ़कर लगभग 85 करोड़ हो गयी थी।
2001 ई. की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या एक अरंब का आँकड़ा पार कर गयी। इस जनगणना
के चार बर्षों के उपरांत और कई करोड़ जनसंख्या बढ़ चुकी है।
भारत
में जनसंख्या विस्फोट के कारण भारत में जनसंख्या विस्फोट के निम्नलिखित कारण हैं -
(1)
राजनीतिक कारण (2) भौगोलिक कारण (3) धार्मिक कारण (4) वैज्ञानिक कारण तथा (5) आर्थिक
विकास।
1.
राजनीतिक कारण :
(i)
भारत का भौगोलिक विभाजन : 15 अगस्त 1947 ई. से पूर्व
भारत एक ही राष्ट्र था किन्तु इस दिन भारत का विभाजन भारत और पाकिस्तान के रूप में
दो देशों में हो गया। उस समय देश की कुल आबादी पाकिस्तान सहित सम्पूर्ण भारत क्षेत्र
में फैली हुई थी और इस आबादी का बोझ सकल संसाधनों पर आधारित किन्तु विभाजन के बाद पाकिस्तान
से आये शरणार्थियों के कारण एक ओर विभाजित भारत की जनसंख्या अचानक बढ़ गयी, दूसरी ओर
गेहूँ उत्पादन का सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान में मिल गया। इस तरह
कपास, चावल एवं जूट के भी बेहतर उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान को मिल गये। फलस्वरूप अनाजों
के संकट जिस तरह लगातार 30 वर्षों (1947 से 1977 ई.) तक भारत को सहना पड़ा, वैसे संकट
से पाकिस्तान को नहीं जूझना पड़ा। भारत की आबादी को पाकिस्तानी और बांग्लादेशी घुसपैठियों
ने अचानक बढ़ा दी। भारत की जनसंख्या पहले जितनी अवधि में दुगुनी होती थी, उतनी आबादी
अब पूर्व की अपेक्षा आधी अवधि में होने लगी। अवधि में कमी निरंतर आती गयी है।
भारत
की जनसंख्या 1901 ई. में मात्रा 25 करोड़ थी वह अगले सौ वर्षों की अवधि में अर्थात्
2001 ई. में बढ़कर एक अरब दो करोड़ सात लाख हो गयी। 1981 ई. में भारत की जनसंख्या
68.38 करोड़ थी और यह जनसंख्या आगामी एक दशक अर्थात् 1991 ई. में 84.68 करोड़ हो गयी।
तात्पर्य यह कि एक दशक के भीतर की जनसंख्या 16 करोड़ बढ़ गयी। इस प्रकार भारत जनसंख्या
विस्फोट के कगार पर पहुँच गया।
(ii)
भारत में अप्रवासी भारतीयों के प्रत्यागमन की निरंतरता
: ब्रिटिश * औपनिवेशिक काल में बहुत बड़ी संख्या में भारतीय श्रमिकों के रूप में ब्रतानिया
सरकार द्वार। विश्व के अपने विभिन्न उपनिवेशों यथा इण्डोनेशिया, मलेशिया, अफ्रीका एवं
दक्षिणी अमेरिका में ले जाये गये थे। देश को आजादी मिलने के बाद भारतीयों में स्वदेश
वापसी की प्रवृत्ति पनपी। इसी तरह
खाड़ी युद्ध के समय खाड़ी देशों से लगभग एक लाख भारतीय स्वदेश लौटे। 1992 ई. के 'बाबरी
मस्जिद कांड' के बाद पाकिस्तान से एक बड़ा जनसमुदाय भारत आया। अमेरिका-इराक युद्ध के
समय भी एक लाख लोग भारत वापस आये। इस तरह आप्रवासियों और घुसपैठियों के भारत में निरंतर
आगमन के कारण देश की जनसंख्या में एकाएक अकाल्पनिक बढ़ोत्तरी हो जाती है।
2. भौगोलिक कारण : हमारा देश अपेक्षाकृत गर्म जलवायु वाला देश है। इस कारण
यहाँ कम आयु में ही लड़कियाँ तारुण्य
को प्राप्त कर लेती हैं। इस कारण इन प्रदेशों में कम उम्र में ही लड़के और लड़कियों
का विवाह हो जाता है जिसका सीधा प्रभाव प्रजनन वृद्धि पर पड़ता है। शीतोष्ण देशों में
जनसंख्या वृद्धि की तीव्र गति का कारण इसकी भौगोलिक परिस्थितियाँ हैं। भारत के कुछ
राज्यों में तुलनात्मक दृष्टि से खियों की संख्या अधिक है। केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र
आदि ऐसे ही राज्य हैं। फलस्वरूप इन राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर अन्य राज्यों
की अपेक्षा अधिक है।
3. धार्मिक कारण: जनसंख्या वृद्धि का एक प्रमुख कारण धार्मिक रूढ़ियाँ विश्वास
और मान्यताएँ है। यद्यपि इस तरह की धार्मिक मान्यताएँ न तो युगानुरूप हैं, न ही वैज्ञानिक।
फिर भी आज के अनेक पूर्वी देशों और कुछेक पश्चिमी देशों में इन धार्मिक मान्यताओं का
पालन कठोरतापूर्वक किया जाता है। भारत के हिन्दुओं के जीवन में 'मनुस्मृति' का अत्यधिक
महत्त्व है। मनुस्मृति का आदेश है कि लड़कियों का विवाह सोलह वर्ष की आयु में ही कर
देना चाहिए। ऐसा न करने वाले माता-पिता पाप के भागी होते हैं। इस तरह इस स्मृति-ग्रन्थ
में यह उल्लेख भी मिलता है कि कम-से-कम मनुष्य को दस पुत्र होना चाहिए। इसीलिए ऋषि
यजमान को दस पुत्रों की प्राप्ति का आशीर्वाद देता हुआ दिखलायी देता है। 'मनुस्मृति'
की इन व्यवस्थाओं का सीधा अर्थ बाल विवाह को युक्तिसंगत बताकर उसे प्रोत्साहित करना
और अधिक संतानोत्पत्ति के लिए प्रेरित करना है। इन मान्यताओं की तत्कालीन समाज में
आवश्यकता रही हो परन्तु वर्तमान युग में ये धार्मिक मान्यताएँ कतई प्रासंगिक नहीं है।
इस्लाम धर्म के अनुसार बहुविवाह (एक पुरुष कम से कम चार विबाह कर सकता है।) में कोई
बुराई नहीं है। परिवार नियोजन इस्लाम के अनुसार पाप है। कैथोलिक भी परिवार नियोजन और
गर्भपात के विरुद्ध हैं। इस प्रकार की धार्मिक रूढ़ियों ने जनसंख्या की गति को तीव्रता
प्रदान की है।
एक ओर भारत जैसे देश में संतानोत्पत्ति पर कोई सामाजिक-धार्मिक
प्रतिबंध नहीं है, वहीं नार्वे और स्वीडन जैसे कई पश्चिमी राष्ट्रों में विवाह की अनुमति
स्वरूप नीरोग और निर्धारित ऊँचाई वाले युवाओं को ही दी जाती है। चीन ने दूसरी संतान
को जन्म देने पर भारी आर्थिक दण्ड का विधान बना रखा है। इस भय से वहाँ लोग दूसरी संतान
उत्पन्न ही नहीं करते। इस कानून का परिणाम यह हुआ है कि चीन अपनी जनसंख्या वृद्धि की
समस्या से मुक्ति पा चुका है। चीन में गर्भपात भी वैध है। अतः यहाँ की स्त्रियाँ सर्वाधिक
गर्भपात कराती हैं। यदि भारत चीन की नीति का अनुसरण करे तो यहाँ भी जनसंख्या वृद्धि
की दर को वैज्ञानिक रीति से नियंत्रित किया जा सकता है।
4. वैज्ञानिक कारण : आजादी के बाद अपने देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में अत्यधिक
प्रगति हुई। चिकित्सकीय सेवाओं में
विस्तार हुआ। स्त्रियों की प्रसवकालीन और प्रसवोत्तर देखभाल की ओर सरकार से लेकर परिवार
तक के लोगों का ध्यान गया। फलस्वरूप प्रसवकालीन जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर में काफी
