पर्यावरणीय अध्ययन (ENVIRONMENTAL STUDIES)
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर (Short Answer Type Questions Answers)
प्रश्न : पर्यावरण को परिभाषित कीजिये।
उत्तर : 'पर्यावरण' का तात्पर्य उस समूची भौतिक-अजैविक एवं
जैविक व्यवस्था से है जिसमें जीवधारी रहते, बढ़ते, पनपते और अपनी स्वाभाविक
प्रवृत्तियों का विकास करते हैं। उन सभी दशाओं का योग पर्यावरण है जो जीवधारियों
के जीवन और विकास को प्रभावित करता है। पृथ्वी के भौतिक घटक, स्थम, स्थलरूप, जलीय
भाग, जलवायु, मिट्टी तथा शैल ही पर्यावरण के मूलभूत तत्त्व या अंग है। पर्यावरण के
अन्तर्गत मानव निर्मित संसार एवं उसका सांस्कृतिक परिवेश भी पिरगणित होता है। इस
प्रकार पर्यावरण को पाँच प्रमुख आधारों पर विवेचित किया जाता है-
(i) पर्यावरण बाह्य शक्ति है।
(ii) ये शक्तियाँ परस्पर सम्बन्धित हैं।
(iii) इन शक्तियों का संयुक्त प्रभाव पड़ता है।
(IV) ये शक्तियाँ परिवर्त्तनशील (गत्यात्मक) हैं।
(v) इन शक्तियों का जीब पर प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।
प्रश्न : स्वास्थ पर्यावरण से क्या तात्पर्य
है?
उत्तर : पर्यावरण के भौतिक के अन्तर्गत सूर्य, ताप, ऋतु
परिवर्तन, स्थिति, भू-वैज्ञानिक संरचना, धरातल, भूकम्प, ज्वालामुखी, खनिज,
मिट्टियाँ, बनस्पति, जलराशियाँ, जीव-जन्तु आदि आते हैं। ये सभी ऐसे कारक हैं जो
प्रकृतिप्रदत्त हैं। मनुष्य के सांस्कृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत संवैधानिक
व्यवस्थाएँ धर्म, दर्शन, संस्कृति, प्रतिमान, आदर्श मूल्य, सामाजिक परम्पराएँ,
रीति-रिवाज, सामाजिक सम्बन्ध, सड़कें, पुल, भवन, तालाब, आवास, शहर, सुरक्षा,
शिक्षा-केन्द्र, परिवहन स्थल, मनोरंजन स्थल आदि आते हैं।
स्वस्थ पर्यावरण का अर्थ भौतिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण का
प्रदूषण रहित होना है। जल, वायु, मृदा आदि का प्रदूषण आज प्रत्यक्ष रूप से अनुभव
किया जा रहा है। इनके बढ़ते प्रदूषण के कारण नाना प्रकार की प्राणघात बीमारियाँ
फैल रही हैं। फलतः इन्हें प्रदूषण मुक्त करने के उपायों के अवलम्बन पर बल दिया जा
रहा है। किन्तु केवल इनके प्रदूषण मुक्त हो जाने से पर्यावरण स्वच्छ और स्वस्थ
नहीं बन सकता। वैचारिक और नैतिक तथा सांस्कृतिक दूषण तब तक दूर नहीं होगा, हमारा
पर्यावरण स्वस्थ नहीं हो सकता। स्वस्थ पर्यावरण में ही जीवधारी पनप सकते हैं और
उनका स्वाभाविक विकास सम्भव है। अत्तः मानव के स्वस्थ रहने के लिए भी स्वस्थ
पर्यावरण की अनिवार्य आवश्यकता है।
प्रश्न : पारिस्थितिकी
तंत्र क्या है?
उत्तर : 'पारिस्थितिकी तंत्र' शब्द
का प्रयोग प्रथम बार ए. जी. टैनस्ले ने 1935 ई. में किया। टैनस्ले ने पारिस्थितिकी
तंत्र को परिभाषित करते हुए लिखा था जो तंत्र पर्यावरण के समस्त जैविक एवं अजैविक घटकों
का परिणाम है, उसे 'पारिस्थितिकी तंत्र' कहते हैं। जैव समुदाय एक दूसरे से बिल्कुल
अलग होकर नहीं रह सकता। जैव समुदाय उस पर्यावरण में रहता और पनपता है जो उसके जीवनधारण
की सभी वस्तुओं और ऊर्जा की पूर्ति करता है तथा उसके जीवित रहने योग्य समस्त भौतिक
दशाओं को जुटाता है। जैव समुदाय एवं इसके भौतिक पर्यावरण (अजैविक घटक) जिसमें पदार्थ
ऊर्जा प्रवाह (रासायनिक तत्त्व) का चक्र चलता है, 'पारिस्थितिकी' कहलाता है। टैनस्ले
की परिभाषा में केवल जैव-मण्डल ही पारिस्थितिकी तंत्र में सम्मिलित नहीं है अपितु सम्पूर्ण
भौतिक पर्यावरण भी समाविष्ट है। इस दृष्टि से विचार करने पर हमारी पृथ्वी एक वृहदाकार
पारिस्थितिकी तंत्र (Giant Ecosystem) है। प्रकृति में सागर, महासागर, नदी, तालाब,
नदी के महानों, बन, सौर ऊर्जा, पर्वत आदि सभी के अपने-अपने अलग-अलग पारिस्थितिकी तंत्र
हैं।
प्रश्न : पारिस्थितिकी
तंत्र के क्या कार्य हैं?
उत्तर : पारिस्थितिकी तंत्र का कार्यात्मक
पहलू इस बात पर प्रकाश डालता है कि नेसर्गिक परिस्थितियों में पारिस्थितिकी किस प्रकार
कार्य करती या संचालित होती है। कार्यात्मक दृष्टि से पारिस्थितिकी के अजैविक और जैविक
अवयवव प्रकृति में परस्पर में परस्पर इस प्रकार गूँथे हुए हैं कि व्यावहारिक दृष्टि
से उन्हें एक-दूसरे से पृथक करना असम्भव है।
रासायनिक पदार्थ जिनमें जैविक समूह
के आधारभूत तत्त्व प्रोटोप्लाज्मा भी शामिल है का जैव-मण्डल में लगातार चक्र चलता रहता
है। ये रासायनिक पदार्थ पर्यावरण से जीवों में आते हैं और पुनः पर्यावरण में ही लौट
जाते हैं। इस चक्र को सामान्यतः पोषक (natrient) चक्र कहा जाता है जो पारिस्थितिकी
तंत्र के लिए पदार्थ (खनिज) उपलब्ध कराते हैं। उत्पादक (स्वपोषी पादप या पौधे) शक्ति
या ऊर्जा के विकिरण को खनिजों (यथा C, H, N, O, P, K, S) आदि को निर्धारित करते हैं।
उत्पादक इन्हें मिट्टी और पर्यावरण से ग्रहण करते हैं। इस तरह वे कार्बनिक पदार्थ
[कार्बोहाइड्रेट, वसा, लिपिड्स (Lipids), प्रोटीन केन्द्रक, अम्ल) इत्यादि तैयार करते
हैं। उत्पादकों द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा (खाद्य के रूप में) का प्रवाह वृहद उपभोक्ताओं
और अपघटकों (decomposers) की ओर चलता रहता है।
साधारणतया ऊर्जा का प्रवाह गैर-चक्रीय
रूप में अर्थात् एकदिशा होता है। इनका प्रवाह सूर्य से अपघटकों की ओर उत्पादकों और
वृहद उपभोक्ताओं अर्थात् परपोषियों के माध्यम से संचालित है। जबकि खनिज या पोषक तत्त्वों
का चक्रीय प्रणाली के रूप में खनिजों का चक्र विभिन्न प्रकार के जैव, भू-रसायनों
(bio-geo-chemical) पोषकों द्वारा पूरा होता है। ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है।
ऊर्जा का प्रवाह न केवल एकदिशीय होता है अपितु विभिन्न तरह से ऊर्जा नष्ट भी हो जाती
है। इस प्रकार खनिजों का भी क्षरण होता रहता है।
सामान्यतः पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य
से हमारा आशय जैविक ऊर्जा प्रवाह अर्थात् ऊर्जा 'का उत्पादन एवं जीव-समुदाय की श्वसन
की दर है। पोषण चक्र की दर एवं जैविक या पारिस्थितिकी नियम है जिसमें जीवों के द्वारा
पर्यावरण का नियमन या संचालन एवं पर्यावरण द्वारा जीवों का नियमन एवं संचालन दोनों
ही शामिल हैं।
प्रश्न : प्राकृतिक संसाधन
को परिभाषित कीजिये।
उत्तर : प्राकृतिक संसाधन से आशय है
प्रकृतिप्रदत्त संसाधन। ये वैसे संसाधन हैं जो हमें प्रकृति ने दिये हैं और जिनके निर्माण
में मनुष्य का कोई हाथ या योगदान नहीं होता। हवा, पानी, धूप, खनिज पदार्थ (घात्विक
या अधात्विक) महासागर, सागर, झीलें, भू-जल, वर्षा, जल, सतही जल, भूगर्भ जल आदि जलराशियाँ, शक्ति के साधन यथा कोयला,
बेट्रोलियम, सौर्य ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल-विद्युत, प्राकृतिक वनस्पति (वनचरागाह) और पशु संसाधन कुछ
लोग प्राकृतिक संसाधन को भौगोलिक संसाधन भी कहते हैं किन्तु, भौगोलिक संसाधन के अन्तर्गत
सांस्कृतिक संसाधन भी आता है। अतः प्राकृतिक संसाधन को भौगोलिक संसाधन कहना उचित नहीं
है। अधिक से अधिक इसे भौतिक संसाधन कहा जा सकता है।
प्रश्न : वन-विनाश को
परिभाषित कीजिये।
अथवा
वन-विनाश क्या है?
उत्तर: नन् विनाश का अर्थ वनों का घटते
जाना। सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक वनों के क्षेत्रों में क्रमशः कमी आती गयी। बनों
का विनाश प्राकृतिक कारणों, जैसे-बाढ़, अतिवृष्टि, आँधी, तूफान, ओला-वृष्टि, आग आदि
से होता रहा है लेकिन उससे ज्यादा नुकसान मनुष्य के क्रियाकलापों से वनों को पहुंचा
है। मनुष्य ने अपने आवास, कृषि, उद्योग एवं इमारती लकड़ियों के उपयोग अथवा ईंधन के
लिए वनों को काटा एवं विनष्ट किया है। अति पशुचारण से भी बनों को क्षति पहुँची है।
प्रकृति द्वारा वनों को होनेवाले नुकसान को प्रकृति स्वयं शीघ्र पूरा कर देती है परन्तु
जो बन-विनाश मनुष्य के द्वारा किया जाता है उसी क्षतिपूर्ति नहीं हो पाती।
सम्प्रति वनों के विनाश के कारण अनेक
प्रकार की जटिल और गम्भीर पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। पर्यावरण एवं जैव
मण्डल की सुरक्षा और जीवन-चक्र के संचालन के लिए पृथ्वी के कम से कम 33% भूभाग में
वनों का होना जरूरी है किन्तु प्रत्येक देश में वनों का प्रतिशत इस न्यूनतम सीमा से
निरन्तर घटता ही चला जा रहा है। यदि वनों के विनाश को रोका नहीं गया तो न केवल वर्त्तमान
पीढ़ी अपितु भावी पीढ़ी के लिए भयानक संकट उत्पन्न हो जायेगा।
प्रश्न : पर्यावरण के
मुख्य तत्त्वों का नाम लिखें।
उत्तर: पर्यावरण अनेक तत्त्वों या अवयवों
से मिलकर बना है। भारतीय दर्शन में पर्यावरण को जड़ और चेतन दोनों कहा गया है। आधुनिक
विज्ञान पर्यावरण के जड़ अतयव को अजैविक घटक तथा चेतन अवयव को जैविक घटक कहता है। जैविक
को अभौतिक तथा अजैविक को भौतिक घटक भी कहा जा सकता है। वनस्पतिशास्त्री ओस्टिंग ने
पर्यावरण को निम्नलिखित प्रमुख घटकों में बाँटा है-
(1) पदार्थ (मिट्टी+पानी),
(2) दशाएँ (ताप प्रकाश),
(3) बल (पवन+गुरुत्व),
(4) जीव (जन्तु वनस्पति),
(5) काल (ऋतु+समय)।
पर्यावरणविद् डौरनमिर ने पर्यावरण के
सात कारक गिनाये हैं-मिट्टी, हवा, पानी, आग, ताप, रोशनी और जीव-जन्तु।
प्रश्न : जैव विविधता
से क्या तात्पर्य है?
उत्तर : पृथ्वी पर जीवन या जीवों के
वैविध्य और उनकी असंख्य प्रक्रियाओं को 'जैव विविधता' कहा जाता है। जैव विविधता में
पृथ्वी पर विद्यमान सभी प्रकार के जीवों की गणना होती है। पृथ्वी पर एककोशकीय जीवों
से लेकर बहुकोशकीय जटिल जीव तक मौजूद हैं। प्रोटोजोआ, कवक और बैक्टिरिया आदि एककोशीकीय
सरल जीवों के उदाहरण हैं जबकि मनुष्य, वनस्पतेि, पक्षी, मछलियाँ एवं अन्य स्तनधारी
जीव आदि जटिल बहुकोशकीय जीवों के उदाहरण हैं। पृथ्वी पर विद्यमान जीबों एवं वनस्पतियों
की बहुविविधता ही जैव विविधता कहताली है। वर्ल्ड रिस्पैसेज इन्स्टीट्युट की परिभाषा के
अनुसार जैव विविधता का अभिप्राय पृथ्वी के जीवों से है जिनमें अनुवांशिक, प्रजाति
एवं पारिस्थितिकी की विविधता भी सम्बद्ध है। विश्व की प्राकृतिक जीवीय सम्पदा जिन
पर मानव जीवन टिका हुआ है और जिन पर उसकी सम्पन्नता निर्भर है-को ही जैव विविधता कहा
जाता है। इस पारिभाषिक शब्द क अन्तः सम्बन्ध अनुवांशिकी (gene), प्रजाति (species)
और पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystems) से है। अनुवांशिकी या जीन प्रजातियों की संघटक
हैं और जीवों की प्रजातियाँ पारिस्थितिकी तंत्र की संघटक है। इसमें किसी प्रकार के
किसी स्तर पर उत्परिवर्तन का अर्थ अन्य में परिवर्तन होगा। अतः जीवों की
प्रजातियाँ ही जैव विविधता की अवधारणा का केन्द्र है। सरल शब्दों में जैव विविधता
को वाल्टर जी. रॉसेन इस प्रकार परिभाषित किया है-
पादपों, जन्तुओं एवं सूक्ष्म जीवों
के विविध प्रकार और विभिन्नता ही जैव विविधता है।
प्रश्न: वनीय
पारिस्थितिकी तंत्र क्या है?
