21. हजारी प्रसाद द्विवेदी
कवि- परिचय
1. हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले के 'आरत दुबे
का छपरा' नामक गाँव में 19 अगस्त 1907 ईस्वी में हुआ था। इनके बचपन का नाम
बैद्यनाथ द्विवेदी था।
2. इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी तथा माता का नाम ज्योतिष्मती
देवी था। इनके पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान तथा प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य थे।
3. द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में हुई।
तत्पश्चात् संस्कृत महाविद्यालय काशी से 1930 ईस्वी में शास्त्री और ज्योतिष की
उपाधि प्राप्त की।
4. 1940 से 1950 तक वह शांति निकेतन में हिंदी विभाग के
निदेशक रहे। यहां पर उन्हें गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर तथा आचार्य क्षितिमोहन सेन
का सान्निध्य प्राप्त हुआ। 1950 से 1960 तक वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में
हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे।
5. प्रमुख रचनाएं:- कबीर, हिंदी साहित्य
की भूमिका, सूरदास और उनका काव्य, सूर साहित्य, कालिदास की
लालित्य-योजना (आलोचना) ।
अशोक के फूल, विचार और वितर्क, कल्पलता, कुटज, आलोकपर्व
(निबंध-संग्रह)
चारु चंद्रलेखा, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का
पोथा (उपन्यास) आदि।
6. पुरस्कार- मंगला प्रसाद पुरस्कार, हिंदी साहित्य सम्मेलन
द्वारा 'साहित्य वाचस्पति' पुरस्कार, लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट् की उपाधि,
टैगोर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण पुरस्कार।
7. द्विवेदी जी का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। संस्कृत,
प्राकृत, अपभ्रंश, बांग्ला आदि भाषाओं तथा इतिहास, दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों
में उनकी विशेष गति थी। उन्होंने अपने साहित्य में भावात्मक, गवेषणात्मक, हास्य व्यंग्यपूर्ण
तथा आलंकारिक शैली का प्रयोग किया है। वे परंपरा के साथ आधुनिक प्रगतिशील मूल्यों के
समन्वय के पक्षधर थे। भाषा शैली की दृष्टि से द्विवेदी जी ने हिंदी की गद्य शैली को
एक नई दिशा प्रदान की है।
8. हिंदी साहित्य के इस महान विभूति का निधन 19 मई 1979 को दिल्ली
में हो गया।
पाठ-परिचय
'कुटज' ललित निबंध है। इसका केंद्र कुटज नाम का वृक्ष है जो
पुष्पों से भरा हुआ होता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के इस निबंध को उनकी आत्माभिव्यक्ति
के रूप में अधिक जाना जाता है। कुटज के माध्यम से द्विवेदीजी बहुत से महत्वपूर्ण बिंदुओं
की व्यंजना करते चलते हैं।
प्रारम्भ में द्विवेदी जी उस स्थल विशेष को प्रस्तुत करते हैं
जहाँ कुटज उगता है, पनपता है और पुष्पित पल्लवित होता है। वह स्थान है-शिवालिक श्रृंखला,
हिमालय की निचली पहाड़ियाँ। यह पर्वत श्रृंखला शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा माना
जाता है। जहाँ कुटज उगता है वहाँ की भूमि का वर्णन करते हुए लेखक
कहते हैं कि उस भूमि पर हरियाली नहीं है, दूब तक सुख गयी है, काली काली चट्टानों
के बीच केवल थोड़ी थोड़ी रेती है। इस विषम परिस्थिति में भी ये ठिगने से वृक्ष
गर्मी की भयंकर मार खा-खा कर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह कर भी जीते हैं।
