उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण (LIBERALIZATION, PRIVATIZATION AND GLOBALIZATION)

उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण (LIBERALIZATION, PRIVATIZATION AND GLOBALIZATION)

उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण  (LIBERALIZATION, PRIVATIZATION AND GLOBALIZATION)

उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण

(LIBERALIZATION, PRIVATIZATION AND GLOBALIZATION)

प्रश्न. - भारत सरकार की उदारीकरण, निजीकरण एव वैश्वीकरण की नीति आर्थिक विकास में कहाँ तक सहायक साबित होगी?

अथवा. उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

अथवा. आर्थिक सुधार कार्यक्रम की आलोचनात्मक व्याख्या उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण के सन्दर्भ में कीजिए।

अथवा. वैश्वीकरण से क्या तात्पर्य है? वैश्वीकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा कीजिए।

भारत में आर्थिक सुधार का परिदृश्य (PERSPECTIVE OF ECONOMIC REFORM IN INDIA)

भारत को स्वतन्त्रता 15 अगस्त, 1947 को मिली थी। उस समय खाद्यान्न एवं अनेक उपभोक्ता वस्तुओं का अभाव था। औद्योगिक उत्पादन एवं औद्योगिक इकाइयों की मात्रा अत्यन्त ही सीमित थी। औद्योगिक संरचना के लिए आवश्यक तत्वों का अभाव था। सामाजिक सुविधाएं भी केवल नाममात्र की थीं। देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। अतः सरकार ने 1 अप्रैल, 1951 से आर्थिक नियोजन की नीति अपनायी जिसके अन्तर्गत पंचवर्षीय योजनाएं प्रारम्भ की गई। उद्योगों की स्थापना के लिए लाइसेन्स नीति अपनाई गई जिसके अन्तर्गत उद्योगों की स्थापना व संचालन के लिए आवश्यक संरचना का विकास देशी हितों को ध्यान में रखकर किया गया। विदेशी पूंजी भी आमन्त्रित की गई, लेकिन उसे देश के नियमों के अन्तर्गत ही विकसित होने का अवसर दिया गया। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी ऋण व सहायता प्राप्त की गई। देश में सार्वजनिक उद्योगों का विकास किया गया। उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन एवं वितरण पर प्रतिबन्ध लगाये गये। कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कृषि में यन्त्रीकरण की नीति अपनाई गई।

इससे देश का विकास हुआ। अनेक आधारभूत उद्योग स्थापित हुए जिससे न केवल औद्योगिक उत्पादन ही बढ़ा, परन्तु औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात भी किया जाने लगा। कृषि के क्षेत्र में अच्छा विकास हुआ। खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता-सी आयी। सामाजिक क्षेत्र में भी जनसाधारण को अनेक सुविधाएं (जैसे स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बीमा, सड़कें, परिवहन, आदि) मिलने लगीं।

परन्तु इन सबके होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारी स्थिति अच्छी नहीं रही। औद्योगिक उत्पादन की गुणवत्ता अन्तर्राष्ट्रीय स्तर से निम्न रही। सार्वजनिक क्षेत्र की अधिकांश इकाइयां पूंजी पर उचित प्रतिफल देने में असमर्थ रहीं। आयात निर्यात से अधिक रहे। अतः विदेशी मुद्रा की कमी सदा ही बनी रही। अतः जुलाई 1991 से नई आर्थिक नीति अंगीकार करते हुए आर्थिक सुधार की रणनीति या कार्यक्रम अपनाया गया।

भारत की नवीन आर्थिक नीति का मूलभूत उद्देश्य उदारीकरण की नीति अपनाकर निजीकरण को प्रोत्साहन करना तथा देश की अर्थव्यवस्था के भूमण्डलीकरण के लिए मार्ग प्रशस्त करना। इस नीति के अन्तर्गत भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था तथा विश्व बाजार से अच्छी तरह जोड़ने और उसे प्रतियोगी बनाने का प्रयास किया गया है।

आर्थिक सुधार के उद्देश्य (OBJECTIVES OF ECONOMIC REFORMS)

"आर्थिक नीति अथवा आर्थिक सुधार का आधारभूत उद्देश्य भारत के लोगों के जीवन की क्वालिटी में तेजी से एवं स्थिरता से सुधार लाना है। वैसे पी. एन. घर ने अपनी पुस्तक Economic Reforms in India में निम्नलिखित पांच उद्देश्य बताये हैं:

(1) स्वतन्त्र व्यापार (Liberalised Trade) सरकार की रणनीति है कि आयात-निर्यात व्यापार स्वतन्त्र हो तथा आयात-निर्यात शुल्क उन्नत देशों के समान हो जिसमें विवेक आयात लाइसेन्स (Discretionary Import Licensing) न हो सिवाय छोटी अपवाद सूची (Negative list) के।

(2) स्वतन्त्र विनिमय दर (Free Exchange Rate)- विनिमय दर प्रणाली व्यापार के लिए बंटवारा प्रतिवन्ध से स्वतन्त्र हो (Free of allocation restriction for trade)|

(3) वित्तीय प्रणाली (Financial System) वित्तीय प्रणाली ऐसी हो जो प्रतियोगी बाजार वातावरण और विनियमित सुदृढ़ विवेकपूर्ण सिद्धान्त एवं प्रमाप पर आधारित हो।

(4) कुशल एवं गतिशील औद्योगिक क्षेत्र (Efficient and Dynamic Industrial Sector) देश में कुशल एवं शक्तिमान औद्योगिक क्षेत्र हो जिस पर केवल पर्यावरण सुरक्षा, औद्योगिक सुरक्षा, अनुचित व्यापार व एकाधिकार व्यवहार तथा कपटपूर्ण बातों पर ही प्रतिवन्ध हो।

(5) स्वतन्त्र, प्रतियोगी एवं धारा प्रवाह सार्वजनिक क्षेत्र (An Autonomous, Competitive and Streamlined Public Sector) देश में स्वतन्त्र, प्रतियोगी एवं धारा प्रवाह सार्वजनिक क्षेत्र हो जिसमें आवश्यक संरचनात्मक वस्तुएं व सेवाएं बनें।

आर्थिक सुधारों के पीछे तर्क (RATIONALE BEHIND ECONOMIC REFORMS)

सरकार की बर्तमान आर्थिक नीति निम्न प्रकार की है जिसे आर्थिक सुधार रणनीति या कार्यक्रम पी कहा जाता है:

(1) राजकोषीय घाटे को ठीक करना (Correcting Fiscal Imbalances) विगत वर्षों में प्रतिवर्ष राजकोषीय घाटा काफी रहा है जिससे भुगतान सन्तुलन में अस्थिरता व मुद्रास्फीति बढ़ती रही है। जन. आर्थिक सुधार कार्यक्रम के अन्तर्गत राजकोषीय घाटा कम करने की बात कही गई है। यह घाटा 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 6.6 प्रतिशत था जो 2006-07 में 3.8 प्रतिशत रह गया।

(2) औद्योगिक नीति में सुधार (Reforms in Industrial Policy) - आर्थिक सुधार कार्यक्रम के अन्तर्गत औद्योगिक नीति में आमूलचूल परिवर्तन किया गया है।

(i) औद्योगिक लाइसेन्स प्रणाली समाप्त कर दी गई है। अब केवल 5 उद्योगों को ही स्थापना के लिए लाइसेन्स लेने की आवश्यकता होगी। इस प्रकार 90 प्रतिशत उद्योग लाइसेन्स प्रणाली के बाहर हो गये हैं। इस प्रकार अव क्षमता के विस्तार के लिए सरकार से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी।

(ii) MRTP गृहों को विनियोग व विस्तार के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है।

(iii) सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित उद्योगों की संख्या 17 से घटाकर 3 कर दी गई है।

(iv) विदेशी तकनीक को भारत में आना आसान कर दिया गया है।

(3) व्यापार एवं विनिमय दर नीतियां (Trade and Exchange Rate Policies) विगत वर्षों में व्यापार एवं विनिमय दर नीतियों पर कड़े सरकारी नियन्त्रण थे, परन्तु अब

(i) आयात शुल्क जो काफी थे उन्हें कई Stages में कम कर दिया गया है जैसे जुलाई 1991 में अधिकतम 150% तक करना, फरवरी 1992 में 110% तक करना, फरवरी 1993 में 85% तक करना व मार्च, 1995 में 50% तक करना। (वर्तमान में यह 20 से 40 प्रतिशत तक कर दी गई है।)

(ii) सोना व चांदी के आयात का उदारीकरण करना,

(iii) रुपये की विनिमय दर विदेशी विनिमय बाजार में मांग व पूर्ति के अनुसार निर्धारित होना।

(4) विदेशी विनियोग नीति (Foreign Investment Policy) - विदेशी विनियोग नीति देश के औद्योगिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। अतः 48 प्राथमिकता वाले उद्योगों को, यदि उनकी पूंजी में विनियोग 51 प्रतिशत से अधिक का नहीं है तो उन्हें Automatic Approval माना जायेगा।

(5) कर सुधार (Tax Reforms) सरकार करवंचना को रोकने व अधिक कर वसूल करने के उद्देश्य से करों में सुधार कर रही है जिसके अन्तर्गत चलैया समिति की प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों से सम्बन्धित अनेक सिफारिशों को सरकार ने मानकर कार्यरूप में परिणत कर दिया है

(i) व्यक्तिगत आयकर की अधिकतम दर 30 प्रतिशत कर दी गई है।

(ii) छोटे व्यापारियों व दुकानदारों को निश्चित रकम के रूप में देने की सुविधा प्रदान की गई है।

(iii) आयातित वस्तुओं पर आयात शुल्क कम कर दिया गया है व आयात-निर्यात शुल्क के ढांचे को सरल बनाया गया है।

(iv) उत्पाद शुल्क में भी सरलीकरण किया जा रहा है।

(6) आर्थिक क्षेत्र में सुधार (Reforms in Financial Sector) आर्थिक क्षेत्र में सुधार के लिए सरकार ने यह कार्य किये हैं:

(i) बैंकों के लिए नवीन सिद्धान्त बनाये हैं जिससे कि उनके वार्षिक खाते सही स्थिति को बता सकें।

(ii) बैंकों के लिए SLR की सीमा घटाई जा रही है जिससे कि उनके पास अधिक कोष रह सकें।

(iii) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी बाजार से अपनी पूंजी एकत्रित करने की अनुमति दे दी गई है, लेकिन 51 प्रतिशत पूंजी सदा ही सरकार के पास रहेगी।

(iv) निजी क्षेत्र की बैंकें अपना विकास, विना राष्ट्रीयकरण के भय के कर सकती हैं।

(v) पूंजी बाजार में भी इसी प्रकार के सुधार प्रारम्भ किये गये हैं-सेवी (SEBI) को अब वैधानिक अधिकार (Statutory Powers) दे दिये गये हैं। पूंजी नियन्त्रक का कार्यालय बन्द कर दिया गया है। सेबी ने पूंजी बाजार को नियमित करने के लिए अनेक नियम व उपनियम लागू किये हैं। राष्ट्रीय स्कन्ध विनिमय स्थापित किया जा चुका है जो अन्य विनिमयों के लिए एक मॉडल होगा।

(7) सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार (Reforms in Public Sector) सार्वजनिक क्षेत्र ने आशा के अनुरूप कार्य नहीं किया है। अधिकांश इकाइयां घाटे में चल रही हैं जिनका भार परोक्ष रूप से जनसाधारण पर पड़ता है जिससे सामाजिक सेवाएं प्रभावित हो रही हैं, क्योंकि उन्हें पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिल पाती है। अतः (i) घाटे वाली इकाइयों को गैर-योजना ऋण नहीं दिये जायेंगे।

(ii) लाभ देने वाली सार्वजनिक इकाइयों को अपनी पूंजी का 49 प्रतिशत तक निजी क्षेत्र को देने की अनुमति दे दी गई है।

(8) अगले तीन वर्षों के लिए सुधार कार्य-सूची (Reforms Agenda for Next Three Years) सरकार ने अगले तीन वर्षों के लिए निम्न कार्यक्रम घोषित किया है :

(i) राजकोषीय एकीकरण (Fiscal Consolidation)- चालू खाते का घाटा जो 1992-93 में सकल बरेलू उत्पाद (GDP) का 2.2 प्रतिशत था उसे घटाकर 1 प्रतिशत नीचे लाना है। साथ ही खाद, खाद्यान्न, निट्टी का तेल व गैस, विद्युत्, आदि को जो सहायता (Subsidy) दी जाती है उसे समाप्त करना या कम-से-कम करना है।

(ii) कर सुधारों को पूरा करना (Completion of Tax Reforms)- सरकार का उद्देश्य कर प्रणाली को सरल बनाना तथा आधार को विस्तृत कर उसका कुशल प्रशासन करना है। अप्रत्यक्ष करों के लिए VAT प्रणाली अपनानी है। अगले तीन वर्षों में आयात-निर्यात शुल्क को औसतन 25 प्रतिशत तक व अधिकतम 50 प्रतिशत तक लाना है। छूटों को समाप्त करना है।

