प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)
Class - 11 Hindi Core
वितान
पाठ 2. राजस्थान की रजत बूँदें - अनुपम मिश्र
जीवन-सह-साहित्यिक परिचय
लेखक
- अनुपम मिश्र
जन्म- सन् 1948, वर्धा (महाराष्ट्र)
माता- सरला मिश्र
पिता- भवानी प्रसाद मिश्र (प्रसिद्ध हिन्दी कवि)
निधन- 19 दिसम्बर, 2016
रचनाएँ - पर्यावरण संबंधी लगभग बीस पुस्तकों का निर्माण जिनमें 'आज भी खरे हैं तालाब'
और 'राजस्थान की रजत बूँदै' विशेष रुप से चर्चित रहीं।
प्रमुख सम्मान- 'आज भी खरे हैं तालाब' के लिए 2011 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित
जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अनुपम मिश्र ने इस किताब को शुरू से ही
कॉपीराइट से मुक्त रखा है।
सन् 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार इंदिरा
गांधी पर्यावरण पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
2007-2008 में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार के चंद्रशेखर आज़ाद
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इन्हें एक लाख रुपये के कृष्ण बलदेव वैद पुरस्कार से भी सम्मानित
किया जा चुका है।
रचनात्मक विशेषताएँ- अनुपम मिश्र जाने माने लेखक, संपादक, छायाकार और गांधीवादी
पर्यावरणविद थे। उनके प्रयासो से सूखाग्रस्त क्षेत्रों में शुमार अलवर में जल संरक्षण
का कार्य किया गया। अरवरी नदी को पुनर्जीवित करने में उनका प्रयास सराहनीय है। पर्यावरण
संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यान आकर्षित करने की दिशा में वे तब
से काम कर रहे थे, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला था। शुरुआत में
बिना सरकारी मदद के इन्होंने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता और बारीकी
से खोज-खबर ली है, वह कई सरकारों, विभागों और परियोजनाओं के लिए भी संभवतः संभव नहीं
हो पाया है। इनके प्रयास से सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ था जिसे
दुनिया ने देखा और खूब सराहा। सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले
तारीफ रही है। इतना ही नहीं इन्होंने उत्तराखण्ड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत
जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
गांधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में उन्होंने पर्यावरण कक्ष
की स्थापना की। वह इस प्रतिष्ठान की पत्रिका 'गाँधी मार्ग के संस्थापक और संपादक भी
थे। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के 'चिपको आंदोलन' में
जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। वह जल-संरक्षक राजेन्द्र सिंह की संस्था 'तरुण
भारत संघ' के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे। 2009 में उन्होंने टेड (टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट
एंड डिजाइन) द्वारा आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित किया था।
पाठ-परिचय
'राजस्थान की रजत बूँदे' पाठ अनुपम मिश्र द्वारा लिखा गया
है। यह रचना राजस्थान की जल-समस्या का समाधान मात्र नहीं है, बल्कि यह जमीन की अतल
गहराइयों में जीवन की पहचान भी है। इसमें राजस्थान के मरुस्थल में पाई जाने वाली कुंई
के बारे में बताया गया है जिसका उपयोग पानी संग्रहण के लिए किया जाता है। लेखक राजस्थान
की रेतीली भूमि में पानी के स्रोत कुंई का वर्णन करता है। वे बताते हैं कि कई खोदने
काम चेलवांजी करते है। वे बसौली से खुदाई करते हैं जो छोटी डंडी का छोटे फावड़े जैसा
औजार होता है। अंदर भयंकर गर्मी रहती है। गर्मी कम करने के लिए बाहर खड़े लोग बीच-बीच
में मुट्ठीभर रेत बहुत ज़ोर से नीचे फेंकते हैं। इससे ताजी हवा अंदर आती है और गहराई
में जमा दमघोंटू गर्म हवा बाहर निकलती है। चेलवांजी सिर पर कॉसे, पीतल या अन्य किसी