उत्तर : विश्व का कुल भूक्षेत्र
लगभग 13,076 मिलियन हेक्टेयर है। विश्व के इस भूक्षेत्र के 31% भाग में वनों का
विस्तार है। यह आँकड़ा संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने 1989 ई. में
प्रयुक्त किया था।
वनीय पारिस्थितिकी तंत्र बहुविध
प्रकार की पर्यावरणीय सेवाएँ प्रदान करता है। वनों के माध्यम से ही पोषण चक्र चलता है।
वन ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं। विश्व में कार्बन-चक्र भी वनीय पारिस्थितिकी
तंत्र से नियंत्रित एवं संचालित है। वन जीवीप विविधता को बनाये रखता है। वन
वन्यजीवों को आवास (आश्रय) प्रदान करता है। वन बाढ़ के चक्र को कम करता है। वायु
द्वारा होनेवाले क्षरण को कम करता है। वन अनुर्वर भूमि को उर्वर बनाता है। इसके
अतिरिक्त वनीय पारिस्थितिकी तंत्र अन्य अनेक प्रकार की पर्यावरणोय सेवाएँ प्रदान
करता है। वनों से मंनुष्यों के अनेक मूल्य और मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं। वनों के
कुछ पारम्परिक मूल्य हैं। जैसे-बनों से लकड़ी, फूल, कंदमूल, औषधियाँ और गोंद आदि
प्राप्त होते हैं। बनों के कुछ नये मूल्यों का हाल फिलहाल में अन्वेषण हुआ है।
जैसे-त्रनों से दवाएँ प्राप्त की जाती हैं।
प्रश्न : भू-क्षरण
से आप क्या समझते हैं?
उत्तर : एक इंच मिट्टी के निर्माण
में लगभग 500 वर्ष लग जाते हैं। लेकिन रतिवर्ष भू-क्षरण के कारण पृथ्वी पर से
करोड़ों टन मिट्टी बह जाती है। एक अनुमान के अनुसार -अकेले भारत में चालीस लाख टन
मिट्टी प्रतिवर्ष भू-क्षरण के कारण बर्बाद हो जाती है।
भू-क्षरण का अर्थ : मिट्टी की ऊपरी
परत का बह जाना है। भू-क्षरण तीव्र गति से जलबहाव या प्रबल वेग की वायु के कारण
होता है। भू-क्षरण दो प्रकार के होते हैं-
(i) अवनलिका कटाव जनित (Gully
Erosion) एवं
(ii) सतही कटाव जनित (Sheet
Erosion)
अवनलिका कटाव में जमीन उबड़-खाबड़
हो जाती हैं, नदी-नालों में शीर्ष अपरदन (Arrowhead Erosion) के कारण भूमि खेती और
मानवीय आबास के योग्य नहीं रह जाती। उदाहरण के लिए चंबल घाटी के बीहड़ को ले सकते
हैं। मध्यप्रदेश के भींड भुरैना, राजस्थान के धौलपुर में अवनलिका कटाव के भू-क्षरण
के कारण जमीन अनउपजाऊ के साथ-साथ के रहने लायक नहीं रह गयी है। सतही कटाव में जमीन
की उपजाऊ ऊपर्ग परत बह जाती है। मिट्टी की उपजाऊ परत में अनेक खनिज-घुलनशील लवण
तत्त्व और जीवांश (Humes) होते हैं। भू-क्षरण के कारण जब ऊपरी परत बह जाती है तो जमीन
में फसल उग नहीं पाती, इस समस्या से उत्तर प्रदेश और बिहार जूझ रहा है।
भू-क्षरण के कारण भू-क्षरण के
मुख्य कारण आकस्मिक और तीव्र गति की वर्षा, गर्मी के बाद की वर्षा, भूमि की ढाल,
अत्यधिक पशुचारण, मरुस्थलीयकरण और बनों का अभाव है।
प्रश्न : पर्यावरण
के पार्थिव घटक कौन-कौन से हैं?
उत्तर : पर्यावरण के प्रथम पार्थिव
घटक धरातल की बनावट है जिसे उच्चावच कहते हैं। इसमें पर्वत-पठार और मैदान आते हैं।
इसके अतिरिक्त दूसरा मुख्य घटक भू-रचना अर्थात् भू-वैज्ञानिक रचना हुई है जिन
खनिजों, चट्टानों और मृदा से पृथ्वी बनी है, वे भी पर्यावरण के अंग है। पर्यावरण
का तीसरा मुख्य घटक पृथ्वी की स्थिति है जिसमें उसकी ज्यामितिक परिस्थिति एवं उसकी
अवस्थिति आती है।
प्रश्न: पर्यावरण
अध्ययन की प्रकृति की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर : सामान्यतः पहले पर्यावरण
अध्ययन का विषय पारिस्थितिकी शास्त्र और मानव भूगोल था लेकिन पर्यावरण अध्ययन की
मूल विषय-वस्तु पर्यावरण और भानव अध्ययन के अंतर संबंधों की व्याख्या है। दूसरे
शब्दों में पर्यावरण का मानव पर प्रभाव और मानव का पर्यावरण पर प्रभाव ही
पर्यावरणीय अध्ययन है। आज पर्यावरणीय अध्ययन ही आवश्यकता पर्यावरण के प्राकृतिक
गुणवत्ता के हास के कारण उत्पन्न समस्याओं से संबंधित है। इसलिए पर्यावरणीय अध्ययन
नये रूप में हमारे सामने आया है। पर्यावरणनीय अध्ययन की प्रकृति की पाँच प्रमुख
विशेषताएँ हैं-
(i) पर्यावरणीय अध्ययन बहुविषयक या
अंतरानुशासनिक है।
(ii) पर्यावरण विषय-वस्तु का
अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया जाता है।
(iii) पर्यावरण की विषय-वस्तु
परिवर्त्तनशील और गव्यात्मक है, इसका प्रभाव भी इसी प्रकार का है।
(iv) अघि प्रभाव, स्थान और क्षेत्र
से प्रत्यक्ष संबंध रखते हैं।
(v) प्रभावों की व्याख्या
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रखने पर भी वर्णनात्मक होती है अर्थात् प्रभावों क्यों और
कारण सहित होती है।
पर्यावरण के बहुविषयक होने के कारण
रसायन शाख, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र में भी अलग से पर्यावरणीय रसायन,
पर्यावरणीय भूगोल, पर्यावरणीय मनोविज्ञान, पर्यावरणीय समाजशास्त्र, पर्यावरणीय
अर्थशास्त्र का अध्ययन हो रहा है। इसी प्रकार कानून के क्षेत्र में पर्यावरणीय
नियम और वाणिज्य में व्यावसायिक पर्यावरण की आवश्यकता पड़ रही है। पर्यावरण का
अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों का ज्ञान विशद् होना चाहिये। उसे नीतिशास्त्र,
समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, कृषिविज्ञान, वनस्पतिशास्त्र, रसायनशास्त्र और भूगोल
आदि का गंभीर जानकार होना चाहिए।
प्रश्न : पर्यावरण
के प्रति लापरवाही के दुष्परिणाम लिखें।
उत्तर : पर्यावरण के प्रति बरती
गयी लापरवाही के अनेक दुष्परिणाम हैं जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं (1) वर्षा
में कमी (ii) पेयजल में कमी (iii) मृदा की उपजाऊ शक्ति का हास (iv) खाद्यान्नों की
उपज में कमी (v) मरुस्थलीयकरण में वृद्धि (vi) (vi) अकाल का पड़ना (vii) अनेक
प्रकार के जटिल रोगों का उत्पन्न होना और उससे मृत्यु (viii) जैवविविधता में ह्रास
(ix) संसाधन हास (x) पर्यावरणीय समस्याएँ (xi) पर्यावरणीय संकट (xii) पर्यावणीय
प्रदूषण (xiii) जलवायु परिवर्तन।
प्रश्न : विश्व
सम्मेलन जोहान्सबर्ग 2002 पर लघु टिप्पणी लिखें।
उत्तर : सन् 1992 ई. में ब्राजील
की राजधानी रियोडिजेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन का इक्कीसवाँ
एर्जग अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, इस एजेंडा के मुख्य तथ्य निम्नलिखित थे-
(i) रियोघोषणापत्र
(ii) जैव संरक्षण संधि
(iii) पृथ्वी को हरा-भरा बनाने के संकल्प
(iv) संपोषित विकास। इसके अतिरिक्त पर्यावरण के प्रति लोगों
को जागरूक बनाना भी इस एजेंडे में सम्मिलित था। द्वितीय विश्व पर्यावरणीय सम्मेलन दक्षिण
अफ्रीका के 'जोहान्सबर्ग' में किया गया था। इस सम्मेलन को नाम दिया गया रियो+10। इस
सम्मेलन में भाग लेने वाले सदस्यों ने गरीबी और पर्यावरण की समस्या के निराकरण के लिये
संपोषित विकास पर बल दिया। अतः इस सम्मेलन को सतत् विकास पर सम्मेलन का नाम दिया गया।
यह सम्मेलन सतत् बिकास पर जन चेतना को जगाने में सफल रहा। इस सम्मेलन ने विकसित देशों
जैसे-संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, जर्मनी और आस्ट्रेलिया ने पर्यावरण अबनयन के लिये
विकासशील देशों को ही पर्यावरण अवनयन के लिये दोषी माना।
प्रश्न : 'चिपको आन्दोलन' की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर : सन् 1973 ई. में 'पंडित सुंदरलाल बहुगुणा' के नेतृत्व
में तत्कालीन उत्तर प्रदेश और आज के उत्तरांचल राज्य के चमोली जिले में एक आन्दोलन
का सूत्रपात हुआ। पहले-पहल इस आन्दोलन का उद्देश्य पेड़ों को कटने से बचाना था। इसके
लिये जहाँ वनों की कटाई होती थी वहाँ लोग पेड़ों से चिपक कर पेड़ों को कटने से बचाते
थे। अतः इस आंदोलन का नाम 'चिपको आन्दोल' पड़ गया। बाद में इस आंदोलन का उद्देश्य समस्त
प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो गया।
प्रश्न : निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
(i) डॉ. सुंदरलाल बहुगुणा (ii) बाबा आमटे (iii) मेघा पाटेकर
(iv) अरुन्धती राय (v) पांडुरंग हेगड़े।
उत्तर :
(i) डॉ. सुंदरलाल बहुगुणा : 'डॉ. सुंदरलाल बहुगुणा' 'चिपको आंदोलन' 1973 और पर्यावरण
एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के समर्पित नेतृत्वकर्ता थे। 'चिपको आंदोलन' के
फलस्वरूप भारतवर्ष में वनों की अंधाधुंध कटाई पर बहुत हद तक रोक लगी और पहली बार भारतवासी
प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति सचेत बने।
(ii) बाबा आमटे : बाबा आमटे एक बहुचर्चित नाम है। ये मेधा पाटेकर के सहयोगी
हैं और "नर्मदा बचाओ' आंदोलन से जुड़े हुए हैं।
(iii) मेधा पाटेकर: मेघापाटेकर का नाम 'नर्मदा बचाओं' (मध्यप्रदेश) आंदोलन के
सिलसिले में लोगों के सामने आया। 'मेधा पाटेकर' ने बड़े बाँधों के खिलाफ आवाज उठायी
और लोगों का ध्यान उसके खतरों की ओर आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि बड़े बाँधों से
बहुत बड़ा विस्थापन होता है और पुनर्वास की जटिल समस्या उत्तपन्न होती है। 'डूब क्षेत्रों
में वृद्धि होती है। पानी का खारापन बढ़ता है जिससे कृषि योग्य भूमि भी नष्ट हो जाता
है। 'सरदार सरोवर बाँध' परियोजना के खिलाफ भी वे मुखर रहीं। मेधा पाटेकर ने 'नर्मदा'
को बचाने के लिए सत्याग्रह किया, जेल गयीं और सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर
कर लंबी लड़ाई लड़ी और अंततः अपने उद्देश्यों में सफलता पायी।
(iii) अरुन्धती राय: अरुन्धती राय का नाम सर्वप्रथम साहित्य के 'ब्रक्स' पुरस्कार
पाने के कारण चर्चा में आर्यों। बाद में वे लेखन कर्म के साथ-साथ मानवाधिकार के कामों
से भी जुड़ गयीं। अरुन्धती राय मेधा पाटेकर की सहयोगिनी बन गयी और 'नर्मदा बचाओं' अभियान
से जुड़ गयी। उनका संघर्ष आदिवासियों के हितों की रक्षा और जैव विविधता का संरक्षण
हो गया।
(iv) पांडुरंग हेगड़े : 'श्री पाडुरंग हेगड़े' ने चिपको आंदोलन की तरह ही कर्नाटक
में 'एप्पिको आंदोलन' चलाया। इस आंदोलन का उद्देश्य बनों का विकास और संरक्षण है।
प्रश्न : शांत घाटी आंदोलन पर टिप्पणी
लिखिये।
उत्तर : 'शांत घाटी आंदोलन' केरल राज्य में शुरू हुआ था। इस
राज्य में जलविद्युत परियोजना चालू की गयी थी, जिसके विरोध में यह आंदोलन चलाया
गया। आंदोलनकर्त्ताओं का कहना था कि इस परियोजना से जैव विविधता को बहुत भारी हानि
पहुँच रही है। आंदोलनकारियों की माँग पर सरकार ने इस परियोजना को बंद कर दिया। और
जिस स्थल पर यह परियोजना शुरू होनेवाली थी, उस क्षेत्र को 'आरक्षित वनक्षेत्र'
घोषित कर दिया। इस तरह सरकार ने उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में बनों को संरक्षित और
समृद्ध रखने का ठोस प्रयास किया है।
प्रश्न : वन विनाश के प्राकृतिक कारण कौन-कौन
से हैं?
उत्तर: वनों के विनाश का मुख्य कारण प्राकृतिक आपदा भी है।
भू-क्षरण, भू-स्खलन, बाढ़, आँधी आदि से वनों का व्यापक पैमाने पर विनाश होता है।
बनों में आपसे आप या कई अन्य कारणों से आग भी लगती रहती है। वनों की आग को बुझाना
बहुत कठिन होता है। आग लगने से बनों की व्यापक क्षति होती है। सारंडा वन (झारखण्ड)
में लगी आग पर मुश्किल से काबू पाया जा सका। ऑस्ट्रेलिया के वनों में लगी आग
(1994-95) से पचास हजार हेक्टेअर वन जल गया था।
प्रश्न : 'झूम खेती' या स्थानान्तरित खेती या
'झूमिंग' खेती क्या है?
उत्तर : स्थानांतरित खेती (झूम या झूमिंग खेती) का मतलब है
वृक्षों और झाड़-झंखाड़ को जलाकर खेती के लायक जमीन तैयार करना। यह खेती जले हुए
वृक्षों की राख में दो-तीन वर्ष तक की जाती है। उसके बाद किसान उस क्षेत्र को
छोड़कर दूसरे क्षेत्र में इसी तरह की खेती करते हैं। कृषि की इस पद्धति को
स्थानांतरित खेती या झूमिंग खेती कहते हैं। कृषि की यह पद्धति उत्तरी-पूर्वी भारत,
अंडमान निकोबार द्वीप समूह तथा दक्षिण भारत के जनजातीय समूहों में अत्यधिक
लोकप्रिय है।
प्रश्न : वनों को कृषि की माँ क्यों कहा जाता
है?