(iii) मानव संसाधन विकास (Human Resources Development) मानव विकास के सूचक प्रत्याशित आयु, साक्षरता, स्कूलों में छात्र संख्या व स्वास्थ्य रक्षा। यह सभी भारत में बहुत पीछे हैं। अतः केंद्र व राज्य सरकारें मिलकर प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, स्त्री व शिशु कल्याण पर अपने बजट का अधिक हिस्सा व्यय करेंगी। उच्च शिक्षा पर दी जाने वाली सहायता कम की जायेगी।

(iv) रोजगार एवं गरीबी उन्मूलन (Employment and Poverty Alleviation) यदि हमारे नागरिक शिक्षित हैं और उन्हें आधार स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं तो उन्हें आर्थिक सुधारों से लाभ होगा। अतः सरकार अनीण विकास कार्यक्रम, जबाहर योजना व सार्वजनिक वितरण पर अधिक ध्यान देगी जिससे कि इस वर्ग थे अधिक लाभ मिले। ग्रामीण उद्योगों व कला का प्रभावकारी ढंग से विकास किया जायेगा।

(v) आर्थिक क्षेत्र सुधार (Economic Sector Reform) सामान्य ऋण माफी (generalised loan waivers) नहीं की जायेगी। ऋण वापसी प्रक्रिया में तेजी लायी जायेगी। वैधानिक तरलता अनुपात (SLR) धीरे-धीरे 25 प्रतिशत तक लाया जायेगा। बैंक जमा व उधार की अधिकतम व न्यूनतम दरों में संशोधन किया जायेगा। ऐसा वातावरण तैयार किया जायेगा जिसमें कृषि व अन्य प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को अधिक उधार दिया जा सके। बैंकों के पर्यवेक्षण के लिए संस्थाएं व तरीके मजबूत किये जायेंगे। मेहरोत्रा समिति की सिफारिशें आने के बाद जीवन व सामान्य बीमा सेवाएं कुशल एवं प्रभावकारी बनाई जायेंगी पूंजी बाजार के सुधार के लिए उपाय किये जायेंगे जिससे कि प्रतिभूति घोटाला जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके।

(vi) बाहरी क्षेत्र की जीव्यता के लिए नीतियां (Policies for External Sector Viability) निर्यात पर जो मात्रा सम्वन्धी प्रतिबन्ध लगे हैं और वे समाप्त नहीं हो पाये हैं उन्हें शीघ्रता से समाप्त किया जायेगा। तटकर शुल्क कम किये जायेंगे। आयात पर लाइसेन्स सम्बन्धी प्रतिबन्ध शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगे। उपभोक्ता बस्तुओं को प्राप्त संरक्षण कम किया जायेगा। उद्योगों के लिए अध संरचना में सुधार किया जायेगा। पेट्रोलियम पदार्थों के विकास के लिए निजी क्षेत्र को लाया जायेगा। विदेशी ऋण भार से बचने के लिए निर्यात को बढ़ावा दिया जायेगा। चालू खाते का घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 1 प्रतिशत से भी कम पर लाया जायेगा।

उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण (वैश्वीकरण) की अवधारणाएं

(CONCEPTS OF LIBERALIZATION, PRIVATIZATION AND GLOBALISATION)

भारत की नवीन आर्थिक नीति अथवा आर्थिक सुधारों का प्रमुख उद्देश्य है देश में उदारीकरण, निजीकरण को बढ़ावा देकर वैश्वीकरण के मार्ग को प्रशस्त करना। यहां हम आर्थिक नीति के इन अंगों की विवेचना करेंगे।

उदारीकरण (LIBERALIZATION)

उदारीकरण का अर्थ (Meaning of Liberalization) - आर्थिक उदारीकरण के दो अंग है प्रथम, उन उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिए खोलना जो पहले सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे तथा द्वितीय, निजी क्षेत्र के लिए नियमों एवं प्रतिबन्धों में ढील देना अथवा उनमें उदारता बरतना। इस तरह उदारीकरण से तात्पर्य है आर्थिक नीतियों में सरकारी प्रतिबन्धों की छूट। जब सरकार व्यापार में उदारीकरण की नीति अपनाती है तो इसका तात्पर्य है उसने प्रशुल्क एवं आर्थिक अनुदान (Tariffs and Subsidies) तथा अन्य प्रतिबन्धों को हटा दिया है ताकि देश में वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्बाध आयात-निर्यात हो सके। उद्योगों में उदारीकरण की नीति अपनाने का तात्पर्य है कि वे उद्योग जो पहले सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे उन्हें निजी क्षेत्र के लिए खोल देना। निजी क्षेत्र को पूर्व में उद्योगों की स्थापना करने के लिए सरकार की स्वीकृति एवं लाइसेन्स लेना पड़ता था। वर्तमान में इसे सरकार द्वारा समाप्त कर दिया गया है अब केवल 5 उद्योग ही बचे हैं जिनकी स्थापना के लिए लाइसेन्स लेना अनिवार्य है। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित उद्योगों की संख्या भी घटाकर तीन कर दी गई है। निजी क्षेत्र को अब बहुत सारे नियमों एवं प्रतिबन्धों में छूट दे दी गई है तथा विभिन्न औपचारिकताओं का सरलीकरण कर दिया गया है।

'उदारीकरण' एवं 'बाजार-उन्मुख अर्थव्यवस्था' - सैद्धान्तिक रूप से उदारीकरण एवं 'बाजार उन्मुख अर्थव्यवस्था' दो भिन्न अवधारणाएं हैं, फिर भी उदारीकरण से बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है। बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था बाजार की मांग एवं पूर्ति की शक्तियों के विकास से प्रभावित होती है तथा सरकार द्वारा उत्पादकों पर किसी तरह के प्रतिबन्ध नहीं लगाए जाते हैं। जब उदारीकरण की नीति को अपनाया जाता है तब अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका क्रमशः कम होती जाती है और बाजार शक्तियों की भूमिका क्रमशः बढ़ती जाती है क्या उत्पादन किया जाए, कितना उत्पादन किया जाए तथा किसके लिए उत्पादन किया जाय यह निर्णय निजी उद्यमियों द्वारा लिया जाता है। उत्पादक वर्ग बाजार की मांग-पूर्ति की शक्तियों के अनुरूप विभिन्न निर्णय लेते हैं।

उदारीकरण नीति की आवश्यकता अथवा उद्देश्य उदारीकरण नीति को अपनाने के पीछे निम्नलिखित उद्देश्य छिपे होते हैं :

1. इससे प्रतिस्पर्धात्मक औद्योगिक वातावरण का सृजन होता हैं।

2. देश के निवासियों का सस्ती और गुणवत्ता युक्त वस्तुएं उपलब्ध होती है।

3. विदेशी निवेश को प्रोत्साहन मिलता है।

4. संसाधनों का समुचित उपयोग होता है।

5. औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिलता है।

6. अर्थव्यवस्था का भूमण्डलीकरण होने में मदद मिलती है।

7. घरेलू उत्पादन प्रणाली में सुधार होता है।

8. रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है।

9. लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है।

भारत में उदारीकरण नीति

भारत में अपनायी गई उदारीकरण नीति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

1. नरम उदारीकरण नीति (1985 में 1991) वर्ष 1985 में पूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी के शासनकाल में उदारीकरण का युग प्रारम्भ हुआ। इस उदारीकरण नीति के अन्तर्गत देश में निम्नलिखित कदम उठाए गए:

(1) मार्च 1985 में सरकार द्वारा 25 बड़ी श्रेणी के उद्योगों को लाइसेन्स से मुक्त करने की घोषणा की गई।

(2) 'एम. आर. टी. पी' तथा 'फेरा' के अन्तर्गत आने वाले 22 उद्योगों को लाइसेन्स लेने से मुक्त कर दिया गया तथा एम. आर. टी. पी. कम्पनी की पूंजी निवेश की सीमा को 20 करोड़ रु. से बढ़ाकर 100 करोड़ रुपए कर दिया गया।

(3) जून 1985 को 82 फार्मास्युटिकल्स कम्पनियों को भी लाइसेन्स मुक्त कर दिया गया।

(4) लघु उद्योगों की उन्नति के लिए पूंजी निवेश की सीमा को 20 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 35 करोड़ रुपए कर दिया गया। सहायक उद्योगों के लिए यह सीमा बढ़ाकर 45 करोड़ रुपए कर दी गई।

(5) शत प्रतिशत निर्यातोन्मुख इकाइयों को लाइसेन्स से पूर्णतया मुक्त कर दिया गया।

वर्ष 1985-91 की अवधि के दौरान उदारीकरण का यह क्रम कमोवेश जारी रहा। देश में औद्योगिक इकाइयों को विभिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दिए गए तथा छूट प्रदान की गई, परन्तु औद्योगीकरण एवं आर्थिक विकास में आशातीत सफलता नहीं प्राप्त की जा सकी। अतः यह आवश्यक समझा गया कि देश की आर्थिक एवं औद्योगिक नीति में मूलभूत परिवर्तन लाकर उदारीकरण की नीति को और अधिक प्रोत्साहन दिया जाय इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए जुलाई 1991 में नयी आर्थिक नीति की घोषणा की गई जिसने देश में उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को नई दिशा प्रदान की।

2. गहन उदारीकरण नीति (1991 के पश्चात की अवधि) वर्ष 1991 में नरसिम्हाराव की सरकार ने जो नई आर्थिक नीति घोषित की उसमें औद्योगिक, व्यापारिक, वित्तीय, मौद्रिक आदि क्षेत्रों में उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाया गया। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने, भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ने तथा देश की अर्थव्यवस्था में निजीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देने की दिशा में अनेक कदम उठाए गए।

उदारीकरण नीति के प्रति आशंकाएं

आर्थिक उदारीकरण नीति के प्रति प्रायः निम्नलिखित आशंकाएं व्यक्त की जाती हैं:

(1) उदारीकरण नीति के फलस्वरूप भारत में विदेशी निवेश बढ़ा है परन्तु विदेशी कम्पनियां प्रायः उन्हीं क्षेत्रों में निवेश करती हैं जहां लाभ की सीमा अधिक होती है। यहां कम्पनियां देश के हितों को ध्यान में न रखकर अपने लाभ के प्रति ज्यादा सचेत होती हैं।

(2) आयात शुल्क में कटौती और मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटने से देश में वे वस्तुएं आने लगेगी जिनका उत्पादन देश में ही होता है। हमारे उद्योग-धन्धे विदेशी बड़ी कम्पनियों से प्रतियोगिता नहीं कर पाएंगे और धीरे-धीरे बन्द हो जाएंगे और अंततः देश के उद्योग-धन्धों पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा।

(3) भारत सरकार उदारीकरण की नीति विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में आकर कर रही है जो विकसित देशों के हित में है।

निजीकरण (PRIVATIZATION)

निजीकरण से अर्थ (Meaning of Privatization) - निजीकरण से तात्पर्य उस नीति से है जिसके द्वारा किसी उद्यम के सरकारी स्वामित्व को निजी स्वामित्व में बदला जाता है या किसी लोक उद्योग के लोक प्रबन्धन (Public management) को निजी क्षेत्र के हाथ में सौंप दिया जाता है। इसके अतिरिक्त जो क्षेत्र अब तक सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे उन्हें निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया जाता है। अन्य शब्दों में निजीकरण समाज में एक नयी संस्कृति के विकास का बोध कराता है जिसमें विपणन, प्रतिस्पर्धा तथा कुशलता आर्थिक निर्णय लेने के मार्गदर्शी सिद्धान्त बन जाते हैं। अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की नीति को अपनाना तथा प्रतिबन्धों में ढील देना निजीकरण के लिए एक आवश्यक शर्त है। इंग्लैण्ड में निजीकरण के द्वारा स्थानीय संस्थाओं के स्वामित्व वाले भवनों को उनमें रहने वाले किराएदारों को बेच दिया गया तथा सरकारी स्वामित्व वाली कम्पनियों के 50 प्रतिशत शेयरों को निजी कम्पनियों को बेच दिया गया। ऐसा करने के पीछे यह तर्क दिया गया कि इससे आर्थिक कार्यक्षमता में वृद्धि होगी।

निजीकरण के उद्देश्य (Objective of Privatisation)

अर्थव्यवस्था के निजीकरण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित माने जाते हैं :

1. आर्थिक विकास हेतु वित्तीय संसाधनों को जुटाना।

2. निजी क्षेत्र की प्रबन्धकीय योग्यता एवं दक्षता का उपयोग करना।

3. राष्ट्रीय आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं के अनुरूप निजी क्षेत्र की उत्पादन क्रियाओं को सार्वजनिक क्षेत्र के साथ समन्वित करना।

4. बाह्य ऋणों को घटाना।

5. अर्थव्यवस्था को प्रतियोगी बनाना।

6. नई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना कर आयात-प्रतिस्थापन की प्रक्रिया को बल प्रदान करना।

7. उत्पादकता में वृद्धि करना तथा परिचालन क्षमता को बढ़ाना।

8. उपयुक्त तकनीक के प्रसार, अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण तथा उद्योगों में विवेकीकरण के लिए आर्थिक शोध एवं विकास के कार्यक्रम को बढ़ावा देना।

निजीकरण का क्षेत्र (SCOPE OF PRIVATIZATION)