धातु का बर्तन टोप की तरह पहनते हैं, ताकि चोट न लगे। थोड़ी खुदाई होने पर इकट्ठा हुआ
मलबा बाल्टी से बाहर निकाला जाता है। चेलवांजी कुंई की खुदाई व चिनाई करने वाले दक्षतम
लोग होते हैं। कई कुएँ से व्यास में छोटी होती है, परंतु गहराई कम नहीं होती। कुई वर्षा
के जल को बड़े विचित्र ढंग से समेटती है तब जब वर्षा ही नहीं होती। यानी कुंई में न
तो सतह पर बहने वाला पानी है और न भूजल ।
मरुभूमि में रेत का विस्तार और गहराई अथाह है। यहाँ पर कहीं
कहीं रेत की सतह के पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की पट्टी मिलती है। कुएँ का पानी
खारा होने के कारण पीने के काम नहीं आ सकता। इसी कारण कुड्यों बनाने की आवश्यकता होती
है। यह पानी अमृत के समान मीठा होता है। मरुभूमि में जल को तीन रूपों में बांटा गया
है- पालर पानी 2. पाताल पानी 3. रेजाणी पानी ।
पालरपानी यानी सीधे बरसात से मिलने वाला पानी, बारिश का जल
जो बहकर नदी, तालाबों आदि में एकत्रित होता है। दूसरा रूप है पातालपानी यह वही भूजल
है जो हमें कुओं, ट्यूबवेल द्वारा प्राप्त होता है। तीसरा रूप है रेजाणी पानी वह बारिश
का पानी जो रेत के नीचे जाता तो है, लेकिन खड़िया मिट्टी के कारण भूजल से नहीं मिल
पाता व नमी के रूप में समा जाता है।
वर्षा की मात्रा नापने के लिए 'रेजा' शब्द का प्रयोग किया
जाता है। रेजाणी पानी खड़िया पट्टी के कारण पाताल पानी से अलग बना रहता है। इस पट्टी
के न होने कारण से रेजाणी पानी और पातालपानी खारा हो जाता है। रेजाणीपानी को सहेजने
के लिए कुंई का निर्माण होता है।
कुंई निर्माण के बाद उत्सव महोत्सव मनाया जाता है। चेजारो
को राजस्थान में विशेष दर्जा प्राप्त था। चेलवांजी को विदाई के समाय उन्हें अलग-अलग
तरह की भेंट दी जाती थी। उसके बाद भी उनका रिश्ता गाँव से जुड़ा रहता था। तीज-त्योहारों
और विवाह जैसे मांगलिक कार्यों पर भेंट दी जाती थी। फसल आने पर खलिहान का एक हिस्सा
उनके लिए रखा जाता था। लेकिन आज के समय में उन्हें वो सम्मान नहीं दिया जाता है उनसे
बस एक मजदूर की तरह काम करवाया जाता है।
कुंई का मुँह छोटा रखा जाता है। पानी निकालने के लिए छोटी
चंड्स का उपयोग किया जाता है यदि कोई गहरी हो तो पानी खींचने के लिए गिनी या चकरी भी
लगाई जाती है यह गरेड़ी, चरखी या फरेडी कहलाती है। कुंई से दिन-भर में मिलाकर बस तीन-चार
घड़ा मीठा पानी ही निकाला जा सकता है। खड़िया पत्थर की पट्टी एक बड़े क्षेत्र में से
गुजरती है यही कारण है कि कुंई लगभग प्रत्येक घर में मिल जाती है।
राजस्थान में खड़िया पत्थर की पट्टी पर ही कुंड़यों का निर्माण
किया जाता है। कुंई का निर्माण ग्राम समाज की सार्वजनिक जमीन पर होता है, परंतु उसे
बनाने और उसे पानी लेने का हक उसका अपना हक होता है। सार्वजनिक जमीन पर बरसने वाला
पानी ही बाद में वर्ष-भर नमी की तरह सुरक्षित रहता है। इसी नमी से साल भर कुंड़यों
में पानी भरता है। नमी की मात्रा वहाँ हो चुकी वर्षा से तय हो जाती है। इसलिए उसे क्षेत्र
में हर नई कई का अर्थ है- पहले से तय नमी का बँटवारा। इस कारण निजी होते हुए भी सार्वजनिक
क्षेत्र में बनी कुंड़यों पर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है। बहुत जरूरत पड़ने पर
ही समाज नई कुंई के लिए अपनी स्वीकृति देता है।
रेत के नीचे हर जगह खडिया की पट्टी नहीं मिलती, इसलिए कई
भी पूरे राजस्थान में नहीं मिलती। चुरु, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर में खड़िया पत्थर
की पट्टी पाई जाती है इसलिए यहाँ हर घर में कुंई पाया जाता है। इस प्रकार से राजस्थान
में कुई खड़िया पट्टी के बल पर खारे पानी के बीच मीठे पानी का मधुर स्रोत है।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न-अभ्यास
1. राजस्थान में कुंई किसे कहते हैं? इसकी
गहराई और व्यास तथा सामान्य कुओं की गहराई और व्यास में क्या अंतर होता है ?
