मुद्रावादी धारणा (Monetarist Concept)
केन्स की विरोधी विचारधारा
प्रश्न. केन्स के अर्थशास्त्र के संकटकाल तथा मुद्रावाद के
पुनर्जागरण या पुनर्जन्म की व्याख्या करें ?
→ केन्स के रोजगार तथा आय सिद्धांत के विरोध में विकसित हुई विभिन्न धारणाओं की व्याख्या कीजिए ?
उत्तर
- 1970 के दशक के अन्त तक अधिकांश अर्थशास्त्रियों द्वारा केन्स के दृष्टिकोण का विरोध किया
जाने लगा। इसका मुख्य कारण यह था कि केन्स की नीतियों के द्वारा मुद्रास्फीति को
नियंत्रित नहीं किया जा सकता था।
केन्स की विचारधारा में राजकोषीय नीति को अधिक
महत्त्वपूर्ण माना गया था। राजकोषीय नीति अर्थव्यवस्था को उत्तेजित करने में
प्रभावी हो सकती है, परन्तु मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में इसका अधिक महत्त्व
नहीं है। अर्थशास्त्रियों द्वारा यह भी अनुभव किया गया कि समष्टि आर्थिक नीतियों द्वारा
दीर्घकालीन आर्थिक विकास पर विशेष बल देना चाहिए, न कि अल्पकालिन आर्थिक स्थिरीकरण पर। इसलिए
सम्भावित उत्पादन में वृद्धि करने वाले कारको जैसे- बचत,
निवेश,
विनिमय सम्बन्धी सुधारो,
करो
में कमी, आदि पर अधिक ध्यान देना आवश्यक समझा गया।
केन्स की विचारधारा से पीछे
हटने के कारण समष्टि आर्थिक सिद्धांत में नये विचारों ने जन्म लिया। मुद्रावादी
धारणा के रूप में एक विचारधारा विकसित हुई। यह धारणा केन्स के सिद्धांतों
के समीप है परन्तु मुद्रा की भूमिका पर अधिक बल देती है तथा सक्रिय सरकारी
हस्तक्षेप से कतराती है। नूतन प्रतिष्ठित धारणा दूसरी विचारधारा है जो वहाँ से
शुरू होती है जहाँ पुराने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने छोड़ दिया था। तीसरी
विचारधारा ने 1980 के दशक में जन्म लिया जिसे पूर्ति पक्ष अर्थशास्त्र कहा जाने
लगा। इस धारणा ने प्रेरणाओं तथा निम्न करो पर विशेष बल दिया। व्यावहारिक क्षेत्र में
इसे भी कोई विशेष सफलता न मिलने के कारण अब आर्थिक विचारों में एक नया समन्वय जन्म
ले रहा है।
मुद्रावादी धारणा
मुद्रावाद
का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शिकागो विश्वविद्यालय के प्रो मिल्टन फ्रिडमैन
तथा उसके समर्थको द्वारा हुआ। मुद्रावाद के निम्न तीन मुख्य प्रस्ताव है
(1)
मौद्रिक राष्ट्रीय आय में अल्पकालीन परिवर्तन तथा कीमतों में दीर्घकालीन उतार-चढ़ाव
मुख्य रूप से मुद्रा द्वारा निर्धारित होते है। कुल उत्पादन, रोजगार तथा कीमते आदि
समष्टि चर मुद्रा की माँग से प्रभावित होते है। इस विश्वास का आधार उनकी दो मान्यताएं
है।
(a)
मुद्रा का चलन वेग स्थिर रहता है तथा
(b)
मुद्रा की मांग पर ब्याज दर
में परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
(2)
कीमतों और मजदूरी दरों में सापेक्ष परिवर्तनशीलता पायी जाती है। केन्स ने इन्हें स्थिर
माना था।
(3)
निजी क्षेत्र में स्थिरता पायी जाती है।
समष्टि
चरो में उतार-चढ़ाव का प्रमुख कारण मुद्रा की पूर्ति में अनियत वृद्धि मानने के बावजूद
मुद्रावादी अर्थशास्त्री विवेचनात्मक मौद्रिक नीति के पक्षधर नहीं है। वे मौद्रिक नियम