गिरावट आयी और जन्मदर बढ़ने से जनसंख्या में क्रमशः बढ़ोत्तरी होती गयी। 1901 ई. में
भारतीयों की औसत आयु पुरुषों की ग्यारह वर्ष और स्त्रियों की बारह वर्ष थी। इस औसत
आयु में 1971 ई. में वृद्धि क्रमशः 34 वर्ष और 36 वर्ष हो गयी। 1981 ई. में औसत उम्न
क्रमशः 44 वर्ष और 46 वर्ष तथा 1991 ई. में 54 वर्ष और 56 वर्ष हो गयी। 2001 ई. में
भारत की महिलाओं की आयु 67 वर्ष और पुरुषों की 66 वर्ष हो गयी। इस तरह भारतीयों की
औसत आयु में निरंतर वृद्धि के लक्षण दिखायी दे रहे हैं।
5. आर्थिक विकास: जनसंख्या वृद्धि के साथ आर्थिक विकास एवं उन्नति का प्रत्यक्ष
सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। आर्थिक उन्नति
का सीधा असर पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन पर पड़ता है। खान-पान, रहन-सहन, सफाई, स्वास्थ्य
आदि के क्षेत्र में उल्लेखनीय सुधार के कारण मनुष्य के जीवन क्षमता का भी विकास होता
है। इस कारण विकासशील देशों में जनसंख्या वृद्धि की गति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है।
कृषि तकनीकी में परिवर्तन संसाधन विदोहन, औद्योगिक क्रांति,
व्यापार, वाणिज्य में प्रगति से पोषण क्षमता में वृद्धि हुई। भारत 1947 ई. में चीन
1948 ई. में और जापान 1952 ई. में स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद इन विकासशील
देशों की जनसंख्या विकसित राष्ट्रों ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की तुलना में ज्यादा
बढ़ी। यद्यपि विकासशील देशों में आर्थिक प्रगति की दर काफी ऊँचाई तक पहुँच चुकी है
परन्तु इस प्रगति के लक्षण आनुपातिक रूप से जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि के कारण नहीं
दिखायी दे रहे हैं।
6. सामाजिक कारण : जनसंख्या वृद्धि पर सामाजिक कारकों का भी प्रभाव पड़ता
है। अशिक्षा, अंधविश्वास, बाल विवाह, बहु विवाह, मनोरंजन के साधनों का अभाव और अज्ञानता
के कारण लोग अधिक संतानोत्पत्ति को ईश्वरीय वरदान समझने लगते हैं। इसके कारण भी जनसंख्या
बढ़ती है। भारत के जिन राज्यों में जैसे केरल, गोवा, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा,
पंजाब एवं हिमाचल प्रदेश में जहाँ साक्षरता की दर अधिक है, वहाँ जनसंख्या वृद्धि का
औसत कम साक्षर राज्यों की अपेक्षा कम रहा। 1981-91 ई. के बीच साक्षर प्रदेशों में मध्य
राष्ट्रीय औसत 23.5 प्रति हजार था जबकि उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल,
आन्ध्रप्रदेश एवं मध्यप्रदेश में जनसंख्या अधिक बढ़ी।
प्रश्न : जनसंख्या विस्फोट के दुष्परिणामों
का उल्लेख करें।
उत्तर : भारत में जनाधिक्य के सम्बन्ध में परस्पर दो विरोधी
मत प्रकट किये गये हैं। एक पक्ष भारत की बढ़ती जनसंख्या को भय की दृष्टि से देखता है
तो दूसरे की दृष्टि में भारत में जनाधिक्य है ही नहीं। लेकिन जो भारत में बढ़ती जनसंख्या
को विकट समस्या के रूप में देखते हैं, उनके अनुसार जनसंख्या वृद्धि के निम्नलिखित दुष्परिणाम
सामने आये हैं -
(1) बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण कृषि योग्य भूमि पर बोझ बहुत
अधिक बढ़ गया है। परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति उपलब्ध कृषि योग्य भूमि का क्षेत्र
0.33 हेक्टेयर से घटकर 0.25 हेक्टेयर भर रह गया है। इस अनुपात के और घटने की सम्भावना
है।
(2) जनसंख्या में वृद्धि के कारण खाद्यान्नों के उत्पादन
में असंतुलन उत्पन्न हुआ है। यह असंतुलन बढ़ता ही जा रहा है।
(3) उद्योग-धंधों के समुचित विकास के अभाव में हमारे देश
में कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता बढ़ गयी है। भूमिहीन मजदूरों की संख्या में वृद्धि
हुई है तथा बेकारी सबसे ज्यादा बढ़ी है।
(4) लोगों की प्रतिबंधक निरोध उपायों के अपनाने में अरुचि
के कारण भी जनसंख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है।
(5) भारतीयों का जीवन स्तर नीचे गिरा है। जीवन स्तर की निम्नस्तरीयता
को देखकर राहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में जनाधिक्य है।
(6) जिस दर से बेरोजगारी बढ़ी है, उसे देखकर यह कहना अनुचित
नहीं होगा कि भारत में जनाधिक्य है।
भारत की जनसंख्या वृद्धि के बारे में डॉ. हट्टन जैसे विचारकों
का मत है कि भारत में जनसंख्या द्वारा अभी तक देश के संसाधनों का अतिक्रमण नहीं हुआ
है। ऐसे विचारकों का यह भी कहता है कि विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारत में जनसंख्या
का घनत्व अपेक्षाकृत कम है। भारत में प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ रही है। भारत में जनसंख्या
वृद्धि की दर भी अधिक नहीं है।
भारत के जनसंख्याविदों का मानना है कि आगामी कुछ वर्षों में
भारत में जनसंख्या विस्फोट का भयावह दृश्य सामने आने वाला है। सम्प्रति भारत में प्रतिदिन
48 हजार शिशुओं का जन्म हो रहा है। इन बच्चों में से 1/3 (एक तिहाई) बच्चों का वजन
उस वजन का आधा है जो जन्म के समय एक स्वस्थ बच्चे का होना चाहिए। सरकारी आँकड़ों के
अनुसार आज देश में साढ़े पाँच लाख प्राथमिक पाठशालाएँ हैं, परन्तु बच्चों की जन्मदर
के अनुपात में शालाओं की संख्या बहुत ही कम है। जिस दर से बच्चों की संख्या बढ़ रही
है, उसके अनुपात में यदि 90 हजार प्राथमिक शालाओं की स्थापना की जायेगी तभी नवजातों
को शिक्षित करना सम्भव हो सकेगा। विश्व के अनेक देशों में 50 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर
है, वहाँ अपने देश में दो हजार व्यक्तियों पर एक डॉक्टर सुलभ है।
भारत में जनसंख्या विस्फोट के कारण नगरीय क्षेत्रों की अपेक्षा
ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी अधिक बढ़ी है। शहरी क्षेत्र के परिवारों की प्रतिवर्ष
औसत आय 14 हजार रुपये है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 11 हजार रुपये है। भारत की कुल
आबादी के 28 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। कुपोषण एवं न्यून
पोषण से रुग्णों की संख्या भी बढ़ रही है।
परिवार कल्याण कार्यक्रम (Family Welfare Programme)
प्रश्न : परिवार कल्याण कार्यक्रम क्या है?