उत्तरः- राजस्थान में अथाह रेत होने के कारण वर्षा का पानी रेत में
समा जाता है, जिससे नीचे की सतह पर नमी फैल जाती है। यही नमी खड़िया मिट्टी की परत
के ऊपर तक रहती है। इस नमी को पानी के रूप में बदलने के लिए चार-पाँच हाथ के व्यास
की जगह को तीस से पैंतीस हाथ की गहराई तक खोदा जाता है। खुदाई के साथ-साथ चिनाई भी
की जाती है। इस चिनाई के बाद खड़िया की पट्टी पर रिस-रिस कर पानी एकत्र हो जाता है;
इसी तंग और गहरी जगह को कुंई कहा जाता है। यह कुएँ का स्त्रीलिंग रूप है। कुंई केवल
व्यास में कुएँ के व्यास से छोटी होती है परंतु गहराई में लगभग समान होती है। इसका
मुँह इसलिए छोटा रखा जाता है क्योंकि यदि कुई का व्यास बड़ा होगा तो उसमें कम मात्रा
का पानी ज्यादा फैल जाएगा और तब उसे ऊपर निकलना कठिन होगा ।
2. दिनोंदिन बढ़ती पानी की समस्या से निपटने
में यह पाठ आपकी कैसे मदद कर सकता है तथा देश के अन्य
राज्यों में इसके लिए क्या उपाय हो रहे हैं? जानें और लिखें।
उत्तरः- दिनोंदिन पानी की समस्या विकराल रूप ले रही है। मानव की प्रकृति
के अत्यधिक दोहन के कारण पानी की समस्या भयंकर होती जा रही है। नदियों का जल- स्तर
घटता जा रहा है। सभी जगहों में लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं। ऐसे वातावरण में 'राजस्थान
की रजत बूँदें पाठ से हमें जल प्राप्ति के अन्य उपायों और पानी के समुचित प्रयोग पर
विचार करने में मदद करता है। देश के अन्य भागों में पानी की समस्या से निपटने के लिए
कई सरकारी और गैर सरकारी अभियान चलाए जा रहे हैं। लोगों को प्रिंट-मीडिया, विज्ञापन,
कार्यक्रमों, सिने जगत की हस्तियों द्वारा पानी के कमी के विषय में अवगत करवाया जा
रहा है। गाँवों और शहरों में वर्षा के पानी के बचाव के कई उपाय किए जा रहे हैं। हमें
प्रकृति के उपहार वर्षा के जल का संग्रहण करना चाहिए। इसके लिए गाँव-गाँव में तालाबों
का पूर्ननिर्माण किया जा रहा है। छोटे कुएँ, बावड़ियों और जलाशयों का निर्माण कर पानी
के भूमिगत जल-स्तर को बढ़ाया जा रहा है। अब वर्षा के जल के संचयन की आवश्यकता है। यदि
ये सब उपाय अपनाए जाएँ तो ही इस समस्या से निपटा जा सकता है। इसलिए हमें वर्षा की बूंद
बूंद पानी का उचित संग्रहण और इस्तेमाल करना चाहिए।
3. चेजारों
के साथ गाँव-समाज के व्यवहार में पहले की तुलना में आज क्या फ़र्क आया है? पाठ के आधार
पर बताइए।
उत्तरः- 'कुंई निर्माण के दक्ष चिनाई करने वाले कारीगर' को चेंजारों
कहा जाता है। राजस्थान में पहले चेजारों को विशेष सम्मान प्राप्त था। कई बन जाने पर
एक विशेष उत्सव का आयोजन किया जाता था, तब चेजारों को विदाई के समय तरह-तरह की भेंट
दी जाती थी। इसके बाद भी इनका रिश्ता गाँव से बना रहता था; आच प्रथा के अनुसार उन्हें
तीज त्योहारों तथा शादी-विवाह जैसे मांगलिक अवसरों पर भी भेंट दी जाती थी। फसल आने
पर खलिहान में उनके नाम से अनाज का एक ढेर अलग से निकाला जाता था। समयानुसार अब स्थिति
में परिवर्तन आ चुका है। आज उन्हें पहले जैसा सम्मान नहीं दिया जाताः सिर्फ मज़दूरी
देकर काम करवाया जाता है।
4. निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में
कुंड़यों पर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है। लेखक ने ऐसा क्यों कहा होगा?