की बात करते है तथा मौद्रिक लक्ष्य निर्धारण के द्वारा मुद्रा की पूर्ति में 3 से
5 प्रतिशत तक की वार्षिक वृद्धि का समर्थन करते है। इससे स्थिर आर्थिक विकास के साथ
साथ दीर्घकालीन कीमत स्थिरता प्राप्त होगी। मुद्रावादी सक्रिय सरकारी हस्तक्षेप का
विरोध करते हैं। निजी क्षेत्र की स्थिरता में विश्वास रखने के कारण उनकी व्याख्या व्यापारियों
की मुद्रा की माँग पर लागू नहीं होती है।
केन्स
द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण में कुल माँग तथा कीमतों के निर्धारण में मुद्रा को एक कारक
माना गया है, परन्तु यह ब्याज दरों के
माध्यम से अपना प्रभाव उत्पन्न करती है। मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होने पर पहले
ब्याज दरे कम होती है जिनसे निवेश बढ़ता है तथा कुल माँग में वृद्धि होती है जिसके
प्रभाव में कीमते बढ़ती है।
केन्स ने ऐसी दो स्थितियों की कल्पना की थी जब उपरोक्त श्रृंखला टूट भी सकती है। तरलता
जाल की स्थिति में सारी नयी मुद्रा नकदी के रूप में रख ली जायेगी । निवेश की मांग ब्याज-निरपेक्ष
होने पर
भी उपरोक्त श्रृंखला टूट
सकती है। इसके विपरीत, फ्रिडमैन
तथा अन्य मुद्रावादियों
की व्याख्या में मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होने पर कीमते तथा आय स्तर प्रत्यक्ष
रूप से कुल माँग में वृद्धि के द्वारा प्रभावित होते है। तरलता जाल तथा निवेश की बेलोच माँग जैसे कारण इसे रोक नहीं
पाते है।
अधिकांश
मुद्रावादी केन्स के इस विचार से सहमत है कि विस्तारात्मक समष्टि
आर्थिक नीति से राष्ट्रीय उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि की जा सकती है, जिससे शिथिलता
की स्थिति से बाहर निकला जा सकता है। इस उद्देश्य से केन्स ने विस्तारात्मक राजकोषीय
नीति (सरकारी व्यय में वृद्धि तथा करो में कमी) का समर्थन किया था और मौद्रिक नीति
को तरलता जाल तथा बेलोच निवेश की सम्भावनाओं के कारण महत्त्व नहीं दिया था। इसके विपरीत,
मुद्रावादी शिथिलता समाप्त करने तथा रोजगार में वृद्धि लाने के लिए विस्तारात्मक मौद्रिक
नीति का समर्थन करते है। मुद्रा
की पूर्ति बढ़ने पर प्रत्यक्ष रूप
में कुल माँग बढ़ती है तथा लोग बढ़ी हुई मुद्रा का व्यय करते है।
यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि अधिकांश मुद्रावादी शिथिलता
समाप्त करने के लिए सक्रिय मौद्रिक नीति अपनाने का विरोध करते है। इसके दो कारण
बताये जाते है। प्रथम कीमतो तथा मजदूरी दरो में इतनी लचक है कि पूर्ण रोजगार साम्य
प्राप्त करने के लिए ये आसानी से नीचे आ जाते है। द्वितीय, सक्रिय मौद्रिक नीति
अपनाने पर मुद्रा का इतना अधिक प्रसार हो सकता है कि इससे मुद्रास्फीति की स्थिति
उत्पन्न हो जाय। दीर्घकाल में विकास तथा स्थिरता प्राप्त करने के उद्देश्य से एक
लक्ष्य के अन्तर्गत मुद्रा की पूर्ति में निश्चित वृद्धि की जानी चाहिए।
नूतन प्रतिष्ठित समष्टि अर्थशास्त्र
नूतन प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र का विकास शिकागो विश्वविद्यालय