निजीकरण का अर्थ है निजी क्षेत्र को राज्य के स्वामित्व वाले उद्योगों में सम्मिलित करने की सामान्य प्रक्रिया। निजीकरण के क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली क्रियाएं निम्नवत हैं :

1. किसी सरकारी कम्पनी को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से खरीद लेना;

2. कम्पनी को कॉन्ट्रेक्ट पर लेना;

3. प्रबन्ध का निजीकरण - प्रबन्ध सम्बन्धी कॉन्ट्रेक्ट देना, लीज पर देना या फ्रेन्चाइज व्यवस्था।

निजीकरण में तीन प्रकार के उपाय शामिल हैं:

(i) स्वामित्व-सम्बन्धी उपाय (Measures relating Ownership)

पूर्ण या आंशिक स्वामित्व निजी उद्यम के हाथ देना। ऐसा निम्न प्रकार से हो सकता है :

(क) पूर्ण विराष्ट्रीकरण (Total Denationalisation)- इसका अर्थ है लोक उद्यमों के पूर्ण स्वामित्व को निजी हाथों में हस्तान्तरित करना।

(ख) संयुक्त कम्पनी (Joint Venture) - लोक उद्यम को आंशिक रूप से निजी स्वामित्व में हस्तान्तरित करना। निजी स्वामित्व 25 से लेकर 50 प्रतिशत तक हो सकता है।

(ग) परिसमापन (Liquidation)- किसी व्यक्ति के हाथ सरकारी सम्पत्ति की बिक्री। जो व्यक्ति इसे खरीदता है वह इसे पूर्व कार्य में लगा सकता है या किसी नई वस्तु के उत्पादन में।

(घ) प्रबन्धकों द्वारा खरीद (Management Buyout) - यह विराष्ट्रीकरण का विशेष रूप है। इसका अर्थ है कम्पनी की सम्पत्ति को कर्मचारियों के हाथ बेच देना। इस काम के लिए बैंक से ऋण की व्यवस्था भी की जाती है। कर्मचारियों के स्वामी हो जाने के कारण उन्हें वेतन के साथ-साथ लाभांश में भी हिस्सा मिलता है।

(ii) संगठनात्मक उपाय (Organisational Measures)

राज्य के नियन्त्रण को सीमा के अन्दर रखने के लिए निम्न संगठनात्मक उपाय किए जा सकते हैं :

(क) होल्डिंग कम्पनी निर्णय लेने का कार्य सरकार करती है, किन्तु दिन-प्रतिदिन का संचालन कार्य स्वतन्त्र रूप से होल्डिंग कम्पनी करती है।

(ख) लीज पर देना (Leasing)- स्वामित्व को बरकरार रखते हुए, लोक उद्यम किसी निजी पार्टी को एक विशेष अवधि के लिए उद्यम को लीज पर दे सकता है।

(ग) पुनर्गठन (Restructuring) - लोक उद्यम को बाजार के अनुशासन में लाने के लिए दो प्रकार के पुनर्गठन की जरूरत होती है, यथा,

वित्तीय पुनर्गठन के अन्तर्गत कुल हानि को रद्द कर दिया जाता है तथा ऋण इक्विटी अनुपात को विवेकपूर्ण बनाया जाता है।

बुनियादी पुनर्गठन के द्वारा वाणिज्यिक क्रियाओं को फिर से परिभाषित किया जाता है जिन्हें लोक उद्यम को करना है। कुछ पुरानी क्रियाओं को त्याग दिया जाता है तथा नई क्रियाओं को लिया जाता है।

(iii) संचालन-सम्बन्धी उपाय (Operational Measures)

जब पूर्ण विराष्ट्रीयकरण की क्रियाएं अपनाई नहीं जाती हैं, संगठन की कार्यक्षमता में वृद्धि के लिए कुछ संचालन सम्बन्धी उपाय किए जाते हैं, जैसे, निर्णय लेने में स्वतन्त्रता, कार्यक्षमता या उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए सभी प्रकार के कर्मचारियों को कुछ प्रेरणाएं, बाजार से कच्ची सामग्री खरीदने की छूट, निवेश कसौटियों (investment criteria) का विकास, पूंजी बाजार से फण्ड की उगाही करने की अनुमति, आदि। भारत में निजीकरण के लिए जिन तरीकों को अपनाया गया है, वे इस प्रकार हैं :

(i) प्रबन्धकीय नियन्त्रण को निम्न किसी तरीके से निजी कम्पनियों के हाथ हस्तान्तरण करना :

कुल इक्विटी के कुछ भाग (सामान्यतः 25 प्रतिशत या इससे अधिक) को बेच देना, या

लीज पर देना।

(ii) निनिवश (Disinvestment)- सरकारी इक्विटी के एक भाग को खुदरा निवेशकों, म्युच्युअल रुण्ड, वित्तीय संस्थाओं, उद्यम के कर्मचारियों, आदि को बेच देना। यहां प्रबन्ध का हस्तान्तरण नहीं होता है।

(iii) अनुकूल विक्री (Strategic Sale) - लोक उद्यमों की इक्विटी को बेचकर जो रकम प्राप्त की जाती है उसे सरकार बर्बाद नहीं करती है, क्रेता उस कम्पनी में और ज्यादा निवेश करता है, प्रबन्ध इन्हीं केताओं के हाथ में चला जाता है। ये क्रेता विविधता तथा तकनीकी सुधार के लिए और निवेश करते हैं। इन सब कारणों से कम्पनी के संचालन में सुधार आता है।

(iv) कॉरपोरेटाइजेशन (Corporatisation) - इस व्यवस्था के अन्तर्गत, लोक उद्यमों का पुनर्गठन व्यावसायिक ढंग से होता है। उन्हें कर देना पड़ता है, बिना सरकारी समर्थन के बाजार से पूंजी उगाहनी होती है तथा वाणिज्यिक सिद्धान्तों के अनुसार उनका संचालन होता है। सरकारी कम्पनी (Corporation) का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना तथा निवेश पर उचित प्रतिफल (return) प्राप्त करना होता है। ऐसी कंपनियां सरकारी नियन्त्रण तथा बजट के नियमन से बाहर होती हैं।

भारत में निजीकरण को प्रोत्साहित करने वाले कारक

(FACTORS ENCOURAGING PRIVATIZATION IN INDIA)

भारत में निजीकरण को प्रोत्साहित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं :

1. नए आर्थिक सुधार कार्यक्रम- भारत में नए आर्थिक सुधारों के अन्तर्गत 100 करोड़ रुपए से अधिक पूंजी परिसम्पत्ति वाले उद्योगों को बिना केन्द्रीय सरकार की अनुमति के स्थापित करने की अनुमति दी गई, सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों में पर्याप्त कमी कर दी गई, बड़े औद्योगिक घरानों को उद्योगों के विस्तार की छूट दी गई, लाइसेन्स प्रणाली का सरलीकरण किया गया तथा इसको केवल 5 उद्योगों तक ही सीमित कर दिया गया, विदेशी निवेशकों की 51 प्रतिशत तक समता पूंजी रखने की छूट, फेरा और एम. आर. टी. पी. के नियमों में ढील दी गई, रुपए को पूर्ण परिवर्तनशील बनाया गया, सीमा एवं उत्पादन शुल्कों में कमी की गई। इन सबके फलस्वरूप ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिसमें निजी उद्यमी अधिक सहजता से कार्य कर सकेंगे।

2. भारतीय उद्योगों को प्रतिस्पर्धी बनाना- भारतीय उद्योगों को निर्यातोन्मुखी, गुणवत्तायुक्त उत्पादों का निर्माण, उनके लागत में कमी लाने तथा उन्हें विश्व बाजार में प्रतियोगी बनाने की दृष्टि से निजीकरण को प्रोत्साहित किया गया।

3. विदेशी कम्पनियों का भारत के प्रति रुझान- विकसित पूंजीवादी देशों में अति उत्पादन एवं मंदी की स्थिति व्याप्त होने के कारण विदेशी कम्पनियां भारत के विस्तृत बाजार और यहां होने वाली कम प्रतियोगिता के कारण भारत की ओर आकर्षित हुईं। इससे निजीकरण को बढ़ावा मिला।

4. सरकार का बढ़ता विदेशी ऋणभार- भारत सरकार का बढ़ता जा रहा विदेशी ऋणभार, सार्वजनिक उपक्रमों में लगातार होता घाटा, इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह सार्वजनिक उपक्रमों के कुशल संचालन एवं विदेशी ऋणभार से मुक्ति के लिए निजीकरण का सहारा ले।

5. उत्पादन बढ़ाने का विस्तृत आधार- भारत में औद्योगिक विकास का विस्तृत आधार उपलब्ध है। यहां एक ओर जहां विस्तृत बाजार उपलब्ध है वहीं दूसरी ओर आधारभूत संरचना का पर्याप्त विकास हो चुका है। भारत में सस्ता श्रम, कच्चा माल, तकनीकी एवं प्रबन्धकीय कुशलता पर्याप्त रूप से उपलब्ध है। इससे निजी उद्यमियों को कम लागत पर गुणवत्तायुक्त वस्तुओं को बाजार की मांग के अनुरूप उत्पादन करने में सहायता मिलेगी। इस तरह देश में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने पर देश के लोगों को कम कीमत पर अच्छी वस्तुएं प्राप्त हो सकेंगी साथ ही घरेलू बाजार की आवश्यकताओं को पूरा करने के पश्चात विदेशी बाजारों में वस्तुओं को बेचा जा सकेगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था में निजीकरण के प्रयास

(EFFORTS TO PRIVATIZATION IN INDIAN ECONOMY)

भारतीय अर्थव्यवस्था में निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं:

1. सार्वजनिक क्षेत्र का संकुचन देश में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित उद्योगों की संख्या को 17 से घटाकर वर्तमान में तीन कर दिया गया है। ये उद्योगों हैं- परमाणु ऊर्जा, रेलवे परिवहन तथा खनिज जो परमाणु ऊर्जा के काम आते हैं।

2. औयोगिक लाइसेन्सिग की समाप्ति वर्तमान में 5 उद्योगों को छोड़कर शेष के लिए लाइसेन्सिंग की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है। ये पांच उद्योग हैं- (i) मादक पेयों का आसवन एवं किण्वासवन, (ii) तम्बाकू के सिगार, सिगरेट तथा विनिर्मित तम्बाकू प्रतिस्थापक, (iii) इलेक्ट्रॉनिक एयरोस्पेस तथा सभी प्रकार के रक्षा उपकरण, (iv) औद्योगिक विस्फोटक तथा (v) खतरनाक रसायन।

3. निजी क्षेत्र की सहभागिता भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है। विद्युत, इंधन, परिवहन, संचार तथा सुरक्षा आदि कतिपय महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जिनमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने हेतु निजी क्षेत्र को आमन्त्रित किया गया है।

4. सार्वजनिक क्षेत्र का पुनर्गठन सार्वजनिक क्षेत्र के पुनर्गठन का प्रयास किया गया है जिसमें इसके आधुनिकीकरण के साथ ही साथ इसके निजीकरण को भी सम्मिलित किया गया है।

5. बोध ज्ञापन प्रणाली द्वारा सुधार-सरकार ने 'सार्वजनिक उद्यम नीति समीक्षा समिति' (अर्जुन सेन गुप्ता समिति, 1985) के सिफारिशों के आधार पर बहुत से सार्वजनिक उद्यमों के साथ बोध ज्ञापन के रूप में समझौते कर लिए हैं। बोध ज्ञापन का मुख्य उद्देश्य स्वायत्तता और उत्तरदायित्व में संतुलन स्थापित करना है। वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र के 109 उपक्रमों ने बोध ज्ञापन प्रणाली (MOU-Memorandum of Undertaking) पर हस्ताक्षर किए हैं।

6. सार्वजनिक क्षेत्र की स्वामित्य पूंजी का विनिवेश-भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश की प्रक्रिया को चालू किया गया है। यह निर्णय किया गया है कि सार्वजनिक उपक्रमों में सार्वजनिक स्वामित्व पूंजी की मात्रा को घटाकर 26 प्रतिशत कर दिया जाएगा। भारत में अब तक विनिवेश का वांछित लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सका है।

7. बड़े औद्योगिक घरानों के लिए विनियोग की सीमा समाप्ति एकाधिकार व्यवहार तथा प्रतिवन्धात्मक गतिविधि अधिनियम में उल्लिखित तथा बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों पर लागू सभी विनियोग नियन्त्रण की सीमा को समाप्त कर दिया गया है। अब कोई भी उपक्रम अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठान अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र में अपनी गतिविधियां प्रारम्भ करने तथा उसका विस्तार करने के लिए स्वतन्त्र होगा।

8. रुग्ण उद्योगों से सम्बन्धित नीति यह निर्णय किया गया कि रुग्ण औद्योगिक इकाइयों को आवश्यक कार्यवाही हेतु औद्योगिक तथा वित्तीय पुनरुद्धार बोर्ड (BIFR) को सौंप दिया जाएगा। ऐसी औद्योगिक इकाइयां जिनके सुधार की सम्भावना समाप्त हो चुकी है उन्हें बंद कर दिया जाएगा।