कुटज की विशेषता है-अपराजेय जीवनी शक्ति। यह इसके नाम और
रूप दोनों में है। कालिदास को मेघ की अर्चना के लिए कुटज के पुष्प ही मिले थे।
उसका नाम हजारों वर्षों से जीवित रहा है। विपरीत और कठिन परिस्थितियों में भी वह
हँस कर जीता है। पत्थरों के भीतर पाताल से भी वह अपनी जड़ों के लिए पानी प्राप्त
कर लेता है जो उसके अदम्य जिजीविषा का प्रतीक है। कुटज हमें ये संदेश देता है कि
हमें निरंतर संघर्ष करते रहना चाहिए चाहे परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल।
कुटज कभी किसी के सामने भीख नहीं मांगता , भय नहीं मानता,
उपदेश नहीं देता, किसी की खुशामद नहीं करता। वह निर्लिप्त जीवन जीता है और हमें ये
संदेश देता है कि चाहे सुख हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाये उसे शान
से, हृदय से अपराजित हो कर ग्रहण करना है। कभी हार नहीं मानना है। जीवन में सुखी
वही है जो स्वस्थ है, दुखी वह है जो पराधीन है। पराधीनता में मनुष्य मिथ्याचार
करता है, परंतु कुटज सब मिथ्याचार से मुक्त एक वैरागी की भांति अविचल भाव से खड़ा
है। मनुष्य को कुटज के समान ही वैरागी बनना चाहिए। कुटज अपने मन पर स्वयं सवारी
करता है। मन को अपने ऊपर सवार नहीं होने देता। अपनी विशेषताओं और गुणों के कारण वह
सभी के लिए प्रेरणास्त्रोत है।
कुटज के बहाने से द्विवेदी जी मानव-प्रकृति और मानव धर्म के
ऐसे पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं जिनका मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास में
केंद्रीय महत्व है। वे जीवन में संघर्ष और प्रेम दोनों को समान महत्व देते थे।
अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने कुटज के माध्यम से व्यक्त किया है। कुटज एक अल्प
परिचित प्रकृति का रूप, लेकिन जो किसी यश और अर्थ की कामना के बिना, किसी के आगे
नतमस्तक हुए बिना अपने जीवन के लिए रस ग्रहण करता है और इस संघर्षधर्मी जीवन से जो
सौंदर्य वह सृष्टि को प्रदान करता है, उसका महत्व शब्दों में बयान नहींकिया जा
सकता है। द्विवेदीजी ने इसी बात को इस निबंध के माध्यम से कहा है।
शब्दार्थ
बेरुखी = उपेक्षा।
बेकद्रदानी = कद्र न करना।
चपत = थप्पड़।
झुंझलाए = खीझ से भरे।
सेंहुड़ = एक ठिगना वृक्ष।
करीर = करील ।
गोया = मानों।
अदना सा = छोटा सा।
कुट = घड़ा।
अगस्त्य = एक मुनि का नाम (इनका एक नाम कुटज भी है)।
कुटहारिका = घर में काम करने वाली दासी।
कुटकारिका = झाडू-पोंछा करने वाली दासी (सेविका) ।
कुटीर = घर (कुटिया) ।
कुट्टनी = ऐसी दासी जो किसी स्त्री को फुसलाकर उसे किसी के
प्रति प्रेम हेतु विवश करती है।
सैलानी = यात्री।
विचारोत्तेजक = विचार को उत्तेजना देने वाला (सोचने को
बाध्य करने वाला) ।
भाषाशास्त्री = भाषा शास्त्र को जानने वाला (भाषा विज्ञानी)
।
सिलवाँ लेवी = एक पाश्चात्य भाषाशास्त्री।
आग्नेय भाषा परिवार = दक्षिण पूर्व देशों की भाषाओं का
परिवार।
संबद्ध = मिलनी-जुलती (जुड़ी हुई) ।
अविच्छेद्य = विच्छेद रहित (जुड़े हुए) ।
तांबूल = पान।
कंबु = शंख।
अपराजेय = जिसे पराजित न किया जा सके।
स्फीयमान = फैलती हुई।
बलिहारी = न्योछावर।
मादक = मदभरी।
कुपित = क्रुद्ध ।
दारुण = भयंकर।
निःश्वास = बाहर निकली सांस।
लू = गर्म हवा।
दुर्जन = दुष्ट ।
कारा = जेल।
रुद्ध = बंद ।
जलस्रोत = पानी का झरना।
सरस = हरा-भरा।