के लुक्स, स्टेंडफोर्ड विश्वविद्यालय के सार्जेण्ट तथा हार्वर्ड विश्वविद्यालय के
बारो द्वारा किया गया है।
पुराने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियो के समान नूतन प्रतिष्ठित
अर्थशास्त्र भी इस मान्यता को स्वीकार करता है कि कीमते तथा मजदूरी परिवर्तनशील
है। लचीली कीमतों के कारण पूर्ति तथा मांग में शीघ्र ही सन्तुलन की स्थिति स्थापित
हो जाती है। लचीली मजदूरी के कारण श्रमिको की मांग इनकी पूर्ति के बराबर होती है
जिससे श्रम बाजार हमेशा सन्तुलन में रहता है।
नूतन प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र की एक नयी मान्यता यह है कि
लोग निर्णय करते समय सभी उपलब्ध जानकारी का उपयोग करते हैं। प्रतिष्ठित सिद्धांत
निश्चितता की स्थिति से सम्बन्धित है। जबकि व्यावहारिक जीवन में अनिश्चितत है। यह
निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि आगामी समय में कीमत क्या होगी। मौद्रिक मजदूरी
का निर्धारण बिना भविष्य में कीमतों को जाने कर लिया जाता है। इसका आधार लोगों की
आशंसाएँ है जोकि उपलब्ध सूचनाओं पर आधारित होती है। उपलब्ध जानकारी का उपयोग दो
बातो से प्रभावित होता है: सांख्यिकी तथा अनिश्चितता के अन्तर्गत लोगों का आचरण ।
लोगो की आशंसाएँ उपलब्ध सूचनाओं तथा सांख्यिकी पर आधारित होने के कारण विवेकपूर्ण
होती है, इसलिए इन्हे विवेकपूर्ण आशंसाएं कहा गया है।
विवेकपूर्ण आशंसा की अवधारणा इस तर्क पर आधारित है कि लोग
विवेकी है तथा वे सभी उपलब्ध सूचनाओं का उपयोग करते हैं। यह भी माना जाता है कि
व्यक्ति आर्थिक सिद्धांतो की मूल संरचना को भी समझता है, इसलिए उसकी आशंसा अथवा
पूर्वानुमान वही होगा जो अधिकांश व्यक्तियो का होता है। अर्थव्यवस्था की स्थिति
तथा प्रकृति के विषय मे लोग उतना ही जानते है जितना कि आर्थिक नीति के निर्धारक
अर्थात् सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक। चूंकि मौद्रिक नीति के निर्धारक सामान्य लोगो
से अधिक जानकारी नहीं रखते है इसलिए वे अर्थव्यवस्था में किसी भी वास्तविक परिमाण
(रोजगार, उत्पादन आदि) को प्रभावित नही कर सकते है। यह माना गया है कि मुद्रा
तटस्थ है तथा इसका वास्तविक प्रभाव नगण्य है। अल्पकाल में मुद्रा का प्रभाव केवल
कीमत पर पड़ता है, वास्तविक तत्वों के परिमाण पर नही। विवेकपूर्ण आशंसाओं के कारण
सरकार मौद्रिक नीति द्वारा लोगो के निर्णय तथा ब्याज दरो आदि को प्रभावित नही कर
सकती है। इस अवधारणा की यह मान्यता केन्स की विचारधारा तथा मुद्रावादी विचारधारा
दोनों से भिन्न है।
केन्स के अनुसार, जब प्रचलित मजदूरी पर मजदूर काम करना
चाहते है परन्तु उन्हें काम नहीं मिलता है तो इससे अनैच्छिक बेरोजगारी उत्पन्न
होती है। अधिकतर बेरोजगारी इसी प्रकार की होती है। इसके विपरीत, नूतन प्रतिष्ठित
अर्थशास्त्रियों की धारणा यह है कि अधिकांश बेरोजगारी ऐच्छिक है। मजदूरी तथा
कीमतों में लचक के कारण श्रम बाजार में श्रमिकों की मांग और पूर्ति में सन्तुलन