भारत सरकार ने इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए कौन-कौन से कदम उठाये हैं?
अथवा
परिवार कल्याण कार्यक्रम की अवधारणा को स्पष्ट
करते हुए उसकी क्रमशः प्रगति का उल्लेख करें।
अथवा
परिवार नियोजन एवं परिवार कल्याण कार्यक्रम
में क्या अन्तर है? परिवार कल्याण कार्यक्रमों की संक्षिप्त जानकारी दें।
अथवा
परिवार कल्याण कार्यक्रम के अर्थ, उद्देश्य
और उसके कार्यान्वयन पर प्रकाश डालें।
उत्तर : प्रतिवर्ष 11 से 25 अक्तूबर के बीच मनाया जानेवाला
'परिवार कल्याण पखवारा' राष्ट्र को अपने उद्देश्यों की याद दिला देता है। परिवार कल्याण
का लक्ष्य 'राष्ट्र की आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप जन्मदर में जनसंख्या के स्थिरीकरण
के उद्देश्यों में कमी लाना है।' भारत सरकार ने सर्वप्रथम 1952 ई. में राष्ट्रव्यापी
परिवार नियोजन कार्य की शुरुआत की। इस तरह का कार्यक्रम शुरू करने वाला भारत विश्व
का पहला देश था। आरम्भ में परिवार नियोजन कार्यक्रम को निदानात्मक था। चिकित्सालयात्मक
दृष्टि (Clinical Approach) तक सीमित रखा गया था। निदानात्मक या चिकित्सा केन्द्रों
के माध्यम से शैक्षिक प्रचार सामग्री का वितरण करना इस दृष्टिकोण का लक्ष्य था। इसीलिए
शहरी और देहाती क्षेत्रों में परिवार नियोजन केन्द्रों की स्थापना की गयी थी। इन केन्द्रों
का उद्देश्य परिवार नियोजन सम्बन्धी प्रशिक्षण और अनुसंधान कार्य भी था। सरकार इन प्रयासों
के माध्यम से जनसंख्या की वृद्धि की दर में कमी लाना चाहती थी।
तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66 ई.) के अन्तर्गत परिवार नियोजन
को "नियोजित विकास का केन्द्र" द्वारा घोषित किया गया। परिवार नियोजन के
उद्देश्यों से भिन्न तृतीय पंचवर्षीय योजना द्वारा परिवार नियोजन के उद्देश्यों में
क्रान्तिकारी परिवर्तन का आरम्भ किया गया। अब परिवार नियोजन का अर्थ लोगों को जागरूक
बनाकर 'परिवार को छोटा' रखने के लिए तैयार करना हो गया। 1965 ई. में महिलाओं के लिए
'लिप्स लूप' (गर्भनिरोधक उपकरण) को प्रचलन में लाया गया। इसके बाद 1966 ई. में केन्द्र
सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के अन्तर्गत पृथक से 'परिवार नियोजन विभाग' का गठन किया
गया। इस विभाग ने परिवार नियोजन के आधारभूत ढाँचे को मजबूत बनाकर प्राथमिक स्वास्थ्य
केन्द्र, उपकेन्द्र, शहरी परिवार नियोजन केन्द्र, जिला एवं राज्य ब्यूरो आदि का गठन
किया। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्राथमिकता प्रदान की
गयी। प्राथमिक केन्द्र एवं उपकेन्द्रों का 'जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य गतिविधि' को अंगीभूत
उद्देश्य बनाया गया। 1972 ई. में कुछ और महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये। पहली बार पर्दापोश
भारतीय समाज के लिए घोर लज्जास्पद और अनैतिक-सी समझी जानेवाली बात को जनता के समक्ष
सार्वजनिक रूप से लाया गया। 'लाल तिकोन' गर्भ निरोध का प्रतीक था तो दूसरी ओर परिवार
नियोजन का। बढ़ी शीघ्रता के साथ क्या शिक्षित क्या अशिक्षित समुदाय इस प्रतीक चिह्न
के निहितार्थ से परिचित हो गया। पाँचवी पंचवर्षीय योजना (1975-80 ई.) में इस कार्यक्रम
में पुनः बड़ा परिवर्तन किया गया। 1976 ई. में सर्वप्रथम 'राष्ट्रीय जनसंख्या नीति'
बनायी गयी। आपातकाल के दौरान बलात् बंध्याकरण के अभियान के कारण परिवार नियोजन कार्यक्रम
को गहरा धक्का लगा। 1977 ई. में प्रथम बार केन्द्र में गैर काँग्रेसी नयी सरकार का
गठन हुआ। इस सरकार ने एक नयी जनसख्या नीति बनायी। परिवार नियोजन कार्यक्रम को बलात्
और बाध्यकारी उपाय द्वारा थोपने की नीति का परित्याग कर दिया गया। 'परिवार नियोजन मंत्रालय'
का नाम बदल कर 'परिनार कल्याण मंत्रालय' कर दिया गया।
यद्यपि भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम को लागू किया गया
तथापि लोगों में इसके प्रति गलतफहमी अवश्य फैल गयी। लोगों ने 'परिवार नियोजन' का एकमात्र
अर्थ 'बंध्याकरण' समझ लिया तो कुछ लोगों ने इसके अर्थ को 'प्रजनन नियंत्रण' (Birth
Control) भर समझ लिया था। इस कार्यक्रम की कल्याणात्मक अवधारणा का विकास तब से प्रारम्भ
हुआ जब से इसका नाम बदलकर 'परिवार कल्याण' कर दिया गया।
परिवार कल्याण की अवधारणा बहुत ही व्यापक है। यह अवधारणा
जीवन की गुणवत्ता पर टिकी हुई है। परिवार कल्याण कार्यक्रम का उद्देश्य 'जनता के जीवन
की गुणवत्ता में सुधार लाना हो गया।' आरम्भ में परिवार कल्याण के लक्ष्य प्राप्ति की
गति (दर) अत्यन्त धीमी रही। आगे चलकर यह कार्यक्रम और अधिक स्वस्थ दिशा की ओर उन्मुख
हुआ। 42वें संविधान संशोधन ने 'जनसंख्या नियंत्रण एवं परिवार नियोजन' को 'समवर्ती सूची
(Concurrent List)' बना दिया गया। इस संशोधन के द्वारा परिवार कल्याण कार्यक्रम को
'पूर्णतः स्वैच्छिक' बना दिया गया। 'ग्राम्य स्वास्थ्य योजना' (197.7 ई. से प्रारम्भ)
को स्थानीय लोगों से जोड़ने का कार्यक्रम शुरू हुआ। इसमें प्रशिक्षित दाइयों एवं 'विचार
नेतृत्व कर्त्ताओं' की सदस्यता ली गयी। आगे चलकर इस कार्यक्रम को धरातलीय स्तर पर काम
करने वाले लोगों से जोड़ने का अभियान प्रारम्भ हुआ। इस अभियान का लक्ष्य परिवार कल्याण
कार्यक्रम के साथ कदम मिलाकर चलना था। भारत ने 'अल्मा आटा घोषणा पत्र' (1978 ई.) पर
हस्ताक्षर किया था। इस घोषणा में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की नीति को विस्तृत बनाकर
2000 ई. तक 'सब के लिए स्वास्थ्य' (Health for all by 2000 AD) प्राप्ति की नीति बनायी।
पहले 'हम दो हमारे दो' का नारा दिया गया था। इसके बाद 'हम दो हम दो हमारे एक' का नारा
दिया गया अर्थात् यह लक्ष्य रखा गया कि लोग स्वेच्छा से एक ही बच्चे को जन्म देने पर
2000 ई. तक सहमत हो जायें।
अब तक प्रति हजार व्यक्तियों पर जन्मदर 21 और मृत्युदर प्रति
हजार पर 9 के लक्ष्य को 2000 ई. तक प्राप्त नहीं किया जा सका है। इसमें 60% 'दम्पत्ति
सुरक्षा' का लक्ष्य भी हासिल नहीं हो सका है। आगामी पंचवर्षीय योजनाएँ इन्हीं लक्ष्यों
को ध्यान में रखकर तैयार की गयी हैं। 1986 ई. में भारत सरकार ने फिर से एक व्यापक कार्यक्रम
को स्वेच्छा से अपनाने के लिए "जनता का अभियान, जनता द्वारा, जनता के लिए"
का नारा दिया गया। इस नारा ने परिवार कल्याण कार्यक्रम को सम्भव सीमा तक व्यापक आयाम
दिया है। इसमें केवल स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण कार्यक्रम मात्र सम्मिलित नहीं रहा
अपितु इसमें शिशुओं की उत्तरजीविता (survival), स्त्रियों का स्तर, नियोजन, साक्षरता,
शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक विकास एवं निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों का भी समावेश हो गया