गिरिकांतार = पर्वतीय जंगल।
पुलकित = प्रसन्न ।
हिमाच्छादित = बर्फ से ढकी।
पर्वत नंदिनी सरिताएँ= पर्वत से उत्पन्न नदियाँ।
मूर्धा = मस्तक।
पुष्पस्तबक = फूलों के गुच्छे।
भित्त्वा = भेदकर।
छित्त्वा = छेदकर।
प्राभंजनी = तूफानी हवाओं।
पीत्वा = पीकर।
नभः = आकाश।
दुरंत = प्रबल (जिसका पार पाना कठिन हो)।
याज्ञवल्क्य = एक ऋषि (इनकी दो पत्नी थी- मैत्रेयी और कात्यायनी)
।
आत्मनस्तु = अपने लिए।
जिजीविषा = जीवित रहने की इच्छा।
शत्रुमर्दन = शत्रु को कुचल देना।
अभिनय = नाटक।
अन्तरतर = भीतर से।
समष्टि-बुद्धि = वह बुद्धि जो अपने में सबको और सब में अपने
को देखती है।
दलित द्राक्षा = कुचले हुए अंगूर।
तृष्णा = असंतोष।
कार्पण्य = कृपणता, कंजूसी।
हृदयेनापराजितः = हृदय कभी पराजित न हो।
अकुतोभया = कभी भी भयभीत न होने की वृत्ति (स्वभाव) ।
अपकार = बुराई।
विकल्प = किसी एक का चयन करने की वृत्ति।
दाँत निपोरना = खुशामद करना।
चाटुकारिता = जी हुजूरी करना।
छंदावर्तन = दोष निकालना।
आडम्बर = ढोंग।
मिथ्याचारों = झूठा आचरण।
मनस्वी = मननशील
प्रश्न अभ्यास
1. कुटज को 'गाढ़े के साथी' क्यों कहा गया
है?
उत्तर:-'गाढ़े का साथी' का तात्पर्य है कठिन समय में साथ
देने वाला। गरमी में जब कोई और फूल पुष्पित दिखाई नहीं देता तब कुटज ही खिला रहता
है। कालिदास ने अपने काव्य 'मेघदूत' में लिखा है कि जब रामगिरि पर रहने वाले यक्ष
ने अपनी प्रिया के पास सन्देश भेजने हेतु 'मेघ' को तैयार किया तो उसे कुटज पुष्प
अर्पण किया। जब कोई दसरा पुष्प उपलब्ध नहीं था, तब कुटज ही काम आया।
इस कारण द्विवेदी जी ने उसे गाढ़े का साथी कहा है।
2. 'नाम' क्यों बड़ा है? लेखक के विचार अपने शब्दों
में लिखिए।
उत्तर:-नाम बड़ा है या रूप? इस प्रश्न पर विचार करते हुए
लेखक कहता है कि जब तक नाम रूप से पहले हाजिर न हो जाए तब तक रूप की पहचान अधूरी
रह जाती है। नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। बल्कि इसलिए बड़ा है क्योंकि
उससे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या स्थान की पहचान
उसके समाज स्वीकृत नाम से ही होती है। नाम इसीलिए रूप से बड़ा है। तुलसी ने भी कहा
है - कहियत रूप नाम आधीना।
3. 'कुट', 'कुटज' और 'कुटनी' शब्दों का
विश्लेषण कर उनमें आपसी सम्बन्ध स्थापित कीजिए।
उत्तर:-' कुट' का अर्थ होता है-घड़ा और घर।
' कुटज' का अर्थ होता है-घड़े से उतपन्न तथा 'कुटनी' का
अर्थ होता है-बुरी दासी या विषम परिस्थिति को उत्पन्न करने वाली परिचारिका। इस
प्रकार से कहा जा सकता है कि 'कुट', 'कुटज' और 'कुटनी' एक ही मूल शब्द से उत्पन्न
हैं।
4. कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति
की घोषणा करता है?
उत्तरः-कुटज विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहकर अपनी
अपराजेय जीवनी शक्ति की घोषणा करता है। कठोर पाषाण को भेदकर, झंझा-तूफान को रगड़कर
अपना भोजन प्राप्त कर लेता है और भयंकर लू के थपेड़ों में भी सरस बना रहता है,
खिला रहता है। प्राण ही प्राण को पुलकित करता है। जीवनी-शक्ति ही जीवनी शक्ति को
प्रेरणा देती है। कुटज की यही अपराजेय जीवनी- शक्ति हमें उल्लासपूर्वक जीने की
प्रेरणा देती है। चाहे सुख हो या दुःख, अपराजित होकर उल्लास विकीर्ण करते हुए
जीवित रहें यही कुटज का सन्देश है।
5. 'कुटज' हम सभी को क्या उपदेश देता है ?
टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:- कुटज हम सभी को अपराजेय जीवनी-शक्ति का उपदेश देता है। कठिन परिस्थितियों में भी
जिजीविषा के बल पर कुटज न केवल जी रहा है अपितु हँस भी रहा है। न वह किसी को
अपमानित करता है न ग्रहों की खुशामद करता है। वह अवधूत की भाँति कह रहा है चाहे
सुख हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाए उसे अपराजित रूप से ग्रहण करो,
हार मत मानो।
6. कुटज के जीवन से हमें क्या सीख मिलती है?
उत्तर:- कुटज भयानक लू में भी सूखता नहीं। उसकी जड़ें पाषाण
को भेदती हुई पाताल से अपना भोजन खींच लाती हैं। झंझा तूफान को रगड़कर नमी खींच
लेती हैं। उसकी दुरंत जीवनी-शक्ति हमें जीने की कला सिखाती है। जियो तो प्राण ढाल
दो जिन्दगी में। आकाश को चूमकर अवकाश की लहरों में झूमकर उल्लास खींच लो, यही सीख
हमें कुटज के जीवन से मिलती है। इसलिए कुटज को गाढ़े का साथी भी कहा गया है।
7. कुटज क्या केवल जी रहा है - लेखक ने यह
प्रश्न उठाकर किन मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है?
उत्तर:- कुटज केवल जी ही नहीं रहा, उल्लास के साथ जी रहा
है। कुटज के माध्यम से लेखक ने अनेक मानवीय कमजोरियों को उजागर करते हुए उन पर
विजय पाने की प्रेरणा दी है। मानव लालची होता है और इस लालच के कारण ही दाँत
निपोरता है, दूसरों की खुशामद करता है, तलवे चाटता है। जिसने अपने मन पर अधिकार कर
लिया, लालच को जीत लिया उसे दूसरों की खुशामद करने की आवश्यकता नहीं। मनुष्य ही
दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद करता है, आत्मोन्नति के लिए
अंगूठियों की लड़ी पहनता है किन्तु कुटज मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार
नहीं होने देता। अतः वह धन्य है।
8. लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी
बढ़कर, जिजीविषा से भी प्रचण्ड कोई न कोई शक्ति अवश्य है ? उदाहरण सहित उत्तर
दीजिए।
उत्तर:- लेखक का मत है कि स्वार्थ से भी
बढ़कर और जिजीविषा से भी प्रचण्ड कोई न कोई शक्ति अवश्य है।
मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं जी रहा अपितु इतिहास-विधाता की इच्छा और योजना के
अनुसार जी रहा है। जब व्यक्ति स्वयं को दलित द्राक्षा की तरह निचोड़कर 'सर्व' के
लिए न्योछावर कर देता है तभी उसे आनन्द की प्राप्ति होती है किन्तु जब तक वह
स्वार्थ दृष्टि से देखता है, तब तक वह तृष्णा से ग्रस्त रहता है, कृपणता से युक्त
रहता है और उसकी दृष्टि मलिन हो जाती है। ऐसी स्थिति में न उसका स्वार्थ सिद्ध
होता है, न परमार्थ।
9. 'कुटज' पाठ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि
'दुख और सुख तो मन के विकल्प हैं।'
उत्तरः- व्यक्ति का सुख-दुःख इस बात पर निर्भर रहता है कि
मन पर उसका नियन्त्रण है या नहीं। सुख और दुःख का चयन मन ही करता है। यदि हम सुखी
रहना चाहते हैं तो मन को अपने वश में कर लें। जिसने मन पर नियन्त्रण कर लिया उसे न
तो किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ता है और न ही किसी की खुशामद या जी-हजूरी करनी
पड़ती है। दूसरी ओर जिसका मन वश में नहीं है, जो लोभ लालच एवं स्वार्थ से घिरा हुआ
है, उसे दुःखी रहना पड़ेगा। लेखक कहता है कि मैं तो उसी को सुखी मानता हूँ जो मन
पर सवारी करता है, मन को नियन्त्रण में रखना जानता है। कुटज इसलिए सुखी है क्योंकि