उत्तर : आज खेतों में जितने प्रकार की फसलें उगायीं जाती
हैं, या फल सब्जियाँ उगायी जाती हैं उन सबों का मूल स्थान वन ही है, वनों से चुनकर
ही हमारे पूर्वजों ने इनको खेतों में उगाना और उपयोग करना सीखा था। यही कारण है कि
वनों को कृषि का माँ कहा जाता है और यह कथन शत प्रतिशत सही है।
प्रश्न : बड़े बाँधों की समस्याओं पर लघु
टिप्पणी लिखिये।
उत्तर : बड़े बाँधों का निर्माण प्रायः बड़े क्षेत्रों में
किया जाता है। बड़े बाँध प्रायः जिन विस्तृत भूखंडों में बनाये जाते हैं, वे भूखंड
वनों के क्षेत्र होते हैं। इन बन क्षेत्रों में आदिम जातियों एवं आदिवासियों का
निवास होता है। बाँध बनाने के क्रम में जब वन उजाड़ दिये जाते हैं तब कई प्रकार की
समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं, जिनमें से प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
(i) बन में रहने वाली आदिम एवं आदिवासियों की पुनर्वास की
समस्या।
(ii) वन क्षेत्र के हास की समस्याएँ।
(iii) डूब क्षेत्र के निवासियों की पुनर्वास की समस्या।
(iv) जल लग्नता की समस्या।
(v) भूकंप की समस्या।
(vi) बाढ़ की समस्या।
(vii) राजनीतिक विवादों की समस्याएँ।
(viii) अन्य समस्याएँ।
(i) वन में रहनेवाली आदिम एवं आदिवासियों की पुनर्वास की
समस्या : जंगलों में आदिम से
ही आदिवासी और आदिम जाति रहते आये हैं। वन इनके लिये आश्रय भी है और जीविकोपार्जन
का साधन भी है। वनों में इन लोगों ने अपनी विशिष्ट संस्कृति भी विकसित कर ली है।
वनों के उजड़ने के कारण न केवल इनका आश्रय छिन जाता है बल्कि जीविकोपार्जन के साथ-साथ
इनकी संस्कृति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। इस तरह वनोन्मूलन के कारण इनके अस्तित्व
पर संकट व्याप्त हो जाता है। इनके अस्तित्व की रक्षा, पुनर्स्थापना और इनकी
संस्कृति को बचाने की जटिल समस्या बड़े बाँधों के निर्माण के कारण उत्पन्न हुई है।
(ii) वन क्षेत्र के ह्रास की समस्याएँ: यह स्पष्ट है कि बड़े बाँध बनाने के कारण जलभूमि
जलाक्रांत हो जाती है, फलस्वरूप वनों को भारी क्षति उठानी पड़ती है।
(iii) डूब क्षेत्र के निवासियों की पुनर्वास की समस्या: वड़े बाँध का पानी कई कारणों से आस-पास के इलाकों और
गाँवों में फैल जाता है। जो क्षेत्र बाँधों के डूब क्षेत्र में आ जाते हैं वहाँ के
लोगों की घर-गृहस्थी नष्ट होने लगती है। इसलिए डूब क्षेत्र के लोग आस-पास के शहरों
या कस्बों में बसने लगते हैं जिससे वहाँ की जनसंख्या अचानक बढ़ जाती है। तरह-तरह
की समस्या उत्पन्न होती है जिसमें से प्रमुख समस्या पर्यावरण ह्वास की है।
(iv) जलमग्नता की समस्या: बड़े बाँधों के रिसने के कारण उसके प्रवाह क्षेत्र में
पानी का जमाव बढ़ने लगता है। जल जमाव या जलमग्नता के कारण वह इलाका दलदली क्षेत्र
में बदल जाता है जिससे बाँधों से होने वाले लाभ की जगह हानि अधिक होती है। इसका
ताजा उदाहरण 'तवा' बाँध बनने से होसंगाबाद जिले का दलदली क्षेत्र में बदल जाना है।
बड़े बाँधों से जिन क्षेत्रों में सिंचाई अधिक होती है, या अधिक वर्षा होती है उन
क्षेत्रों में भू-जलस्तर अधिक ऊँचा उठ जाता है।
(v) भूकंप की समस्या: बड़े बाँध में स्थानविशेष पर अधिक पानी का संग्रहण होता
है, जिसके कारण भू-संतुलन की समस्या खड़ी हो जाती है। बहुत से विद्वानों का विचार
है कि 'कोयना' में जो भूकंप आया था, वह कोयना बाँध के कारण आया था। इसी तरह गढ़वाल
में आये भूकंप का कारण 'टिहरी बाँध परियोजना' था।
(vi) बाढ़ की समस्या : वर्षा काल में अधिक वर्षा के कारण बड़े बाँधों का पानी
बाँध को तोड़कर बहने लगता है और आस-पास के क्षेत्रों में भयंकर बाढ़ आ जाती है।
इतिहास में इसके कई उदाहरण हैं।
(vii) राजनीतिक विवाद : बाँधों की ऊँचाई या उसके पानी के बँटवारे को लेकर दो
देशों या दो राज्यों के बीच राजनीतिक विवाद उग्र हो जाता है। राज घाट बाँध को लेकर
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ऐसा ही बिवाद छिड़ गया था। इस बाँध के बनने से
मध्यप्रदेश का इलाका डूब क्षेत्र में पड़ गया है। इसके कारण भू-जलस्तर के उठाव का
लाभ दूसरे राज्यों को मिल जाता है। ऐसी ही समस्याओं को जन्म नर्मदा बाँध और टिहरी
बाँध ने दिया है।
(viii) अन्य समस्याएँ: बड़े बाँधों से सम्बन्धित कुछ अन्य 'बड़ी समस्याएँ
निम्नलिखित हैं-विस्थापन एवं पुनर्वास की समस्या, बाँधों की अकाल मृत्यु, गाद का
जमा होना, पानी के उचित निष्कासन की समस्या, गहरे पानी में मीथेन गैस की अधिकता,
मच्छरों की अधिकता इत्यादि।
प्रश्न : भारत में बाढ़ आने के कारणों की
विवेचना कीजिए।
उत्तर : भारतवर्ष में बाढ़ आने का मुख्य कारण नदियों में
अत्यधिक गाद का जमा होना है। ब्रह्मपुत्र, दिहांग, लोहित, गंगा एवं यमुना नदियों
में अत्यधिक गाद जमा हो गया है, जिसके कारण ये नदियाँ उथली हो गयी है। फलस्वरूप इन
नदियों के प्रवाह क्षेत्र में भयानक बाड़ें आती हैं।
भारत में बाढ़ आने का दूसरा कारण अपवाह मार्गों का अवरोध
है। शुष्क और अर्द्धशुष्क भागों में वर्षा कम होती है। वर्षा कम होने के कारण
अपवाह का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है।
जब कभी वर्षा तीव्र होती है तो वर्षा का पानी निकल नहीं
पाता। ऐसी स्थिति में बाढ़ आती है। पंजाब और राजस्थान में बाढ़ आने का मुख्य कारण
यही है।
बाढ़ आने का प्रमुख कारण वनस्पतियों का ह्रास भी है।
वनस्पतिविहीन धरातल में भू-क्षरण अधिक होता है। इसके कारण भी बाढ़ आती है। भूमि के
अधिक समतल होने के कारण भी बाढ़ आती है। समतल भूमि में नदियाँ सर्पाकार मार्ग
बनाती है। इसके एक तट पर कटाव होता है और दूसरे तट पर जमाव होता है तथा इसके छाड़न
झीलें बनाती है। बाढ़ के समय नदियों का मार्ग बदल जाता है और वह सीधा हो जाता है।
दानोदर नदी अपने मार्ग परिवर्तन के लिए प्रसिद्ध है। उत्तरप्रदेश तथा बिहार में
इसी प्रकार की बाढ़ आती है।
दक्षिण भारत की नदियाँ 'गोदावरी', 'कृष्णा', 'कावेरी',
'महानदी' और 'ब्राह्मणी' वर्षा ऋतु में अधिक जल बहाकर लाती है। इन नदियों के
मुहाने पर डेल्टा जमा होने के कारण पानी निकलने का मार्ग नहीं मिल पाता जिससे
मुहानों पर तेज बाढ़ आती है।
बाढ़ का मूल कारण मैदानी भागों में मार्ग परिवर्तन, अवसाद
के जमा होने से नदियों का उथला होना, नदियों की ऊपरी घाटी में अधिक वर्षा होना।
तटवर्ती भागों में तूफानी जर्षा होना, अत्यधिक भू-क्षरण एवं प्राकृतिक आपदाएँ।
इसके अतिरिक्त बाढ़ आने के मानवीय कारण भी है। मनुष्य द्वारा गदियों के किनारे और
ऊपरी भागों में वृक्षों की कटाई, नदी के किनारे बड़ी कॉलोनियों का बसना, सिंचित
क्षेत्रों में पानी निकलने की समुचित व्यवस्था का न होना और अत्यधिक पशुचारण से भी
मरुस्थलीयकरण में वृद्धि या बाँधों का टूटना एवं फूटना भी।
प्रश्न : बाढ़ के नियंत्रण के उपायों का
उल्लेख करें।
उत्तर : बाढ़ के नियंत्रण करने के लिए सुनिश्चित योजना
बनाने की जरूरत है। सर्वप्रथम जिन नदियों में गाद (silt) का भारी जमाव हो गया है,
उसके समुचित सफाई की व्यवस्था होनी चाहिए। नदियों के तटों पर वृक्षारोपण किया जाना
चाहिए। बड़े पैमाने पर वनरोपण का कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए। बड़े-बड़े बाँधों की
जगह नदियों पर छोटी-छोटी बाँधिकाओं (Check Dame) का निर्माण कराया जाना चाहिए।
भू-क्षरण को रोकने के लिए कारगर उपाय किया जाना चाहिए।
प्रश्न : बाढ़ और सूखा से क्या आशय है?
उत्तर : नदियों द्वारा अपने किनारों को तोड़कर बहने का नाम
ही बाढ़ है। ऐसा अत्यधिक वर्षा के कारण होता है या फिर हिमनदियों के पिघलने के
कारण नदियों के पानी का तल ऊपर उठ जाता है। इसे ही बाढ़ की स्थिति कहते हैं।
सूखा ठीक इसके उलट की स्थिति है। औसत वर्षा से कम होना या
बिल्कुल न होना अनावृष्टि कहलाता है। अनावृष्टि के कारण कृषि और हरियाली बुरी तरह
प्रभावित होती है। हरियाली सूख जाती है, फसल मारी जाती है और पानी का भयानक अभाव
हो जाता है इसे ही सूखा की स्थिति कहते हैं।
प्रश्न : भारत विश्व के किन-किन खनिजों में
अति समृद्ध है?
उत्तर : भारत लोहा, टाइटैनियम, अभ्रक और थोरियम में
सर्वाधिक समृद्ध है। मैंगनीज, बॉक्साइट, मोनोजाइट, ग्रेनाइट, मेगनेसाइट, बेरिलियम,
सिलिका, हरसौठ और घियापत्थर ऐसे खनिज है जिनका निर्यात भारत करता है।
प्रश्न : वर्त्तमान युग में खनिजों के
महत्त्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर : खनिज संसाधन आदिकाल से ही महत्त्वपूर्ण रहें हैं।
खनिजों के महत्त्व को दर्शाता हुआ, ऐतिहासिक कालों के नाम जैसे-लौह-युग, ताम्रयुग,
कांस्ययुग, स्वर्णयुग आदि हैं। वर्त्तमान युग की सभ्यता तो खनिज संसाधन पर ही टिकी
हुई है। आज के विश्व के किसी भी देश की आर्थिक और औद्योगिक प्रगति की रीड़ खनिज
संपदा ही है। खनिजों का उपयोग हम भोजन, नमक, आयोडिन, फ्लोरिन से लकर औषधियों तक
में करते हैं। इसके अतिरिक्त परिवहन, मशीनों एवं अनेक प्रकार के गसायनिक पदार्थों
के निर्माण में खनिजों का ही उपयोग होता है। किसी भी देश का औद्योगिक विकास वहाँ
पाये जाने वाले खनिज संसाधनों की उपलब्धता एवं उपयोग पर निर्भर करता है। वर्तमान
समय में इसका महत्त्व इस बात से भी परिपादित होता है कि खनिज संसाधनों का परिचालन
किसी भी अन्य संसाधन से बहुत अधिक होता है। आज मनुष्य प्रकृति का सबसे शक्तिशाली
जीव इसलिए माना जाता है क्योंकि वह खनिजों के उपयोग में सर्वाधिक समर्थ है। भविष्य
का संकेत है कि आणविक खनिजों के उपयोग से मनुष्यों के हाथ में अपार शक्ति आ
जायेगी। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने वर्तमान सभ्यता को 'खनिजों की सभ्यता'
कहा है।
प्रश्न : संतुलित भोजन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर : संतुलित आहार का अर्थ है कि एक व्यक्ति प्रतिदिन जो
कुछ खाता है उसमें पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, विटामिन और खनिज होना चाहिए। एक
व्यक्ति को प्रतिदिन अपने आहार से लगभग पच्चीस सौ पचास (2550 CI) कैलोरी प्राप्त
होना चाहिए तभी वह स्वस्थ हो सकता है।
संतुलित आहार तालिका नीचे प्रस्तुत की जा रही है-
संतुलित आहार के अवयव
उपर्युक्त तालिका के अनुसार भोजन करने से मनुष्य स्वस्थ रह सकता
है, उसे अपने कामो को संपादित करने में पर्याप्त ऊर्जा मिल सकती है।
प्रश्न : खनन क्रम को प्रकृति पर 'आर्थिक डकैती'
क्यों कहते हैं या खनिज संसाधनों के शोषण से उत्पन्न समस्याओं पर लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : खनिज अनविकरणीय संसाधन है। एक बार उपयोग में लाये जाने
के बाद वह सदा के लिए समाप्त हो जाता है। इसीलिए भूगर्भशास्त्रियों का अभिमत है कि
खानें खोदकर खनिज निकाल लेना एक प्रकार की आर्थिक डकैती है।
वर्तमान समय में हर देश अपने खनिज संसाधनों के अधिकाधिक शोषण
में लगा हुआ है क्योंकि उस देश की औद्योगिक प्रगति खनिजों पर ही निर्भर है। जिस गति
और दर से इस समय खनिजों का उपयोग हो रहा है उससे तो यही लगता है कि बहुत से देशों के
खनिज संसाधन अगले सौ-दो सौ वर्षों में
चूक जायेंगे। फलस्वरूप अगली पीढ़ी के लिए कुछ भी नहीं बचेगा और वह कंगाल हो
जायेगी।
अकेले अगर भारत की ही उदाहरण लें तो स्थिति की भयावहता
सामने आ जायेगी। यदि 1994-95 के उत्पादन स्तर को आधार मान लिया जाय तो चूनापत्थर
446 वर्ष, बॉक्साइट 301 वर्ष, निम्न श्रेणी का लोहा 98 वर्ष, उच्च श्रेणी का लोहा
32 वर्ष, कुकिंग कोक 93 वर्ष, जस्ता 50 वर्ष, सीसा 38 वर्ष, ताँबा 36 वर्ष और सोना
10 वर्ष के भीतर समाप्त हो जायेंगे।
प्रश्न : हरित क्रांति पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर : स्वतंत्रताप्राप्ति के साथ भारत को भयानक खाद्यन्न
समस्या से जूझना पड़ा। जूझना पड़ा। विभाजन के बाद अधिक गेहूँ उत्पादित करने वाला
क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया। इसलिए उसे तो खाद्यन्न की समस्या से निपटना नहीं
पड़ा लेकिन भारत के अनेक वर्षों तक बाहर से खाद्यान्नों का आयात करना पड़ा। इसी
क्रम में अमेरिका से PL-480 के अन्तर्गत भारत ने अनाजों का आयात किया था। 1964-65
ई. के मध्य भारत में हरित क्रांति की शुरूआत हुई थी। भारत सरकार ने कृषि पर अधिक
जोर दिया। खाद्यान्नों के अधिक उत्पादन हेतु सिंचाई के साधन, रासायनिक उर्वरक,
कीटनाशक दवाओं एवं यंत्रों का प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर होने लगा, जिसके
परिणामस्वरूप 1977 ई. आते-आते भारत की खाद्य समस्या का न केवल निवारण हो गया अपितु
भारत खाद्यान्न के मामलें में आत्मनिर्भर भी बन गया। भारत में इसे कृषि के क्षेत्र
में 'हरित क्रांति' का नाम दिया गया।
विश्व स्तर पर भी हरित क्रांति घटित हुई। कृषि उत्पादन को
बढ़ाने के लिए फसलों की नयी-नयी किस्में विकसित की गयीं, जिनकी उत्पादन क्षमता
पुरानी एवं देशी जातियों की तुलना में कई गुणा अधिक थीं। कम समय में पकने वाली
फसलों की प्रजातियाँ भी विकिसत की गर्मी, जिसके आधार पर एक फसल क्षेत्र को दो फसली
और त्रिफसली क्षेत्रों में विकसित किया गया। रासायनिक खादों में नये अनुसंधानों के
फलस्वरूप कृषि का उत्पादन हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप बढ़ा है। हरित क्रांति के
कारण न केवल भारत बल्कि विश्व के अनेक देश खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर हो
गये।
प्रश्न : जलमग्नता की समस्या क्यों है? इसके
कारण क्या है?