है। परिवार कल्याण सम्बन्धी 1986 ई. की नीतियों की कतिपय प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित
हैं-
1. लड़कियों की विवाह-योग्य आयु की सीमा बढ़ाकर 20 वर्ष कर
दी गयी।
2. दो बच्चों के परिवारों को ही आदर्श बताया गया।
3. स्त्री-शिक्षा की दर बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित हुआ।
4. बच्चों के जन्म के बीच के अन्तराल को और अधिक कम करने
का भी लक्ष्य रखा गया।
5. सार्वजनिक प्रतिरक्षण कार्यक्रम के माध्यम से बच्चों की
उत्तरजीविता की सम्भावना को बढ़ाने पर बल दिया गया।
6. आधारभूत संरचनाओं का जीर्णोद्धार एवं हर स्तर पर कार्यक्रम
प्रबंधन में सुधार लाने का लक्ष्य तय किया गया।
7. महिला स्वयंसेवी दल (Women Volunteer Corps) के संवर्ग
को ऊँचा उठाने का लक्ष्य तय किया गया।
इस नयी नीति का वर्तमान समय में मुख्य उद्देश्य इसमें सबको
शामिल करना है। कार्यक्रम से लाभान्वितों को महत्त्व देना एवं अनेक प्रयासों में सामंजस्य
लाना है। परिवार कल्याण की इस नीति के माध्यम से जनसंख्या को नियंत्रित कर उसे वशवर्ती
बनाना है। नियोजित रूप में अभिभावकों में दायित्व बोध को जगाकर उन्हें एक ही बच्चे
तक संतानोत्पत्ति को सीमित रखने के लिए तैयार करना है। अभिभावकत्व का यह बोध दोनों
चाहे वह स्त्री अभिभावक हों या पुरुष अभिभावक हों में जगाना है। परिवार कल्याण के तरीकों
को अपनाने वाले को स्वतंत्र इच्छा के माध्यम से कार्यान्वित करना है।
सरकार ने सन् 2000 ई. में भी एक और नयी राष्ट्रीय जनसंख्या
नीति लोकसभा में पारित की थी। इस प्रस्तावित नीति के प्रावधान के अनुसार परिवार कल्याण
कार्यक्रम को नागरिकों की पूर्ण स्वेच्छा पर छोड़ देना है। उनकी इच्छाओं के अनुरूप
उन्हें प्रजनन सम्बन्धी स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करायी जायेगी। परिवार नियोजन सेवा
का लक्ष्य दृष्टिकोण के खुलेपन (मुक्तता) की प्रतिबद्धता पर आधारित है। इस नीति के
मुख्य लक्ष्य-बिन्दु निम्नलिखित हैं -
1. गर्भनिरोधक के जिन उपायों को अभी तक प्रभावी ढंग से लागू
नहीं किया जा सका है , उसे कार्यान्वित करना।
2. स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने के लिए आधारभूत संरचना का
निर्माण करना, स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाले कर्मचारियों के माध्यम से प्राथमिक
प्रजनन केन्द्रों एवं प्रसवोत्तर देखभाल के निमित्त सेवा प्रदान करवाना।
3. कुल प्रजनन क्षमता दर को सन् 2010 ई. तक प्रतिस्थानापन्न
स्तर तक ले आना।
4. सन् 2045 ई. तक स्थिर जनसंख्या के लक्ष्य को प्राप्त कर
लेना। जनसंख्या का यह स्तर ऐसा होना चाहिए जो दृढ़ आर्थिक विकास, सामाजिक विकास तथा
स्थिर पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकताओं के अनुकूल हों।
मातृत्व एवं शिशु संरक्षण
प्रश्न : परिवार कल्याण कार्यक्रम के अन्तर्गत
शिशु एवं माता के स्वास्थ्य संरक्षण एवं उनकी उत्तरजीविता को सुनिश्चित करने हेतु साम्प्रतिक
कार्यक्रमों पर प्रकाश डालें।
उत्तर : सरकार ने परिवार नियोजन एवं परिवार कल्याण कार्यक्रम
के कार्यान्वयन एवं सुचारु संचालन हेतु समय-समय पर अनेक कदम उठाये हैं। सरकार
ने कार्यक्रमों में एकरूपता लाने तथा प्रयासों में तीव्रता लाने के लिए समय-समय पर
महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय जनसंख्या नीति बनायी। इस कार्यक्रम का प्रारम्भ 1952 ई. में
हुआ। तृतीय पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत परिवार नियोजन को प्राथमिकता प्रदान की गयी।
इस समय तक इस कार्यक्रम के प्रति सरकार के दृष्टिकोण में बदलाव आया और कार्यक्रम के
कार्यान्वयन की सफलता के लिए पूर्व के तौर-तरीकों को उच्चस्तरीय प्राथमिकता प्राप्त
हुई और इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए रूढ़िवादी समाज की रूढ़ियों को तोड़ते हुए
खुले आम परिवार नियोजन के प्रतीक चिह्न 'लाल तिकोन' का प्रचार किया गया। इस प्रचार
के फलस्वरूप लोग जागरूक बने तथा इस कार्यक्रम को अपनाने के लिए आगे भी बढ़े। परन्तु
परिवार नियोजन के प्रति एक भ्रांति फैल गयी और इसका मतलब केवल पुरुष या स्त्री की नसबंदी
या बन्ध्याकरण हो गया। आपातकाल (1975 ई.) के दौरान जबर्दस्ती नसबंदी और बन्ध्याकरण
कराने के चलते यह कार्यक्रम बदनाम हो गया और इसे गहरा धक्का लगा।
1977 ई.. में केन्द्र में गठित नयी सरकार ने इस कार्यक्रम
के स्वरूप को बदल दिया और उसे परिवार-कल्याण कार्यक्रम का नाम दिया। इस कार्यक्रम को
लोगों की स्वेच्छा पर छोड़ दिया गया। अब लोग अपने विवेक से स्वतंत्र निर्णय लेकर अपना
सकते थे। सरकार ने जन्म दर को नियंत्रित करने के साथ-साथ स्वस्थ शिशु के जन्म और विकास
पर ध्यान दिया। शिशु मृत्यु दर में कमी लाना और उसकी उत्तरजीविता (survival) को बढ़ाना,
गर्भिणियों को स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना, इस कार्यक्रम को अपनाने वालों को प्रोत्साहन
राशि देना और जनसंख्या की गुणवत्ता पर बल देना सरकार की नीतियों के प्रमुख अंग बन गये।
1982 ई. में पुनः नयी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति बनायी गयी। इसके बाद 1986. ई. में भी
एक नयी नीति का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ और पुनः 2000 ई. में एक और नयी नीति प्रस्तावित
हुई।
सरकार की इन सभी नयी नीतियों का एकमात्र लक्ष्य है- अनेक
उत्तम उपायों द्वारा जनता में अधिक संतानोत्पत्ति के प्रति अरुचि और विकर्षण का भाव
पैदा करना। लोग भय से भी नसबंदी या बन्ध्याकरण नहीं कराते क्योंकि प्रसव के समय एवं
कुछ वर्षों के अन्तराल में विभिन्न प्रकार की संक्रामक और भयानक बीमारियों के कारण
नवजातों की मृत्यु हो जाती है। सरकार ने इस भय को जड़ से खत्म करने के उद्देश्य से
शिशु की उत्तरजीविता (survival) सुनिश्चित करने के लिए शिशु, माताओं एवं गर्भिणियों
के निमित्त कई स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाया है, निम्नलिखित प्रमुख हैं-
(i) प्रजनन तथा बाल-स्वास्थ्य कार्यक्रम
(ii) सार्वभौम टीकाकरण
(iii) पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान
(iv) गर्भनिरोधक उपायों की जमीनी स्तर से कार्यान्वित करना
(v) गर्भनिरोधक कंडोमों एवं गोलियों की सस्ती दर पर सार्वजनिक
बिक्री
(vi) जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की प्रसवोत्तर देखभाल
(vii) गर्भपात को कानूनी मान्यता प्रदान करना
(viii) गर्भस्थ शिशुओं के लिंग को पता लगाने पर रोक लगाना
(ix)
अनुसंधान और मूल्यांकन
(x)
परिवार कल्याण कार्यक्रम में भारतीय एवं होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति का उपयोग करना
तथा
(xi)
अनुसंधान और विकास की प्रक्रिया अपनाना आदि।
1.