9. निजी क्षेत्र की बीमा कम्पनियों को अनुमति-भारतीय बीमा बाजार की निजी वीमा कम्पनियों के लिए खोल दिया गया है। अब तक 13 निजी कम्पनियों को बीमा कारोबार शुरू करने की अनुमति दी जा चुकी है।

10. सार्वजनिक उद्यमों के शेयरों की विक्री सार्वजनिक क्षेत्र के 5 से 20% तक शेवरों को वित्तीय संस्थाओं, जनता, श्रमिकों तथा म्यूचुअल फण्ड्स को बेचा गया है। शेयरों की विक्री से सार्वजनिक उद्यमों के संचालन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होगा।

भारत में विनिवेश के द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण

(PRIVATIZATION OF PUBLIC SECTOR THROUGH DISINVESTMENT IN INDIA)

भारत की नवीन औद्योगिक नीति की घोषणा जुलाई 1991 में की गई। इसमें स्वीकार किया गया कि पिछले चार दशकों में औद्योगिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है, किन्तु फिर भी अब समय आ गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र की अवधारणा के विषय में पुनर्विचार किया जाए। कुछ उपलब्धियों के होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में अनेक दोष व्याप्त हो चुके हैं। जैसे घाटे की निरन्तर स्थिति, गिरती हुई उत्पादकता, श्रमिकों में घटती हुई दक्षता तथा प्रवन्ध एवं नियन्त्रण का घटता हुआ स्तर, आदि। अतः सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के विषय में एक महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लिया गया जो इनके निजीकरण (Privatization) के बारे में था। इसके अनुसार ऐसे उपक्रमों की स्वामि-पूंजी (Equity Capital) में सरकारी निवेश के साथ-साथ निजी क्षेत्र (Private Sector) का समावेश भी किया जाएगा। इसका आशय यह था कि विभिन्न चरणों में इनकी अंश पंजी के 49 प्रतिशत भाग का क्रमशः विनिवेश (disinvestment) किया जाएगा। इसके बाद से सरकार द्वारा इस निर्णय पर निरन्तर अमल किया जा रहा है। स्वामि-पूंजी में निजी क्षेत्र की भागीदारी से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी क्षेत्र की कुशल प्रबन्ध व्यवस्था का लाभकी प्राप्त हो सकेगा। इस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण की दिशा में, नीति सम्बन्धी यह निर्णय भारतीय औद्योगिक विकास के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ है।

विगत वर्षों में विनिवेश के लिए विभिन्न वर्षों में जो लक्ष्य निर्धारित किए गए, उनकी तुलना में वास्तविक विनिवेश की राशि पर्याप्त कम रही। इसे संलग्न तालिका द्वारा देखा जा सकता है। सरकार ने अपनी विनिवेश नीति की घोषणा की है कि विनिवेश का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय साधनों एवं परिसम्पत्तियों का अनुकूलतम उपयोग करना है तथा विशेष रूप से देश के सार्वजनिक क्षेत्र के लिए निहित उद्देश्यों के अनुरूप इन उपक्रमों की उत्पादकता एवं कुशलता में वृद्धि करना है। विनिवेश की प्रक्रिया जारी रहेगी, किन्तु इसे इस प्रकार सम्पन्न किया जाएगा कि जिससे इन उपक्रमों में नियोजित श्रमिकों एवं कर्मचारियों के हितों की पूर्ण सुरक्षा की जा सके। इसके लिए स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति (Voluntary Retirement Schemes) भी लागू की गई है।

सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश

वर्ष

लक्ष्य (करोड़ रु.)

उपलब्धि (करोड़ रु.)

1994-95

4,000

4,843

1995-96

7,000

362

1996-97

5,000

380

1997-98

4,800

902

1998-99

5,000

5,371

1999-2000

10,000

1,860

2000-01

10,000

1,871

2001-02

12,000

5,632

2002-03

12,000

3,348

2003-04

14,500

15,547

2004-05

4,000

2,765

2005-06

-

1,581

2006-07

3,840

528

2007-08

1,651

-


सार्वजनिक उपक्रमों में निजीकरण एवं विनिवेश प्रक्रिया का औचित्य

(RELEVANCE OF PRIVATIZATION AND DISINVESTMENT PROCESS IN PUBLIC ENTERPRISES)

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में निजी क्षेत्र की सहभागिता बढ़ाने का प्रमुख उद्देश्य है- सार्वजनिक उपक्रमों में व्याप्त कमियों एवं असफलताओं को दूर करके उनकी लाभदायकता बढ़ाना। सार्वजनिक उपक्रमों में निजीकरण एवं विनिवेश प्रक्रिया को निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर औचित्यपूर्ण कहा जा सकता है (1) निजी क्षेत्र की कुशल प्रवन्धकीय क्षमता का सार्वजनिक उपक्रमों में प्रयोग सम्भव। (2) सार्वजनिक उपक्रमों का आधुनिकीकरण करके उत्पादकता और लाभदर में वृद्धि करना सम्मव। (3) निजी क्षेत्र की प्रवन्धकीय क्षमता का प्रयोग करके लम्बी परिपक्वता अवधि को घटाना सम्भव। (4) सार्वजनिक क्षेत्र की बीमार इकाइयों का पुनरोद्धार सम्भव। (5) सार्वजनिक उपकरणों की अल्प-शोषित एवं अशोषित उत्पादन क्षमता का पूर्ण विदोहन सम्भव। (6) सार्वजनिक उपकरणों में बढ़ती लालफीताशाही एवं सरकारी हस्तक्षेप को नियन्त्रित करना सम्भव। (7) घाटे में चल रही बीमार सार्वजनिक इकाइयों को बजटरी सहायता में दी जाने वाली वित्तीय सहायता के बोझ से मुक्ति। (8) विनिवेश से प्राप्त धन राशि का प्रयोग अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में कर पाना सम्भव ।

निजीकरण की समस्याएं अथवा सीमाएं (PROBLEMS AND LIMITATIONS OF PRIVATIZATION)

सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण में निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है:

1. भारत में कर की दरें अपेक्षाकृत बहुत ऊंची हैं तथा दरों में बार-बार बदलाव भी किया जाता है। इससे निजी क्षेत्र को प्राय अस्थिरता की दशा में कार्य करना पड़ता है।

2. निजी क्षेत्र लाभ की भावना से कार्य करता है इससे राष्ट्रीय उद्देश्यों एवं प्राथमिकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती।

3. निजीकरण के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि देश में राजनीतिक स्थायित्व हो।

4. बड़े उद्योगों, विशेषकर बड़े औद्योगिक घरानों पर अभी भी सरकार ने अनेक नियन्त्रण एवं रुकावटें लगा रखी हैं। इसके फलस्वरूप इन्हें खुली छूट और खुला वातावरण नहीं मिल पा रहा है।

5. सार्वजनिक उपक्रम प्रायः राजनीतिक दबाव में अपेक्षाकृत अधिक लोगों को नियोजित कर रोजगार प्रदान करते हैं। निजी क्षेत्र द्वारा इन उपक्रमों को अपने हाथ में लेने पर भी यह उपक्रम श्रमाधिक्य की समस्या से ग्रसित रहेंगे।

6. वित्तीय संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता को भी इस प्रावधान के कारण शक की दृष्टि से देखा जाता है कि वे जब चाहें किसी भी इकाई को दिए गए ऋण को उस इकाई की शेयर पूंजी में बादल सकती थीं। स्पष्टतः, यह स्थिति विकास के अनुरूप नहीं मानी जा सकती है।

7. रुन्य सार्वजनिक इकाइयों का निजीकरण संभव नहीं हो पाता क्योंकि कोई भी निजी उद्यानी घाटे में चल रही बीमार इकाइयों को लेने को तैयार नहीं होता है। यदि होता भी है तो कम से कम मूल्य पर अपनी शतों पर लेने का प्रयास करता है जो प्रायः सरकार को मान्य नहीं होती हैं।

8. कुछ ही हाथों में धन का संकेन्द्रण रोकने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न उपाय किए जा रहे हैं। यदि निजीकरण को व्यापक रूप में लागू किया जाएगा तब आर्थिक संकेन्द्रण को नियन्त्रित करने की सरकारी योजना सफल नहीं होगी। निजी एकाधिकार की अपेक्षा सार्वजनिक एकाधिकार अधिक जनकल्याणकारी होता है।

9. देश में औद्योगिक विकास के लिए स्वदेशी पूंजी तथा स्वदेशी तकनीकी निर्भरता बढ़ते जाने से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रभुत्व बढ़ता जाता है।

10. विकासशील देशों में, निजीकरण के लिए जिस परिवेश की आवश्यकता होती है, वह उपलब्ध नहीं है, इन देशों में निजीकरण के मार्ग में कई महत्वपूर्ण अड़चनें हैं, यया (i) अस्थिर आर्थिक दशाएं, (ii) राजनीतिक अस्थिरता तया कमजोर लोकतन्त्र, (iii) अविकसित पूंजी बाजार, (iv) अल्प विकसित आधार संरचना, (v) अति नियमित तया अति संरक्षणात्मक अर्थव्यवस्थाएं, (vi) अत्यधिक संकेन्द्रित उद्योग, (vii) व्यापक बेरोजगारी, (viii) शेयर बाजार की सीनित भूमिका, (ix) निजीकरण एवं संविलयन का सीमित अनुभव, (x) निजीकरण के लिए अनुपयुक्त कानूनी ढांचा तथा नियामक ढाँचा।

निजीकरण के विपक्ष में तर्क (ARGUMENTS AGAINST PRIVATIZATION)

निम्नलिखित आधारों पर निजीकरण की प्रक्रिया के विपक्ष में तर्क प्रस्तुत किया जाता है:

1. निजी क्षेत्र स्वहित की भावना से कार्य करता है तथा सामाजिक न्याय एवं सार्वजनिक हित को ध्यान में नहीं रखता। वह अल्प समय में अपने लाभ को अधिकतम करने का प्रयास करता है तथा अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की उपेक्षा करता है।

2. निजीकरण से बड़े औद्योगिक घरानों के हाथों में आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण एवं एकाधिकार की संभावना बढ़ जाती है।

3. निजी क्षेत्र उन क्षेत्रों में निवेश करने में इच्छुक नहीं होते जिसमें जोखिम की संभावना होती है तथा जिनमें पक्वनावधि लम्बी होती है। वे आधारभूत संरचना वाली परियोजनाओं एवं ऐसे उद्योगों में निवेश करने से बचते हैं जहां लाभ की सीमा कम होती है। इससे देश में संतुलित औद्योगिक विकास नहीं होता है और क्षेत्रीय आर्थिक विषमता बढ़ती है।

4. निजी क्षेत्र घाटे देने वाले तथा बीमार सार्वजनिक उपक्रमों के शेयर खरीदने में कोई रुचि नहीं दिखाते।

5. निजी क्षेत्र ऐसे उद्यमों में धन नहीं लगाते जिनमें भारी मात्रा में पूजी निवेश होता है। वे प्रायः व्यापार, आवास, ऐस लघु क्षेत्रों में निवेश को तत्पर होते हैं जो शीघ्र फलदायी होते हैं।

6. आलोचकों का तर्क है कि यदि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को भी प्रतिवन्धों में ढील दी जाय तथा उन्हें कीमत निर्धारण एवं प्रबंध में स्वतंत्रता प्रदान की जाय तो वह भी उसी तरह उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि कर सकते हैं जिस तरह निजी क्षेत्र।

7. निजीकरण के सन्दर्भ में अक्सर यह प्रश्न उठाया जाता है कि प्रवन्ध के निजी हाथों में जाने की स्थिति से कर्मचारियों के हित की रक्षा नहीं हो सकती है। सरकार की ओर से कहा जाता है कि विनिवेश करते समय इस वात का ध्यान रखा जाता है कि निजीकरण के पश्चात कम से कम एक वर्ष तक कर्मचारियों की छंटनी नहीं होती है। एक वर्ष के बाद छटनी सिर्फ स्वैच्छिक अवकाश स्कीम (VRS) के अन्तर्गत ही हो। पिछले दस साल के आंकड़े इस बात की पुष्टि नहीं करते कि निजीकरण के पश्चात् श्रमिकों की बड़े पैमाने पर छंटनी हुई है। फिर भी यह सच है कि निजीकरण का सर्वाधिक विरोध श्रमिकों की ओर से ही हुआ है।

संयुक्त प्रगतिशील गठवन्धन (यू.पी.ए.) सरकार ने साझा न्यूनतम कार्यक्रम के अन्तर्गत यह निर्णय लिया है कि प्रतिस्पर्धी माहौल में कार्य कर रही सफल और लाभ कमाने वाली कम्पनियों का निजीकरण नहीं किया जाएगा तथा मौजूदा 'नवरत्न' कम्पनियों को बनाए रखा जाएगा और ये कम्पनियां पूंजी बाजार से संसाधन जुटाती रहेंगी। सरकारी क्षेत्र की रुग्ण कम्पनियों का आधुनिकीकरण करने और उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाएगा, परन्तु लम्बे समय से घाटा उठाने वाली कम्पनियों को उनके सभी कामगारों को वैध देव धनराशि का भुगतान करने के उपरान्त या तो बेच दिया जाएगा या फिर बन्द कर दिया जाएगा।

उदारीकरण एवं निजीकरण में अन्तर

(DIFFERENCE BETWEEN LIBERALIZATION AND PRIVATIZATION)