उत्तर : जब भू-जल सतही जल के बराबर हो जाता है तब जलमग्नता
की समस्या उत्पन्न होती है। जलमग्नता का कारण, अत्यधिक वर्षा, सिंचाई और बाँधों का
पानी होता है। इसके कारण जमीन दलदली और आर्द्रतायुक्त तथा न सूखने वाली हो जाती
है। मध्यप्रदेश में दो बाँध तवा और बारना बनाये गये। उम्मीद की गयी थी कि इन
बाँधों से मध्यप्रदेश का कायाकल्प हो जायेगा लेकिन इसका असर उल्टा हुआ। बाँधों से
निकलनेवाली नहरों से होशंगाबाद जिला जलमग्नता का शिकार हो गया। भाखड़ा नहर के कारण
भी उसके प्रभाव क्षेत्र में भूमिगत जलस्तर प्रतिवर्ष एक मीटर की दर से बढ़ जा रहा
है। इसके कारण जलमग्नता की समस्या उत्पन्न हो गयी। उत्तर प्रदेश भी जलमग्नता का
शिकार है। जलमग्नता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
(i) अत्यधिक सिंचाई (ii) अत्यधिक वर्षा (iii) नहरों, नदियों
की अधिकता (iv) बाँधों, तालाबों से रिसाव (v) मोटे कणों बालों मिट्टी की प्रकृति
(vi) विशेष समतल उच्चावच (vii) अवैज्ञानिक कृषि इत्यादि।
प्रश्न : प्रमुख कीटनाशक दवाईयों के नाम
लिखिए।
उत्तर : डी.डी.टी., बी.एच.सी., 2.4 डी के, ई.डी.बी.,
ई.पी.एन., डर्सवेन इत्यादि ।
प्रश्न: कीटनाशकों की मानव तक पहुँच किस
प्रकार होती है?
उत्तर : कीटनाशकों दवाइयाँ मनुष्य के शरीर में दो प्रकार से
पहुँचते हैं-प्रत्यक्ष रूप से और अप्रत्यक्ष रूप से, कीटनाशक दवाइयों को खाने,
छूने, सूँघने से उसका घातक असर होता है और उससे मनुष्य की मृत्यु तक हो जाती है।
अप्रत्यक्ष रूप से कीटनाशक दवाइयाँ जब भोजन श्रृंखला में
शामिल हो जाती हैं तो वनस्पतियों और पशुओं के माध्यम से सूक्ष्म रूप से मनुष्य के
शरीर में प्रविष्ट हो जाती है और धीरे-धीरे मनुष्य के शरीर में घातक बीमारियाँ
पैदा करती हैं। जब कीटनाशक दवाईयों का छिड़काव पेड़-पौधों पर किया जाता है या
उन्हें जमीन या पौधों पर भुरकाया जाता है तब इन दवाइयों का अवशोषण पौधों का फसलों
द्वारा कर लिया जाता है। इन्हीं पौधों, पत्तियों, घासों आदि को पशु-पक्ष खा जाते
हैं। पशु-पक्षियों के मनुष्य के द्वारा मांसाहार के कारण कीटनाशक का असर उन तक
पहुँचता है। इसी तरह पक्षियों, पशुओं के अंडे और दूध के माध्यम से भी कीटनाशक का
संक्रगण मनुष्य के शरीर में होता है। सब्जी, दाल, तिलहन, अनाज और फूल-फल भी मनुष्य
के शरीर तक कीटनाशकों के प्रभाव को पहुँचाते हैं। इसी तरह भूमि उपचार या जल उपचार
में प्रयुक्त कीटनाशक दवाइयाँ जल से होते हुए जूँ एवं काईटोप्लेनटनपो एवं मछलियों
के माध्यम से मानव शरीर में पहुँचती है और मानव में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न
करती है।
प्रश्न: जीवाश्म ईंधन क्या है?
उत्तर : कोयला, लिग्नाइट, कच्चे खनिज तेल और प्राकृतिक गैस
को जीवाश्म ईंधन कहते हैं। इन सबका निर्माण अरबों-अरबों वर्ष पूर्व धरती के नीचे
पेड़-पौधों के दब जाने के कारण हुआ। चूंकि वनस्पति सजीव होती है। अतः इन जीवों से
उत्पन्न इन ईंधन को फॉसिल्स (Fossils) या फूयेल (Fuel) कहते हैं।
प्रश्न : वर्त्तमान युग में ऊर्जा के प्रमुख
संसाधन और उनका वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर : ऊर्जा संसाधन को समाप्य और असमाप्य आधारों पर दो
बड़े वर्गों में विभक्त किया गया है। समाप्य संसाधनों में कोयला, पेट्रोलियम,
प्राकृतिक गैस और आणविक ईंधन की गिनती होती है। बहता पवन, जल सौर्य, ज्वारीय और
गुरुत्वाकर्षण शक्ति की ऊर्जा को असमाप्य ऊर्जा कहते हैं।
जैविक और अजैविक आधार पर ऊर्जा के दो प्रमुख भाग हैं।
मनुष्य एवं पशुओं की ऊर्जा को जैविक ऊर्जा कहते हैं जबकि शेष अन्य जैसे कोयला,
खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, पवन, जल, सूर्य और भूगर्भीय ऊर्जा को अजैविक ऊर्जा कहते
हैं।
प्रश्न : वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों और उनका
भविष्य बताइए।
उत्तर : वर्तमान समय में ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोत कोयला,
पेट्रोलियम आदि पदार्थ हैं। ऊर्जा के इन संसाधन के अगले सौ वर्षों में समाप्त हो
जाने का अनुमान है। इसीलिए ऊर्जा संकट के भविष्य को लेकर विश्व के लोग बहुत अधिक
चिंतित है। इसी कारण वैज्ञानिक वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों की खोज में लगे हुए हैं।
अभी तक निम्नलिखित वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों की खोज की जा चुकी है-
(i) नाभिकीयविखंडन (ii) चुंबकीय द्रवगति प्रक्रिया (iii)
भूतापीय शक्ति (iv) ज्वार शक्ति (v) वायु शक्ति (vi) सौर ऊर्जा (vii)
गुरूत्वाकर्षण शक्ति (viii) लहर ऊर्जा (ix) बायो गैसे आदि।
ऊर्जा के इन स्रोतों का प्रयोग अभी तक छोटे पैमाने पर ही
सम्भव हुआ है लेकिन निकट भविष्य में इसके वृहत्तर उपयोग की सम्भावनाएँ प्रबल हैं।
वैज्ञानिक वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के सुरक्षित, सफल, बृहत्तर और व्यापक उपयोग की
सम्भावनाओं को तलाशने में जुटे हुए हैं।
प्रश्न : भारत में सौर ऊर्जा उत्पादन की
विपुल संभावनाएँ हैं। सिद्ध कीजिए।
उत्तर : भारत उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पड़ता है। इसलिए
सौर्य ऊर्जा की दृष्टि से यह देश अत्यंत समृद्ध है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में
भी इसका उपयोग प्रारम्भ हो गया है।
प्रश्न : आदि युग से लेकर आज तक ऊर्जा के
मुख्य संसाधनों के स्त्रोत के बारे में लिखिए।
उत्तर : आदि युग से लेकर आज तक ऊर्जा या शक्ति संसाधन का
महत्त्व बना हुआ है और भविष्य में भी बना रहेगा। आदि युग में मनुष्य स्वयं ही
ऊर्जा का संसाधन था। शक्ति का दूसरा संसाधन पशु बना। लकड़ी जला कर आग उत्पन्न करना
मनष्य ने सीखा। इससे उसे शक्ति का नया स्त्रोत प्राप्त हुआ। आगे चलकर मनुष्यों ने
रासायनिक ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बहते जल से यांत्रिक ऊर्जा आदि का विकास किया। वर्तमान
समय में कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ, प्राकृतिक गैस, ज्वार-भाटा, सौर्य शक्ति और
नाना प्रकार के ईधनों और आणविक विखंडनों से शक्ति प्राप्त की जा रही है।
प्रश्न : मृदा संरक्षण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर : मृदा या मिट्टी ऊपर से जड़ दिखती है लेकिन वह चेतन
एवं सजीव है। मृदा में अपार ऊर्जा निहित है। मृदा की उर्वरा शक्ति इसमें उपस्थित
पोषक तत्त्वों से आती है। इसकी भौतिक संरचाना भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है।
वस्तुतः भूमि या मृदा संसाधन कृषि और मानव सभ्यता की जननी है। हमारे शास्त्रों में
पृथ्वी को माता और मनुष्य को उसका पुत्र कहा जाता है। पृथ्वी की ऊपरी सतह की मृदा
कृषि के दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। मृदा संसाधन के महत्त्व की
सर्वप्रथम व्याख्या 'मृदा विज्ञान' के जनक रूसी वैज्ञानिक 'डाकूशेव' ने की।
उन्होंने मृदा की परिभाषा निम्नलिखित रूप से दी है-
"शैल अथवा खनिज पदार्थ, जीवांश (Humus) के साथ
वैक्टिरिया (Bacteria) विचरण ही मृदा है। इस संसाधन की उर्वरता को संरक्षित रखना
अपरिहार्य है। मिट्टी द्वारा उत्पादन के व्यवसायों में संसार की लगभग 80% जनसंख्या
लगी हुई है। मृदा सबसे बड़ी प्राकृतिक संपति है। मृदा जड़ को चेतन में बदलती है।
अतः वह समस्त पारिस्थितिकी तंत्र का महत्त्वपूर्ण अंग है।"
प्रश्न : वायुरोधी 'हरित पट्टी' से क्या आशय
है?
उत्तर : वृक्ष भूमि के वाष्पनोत्स्वेप्ल ह्रास करके मिट्टी
में नमी बनाये रखते हैं और बायु गतिरोध उत्पन्न कर उसे धीमा कर देते हैं। प्रयोगों
से निष्कर्ष निकला है कि 50 कि.मी. प्रति घंटे से चलने वाली वायु की गति का 10
मीटर ऊँची सघन लता वृक्षावली उसे 15 कि.मी. प्रति घंटे की गति से परिवर्तित कर
देता है। अतः संरक्षण वृक्षावलियाँ मरुस्थलीय प्रसार को रोक सकती है।
प्रश्न : भू-स्खलन किसे कहते हैं?