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग : सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण
के निमित्त राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग (National Population Commission) का गठन किया
है। इस आयोग का कार्य और दायित्व जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रमों का कार्य त्रयन,
पर्यवेक्षण एवं उनकी समीक्षा करना है।
2.
प्रजनन तथा बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम : 1977 ई. के 15 अक्तूबर
से इस कार्यक्रम को चलाया गया। इसका मूलभूत उद्देश्य माताओं को प्रजनन अवधि, प्रसव
एवं प्रसवोत्तर काल में स्वास्थ्य सेनाएँ प्रदान करना
तथा उसकी समुचित देखभाल करना है। इसी प्रकार नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य की जाँच-परख
और उन्हें समुचित स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना भी इस कार्यक्रम का लक्ष्य है।
3. सार्वभौमिक टीकाकरण अभियान : इस अभियान का आरम्भ 1985 ई. से हुआ। इस टीकाकरण का
लक्ष्य गर्भकाल से लेकर पाँच-छः वर्ष की उम्र तक के बच्चों की देखभाल का दायित्न
सरकार ने अपने ऊपर लिया। अब तक शिशु मृत्युदर बहुत अधिक थी। नवजात बच्चों की
मृत्यु की मुख्य वजह जन्मते ही गलघोंटू (टेटनस) नामक बीमारी से उनके जीवन का खतरे
में पड़ जाना था। नवजात शिशुओं की अकाल मृत्यु डिप्थेरिया से भी हो जाती थी।
कुकुरखाँसी (Whooping Cough) भी बच्चों के लिए जानलेवा बीमारी थी। अब ट्रिपल
एंटीजेन की टीकाओं द्वारा द्वारा इन बीमारियों को रोकने के उपाय किये गये। इस
टीकाकरण के कारण शिशु मृत्युदर में काफी कमी आयी। इसके अतिरिक्त अन्य तीन
बीमारियों के भी टीके भी शिशु को दिये जाते हैं। इस अभियान को चरणबद्ध ढंग से लागू
किया गया। इस कार्यक्रम को व्यापक लोकप्रियना और सफलता प्राप्त हुई है।
4. पल्स पोलिया टीकाकरण अभियान: भारत में विकलांग और मानसिक रूप से अल्पविकसित शिशुओं की
जन्मदर ऊँची थी। पोलियो के कारण बच्चे जन्म से लेकर जीवन भर के लिए अपाहिज हो जाते
थे। सन् 1995 ई. से शिशुओं को पोलियो की विकलांगता से सुरक्षा के लिए 'पल्स पोलिया
टीकाकरण अभियान' का प्रारम्भ हुआ। 0 से 5 वर्ष की उम्र के बच्चों को प्रत्येक डेढ़
मास अर्थात् 6 सप्ताह के अन्तराल से पल्स पोलियो के टीके दिये जाते हैं। ये टीके
सरकार और स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा सबों को निःशुल्क प्रदान किया जाता है। पल्स
गोलियो टीकाकरण के प्रत्येक चरण में 16 करोड़ बच्चों को टीका देने का लक्ष्य
निर्धारित है। इस टीकाकरण अभियान के कारण शिशुओं की विकलांगता दर में 'उल्लेखनीय
कमी आयी है।
5. गर्भनिरोधक उपायों को जमीनी स्तर से प्रारम्भ करना: इस कार्यक्रम का नाम 'सामुदायिक आवश्यकता आकलन दृष्टिकोण'
है। इस कार्यक्रम का प्रारम्भ । अप्रैल 1996 ई. को हुआ। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत
सरकारी तंत्र द्वारा गर्भनिरोधक लक्ष्यों को ऊपर से निर्धारित करने की नीति को बदल
दिया गया। यह दायित्व उन अधिकारियों को सौंप दिया गया जो इस कार्यक्रम के
कार्यान्वयन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। अब गर्भनिरोध अभियान को
विकेन्द्रीकृत सहभागिता नियोजन पर आधारित प्रणाली बना दिया गया।
6. गर्भनिरोधकों की मुक्त बिक्री: सरकार ने ऐसी व्यवस्था क्ती है कि पुरुषों को
सस्ती दर पर कंडोम (काउण्ट्रासेप्टिक) एवं खियों को
गर्भनिरोधक गोलियाँ खुले बाजारों में मिल सके। इसके वितरण के लिए सरकार ने सरकारी
तंत्रों के अत्तिरिक्त स्वैच्छिक संगठनों एवं निजी कम्पनियों का भी सहयोग प्राप्त
किया है।
7. जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की देखभाल : भारत में गर्भधारण काल में एवं प्रसव काल में गर्भिणी
स्त्रियों की मृत्यु अनेक कारणों से हो जाया करती है। एक आकलन के अनुसार प्रसव-काल
में लगभग प्रति लाख पर 40% गर्भिणियों की मृत्यु हो जाया करती है। इसके कारण भी
ज्ञात हैं। गर्भिणी माताओं को बचाने के लिए 'प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य (आर. सी.