वह मन पर सवार है, मन को अपने ऊपर सवार नहीं होने देता।
10. निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग
व्याख्या कीजिये-
(क) कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें
काफी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्वर से
अपना भोग्य खींच लाते हैं।'
उत्तर:- प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी के ललित निबन्ध 'कुटज' से ली गई हैं। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक
'अन्तरा भाग - 2' में संकलित किया गया है। कुटज के ये वृक्ष भरी गरमी में सरस,
हरे-भरे और फूलों से लदे रहते हैं। इसका कारण है कि इनकी जड़ें बहुत गहरी होती
हैं। इसी विषय में यहाँ बताया गया है।
व्याख्या कभी-कभी ऊपर से जो लोग बेहया-बेशर्म दिखते हैं उनकी जड़ें
बहुत गहरी होती हैं। 'ऊपर से बेहया दिखने' का तात्पर्य है बहिर्मुखी व्यक्तित्व
वाला। बहिर्मुखी व्यक्तित्वधारी की जीवनी शक्ति प्रबल होती है। वह प्रत्येक
परिस्थिति में स्वयं को दुरुस्त कर लेता है। कुटज भी एक ऐसा ही वृक्ष है जिसकी
जड़ें बहुत गहरायी तक जाती हैं और पत्थर को फोड़कर न जाने किस अतल गहराई से अपना
भोजन रस खींच लाती हैं। यही कारण है कि भरी गरमी में भी यह वृक्ष हरा-भरा रहता है।
(ख) 'रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को
कहते हैं जिप पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे 'सोशल सेक्शन'
कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा
प्रमाणित, समष्टि- मानव की चित्त गंगा में स्नात!'
उत्तरः- प्रसंगः- प्रस्तुत पंक्तियाँ 'कुटज'
नामक निबन्ध से ली गयी हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
का यह ललित निबंध हमारी पाठ्य पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है। क्या हम किसी
वस्तु का नया नाम रख सकते हैं? इस प्रश्न पर विचार करते हुए लेखक यह निष्कर्ष
निकालता है कि नया नाम दे पाना इसलिए सम्भव नहीं है कि नाम से ही पहचान जुड़ी होती
है तथा नाम समाज द्वारा स्वीकृत होता है। जब तक हम किसी का समाज-स्वीकृत नाम न जान
लें तब तक उसकी पहचान पूरी नहीं होती।
व्याख्या :-
लेखक कहता है कि इस वृक्ष का नाम मुझे याद नहीं आ रहा अतः इसे पहचान पाना भी सम्भव
नहीं हो रहा। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि नाम बड़ा है, रूप नहीं। समाज में
उसकी पहचान इस नाम से ही है, इसीलिए नाम बड़ा है। रूप का सम्बन्ध व्यक्ति से है
किन्तु नाम समाज की सम्पत्ति है।
किसी व्यक्ति विशेष का नाम व्यक्तिगत सत्य नहीं सामाजिक
सत्य है। समाज ने ही उसे वह नाम दिया है और समाज उसे उस नाम से ही पहचानता है। इसी
को 'सोशल सेक्शन' या सामाजिक स्वीकृति कहा जाता है। किसी को भी यह अधिकार नहीं है
कि वह उस समाज द्वारा स्वीकृत नाम को बदल दे। ऐसा करने पर तो उसकी पहचान ही लुप्त
हो जायेगी। यही कारण है कि लेखक का मन इस वृक्ष के उस नाम को जानने के लिए व्याकुल
है जो समाज द्वारा स्वीकृत है तथा समाज रूपी मानव की चित्तरूपी गंगा में स्नान किए
हुए है।
विशेष :-
नाम इसलिए बड़ा है क्योंकि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। जिस वृक्ष को समाज
'आम' के वृक्ष के रूप में जानता है, उसका नाम बदलने का अधिकार किसी को नहीं है।
लेखक ने 'सोशल सेक्शन' जैसे अंग्रेजी भाषा के शब्द का
प्रयोग भी किया है।
भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहपूर्ण है जिसमें तत्सम शब्दों की
प्रमुखता है।
विवेचनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
(ग) 'रूप की तो बात ही क्या है। बलिहारी है इस मादक शोभा
की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और
भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात
जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।'
उत्तरः- प्रसंगः- प्रस्तुत गद्यावतरण 'कुटज'
नामक ललित निबन्ध से लिया गया है जिसके लेखक आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी हैं। यह निबन्ध हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग- 2' में संकलित
है। इस अवतरण में लेखक ने कुटज की अपराजेय जीवनी शक्ति से मानव को शिक्षा लेने की
प्रेरणा दी है। विपरीत परिस्थितियों में भी यह हरा-भरा और प्रफुल्ल है। मनुष्य को
इससे सीख लेनी चाहिए और निरन्तर अपनी जिजीविषा को बनाये रखना चाहिए यही कुटज का
सन्देश है।
व्याख्या :-
लेखक कहता है कि जब चारों ओर भयंकर गर्मी में धधकती हुई लू यमराज की क्रुद्ध सांसों
जैसी चलती है, तब भी यह हरा-भरा बना रहता है। कोई दूसरा वृक्ष उस प्रचण्ड ताप को
सहन नहीं कर पाता किन्तु कुटज है कि इन विपरीत परिस्थितियों में भी मस्ती के साथ
लहराता हुआ खड़ा रहता है। यही नहीं अपितु इसकी जड़ें उस पत्थर को भी फोड़ डालती
हैं जो दुष्टों के चित्त से भी अधिक कठोर हैं और अत्यन्त गहराई में जाकर उस जल
स्रोत तक पहुँच जाती हैं, जो अतल गहराई में पाषाण की कारा में निरुद्ध है।
ये जड़ें वहाँ तक जाकर बलपूर्वक भोज्य सामग्री एवं जल खींच
लाती हैं। इसीलिए इस भीषण गर्मी में भी यह हरा-भरा दीख रहा है। कुटज की इस मस्ती
को देखकर लेखक को इससे ईर्ष्या होती है। वह उसकी प्रबल जीवनी शक्ति की प्रशंसा
करता है। निश्चय ही कुटज के ये गुण मानव के लिए प्रेरणाप्रद, एवं अनुकरणीय हैं।
विशेष :
1. इस अवतरण में लेखक ने आलंकारिक भाषा का उपयोग किया है। ऐसे कुछ आलंकारिक कथन
हैं -
(अ) कुपित यमराज के दारुण निःश्वास के समान धधकती.लू-उपमा
अलंकार।
(ब) दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की
कारा-व्यतिरेक अलंकार।
2. कुटज की अपराजेय जीवनी शक्ति की प्रशंसा करते हुए उससे
प्रेरणा लेने का उपदेश दिया गया है।
3. संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली से युक्त भाषा का प्रयोग इस
अवतरण में है।
4. भावात्मक शैली के साथ-साथ सूक्तिपरक वाक्यों का प्रयोग
भी यहाँ किया गया है।
(घ) हृदयेनापराजितः कितना विशाल वह हृदय होगा जो सुख से,
दुख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलति न होता होगा! कुटज को देखकर रोमांच हो आता है।
कहाँ से मिलती है यह अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन दृष्टि।'
उत्तर:- प्रसंगः- प्रस्तुत गद्यांश हमारे
पाठ्यपुस्तक 'अंतरा-2' में संकलित 'कुटज' से संकलित हैं।
इसके रचयिता हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। इस अंश में लेखक जीवन संघर्ष तथा
जीवन-शक्ति का प्रतीक कुटज वृक्ष को मानते हुए अपने मनोभावों को प्रकट कर रहा है-
व्याख्या:-
लेखक कुटज की जिजीविषा देखकर कहता है कि जो हृदय से पराजित नहीं होता है, वह कितने
बड़े हृदय वाला होगा? क्योंकि सुख-दुख, प्रिय-अप्रिय से जो विचलित नहीं होता व्ह