1. उदारीकरण औद्योगिक विकास और सार्वजनिक हित की भावना को ध्यान में रखकर किया जाता है जबकि निजीकरण औद्योगिक विकास के साथ साथ निजी लाभ की भावना से प्रेरित होता है।

2. उदारीकरण एवं व्यापक अवधारण है जिसे विकास के हर क्षेत्र में लागू किया जा सकता है जबकि निजीकरण एक संकुचित धारणा है जिसे विकास के हर क्षेत्र में नहीं अपनाया जा सकता है। इस तरह निजीकरण उदारीकरण का एक अंग हो सकता है।

3. उदारीकरण में सरकारी नियन्त्रण के अधीन उद्योगों को पूर्ण रूप से विकसित होने का अवसर मिलता है जबकि निजीकरण में पूर्ण स्वामित्व एव नियन्त्रण के लिए व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्र होता है तथा लाभ-हानि स्वयं वहन करता है।

भूमण्डलीकरण (वैश्वीकरण) (GLOBALISATION)

वैश्वीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं का समन्वय किया जाता है ताकि वस्तुओं एवं सेवाओं, प्रौद्योगिकी पूंजी तथा श्रम अथवा मानवीय पूंजी का विभिन्न देशों के बीच निर्वाध प्रवाह हो सके।

वैश्वीकरण के चार प्रमुख अंग हैं

1. व्यापार अवरोधकों को कम करनां ताकि वस्तुओं एवं सेवाओं का बेरोक-टोक आदान-प्रदान हो सके।

2. ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करना ताकि विभिन्न देशों के बीच पूंजी का स्वतन्त्र प्रवाह हो सके।

3. ऐसा वातावरण बनाना ताकि प्रौद्योगिकी का निर्वाध प्रबाह हो सके।

4. ऐसा वातावरण तैयार करना जिससे विश्व के विभिन्न देशों के बीच श्रम का निर्वाध प्रवाह हो सके।

वैश्वीकरण के समर्थक विशेषकर विकसित देश वैश्वीकरण की परिभाषा को पहले तीन अंगों तक ही सीमित करने पर बल देते हैं। अर्थात् निर्वाध व्यापार प्रवाह, निर्वाध पूंजी प्रवाह और निर्वाध प्रौद्योगिकी प्रवाह। परन्तु विकासशील देशों के अर्थशास्त्री यह मत रखते हैं कि यदि संसार को सार्वभौम ग्राम (Global Village) के रूप में कल्पित करना है तो श्रम के निर्वाध प्रवाह की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

मूल रूप से वैश्वीकरण का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीयकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देना है।

जगदीश भगवती के अनुसार, "आर्थिक वैश्वीकरण (Economic Globalization) मैं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जोड़ने की प्रक्रिया समाविष्ट है और यह व्यापार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, अल्पकालीन पूंजी प्रवाहों, श्रम तथा सामान्यतः मानव जाति के अन्तर्राष्ट्रीय प्रवाह और प्रौद्योगिकी के प्रवाह द्वारा सम्पन्न किया जाता है।"

भारतीय संदर्भ में वैश्वीकरण का तात्पर्य है- भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी कम्पनियों एवं निगमों के आने के लिए मार्ग प्रशस्त करना, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देना तथा इनके मार्ग में आने वाले अड़चनों, प्रतिबंधों एवं अवरोधकों को हटाना, भारतीय कम्पनियों को विदेशी कम्पनियों के साथ मिलकर संयुक्त उद्यम स्थापित करने की अनुमति देना, व्यापार में मात्रात्मक एवं गैर-मात्रात्मक प्रतिबन्धों को समाप्त करना, निजीकरण एवं उदारीकरण को बढ़ावा देना आदि। इस तरह भूमण्डलीकरण का अर्थ है भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था से जोड़ना ताकि वह विश्व के देशों से प्रतियोगिता करते हुए तेजी से विकास कर सके।

भूमण्डलीकरण (वैश्वीकरण) की विशेषताएं (CHARACTERISTICS OF GLOBALIZATION)

वैश्यीकरण की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं

1. वैश्वीकरण के अन्तर्गत देश की अर्थव्यवस्था कर विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत किया जाता है।

2. वस्तुओं एवं सेवाओं का एक देश से दूसरे देश में निर्वाध प्रवाह होता है।

3. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का विस्तार होता है।

4. सरकार की राष्ट्रीय समष्टि आर्थिक नीतियों का क्षेत्र कम हो जाता है।

वैश्वीकरण के पक्ष में तर्क (Arguments in favour of Globalisation)

वैश्वीकरण के समर्थक इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं।

1. वैश्वीकरण से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश प्रोत्साहित होगा जिसके फलस्वरूप विकासशील देश विना अंतर्राष्ट्रीय ऋणग्रस्तता, कायम किए अपने विकास के लिए पूंजी प्राप्त कर सकेंगे।

2. वैश्वीकरण से विकासशील देशों को उन्नत देशों द्वारा विकसित प्रौद्योगिकी स्वतः प्राप्त हो जाएगी।

3. वैश्वीकरण से ज्ञान का तेजी से विस्तार होता है जिसके फलस्वरूप विकासशील देश अपने उत्पादन एवं उत्पादकता के स्तर को उन्नत कर सकते हैं। इस तरह यह उत्पादकता के अंतर्राष्ट्रीय स्तर को प्राप्त करने में सहायक है।

4. वैश्वीकरण विकासशील देशों को विकसित देशों में अपनी उपज का निर्यात करने की पहुंच का विस्तार करता है, साथ ही यह विकासशील देशों को उच्च गुणवत्ता वाली उपभोग वस्तुओं विशेषकर चिरकालीन उपभोग वस्तुओं को अपेक्षाकृत कम कीमत पर प्राप्त करने योग्य बनाता है।

5. वैश्वीकरण से परिवहन एवं संचार की लागत कम हो जाती है। इससे प्रशुल्क भी कम हो जाते हैं तया सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में विदेशी व्यापार का भाग बढ़ जाता है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण को विकास के लिए प्रौद्योगिकीय प्रगति तथा उत्पादकता में वृद्धि का इंजन समझा जा सकता है। यह रोजगार के विस्तार के साथ गरीबी कम करने तथा आधुनिकीकरण का कारण तत्व वन जाता है।

भारत में वैश्वीकरण होने से लोगों को भारी शंकाएं हैं: (1) भारतीय उद्योगों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। वे विदेशी कम्पनियों द्वारा निर्मित वस्तुओं की क्वालिटी में पीछे रह जायेंगे, (ii) जिससे उद्योग बन्द होने की स्थिति में आ जायेंगे; (iii) उद्योगों को घाटा होगा, (iv) श्रमिकों में बेरोजगारी फैल जायेगी; (v) आगे चलकर यह विदेशी कम्पनियां देश का शोषण करेंगी, आदि; (vi) इन सवसे देश की आत्म-निर्भरता प्रभावित होगी।

आलोचकों का कहना है कि कोई भी राष्ट्र विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सहायता से आगे नहीं बढ़ सकता है। उसे स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। विदेशी निवेश उन्हीं क्षेत्रों में होना चाहिए जहां भारतीय कम्पनियां निवेश करने में सक्षम नहीं हैं।

आर्थिक नीति में भारतीय उद्योगों को अधिक प्रतियोगी बनने पर जोर दिया गया है जिसके लिए उद्योगों का आधुनिकीकरण करना होगा, अर्थात् आधुनिक तकनीक को अपनाना होगा व नवीनतम मशीनों को कारखानों में लाना होगा। लेकिन भारतीय उद्योगों के लिए आधुनिकीकरण करना आसान नहीं है। इसके प्रमुख कारण हैं-

1. पूंजी का अभाव यहां मालिकों के पास पूंजी का अभाव है और पूजी को जुटा पाना उनके लिए आसान नहीं है। देश में वैसे ही पूंजी की कमी है, क्योंकि बचतें सीमित ही हैं।

2. श्रमिकों द्वारा विरोध-भारत में श्रमिक आधुनिकीकरण से बहुत ही डरते हैं। उनका मानना है कि आधुनिकतम स्वचालित मशीनों के आने से कम श्रमिकों की आवश्यकता होगी। अतः उनके कारखाने में छंटनी होगी जिससे वे प्रभावित होंगे।

3. विदेशी मुद्रा का अभाव आधुनिकीकरण के लिए मशीनों के आयात हेतु विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होगी। यहां पहले से ही विदेशी मुद्रा का अभाव है। आजकल तो उसे खुले बाजार से क्रय करना पड़ता है।

भारत में भूमण्डलीकरण (वैश्वीकरण) को प्रेरित करने वाले घटक

(FACTORS FOSTERING GLOBALISATION IN INDIA)

भारत में वैश्वीकरण को प्रेरित करने वाले प्रभुत्व घटक निम्नवत हैं।

1. उन्नत प्रौद्योगिकी वैश्वीकरण को प्रोत्साहित करने में उन्नत प्रौद्योगिकी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कम लागत पर सस्ती और गुणवत्तायुक्त बस्तुओं का उत्पादन उन्नत प्रोद्योगिकी से ही संभव हो पाता है।

2. उदारवादी नीतियां विभिन्न देशों द्वारा अपनायी जाने वाली उदारवादी नीतियों से ही वैश्वीकरण का मार्ग प्रशस्त हो सका है।

3. प्रतिस्पर्धा-प्रतिस्पर्द्धा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषता है। प्रतिस्पर्धा के कारण ही कम्पनियों को विदेशों में नए बाजार ढूंढ़ने की आवश्यकता हुई तथा इसी के फलस्वरूप उत्पादन एवं विक्रय की नवीन विधियों का विकास हुआ। विदेशी कम्पनियों की प्रतिस्पर्धा के डर से ही घरेलू कम्पनियां विश्व बाजार में अपना स्थान ढूंढ़ने को बाध्य हुई और वैश्वीकरण को बढ़ावा मिला।

4. विकासशील देशों के अनुभव वैश्वीकरण की प्रक्रिया को अपनाने वाली विकासशील अर्थव्यवस्थाएं - चीन, कोरिया, थाईलैण्ड, हांगकांग, ताइवान, सिंगापुर आदि आर्थिक विकास की ऊंची दर प्राप्त करने में सफल रहीं। वैश्वीकरण के इस सफल अनुभव ने भी भारत जैसे अन्य देशों को अपनी अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण करने के लिए प्रेरित किया।

5. विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का दबाव- भारत को उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया को अपनाने के लिए विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष भी दवाव डाल रहे थे।

6. अन्य कारक (i) पूंजी बाजार का सार्वभौमीकरण होना। पूंजी प्रवाह में होने वाली तेज वृद्धि से राष्ट्रीय स्तर का पूंजी बाजार विश्वस्तरीय स्वरूप धारण करता जा रहा है।

(ii) कम्प्यूटर, इण्टरनेट एवं सम्बद्ध तकनीक के विस्तार से सभी देश परस्पर जुड़े हुए हैं।

(iii) विभिन्न देशों में उपलब्ध उपरिढांचा, वितरण प्रणाली एवं विपणन दृष्टिकोण एक समान रूप धारण करते जा रहे हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमण्डलीकरण (वैश्वीकरण) हेतु उठाए गए कदम

(MEASURES TOWARDS GLOBALIZATION OF INDIAN ECONOMY)

भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण की प्रक्रिया वर्ष 1991 में घोषित नवीन आर्थिक नीति को अपनाने के साथ ही प्रारम्भ हो गई थी। भारत में अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में मुख्य रूप से निम्नलिखित कदम उठाए गए

1. रुपए को पूर्ण परिवर्तनीय बनाया गया वैश्वीकरण को बढ़ावा देने के तारतम्य में भारतीय रुपए को वर्ष 1994 से चालू खाते पर पूर्ण परिवर्तनीय वना दिया गया। इससे चालू खाते से सम्बन्धित सभी लेन-देनों के लिए विदेशी विनिमय को खरीदने एवं वेचने की स्वतन्त्रता हो गई है। पूंजी खाते पर रुपए को पूर्ण परिवर्तनीय बनाए जाने के सम्बन्ध में भी कतिपय कदम उठाए गए हैं।

2. आयात उदारीकरण वैश्वीकरण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश में आयात को उदार बनाया गया है। आयातों पर से सभी मात्रात्मक प्रतिबन्ध 1 अप्रैल, 2001 से हटा लिए गए हैं। आयात शुल्कों में भारी कमी की गई है। कस्टम ड्यूटी, जो कुछ वस्तुओं पर 150 प्रतिशत थी उसे घटाकर 15 प्रतिशत के न्यून स्तर पर लाया गया है।