एच.) अभियान' चलाया गया है। बहुत हद तक माता की प्रसवकालीन मृत्यु को नियंत्रित
किया जा सका है।
8. गर्भपात को कानूनी मान्यता : अनेक विवादों और विरोधों के बावजूद सरकार ने एक सीमा तक
गर्भपात को कानूनी मान्यता दे दो। 1972 ई. में चिकित्सकीय गर्भपात (Medical
Termination of Pregnancy) कानून प्रवर्तित किया। कई कारणों से गर्भिणियों का
गर्भपात चोरी-छिपे या बलात् नीम हकीमों से कराया जाता था। असुरक्षित गर्भपात के
कारण प्रतिवर्ष 12.5% गर्भिणियों की मृत्यु हो जाती थी। अब कानूनन गर्भिणी महिलाएँ
20 हफ्ते के गर्भ का गर्भपात करा सकती हैं।
9. जन्मपूर्व भ्रूण का लिंग पता कराने पर से कानूनी रोक: इधर एक प्रवृत्ति ने जोर पकड़ ली है। माता और पिता
गर्भावस्था में ही भ्रूण का लिंग पता चला लेते हैं और बालिका भ्रूण को नष्ट करवा
देते हैं। इस कारण बालिकाओं के जन्म का अनुपात काफी घट गया है। इस प्रवृत्ति पर
अंकुश लगाने के लिए सरकार ने 1 जनवरी, 1996 ई. से गर्भस्थ भ्रूण का पता लगाना
कानूनी रूप से वर्जित कर दिया। इस कानून के उल्लंघन को दण्डनीय अपराध भाना गया है।
यह कानून स्त्रियों के प्रति जन्मपूर्व से बढ़ते समाजिक अत्याचार की बुराई को
समाप्त करता है।
10. अनुसंधान एवं मूल्यांकन कार्य: केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने
राष्ट्रीय राजधानी समेत देश के सत्रह राज्यों में 18 जनसंख्या अनुसंधान केन्द्रों
की स्थापना की है। इन केन्द्रों में जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण, जनसांख्यिकी एवं
सामाजिक जनसांख्यिकी सर्वेक्षण और जनसंख्या तथा परिवार कल्याण कार्यक्रमों के
जनसंचार सम्बन्धी पहलुओं पर अनुसंधान कार्य कराये जाते हैं।
11. भारतीय चिकित्सा प्रणालियाँ एवं होम्योपैथी: भारत में स्वास्थ्य रक्षा के निमित्त जड़ी-बूटी आधारित
आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली का प्राचीन काल से प्रचलन में है। योग और प्राकृतिक
चिकित्सा प्रणाली भी भारत की देन है। तिब्बती एवं यूनानी चिकित्सा पद्धति भी भारत
में प्रचलित रही है। कुछ वर्ष पूर्व तक उपचार का एक विश्वसनीय माध्यम होम्योपैथिक
चिकित्सा भी था। इन चिकित्सा प्रणालियों की विशेषता यह है कि इनका पार्श्वप्रभाव
(side effect) नगण्य है। इनकी औषधियाँ बहुत सस्ती हैं। ये प्रणालियाँ अधिक
सुरक्षित विश्वसनीय सुनिश्चित, सस्ती, रोगों की रोकथाम और उपचार के बिलकुल अनुकूल
हैं। परिवार कल्याण के लिए सरकार ने इस प्रणाली में फिर से नयी जान फूंकने, सरकारी
स्तर पर इसे प्रोत्साहित और लोकप्रिय बनाने का अभियान चलाया है।
12. अनुसंधान तथा विकास: परिवार कल्याण कार्यक्रम को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने
के लिए चार अनुसंधान परिषदें (1) केन्द्रीय आयुर्वेद तथा सिद्ध अनुसंधान परिषद्
(ii) केन्द्रीय यूनानी चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (iii) केन्द्रीय होम्योपैथिक
अनुसंधान परिषद् तथा (iv) केन्द्रीय योग तथा प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिषद
कार्यरत हैं। इनका काम चिकित्सकीय अनुसंधान, औषधि मानकीकरण अनुसंधान, औषधि
प्रमाणीकरण अनुसंधान, परिवार कल्याण अनुसंधान, जनजाति अनुसंधान आदि अनुसंधानपरक
कार्य है।
पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य (Environment and Human Health)
प्रश्न : पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य के
पारस्परिक सम्बन्धों को निरूपित करें।
अथवा
पर्यावरण एवं मानव-स्वास्थ्य के अन्तः
सम्बन्धचों को स्पष्ट करें।
उत्तर : हिपोक्रोट्स ने सर्वप्रथम रोगों का सम्बन्ध
पर्यावरण अर्थात् मौसम, जल एवं वागु आदि से जोड़ा था। शताब्दियों उपरांत पीटेनकोफर
(जर्मनी) ने पर्यावरण एवं मानव-स्वास्थ्य के अन्तः सम्बन्धों की अवधारणा को फिर से
व्याख्यायित किया। आज यह एक सार्वभौमिक एवं सिद्ध तथ्य के रूप में स्थापित हो चुका
है कि पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव शारीरिक, मानसिक एवं पामाजिक कल्याण पर पड़ता
है। पर्यावरण के कारक क्षेत्र का विस्तार आवास, जलापूर्ति, सफाई, भानसिक दबाव से
लेकर पारिवारिक ढाँचे तक है। पारिवारिक, ढाँचा सामाजिक एवं आर्थिक आधारों पर खड़ा
होता है। स्वास्थ्य संस्थाएँ (संगठन) सामाजिक कल्याण सेवाएँ भी पर्यावरण भी
सम्मिलित हैं।
व्यक्ति समुदाग या किसी देश के स्वास्थ्य के स्तर को विश्व
की दो पारिस्थितिकियाँ निर्धारित करती हैं। ये दो पारिस्थितिकियाँ हैं-मनुष्य का
अन्तःकरणीय पर्यावरण एवं उसका बाह्य पर्यावरण या परिवेश। गानव स्वास्थ्य को बनाने
बिगाड़ने में ये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मनुष्य के अन्तः पर्यावरण या
परिवेश के अन्तर्गत प्रत्येक शारीरिक अवयव, कत्तक एवं आंगिक प्रणाली एवं संतुलित
रूप से उनका संचालन करते हैं। बाह्य पर्यावरण का अभिप्राय (व्यापक पर्यावरण)
मनुष्य के शरीर के बाहर की सम्पूर्ण पारिस्थितिकियाँ हैं। बाह्य पर्यावरण की
परिभाषा इस प्रकार दी गयी हैं 'वे सभी चीजें, जो मनुष्य से बाहर की हैं।' इनका
विभाजन भौतिक, जैविक एवं मनोवैज्ञानिक अवयवों और यह कोई चीज जो मानव-स्वास्थ्य को
प्रभावित करती है और उसे रोगों के प्रति संवेदनशील बनाती हैं, चाह्य पर्यावरण के
अंग हैं। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार सूक्ष्म पर्यावरण अथवा घरेलू वातावरण भी मानव
स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। घरेलू वाताबरण का अर्थ व्यक्ति विशेष की निजी
जीवन-शैली एवं रहन सहन का स्तर, आहार-व्यवहार तथा अन्य व्यक्तिगत आदतें (जैसे
धूम्रपान, मद्यपान की आदतें), नशीले पदार्थों के सेवन की आदतें आदि हैं। आधु नेक
अवधारणा के अनुसार रोग का कारण मनुष्य एवं पर्यावरण के जटिल संतुलन में गड़बड़ी का
उत्पन्न होना है। पारिस्थितिकी के तीन प्रमुख कारक वाहक, धारक एवं पर्यावरण-रोगों
के कारण हैं। रोगों के वाहकों का परीक्षण प्रयोगशालाओं में सम्भव है। रोगी भी