उत्तर : भू-स्खलन एक प्राकृतिक घटना है। भू-स्खलन के कारण
भूमि का उपयोग सीधा प्रभावित होता है। भू-स्खलन की घटनाएँ और संभाबनाएँ पर्वतीय
क्षेत्रों में अधिक होती हैं। हिमालय पर्वत के ढालू भागों में भू-स्खलन देखा जाता
है। चट्टानों का नीचे खिसकना ही भू-स्खलन है। भू-स्खलन प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों
कारणों से हो सकता है। भू-स्खलन के कारण सड़कें अवरुद्ध हो जाती है। बाँध टूट जाते
हैं तथा गाँव और शहर नष्ट हो जाते हैं। भू-स्खलन का सबसे बड़ा प्राकृतिक कारण
भूकंप है। वनों के ह्रास, जल के रिसाव, अपक्षय, भू-क्षरण तथा अधिक वृष्टि के कारण
भी भू-स्खलन होता है। इसी तरह सड़क निर्माण उत्खनन, सुरंग, बाँध एवं जलाशय आदि
मानवीय क्रियाओं से भी भू-स्खलन को बढ़ावा मिलता है। भू-स्खलन के कारण उपजाऊ भूमि
बर्बाद हो जाती है और उसके, उपजाऊ तत्त्व बाहर निकल जाते हैं।
प्रश्न : भारत में भू-क्षरण पर एक टिप्पणी
लिखिये।
उत्तर : गर्मी के कारण हमारे यहाँ पृथ्वी पर की हरियाली
समाप्त हो जाती है। भू-सतह पर से घास और वानस्पतिक आवरण घट जाता है जिससे जो जड़ें
मिट्टी को पकड़े रहती हैं, वे कमजोर पड़ जाती हैं। इसके कारण भू-क्षरण बढ़ता है।
भारतवर्ष में भीषण गर्मी के बाद मानसून में एकाएक मूसलाधार वर्षा शुरू हो जाती है
जिससे भू-क्षरण की घटन में वृद्धि होती है।
कुछ खास किस्म की मिट्टियाँ में संयोजन क्षमता (cementing
capacity) बहुत कम होती है। जैसे लाल-पीली और जलोढ़ मिट्टी में संयोजन क्षमता बहुत
कम होती है। इस तरह की मिट्टी वाले इलाकों में भू-क्षरण बहुत अधिक होता है। चम्बल,
बुंदेलखण्ड और बघेलखण्ड में मालवा की तुलना में भू-क्षरण अधिक होता है।
ढालू क्षेत्रों में भी भू-क्षरण की सम्भाबना अधिक होती है।
आज की यमुना नदी का बहाव उसके पूर्व के तल की अपेक्षा 20 मीटर नीचे की ओर हो गया
है। इसके कारण यमुना की सहायक नदी चम्बल अपने ही अवक्षेपित जलोढ़ मिट्टी से
निर्मित मैदान को अपने ही बेसिन में अपनी ही सहायक नदी-नालों के साथ शीर्ष अपरदन
(arrow head erosion) करके चम्बल और उसकी सहायक नदियों ने बीहड़ों का निर्माण
किया।
ब्रिटिश काल से ही भारत के वनों की अनियोजित और अंधाधुंध
कटाई हुई जिससे भारत में वन-संपदा का उल्लेखनीय ह्रास हुआ। अत्यधिक पशुचारण और आग
से भी वनों की भयानक क्षति पहुँची। कृषि भूमि में विस्तार से चरागाह और वनभूमि
पहाड़ों और पहाड़ी स्थानों पर ही रह गये। झारखंड और मध्यप्रदेश में इस स्थिति को
देखा जा सकता है। वनों की कमी के कारण मृदा में जीवांश (Humus) की कमी हो गयी।
जिससे वृक्ष घास एवं कृषि उत्पादन घट रहा है और भू-क्षरण 'शिवालिक पहाड़ों के
बनाने में प्रकृति को लगभग चौबीस सौ वर्ष लगे गये थे। लेकिन अत्यधिक पशुचारण के
कारण छः से.मी. ऊपरी मृदा बह जाती है। राजस्थान में पशुचारण भू-क्षरण एवं
मरुस्थलीकरण का बहुत बड़ा कारण है। तापांतर की विषमता, वर्षा की न्यूनता और घटते
डंगरों के कारण मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है। अर्द्धमरुस्थलीय परिस्थितियाँ सामान्य
जलवायु के क्षेत्रों में भी दिखने लगी है जो भू-क्षरण को बढ़ावा देती हैं। उत्तर
प्रदेश के आगरा, मथुरा, मैनपुरी आदि जिलों में ऐसी परिस्थितियाँ देखी जा सकती हैं।
ये परिस्थितियाँ भारत के लगभग हर क्षेत्र में दिखायी देती है। भारत में लगभग 14
करोड़ हेक्टेयर भूमि में फसलें लगायी जाती हैं। इनमें से आठ करोड़ हेक्टेयर कमोवेश
भू-क्षरण से ग्रसित है। भारत में भू-क्षरण जल एवं वायु दोनों द्वारा हो रहा है। जल
द्वारा क्षरण ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों, तिस्ता, हुगली, गंडक, गंगा, यमुना
और चंबल नदियों के किनारे सर्वाधिक है। योजना आयोज के प्रतिवेदन के अनुसार
महाराष्ट्र में 138.6, आंध्रप्रदेश में 80.9 और कर्नाटक में 80.9 तथा गुजरात की
लगभग 76 लाख हेक्टेयर भूमि भू-क्षरण से ग्रसित है। मध्यप्रदेश में चंबल तथा अन्य
नदियों में बाढ़ आने से लगभग 20 लाख हेक्टेअर क्षेत्र अनउपजाऊ हो गया है। 25-40
मीटर गहरे चंबल के बीहड़ों से लगभग 18 लाख भूमि अनुपयोगी हो गयी है। इसके कारण छः
लाख भूमि भींड, मुरैना और ग्वालियर जिले में घर बनाने के लायक भी नहीं रह गयी है।
गंगा, यमुना के दोआब में भी नदियाँ मैदानों में गहरी नालियाँ बनाकर मिट्टी की
उर्वराशक्ति का ह्रास कर रही हैं। दोआव में तेज सतही कटाव देखे जा सकते हैं। बीहड़
या खड्डू भूमि में नालीदार कटाव देखा जा सकता है।
प्रश्न: व्यक्तिगत रूप से जल अपव्यय को किस
प्रकार रोकेंगे?
उत्तर : व्यक्तिगत रूप से जल अपव्यय को व्यक्ति तीन तरह से
रोक सकता है-
(i) जल अपव्यय में कमी लाकर पानी को बचाना
(ii) जागरुक नागरिक बनकर पानी की बर्बादी को रोकना
(iii) वर्षा जल का संरक्षण करना।
1. जल अपव्यय में कमी लाकर पानी के अपव्यय को रोकना-
(i) अधिकतर लोग दाढ़ी बनाते समय या मंजन करते समय वाश-बेसिन
का नल खुला छोड़ देते हैं, इस तरह लगभग प्रत्येक घर में 10 लीटर पानी बह जाता है।
यही काम अगर मग या लोटे में पानी भरकर किया जाय तो 1 लीटर पानी से काम चल जा सकता
है।
(ii) पैखानों में फ्लश के उपयोग से लगभग 20 लीटर पानी एक
बार में बह जाता है। यदि शौचालयों में छोटी बाल्टी का उपयोग किया जाय तो 5 लीटर
पानी बर्बाद होगा और 15 लीटर पानी बव जायेगा।
(iii) स्नान के लिए झरने या टब का उपयोग न करके हम बाल्टी
और मग का प्रयोग करें तो 12-15 लीटर पानी में स्नान हो जायेगा। इस प्रकार फब्बारे
या टब से होने वाली बर्बादी को रोका जा सकता है।
(iv) अधिकतर लोग स्कूटरों, बाइकों, मोटरगाड़ियों को पाइप से
धोते हैं, यदि इसी काम के लिए गीले कपड़े और बाल्टी का प्रयोग करें तो बहुत कम
पानी में काम चल जायेगा।
(v) घरों में बागवानी और लॉन के लिए लोग बेहिसाब पानी
बर्बाद करते हैं, लेकिन यदि इनमें चावल, सब्जी धोने वाली पानी का प्रयोग हो तो, पानी की
बहुत बचत होगी।
(vi) जूठे बर्तनों को बार-बार घोने की आवृत्ति से बचना
चाहिये।
(vii) घर के नल या पाइप में यदि लीकेज हो तो उसे तुरंत ठीक
कराना चाहिये। एक रिसाब से बूंद-बूंद पानी को इकट्ठा किया जाय तो एक बूंद प्रति
सेकेण्ड रिसाब की दर से 17 लीटर पानी प्रतिदिन बच सकता है।
(viii) बर्तन धोने समय सावधानी बरतने से भी पानी की बचत
होगी। फर्श आदि घोने में पाइप का उपयोग न करके बाल्टी का उपयोग करना ज्यादा उचित
है। इससे पानी का अपव्यय रोका जा सकता है।
(ix) उत्सव आदि में भी पानी के अपव्यय को रोकने का प्रयास
हर व्यक्ति को करना चाहिये।
2. जागरुक नागरिक बनकर पानी की बर्बादी रोकना: अगर सार्वजनिक स्थलों पर पानी की बर्बादी हो रही हो, नलों
की टोटी से पानी व्यर्थ बह रहा हो, या पाइप लाइन में लीकेज हो तो, एक जागरुक
नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह इसके बारे में जलापूर्ति विभाग को तत्काल सूचित कर
दे।
3. वर्षा जल संरक्षण: हर नागरिक का कर्तव्य है कि वर्षा जल को संरक्षित रख के
भू-जलस्तर को गिरने से बचाये और पुनर्भरण की प्रक्रिया में सहयोग करें।
प्रश्न : जागरुक नागरिक होना ही संसाधन
संरक्षण का उपाय है?
उत्तर : अब तक यह भ्रांति फैली हुई थी कि संसाधनों के
संरक्षण में अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता उसी तरह पर्यावरण अवनयन के सुधार में
पर्यावरणीय समस्याओं के निराकरण में जैव विविधता के संरक्षण में और संसाधनों के
हास को रोकने तथा उसे उन्नत बनाने में व्यक्ति कुछ विशेष नहीं कर सकता है। इस काम
को शासन, समाज एवं सामुदायिक भावना से जुड़कर ही किया जा सकता है, लेकिन नयी
अवधारणा यह है कि जो व्यक्ति जहाँ है वहीं से प्रयास करें तो पर्यावरणीय संसाधनों
के संरक्षण में वह महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है। इसी धारणा को अभिव्यक्त करती
हुई यह उक्ति है- "Think global act lonely" इस तरह एक श्रेष्ठ व्यक्ति
समाज की प्रेरणा और आदर्श बन सकता है।
प्रश्न : संसाधनों के युक्तिसंगत या
न्यायसंगत उपयोग के प्रमुख उपायों की विवेचना करें।
उत्तर : संसाधनों के उपयोग और उसके सम्पोषित विकास की
अवधारणा नयी है। पहले लोग समझते थे कि प्राकृतिक सम्पदा अकूत और असीम है। इन
सम्पदाओं या संपाधनों का कितना भी उपयोग क्यों न किया जाय वह कभी खत्म नहीं होने
वाला संसाधन है। लेकिन जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कुपरिणाम जब सामने आये तो
वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् भौंवक रह गये। यही हाल भूगत जल का भी रहा। डीप बोरिंग
के माध्यम से भूगर्भ जल का असीमित दोहन हुआ। फलस्वरूप भूगत या भूगर्भीय जल का स्तर
इतना नीचे चला गया है कि विश्व के सागने जल-विशेषकर पेयजल का संकट सामने आ गया है
और यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि निकट भविष्य में पानी को लेकर विश्वंयुद्ध
छिड़ सकता है। अन्य महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों में खनिजों का क्रम आता है।
बहुत से देशों में कोयला, पेट्रोल, लोहा जैसे महत्त्वपूर्ण खनिजों का भंडार चुक
जायेगा। एक दिन स्थिति ऐसी आने वाली है कि भावी तो क्या वर्तमान पीढ़ी के लिए भी
कुछ नहीं बचेगा। मनुष्य ने पशु-पक्षियों का शिकार या तो अपने आहार के लिए किया या
फिर अपने शौक या औषधियों के निर्माण के लिए, फलस्वरूप अनेक जीव-जंतु प्रकृति से
पूर्णतः विलुप्त हो गये हैं, या बहुतों का जीवन खतरे में पड़ गया है।
उपयुक्त परिस्थितियों का प्रतिकूल प्रभाव पर्यावरण पर भी
पड़ा है और मनुष्य उसका नाना कुफल भोग रहा है। अतः पर्यावरणविदों और विश्व के
शुभचिन्तकों ने संसाधनों के सम्पोषित विकास (Sustainable Development) के साथ
उपभोग की अवधारणा सामने रखी। इस अवधारणा का अभिप्राय यह है कि मनुष्य संसाधनों का
न तो दुरुपयोग करे, न ही उसे नष्ट करे। वह उसका न्यायसंगत एवं आवश्यकतानुरूप उपभोग
करे। साथ ही साथ जितने संसाधनों का उपभोग करे, उसकी भरपाई का भी उद्यम करे। अगर
जंगल काटे तो लगाये भी। भूगर्भ जल का उपयोग करे तो उसके पुनर्भरण की भी कोशिश करे।
खनिजों के उपभोग के मामले में वह वैकल्पिक स्रोतों की खोज करे। जैव विविधताओं को
नष्ट न होने दें। उसके संरक्षण और सम्पोषण पर ध्यान दे। पर्यावरण के ह्रास या
अवनयन को रोके और उसके संवर्द्धन और उन्नयन का प्रयत्न करे। इसी में वर्तमान और
भावी पीढ़ी का कल्याण निहित है। सम्पोषित विकास की अवधारणा या न्यायसंगत संसाधनों
का उपयोग सम्पोषित विकास की आधारशिला है। पर्यावरण का अवनयन इस युग की विषम
परिस्थितियों की देन है। पर्यावरण अवनयन से आशय पर्यावरण के भौतिक संघटकों में
विशेषकर जैविक प्रक्रमों में मानवीय क्रियाकलापों द्वारा इस सीमा तक ह्रास या
अवनयन अथवा अवक्रमण हो जाना कि पर्यावरण स्वतः नियामक क्रियाविधि (Homeostatic
Mechanism) द्वारा पुनः स्वयं को वैसा न बना सके। क्षयी विकास से सम्पोषित विकास
की ओर बढ़ने की धारणा को यह परिभाषा स्पष्ट करती है-"The aim of ecological
sustainable development is to maximise human well being or quality of life
without jeopardizing the life support system." इस परिभाषा का निहितार्थ यह
है कि पर्यावरण के संसाधनों के साथ इस तरह के सामंजस्य स्थापित किये जायें तथा इस
तरह की तकनीक विकसित की जाय ताकि संसाधनों को कोई क्षति भी नहीं पहुँचे और उनका
न्यायसंगत उपभोग भी सम्भव बन सके।
इस उद्देश्य की प्रतिपूर्ति हेतु बैस्टर महोदय ने यह सुझाव
प्रस्तुत किया कि "हमें प्रकृति से बहुत कुछ सीखना होगा क्योंकि वह आदर्श
तकनीक और उचित प्रबन्ध का परिचायक है। इसके लिए प्रकृति की पारस्परिक क्रियाओं को
समझना होगा क्योंकि उसके मध्य सार्वभौमिक एकता दिखती है।"
प्रश्न : पर्यावरणीय संसाधनों के प्रति वैदिक
दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर: पर्यावरण के संसाधनों के प्रति प्राचीन भारतीय वैदिक
दृष्टिकोण न केवल धार्मिक-आध्यात्मिक पावित्र्य से परिपूर्ण है अपितु यह दृष्टिकोण समस्त
जड़-चेतन अर्थात् सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति मित्रवत् व्यवहार करने की भी सीख देता
है। मनुष्य की प्राचीन सभ्यताओं एवं संस्कृति (विशेषकर भारतीय संदर्भ में) का
विकास पर्यावरण से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित है। पर्यावरण का उपयोग नैतिकता एवं
आध्यत्मिकता से पूरी तरह सम्बद्ध है। भारत में आज भी धर्मप्रवणता देखी जा सकती है।
भारतीय दर्शन में प्रकृति के सभी तत्त्वों को ईश्वर का प्रतिरूप माना गया है।
इसलिए पर्यावरण के प्रत्येक घटक या कारक के प्रति मित्रवत् व्यवहार करने की शिक्षा
दी गयी है। ऋग्वेद की ऋचाओं में पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि तथा वायु को माँ, पिता,
पुत्री की तरह स्वीकार किया गया है। वैदिक ऋषि इनकी स्तुति करता है। अथर्ववेद का
ऋषि बनस्पतियों को सुपूजित मानता है। मनुस्मृतिकार राजाओं के लिए पर्यावरण संरक्षण
का निर्देश देता है। इस तरह न केवल वेद अपितु स्मृति, पुराण, उपनिषद, रामचरितमानस
आदि सभी ग्रन्थों में जीवन के पाँच मूल तत्त्व-जल, अग्नि, वायु और आकाश माने गये
हैं। इन्हें ही समस्त सृष्टि की उत्पत्ति का भी मूल माना गया है। इसलिए इनके प्रति
पूज्य भाव व्यक्त किया गया है। इनके उपभोग के साथ-साथ इनकी विशुद्धता, पवित्रता और
सुरक्षा पर बहुत अधिक बल दिया गया है। यह अवधारणा क्षयी विकास से सम्पोषित विकास
की ओर मनुष्य को आगे बढ़ने की सबल प्रेरणा देने वाली है।
प्रश्न : राष्ट्रीय उद्यान से क्या आशय है?