रहता है। यह तब भी सम्भव है जब वर्तमान कीमत अनुमानित कीमत से भिन्न होती है।
बेरोजगारी का कारण यह है कि श्रमिक उपलब्ध काम के बजाय और अधिक अच्छे अवसर की तलाश
करने लगते है। अत: बेरोजगारी ऐच्छिक है।
नूतन-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र गलत बोध को व्यापार चक्र की
कुंजी मानता है। मंदीकाल में बेरोजगारी का कारण यह है कि श्रमिक आर्थिक स्थिति को
ठीक से समझ नहीं पाते है। अधिक अच्छी नौकरी मिलने की आशा में वे स्वेच्छा से काम
छोड़ देते है, परन्तु ऐसा न हो पाने पर बेरोजगारों की संख्या बढ़ती है। समृद्धि
काल में मजदूरो में ऐसी भ्रान्ति होती है कि मजदूरी तथा कीमतों में वृद्धि के कारण
उन्हें अधिक मजदूरी मिल रही है। ऐसी स्थिति में मजदूरी की पूर्ति बढ़ती है तथा
बेरोजगारी घट जाती है।
लुक्स का पूर्ति फलन यह है कि जब कीमत स्तर प्रत्याशित से
अधिक है तो उत्पादन की पूर्ति बढ़ेगी और जब कीमत स्तर प्रत्याशित रूप से कम है तो
उत्पादन की पूर्ति कम होगी। फलन की व्याख्या स्तरो के रूप में की गयी है न कि
परिवर्तन की दर के रूप में। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि पूर्ति में कमी का कारण
आशंसाओ का पूरा न होना है। यदि आशंसाएँ सदैव पूरी होती रहे तो पूर्ति रेखा सदैव
खडे आकार की होगी। इसमे सरकारी नीतियों का कोई योगदान नहीं है। "विवेकपूर्ण
आशंसा तथा परिवर्तनशील मजदूरी और कीमतो की स्थिति में प्रत्याशित सरकारी नीति
वास्तविक उत्पत्ति या बेरोजगारी को प्रभावित नहीं कर पाती है"।
पूर्ति-पक्ष अर्थशास्त्र
पूर्ति-पक्ष का अर्थशास्त्र कुल माँग के बजाय कुल पूर्ति
तथा लागत को प्रभावित करने वाले कारणों को महत्त्व देता है। इस विचारधारा ने 1980
के दशक में जन्म लिया। इसके प्रतिपादको में मुख्य नाम आर्थर लाफेर, पॉल राबर्टस
तथा नॉरमन ट्यूर के है। अमेरिकी राष्ट्रपति रीगर (1981-89)
तथा ब्रिटिश प्रधानमन्त्री मार्गेट थैचर (1979-90) इसके समर्थक थे।
पूर्ति पक्ष अर्थशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित
है:-
(1) आर्थिक अस्थिरता की स्थिति का मुख्य कारण 'प्रतिकूल
पूर्ति झटके' माना गया न कि कुल माँग को प्रभावित करने वाले कारण ।
(2) राजकोषीय नीति के सम्बन्ध में अल्पकाल के बजाय मध्यमकाल
पर ध्यान दिया गया।
(3) आय, बचत, निवेश तथा श्रम की पूर्ति को प्रभावित करने के लिए आर्थिक
प्रेरणाओं को महत्त्वपूर्ण समझा गया।
(4) कर नीति के प्रभाव को श्रम एवं पूँजी के कर- पश्चात् आय के रूप
में देखा गया।
(5) कर की निम्न दर का समर्थन किया गया और यह माना गया कि कर
की निम्न दर से सरकार को अधिक राजस्व मिलता है। इसी सन्दर्भ में लाफेर वक्र की चर्चा
की गयी।
व्यावहारिक रूप में पूर्ति पक्ष नीति से उत्साहवर्धक परिणाम
नहीं मिले। उत्पत्ति की दर धीमी रही, बजट घाटा बढ़ गया तथा बचत की दर कम रही। कुछ वर्षों
में ही पूर्ति पक्ष अर्थशास्त्र क्षीण हो गया।
प्रतिष्ठित तथा केन्स की विचारधाराओं का समन्वय
आधुनिक समष्टि आर्थिक सिद्धांत प्रतिष्ठित तथा केन्स के सिद्धांतों