3. विदेशी पूंजी के लिए अर्थव्यवस्था को खोल दिया गया सरकार द्वारा देश में विदेशी पूंजी को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न उपाय किए गए हैं। विदेशी निदेशकों तथा अनिवासी भारतीयों के लिए विभिन्न प्रकार की सुविधाएं एवं प्रेरणाएं नई आर्थिक नीति में प्रदान की गई हैं। विदेशी प्रत्यक्ष निर्देश के लिए अर्थव्यवस्था में दरबाजे खोल दिए गए हैं। विभिन्न उद्योगों में 26%, 49%, 51% तथा 74% तक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आमन्त्रित किए गए हैं। ये उद्योग मुख्य रूप से हैं ड्रग्स एवं फार्मास्युटिकल्स, होटल, पर्यटन, एअरपोर्ट, विद्युत उत्पादन, ऑयल रिफाइनरी, सड़क निर्माण, रोपवे, पोर्ट, आदि। प्रतिरक्षा तथा बीमा क्षेत्र को भी आंशिक रूप से खोल दिया गया है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त अन्य बहुत से कदम समय-समय पर उठाए गए हैं। जैसे। विदेशी कम्पनियों को अनुमति दी गई है कि वे अपने गृह बात को प्रयोग भारत में भी कर सकती है तथा उन व्यापारिक क्रियाओं में भाग ले सकती है जो वाणिज्यिक अथवा औद्योगिक प्रकृति की हैं। विदेशी कम्पनियां लाभों को अन्यत्र ले जा सकेंगी। विदेशी कम्पनियां (बैंकिंग कम्पनियों के अलावा) भारतीय रिजर्व बैंक की विना अनुमति के जमाओं को स्वीकार कर सकती हैं तथा उधार ले सकती हैं। विदेशी कम्पनियां भारत में स्थिर सम्पत्ति भी क्रय कर सकती हैं। एक अनिवासी भारतीय से दूसरे अनिवासी भारतीय को शेयर हस्तांतरण पर लगे प्रतिवन्ध को हटा दिया गया है। विश्वस्तरीय विदेशी संस्थागत निर्देशकों को यह अनुमति प्रदान की गई है कि वे भारतीय पूंजी बाजार में कतिपय दशाओं में निवेश कर सकते हैं।

ये सभी प्रयास भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमण्डलीकरण में सहायक बनेंगे ऐसा विश्वास किया गया है।

निजीकरण, उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण (वैश्वीकरण) का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

(EFFECT OF PRIVITAZATION, LIBERALIZATION AND GLOBALIZATION ON INDIAN ECONOMY)

भारतीय नई आर्थिक नीति का उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण एवं निजीकरण को बढ़ावा देकर वैश्वीकरण के मार्ग को प्रशस्त करना है। भारतीय अर्थव्यवस्था जो पहले नियमों एवं प्रतिबन्धों में जकड़ी हुई थी अब खुलकर सांस लेने लगी है और विश्व के देशों के साथ कदम से कदम मिलाकर प्रगति की और अग्रसर है। निजीकरण, उदारीकरण तथा वैश्वीकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों को निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है

1. विदेशी व्यापार (Foreign Trade) वैश्वीकरण का मुख उद्देश्य वस्तुओं एवं सेवाओं के व्यापार का विस्तार करना है। भारत का वर्तमान में सभी प्रमुख व्यापार गुटों और सभी भीगोलिक क्षेत्रों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध है। वर्ष 1990-91 से 2005-06 के बीच भारत के निर्यात व्यापार में पर्याप्त वृद्धि दर्ज की गई। वर्ष 1990-2002 के वीच निर्यात व्यापार में औसतन 8.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई जवकि यह वृद्धि 2005-06 के दौरान 23.4 प्रतिशत तथा 2006-07 के दौरान 21.8 प्रतिशत रही। इसी तरह देश के आयात व्यापार में वर्ष 1990-2000 के बीच 8.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि वर्ष 2005-06 के दौरान इसमें 32.1 प्रतिशत तथा 2006-07 के दौरान 21.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1995-2001 के बीच भारत के निर्यात व्यापार में 8.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि इसी दौरान चीन के निर्यात में 12.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वर्ष 2004 में चीन के निर्यात व्यापार में 24.0 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि भारत के निर्यात व्यापार में 15.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसके उपरान्त भारत के निर्यात व्यापार में सुधार परिलक्षित होता है। वर्ष 2006 में भारत के निर्यात व्यापार में 20.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई जबकि चीन के निर्यात व्यापार में 25.0 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई। इसी दौरान विश्व निर्यात व्यापार में 6.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। विश्व निर्यात व्यापार में भारत का हिस्सा 1990 में 0.5 प्रतिशत था जो बढ़कर 2005 में 1.0 प्रतिशत हो गया। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 में विश्व व्यापार में चीन का हिस्सा 8.4 प्रतिशत, सिंगापुर का हिस्सा 2.7 प्रतिशत तथा कोरिया का हिस्सा 2.2 प्रतिशत रहा। इस तरह वैश्वीकरण के फलस्वरूप भारत को अपना निर्यात बढ़ाने में कुछ सफलता प्राप्त हुई है। यद्यपि यह चीन व कोरिया जैसे देशों की तुलना में कम रहा है।

सेवा क्षेत्र निर्यात में भारत की स्थिति में सापेक्षतः अधिक सुधार हुआ। वर्ष 1990-2002 के दौरान सेवा क्षेत्र निर्यात में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई यह वृद्धि बढ़कर 2004-05 में 25.8 प्रतिशत तथा पुनः 2005-06 में बढ़कर 27.4 प्रतिशत हो गई। इसका मुख्य कारण सॉफ्टवेयर निर्यात का विकसित देशों को बहिस्रोतीकरण (outsourcing) था, विशेषकर यू.एस.ए. तथा तथा कुछ हद तक यूरोपीय संघ के देशों का।

यदि हम वस्तु निर्यात और सेवा क्षेत्र निर्यात को जोड़ लें तो पता चलता है कि भारत की वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात जो 1990-91 में 18,477 मिलियन डॉलर था वह बढ़कर 2006-07 में 1,28,083 मिलियन डॉलर हो गया। इस तरह इसमें वर्ष 1990-91 से 2006-07 के बीच 6.9 गुना वृद्धि हो गई।

इसमें संदेह नहीं कि भारत ने वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व वस्तु एवं सेवा निर्यात में अपना भाग उन्नत करके 1.0 प्रतिशत कर लिया है, परन्तु इसकी अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए यह बहुत कम है, जब इसकी तुलना चीन, कोरिया, सिंगापुर अथवा मैक्सिको के साथ की जाती है।

उल्लेखनीय है कि उदारीकरण के दौरान भारत के निर्यात की तुलना में आयात में कहीं अधिक वृद्धि हुई है। वर्ष 1990-91 में निर्यात सकल घरेलू उत्पाद का 5.8 प्रतिशत था जबकि इसी वर्ष आयात सकछ घरेलू उत्पाद का 8.8 प्रतिशत रहा। निर्यात में क्रमशः वृद्धि हुई और यह वर्ष 2006-07 में सकल घरेलू उत्पाद का 14.0 प्रतिशत हो गया। आयात क्रमशः बढ़ते हुए वर्ष 2006-07 में सकल घरेलू उत्पाद का 20.9% हो गया। भारत का व्यापार संतुलन घाटा जो वर्ष 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत था, वह बढ़कर 2006-07 में सकल घरेलू उत्पाद का 6.9 प्रतिशत तक पहुंच गया।

इससे यह स्पष्ट है कि विदेशी भारतीय बाजार में अपनी पहुंच अधिक प्रभावी रूप में कर पाए हैं। इसके विपरीत भारतीय विदेशी बाजारों में अपनी पहुंच कम बढ़ा पाए हैं। अतः देश के निर्यात व्यापार में वृद्धि और आयात व्यापार में कमी का प्रयास किया जाना चाहिए। इसमें सेवा क्षेत्र सकारात्मक भूमिका निभा सकता है।

2. विदेशी निवेश प्रवाह प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि वैश्वीकरण के फलस्वरूप विदेशी निवेश के अधिक प्रवाह की प्राप्ति होती है जिससे प्रापक अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को बढ़ाने में सहायता मिलती है। भारत के संदर्भ में इस पर विचार करना उचित होगा। विदेशी निवेश दो प्रकार का होता है :

(i) विदेशी प्रत्यक्ष निवेश तथा (ii) विदेशी पोर्ट फोलियो निवेश (Portfolio investment)। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश से अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने में सहायता प्राप्त होती है जबकि विदेशी पोर्ट फोलियो निवेश की प्रकृति परिकल्पी होती है और यह बहुत चंचल होती है। विदेशी निवेश सम्वन्धी आंकड़ों पर यदि ध्यान दिया जाय तो यह स्पष्ट होता है कि 1990-91 से 1994-95 के बीच कुल विदेशी निवेश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का भाग 24.2 प्रतिशत था। जबकि पोर्ट फोलियो निवेश का भाग 75.8 प्रतिशत था। इस तरह, कुल विदेशी निवेश का केवल एक-चौथाई भाग ही उत्पादन क्षमता वृद्धि के लिए उपलब्ध था जबकि तीन-चौथाई भाग अस्थिर और चचल था। 1995-96 से 1999-2000 की 5 वर्षीय अवधि के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का कुल निवेश में भाग बढ़कर 54.8 प्रतिशत हो गया। परन्तु विदेशी पोर्ट फोलियो निवेश का भाग अभी भी 45 प्रतिशत के स्तर पर ऊंचा बना रहा। अगले 4 वर्षों की अवधि (2000-01 से 2003-04) के दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का हिस्सा 53.7 प्रतिशत था। जबकि विदेशी पोर्ट फोलियो निवेश का हिस्सा 46.3 प्रतिशत रहा। इस तरह पोर्ट फोलियो निवेश का अनुपात लगभग बराबर रहा।

FDI का अन्तप्रवाह वर्ष 2004-05 में 605.1 करोड़ डॉलर से बढ़कर वर्ष 2005-06 में 775.2 करोड़ डॉलर हो गया। इस तरह इसमें वर्ष 2005-06 के दौरान 28 प्रतिशत की वृद्धि हो गई। वर्ष 2005-06 में पोर्ट फोलियो निवेश प्रवाह 255.2 करोड़ 1 डॉलर रहा।

वर्ष-दर-वर्ष आकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन से यह भी स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में धीरे-धीरे वृद्धि हुई है। यह निवेश 1990-91 में 9.7 करोड़ डॉलर था जो बढ़कर 1991-92 में 12.9 करोड़ डॉलर, 1994-95 में 131.4 करोड़ डॉलर, 1995-96 में 214.4 करोड़ डॉलर तथा 1997-98 में 355.7 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया। इसके उपरान्त यह 2001-02 में 613 करोड़ डॉलर के शिखर स्तर पर पहुंच गया। इसके बाद इसमें गिरावट आई और यह 2003-04 में 467.3 करोड़ डॉलर हो गया। और पुनः बढ़कर 2005-06 में 775.2 करोड़ डॉलर हो गया। इसका तात्पर्य यह है कि यदि देश में उत्साहवर्धक वातावरण रहे तो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह बढ़ सकता है।

उल्लेखनीय है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की तुलना में विदेशी पोर्ट फोलियों निवेश में उच्चावचन अधिक रहा। वर्ष 1990-91 में 0.6 करोड़ डॉलर से बढ़कर विदेशी पोर्ट फोलियो निवेश 1994-95 में 382.4 डॉलर तक पहुंच गया। 1995-96 से इसमें लगातार गिरावट आई और यह वर्ष 1998-99 में 6.1 करोड़ डॉलर के नकारात्मक स्तर पर पहुंच गया, किन्तु यह 1999-2000 में पुनः बढ़कर 302.6 करोड़ डॉलर के स्तर पर पहुंच गया। इसके बाद फिर इसमें गिरावट आई और वह वर्ष 2002-03 में 97.9 करोड़ डॉलर के नीचे स्तर पर आ गया, परन्तु पुनः 2003-04 में पुनर्जीवित होकर 1137.7 करोड़ डॉलर के उच्च स्तर पर जा पहुंचा। परन्तु यह 2006-07 में पुनः 255.2 करोड़ डॉलर रहा। इससे स्पष्ट है कि विदेशी पोर्ट फोलियो निवेश अविश्वसनीय है।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से क्या अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता में विस्तार होगा इसको जानने के लिए यह ज्ञात करना जरूरी होगा कि किन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो रहा है। जनवरी 1991 से मार्च,2004 तक कुल स्वीकृत विदेशी निवेश का लगभग 69 प्रतिशत भाग पांच उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से सम्बन्धित है। ये क्षेत्र हैं-ऊर्जा, टेलीसंचार, परिवहन, बिजली उपकरण तथा धातुकर्म उद्योग। उल्लेखनीय है कि इन क्षेत्रों में भी वास्तविक अन्तप्रवाहों से यह पता चलता है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की स्वीकृतियों एवं वास्तविक अन्तप्रवाहों में भारी अंतर है। यह स्पष्ट करता है कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के रूप में प्राप्त सहायता में धीमी प्रगति हुई है, इससे भारत जैसे विकासशील, देश के विकास में प्रोत्साहन भी बहुत सीमित हो जाता है। यदि भूमण्डलीय को अपनी सार्थकता सिद्ध करती है तो स्वीकृत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और वास्तविक अन्तप्रवाहों के अन्तर को दूर करना होगा।