उत्तरः- लेखक के अनुसार राजस्थान में खडिया पत्थर की पट्टी
पर ही कुंड्यों का निर्माण किया जाता है। कुंई का निर्माण ग्राम-समाज की सार्वजनिक
जमीन पर होता है। हर ग्रामीण की अपनी-अपनी कुंई होती है परंतु उसे बनाने और उससे पानी
लेने का हक उसका अपना हक है। फिर भी इस क्षेत्र में बनी कुंई गाँव-समाज की सार्वजनिक
संपत्ति मानी जाती है। इसका कारण यह है कि उस जगह बरसने वाला पानी ही बाद में वर्ष-भर
नमी की तरह सुरक्षित रहता है। इसी नमी से साल-भर कुंड़ों में पानी भरता है। राजस्थान
के लोग जानते हैं की भूमि के अंदर मौजूद नमी को ही कुंई के
द्वारा पानी के रूप में प्राप्त
किया जाता है। नमी की मात्रा वहाँ हो चुकी वर्षा से तय हो जाती है। अतः उस क्षेत्र
में हर नई कई का अर्थ है-पहले से तय नमी का बँटवारा। इस कारण निजी होते हुए भी सार्वजनिक
क्षेत्र में बनी कुंड़यों पर ग्राम-समाज का अंकुश लगा रहता है। यदि यह अंकुश न रहे
तो लोग प्रत्येक घर में कई बना लेंगे और सबको पानी नहीं मिल पाएगा। बहुत अधिक आवश्यकता
पड़ने पर ही समाज नई कुंई के लिए अपनी स्वीकृति देता है।
5. कुंई
निर्माण से संबंधित निम्न शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त करें- पालर पानी, पाताल
पानी, रेजाणी पानी।
उत्तरः- राजस्थान में कुंई बनाए जाने वाले क्षेत्र में पानी
को तीन रूपों में बाँटा गया है पालरपानी, पातालपानी और रेजाणीपानी।
1. पालरपानी- पालर पानी यानी सीधे बरसात से मिलने वाला पानी। वर्षा का
यह जल जो धरातल पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि में रोका जाता है। इस पानी का वाष्पीकरण
जल्दी होता है।
2. पाताल पानी- जो वर्षा जल जमीन में नीचे जाकर 'भूजल' में मिल जाता है।
वह कुओं/ ट्यूबवैल आदि द्वारा हमें प्राप्त होता है।
3. रेजाणी पानी- वह वर्षा जल जो रेत के नीचे जाता तो है, परन्तु खड़िया मिट्टी
के परत के कारण भूजल से नहीं मिल पाता व नमी के रूप में रेत में समा जाता है, जो कुंई
द्वारा प्राप्त किया जाता है। अर्थात यह पानी धरातल से नीचे उतरता है परंतु पाताल में
नहीं मिलता है यह पालरपानी और पातालपानी के बीच का है। वर्षा जल को मापने के लिए 'रेजा'
शब्द का प्रयोग होता है और रेजा के माप का अर्थ 'धरातल' में समाई वर्षा' के माप से
है।
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर (बहुविकल्पीय प्रश्न)
1. 'राजस्थान की रजत बूँदे' के रचनाकार हैं-
क. अनुपम मिश्र
ख. अनुज लुगुन
ग. अनीता वर्मा
घ. अनुकृति शर्मा
2.लेखक अनुपम मिश्र किन आन्दोलनों से घनिष्ठ
रूप से जुड़े रहे हैं?
क. पर्यावरण संबंधी
ख. नारी सशक्तिकरण संबंधी
ग. राजनीति संबंधी
घ. समाज संबंधी
3. खारे पानी के सागर में अमृत जैसा मीठा पानी
प्राप्त करने के लिए मरुभूमि के समाज ने अपने अनुभवों को व्यवहार में उतारने का पूरा
एक शास्त्र विकसित किया है जिसने राजस्थान में उपलब्ध पानी को कितने रूपों में बाँटा
है?
क. दो
ख. तीन
ग. चार
घ. पांच
4. 'राजस्थान की रजत
बूँदें' लेख के अनुसार सीधे बरसात से मिलने वाला पानी क्या कहलाता है,?
क. रेजाणीपानी
ख. पातालपानी
ग. पालर पानी
घ. इनमें से कोई नहीं
5. 'राजस्थान की रजत
बूँदें' लेख के अनुसार जो भूजल कुओं से निकाला जाता है, उसे क्या कहते हैं?
क. पातालपानी
ख. पालर पानी
ग. रेजाणी पानी
घ. मीठा पानी
6. 'राजस्थान की रजत
बूँदें' लेख के अनुसार धरातल के नीचे उतरा पर पाताल में ना मिल पाने वाला पानी
कहलाता है-
क. पालरपानी
ख. पातालपानी
ग. रेजाणीपानी
घ. खारापानी
7. राजस्थान में वर्षा की मात्रा नापने में इंच या सेंटीमीटर
के स्थान पर किस शब्द का प्रयोग होता है ?
क. रेजाणी
ख. रेजा
ग. राजा
घ. रोजा
8. राजस्थान में कुंई खोदने वाला क्या कहलाता
है?
क. चेजारो
ख. चेजरा
ग. रजरा
घ. चेजो
9. चेजो अर्थात् चिनाई का श्रेष्ठतम काम
किसका प्राण है?
क. चेजारो का
ख. कुँआ का
ग. कुंई का
घ. चेलवांजी का
10. कुंई खोदने वाले को किस प्रथा के अंतर्गत
वर्षभर सम्मानित किया जाता है ?
क. अच प्रथा
ख. आच प्रथा
ग. ओच प्रथा
घ. आज प्रथा
11. राजस्थान के किस जिले के अनेक गाँवों में
पालीवाल ब्राह्मणों और मेघवालों के हाथों से सौ-दो सौ
बरस पहले बनी कंड़याँ या पार आज भी बिना थके पानी जुटा
रही हैं?
क. बीकानेर
ख. बाड़मेर
ग. अजमेर
घ. जैसलमेर
12. गहरी कुंई से पानी खींचने की सुविधा के लिए
उसके ऊपर लंगी घिरनी को राजस्थान में क्या कहा जाता है?