रोगों के अध्ययन के लिए उपलब्ध हैं लेकिन पर्यावरण जिससे रोगी आते हैं वह प्रायः
अनजाना रह जाता है। इसके बावजूद प्रकृति में ही रोगों का उपचार, निरोध और नियंत्रण
निहित है। यदि पर्यावरण अनुकूल हो तो मनुष्य अपनी पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक क्षमता
का उपयोग कर सकता है। मानव-स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले निम्नलिखित पर्यावरणीय
कारण हैं-
1. रोगाणु के अभिकर्ता, वाहक और भंडार
2. मानव गतिबिधियां से पूर्णतः स्वतंत्र पर्यावरण में
विद्यमान भौतिक, रासायनिक एवं जीवाणु जो मानव स्वास्थ्य को अपनी उपस्थिति अथवा कमी
के कारण नुकसान पहुँचाते हैं।
3. मानव गतिविधियों के कारण पर्यावरण में हानिकर उत्पन्न
भौतिक, रासायनिक एवं जैविक अभिकर्ता भी रोगों को उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान समय में पर्यावरणिक स्वास्थ्य (पूर्व में जिसे
पर्यावरण स्वच्छता कहा जाता था) का संरक्षण और विकास एक महत्त्वपूर्ण समस्या है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मानव स्वास्थ्य के लिए पर्यावरण अत्यन्त उपयोगी
है। पर्यावरण-प्रदूषण का सीधा एवं प्रतिकूल प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है।
प्रकृति एवं पर्यावरण के विक्षोभ का भयानक असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ने लगा है।
यही कारण है कि पर्यावरण प्रदूषण के कारण उत्पन्न होनेवाली बीमारियों से मानव
मात्र की रक्षा एक विकट समस्या बन गयी है। स्वास्थ्य को इन शब्दों में परिभाषित
किया गया है- 'स्वास्थ्य वस्तुतः पूर्ण शारीरिक मानसिक और सामाजिक स्थिति है।'
पर्यावरण में दक्षतापूर्वक कार्य करने की क्षमता को 'स्वास्थ्य' कहते हैं। मनुष्य
के स्वास्थ्य वे सब पहलू जो बाह्य दशाओं से सम्बन्धित हैं और जिनका प्रभाव
स्वास्थ्य पर पड़ता है, पर्यावरण कहलाता है।
पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य में घनिष्ठ सम्बन्ध है।
पर्यावरण की कुछ विशिष्ट दशाएँ जैसे वायु, जल और भोजन मनुष्य के जीवन धारण के लिए
आवश्यक होती हैं। इन दशाओं की उपलब्धता, गुणवत्ता और मात्रा भी मानव स्वास्थ्य को
प्रभावित करती हैं लेकिन जनसंख्या की वृद्धि और उद्योगों के फैलते जाल के कारण
पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित हो गया है। इस प्रदूषण का प्रभाव भोजन, आवास एवं
जलवायु पर पड़ा है। फलस्वरूप मानव स्वास्थ्य संकट में पड़ गया है। मानव-जीवन का
चक्र पर्यावरण से ही संचालित होता है। यह चक्र पर्यावरण से ही पूरा होता है। मनुष्य
ही क्यों सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव-जन्तु के चक्र भी पर्यावरण से संचालित और पूर्ण
होते हैं। इसका अर्थ स्पष्ट है कि मनुष्य, जीव-जन्तु एवं वनस्पतियों के जीवन के
लिए शुद्ध एवं स्वच्छ पर्यावरण का होना नितांत आवश्यक है। पृथ्वी के जिन क्षेत्रों
का पर्यावरण मानवीय स्वास्थ्य और कार्यक्षमता के अनुकूल होता है, उसे 'सुखद
क्षेत्र' (comfort zone) कहा जाता है। पृथ्वी के सुखद क्षेत्रों में ही मनुष्य का
स्वास्थ्य सबसे ज्यादा अच्छा रहता है और उसकी कार्यक्षमता सर्वाधिक उन्नत कोटि की
होती है। मानव-स्वास्थ्य की दृष्टि से सापेक्ष आर्द्रता एवं तापान्तर की अनुकूलता
को ही सुखद क्षेत्र कहते हैं। अध्ययन अनुसंधान के निष्कर्षानुसार भूमध्य सागरीय
क्षेत्रों की जलवायु मानवों की मानसिक एवं शारीरिक क्षमता को बढ़ानेवाली होती है।
इसके विपरीत उष्णाई भूमध्यरेखीय प्रदेशों तथा मरूस्थलीय क्षेत्रों की तापान्तर
विषमता कार्यक्षमता और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालती है। ब्रिटेन, यूनान, जापान
की परिवर्तनशील जलवायु के कारण वहाँ के व्यक्ति कर्मठ होते हैं। इसी प्रकार केरल,
कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल प्रदेश और पर्वतीय क्षेत्रों जैसे नैनीताल,
देहरादून, मंसूरी, मनाली आदि का पर्यावरण मानवीय स्वास्थ्य के अनुकूल है। पर्यावरण
की अनुकूलता मानव स्वास्थ्य को उत्तम बनाने वाली, आयु बढ़ानेवाली और कार्यक्षमता
में वृद्धि लानेवाली होती है। है। पर्यावरण की प्रतिकूलता मानव स्वास्थ्य को क्षीण
बना देती है। उसकी कार्यक्षमता घटा देती है और मनुष्य को अल्पायु बना देती है।
एच. आई. वी. एवं एड्स (HIV and AIDS)
एड्स. (The Acquired Immuno Deficiency Syndrone) एक गम्भीर
एवं प्राणघाती व्याधि है। यह बीमारी एच. आई. वी. संक्रमण से होता है। एच. आई. वी.
अर्थात् ह्यमन इम्युनो डिफिशियेंसी बायर्स (Human Immuno Deficiency Virus) इस रोग
का मूल कारण है। इस विषाणु (Virus) के आक्रमण से मनुष्य की प्रतिरक्षी (immuno)
शक्ति बिल्कुल नष्ट हो जाती है।
एच. आई. वी. या एड्स पीड़ित व्यक्ति के जीवन का सबसे दुःखद
और त्रासद पहलू यह है कि समाज उसकी बीमारी को संक्रामक समझकर उपेक्षित और अकेला और
छोड़ देता है। फलतः रोगी रोग की भयावकता से कम, पारिवारिक सामाजिक उपेक्षा का दंश
अधिकाभोग कर तड़प-तड़पकर मर जाता है। इस सामाजिक क्रूरता का कारण एच. आई. वी. या
एड्स पीड़ित व्यक्ति के कारण संक्रमण द्वारा इसके दूसरों तक फैल जाने की आशंका है।
एच. आई. वी. संक्रमित व्यक्ति मृत्यु पर्यंत इससे मुक्त नहीं हो पाता। वस्तुतः
एड्स (AIDS) अर्थात् एच. आई. वी. संक्रमण की अंतिम अवस्था है। इस बीमारी की पहचान
वर्षों तक नहीं हो पाती, क्योंकि इसका विषाणु शरीर में दीर्घावधि तक शान्त पड़ा
रहता है। इसमें कोई संदेह एक बार एच. आई. वी. विषाणु जब शरीर में प्रविष्ट हो जाता
है तब वह शरीर में जीवन-पर्यंत टिक जाता है।
एच. आई. वी. एड्स का विषाणु नाना प्रकार के असुरक्षित यौन
सम्बन्ध के कारण शरीर में पहुँचता है। एच. आई. वी. या एड्स पीड़ित व्यक्ति के लिए
प्रयुक्त सीरिंज का दूसरे के लिए प्रयोग करने पर अथवा उसका रक्त दूसरे व्यक्ति के
शरीर में चढ़ाने (tranfusion) के कारण भी व्यक्ति इस रोग का शिकार हो जाता है।
एच. आई. वी. का मुख्य स्त्रोत रक्त, वीर्य और सी.एस.एफ.