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का उत्प्रवाह (FDI outflows)- जहां भारत सरकार विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करने का प्रयास कर रही है। वहीं कुछ भारतीय फर्म विदेशों में निवेश-प्रोजेक्ट के लिए संसाधन जुटा रही है। इसके फलस्वरूप विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के उत्प्रवाह भी कायम हो गए हैं। भारत से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का उठावाह वर्ष 1992-97 के दौरान 9.6 करोड़ अमेरिकी डॉलर था। जो क्रमशः बढ़ते हुए वर्ष 2000 में 336 करोड़ डॉलर तथा 2004 में 2,024 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया। वर्ष 2005 में यह 33 प्रतिशत से घटकर 1,364 करोड़ डॉलर रह गया।

वर्ष 2001 के पश्चात् भारत से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में वृद्धि के फलस्वरूप शुद्ध अन्तप्रवाहों में महत्वपूर्ण कमी हुई है। अन्ततोगत्वा, शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से ही अर्थव्यवस्था में निवेश-दर एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है।

भारत का विश्व के प्रत्यक्ष विदेशी अन्तप्रवाहों में हिस्सा- प्रत्यक्ष विदेशी अन्तप्रवाहों में विश्व की स्थिति की समीक्षा (वर्ष 2003) से पता चलता है कि कुल अन्तप्रवाहों का लगभग 65 लगभग प्रतिशत भाग विकसित देशों को प्राप्त हुआ। 30 प्रतिशत भाग विकासशील देशों को और 5 प्रतिशत केन्द्रीय एवं पूर्वी यूरोप के देशों को प्राप्त हुआ है। विकासशील देशों को प्राप्त कुल 30 प्रतिशत में से भारत को केवल 0.8 प्रतिशत प्राप्त हुआ था जबकि ब्राजील को 1.8 प्रतिशत तथा चीन को एक बड़ा भाग 9.6 प्रतिशत प्राप्त हुआ।

उल्लेखनीय है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के सभी अन्तप्रवाह विकासोन्मुख नहीं होते। इनका एक बड़ा भाग विकासशील देशों के तुलनात्मक लागत लाभ को निष्प्रभावी बना देता है। विशेषकर सस्ते श्रम और कच्चे माल के रूप में प्राप्त लाभ को और इसके लिए उत्पादन प्रक्रियाओं को विकासशील देशों को स्थानान्तरित कर दिया जाता है। बहुराष्ट्रीय निगम प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रयोग द्वारा विकासशील देशों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाते हैं और विकासशील देशों में स्थापित उत्पादन प्रक्रियाओं के आधार पर अपना लाभ वढ़ाते हैं।

3. रोजगार एवं श्रम पर प्रभाव वैश्वीकरण के युग में देश में रोजगार की स्थिति काफी दयनीय हुई है। देश में रोजगार वृद्धि की दर जो 1983-94 के दौरान 2.04 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी। गिरकर 1994-2000 के बीच 0.98 प्रतिशत हो गई। इसका मुख्य कारण कृषि क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि दर का नकारात्मक होना रहा जो कुल श्रमिकों के 65 प्रतिशत को रोजगार उपलब्ध कराती है। इसके साथ ही सामुदायिक सामाजिक एवं वैयक्तिक सेवाओं की वृद्धि दर में भी तीव्र गिरावट आई और यह 1994-2000 के बीच 0.55 प्रतिशत हो गई जबकि यह 1983-94 के बीच 2.9 प्रतिशत थी। इसका मुख्य कारण कृषि की उपेक्षा और सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के बोझ को कम करना था। इसके लिए जहां नई भर्ती पर रोक लगा दी गई वहीं सार्वजनिक क्षेत्र में सेवानिवृत्ति के कारण खाली हुए पदों पर नियुक्ति नहीं की गई।

संगठित क्षेत्र जो विकास का इंजन समझा जाता है पर्याप्त मात्रा में रोजगार उपलब्ध कराने में विफल रहा। वर्ष 1994-2000 के बीच संगठित क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि दर केवल 0.53 प्रतिशत थी। इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि दर नकारात्मक (-0.03 प्रतिशत) थी और निजी क्षेत्र में 1.87 प्रतिशत रही। चूंकि सार्वजनिक क्षेत्र का भाग संगठित क्षेत्र के रोजगार में 69 प्रतिशत था। निजी क्षेत्र में रोजगार का विस्तार सार्वजनिक क्षेत्र में हुए इसके अवत्वरण के प्रभाव को काटने में विफल रहा। परिणामतः संगठित क्षेत्र का भाग जो 1983 में 7.93 प्रतिशत था कम होकर 1999-2000 में 7.08 प्रतिशत हो गया। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1994 में देश के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में 194.45 लाख लोग नियोजित थे जबकि वर्ष 2004 में इन उपक्रमों में 181.97 लाख लोग की कार्यरत थे। इस तरह विगत 10 वर्षों में इन उपक्रमों में रोजगार के अवसरों में 6.42 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई।

इस तरह, वैश्यीकरण ने श्रमिकों को संगठित क्षेत्र से धकेल कर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की फीज को बढ़ा दिया। असंगठित क्षेत्र में वेतन कम प्राप्त होता है। साथ ही नौकरी की सुरक्षा भी नाहीं रहती। स्पष्टतया वैश्वीकरण ने श्रम के अनियतीकरण (casualisation) को बढ़ा दिया है। इस तरह, निर्गत 15 वर्षों में भारत रोजगारविहीन विकास की ओर इस तरह उन्मुख रहा है।

4. सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर नयी आर्थिक नीति लागू होने के फलस्वरूप सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर प्रोन्नत हुई है। यद्यपि इसमें पर्याप्त उतार-चढ़ाव होता रहा है। 1980-81 से 1990-91 के दौरान सुधार काल से पूर्व अवधि में औसत वार्षिक वृद्धि दर 5.6% रही, जबकि सुधार काल में 1990-91 से 2002-03 तक की अवधि में औसत बार्षिक वृद्धि दर (5.5%) में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके उपरान्त सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में सुधार हुआ और यह 2003-04 में 8.5%, 2004-05 से 7.5%, 2005-06 में 9.0% तथा 2006-07 में 9.2 प्रतिशत रही।

5. कृषि की उपेक्षा आर्थिक सुधारों के दौरान कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की गई। कृषि में पूंजी निवेश एवं पूंजी निर्माण घटा और उत्पादकता में कोई सुधार नहीं हुआ, जिसके फलस्वरूप कृषि क्षेत्र की विकास दर पर्याप्त रूप से नीची रही। वर्ष 1990-92 में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र की विकास दर मात्र 1.3% रही। यह वृद्धि दर आठवीं योजना में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र की विकास दर 4.7%, नौवीं योजना में 2.1% तथा दसवीं योजना से 2.3% रही। यह प्रदर्शित करता है कि सुधार काल में विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र के विकास पर तो बल दिया गया, जबकि कृषि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।

6. औद्योगिक विकास भारत में नयी आर्थिक नीति का उद्देश्य उदारीकरण को अपनाकर निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण के माध्यम से देश में औद्योगिक विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर किया गया। औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक की औसत वार्षिक वृद्धि दर सुधार-पूर्व काल (1981-82 से 1990-91) के दौरान 7.8% थी जबकि सुधार-उपरांत काल (1993-94 से 2002-03) में मन्द होकर 5.8 प्रतिशत हो गयी। इसके पश्चात इसमें कुछ सुधार हुआ और वर्ष 2003-04 से 2006-07 के दौरान यह औसत वार्षिक वृद्धि दर 8.55% रही। इस तरह औद्योगिक उत्पादन को प्रोत्साहन देने की प्रत्याशा वास्तविक रूप धारण न कर सकी। आधार संरचना के विकास की प्रवृत्ति भी अच्छी नहीं रही।

7. कीमत स्तर आर्थिक सुधार लागू होने के कुछ वर्षों तक कीमत स्तर में की वृद्धि दर में काफी सीमा तक सुधार हुआ और यह 1990-91 में 12% की वार्षिक वृद्धि दर से कम होकर 2001-02 में 1.6% वार्षिक वृद्धि के स्तर पर आ गया, परन्तु उसके पश्चात कीमत स्तर धीरे-धीरे बढ़ने लगा और वर्तमान में यह 11% से अधिक की तेजी से बढ़ रहा है।

8. राजकोषीय घाटा भारत में आर्थिक सुधारों का एक प्रमुख उद्देश्य राजकोषीय घाटे को कम करना भी रहा। वर्ष 1990-91 में राजकोषीय घाटा सकता घरेलू उत्पाद का 6.6% था। आर्थिक सुधारों के उपरान्त यह क्रमशः कम होते हुए वर्ष 2006-07 में सकल घरेलू उत्पाद का 3.6 प्रतिशत रह गया।

9. असमानता और गरीबी वैश्वीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण की नीतियों द्वारा प्रोन्नत विकास से देश में आय की असमानता में वृद्धि हुई है। वैश्वीकरण की नीतियों ने पहले से ही औद्योगिक दृष्टि से समृद्धि राज्यों की अधिक सहायता की और पिछड़े राज्यों की उपेक्षा की। इसके साथ ही कृषि के प्रति उदासीन दृष्टिकोण ने आर्थिक विकास को भौगोलिक दृष्टि से असमान बना दिया।

इसमें संदेह नहीं कि गरीबी का अनुपात जो 1993-94 में 36.0 प्रतिशत था। घटकर 1999-2000 में 26.1 प्रतिशत और वर्ष 2004-05 में 22.0 प्रतिशत हो गया है। फिर भी अर्थशास्त्रियों की धारणा है कि देश में असमानता या सापेक्ष वंचन (Relative deprivation) में वृद्धि हुई है।

आई. एल. ओ. रिपोर्ट (2004) में इस बात का उल्लेख किया गया है कि वैश्वीकरण से उन लोगों को अधिक फायदा हुआ है जो बहुराष्ट्रीय निगमों और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा राष्ट्रीय उपक्रमों से जुड़े हुए हैं (अर्थात् हिस्सेदार, प्रबन्धक, कर्मचारी अथवा उपठेकेदार के रूप में) अधिक सामान्य रूप में, जो पूंजी और अन्य परिसम्पत्तियों से सम्पन्न हैं। उद्यमकर्ता योग्यता रखते हैं और जिनके पास शिक्षा एवं कौशल है, उनकी मांग अधिक है और इन सभी लोगों ने लाभ प्राप्त किया है। इसके विपरीत जिन पर दुष्प्रभाव पड़ा है उनमें ऐसे व्यक्ति हैं जो गैर-प्रतिस्पर्धी उद्यमों के साथ जुड़े थे, जो व्यापार उदारीकरण था। विदेशी फर्मों के प्रवेश के समक्ष जीवित न रह सके। इसमें शामिल ऐसे उद्यम हैं, जो पहले व्यापार अवरोधकों द्वारा बहुत सुरक्षित थे या राजकीय उद्यम जिन्हें सब्सिडी प्राप्त थी।

सस्ते आयात के कारण बहुत से छोटे आकार के उद्योग बन्द हो गए। इससे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और कृषि पर अनावश्यक भार बढ़ गया।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण के फलस्वरूप गरीब, सम्पत्तिविहीन और अकुशल बनिकों पर विपरीत प्रभाव पड़ा। इसके विपरीत, समृद्ध लोग जिनके पास पूंजी और मानवीय क्षमताएं थीं लाभान्वित हुए हैं। इस तरह देश के भीतर गरीबी और असमानताएं बढ़ी हैं। इस तरह आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की नीति अपने विकास सम्बन्धी लक्ष्यों को नहीं प्राप्त कर सकी।

निष्कर्ष एवं सुझाव निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि देश में वैश्वीकरण के ऐसे स्वरूप को अपनाने की आवश्यकता है जिसके द्वारा विकास, रोजगार और समानता के लक्ष्यों को समन्वित किया जा सके। ऐसी नीति अपनाएं जाने की आवश्यकता है ताकि श्रम पर वैश्वीकरण के पड़ने वाले दुष्प्रभावों को कम किया जा सके। इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने के लिए पिछड़े क्षेत्रों में सामाजिक व आर्थिक आधार संरचना के निर्माण के सार्वजनिक कार्यक्रमों को मजबूत बनाया जाना चाहिए। कृषि क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देकर इसकी वृद्धि दरों को उन्नत किया जाना चाहिए।

प्रोफेसर जॉन हैरिस, निदेशक, विकास अध्ययन संस्थान, लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने 18 जनवरी, 2005 को चेन्नई में दिए गए अपने व्याख्यान में यह उल्लेख किया, "भारत के समक्ष उत्पादक रोजगार के साथ विकास प्राप्त करने की स्पष्ट चुनौती विद्यमान है। भारत विगत 15 वर्षों से रोजगारविहीन विकास अनुभव करता रहा है। जिसका तात्पर्य यह है कि लोगों की एक बड़ी संख्या हाशिए पर पहुंचाई गई है, जबकि अर्थव्यवस्था का विकास तेजी से हुआ है।" समावेशी वैश्वीकरण की चर्चा करते हुए प्रोफेसर हैरिस ने कहा, "भारत के पास इतना बड़ा स्वदेशी बाजार उपलब्ध है कि इसे विकास के लिए समुद्र पार के बाजारों पर निर्भर होने की आवश्यकता नहीं, परन्तु इस क्षमता का लाभ उठाने के लिए लोगों के पास आय होनी आबश्यक है।" अतः भारत को रोजगार जनन और वृद्धि दर के साथ समन्यय स्थापित करने की आवश्यकता है।