क. गरेड़ी
ख. चरखी
ग. फरेडी
घ. ये सभी
13. पालर पानी किसे कहते हैं ?
क. भूजल
ख. बरसात से मिलने वाला पानी
ग. खड़िया पट्टी का पानी
घ. नल का पानी
14. कंई को रस्से से बाँधने की क्रिया को क्या
कहते हैं?
क. बंधन
ख. चिनाई
ग. चेजा
घ. जोड़ाई
15. 'राजस्थान की रजत बूँदें' नामक पाठ के लेखक
हैं-
क. कुमार गंधर्व
ख. बेबी हालदार
ग. अनुपम मिश्र
घ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
16. कुंई की कितनी गहरी खुदाई हो चुकी थी?
क. बीस-तीस हाथ
ख. तीस-पैंतीस हाथ
ग. पच्चीस-तीस हाथ
घ. पंद्रह-बीस हाथ
17. 'कुंई' शब्द से तात्पर्य है-
क. खुला स्थान
ख. गहरा स्थान
ग. छोटा-सा कुआँ
घ. गहरा कुआँ
18. कुंई की खुदाई किससे की जाती है?
क. फावडे से
ख. हत्थी से
ग. दरांती से
घ. बसौली से
19. चेलवांजी अपने सिर पर किस प्रकार का टोप
पहनते हैं?
क. कॉसे का
ख. पीतल का
ग. किसी अन्य धातु का
घ. उपरोक्त में से कोई एक
20. 'चेलवांजी' का शाब्दिक अर्थ है-
क. चेजारो
ख. निहारो
ग. पुचकारो
घ. मिथारो
21. कुंई की गरमी कम करने के लिए ऊपर जमीन पर
खड़े लोग मुट्ठी भर-भरकर नीचे क्या फेंकते हैं?
क. रेत
ख. पानी
ग. टोप
घ. रस्सी
22. बड़े कुँओं में पानी कितनी गहराई पर निकलता
है?
क. डेढ़ सौ-दो सौ हाथ
ख. दो सौ-तीन सौ हाथ
ग. सौ-दो सौ हाथ
घ. तीन सौ-चार सौ हाथ
23. बड़े कुँओं के पानी का स्वाद कैसा होता है?
क. मीठा
ख. नमकीन
ग. कडुवा
घ. खारा
24. मरुभूमि के विकसित किए गए समाज ने वहाँ उपलब्ध
पानी को कितने रूपों में बाँटा है?
क. चार
ख. पाँच
ग. सात
घ. तीन
25. राजस्थान में पानी के रूप हैं-
क. पालर पानी
ख. पाताल पानी
ग. रेजाणी पानी
घ. उपरोक्त सभी
26. वर्षा की मात्रा नापने के लिए किस शब्द का प्रयोग होता है?
क. पट्टी
ख. इंच
ग. सेंटीमीटर
घ. रेजा
27. पाँच हाथ के व्यास की कई में रस्से की एक ही कुंडली
का केवल एक घेरा बनाने के लिए लगभग कितना लंबा रस्सा चाहिए?
क. पंद्रह हाथ
ख. बीस हाथ
ग. पाँच हाथ
घ. दस हाथ
28. कुंई के पानी को साफ रखने के लिए उसे किस
धातु के बने ढक्कन से ढका जाता है?
क. लोहा
ख. पत्थर
ग. मिट्टी
घ. लकड़ी
29. गहरी कुंई से पानी खींचने की सुविधा के
लिए उसके ऊपर लगी चकरी को क्या कहते हैं?
क. गरेड़ी
ख. चरखी
ग. फरेड़ी
घ. उपरोक्त सभी
30. जैसलमेर जिले के एक गाँव खड़ेरों की ढाणी
को लोग किस नाम से जानते थे?
क. तीन-बीसी
ख. पाँच बीसी
ग. छह-बीसी
घ. दस-बीसी
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
1. 'राजस्थान की रजत बूँदे' पाठ में लेखक
किसके निर्माण का जिक्र किया है?
उत्तरः- इस पाठ में राजस्थान में बनाई जाने वाली कुंड्यों
के निर्माण का जिक्र किया गया है।
2. बसौली क्या होती है?
उत्तरः- बसौली राज मिस्त्रियों का एक छोटी डंडी का छोटे
फावड़े जैसा औज़ार होता है।
3. चेलवांजी अपने सिर की सुरक्षा के लिए क्या
पहनते हैं?
उत्तरः- सुरक्षा की दृष्टि से चेलवांजी अपने सिर पर कांसे,
पीतल या अन्य किसी धातु का एक बर्तन टोप की तरह पहनते हैं।
4. चेलवांजी कौन होते हैं?
उत्तरः- कुंई की खुदाई और एक विशेष तरह की चिनाई में दक्ष
मजदूरों को को चेलवांजी यानी चेजारो कहते हैं।
5. कुंई की चिनाई करने वाले काम को क्या कहा
जाता है?