(सेरेब्रो स्पाइनल फ्लुड) है। इसका विषाणु आँसू, लार, स्तन के दूध, मूत्र और
योनि-स्त्राव में भी पाये जाते हैं। एच. आई. वी. विषाणु मस्तिष्कीय उत्तकों,
लिम्फ, नोड्स, अस्थि-मज्जा (bone marrow) की कोशिका एवं त्वचा में भी पाये गये
हैं। लेकिन अभी तक रक्त और वीर्य (यौन सम्बन्ध) ही इस विषाणु के मूल वाहक माने गये
हैं।
एड्स रोग की पहचान एड्स रोग की पहचान के लिए विश्व
स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने सर्वप्रथम एड्स को परिभाषित किया है- बारह वर्ष से अधिक
उम्र के व्यक्ति को एड्स से ग्रस्त तब माना जाता है, जब व्यक्ति में दो लक्षण
जिनमें से एक कम महत्त्ववाले लक्षण के साथ हो और प्रमाणित हो कि ये लक्षण किसी और
कारण से नहीं है।
एड्स के लक्षण :
(1) व्यक्ति के वजन में सामान्य से दस प्रतिशत या उससे अधिक
की कमी हो।
(2) करीब एक महीने से अधिक समय तक पेट में खराबी हो
(जैसे-डायरिया आदि)।
(3) एक महीने से अधिक तक व्यक्ति को बुखार हो। बुखार लगातार
रहे या रूक-रूक कर हो।
कम महत्त्ववाले लक्षण :
(1) एक महीने से ज्यादा समय तक लगातार खाँसी का आना।
(2) पूरे शरीर की त्वचा का संक्रमित (infectcd) होना या
खुजली होना।
(3) पहले हर्पेस जोस्टर (Herpes Zoster) हो चुका हो।
(4) मुँह और गले में केण्डिडा (Candida) का संक्रमण हो।
(5) हर्पेस सिम्लेक्स का संक्रमण हो।
(6) पूरे शरीर में लिम्फ नोड्स (Lymph Node) बढ़ रहा हो
अर्थात् लिम्फएडीनोपैथी ( Lymph a denopathy) हो।
अगर किसी व्यक्ति में डपोसी सार्कोम (Daposi Sarcome) हो या
क्रिप्टोकोकल हो तो यह मान लिया जाता है कि व्यक्ति को एड्स है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की उपर्युक्त परिभाषा से एड्स रोग की
पहचान बहुत बड़ी सीमा तक हो जाती है लेकिन इसके अतिरिक्त एड्स के अभी भी अनेक
अनपाहचाने लक्षण हैं जो इस परिभाषा में शामिल नहीं हैं। इसलिए ऐसे अनपहचाने
लक्षणवाले एड्स रोगी की पहचान नहीं हो पाती है। एड्स का इलाज हर रोगी का उसके
लक्षण के अनुरूप अलग-अलग किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य एड्स रोगियों की पहचान के
लिए कुछ अन्य लक्षणों के बारे में भी जानकारी दी है। जैसे-
(1) एच. आई. वी. एण्टीबॉडी (HIV Antibody) के लिए परीक्षण
(जाँच) सकारात्मक (positiove) हो।
(2) रोगी का किसी प्रकार के क्षय (T. B.) से ग्रस्त होना।
(3) क्रिप्टोकोकल मेनिनजाइटिस का होना।
(4) कपोसी सार्कोमा का होना।
एड्स की चिकित्सा के मार्ग की बाधाएँ एड्स की समुचित और
कागर औषधि बनाने की दिशा में वैज्ञानिक 1980 ई. से ही लगे हुए हैं परन्तु वे
पूर्णतः सफल नहीं हो पाये हैं। इस रोग में कुछ हद तक AZT (Azidothy Midine),
नरोविया, फिलोपोडिया, जिडोयूबीडीन (Zidai Vedine), डायडेनोसिन (Didanosin),
सेक्यूनबिर (Squinavir) नामक औषधियों से रोगियों को कुछ हद तक राहत मिलती है
किन्तु, उसकी ये औषधियाँ पूर्णतः नीरोग बनाने में सफल नहीं हैं। इस रोग की दवा के
आविष्कार के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा यह है कि एच. आई. वी. का उत्परिवर्तन
(mutation) बड़ी तीव्रता के साथ हो जाता है।
एड्स रोग के कारण और बचाव के लिए सावधानियाँ :
1. एड्स रोग के फैलने के प्रमुख कारणों में से एक प्रमुख
कारण संक्रामित सुई (syringe) का उपयोग है। कई बार नशीली दवाओं का सेवन करनेवाले
एक ही सुई से अनेक प्रकार की नशीली सुइयाँ ले लेते हैं। इससे उस व्यक्ति को एड्स
हो जाता है। अतः किसी भी व्यक्ति सूई लगाने के लिए डिसपोजल (disposal) सूई का
प्रयोग करना चाहिए। रक्ताधान से पूर्व या रक्त लेते समय रक्त का परीक्षण करवाना
जरूरी है। सूई के संक्रमण से भारत में 7% एड्स फैला है।
2. असुरक्षित यौन सम्बन्ध : विश्व में लगभग 29-45 वर्ष के
बीच के स्त्री-पुरुषों के बीच सर्वाधिक असुरक्षित यौन सम्बन्ध पाया जाता है। एड्स
को फैलाने में वेश्यागामिता की प्रवृत्ति एक प्रमुख कारक बन गयी है। एड्स
असुरक्षित यौन सम्बन्धों के कारण एक पुरुष या महिला से अन्य पुरुष और महिला में
फैलता है। असुरक्षित यौन सम्बन्ध से 85% एड्स रोग भारत में फैला है।
एड्स रोगी में कैंसर की सम्भाबना भी बढ़ जाती है। शरीर में
ट्युमर कोशिका (tumer cell) को नष्ट करने की क्षमता कम हो जाती है। एक बार एच. आई.
वी. का विषाणु शरीर में प्रविष्ट हो जाता है, तब मृत्युपर्यंत शरीर में बना रहता
है। बहुत लम्बे समय तक लगभग 5-6 वर्षों तक एच. आई. वी. का कोई लक्षण नजर नहीं आता।
अगले दशक तक 75% मरीज एच. आई. वी. से ग्रस्त हो जायेंगे।
जिस महिला को एच. आई. बी. संक्रमण होता है, उसके नबजात के
उपचार के लिए 'नरोविया फिलोपोडिया' नामक औषधि उपलब्ध है। बच्चों में एच. आई. वी.
संक्रमण की 10 से 15 प्रतिशत तक की सम्भावना होती है।
एड्स के प्रति सामाजिक भ्रान्ति समाज के लोग हैजा, चेचक और
क्षय रोग की तरह ही एड्स को भी संक्रामक रोग मानते हैं, जबकि यह रोग शारीरिक
सम्पर्क या सीधे यौन सम्बन्धों, एड्स रोगी के रक्त को चढ़ाने, उसकी लार या सूई के
माध्यम से फैलता है। सामाजिक भ्रान्ति के कारण एड्स रोगियों के प्रति जिस तरह के
उपेक्षा भाव बरता जाता है, उससे रोगी की पीड़ा और बढ़ जाती है।
एड्स रोग से बचाव का सबसे बड़ा उपाय नैतिक शुचिता है। भारत में जिस नैतिक शुचिता एक पुरुष एक नारी सम्बन्ध को प्रतिष्ठा मिली रही उसमें इस रोग के फैलाव को रोकने का मूल मंत्र छिपा हुआ है।
पर्यावरणीय अध्ययन(Environmental Studies)