भूमण्डलीकरण: चुनौतियां एवं अवसर (Globalization Challenges and Opportunities)

विभिन्न देशों में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया की लागत तथा लाभ असमान रहे हैं। अलग-अलग देशों में भूमण्डलीकरण के प्रभाव के विषय में आम धारणा भी अलग-अलग रही है और लाभ के सम्बन्ध में भी विभिन्न देशों के अनुभव भिन्न-भिन्न रहे हैं। जिन देशों ने ठोस (sound) समष्टि आर्थिक नीति को अपनाया तथा जिनकी वित्तीय व्यवस्था मजबूत तथा लचीली रही है, वे भूमण्डलीकरण के लाभ को प्राप्त कर सकते हैं। भूमण्डलीकरण के वातावरण में खराब नीति के कारण काफी नुकसान हो सकता है। विकासशील देशों में भूमण्डलीकरण के दुष्प्रभाव को समाप्त करने के लिए उठाए गए सही नीति गत कदमों ने इसके कार्यान्वयन, गति क्रम तथा सुधार की विषयवस्तु को प्रभावित किया है।

2002 के अन्तर्राष्ट्रीय विवेचन में भूमण्डलीकरण के बुरे प्रभाव ही छाए रहे। 1980 से भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को लागू करने के बाद निर्धनता तथा असमानता के संकेतों की जांच करने पर निम्न 5 प्रवृत्तिया सामने आती हैं

• निर्धन देशों के आर्थिक विकास की गति में तीव्रता,

• बिश्व में निर्धनों की संख्या में कमी,

• विश्व असमानता में मामूली कमी,

• देशों के मध्य अधिक असमानता की कोई सामान्य प्रवृत्ति नहीं,

• विश्व में अधिक असमान मजदूरी की दर।

इन निष्कर्षों पर लोगों ने ऐसा कहकर प्रश्न चिह्न लगाया है कि चालू आंकड़े इतने दोषपूर्ण है कि इनके आधार पर निर्धनता की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में कोई ठोस अनुमान नहीं लगाए जा सकते हैं। वैकल्पिक विधियों के उपयोग से विपरीत परिणाम निकल सकते हैं, अर्थात् ऐसा निष्कर्ष निकल सकता है कि भूमण्डलीय असमानता बढ़ रही है।

आय की असमानता के समान ही वित्तीय खुलेपन के कारण जोखिम भी एक महत्वपूर्ण विषय है जिसके विषय में एक ही प्रकार के विचार नहीं हैं। वित्तीय उदारीकरण के परिणामस्वरूप पूंजी के अन्तप्रवाह में वृद्धि के बावजूद विकास दर में वृद्धि नहीं हो सकती है। इसका कारण कुछ इस प्रकार हो सकता है। विभिन्न देशों के मध्य प्रति व्यक्ति आय में अन्तर का कारण पूंजी श्रम अनुपात में भिन्नता का होना आवश्यक नहीं है। यदि ऐसा होता तो वित्तीय उदारीकरण के कारण पूंजी के अन्तप्रवाह में वृद्धि से इस अन्तर को पाटा जा सकता था। ऐसा सम्भव है कि प्रतिव्यक्ति आय का अन्तर उत्पादन के साधनों की उत्पादकता में अन्तर के कारण हो उत्पादकता अन्तर सरकार की कार्यकुशलता, कानून के अनुपालन, सम्पत्ति के अधिकार, आदि में फर्क के कारण से हो सकता है। दहलीज प्रभाव (Threshold Effect) भी कारण हो सकता है वित्तीय भूमण्डलीकरण के लाभ उन्हीं देशों को मिल सकते हैं जिनकी शोषण (absorptive) क्षमता एक खास स्तर से ऊंची होती है। वित्तीय उदारीकरण के प्रभाव का अध्ययन 14 देशों के सम्बन्ध में किया गया। इन अध्ययनों से पता चला कि 14 में से केवल 3 देशों में भूमण्डलीकरण (वित्तीय) का विकास पर धनात्मक प्रभाव पड़ा।

पूर्वी एशियाई संकट के बाद से वित्तीय खुलेपन के सम्बन्ध में अन्तरर्राष्ट्रीय ज्ञानबोध में काफी परिवर्तन आया है, लेकिन खुलेपन की प्रक्रिया पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा है। खुलेपन के लाभ को प्राप्त करने तथा जोखिम को कम करने पर ज्यादा बल दिया जा रहा है। भूमण्डलीकरण के अधिक अच्छे परिणाम उस समय मिलेंगे जब विकसित देश विकासशील देशों के लिए अपने बाजार को खोल देंगे तथा अपने अप्रवास (immigration) प्रक्रिया को अधिक उदार बना कर श्रमिकों की गतिशीलता को बढ़ावा देंगे। भूमण्डलीकरण का उद्देश्य वस्तुओं तथा सेवाओं के साथ-साथ श्रमिकों का उन्मुख प्रवाह भी है। यह भी स्वीकारा जाने लगा है कि भूमण्डलीकरण से पूरा लाभ प्राप्त करने के लिए शोषण क्षमता में वृद्धि की आवश्यकता है। इस क्षमता में वृद्धि निम्न कारकों पर निर्भर करती है:

• मानवीय पूंजी की प्रकृति;

• घरेलू वित्तीय वाजार की गहनता।

• समष्टि आर्थिक नीतियां, तथा

• प्रशासन की क्वालिटी।

भूमण्डलीकरण (वैश्वीकरण) से सम्बद्ध कठिनाइयां (CONSTRAINTS ON GLOBALIZATION)

वैश्वीकरण की राह में आने वाली प्रमुख अड़चनें निम्नवत हैं।

1. असमान प्रतिस्पर्धा वैश्वीकरण ने असमान प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है। यह प्रतिस्पर्धा है शक्तिशाली एवं विशालकाय बहुराष्ट्रीय निगमों तथा आकार में बहुत छोटे एवं कमजोर भारतीय उद्योगों के बीच। इस प्रतिस्पर्धा से कमजोर भारतीय औद्योगिक इकाइयों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है।

2. क्षेत्रीय व्यापार गुटों की स्थापना वैश्वीकरण की आधारभूत मान्यता है कि सभी देशों में वस्तुओं एवं सेवाओं तथा पूंजी के निर्वाध प्रवाह पर किसी तरह का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए। आज विश्व के तमाम देशों ने अपने क्षेत्रीय आर्थिक एवं व्यापार गुट बना लिए हैं। इन गुटों की स्थापना से वस्तुओं एवं सेवाओं तथा पूंजी का विश्वव्यापी प्रवाह प्रभावित होता है। वर्तमान में विश्व में 15 से अधिक व्यापारिक गुट हैं।

3. विदेशों में बढ़ता संरक्षणवाद विगत कुछ वर्षों से अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक परिवेश में महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे हैं। औद्योगिक देशों में जब विकास की गति तेज थी, तब वे मुक्त व्यापार की वकालत करते थे, परन्तु विगत वर्षों में जब इनके विकास की गति धीमी होने लगी तब वे संरक्षण की आड़ लेने लगे। उदाहरण के लिए (1) अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने बाल-श्रम और श्रम मानदण्डों का मुद्दा उठाकर भारतीय कालीन के निर्यात को बाधित करने का प्रयास किया। (ii) भारतीय स्कर्ट जब अमेरिका में अधिक लोकप्रिय होने लगे तब यह कहकर उसके आयात पर प्रतिबन्ध लगाया जाने लगा कि ये ज्वलनशील पदार्थों से बने हैं। (iii) हाल ही में यूरोपीय संघ के देशों ने भारतीय टेक्सटाइल निर्यात पर डम्पिंग विरोधी शुल्क लगा दिया है।

4. सीमित वित्तीय संसाधन अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में वस्तु को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए उसकी गुणवत्ता में सुधार तथा उत्पादन बढ़ाना आवश्यक समझा जाता है। इसके लिए बड़ी मात्रा में पूंजी की आवश्यकता होती है, परन्तु विकासशील देशों में पूंजी का अभाव पाया जाता है। फलतः इन देशों की विलीय संसाधन जुटाने के लिए विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के पास जाना पड़ता है जो विभिन्न प्रतिकूल शर्तों पर संसाधन उपलब्ध कराते हैं।

5. तकनीकी प्रगति को बढ़ावा देना विकासशील देशों में तकनीकी प्रगति की दर नीची होती है। वैश्वीकरण का लाभ विकासशील देशों को भी मिले इसके लिए आवशयक है कि इन देशों में तकनीकी प्रगति का सार्थक प्रयास किया जाय।

6. अवांछित क्षेत्रों में प्रवेश वैश्वीकरण के फलस्वरूप वहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रवेश अधिकाधिक उपभोक्ता और सेवा क्षेत्र में हो रहा है जो कि अनुचित है। वीमा क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश से देश में घरेलू पूंजी निर्माण की दर प्रभावित होगी।

7. उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता वैश्वीकरण के लिए देश में उपयुक्त वातावरण का निर्माण नहीं किया जा सका है। देश की अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक सुधार पूर्ण रूप से नहीं हो सके हैं। जिन देशों ने वैश्वीकरण की नीति को अपनाया है, उन्होंने अपने यहां पहले उपयुक्त वातावरण तैयार किया था। साथ ही हमारे देश में स्वतन्त्र वाजार का विकास ठीक से नहीं हो पाया है।

8. भारतीय श्रमिकों को भय है कि देश में आधुनिक मशीनों की स्थापना से उद्योगों में श्रमिकों की छंटनी होगी और वे बेरोजगार हो जाएंगे।

भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)

कुटीर लघु उद्योग (COTTAGE SMALL SCALE INDUSTRY)

सूती वस्त्र उद्योग (COTTON TEXTILES INDUSTRY)

लोहा तथा इस्पात उद्योग (IRON AND STEEL INDUSTRY)

चीनी उद्योग (SUGAR INDUSTRY)

सीमेण्ट उद्योग (CEMENT INDUSTRIES)

पटसन या जूट उद्योग (JUTE INDUSTRY)

औद्योगिक नीति-1948,1956 एवं वर्तमान औद्योगिक नीति (INDUSTRIAL POLICY : 1948, 1956 AND PRESENT INDUSTRIAL)

ग्रामीण आधारभूत ढाँचा (Rural Infrastructure)

कृषि विपणन (Agricultural Marketing)

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) [GOODS-AND-SERVICE-TAX-(GST)]

केन्द्रीय सरकार के आय (आगम) के स्रोत (SOURCES OF REVENUE OF CENTRAL GOVERNMENT)

भारत व विश्व व्यापार संगठन (INDIA AND THE WORLD TRADE ORGANISATION)

भारत में निर्यात प्रोत्साहन व आयात प्रतिस्थापन (EXPORT PROMOTION AND IMPORT SUBSTITUTION IN INDIA)

नीति आयोग (NITI AYOG)

भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ (FEATURES OF INDIAN ECONOMY)

“भारत एक धनी देश है किन्तु भारत के निवासी निर्धन हैं”  (India is a rich country but the people of India are poor)

भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना  (STRUCTURE OF INDIAN ECONOMY)

भारतीय जनांनिकी संरचना (INDIAN DEMOGRAPHIC STRUCTURE)

भारत में जनसंख्या समस्या (PROBLEMS OF POPULATION)

जनसंख्या विस्फोट (Population Explosion)

भारत की जनसंख्या नीति-परिवार कल्याण (POPULATION POLICY OF INDIA : FAMILY WELFARE)

भारत में ग्रामीण-शहरी प्रवास या प्रवसन (RURAL-URBAN MIGRATION IN INDIA)

भारत में नियोजन-अर्थ(PLANNING IN INDIA : MEANING)

नियोजन के प्रकार (TYPES OF PLANNING)

आर्थिक नियोजन की आवश्यकता (Need for Financial Planning)

राज्य सरकारों की आय (आगम) के स्रोत (SOURCES OF REVENUE OF STATE GOVERNMENT)

भारत में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के प्रमुख लक्ष्य व उद्देश्य (MAJOR AIMS AND OBJECTIVES OF ECONOMIC DEVELOPMENT UNDER DIFFERENT FIVE YEAR PLANS IN INDIA)

भारत में नियोजन की व्यूह-रचना (STRATEGY OF PLANNING IN INDIA)

भारतीय नियोजन का मूल्यांकन (ASSESSMENT OF INDIAN PLANNING)

सूचना प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) उद्योग (INFORMATION TECHNOLOGY INDUSTRY)

परिवहन (यातायात)-सड़क, रेलवे, वायु व जल (TRANSPORT : ROAD, RAILWAY, AIR AND WATER)

कृषि की समस्याएँ व सम्भावनाएँ (PROBLEMS AND PROSPECTUS OF AGRICULTURE)

भूमि सुधार (LAND REFORMS)

कृषि-वित्त (AGRICULTURAL FINANCE)

ग्रामीण ऋणग्रस्तता (RURAL INDEBTEDNESS)

निर्धनता : निरपेक्ष, सापेक्ष तथा सूचक (Poverty: absolute, relative and indicator)

भारत का विदेशी व्यापार (FOREIGN TRADE OF INDIA)

रेल परिवहन (RAIL TRANSPORT)


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