उत्तरः- कुंई की चिनाई करने वाले काम को 'चेजा' कहा जाता
है।
6. मरुस्थल के जल को किन तीन रूपों में बाँटा
गया है?
उत्तरः- 1. पालर पानी, 2. पाताल पानी, 3. रेजाणी पानी।
7. सीधे बरसात से मिलने वाले पानी को क्या
कहा जाता है?
उत्तरः- पालर पानी।
8. पाताल पानी किसे कहते हैं?
उत्तरः- भूजल है जो कि कुंओं से प्राप्त किया जाता है।
9.
मरुस्थल में वर्षा की मात्रा मापने के लिए किस शब्द का प्रयोग किया जाता है?
उत्तरः- मरुस्थल में वर्षा की मात्रा मापने के लिए 'रेजा'
शब्द का प्रयोग किया जाता है।
10. कुंई
का मुंह छोटा क्यों रखा जाता है?
उत्तरः- कुंई का मुँह छोटा रखा जाता है, क्योंकि रेत में
जमी नमी से पानी की बूँदे बहुत धीरे-धीरे रिसती हैं।
11.
राजस्थान में कई कहाँ बनती हैं?
उत्तरः- राजस्थान में कुंड्याँ गांव-समाज की सार्वजनिक जमीन
पर बनती है।
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
1. कुंई की खुदाई किससे की जाती है?
उत्तरः- कुंई का व्यास या घेरा बहुत कम होता है। इसलिए इसकी
खुदाई फावड़े या कुल्हाड़ी कुल्हाड़ी से नहीं की जा सकती। इसकी खुदाई 'बसौली' से
की जाती है। बसौली छोटी डंडी का छोटे फावड़े जैसा औजार होता है जिस पर लोहे का
नुकीला फल तथा लकड़ी का हत्था लगा होता है।
2. खड़िया पत्थर की पट्टी कहाँ चलती है?
खड़िया पट्टी के अलग-अलग क्या नाम हैं?
उत्तरः- मरुभूमि में रेत का विस्तार व गहराई अथाह है। यहाँ
अधिक वर्षा भी हो तो वह भूमि में जल्दी जमा हो जाती है। कहीं-कहीं मरुभूमि में रेत
की सतह के नीचे प्रायः दस-पंद्रह हाथ से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की एक
पट्टी चलती है। यह पट्टी लंबी-चौड़ी होती है, परंतु रेत में दबी होने के कारण ऊपर
से दिखाई नहीं देती है।
खड़िया पट्टी के कई स्थानों पर अलग-अलग नाम हैं। कहीं यह
चारोली है तो कहीं धाधड़ो, धड़धड़ो, कहीं पर बिट्टू रो बल्लियो के नाम से भी जानी
जाती है तो कहीं इस पट्टी का नाम केवल 'खड़ी' भी है।
3. कुंई से पानी कैसे निकाला जाता है?
उत्तरः- कुंई से पानी 'चइस' के द्वारा निकाला जाता है। यह
मोटे कपड़े या चमड़े की बनी होती है। इसके मुँह पर लोहे का वजनी कड़ा बँधा होता
है। चड़स पानी से टकराता है तथा ऊपर का वजनी भाग नीचे के भाग पर गिरता है। इस तरह
कम मात्रा के पानी में भी वह ठीक से डूब जाती है। भर जाने के बाद ऊपर उठते ही चइस
अपना पूरा आकार ले लेता है। आजकल ट्रकों की फटी ट्यूब से भी छोटी चइसी बनने लगी
है।
4. रेजाणीपानी की क्या विशेषता है? 'रेजा'
शब्द का प्रयोग किसलिए किया जाता है?
उत्तरः- रेजाणीपानी, पालरपानी और पातालपानी के बीच पानी का
तीसरा रूप है। यह धरातल से नीचे उतरता है, परंतु पाताल में नहीं मिलता। इस पानी को
कुंई बनाकर ही प्राप्त किया जाता है।
'रेजा' शब्द का प्रयोग वर्षा की मात्रा नापने के लिए किया
जाता है। यह माप धरातल में समाई वर्षा को नापता है। उदाहरण के लिए यदि मरुभूमि में
वर्षा का पानी छह अंगुल रेत के भीतर समा जाए तो उस दिन की वर्षा को-पाँच अंगुल
रेजो कहेंगे।
5. गहरी कुंई से पानी खींचने का क्या प्रबंध
किया जाता है?