भारत में कुल कितने राष्ट्रीय उद्यान हैं?
उत्तर : राष्ट्रीय उद्यान : वैसे वन क्षेत्र जो अपनी
प्राकृतिक सुन्दरता, वन्य जीवों एवं जैव विविधता, मनोरंजन तथा ऐतिहासिक महत्त्व की
दृष्टि से अनुपम हैं, उन्हें सरकार द्वारा आरक्षित कर दिये जाने पर 'राष्ट्रीय
उद्यान' कहा जाता है। राष्ट्रीय उद्यान की सीमाएँ सरकार के कानूनों द्वारा तय किये
जाते हैं। बफर क्षेत्र (Buffer Zone) के अतिरिक्त राष्ट्रीय उद्यान में कभी भी जैव
हस्तक्षेप नहीं होता (Biotic Interference) यहाँ पर्यटन, शोध और वैज्ञानिक प्रबंधन
की अनुमति तो दी जाती है किन्तु अन्य प्रयोजनों के लिए अनुमति नहीं होती।
राष्ट्रीय उद्यानों में बाघ (Tiger), शेर (Lion), गैंडा (Rhino) आदि के आवास
सुरक्षित किये जाते हैं। राष्ट्रीय उद्यान में जीनपूल (Gene Pool) और इसके संरक्षण
पर ध्यान दिया जाता है। भारत में इस समय 75 राष्ट्रीय उद्यान हैं। झारखण्ड का
राष्ट्रीय उद्यान 'हजारीबाग नेशनल पार्क' है।
प्रश्न : बायोस्फीयर (Biosphere) रिजर्व
(Reserve) क्षेत्र किसे कहते हैं?
उत्तर : बायोस्फीयर पारिस्थितिकी तंत्र से सम्बन्धित ऐसे
क्षेत्र होते हैं जो पूर्णतः प्राकृतिक होते हैं तथा शोरगुल से पूर्णतः मुक्त होते
हैं। बायोस्फीयर में चार चीजें सम्मिलित हैं- (1) संरक्षण (Conservation) (ii)
अनुसंधान (Research) (iii) शिक्षण (Education) तथा (iv) स्थानीय सहभागिता (Local
involvement)। 1985 ई. में विश्व भर के 65 देशों में 243 बायोस्फीयर बनाने का
लक्ष्य रखा गया था। इनमें से अब तक 90 बायोस्फीयर रिजर्व स्थापित किये जा चुके हैं
और 103 का निर्माण होना बाकी है। भारत में 13 बायोस्फीयर रिजर्व हैं। भारत में
पहला बायोस्फीयर रिजर्व 1986 ई. में 'नीलगिरि बायोस्फीयर' स्थापित किया गया था। यह
बायोस्फीयर कर्नाटक से लेकर तमिलनाडु तक फैला हुआ है।
भारत के बायोस्फीयर रिजर्व-नभदाफा (अरुणाचल), उत्तराखण्ड
बायोस्फीयर रिजर्व [जिसे फूलों की घाटी भी कहते हैं) (उत्तरांचल), मन्नार की खाड़ी
(तमिलनाडु), सुन्दरवन (पश्चिम बंगाल), थार रेगिस्तान (राजस्थान), मानस (असम), कच्छ
का रण (गुजरात), अण्डमान के उत्तरी द्वीप समूह (अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह),
नंदा देवी (उत्तरप्रदेश), काजीरंगा (असम), कोन्हा (मध्यप्रदेश), नोकर्रक (तुरा
क्षेत्र] (मेघालय), नौलगिरि . (तमिलनाडु)।
प्रश्न : संकटापन्न जातियाँ क्या हैं?
उत्तर: आई.यू.सी.एन. (International Union For Conservation
of Nature) द्वारा 1998 ई. में संरक्षण हेतु जैव प्रजातियों को पाँच वर्गों में
बाँटा गया। इसमें से संकटापन्न जातियाँ या प्रजातियाँ वे हैं जो निकट भविष्य में
विलुप्त (extinct) हो सकती हैं। इसका कारण यह है कि विश्व भर में इनकी संख्या बहुत
ही नगण्य है। इसलिए इनका संरक्षण परमावश्यक है। यदि इन्हें संरक्षित नहीं रखा गया
तो किसी कारण से यदि ये प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं तो वे सदा के लिए सम्पूर्ण रूप
से विलुप्त हो जायेंगी। संकटापन्न जातियों का वर्णन 'रेड डाटा' बुक में है।
प्रश्न : स्थानीय जातियाँ या प्रजातियाँ क्या
हैं?
उत्तर : स्थानीय जातियाँ वे हैं जो सम्पूर्ण विशेष क्षेत्र
में ही पायी जाती हैं। इन्हें स्थानीय जातियों कहा जाता है। यह क्षेत्र-विशेष में
ही उगती हैं। अतः इनका संरक्षण भी आवश्यक है क्योंकि इनके विलुप्त हो जाने का भी
खतरा बना हुआ है। स्थानीय जातियों का वर्णन 'ग्रीन बुक' में है।
प्रश्न : प्रदूषक किसे कहते हैं?
उत्तर : प्रदूषक : जिन पदार्थों या कारणों से पर्यावरण
प्रदूषित होता है, उसे प्रदूषक कहते हैं। मानव द्वारा उपयोग में लाये गये पदार्थों
के अवशेष या निर्मित पदार्थ पर्यावरण को किसी-न-किसी प्रकार प्रदूषित करते रहते
हैं। ऐसे ही पदार्थों को प्रदूषक कहते हैं।
प्रश्न : पर्यावरण अवनयन (Environmental
Degradation) से क्या आशय है?
उत्तर : पर्यावरण प्रदूषण और पर्यावरण अवनयन में सूक्ष्म
अन्तर है। पर्यावरण अवनयन से आशय जैव मण्डल के पारिस्थितिकी तत्त्वों की विभिन्न
प्रक्रियाओं में अवरोध का उत्पन्न हो जाना है। इससे प्राकृतिक चक्रों में बाधाएँ
पड़ने लगती हैं और नैसर्गिक संतुलन बिगड़ने लगता है। इसके साथ ही प्रजातियों की
विलुप्ति की घटनाएँ बढ़ने लगती हैं। पर्यावरण अवनयन का कारण मानवीय हस्तक्षेप एवं
प्राकृतिक घटनाओं से उत्पन्न प्रदूषक हैं। ये प्रदूषक जो अतिशय प्रदूषण उत्पन्न
करके पारिस्थितिकी तंत्र और प्राकृतिक चक्रों में अवरोध कर के उसमें भयानक असंतुलन
पैदा करते हैं। इसे ही पर्यावरणीय अवनयन कहा जाता है।
प्रश्न : वायु प्रदूषण का वर्गीकरण करें।
उत्तर: वायु प्रदूषण का वर्गीकरण उत्पत्ति के आधार पर दो
वर्गों में किया गया है-(i) प्राथमिक प्रदूषक से उत्पन्न प्रदूषण (ii) द्वितीय
प्रदूषकों से उत्पन्न प्रदूषण। रासायनिक गठन के आधार पर भी इसके दो वर्ग हैं- (1)
कार्बनिक प्रदूषण (ii) अकार्बनिक प्रदूषण। प्रदूषकों के स्वरूप के आधार पर वायु
प्रदूषण तीन प्रकार के होते हैं- (i) सूक्ष्म लम्बित कण या कणिकाएँ (Particulates)
(ii) वाष्पीय एवं (iii) गैसीय प्रदूषण।
प्रश्न : वायु प्रदूषण का क्या अर्थ है?
उत्तर : वायु प्रदूषण का अर्थ है "बायु में ठोस, द्रव
या गैसीय रूप में प्रदूषक तत्त्वों की पर्यावरण में (वायुमण्डल में) इस सीमा तक की
सान्द्रता एवं उपस्थिति कि वह मनुष्य, जीव एवं जन्तु, वनस्पति एवं सम्पत्ति सभी को
हानि पहुंचाये तथा उससे मानवीय स्वास्थ्य एवं क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव
पड़े।" वायु प्रदूषण का अर्थ वायु की प्राकृतिक गुणवत्ता में प्रतिकूल
परिवर्तन है। वायु के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी ऋणात्मक
परिवर्तन या ह्रास जिसके द्वारा मनुष्य तथा अन्य जीव-जन्तुओं के जीवन परिस्थितियों,
औद्योगिक प्रक्रमों तथा सांस्कृतिक सम्पत्ति को हानि पहुँचे, वायु प्रदूषण कहलाता
है।
प्रश्न : जैव नियंत्रक उपाय क्या है?
उत्तर : 'जैव नियत्रंक' से अभिप्राय कुछ ऐसे जीवों या
जीवाणुओं से है जो प्रदूषित जल को स्वच्छ बनाने में सहायक होते हैं। कुछ विशिष्ट
प्रकार के जीवाणु एवं कछुआ इसी प्रकार के जैव नियंत्रक हैं जो जल को स्वच्छ बनाते
रहते हैं। ऑस्ट्रेलिया के एक वैज्ञानिक डेविड बनें ने नदी के पानी में एक ऐसे
जीवाणु की खोज की है जो तीव्र गति से एक प्रकार के एज्जाइम्स का निर्माण करते हैं।
इस एज्जाइम्स से नदी का पानी साफ होता रहता है। यह जीवाणु रिफोन्गोमोनास वंश का
है। एक एञ्जाइम्स का नाम माइकोसिस्टेम दिया गया है जो आकृति बदल कर तत्त्वों को
समाप्त करने के लिए जल को मारक क्षमता प्रदान करता है। ऑस्ट्रेलिया के लोग इस
जीवाणु का व्यापक पैमाने पर उत्पादन कर उसकी सहायता से पानी साफ करते हैं। जैव
प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत कछुआ प्रदूषित जल को साफ करने में भविष्य में उल्लेखनीय
भूमिका निभा सकता है। चम्बल के कछुए प्रदूषित गंगाजल को शुद्ध करने के लिए भेजे
गये हैं। चम्बल का जल इन्हीं कछुओं के कारण साफ रहता है।
प्रश्न : सिद्ध कीजिये कि जल संरक्षण समस्त
पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण है।
अथवा
सिद्ध कीजिये कि जल जीवंत जगत की आत्मा है?
उत्तर : जल प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक ऐसा संसाधन है जिसकी
आवश्यकता समस्त पारिस्थितिकी तंत्र को है। सभी प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्रों में
संतुलन बनाये रखने में जल की भूमि का बहुत महत्त्वपूर्ण है। जलवायु, मृदा, कृषि,
वनस्पति, जीव-जंतु सभी कुछ इससे प्रभावित होता है। अतः इस अद्वितीय, अनुपम, उच्चतम
एवं अक्षय संसाधन का संरक्षण अपरिहार्य है। जिन क्षेत्रों में जल संरक्षण पर ध्यान
नहीं दिया जाता वहाँ का जल चक्र बाधित होता है अथवा जहाँ का जलचक्र या प्रदूषित
होता है वहाँ कालांतर में जल विनाश का तांडव नृत्य होता है। भारत के संदर्भ में
में 'चार्ल्स त्रिवेलियन' ने कहा है कि भारत में जल भूमि से भी मूल्यवान है। कृषि
उत्पादन और कृषि भूमि को जलापूर्ति विस्तार प्रदान करती है। जल जीवन का परिरक्षण
करता है। कृषि उत्पादकता में वृद्धि लाता है। अतः स्पष्ट है कि जल समस्त
पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करने वाला कारक है। इसीलिए जल संरक्षण समस्त
पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण है। दूसरे शब्दों में हम जल को जीवंत जगत की आत्मा
कह सकते हैं।
प्रश्न : सतही जलसंरक्षण के उपाय लिखें।
उत्तर : वर्षा का जल भूमि की सतह पर बहता है भारत जैसे देश
में वर्षा जल का अधिकतम हिस्सा व्यर्थ हां बह जाता है। इसीलिये सतड़ी जल संरक्षण
का अर्थ है कि वर्षा जल की थोड़ी सी मात्रा को भी बर्बाद होने से बचाया जाय और उसे
उपयोग के लिये संरक्षित रख लिया जाय। वर्षा जल के सतही संरक्षण का कारगर उपाय यह
है कि उसे वाष्प बनते या वाष्पोत्स्वेदन से बचाया जाय। अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में
जहाँ वर्षा बहुत कम होती है वहाँ ऐसे पेड़ और घास लगाये जाने चाहिये जिससे जमीन की
सतह बँकी रहे और जमीन अधिक से अधिक वर्षा के जल को सोख सके। आर्द्र क्षेत्रों में
अर्द्धशुष्क क्षेत्रों स अधिक वर्षा होती है यहाँ पर अघोतल गति एवं मृदा निहित जल
उल्लेखनीय मात्रा में होता है। ऐसे क्षेत्रों में वनस्पतियों के आच्छादन से जल की
तीव्र अधोतल गति को संतुलित रखा जा सकता है। फलस्वरूप मृदा अपरदन एवं जल की बर्बादी
कम होगी। अधिक वृष्टिवाले क्षेत्रों में नदियों पर बाँध और तालाब बनाया जाना
चाहिये और उसके जल का उपयोग खेती-बारी में किया जाना चाहिये। इसी तरह बड़ी-बड़ी
नदियों से नहर निकाल कर शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों को जल पहुँचाना संरक्षण का
ही एक उपाय है। उबड़-खाबड़ क्षेत्रों में जल संग्रहण ही संरक्षण है। इसके चलते जल
की अधोतल गति भी होगी, मृदा अपरदन भी रुकेगा एवं विविध लाभ सहज उपलब्ध हो सकेगा।
अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों से नहरें निकाल कर शुष्क क्षेत्रों को हरा-भरा बनाना जल
संरक्षण का ही एक घनात्मक उपाय है। गंगा नहर से राजस्थान का उत्तरी भाग उपयोगी बन
गया है। यह
ज्ञातव्य है कि भारत की औसत वार्षिक वर्षा 117 से.मी. है।
यह औसत वर्षा कृषि के लिये पर्याप्त है। लेकिन इस वर्षा का अधिकांश जल बिना उपयोग
के बह जाता है। अतः बाँधों तालाबों और नहरों का निर्माण ही जल संरक्षण का समुचित
उपाय है।
प्रश्न : भू-जल संरक्षण के क्या उपाय हैं?