का समन्वित रुप प्रस्तुत करता है। इसमें केन्स के सिद्धांत मे से ये तत्त्व सम्मिलित
किये जाते है।
(ⅰ) वास्तविक तथा सम्भावित उत्पत्ति के बीच अन्तर,
(ii) वास्तविक उत्पत्ति की व्याख्या में कुल माँग दृष्टिकोण
की सहायता
(iii) कुल माँग के निर्धारण में उपभोग का महत्त्व ।
इन तत्त्वों को प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र के ब्याज-दर, निवेश,
मुद्रा तथा मजदूरी और कीमतों के निर्धारण से जोड़ा जाता है। इस प्रकार के समन्वय से
निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते है-
(1) अल्पकाल में रोजगार के ऊँचे स्तर को मुद्रास्फीति की
ऊँची दरो से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। कीमत स्थिरता तथा पूर्ण रोजगार की
प्राप्ति के लिए आर्थिक विस्तार की धीमी परन्तु दीर्घकालीन दर ही अधिक उपयुक्त है।
(2) अर्थव्यवस्था स्वचालित नहीं होती है और न ही पूर्ण रोजगार
की ओर स्वचालित प्रवृत्ति है। परन्तु मुक्त बाजार की शक्तियो को कार्य करने दिया
जाना चाहिए।
(3) केन्स के सिद्धांत में पीगू प्रभाव सम्मिलित करके यह
स्वीकार किया गया है कि निम्न रोजगार साम्य अपरिवर्तनशील मजदूरी की मान्यता पर
निर्भर करता है।
(4) मुद्रा की माँग की ब्याज लोच अधिक तथा निवेश की ब्याज
लोच कम होने के कारण मौद्रिक नीति बेरोजगारी दूर करने मे अधिक प्रभावपूर्ण नहीं
है।
(5) कुल माँग में वृद्धि करने के लिए राजकोषीय नीति की
भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
(6) मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखने के लिए मौद्रिक तथा राजकोषीय
नीतियों का समन्वित उपयोग आवश्यक होता है।
(7) भुगतान सन्तुलन में साम्यता बनाये रखी जाय, क्योंकि आन्तरिक
आर्थिक सन्तुलन तथा बाह्य सन्तुलन के बीच परस्पर निर्भरता रहती है।
(8) निवेश में वृद्धि के लिए निजी क्षेत्र में साहसियों को प्रोत्साहित
किया जाय।
वर्तमान समय में अधिकांश देशों में आर्थिक नीतियों का संचालन उपर्युक्त
तत्त्वों को ध्यान में रखकर ही किया जाता है।
Monetary Economics
व्यापार चक्र : प्रकृति, अवस्थाएं, विभिन्न सिद्धान्त एवं स्थिरीकरण नीति
मुद्रा की पूर्ति तथा उच्च शक्ति मुद्रा [SUPPLY OF MONEY AND HIGH POWERED MONEY]
Hawtrey's Pure Monetary Theory
मुद्रा का परिमाण सिद्धांत : फिशर दृष्टिकोण (Quantity Theory of Money : Fisher's Approach)
मुद्रा के परिमाण सिद्धांत कैम्ब्रिज समीकरण (Cash Balance Approach)
डॉन पैटिन्कीन का दृष्टिकोण या वास्तविक शेष प्रभाव (Patinkin's Real Balance Effect)
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बौमॉल, टॉबिन का मुद्रा की मांग दृष्टिकोण (Baumol, Tobin's money demand approach)
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Classical and Keynes Macro System
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भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास का इतिहास (HISTORY OF THE DEVELOPMENT OF INDIAN BANKING SYSTEM)