उत्तरः- गहरी कुंई से पानी खींचने की सुविधा के लिए उसके ऊपर घिरनी
या चकरी लगाई जाती है। यह गरेड़ी, चरखी या फरेड़ी भी कहलाती है। फरेड़ी लोहे की दो
भुजाओं पर भी लगती है। लेकिन प्रायः यह ग्लेल के आकार के एक मज़बूत तने को काट कर,
उसमें आर-पार छेद बनाकर लगाई जाती है। इसे ओड़ाक कहते हैं। ओड़ाक और चरखी के बिना
गहरी व संकरी कई से पानी निकालना कठिन काम होता है। ओडाक और चरखी चड़सी को
यहाँ-वहाँ टकराए बिना सीधे ऊपर तक लाती है। इससे वजन खींचने में भी सुविधा रहती
है।
6. गोधूलि के समय कुंड्यों पर कैसा वातावरण
होता है?
उत्तरः- लेखक के अनुसार कुंई की क्षमता दिनभर में बस दो-तीन घड़े
मीठे पानी को जमा करने की है। इस पानी को निकालने के लिए गोधूलि बेला में प्रायः
पूरा गाँव कुंड़यों पर आता है। उस समय मेला-सा लगता है। गाँव से सटे मैदान में
तीस-चालीस कुंड़यों पर एक साथ घूमती घिरनियों का स्वर गोचर से लौट रहे पशुओं की
घंटियों और रंभाने की आवाज में समा जाता है। दो-तीन घड़े भर जाने पर डोल और
रस्सियाँ समेट ली जाती हैं। कुंड्यो के ढक्कन वापस बंद कर दिए जाते हैं।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
1. "राजस्थान
में जल संग्रह के लिए बनी कुंई किसी वैज्ञानिक खोज से कम नहीं है।" स्पष्ट
करें।
उत्तरः- 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है। यह कथन राजस्थान की कुंई पर
पूरी तरह से सत्य सिद्ध होता है। यह बात बिल्कुल सही है कि राजस्थान में जल-संग्रह
के लिए बनी कई किसी वैज्ञानिक खोज से कम नहीं है। मरुभूमि में रेत का विस्तार और
गहराई अथाह है। वहाँ वर्षा भी कम होती है। भूजल खारा होता है। ऐसी स्थिति में जल
की खोज, उसे निकालना आदि सब कुछ वैज्ञानिक तरीके से हो सकता है। मरुभूमि के भीतर
खड़िया की पट्टी को खोजने में भी पीढ़ियों का अनुभव काम आता है। जिस स्थान पर
वर्षा का पानी एकदम न 'बैठे', उस स्थान पर खड़िया पट्टी पाई जाती है। कई के जल को
पाने के लिए मरुभूमि के समाज ने खूब मंथन किया तथा अनुभवों के आधार पर पूरा
शास्त्र विकसित किया है। कई खोदने में वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाई जाती है। कुंई की
खुदाई और एक विशेष तरह की चिनाई में दक्ष मजदूरों को चेलवांजी या चेजारो कहते हैं।
चेजारो के सिर पर धातु का बर्तन उन्हें चोट से बचाता है। कुंई की गहराई में चल रहे
इस मेहनती काम पर वहां की गर्मी का बहुत असर पड़ता है इसलिए गर्मी कम करने के लिए
ऊँपर जमीन पर खड़े लोग बीच-बीच में मुट्ठी भर रेत बहुत ज़ोर के साथ नीचे फेंकते
हैं। ऊपर से रेत फेंकने से ताजी हवा नीचे जाती है तथा गर्म हवा बाहर निकलती है।
चेजारो के कुंई खोदते समय दमोंटू गर्मी से छुटकारा पाने के लिए ऊपर से रेत फेंकना
भी तो एक विज्ञान ही है। इतना ही नहीं कुंई की चिनाई जो पत्थर, ईट, खींप की रस्सी
या अरणी के लट्ठों से की जाती है। यह खोज आधुनिक समाज को चमत्कृत करने वाली है। इस
वैज्ञानिक खोज से जल की कमी को पूरा करने के लिए राजस्थान को आज पूरा देश आदर्श
मान रहा है।
2. कुंई की निर्माण-प्रक्रिया पर प्रकाश
डालिए।
उत्तरः- मरुभूमि में कंई के निर्माण का कार्य चेलवांजी यानी
चेजारी करते हैं। वे खुदाई व विशेष तरह की चिनाई करने में दक्ष होते हैं। कई बनाना
एक विशिष्ट कला है। चार-पाँच हाथ के व्यास की कई को तीस से साठ-पैंसठ हाथ की गहराई
तक उतारने वाले चेजारो कुशलता व सावधानीपूर्वक पूरी ऊँचाई नापते हैं। चिनाई मैं
थोड़ी-सी भी चूक चैजारों के प्राण ले सकती है। हर दिन थोड़ी-थोड़ी खुदाई होती है,
डोल से मलबा निकाला जाता है और फिर आगे की खुदाई रोककर अब तक हो चुके काम की चिनाई