उत्तर : (i) भू जल या भूगर्भीय जल के संरक्षण का सबसे उत्तम
तरीका तो यह है कि भूजल जरूरत के अनुपात में ही निकाला जाय। इसके लिए अनियंत्रित
दोहन को रोकना और दोहन पर नजर रखना बहुत ही जरुरी है।
(ii) इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हम भूमि से जितना जल
निकाल रहे हैं उसके पुनर्भरण (feedback) की व्यवस्था भी करें।
(iii) बाँध, बंधिकाएँ, तालाब या नदी व्यापक वर्त्तन
संरचनायें बनाकर सतही जल को जमा करना चाहिये।
(iv) सीमित सतही जलवाले क्षेत्रों से दूसरे क्षेत्रों में
जल को स्थानांतरित करना चाहिए।
(v) अप्राकृतिक भरण और पुनर्भरण पर ध्यान देना चाहिए।
प्रश्न : रेडियोधर्मी प्रदूषण कदाचित सबसे
भयावह प्रदूषण है?
उत्तर : रेडियोधर्मी प्रदूषण का अर्थ अणु विखंडन से ऊर्जा
उत्पन्न करते समय रेडियोएक्टिव किरण निकलती है। आणविक युद्ध या आणविक आयुध भी रेडियोधर्मी संकट
उत्पन्न करते हैं। विभिन्न प्रकार के आणविक वैज्ञानिक विस्फोटों से पर्यावरणीय
संकट खड़ा हो जाता है। परमाणु भट्टियों के रिसाब से रेडियोधर्मी प्रदूषण फैलता है।
परमाणु भट्टियों के कचरे भी रेडियोधर्मी प्रदूषण को जन्म देते हैं। परमाणु विद्युत
केन्द्रों चिकित्सालयों, रेडियो समस्थानिक उद्योगों, आयुध उद्योगों से निकलकर
रेडियो सक्रिय अवशिष्ट पदार्थ मिट्टी, जल, वायु में मिल जाती है। यही रेडियोधर्मी
प्रदूषण है। इस रेडियोधर्मी प्रदूषण से नाभिकीय रेडोयोधर्मी प्रदूषण या संकट के
नाम से भी जाना जाता है। जल, वायु और मृदा के प्रदूषण से भी यह भयावह प्रदूषण है
जो दिखायी तो नहीं देता लेकिन सबसे ज्यादा हानि पहुँचाने वाला प्रदूषण है। रेडियोधर्मी
प्रदूषण अन्य प्रदूषणों की भी पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। रेडियोधर्मी प्रदूषण का
प्रभाव न केवल जल, थल और वायुमंडल पर पड़ता है अपितु मानव, अन्य जीव, वनस्पति एवं
खाद्य सामग्री एवं खाद्य श्रृंखला को भी प्रभावित करता है। मानव जीन एवं गुणसूत्र
के लक्षणों में परिवर्तन करने के कारण यह दीर्घकाल तक प्रभावी रहता है। इसके कारण
भयानक बीमारियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती चली जाती है। रेडियोधर्मो प्रदूषण
में समस्त पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करने की क्षमता है। इसलिए इसे सबसे भयावह
प्रदूषण कहा जाता है।
प्रश्न: रेडियोधर्मिता के मनुष्य के
स्वास्थ्य पर प्रभाव पर एक लघु टिप्पणी लिखें।
उत्तर : रेडियोधर्मिता का मनुष्य के स्वास्थ्य पर बड़ा गहरा
प्रभाव पड़ता है और मानव जोवन के लिए भयानक संकट उत्पन्न करता है। रेडियोधर्मिता
का मानव स्वास्थ्य पर निम्नलिखित कुप्रभाव पड़ता है-
(i) रेडियोधर्मिता के कारण त्वचा में फोड़े निकल आते हैं और
खुजली होती है और त्वचा की ऊपरी परत उखड़ने लगती है। त्वचा रिसने लगती है और
कालांतर में गहरे घाव हो जाते हैं।
(ii) बाल कमजोर हो जाते हैं और झड़ने लगते हैं।
(iii) परमाणु विखंडन के धुएँ से फफोले तो निकल ही आते हैं,
उसका धुआँ जल फेफड़े में पहुँच जाता है तो कैंसर उत्पन्न करता है।
(iv) अन्य जीव सहित मनुष्य की प्रजनन शक्ति भी
रेडियोधर्मिता के प्रभाव से निष्क्रिय पड़ जाती है। बाँझपन (sterility) बढ़ती है।
(v) रेडियोधर्मी विकिरण से जीन में उत्परिवर्तन होता है।
(vi) इसके कारण गर्भस्थ शिशु की भी मृत्यु हो जाती है।
(vii) आँखों के लेंस नष्ट होने से अंधेपन की आशंका उत्पन्न
होती है।
(viii) रेडियोधर्मी विकिरण कैंसर और अन्य हानिकारक प्रभाव
उत्पन्न करती है।
(ix) रेडियोधर्मिता के कारण अनेक प्रकार की बीमारियाँ
उत्पन्न होती है। इसके कारण रक्तव्यता की बीमारी होती है और शरीर में खून जमने
लगते हैं। फलस्वरूप मनुष्य का जीवन संकटापन्न हो जाता है।
प्रश्न : विश्व के आणविक कचरा के प्रबंधन
समस्या पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : विश्व के विकसित और विकासशील देश अधिक से अधिक
परमाणु ऊर्जा का उपयोग करने लगे हैं। परमाणु ऊर्जा, परमाणु बिजली घरों में पैदा की
जाती है। परमाणु बिजली घरों से बहुत बड़ी मात्रा में रेडियोसक्रिय अपशिष्ट निकलते
हैं जो पर्यावरण में समा जाते हैं। आज रेडियो सक्रिय अपशिष्ट के पर्यावरण में
घुल-मिल जाना लोक चिंता का बहुत बड़ा विषय बन गया है। रेडियोधर्मी कचरों का निपाटन
(dispisal) वैज्ञानिकों, तकनीशियनों और पर्यावरणविदों के लिए एक चुनौतिपूर्ण
समस्या बन गयी है। रेडियोधर्मी कचरों के नियंत्रण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा
सकते हैं।
(i) संयुक्त राज्य संघ नाभिकीय युद्ध पर प्रतिबंधित करें।
(ii) परमाणु बिजली घरों से जो कच्चरे निकलते हैं उन्हें
समुद्र की महत्त्म गहराईर्या, खानों या ड्रील द्वारा खोदे गये गहरे गड्ढे में
डालने के अलाबा और कोई चारा नहीं है।
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय कानून भूमिगत एवं वायु और जलमंडलीय
परमाणु परीक्षण पर रोक लगावें।
(iv) वैज्ञानिकों को रेडियोधर्मी प्रदूषण नियंत्रण के लिए
नयी खोज एवं नयी विधियों का आविष्कार करना चाहिए। बैज्ञानिकों को परमाणु वितरण के
लिए सुरक्षात्मक विधियाँ खोजनी चाहिए।
(v) नाभिकीय प्रदूषण के साधन को बाह्य स्ट्रांशियम, घोरियम
एवं कार्बन पदार्थों पर नियंत्रण करना चाहिए।
प्रश्न : रेडियोधर्मी एवं नाभिकीय प्रदूषण
में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : रेडियोधर्मिता के गुण मानवनिर्मित पदार्थों के
साथ-साथ प्राकृतिक क्रियाकलापों में भी होते हैं। सूर्यग्रहण के समय तथा खगोलीय
घटनाओं के समय हानिकारक विकिरणें पृथ्वी पर आते हैं। पृथ्वी के भीतर विद्यमान
यूरेनियम, जिरकोनियम, थोरियम, मोलिब्डिनियम, कोबॉल्ट, कार्बन आदि भी रेडियोधर्मी
प्रदूषण फैलाते हैं। मनुष्यों द्वारा जब परमाणु विस्फोट किये जाते हैं तब
रेडियोधर्मी विकिरण निकलते हैं। बिजली घरों के अपशिष्ट कचरों से भी रेडियोधर्मी
विकिरणें निकलते हैं। अणु रियेक्टरों, अणुबमों, एक्स-रे, मशीन द्वारा रेडियोग्राफी
भी रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।
नाभिकीय प्रदूषण का अर्थ है, नाभिकीय परीक्षणों के कारण
उत्पन्न विकिरण। आर्कटिक क्षेत्रों में सबसे ज्यादा नाभिकीय परीक्षण किये गये
जिससे टैगा और टुंड्रा प्रदेशों के जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर घातक प्रभाव पड़ा।
प्रश्न : मृदा प्रदूषण कितने प्रकारों से
होता है?
उत्तर : मृदा प्रदूषण का अर्थ मृदा का मूल स्वभाव
बनस्पतियों का प्रजनन है। मृदा के विशेष गुणों के कारण ही फसलें उगती हैं। लेकिन
जब मृदा वनस्पति प्रजनन और कृषि कार्य के लिए कारण विशेष से अनुपयुक्त हो जाती है
तो मृदा की इस स्थिति को ही मृदा का प्रदूषित होना कहा जाता है। मृदा को गुणवत्ता
में ह्रास या क्षय दो प्रकार से होता है-(1) ऋणात्मक क्षय और (2) धनात्मक क्षय।
(1) ऋणात्मक क्षय उसे कहते हैं जब मृदा में निहित खनिज या
उसका जीवांश (Humus) जल में घुलकर बह जाता है। अर्थात् मृदा से निकल जाता है तो यह
मृदा का ऋणात्मक क्षय कहलाता है। इस प्रकार के क्षय से मृदा की उर्वरा शक्ति घट
जाती है। ऋणात्मक क्षय की प्रक्रिया प्राकृतिक कारकों से होती रहती है।
(2) धनात्मक क्षय का अभिप्राय है मृदा में जाना। मृदा में
विजातीय तत्त्वों के मिलने से उसकी स्वाभाविक गुणवत्ता का अवनयन होता है। धनात्मक
क्षय का कारण मानवीय क्रियाकलाप, औद्योगिक क्रियाकलाप एवं नगरीय कचरे होते हैं।
प्रश्न : मृदा प्रदूषण को परिभाषित कीजिए।
उत्तर : मृदा में जब भौतिक और रासायनिक तत्त्व मिलकर उसे
कृषि के योग्य नहीं रहने देते तथा मृदा का समुचित उपयोग नहीं हो पाता तो ऐसी
मिट्टी या मृदा प्रदूषित मानी जाती है। मृदा प्रदूषण से फसलों का रूप-रंग,
प्रारूप, उत्पादन सभी पर कुप्रभाव पड़ता है। इस प्रकार संक्षेप में मृदा प्रदूषण
को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- "जब मृदा बनस्पतियों और फसलों के
उत्पादन के अनुपयुक्त हो जाती है तो यह स्थिति मृदा का प्रदूषण कहलाती है।"
प्रश्न : मृदा प्रदूषण के प्रमुख स्त्रोत
क्या है?
उत्तर : मृदा प्रदूषण के अनेक स्रोत हैं। अनेक प्रकार के
तत्त्व मृदा प्रदूषक हैं। इनमें कैडमियम (Cd), जिंक (Zn), क्रोमियम (Cr), मैंगनीज
(Mn), कोबॉल्ट (Co), निकिल (Ni) तथा मोलिब्डिनम आदि प्रमुख हैं। ये तत्त्व खनन
उद्योग, बैटरी उद्योग, जिंक उत्पादन, इलेक्ट्रॉनिक उद्योग एवं औद्योगिक अपजल,
संदूषित जल, मानब मल-जल, वाहित जल के माध्यम से मृदा पहुँच कर उसे प्रदूषित कर
डालते हैं।
प्रश्न : मृदा प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत के
बारे में लिखें।
उत्तर : भू-क्षरण, जलमग्नता, कांस घास के उगने एवं उच्च
तापमान आदि मृदा प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत हैं।
प्रश्न : समुद्री प्रदूषण को परिभाषित करें।
उत्तर : समुद्री प्रदूषण का अर्थ है समुद्री पर्यावरण में
जब मनुष्य के द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वैसे पदार्थ या ऊर्जा डाले हों जो
हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले हों तथा जिससे जीव-जंतुओं को हानि पहुँचती हो
और मानव स्वास्थ्य के लिए संकट उत्पन्न होता हो, मछलियों पर कुप्रभाव पड़ता हो और
समुद्र के जल की गुणवत्ता में उल्लेखनीय ह्रास आता हो एवं उसको सुधारने के कामों
में बाधाएँ और सुविधाओं में कमी आता हो तो उसे समुद्री प्रदूषण कहते हैं।
प्रश्न : समुद्रों का वर्तमान समय में क्या
महत्त्व है?
उत्तर : सागर या महासागर का अत्यन्त महत्त्व है। समुद्र
प्रकृति द्वारा बनाया गया राजमार्ग है। इस मार्ग बनाने में न तो मानव श्रम की
आवश्यकता पड़ी न पैसों की जबकि परिवहन के दूसरे मार्ग को बनाने में अपार धन-जन
लगता है। समुद्रों के महत्त्व को रेखांकित करते हुए एक विद्वान ने कहा
है-"जिस देश में न कोई समुद्री किनारा हो, न कोई बंदरगाह, वह उस मकान की
भाँति है जिससे निकलने के लिए न कोई रास्ता हो न कोई सड़क।" समुद्री मार्गों
के रखरखाव या नियंत्रण पर कुछ खर्च नहीं आता। कुछ हजार टन के जलयान या टैंकर में
2.5 से लेकर 3 लाख टन तक माल ढोया जा सकता है। इस तरह समुद्री मार्ग से प्रति टन
प्रति कि.मी. आज भी बहुत कम खर्च आता है। दूसरी ओर समुद्र अनेक प्रकार के खाद्य
पदार्थों, मछली आदि, खनिज तेल, प्रवाल, खनिज पदार्थ तथा मोती आदि के खजाने हैं।
समुद्र के खारे पानी के आसवन और अलवणीकरण के द्वारा शुष्क
प्रदेशों एवं तटवर्ती जिलों में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति की जा सकती है। समुद्र के
तल में अनेक प्रकार की धातुओं का जमाव है। विश्व के जिन देशों में खनिज तेल की कमी
है उन देशों के लिए छिछले सागर वरदान सिद्ध हुए हैं क्योंकि यहाँ अपतटीय सागर के
विशाल क्षेत्रों से भारी मात्रा में खनिज तेल और प्राकृतिक गैस का दोहन होता है।
ऐसे लाभान्वित देशों में भारत, ब्रिटेन और नार्वे आते हैं। समुद्रों में अनेक
पौधो, जीव और काई (moss) मिलते हैं जिनको सुखाकर खाद्य पदार्थ दवाइयाँ और रसायन
बनाये जाते हैं। समुद्रों एवं महासागरों से अनेक प्रकार के अप्रत्यक्ष लाभ भी होते
हैं महासागरों का तटवर्ती भागों, प्रायद्वीपों, कटे-फटे वाले देशों के भीतरी भागों
एवं जलवायु पर समकारी प्रभाव डालते हैं। यहाँ आंतरिक प्रभाव से भारी वर्षा भी होती
है। गर्मियों में भी रात ठंडी होती है। वर्षा का एकमात्र कारण सागर से जल की
प्राप्ति है। अतः सागर से जलभरी हवाएँ चलने पर प्रदेश में वर्षा अधिक होती है। जल
में पाये जाने वाले जीव और वनस्पति महासागरों द्वारा समुद्र में डाले गये कूड़े या
सामान्य प्रदूषित सड़े-गले पदार्थों को अपने यहाँ की चक्रीय व्यवस्था को हानिरहित
करते रहते हैं।
प्रश्न : कचरे को जलाना क्या वैज्ञानिक उपाय
है? आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर : कचरे के प्रबंधन के लिए कचरे को जलाना कोई
बैज्ञानिक उपाय नहीं है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़े-कर्कट को अभी भी
जलाया जाता है। शहरों में भी कचरों को जलाकर उसका निपाटन किया जाता है। कचरा
प्रबंधन का यह परम्परागत उपाय है पर वैज्ञानिक उपाय नहीं है। कचरे को जलाने से
काफी धुआँ निकलता है, जिससे वायु प्रदूषण भी बढ़ता है और कचरे का उपयोग भी नष्ट हो
पाता है। जिस जगह पर कचरा जालाया जाता है वह जमीन भी मृत हो जाती है। कचरे को जला
देने के बाद भी प्लास्टिक, पॉलीथिन, काँच और धातुओं के टुकड़े यथावत् रह जाते हैं।
प्रश्न: जैविक अपघटित पदार्थ कौन-कौन से हैं?