स्थिर मन वाला ही होता है। इसलिए कुटज को देखकर मन प्रसन्नता से रोमांचित हो उठता
है। इस कुटज को यह निडर भावना कहाँ से प्राप्त हुई? उसका न हारनेवाले स्वभाव,
विचलित न होने वाली जीवनदृष्टि वाकई में सराहनीय है।
विशेष:-
1. लेखक ने कुटज में कुट-कूटकर भरी हुई निडरता की प्रवृत्ति तथा कभी न हार मानने
वाले स्वभाव की जमकर सराहना की है।
2. लेखक ने कुटज की विशेषताओं के द्वारा आम जन को उससे
प्रेरणा लेने के लिए प्रेरित किया है।
3. भाषा में तत्सम शब्दों की बहुलता है।
4. विवेचनात्मक शैली है।
JCERT/JAC REFERENCE BOOK
Hindi Elective (विषय सूची)
भाग-1 | |
क्रं.सं. | विवरण |
1. | |
2. | |
3. | |
4. | |
5. | |
6. | |
7. | |
8. | |
9. | |
10. | |
11. | |
12. | |
13. | |
14. | |
15. | |
16. | |
17. | |
18. | |
19. | |
20. | |
21. | |
भाग-2 | |
कं.सं. | विवरण |
1. | |
2. | |
3. | |
4. |
JCERT/JAC Hindi Elective प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)
विषय सूची
अंतरा भाग 2 | ||
पाठ | नाम | खंड |
कविता खंड | ||
पाठ-1 | जयशंकर प्रसाद | |
पाठ-2 | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | |
पाठ-3 | सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय | |
पाठ-4 | केदारनाथ सिंह | |
पाठ-5 | विष्णु खरे | |
पाठ-6 | रघुबीर सहाय | |
पाठ-7 | तुलसीदास | |
पाठ-8 | मलिक मुहम्मद जायसी | |
पाठ-9 | विद्यापति | |
पाठ-10 | केशवदास | |
पाठ-11 | घनानंद | |
गद्य खंड | ||
पाठ-1 | रामचन्द्र शुक्ल | |
पाठ-2 | पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी | |
पाठ-3 | ब्रजमोहन व्यास | |
पाठ-4 | फणीश्वरनाथ 'रेणु' | |
पाठ-5 | भीष्म साहनी | |
पाठ-6 | असगर वजाहत | |
पाठ-7 | निर्मल वर्मा | |
पाठ-8 | रामविलास शर्मा | |
पाठ-9 | ममता कालिया | |
पाठ-10 | हजारी प्रसाद द्विवेदी | |
अंतराल भाग - 2 | ||
पाठ-1 | प्रेमचंद | |
पाठ-2 | संजीव | |
पाठ-3 | विश्वनाथ तिरपाठी | |
पाठ- | प्रभाष जोशी | |
अभिव्यक्ति और माध्यम | ||
1 | ||
2 | ||
3 | ||
4 | ||
5 | ||
6 | ||
7 | ||
8 | ||
Class 12 Hindi Elective (अंतरा - भाग 2)
पद्य खण्ड
आधुनिक
1.जयशंकर प्रसाद (क) देवसेना का गीत (ख) कार्नेलिया का गीत
2.सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (क) गीत गाने दो मुझे (ख) सरोज स्मृति
3.सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय (क) यह दीप अकेला (ख) मैंने देखा, एक बूँद
4.केदारनाथ सिंह (क) बनारस (ख) दिशा
5.विष्णु खरे (क) एक कम (ख) सत्य
6.रघुबीर सहाय (क) वसंत आया (ख) तोड़ो
प्राचीन
7.तुलसीदास (क) भरत-राम का प्रेम (ख) पद
8.मलिक मुहम्मद जायसी (बारहमासा)
11.घनानंद (घनानंद के कवित्त / सवैया)
गद्य-खण्ड
12.रामचंद्र शुक्ल (प्रेमघन की छाया-स्मृति)
13.पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी (सुमिरिनी के मनके)
14.ब्रजमोहन व्यास (कच्चा चिट्ठा)
16.भीष्म साहनी (गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात)
17.असगर वजाहत (शेर, पहचान, चार हाथ, साझा)
18.निर्मल वर्मा (जहाँ कोई वापसी नहीं)
19.रामविलास शर्मा (यथास्मै रोचते विश्वम्)
21.हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (कुटज)
12 Hindi Antral (अंतरा)
1.प्रेमचंद = सूरदास की झोंपड़ी
3.विश्वनाथ त्रिपाठी = बिस्कोहर की माटी