की जाती है ताकि मिट्टी धँसे नहीं। बीस-पच्चीस हाथ की गहराई तक जाते-जाते गर्मी
बढ़ती जाती है और हवा भी कम होने लगती है। तब ऊपर से मुडी-भर रेत तेजी से नीचे
फेंकी जाती है ताकि ऊपर की ताजा हवा नीचे जा सके और गर्म हवा बाहर आ सके। चेजारो
सिर पर काँसे, पीतल या किसी अन्य धातु का एक बर्तन टोप की तरह पहनते हैं ताकि ऊपर
से रेत, कंकड़-पत्थर से उनका बचाव हो सके। किसी-किसी स्थान पर ईंट की चिनाई से
नहीं रुकती तब कुंई को रस्से से 'बाँधा' जाता है। ऐसे स्थानों पर कई खौदने के
साथ-साथ खीप नामक घास का ढेर जमा कर लिया खुदाई शुरू होते ही तीन अंगुल मोटा रस्सा
बनाया जाता है। एक दिन में करीब दस हाथ की गहरी खुदाई होती है। इसके तल पर दीवार
के साथ सटाकर रस्से का एक के ऊपर एक गोला बिछाया जाता है और रस्से का आखिरी छोर
ऊपर रहता है। अगले दिन फिर कुछ हाथ मिट्टी खोदी जाती है और रस्से की पहली दिन जमाई
गई कुंडली दूसरे दिन खोदी गई जगह में सरका दी जाती है। बीच-बीच में जरूरत
होने पर चिनाई भी की जाती है।
कहीं-कहीं न तो ज्यादा पत्थर मिलता है और ना खींप ही। ऐसी
जगहों पर भीतर की चिनाई लकड़ी के लंबे लट्ठों से की जाती है लड्डे अरणी, बण, बावल
या कुंबट के पेड़ों की मोटी टहनियों से बनाए जाते हैं। इस काम के लिए सबसे अच्छी
लकड़ी अरणी की मानी जाती है, परंतु इन पेड़ों की लकड़ी न मिले तो आक तक से भी काम
किया जाता है।
इन पेड़ों के लड्ढे नीचे से ऊपर की ओर एक-दूसरे में फँसा कर
सीधे खड़े किए जाते हैं। फिर इन्हें खींप की रस्सी से बाँधा जाता है। यह बँधाई भी
कुंडली का आकार लेती है। इसलिए इसे 'साँपणी' भी कहते हैं। खड़िया पत्थर की पट्टी
आते ही सारा काम रुक जाता है और इस क्षण नीचे धार लग जाती है। चेजारो ऊपर आ जाते
हैं और कुंई बनाने का काम पूरा हो जाता है।
3. 'चेजारो' किन्हें कहा जाता
है? इनके द्वारा तैयार की गई कुंई और कुएँ में समानता और असमानता स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः- चेजारो का ही दूसरा नाम चेलवांजी है। ये लोग कंई की खुदाई
और एक विशेष तरह की चिनाई करने वाले दक्षतम लोग हैं। चेजारो जिस कुंई को बनाते
हैं, वह कुएँ की अपेक्षा व्यास में छोटी होती है परंतु गहराई मै कुएँ के समान ही
होती है। कुंई एक अन्य रूप में कुएँ से अलग होती है। कुएँ से तो पाताल जल यानी
भूमिगत जल प्राप्त किया जाता है जबकि कुंई से भूमि मैं एकत्रित वर्षा जल प्राप्त
किया जाता है। भूजल मिलते ही कुएँ का निर्माण पूरा हो जाता है परंतु कुंई भूमिजल
से उस तरह नहीं जुड़ती, जिस तरह कुआँ जुड़ता है। वर्षा होने अथवा न होने की दशा
में कंई वर्षा कै जल को अत्यंत विचित्र ढंग से समेटती है। इसमें न तो सतह पर बहने
वाला जल होता है और न सतह पर एकत्रित भूजल । इसमें पानी के एकत्र होने का मामला
कुछ पेचीदी ही है। कई बनाने के लिए खड़िया पट्टी का होना अतिआवश्यक है जो केवल
भूगर्भशास्त्री ही बता सकते हैं जबकि, कुएँ के लिए यह जरूरी नहीं है। कंई मीठे
पानी का संग्रह स्थल होता है जबकि कुआँ प्रायः खारे पानी का स्रोत होता है। इस तरह
कएँ और कई में कुछ समानता है तो ढेर सारी असमानताएँ भी होती हैं।
JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)
विषय सूची
आरोह भाग-1 | |
पाठ सं. | अध्याय का नाम |
काव्य-खण्ड | |
1. | |
2. | |
3. | |
4. | |
5. | |
6. | 1. हे भूख ! मत मचल, 2. हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर- अक्कमहादेवी |
7. | |
8. | |
गद्य-खण्ड | |
1. | |
2. | |
3. | |
4. | |
5. | |
6. | |
7. | |
8. | |
वितान | |
1. | |
2. | |
3. | |
4. | |
अभिव्यक्ति और माध्यम | |
1. | |
2. | |
3. | |
4. | |
5. | |
6. | |