उत्तर : जैविक अपघटित पदार्थ कागज, गत्ता, लकड़ी, पत्तियाँ,
कपड़ों के टुकड़े, सड़े-गले फल, चारा, लीद और मृत पशुओं आदि है।
प्रश्न : भूमि सीमित संसाधन है? विश्व के
संदर्भ में इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर : भूमि प्रकृति का दिया हुआ सीमित संसाधन है। भूमि का
लगभग 71% भाग जल के नीचे है। इसका क्षेत्रफल 3,61,16000 वर्ग कि.मी. है। शेष 29%
भाग ही स्थल है। भूमि और जल का अनुपात 1: 2.43 है। प्रकृति ने जितना स्थल भाग
बनाया है उसका 70% भाग प्राकृतिक कारणों से अनुपयोगी हो गया है। इनमें अति ठंडे
क्षेत्र हैं जो हिमाच्छादित हैं। हिमाच्छादित प्रदेशों का प्रतिशत 20 है। सहारा,
कालाहारी मरुस्थल और मध्य अक्षांशीय मरुस्थल भी 20% में फैला हुआ है। उष्ण आर्द्र
वन 10% भूखंड पर फैले फैले हुए हुए है हैं। जिनमें अमेजन और कांगो बेसिन प्रमुख
हैं। ऊँचे पर्वतीय भाग, रॉकी, एण्डीज और पठारी भाग भी 20% में फैले हुए हैं। इस
प्रकार यह सिद्ध होता है कि विश्व का भूमि संसाधन अत्यंत सीमित है।
प्रश्न : विश्व संदर्भ में भारतीय व्यक्ति
पर्यावरण में कितना कचरा छोड़ता है? दूसरे देशों से तुलना कीजिए।
उत्तर : पर्यावरण में कचरा छोड़ने में सुसभ्य और समृद्ध देश
अग्रगणी हैं। ब्रिटेन में एक आदमी प्रतिदिन लगभग 700 ग्राम कचरा फेंकता है जिसमें
24 ग्राम कागज होता है। लगभग 15 ग्राम खाद्य पदार्थ होता है। 7 ग्राम घरेलू
अपशिष्ट, 5 ग्राम काँच होता है। 2.1 ग्राम प्लास्टिक होता है और 2.8 ग्राम पैकिंग
मैटेरियल होता है। कनाडा में प्रति व्यक्ति 2 कि.ग्रा. रद्दी कागज और अन्य पदार्थ
फेंकते हैं जबकि भारतवासी संसाधनों का तुलनात्मक दृष्टि से कम उपयोग कर बहुत कम
कचरा छोड़ता है।
प्रश्न: अपशिष्ट समस्या के संदर्भ में 3R पर
लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : विकसित देशों में कूड़े-कचरों को जमा करके उसमें से
अलग चीजों को अलग-अलग कर दिया जाता है और इस प्रकार चीजों को वर्गीकृत किया जाता
है। उसके बाद उनका उपयोग ईंधन बनाने में, बिजली बनाने में या धातुओं को गलाकर उनका
पुनर्चक्रीकरण करने में होता है। कचरा समस्या का निदान संरक्षण जीव पद्धति (life
style conservatiom) से संबंधित है। इस पद्धति को अपनाने से भविष्य में लाभ
प्राप्त होगा। इस संदर्भ में 3R प्रबंध उल्लेखनीय है।
(i) कम उपयोग करना (Reduce)
(ii) पुनर्पुयोग (Reuse)
(iii) पुनर्चक्रीकरण (Recycling)
(i) कम उपयोग करना (Reduce): वैसे पदार्थ जो एक बार उपयोग में लाने के बाद समाप्त हो
जाते हैं, उसका हमें कम से कम उपयोग करना चाहिए। जैसे- काँच, लकड़ी, चमड़ा
इत्यादि। इस सिलसिले में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पैकिंग पदार्थों का हम कम से
कम उपयोग करें।
(ii) पुनः उपयोग (Reuse): घनी एवं विकसित देश नयी-नयी वस्तुओं में थोड़ी सी खराबी आ जाने पर
उसे फेंक देते हैं जबकि घरेलू अपशिष्टों में से 35% वस्तुओं का पुनर्पुयोग संभव
है। जैसे-लोहे की बनी वस्तुएँ, टीन के डब्बे, प्लास्टिक और वस्त्र।
(iii) पुनर्चक्रीकरण (Recyeling): घातुओं और प्लास्टिक और मिट्टी के बने
सामानों का पुनर्चक्रीकरण संभव है। पुनर्चक्रीकरण के माध्यम से इनका पुनर्पुयोग संभव
है। अतः ऐसे कचरे को बर्बाद करना उचित नहीं है।
कचरा प्रबंधन के संदर्भ में 3R की संकल्पना बहुत ही
महत्त्वपूर्ण है और मीडिया के सभी माध्यमों द्वारा इसकी जानकारी लोगों तक पहुँचायी
जानी चाहिए।
प्रश्न : भारत की प्रमुख आपदाएँ क्या हैं?
उत्तर : भारत विश्व का एक ऐसा देश है जो निरंतर प्राकृतिक
आपदाओं को झेलता रहा है। इसका कारण इसका उपमहाद्वीपीय विस्तार और मानसून की
अनिश्चितता है। सूखा, बाढ़, चक्रवात, भूकंप और भू-स्खलन जैसी आपदाएँ इस देश को
निरंतर झेलनी पड़ती है। हाल-फिलहाल में भारत को सुनामी लहर जैसे प्राकृतिक आपदा को
झेलना पड़ा था। भारत के लगभग छः करोड़ लोग इन आपदाओं से प्रभावित होते रहते हैं।
भारत के आपदा प्रभावित लोगों की संख्या विश्व के कई देशों की जनसंख्या से भी बड़ी
है।
प्रश्न : प्रमुख सूखा प्रभावित क्षेत्र
कौन-कौन से हैं?
उत्तर : भारत के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में आंध्रप्रदेश,
बिहार, झारखंड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, मध्यप्रदेश,
महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान एवं पश्चिम बंगाल हैं।
प्रश्न : भारत के प्रमुख बाढ़ प्रभावित
क्षेत्रों के नाम लिखें।
उत्तर : भारत के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र आंध्रप्रदेश, असम,
गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, केरल, बिहार, मध्यप्रदेश,
छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, उड़ीसा, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तरप्रदेश,
पश्चिम बंगाल, दिल्ली और अंडमान निकोबार हैं।
बाढ़ से प्रभावित भारतीय क्षेत्र का क्षेत्रफल 400 लाख
हेक्टेयर है।
प्रश्न : जलवायु परिवर्त्तन से क्या आशय है?
इसके कारणों को समझाइये।
उत्तर : पृथ्वी की जलवायु (climate) में अनेक कारणों से
परिवर्तन होता रहता है। इनमें से प्रमुख कारण 'हरितगृह प्रभाव' (Green Houset
Effect) है। जलवायु में परिवर्तन अनेक भौतिक कारणों से आता है। जलवायु परिवर्तन का
सबसे बड़ा कारण हरितगृह गैसों (जैसे-कार्बन डॉयऑक्साइड, जलवाष्प, मीथेन, नाइट्रस
ऑक्साइड इत्यादि) की सतत् वृद्धि है। इससे 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय
उपमहाद्वीप की लाखों एकड़ उपजाऊ भूमि जलमग्न हो जायेगी। अकेले बांग्लादेश की 13
मिलियन आबादी प्रभावित होगी। चावल के उत्पादन में 16% की कमी आयेगी। तापमान में
वृद्धि के कारण पेड़ों तथा जमीन की ऊपरी सतह की नमी के वाष्पीकरण में तेजी आयेगी।
घास के बड़े-बड़े मैदानों में भी उल्लेखनीय ह्रास होगा। घास के साथ-साथ पशुओं के
चारे की कमी की विकराल समस्या उठ खड़ी होगी।
तापमान में वृद्धि के कारण वातावरण के निचले स्तर में
शक्तिशाली प्रदूषक 'ओजोन' की मात्रा में वृद्धि होगी। तापमान में वृद्धि के कारण मच्छरों
से फैलनेवाले रोग मलेरिया, पीला, बुखार और डेंगू आदि में भी बढ़ोत्तरी होगी।
प्रश्न: पर्यावरणीय नैतिकता एवं संभाव्य
समाधान पर एक लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : आज की दुनिया में भौतिक प्रगति की होड़ लगी हुई है।
उपभोक्ता वस्तुओं को उत्पादित करने वाले उद्योगों का तेजी के साथ विस्तार हो रहा
है। लेकिन इस क्रम में पर्यावरण को भयानक क्षति पहुँची है। यदि सूक्ष्मतापूर्वक
विचार किया जाय तो हम पायेंगे कि आज जिसे वैज्ञानिक प्रगति कहा जा रहा है, उसने
पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को विनाश की सीमा तक ला पहुँचाया है। अतः आज के
मानवों के समक्ष यह एक ज्वलंत प्रश्न है कि वह अपने कार्यों और आचरणों में क्या
परिवर्तन लाये जिससे कि पर्यावरण नष्ट न होने पाये। यद्यपि यह प्रश्न नया लगता है
किन्तु इसका संबंध मानव के पुरातन विकास से जुड़ा हुआ है। 'बी. बो. डैनियल' एवं
'एडवर्ड' के अनुसार पर्यावरण का उपयोग नैतिकता एवं आध्यात्मिकता से पूर्णतः संबंध
है। इस प्रकार पर्यावरण अवनयन और ह्रास का प्रश्न पर्यावरण नीति-शास्त्र एवं
पर्यावरण के प्रति आचरण से जुड़ा हुआ है।
संभाव्य समाधान : पर्यावरण की वर्त्तमान समस्या का समाधान भारतीय दर्शन और संस्कृति में
निहित है। वेद, उपनिषद, आरण्यक और रामचरितमानस जैसे ग्रंथ पर्यावरण और प्रकृति से
मनुष्य का अत्यंत पवित्र रिश्ता स्थापित करते हैं। वेद में पृथ्वी को माता एवं
मनुष्य को उसका पुत्र बताया गया है। वृक्षों, नदियों, सरोवरों, पर्वतों आदि में
देवत्व की प्रतिष्ठा की गयी है। जीव-हत्या, वृक्षों का काटना और नदी-जल को दूषित
कना अनैतिक कार्य माना गया है। हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म ने भारतीयों के मानस में
इस धारणा को बद्धमूल बना कर उन्हें प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा और पवित्रता के
प्रति प्रतिबद्ध बनाया। नीम, तुलसी, पीपल और वटवृक्षों के प्रति पूज्य भाव और उनका
सिंचन और पूजन हिन्दुओं की पुरातन धार्मिक आस्था का प्रभाव है। यह ज्ञातव्य तथ्य
यह है कि उपर्युक्त वृक्षों का पर्यावरण को स्वच्छ और सुरक्षित बनाये रखने में
महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिन्दू धर्म इन वृक्षों को काटने से मना करता है। भारतीय
धर्म कहता है कि दस वृक्षों को लगाना सौ पुत्रों को जन्म देने, सरोवरों के निर्माण
कराने के बराबर है। हिन्दू धर्म की मान्यता है कि नदियाँ (जैसे गंगा) और वृक्ष आदि
मनुष्य की तपस्या के फलस्वरूप पृथ्वी पर अवतरित हुए। ऋग्वेद की प्रारम्भिक ऋचाओं
में सूर्य, पृथ्वी, जल, वृक्ष आदि को देवता मानकर प्रणाम किया गया है। अतः हिन्दू
धर्म का पालक पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रति कठोर नहीं हो सकता। हिन्दू धर्म के
अनुसार हरे-भरे वृक्षों तथा फले-फूले वृक्षों और लताओं आदि को काटना मना है। नये
वृक्षों और लताओं को लगाना पुण्य कर्म माना गया है। पुण्य कर्म कहकर इस काम को
करने के लिए भारतीयों को उत्साहित किया गया है। अतः यदि पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त
बनाने तथा उसे संरक्षित रखने में हिन्दू धर्म और संस्कृति के ये तत्त्व सम्भाव्य
समाधान बन सकते हैं। भारतीय धर्म प्रत्येक वृक्ष, नदी और पर्वत पर किसी-न-किसी
देवता का निवास मानता है। देवताओं के वाहन पशु-पक्षी को मानने के पीछे यही आग्रह
है कि इनकी हत्या नहीं की जाय।
इस्लाम धर्म में भी जल स्त्रोतों को गन्दा करने पर हाथ
काटने जैसी कठोर सजा का प्रावधान है। जैन धर्म वृक्षों में लगे फूलों को तोड़ने
एवं हरे वृक्षों एवं हरे फलों को खाने से मना करता है।
भारतीय धर्म और आध्यात्मिकता का प्रभाव यहाँ के साहित्य पर
भी पड़ा है। यही कारण है कि यहाँ का साहित्य प्रकृति-प्रेम से ओत-प्रोत है। भारतीय
साहित्य भी प्रकृति और पर्यावरण के प्रति पूज्य भाव उत्पन्न करता है और उसकी
संरक्षा स्वच्छता एवं पवित्रता बनाये रखने पर बल देता है।
पर्यावरण के साथ नैतिकता का प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आज के उद्योगपति अपने उद्योगों को लगाये बिना उत्पादन करते हैं। इससे उन्हें कम उत्पादन पर लाभ अधिक प्राप्त होता है। उन्हें अपना यह काम इसलिए नैतिक लगता है क्योंकि प्रतिस्पर्द्धा के युग में उन्हें अपने उत्पादों पर मुनाफा अधिक मिल जाता है। इसलिए वे पर्यावरण शुद्धिकरण उपकरणों को अपने उद्योगों में नहीं लगाते। उद्योगपतियों की इस प्रवृत्ति पर कानूनी अंकुश लगाया जाना चाहिए ताकि उनके उद्योग पर्यावरण को और अधिक प्रदूषित नहीं करने पायें।
पर्यावरणीय अध्ययन(Environmental Studies)